हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 50 – चाय, चमचा और चुटकी नमक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चाय, चमचा और चुटकी नमक)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – चाय, चमचा और चुटकी नमक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कहते हैं कि अगर आपकी चाय में नमक पड़ जाए तो या तो आप बहुत बड़े नेता बनने वाले हैं, या फिर किसी ने आपके जीवन की मिठास में सेंध लगा दी है। मेरे मोहल्ले के शशिकांत जी ने दोनों कर डाले – नेता भी बन गए और मोहल्ले की बहुओं की आँखों से गंगाजल भी बहवा दिया। वो जब सुबह-सुबह अपनी बीवी को “गुड मॉर्निंग” कहते थे तो बीवी नमकदानी फेंक देती थी – “तुमसे तो गुडनाइट ही बेहतर है।” मोहल्ले में कोई मरता, तो शशिकांत जी सांत्वना देने से पहले पूछते, “मौत अचानक हुई या रूटीन की?” उनके चेहरे पर हमेशा एक स्थायी व्यंग्य होता – मानो जिंदगी को उन्होंने ईएमआई पर ले रखा हो।

पिछले महीने उन्होंने समाज सेवा का नया स्टार्टअप खोला – ‘चाय विद चुटकी’। उद्देश्य था – “एक कप में समाज की सारी समस्याओं को घोलना और फिर उसे गर्मागरम परोस देना।” लेकिन पहले ही दिन समस्या घुल नहीं पाई, चाय में नमक घुल गया। वो चाय पीने वालों से बोले, “भाइयों और बहनों, यह चाय नहीं, व्यवस्था का घड़ा है – पी जाओ, तभी तो सुधार होगा।” लोगों ने पिया… और उल्टी भी की। पर शशिकांत जी मुस्कराए – “क्रांति ऐसे ही होती है।”

हर मोहल्ले में एक चमचा होता है। पर शशिकांत जी के यहाँ तो चमचों की पूरी पंचायत थी – रामलाल, जमुना प्रसाद, और विमलेश। ये लोग हर बात पर ताली बजाते – “वाह साहब! आपने तो गधे को भी घोड़ा बना दिया!” शशिकांत जी मुस्कराते, “सही पकड़े हैं।” उन्होंने हर समस्या का हल चाय में ढूंढा – बेरोजगारी? एक चाय दो, नौकरी लग जाएगी। गड्ढों वाली सड़क? चाय पर चर्चा कर लो, सड़क तो न बदलेगी, मन जरूर बदल जाएगा। एक बार तो उन्होंने कहा – “जीडीपी गिर रही है? कोई बात नहीं, कप तो उठ रहा है न?” और पूरा मोहल्ला हँसते-हँसते रो पड़ा।

घर में शशिकांत जी के बच्चे उन्हें ‘पापा’ नहीं, ‘पब्लिक स्पीकर’ कहते थे। जब भी उनकी बेटी उनसे नए जूते मांगती, वो कहते – “बेटी, असली सुंदरता आत्मा की होती है, पैर की नहीं।” बेटे ने एक बार कहा, “पापा, स्कूल में सब मेरा मज़ाक उड़ाते हैं।” जवाब मिला – “तो क्या हुआ? मैं भी नेता बना हूं, मेरा भी मज़ाक उड़ता है, फिर भी जनता मुझे वोट देती है।” घर की रसोई में नमक खत्म हो जाए, तो शशिकांत जी कहते – “चलो बेटा, समाज को सुधारने चले चलते हैं, वापसी में नमक भी ले आएंगे।”

उनकी पत्नी – गीता देवी – अब तक तो भगवद्गीता की भी सारी शिक्षाएँ भूल चुकी थीं। कहती थीं, “जैसे कृष्ण ने अर्जुन को समझाया, वैसे ही मैं भी हर रोज इन्हें समझाती हूं – लेकिन ये महाभारत तो क्या, महाअव्यवस्था रचकर ही दम लेते हैं।” एक दिन गीता देवी ने गुस्से में कहा, “अब बस! या तो तुम, या चाय की दुकान।” शशिकांत जी बोले – “तो फिर मैं चाय को चुनता हूं।” और मोहल्ले में पहली बार तालियाँ नहीं, सिसकियाँ सुनाई दीं।

उनकी दुकान पर रोज़ नए-नए नारे लगते – “देश बदलेगा, जब चाय उबलेगा!” लेकिन धीरे-धीरे उनकी चाय में न नशा रहा, न चर्चा। ग्राहक कम हुए, और व्यंग्य ज्यादा। लोग कहते – “शशिकांत जी की चाय पीने से पेट तो नहीं भरता, पर दुख जरूर उबल जाता है।” एक दिन एक बूढ़ी अम्मा आईं, चाय पी और बोलीं – “बेटा, यह चाय नहीं, यह तो मेरी बुढ़ापे की दवा बन गई है।” और वहीं कुर्सी पर बैठकर रो पड़ीं। शशिकांत जी ने उन्हें देखा और पहली बार उनकी आँखों में व्यंग्य नहीं, पानी था।

समाज सुधारते-सुधारते शशिकांत जी अब खुद समाज की चाय बन चुके थे – जिसे कोई पीता नहीं, सिर्फ छोड़ देता है। एक दिन दुकान बंद मिली। दरवाज़े पर लिखा था – “अब न चाय बचेगी, न चुटकी नमक। समाज में सब कुछ नमकीन है, पर दिल अब बेस्वाद हो चुका है।” मोहल्ला ठहरा, लोग ठिठके – और पहली बार, उनकी गैर-मौजूदगी में शोर नहीं, सन्नाटा था।

शशिकांत जी अब नहीं हैं। कहते हैं, अंतिम समय में उन्होंने कहा – “मेरी अस्थियाँ किसी सरकारी गड्ढे में बहा देना… कम से कम वहाँ कुछ भराव तो होगा।” मोहल्ले में उनकी याद में एक पत्थर रखा गया – उस पर लिखा है – “यहाँ वो आदमी बैठता था, जो समाज को चाय के प्याले में घोलकर पी जाना चाहता था।”
हर शाम अब वहाँ लोग चुपचाप बैठते हैं – बिना चाय, बिना नमक – पर आँखों में नमी, और दिल में ‘उरतृप्त’ पीड़ा लिए हुए।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #212 – व्यंग्य- कभी आपको महसूस हुआ है डर का आतंकवाद? – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “कभी आपको महसूस हुआ है डर का आतंकवाद?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 211 ☆

☆ व्यंग्य- कभी आपको महसूस हुआ है डर का आतंकवाद? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

जब भी मैं ‘आतंकवाद’ शब्द सुनता हूँ, भीतर तक काँप उठता हूँ। मुझे अपने साथ हुए ‘आतंकवादी’ हादसे याद आ जाते हैं। भले ही सेना के एक नायक ने कहा हो कि इसमें आश्चर्य नहीं कि तीन आतंकवादियों ने सीधे 26 लोगों को गोली मार दी! कारण स्पष्ट है – हम प्रतिकार नहीं करते।

वे कहते हैं, कई सैनिक लड़ाई में जब स्पष्ट लक्ष्य नहीं होते, तब वे प्रतिरोध के कारण 20-25 गोलियाँ खाने के बावजूद जिंदा बच जाते हैं। उनकी यह बात याद आते ही मुझे मोहम्मद गौरी का आक्रमण याद आ जाता है, जिसने कुछ लोगों के बल पर हमारे मंदिर लूट लिए थे। यदि देखने वाले लोग उसके सैनिकों पर टूट पड़ते, तो सब मारे जाते।

मगर, तभी मुझे अपनी स्थिति का स्मरण हो आता है। भले ही सेनानायक ने उक्त बात कही हो, मैं भी इस आतंकवाद का शिकार रहा हूँ। चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया, क्योंकि मेरी मानसिकता ही ऐसी बन गई है। मेरा बेटा यह बात अच्छी तरह जानता था।

उसे पता था कि पापा को आतंकवाद कब दिखाना है। इस कारण वह अपनी एक माँग हमेशा तैयार रखता। जब भी घर में मेहमान आते, वह उसी माँग को लेकर जिद करने लगता। मैं मना करता, तो वह मेहमानों के सामने धूल-मिट्टी में लोटने लगता। नतीजतन, मुझे उसकी माँग पूरी करनी पड़ती।

मगर एक दिन मैंने ठान लिया कि अब उसके आतंकवाद को नहीं चलने दूँगा। इससे मुक्त होकर रहूँगा। अपने एक खास मित्र को मेहमान के तौर पर बुलाया। बेटा फिर आतंकवाद मचाने लगा, लेकिन मैंने ठान लिया था कि अब मुक्ति पाकर रहूँगा। मैं जमीन पर बैठकर उसे मारने की कोशिश करने लगा, ताकि उसके गाल पर थप्पड़ जड़ सकूँ।

शायद उसने सेनानायक का कथन पढ़ रखा था। वह तेजी से इधर-उधर लोटने लगा। मैं थप्पड़ लगाने के लिए गाल ढूंढ रहा था, मगर उसका गाल स्थिर नहीं था। कभी थप्पड़ पाँव पर, कभी हाथ पर लग जाता। मैं समझ गया कि इस फुर्तीले लड़के को गाल पर थप्पड़ नहीं मारा जा सकता। तब मैंने उसके पैर पकड़कर उसे धर दबोचा।

जैसे ही मैंने उसे पकड़ा, मित्र आ पहुँचा। मेरा आतंकवादी पुत्र काबू में आ गया था। मेरा शेरदिल कलेजा खुशी से फूल गया। मगर तभी मेरी पत्नी, यानी शेरनी, आ पहुँची। आते ही बोली, “क्या कर रहे हो? मेरे लाडले को मार डालोगे क्या?”

यह सुनते ही लाडला फिर आतंकवादी बन गया। मेरे हाथ-पाँव फूल गए। तब समझ आया कि शेर, शेरनी के सामने; मोर, मोरनी के सामने; और बड़ा से बड़ा डाकू, अपनी पत्नी के सामने क्यों नाचता है! काश, मैं भी पत्नी और बच्चों से कुछ गुर सीख पाता, ताकि इस आतंकवाद से मुक्त हो सकता।

तभी मुझे एक घटना याद आई। एक बार शिक्षक ने कहा था, “बोलने वाले की गुठली बिक जाती है, नहीं बोलने वालों के आम पड़े रह जाते हैं।” मुझे मंच पर बोलने के लिए प्रेरित किया गया। पूरा भाषण रटकर मंच पर गया, लेकिन हजारों की भीड़ देखकर डर का आतंकवाद हावी हो गया। बोलती बंद हो गई, सब भूल गया। चुपचाप मंच से लौट आया।

तब पहली बार जाना कि डर का आतंकवाद क्या होता है। यह हर किसी को सताता है। शायद आपको भी सताया हो। अगर आपको इसका इलाज मिल जाए, तो मुझे जरूर बताइएगा, ताकि मैं भी अपने डर के आतंकवाद से मुक्त हो सकूं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #279 – कविता – समूल मिटे आतंक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता समूल मिटे आतंक” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #279 ☆

☆ समूल मिटे आतंक…  ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(पहलगाम  निर्मम हत्याएँ… 22/04/25)

तर्क वितर्क कुतर्कों के सँग, खड़े हो गए विद्रोही

उनके मन की हुई,  जिन्होंने ही विषबेलें ये बोई

*

नरपिशाच उन नपुंसकों ने, हत्या करी निहत्थों की,

साजिश में इनके पीछे, इनमें से ही घर का कोई।

*

सुख शांति कब पची, बताओ असुर जिहादी नागों को

कपटी कालनेमियों वेशधारी, इन काले कागों को

*

जिनसे हो बदनाम कौम, सबको ये बात समझनी है,

समूल मिटे आतंक, तोड़ दें हिंसक खूनी धागों को।

*

आस्तीनों में छिपे सँपोले, रह-रह फन फुँफकार रहे

जनमानस में नई चेतना देख, विवश चित्कार रहे

*

हत्याओं पर संवेदन की जगह, सियासत जारी है,

किस्से गढ़ने लगे सेक्युलर, देश विरोधी धार बहे।

*

जो जिस भाषा में समझे, वैसे इनको समझाना है

अत्याचारी के खिलाफ, हाथों में शस्त्र उठाना है

*

समूल मिटा दें इन्हें और, इनके पोषक गद्दारों को,

छिपे विघ्नसंतोषी चेहरों को भी, सबक सिखाना है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश साहित्य # 103 ☆ ग़ज़ल – एक हक़ीक़त ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय ग़ज़ल  “एक हक़ीक़त ” ।)       

✍ जय प्रकाश साहित्य # 103 ☆ ग़ज़ल – एक हक़ीक़त ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

ख़ामोशी  जंगल  पर  तारी  है,

एक हक़ीक़त सब पर भारी है।

*

ख़ून हुआ है जिसके सपनों का,

उसकी  आँखों  में  लाचारी  है।

*

उनकी कविता पर कुछ क्या कहना,

शब्दों   की    बस   पच्चीकारी   है ।

*

भूख खड़ी है जिनके द्वारे पर,

उनकी  रोटी  भी  सरकारी है।

*

मानवता की क्या उसको चिंता,

वो  तो  लाशों  का  व्यापारी है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल ☆ बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ।)

✍ बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ… ☆ श्री हेमंत तारे  

गरचे यूं होता के मैं इक मुसव्विर होता

मेरे जेहन में तू और तेरा तसव्वुर होता

रंग, ब्रश, कैनवास मैं और तू संग रहते

मैं तिरी तस्वीरे बनाता और मुनव्वर होता

*

मिरा नसीब है के तू यहीं है, आसपास है

तू मिरे पास न होता तो मैं मुन्फरिद होता

*

अच्छा है कोई, ख़्वाहिश बाकी न रही

अब पुरसुकूँ हूँ मैं, वर्ना मुन्तजिर होता

*

बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ

मैं चाहिता वर्ना तो क़ाबिज़े इक्तिदार होता

*

वो शाइर अच्छा है कहते हैं सभी

गर मशायरा पढता तो मुकर्रर होता

*

वो तो इक संग ने पनाह दे दी वरना

ये हक़ीर ठोकरें दर – ब- दर होता

*

‘हेमंत अब और नही, उसपे एतिमाद नही

वो सलीके से निभाता तो उसपे ऐतिबार होता

(मुसव्विर = चित्रकार, मुनव्वर = प्रकाशमान/ प्रसिद्ध, मुन्फरिद = एकाकी, मुन्तजिर = पाने की चाह में प्रतिक्षित, काब़िज़ = मालिकाना हक, इक्तिदार = सत्ता, मुकर्रर = बार – बार का आग्रह, संग = पत्थर, हक़ीर = तुच्छ/ तिनका, एतिमाद = भरोसा, ऐतिबार = भरोसा / विश्वास)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 106 ☆ वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 106 ☆

✍ वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

आदमी है या है बला तौबा

कर रहा दोस्त बन दग़ा तौबा

 *

इश्क़ से मैंने कर लिया तौबा

मुस्तक़िल पर न रह सका तौबा

 *

मयकशी की न याद फिर आई

मदभरी आँख का नशा तौबा

 *

शूल भी फूल भी हैं राहों में

शूल मुझको ही क्यों चुभा तौबा

 *

साँस लेना भी आज दूभर है

ये प्रदूषण भरी हवा तौबा

 *

ज़िस्म का लम्स क्या हुआ तेरे

धड़कनों में उछाल सा तौबा

 *

दोस्त अग़यार सा मिला मुझसे

ये तग़ाफ़ुल नहीं क़ज़ा तौबा

 *

मैक़दे की बना वो रौनक है

मय से जिसकी है बा-रहा तौबा

 *

वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक

कर गुनाहों से बा ख़ुदा तौबा

 *

अय अरुण इस डगर पे मत जाना

प्यार जिसने किया किया तौबा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 19 ☆ लघुकथा – पता नहीं… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “पता नहीं“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 19 ☆

✍ लघुकथा – पता नहीं… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बेटे के घर न आने के कारण मदन लाल को नींद नहीं आ रही थी। बार बार दरवाजे की ओर देखते। कभी तो दरवाजा खोल कर गली में देखने लगते कि उनका बेटा आ रहा है या नहीं। अंदर से पत्नी की आवाज आती कि सो जाओ, बेटा आ जाएगा,  देर रात जागने से शुगर बढ जाएगी और बीपी भी। जागते रहने और कमरे में टहलते रहने से क्या वह आ जाएगा।

मदन लाल का इकलौता बेटा था नितिन।  अभी उसका विवाह भी नहीं हुआ था। ग्रेजुएशन करने के बाद भी नौकरी के लिए भटक रहा था। नौकरी की एक तो कहीं जगह नहीं निकलतीं और जब कभी निकलती तो वह फार्म भरता, परीक्षा देता पर सफल नहीं हो पाता। रोजगार दफ्तर में नाम रजिस्टर करया हुआ था पर कोई कॉल लैटर नहीं आता।  मदनलाल ने अपने दोस्तों से भी बेटे को नौकरी दिलाने में मदद करने के लिए कहा पर कोई मदद नहीं कर सका। आखिर नितिन ने एक छोटी सी दुकान खोल ली। दुकान क्या, सड़क के किनारे एक टपरी सी। उसमें बीड़ी सिगरेट तंबाकू चॉकलेट और बच्चों के लिए कॉपी पेंसिल रबर शॉर्पनर जैसी रोजमर्रा की चीजें थीं। यह टपरी भी उसे बहुत मुश्किल से मिली थी।

दुकान पर बिक्री ज्यादा तंबाकू चूना की होती। कभी कभी सिगरेट और बीड़ी भी। दुकान का किराया निकल जाता था और अपने खर्चे भी पूरे हो जाते। घर में सब्जी वगैरह भी ले आता। बाकी पिता जी की पेंशन पर। नितिन रात नौ बजे के आसपास दुकान बंद करके घर आ जाता था परंतु पिछले पांच छह महीने से नितिन दुकान बंद करके  घर  देर से पहुंचने लगा। उसके कुछ नये दोस्त बन गए जो दुकान बंद करने के समय उसके पास आ जाते और पास में ही एक बीयर की दुकान में ले जाते जहां शराब भी मिल जाती और पीने के लिए गिलास भी।  जो खर्च आता आपसे में बांट लेते। होटल या परमिट रूम में जाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे। शुरू शुरू में तो नितिन अचकचाया, संकोच करने लगा। दोस्तों के कारण कुछ बिक्री अधिक हो जाती और वह बार में खर्च हो जाती। घर एकाध घंटे देर से पहुंचता। मदनलाल पूछते कि आजकल देर क्यों हो रही है घर आने में तो टाल जाता। मदनलाल उसकी चाल और मुंह से आई दुर्गंध से समझ तो गए और उसे समझाया भी पर कोई असर नहीं हुआ।

आज देर ज्यादा हो गई इसलिए चिंता कर रहे हैं। नितिन की ऐसी हालत रही तो उसका विवाह कैसे होगा, जीवन में प्रगति कैसे करेगा? और क्या जिंदगी भर इस टपरी पर ही बैठा रहेगा? आगे क्या करेगा, कैसे करेगा इसी चिंता में डूबे हुए थे कि दरवाजे पर आहट हुई और उन्होंने झट से दरवाजा खोला। दरवाजे पर नितिन था। वह अंदर आया तो लडखडा रहा था। मदनलाल ने पूछा कि नितिन तुम पीते क्यों हो? नितिन क्षण भर ठिठका और बोला, पता नहीं पिताजी और अंदर अपने कमरे में चला गया।  मदनलाल कुर्सी पर बैठे रह गए। सोचने लगे, इसे पता ही नहीं माथे पर हाथ रख लिया।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 121 – स्वर्ण पदक – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  स्वर्ण पदक

☆ कथा-कहानी # 121 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 2🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रजतकांत छोटा भाई था, पढ़ाई से ज्यादा, खेल उसे आकर्षित किया करते थे और स्कूल के बाकी शिक्षकों की डांट फटकार उसे स्पोर्ट्स टीचर की ओर आकर्षित करती थी, जो उसकी खेल प्रतिभा के कारण उससे स्नेह करते थे. जब देश में क्रिकेट का जुनून सर चढ़कर बच्चों के मन को आकर्षित कर रहा था, दीवाना बना रहा था, उस वक्त रजतकांत हाकी में जन्मजात निपुणता लेकर अवतरित हुआ था. मेजर ध्यानचंद की उसने सिर्फ कहानियां सुनी थीं पर वे अक्सर उसके सपनों में आकर ड्रिबलिंग करते हुये गोलपोस्ट की तरफ धनुष से छूटे हुये तीर के समान भागते दिखाई देते थे और जब रजत को मुस्कुराते हुये देखकर गोल मारते थे तो गोलपोस्ट पर खटाक से टकराती हुई बॉल और गोल ….के शोरगुल की ध्वनि से रजतकांत की आंख खुल जाती थी. सपनों की शुरुआत रात में ही होती है नींद में, पर जागते हुये सपने देखने और उन्हें पूरा करने का ज़ुनून कब लग जाता है, पता ही नहीं चलता. स्वर्णकांत और रजतकांत की आयु में सिर्फ तीन साल का अंतर था पर पहले स्कूल और फिर कॉलेज में उम्र के अंतर के अनुपात से क्लास का अंतर बढ़ता गया. जब स्वर्णकांत विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर बैंक की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, रजतकांत कला संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे. डिग्रियां उनका लक्ष्य कभी थी ही नहीं पर हां कॉलेज की हाकी टीम के वो कप्तान थे, सपनों में ध्यानचंद से सीखी गई ड्रिबलिंग, चुस्ती, तेज दौड़ने का स्टेमिना, विरोधी खिलाड़ी को छकाते हुये बाल छीन कर गोलपोस्ट की तरफ बढ़ने की कला जो हॉकी के मैदान में दिखाई देती थी, वो दर्शकों को दीवाना बना देती थी और पूरा स्टेडियम रजत रजत के शोर से गूंजने लगता था जब उनके पास या इर्दगिर्द बॉल आती थी.पर दर्शकों को, सत्तर मिनट के इस खेल में, जो दिखाई नहीं देती थी, वह थी “उनका टीम को एक सूत्र में बांधकर लक्ष्य को हासिल करने की कला”. इस कारण ही उनकी टीम हर साल विश्वविद्यालय की हॉकी चैम्पियन कहलाती थी और स्वर्ण पदक पर सिर्फ रजत के कॉलेज का दावा, स्वीकार कर लिया गया था. इस कारण ही जब उनके परीक्षा पास नहीं करने के कारण उनके पिताजी नलिनीकांत नाराज़ होकर रौद्र रूप धारण करते थे, उनके कॉलेज के प्रिसिंपल और स्पोर्ट्स टीचर खुश हुआ करते थे और उन्हें कॉलेज में बने रहने का अभयदान दिया करते थे.

कथा जारी रहेगी…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 70 – छूमंतर… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – छूमंतर।)

☆ लघुकथा # 70 – छूमंतर श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रेस्तरां का संगीत बदला तो चंदा का ध्यान गाने से हटकर काउंटर की ओर गया।

सामने एक पुरुष बिल अदा कर रहा था ।

रोमा तो मुझे पहचान कर मेरी तरफ आयी, “अरे दीदी आप! आप कैसी हैं ?”

“मैं ठीक हूं, बेटा कैसा है?”

“एकदम ठीक है दीदी, “उसके चेहरे का तनाव बेटे के जिक्र से गायब हो गया था वह बोली हमने उससे नैनीताल में बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है।”

“हां दीदी”, अचानक जैसे कुछ याद आ गया, “आप मेरे हस्बैंड से मिलना चाहती थी ना आइए “मैं आज मिलवाती हूं।”

कहकर वह पीछे पलटी तब तक उसका साथी बिल अदा कर उसके पास खड़ा हुआ।

मुस्कुरा कर बोली, “ये मेरे पति मिस्टर वर्मा है।”

मैं एकदम जड़ हो गई, सामने सोमेश जी खड़े थे ।

वह भी मुझे पहचान गए थे। उनका चेहरा सफेद पड़ गया था। वह मुझे नमस्ते करते हुए तेजी से बाहर की ओर बढ़ गए। नीता मेरा हाथ बड़े प्यार से पकड़ कर बोली, “दीदी कभी आइए ना हमारे घर, आपके पास मेरा नंबर है,”

फिर बाय करती हुई वह कैफे से बाहर चली गयी।

मैं कांपते हुए पैरों से कुर्सी पर धम्म से बैठ गयी।

पानी पीकर अपने आप को संभाला तभी सोमेश मेरे पास आकर बैठ गया।

“आप!” मेरे मुंह से निकला। आज मुझे इस आदमी से बेहद नफरत हो रही थी।

“जी मैं वही सोमेश हूं।”

“आप ऐसा क्यों कर रहे हो मेरी सखी के साथ। आप शादीशुदा हैं और ऐसा नाजायज संबंध रखना आपको अच्छा लगता है क्या? यदि आप मेरी पड़ोस में नहीं रहते और नीता के पति ना होते तो मैं आप को जेल भिजवा देती।“

अब मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं पड़ोसी धर्म निभाऊँ या अपने सहेली की बहन का?

“तुम पहले से शादीशुदा हो अब यहां से चुपचाप चले जाओ ?”

“दो जिंदगी के साथ तुम खिलवाड़ कर रहे हो। कैसे आदमी हो मैं जानती हूं। क्या आप की दोनों पत्नी यह जानती हैं??

“मैं समझ ही नहीं पा रही हूं कि क्या करूं ? आप किस तरह के इंसान हैं? प्रश्नात्मक निगाहों से मैंने उसकी ओर देखा ।

न जाने क्या था उन निगाहों में कि वह थरथरा उठा और अपने आप में ही बड़बड़ाते हुए उठ कर भाग खड़ा हुआ।

मुझे तो मानो सांप सूंघ गया हो… और वह पल भर में छूमंतर हो गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 271 ☆ सीता… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 271 ?

(श्री राम आणि सीता यांचा राज्यभिषेक)

☆ सीता… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(६ मे २०२५ सीतानवमी)

जनक राजाची दुहिता

कोमल कन्या ती सीता

*

खूप प्रेमाने तिला वाढविले

उपवर होता स्वयंवर रचले

*

स्वयंवर रामने जिंकता

वैदेही झाली परिणिता

*

आयोध्देच्या महाराणीला

चौदा वर्षे वनवास घडला

*

सहनशीलता वैदेहेची न्यारी

अग्निपरीक्षा देण्याची तयारी

*

तरी दूषण लागे पतिव्रतेला

कोटी कोटी नमन भूमिकन्येला

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares