हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #278 – कथा-कहानी ☆ डाउटफुल मेन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता कब तक दमन करेंगे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #278 ☆

☆ डाउटफुल मेन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(एक लघुकथा उन हिमायतियों के नाम)

नाम क्या है तेरा ?

सर, राम विश्वास।

इसका मतलब, राम पर विश्वास है तुझे

नहीं-नही सर, ये तो सिर्फ नाम है मेरा जो मेरे माँ-बाप का रखा हुआ है।

ये तो हिन्दू नाम है, हिन्दू धरम से है न तू ?

हाँ सर, कहने को हिन्दू हूँ पर मैं हिन्दू धर्म को नहीं मानता। मूर्तिपूजा और हिंदू धर्म के पाखण्डों से बहुत दूर हूँ, बल्कि कट्टर विरोधी हूँ मैं तो।

तो फिर किस धर्म को मानता है?

मैं.. मैं सर, वैसे तो किसी धर्म को नहीं मानता हूँ, एक अलग विचाधारा के उन्नत पंथ से जुड़ा हूँ न इसलिए।

ये अलग विचाधारा क्या होती है, क्या करते हो तुम लोग?

सर शुरुआत में तो हम मेहनतकश लोगों के अधिकार की लड़ाई लड़ते थे, पर उसके बाद से अब हिदू धर्म के तथाकथित रूढ़िवाद और आडम्बरों के साथ हिंदुओं के धर्मग्रंथ इनके तीज त्योहारों के विरोध की मशाल जलाए रखने का ध्येय बना रक्खा है। देश की बात करें तो भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे अर्थहीन नारे भी हमारी जमात के साथी अपनी जुबान पर नहीं लाते।

तूने गीता, रामायण या हिंदुओं की कोई किताबें पढ़ी है?

नहीं सर- मैं क्यों इन दकियानूसी किताबों में अपने समय को खोटी करूँगा, हाँ सुनी सुनाई बातों को लेकर इनकी आलोचनाओं में जरूर भाग लेता रहा हूँ।

कुरान पढ़ा है क्या?

नहीं सर, पर कुरान पर आधारित कई किताबें और  हिन्दू विरोध में हमारे अपने ही पंथ के बड़े-बड़े विचारकों द्वारा लिखे उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ , निबन्ध, लेख आदि अक्सर पढ़ता ही रहता हूँ।

अच्छा ये बता, हमारे धरम को मानेगा क्या, सीने पर बंदूक रखते हुए एक कड़क सवाल।

सर जान बख्श दी जाए तो कोई हर्ज नहीं है।

वैसे भी हमने कभी आपके धर्म की या आप लोगों की अलोचना से अपने को सदा दूर रखा है।

बातें बहुत शातिराना है तेरी, आदमी तू बहुत गड़बड़ लगता है मुझे।

अच्छा! एक काम कर अपनी पेंट उतार।

सर प्लीज़?

जल्दी से, देख रहा है न हाथ में ये बंदूक

जी, उतारता हूँ

तूने कहा बहुत किताबें पढ़ी है हमारे धरम की, तो कलमा भी पढ़ने में आया होगा कहीं, याद है तो सुना।

 हाँ-हाँ याद है न सर,

बोलने के लिए मुँह खोला ही था रामविश्वास ने कि,

धाँय..धाँय..धाँय.

साला डाउटफुल डर्टी मेन, अपने धरम का नहीं हुआ तो हमारा क्या होगा।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 102 ☆ प्यासा हिरण है ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “प्यासा हिरण है” ।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 102 ☆ प्यासा हिरण है ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मरुस्थल की

चमचमाती धूप

पानी के भरम में

मर गया प्यासा हिरण है।

 

शांति के स्तूप

जर्जर हो गये

लिखी जानी है

इबारत अब नई

टूटकर ग्रह

आ गये नीचे

ढो रहा युग

अस्थियाँ टूटी हुई

 

संधियों पर

है टिकी दुनिया

ज़िंदगी के पार

शेष बस केवल मरण है।

 

जंगलों में

घूमते शापित

पत्थर कूटते

राम के वशंज

धनु परे रख

तीर के संधान

भुलाकर विरासत

जी रहे अचरज

 

परस पाकर

अस्मिता के डर

जागे हैं ह्रदय में

सोच में सीता हरण है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 105 ☆ मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 105 ☆

✍ मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सच का अहसास कराते हैं चले जाते हैं

ख़्वाब तो ख़्वाब हैं आते हैं चले जाते हैं

जो हक़ीक़त न हो उससे न रब्त रखना है

ये छलावा है सताते है चले जाते हैं

 *

मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग

बैठते खेलते खाते है चले जाते हैं

 *

बुज़दिलों और जिहादी की न पहचान अलग

दीप धोखे से बुझाते हैं चले जाते  हैं

 *

इन हसीनों की अदाओं से बचाना खुद को

मुस्करा दिल को चुराते हैंचले जाते हैं

 *

बादलों जैसी ही सीरत के बशर कुछ देखे

गाल बस अपने बजाते है चले जाते हैं

 *

ज़ीस्त में  मिलती हैं तक़दीर से ऐसी हस्ती

हमको इंसान बनाते है चले जाते  हैं

 *

रहनुमाओं से सिपाही हैं वतन के  बेहतर

देश पर जान लुटाते है चले जाते  हैं

 *

रोते आते है मगर उसका करम जब हो अरुण

 फ़र्ज़ हँस हँस के निभाते है चले जाते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं कोई गीत, ग़ज़ल, नज़्म, अशआर कैसे लिखता… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – मैं कोई गीत, ग़ज़ल, नज़्म, अशआर कैसे लिखता।)

✍ मैं कोई गीत, ग़ज़ल, नज़्म, अशआर कैसे लिखता… ☆ श्री हेमंत तारे  

ग़र ये दिन,  अलसाये से  और शामें सुस्त ही न होती

तो सच मानो,  ये किताब  वजूद में आयी ही न होती

*

मैं कोई  गीत,  ग़ज़ल,  नज़्म,  अशआर कैसे लिखता

ग़र  मेरी  माँ ने   रब से  कभी  दुआ मांगी ही न होती

*

लाजिम है गुलों कि महक से चमन महरूम रह जाता

ग़र थम – थम कर मद्दम वादे – सबा चली ही न होती

*

क्या पता परिंदे चरिंदे अपना नशेमन कहाँ बनाने जाते

ग़र दरख़्त तो पुख्ता होते पर उन पर  डाली ही न होती

*

वादा करना और फिर मुकर जाना तुम्हे ज़ैब नही देता

ग़र अपने पे ऐतिबार  न था तो कसम खाई ही न होती

*

जानते हो “हेमंत” शम्स ओ क़मर रोज आने का सबब

ग़र ये रोज न आते रोशन दिन, सुहानी रातें ही न होती

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 18 ☆ लघुकथा – बाबू रामदयाल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “बाबू रामदयाल“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 18 ☆

✍ लघुकथा – बाबू रामदयाल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बाबू रामदयाल आज बहुत दुखी हैं। मौत के तांडव की खबरों ने उन्हें हिला कर रख दिया है। उनके शहर में भी दो परिवार निराश्रित हो गए हैं। उन परिवारों के मुखिया एक दूसरे के मित्र थे और एक जघन्य घटना में दोनों एक साथ यमलोक सिधार गए। दोनों की पत्नियां शून्य में घूर रही हैं कि अब क्या होगा। उनके पति घूमने फिरने गए थे मृत्यु को गले लगाने नहीं। इस हादसे का जिम्मेदार कौन है, इसका उत्तर उन्हें कोई नहीं दे रहा।

शहर में गमगीन वातावरण बना रहा पूरे  दिन। उनकी मौत की खबरें अखबारों में छपी उनके सामने रखी हैं । जगह जगह शोक सभाओं के बारे में सुन रहे हैं। दोषियों को सबक सिखाए जाने की कस्में खाई जा रही, ऐसी खबर भी हैं। लोग दांत किटकिटा रहे हैं वाट्सएप फेसबुक पर।

बाबू रामदयाल की  हिम्मत नहीं हो रही  कि मृतकों के घर की ओर एक चक्कर मार आएं।  न अखबार पढ़ पा रहे न टीवी रेडियो सुन पा रहे। बस एकटक शून्य में दृष्टि गढाए हुए हैं जैसे अपनी खुली आंखों से अपना जनाजा देख रहे हों। पता नहीं क्यों उनके अंदर एक भय समा रहा है कि कोई उनके घर आकर उन्हें गोली मारकर मौत की नींद सुला जाए तो उनकी पत्नी का क्या होगा। बिना पढी लिखी अधेड़ अवस्था में कैसे जीवन यापन करेगी। उनके बैंक खाते में भी इतने पैसे जमा नहीं हैं कि उसकी जिंदगी उनसे कट जाए। वे जो कमा कर लाते हैं उसीसे हम दोनों का पेट भरता है। और न जाने कितने प्रश्न उनकी आंखों में समाए हुए हैं जो उन्हें सोने भी नहीं दे रहे।

वे शांत मुद्रा में अपने घर के बाहर बैठे हैं। तभी उनके एक पड़ोसी सामने से गुजरते हुए हाथ उठा कर कहते हैं, कैसे हैं रामदयाल जी । बाबू रामदयाल उनकी ओर देखते हैं और पाते हैं कि पड़ोसी के चेहरे पर तो एक शिकन भी नहीं है। रामदयाल हक्के बक्के से अपने पड़ोसी को जाते हुए देखते रहते हैं। सोचते हैं कि वातावरण में पसरे सन्नाटे की क्या इन्हें भनक तक नहीं।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 120 – स्वर्ण पदक – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा स्वर्ण पदक

☆ कथा-कहानी # 120 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 1🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नलिन कांत बैंक की शाखा के वरिष्ठ बैंकर थे. याने सेवानिवृत्त पर आदरणीय. उन्हें मालुम था कि मान सम्मान मांगा नहीं जाता, भय से अगर मिले तो तब तक ही मिलता है जब तक पद का भय हो या फिर सम्मान देने वाले के मन में भय अभी तक विराजित हो. मेहनत और ईमानदारी से कमाया धन और व्यवहार से कमाया गया मान अक्षुण्ण रहता है,अपने साथ शुभता लेकर आता है. नलिनकांत जी ने ये सम्मान कमाया था अपने मधुर व्यवहार और मदद करने के स्वभाववश.उनके दो पुत्र हैं स्वर्ण कांत और रजत कांत. नाम के पीछे उनका केशऑफीसर का लंबा कार्यकाल उत्तरदायी था जब इन्होने गोल्ड लोन स्वीकृति में अपनी इस धातु को परखने की दिव्यदृष्टि के कारण सफलता पाई थी और लोगों को उनकी आपदा में वक्त पर मदद की थी. उनकी दिव्यदृष्टि न केवल बहुमूल्य धातु के बल्कि लोन के हितग्राही की साख और विश्वसनीयता भी परखने में कामयाब रही थी.

बड़ा पुत्र स्वर्ण कांत मेधावी था और अपने पिता के सपनों, शिक्षकों के अनुमानों के अनुरूप ही हर परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करता गया. पहले स्कूल, फिर महाविद्यालय और अंत में विश्वविद्यालय से वाणिज्य विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त कर, अपनी शेष महत्वाकांक्षाओं को पिता को समर्पित कर एक राष्ट्रीयकृत बैंक में परिवीक्षाधीन अधिकारी याने प्राबेशनरी ऑफीसर के रूप में नियुक्ति प्राप्त कर सफलता पाई. बुद्धिमत्ता, शिक्षकों का शिक्षण, मार्गदर्शन और मां के आशीषों से मिली ये सफलता, अहंकार से संक्रमित होते होते सिर्फ खुद का पराक्रम बन गई.

जारी रहेगा… 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 69 – रेत… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रेत।)

☆ लघुकथा # 69 – रेत… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

शांति दास जी सोच रहे थे कि आसपास इतना सन्नाटा है। आजकल कोई सुबह की सैर को भी नहीं जाता।

सुबह हो गई अब चाय तो बना कर पी लेता हूं।

आवाज आई कचरे वाली गाड़ी आई सब लोग कचरा डालो ।

उन्होने सोचा चलो कचरा डालकर ही चाय पीता हूं ।

कचरा उठाकर  बाहर डालने के लिए गए, तभी कचरे वाले गाड़ी वाले ने कहा – बाबा मुंह पर कपड़ा बांधकर कचरा डाला करो बाहर आजकल मौसम ठीक नहीं है गर्मी बहुत हो रही है। सुना है लोगों को एक नई तरीके की बीमारी भी हो रही है।

शांति दास जी ने कहा-बेटा जान का खतरा तो वैसे भी है क्या करूं हमेशा आइसोलेशन में अकेला ही रहता हूं बेटा बहू ऊपर की मंजिल में रहते हैं नीचे मुझे अकेला छोड़ दिया।

पत्नी के गुजर जाने के बाद यह जिंदगी बोझ हो गई है।

बुढ़ापे के जीवन का बोझ मुझसे सहन भी नहीं होता। चाहता हूं कि मर जाऊं पर कोई बीमारी भी नहीं लगती।

ऐसा लगता है कि मरुस्थल के चारों ओर से में घिरा हूं और सब तरफ मुझे रेत ही रेत  दिखाई दे रही है।

कचरे की गाड़ी वाला ने कहा- बाबा आपकी बात जो है तो मेरे सर के ऊपर से जा रही है । ठीक है आपका जीवन आप जानो मैं आगे का कचरा लेता हूं। चाहे रेत कहो और चाहे  कुछ और कहो आपकी आप जानो …..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 270 ☆ वसंत… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 270 ?

☆ वसंत… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(वसंतोत्सव काव्याचा)

ऋतूराज येता सजे सोहळा

उन्हाच्या जरी भोवती रे झळा

बहावा असा पीतवर्णी झुले

अहाहा किती सानुली  ही फुले …

*

जरी लाल पांगार वाटे नवा

जुना तोच तेथे असे गारवा

कसा रोज कोकीळ गातो तिथे

दिसे आमराई सुहानी  जिथे

*

वसंतात चौफेर रंगावली

फुलाच्यांच आहेत साऱ्या झुली

सुखासीन सारी मुलेमाणसे

जमीनीत आता  सुखाचे ठसे

*

कशी साठवू आज डोळ्यात मी

निळ्या ,लाल रंगातली मौसमी

सुगंधात न्हाते ,फुले मोगरा

जणू जीव झाला बसंती-धरा !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 99 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 5 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 99 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 5 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मुरझाये देखती कभी चेहरे जो लाल के, 

रखती कलेजा सामने थी माँ निकाल के,

बीमार वृद्ध माँ को उसके समर्थ बेटे 

असहाय छोड़ देते हैं घर से निकाल के।

0

कोई तीरथ न माँ के चरण से बड़ा, 

माँ का आँचल है पूरे गगन से बड़ा, 

माँ की सेवा को सौभाग्य ही मानना 

कोई वैभव न आशीष धन से बड़ा।

0

सम्बन्धों के तोड़े जिनने धागे होंगे, 

तृष्णा में घर-द्वार छोड़कर भागे होंगे, 

छाया कहीं न पायेंगे वे ममता वाली 

पछताते वे जाकर वहाँ अभागे होंगे।

0

खुद रही भींगी हमें सूखा बिछौना दे दिया 

भूख सहकर भी हमें धन दृव्य सोना दे दिया 

कर दिया सब कुछ निछावर माँ ने बेटों के लिए

वृद्ध होने पर उसे, बेटों ने कोना दे दिया।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 173 – पहलगाम में फिर दिया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक विषय पर एक भावप्रवण कविता “पहलगाम में फिर दिया…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 173 – पहलगाम में फिर दिया… ☆

पहलगाम में फिर दिया, आतंकी ने घाव।

भारत को स्वीकार यह, नर्किस्तानी ताव।।

 *

इजराइल के दृश्य को, उनने दिया उभार।

निर्दोषों का खून कर, पंगा लिया अपार।।

 *

भारत की जयघोष से, मोदी का फरमान।

घर के भेदी क्यों बचें, पहुँचे कब्रिस्तान।।

 *

बुलडोजर अवतार यह, नंदी का ही रूप।

शिव का अनुपम भक्त है, लगता बड़ा अनूप।।

 *

आतंकी के सामने, लड़ता सीना तान।

काशमीर में मुड़ गया, टूटेगा अभिमान।।

 *

धौंस सुना परमाणु का, डरा रहा बेकार।

अलग हुआ पर क्या किया, जनता का उद्धार।।

 *

बच्चों की मुख चूसनी, कब तक देगी स्वाद।

स्वप्न बहत्तर हूर का, कब्रिस्तानी खाद।।

भारत को सुन व्यर्थ ही, दिलवाता है ताव।

फिर से यदि हम ठान लें, गिन न सकेगा घाव।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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