हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 57 ☆ व्यंग्य – सब मर्ज़ों की एक दवा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘सब मर्ज़ों की एक दवा’।  यह जीवन का सत्य है कि सब मर्ज़ों की एक ही दवा  है और यह एक गरीबदास है जो मानने को तैयार ही नहीं है।  इस अतिसुन्दर व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

गुरु पूर्णिमा पर्व पर परम आदरणीय डॉ कुंदन सिंह परिहार जी को सादर चरण स्पर्श।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 57 ☆

☆ व्यंग्य – सब मर्ज़ों की एक दवा

 

भाई जी, यह बहुत अच्छा हुआ कि संसार के सब मर्ज़ों की एक दवा मिल गयी। अब इस बात में कोई शक नहीं रहा कि ज़िन्दगी की सब व्याधियों की एक दवा पैसा है, अक्सीर दवा।

पैसा है तो रोग-दोष आपके पास नहीं फटकते। पैसा है तो आपके लिए सब कुछ मुहैया है। बोलो,क्या ख़रीदना चाहोगे? मोटर ख़रीदोगे या हवाई जहाज़? फाइल ख़रीदोगे या बाबू? अफसर ख़रीदोगे या विधायक?

पैसा पास है तो कला, सभ्यता, संस्कृति भी मिल सकती है। यहाँ तो हर चीज़ बिकती है, कहो जी तुम क्या क्या ख़रीदोगे? आप बस ज़ुबान भर हिलाओ बबुआ, संसार की सब विभूतियाँ आपके चरणों में लोटेंगीं। हाँ, बस थोड़ा नावाँ दिखाते जाओ।

पैसा है तो सुपुत्रों को पढ़ने के लिए जर्मनी जापान भेजो और फिर आसानी से अच्छी नौकरी या व्यापार में जमा दो। नौकरी की आपाधापी और हताशा सिर्फ अभागों के लिए है। पैसा है तो ज़ुकाम का इलाज जसलोक में कराओ। या अगर घर के डॉक्टर पसन्द न हों तो अमेरिका चले जाओ। कोई असाध्य रोग पकड़ ले तो पैसा आपको बचा भले ही न पाए, पर चार छः साल आपकी ज़िन्दगी को खींच तो सकता ही है। जिस दिन विज्ञान मृत्यु पर विजय पा लेगा उस दिन सब पैसे वाले अमर हो जाएंगे, क्योंकि अमरत्व के मंहगे उपकरण ख़रीदने की शक्ति उन्हीं में होगी। तब वे देवताओं की श्रेणी में आ जाएंगे और आदमी के नाम पर वही बचेंगे जिनकी जेब में नावाँ नहीं होगा।

पैसा पास है तो आदमी को कोई पाप, दोष नहीं छूते। हज़ार पाप करके भी वह पवित्र, निर्मल रह सकता है।  ‘विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा। ‘ गोस्वामी जी भी कह गये हैं, ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं। ‘

लेकिन यह गरीबदास बड़ी देर से मेरी बगल में भुनभुनाकर कुछ कह रहा है। पूछता है, इस पैसे वाली दुनिया में उसका क्या होगा? तो सुनो गरीबदास, तुम्हारी जो हालत है वह तुम्हारा प्रारब्ध और पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। लेकिन गरीबदास मानता नहीं। कहता है बड़े लोग कह गये हैं ‘बड़े भाग मानुस तन पावा’।  मनुष्य का जन्म बड़े पुण्यों के बाद मिलता है, तब ये पुराने पाप कहाँ से आ गये? है न सिरफिरा?

लो गरीबदास, तुम्हारे हित के लिए कुछ सूक्तियाँ देता हूँ। इन्हें जतन से गठिया लो। ये तुम्हारी तकलीफ को दूर भले ही न करें, लेकिन तुम्हारा ध्यान उस पर से हटा देंगीं। सुनो—‘हानि लाभ ,जीवन मरण,यश अपयश विधि हाथ’, ‘को करि तरक बढ़ावै साखा, हुईहै वहि जो राम रचि राखा’, ‘संतोषी सदा सुखी’, ‘देख पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव, रूखा सूखा खाय के ठंडा पानी पीव’, ‘जो आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान। ‘ इसलिए अपनी ज़िन्दगी धूरि समान, बच्चों की पढ़ाई लिखाई और नौकरी धूरि समान,अपने बुढ़ापे और बीमारी का इंतज़ाम भी धूरि समान।

एक और सूक्ति देता हूँ गरीबदास। इसे कई समझदार लोग दुहराते हैं—-‘पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं। ‘ समझे गरीबदास? लेकिन गरीबदास मूड़ हिलाता है, कहता है, ‘पाँचों उँगलियाँ बराबर भले ही न हों, लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि बड़ी उँगली हमेशा गुलाब पर रखी रहे और छोटी हमेशा काँटों में घुसी रहे। ‘ गरीबदास  का कहना है कि यह गोरखधंधा उसकी समझ में नहीं आता। सच्ची बात तो यह है गरीबदास, कि यह सब मेरी समझ में भी नहीं आता।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक …. ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य  मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक …. । इस व्यंग्य के सन्दर्भ में आदरणीय श्री कमलेश जी के ही शब्दों में “लीजिए मित्रो । लाॅकडाउन के दौरान पुरानी फाइलों में से व्यंग्य मिला । दैनिक ट्रिब्यून में 27 अक्तूबर , 1987 के रविवारीय में प्रकाशित । यह भी आकाशवाणी , जालंधर, की कार्यक्रम अधिकारी डाॅ रश्मि खुराना की सीरीज मिलते हैं कैसे कैसे लोग के लिए लिखा गया था । बहुत आभार रश्मि जी ।। नवांशहर रहता तो आप पूरा व्यंग्यकार बना कर छोड़तीं पर भाग्य चंडीगढ़  ले गया और कुछ का कुछ बनता गया ,,,,पर कोई खेद नहीं ……।”  कृपया आत्मसात करें।

☆ व्यंग्य  : मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक ….   

कहावत है : जो सुख छज्जू दे चौबारे,  वो वल्ख न बुखारे। पर अपने राम जब से नौकरी में आए हैं तब से अपने चौबारे का सुख भूल गये हैं। अब तो किसी प्यारे गीत के टुकड़े की तरह यह कहावत याद रह गयी है।

अपने घर, अपने चौबारे और अपने शहर को छोड़कर हमने कितनों के बोल सहे, कितने मकान मालिकों के नखरे उठाये, मीठे कड़वे ताने सहे ,,,,भगवान् मुंह न खुलवाये। वैसे भी मकान मालिक की बात करते ही उनका रौब से भरा चेहरा जब याद आता है तब बोलती वैसे ही बंद हो जाती है।

अजीब इत्तेफाक कि जब नौकरी शुरू की थी तब भी मकान लेने में दिक्कत आती थी क्योंकि तब हम कुंवारे थे। तब से एक ज़माना गुजर गया। हम बीबी बच्चों वाले हुए और अब भी मकान मालिक हमें मकान किराये पर  मकान देने में बहुत तकलीफ महसूस करते हैं। तब हमारे कुंवारे होने से परहेज था , अब शादीशुदा होने पर ऐतराज। जब शादी नहीं हुई थी और हम मकान किराये पर लेने जाते थे तब मकान मालिक किसी तेज़ गेंदबाज की तरह पहली ही गेंद पर आउट कर देते थे -हम तो शादीशुदा को ही मकान किराये पर देते हैं। आप शादीशुदा हो क्या ?

हम किसी अपराधी की तरह जैसे ही मुंह लटकाते उसी समय घर के दरवाजे ज़ोर से बंद हो जाते। हम क्लीन बोल्ड हुए बल्लेबाज की तरह पैविलियन लौट आते। ज़माना काफी तरक्की कर गया है। अब मकान मालिक शादीशुदा लोगों को मकान किराये पर देने से कतराने लगे हैं। वे साफ कह देते हैं कि मियां बीबी की तो कोई बात नहीं। आपके बच्चों की फौज की परेड से हमें डर लगता है। हम बेबस होकर कभी अपने बच्चों को देखते हैं तो कभी परिवार नियोजन के पोस्टर याद करते हैं। काश , हमने सरकार की बात पर ध्यान दिया होता तो यूं सरेआम मकान मालिकों की निगाहें हमें बेइज्जत न कर डालतीं।

जिसे देश घूमने का शौक हो , उसे अलग अलग मकानों में रह कर अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए। इसीलिए तो इस शेर से छेड़छाड़ करने का मन बन गया है :

सैर कर दुनिया की गाफिल

मकान बदल बदल के ,,,,,

अपने राम ने जितने मकान बदले होंगे उतने ही मकान मालिकों के नियम सामने आते गये। अब तो मकान मालिकों के नियमों की लम्बी चौड़ी सूची भी याद हो गयी है। बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन में पहाड़े याद करने पड़े थे।

अपने राम को एक मकान मालिक के कुत्ते की इज्जत न करने पर मकान खाली करने का हुक्म भी सुनना पड़ा था। तब हमें इस मुहावरे पर ईमान करना पड़ा था कि उनसे प्यार करना है तो उनके कुत्ते से भी प्यार करो। हमें मालूम था कि हमें यह मकान बड़ी तलाश के बाद किराये पर मिला था। इसलिए कुत्ता हमें जब जब घूर घूर कर देखता था तब तब हम उसे उतने ही प्यार से पुकारते थे परंतु इस महंगाई के ज़माना में हम खुद ग्लुकोज के बिस्कुट न खाकर उनके कुत्ते को बिस्कुट कब तक खिला सकते थे ? हमारी मकान मालकिन हमें उत्साहित करते कहती -आपसे पहले वाले किरायेदार से तो पूरी तरह हिल मिल गया था पर क्या करें आपसे तो हमारे रोमी की दोस्ती हो ही नहीं रही। शायद आप इसे इसकी पसंद के बिस्कुट खिलाना भूल जाते हो।

अब आप लोग ही बताइए कि आदमी को रोटी नसीब नहीं और मकान मालिकों के कुत्ते किरायेदारों के बिस्कुटों पर पलते रहेंगे ?

हमारी एक मकान मालकिन ने सारा घर हमें सौंप दिया जैसे देश तेरे हवाले। छोटी मोटी मरम्मत का काम भी हमारे विश्वास पर छोड़ गयीं। हम कहें कि घोर कलयुग में  ऐसी मकान मालकिन ? जरूर हमने पूर्व जन्म में मोती दान किए होंगे। पर कहते हैं न कि बुरे को नहीं उसकी मां को मारो।

आंगन में लगे पेड़ को कटवाने का आदेश जारी किया तो मजबूरी जाहिर करने पर सलाह दी कि आपके दफ्तर के चपरासी किस काम आयेंगे ?

-वे तो दफ्तर के काम के लिए हैं मां जी। घर के काम काज के लिए थोड़े हैं।

-हमारे काका को देखो। फलाने शहर में अफसर है। घर का हर काम दफ्तर के चपरासी करते हैं और एक तुम हो पेड़ भी नहीं कटवा सकते ? तेरा इतना कहा भी न मानेंगे ? कह कर तो देख।

-न मांजी। मुझसे यह भ्रष्टाचार नहीं होता।

-बड़ा आया हरिश्चंद्र,,,,भूखा मरेगा। मेरा मकान खाली कर दे।

मरता क्या न करता ? मकान खाली कर दिया। नये मकान मालिक के किराये के रेट ही बांटा कम्पनी की तरह ऊंचे थे। यानी नब्बे रुपये , नब्बे पैसे जैसे। वे मकान मालिक एक सप्ताह पहले से ही हमारा हालचाल पूछने आने लगते और विदा होते होते किराये के पैसों की याद दिला देते यह कहते हुए -बेटा। फिर आना पड़ेगा। किराया आज ही दे देते तो अच्छा होता। हम उन्हें सौ का नोट पकड़ाते और वे किसी चालाक बस कंडक्टर की तरह छुट्टे रुपये न होने का बहाना लगा सौ का नोट ही उड़ा ले जाते। हम सोचते कि अगले महीने एडजस्ट कर लेंगे पर वे हमारे पांव ही न लगने देते और कहते कि हमने तो दूसरे दिन ही बच्चों के साथ दस का नोट भिजवा दिया था। फिर हम उनसे किराये की रसीद मांगते तो वे कहते बेटा रसीद तो लिखी गयी।

-कब और कहां ?

-हमारे दिल में।

-पर हम आपका दिल निकाल कर तो सरकार को नहीं दिखा सकते न।

-फिर आप मकान बदल लो।

और लीजिए नये मकान मालिक ने तो ऐसा समां बांधा कि पूछो मत। हमारे लोकतंत्र ने हर छोटे बड़े को वोट डालने का अधिकार दिया है लेकिन हमारे मकान मालिक ने यह हक छीनने की कोशिश भी की। जब कमेटी वाले वोट बनाने आए तब हमने फाॅर्म भर कर जैसे ही उनको सौंपने चाहा तो किसी फिल्म के खलनायक की तरह वे अवतरित हुए और फाॅर्म के टुकड़े टुकड़े कर दिये। कमेटी वालों को भगा दिया। कारण पूछने पर बताया कि आपको वोट की पड़ी है और हमें हाउस टैक्स बचाने की। हमने कमेटी में लिखवा रखा है कि हमारे कोई किरायेदार नहीं रहता और अगर तुम्हारी वोट हमारे पते पर बन गयी तो हमारी पोल खुल जायेगी और साबित हो जायेगा कि किरायेदार तो है। फिर बरखुरदार हमारे ऊपर हाउस टैक्स लग जायेगा। वोट बनवाने का इतना ही शौक है तो कोई और मकान ढूंढ लो।

अब आप बताइए कि ऐसे उसूलों वाले मकान मालिकों के सामने बिजली कम जलाना , बल्ब कम वोल्टेज के लगाना , बच्चों के कूदने से छत कमज़ोर न हो जाये , पानी की बूथद बूंद बचाना , फूल न तोड़ना, घर आने का ठीक वक्त याद रखना , आंगन की सफाई और जमादार के पैसे देना आदि इतनी लम्बी लिस्ट है कि इन उसूलों का पालन करने वाली शख्सियत को कैलाश मानसरोवर जाकर तपस्या करने वाले योगी से भी ज्यादा मुश्किल टाॅस्क मिल गया। वैसे भी इस महंगाई के दौर में अपने मकान की चाह तो पूरी हो या न ,,,,,किरायेदार रहना पड़ेगा तो मकान मालिकों की उंगलियों पर नाचना पड़ेगा। भगवान् उन्हें सुदबुद्धि दे। सबको सन्मति दे भगवान्।

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 60 ☆ व्यंग्य – बकवास काम की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य “बकवास काम की । श्री विवेक जी का यह व्यंग्य सोशल मीडिया  के सामाजिक विसंगतियों पर पड़ रहे  प्रभावों पर एक सार्थक विमर्श है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्या # 60 ☆

☆ व्यंग्य  – बकवास काम की  ☆

गूगल ने हम सबको ज्ञानी बना दिया है. हर कोई इतना तो जानने समझने ही लगा है कि गूगल की सर्च बार पर उसके बोलते ही संबंधित जानकारी मोबाईल स्क्रीन पर सुलभ है. हर किसी के पास मोबाईल है ही, मतलब सारी जानकारी सबकी जेब में है . इसके चलते भले ही लोगों के भेजे में कुछ न हो, भेजा खुद घुटने में हो, पर हर अदना आदमी भी महा ज्ञानी बन बैठा है. दूसरे की सलाह हर किसी को बकवास ही लगती है. इतनी बकवास कि यदि फोन रखते ही तुरंत कहे गये सद्वाक्य, सामने वाला वह व्यक्ति जिससे फोन पर महा ज्ञान की चर्चायें चल रही थीं,  सुन ले तो हमेशा के लिये रिश्ते ही समाप्त हो जावें.

व्यंग्य पढ़ना सबको पसंद है, ऐसा इसलिये लिख रहा हूं क्योकि हर अखबार व्यंग्य छाप रहा है. संपादकीय पन्नों पर प्रमुखता से छप रहा है. व्यंग्य पढ़ कर उसके कटाक्ष पर सब मुस्कराते भी हैं, पर वह विसंगति जिस पर व्यंग्य लिखा जा रहा है, कोई सुधारना नही चाहता. उसे हम सब हास्य में उड़ा देना चाहते हैं. सब शुतुरमुर्ग की तरह समाज के उस कमजोर पक्ष को महज व्यंग्य में मजे लेने का विषय बने रहने देना चाहते हैं. रिश्वत हो, भ्रष्टाचार हो, भाई भतीजावाद हो, हार्स ट्रेडिंग हो, व्यवहार का बनावटीपन हो, ऐसी सारी विसंगतियो के प्रति समाज निरपेक्ष भाव से चुप लगाकर बैठने में ही भला समझ रहा है. ऐसे माहौल में देशप्रेम, चरित्र, धर्म, नैसर्गिक मूल्य, सम्मान जैसे सारे आदर्श उपेक्षित हैं. ट्वीट की असंपादित त्वरित संक्षेपिकायें सारे बंधन तोड़ रही हैं. एक क्लिक पर वर्जनायें स्वतः निर्वसन हो रही हैं. इसे फैशन कहा जा रहा है. ऐसे दुष्कर समय में हमारे जैसे व्यंग्यकार बकवास किये जा रहे हैं.

हर वह रोक टोक, वह हिदायत जो कभी उम्र के बहाव में या कथित प्रगतिशीलता के प्रभाव में बकवास लगती रही हैं, परिपक्वता की उम्र में किसी न किसी पड़ाव पर समझ आती हैं, और तब वह बड़ों की सारी बकवास काम की समझ आने लगने लगती है.नई पीढ़ी को पुनः वही बकवास इस या उस तरीके से दोहराकर बतलाई जाती है. कोरोना काल में तो दादी नानी की साफ सफाई की सारी पुरातन बकवास, बड़े काम की सिद्ध हो रही दिखती हैं.

हर कबीर को कभी उसके समय में लोगों ने सही नही समझा. बाद में जब किसी ने उसकी काम की बकवास को पढ़ा, समझा, गुना तो ढ़ाई आखर पर पी एच डी की उपाधियां बंटी. कबीरों के नाम पर प्रशस्तियां बांटी गईं. आज कोई पढ़े न पढ़े, समझे न समझे, समाज के पहरुये व्यंग्य साधक, हर पीढ़ी के कबीर यह काम की बकवास लिख ही रहे हैं. समय कभी मूल्यांकन अवश्य करेगा. इस  प्रत्याशा में कि यह बकवास काम की है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 25 ☆ बैन बनाम चैन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बैन बनाम चैन।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। सोशल मीडिया में विदेशी एप्प्स को बैन करने के सकारात्मक परिणामों के कटु सत्य पर विमर्श करती यह सार्थक रचना हमें राष्ट्रहित में उठाये कदमों हेतु प्रेरित करती है, बस समय के साथ जीवन शैली परिवर्तित करने  की आवश्यकता है।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 25 ☆

☆ बैन बनाम चैन

चैन बना कर व्यापार को बढ़ाने की खूबी तो आजकल जोर -शोर से सिखायी जा रही है । इतनी लंबी चैन की सामने वाले का चैन ही छीन ले । बस प्रचार – प्रसार हेतु छोटे- छोटे वीडियो बना कर पोस्ट करना तो मानो परम्परा का रूप ही धारण करने लगा है। हर बात को मीडिया से जोड़कर रखने में ही लोग फैशन समझते हैं । शेयर, हैश टैग, कमेंट, मैसेज ये सब रुतबे के साथ डिजिटल प्लेटफॉर्म में घूमते नजर आते हैं ।

हर पीढ़ी के दिलोदिमाग पर इनकी गहरी छाप पड़ चुकी है । चार- चार लॉक डाउन बिना ऊफ किये यदि मजे से बीत गए हैं ; तो केवल डिजिटलाइजेशन की वजह से । इसकी खूबी है; कि जब मोबाइल हाथ में तो कैसे वक्त बीतता जाता है , कुछ पता ही नहीं चलता ।  जिस प्रश्न का उत्तर गूगल बाबा से पूछो तो उसके साथ – साथ बहुत से उत्तर अनोखे अंदाज में देने लगता है । यदि आप कच्चे मन के  स्वामी हुए तो बस वहीं अटक कर रह जायेंगे, यदि  छूटने हेतु थोड़ा और जोर लगाया तो यू ट्यूब के फंदे में अवश्य फसेंगे । बस यहाँ से आपको भगवान भी नहीं बचा सकते क्योंकि यहाँ आध्यात्म से  जुड़े हुए एक से एक रोचक प्रसंग भी उपलब्ध रहते हैं ।

अब कैसे बचें ? आखिर इस सब से पेट तो भरेगा नहीं । फिर भी मनोरंजन तो जरूरी है;  सो प्रयोग करते रहें । अब जबकि कुछ एप्स पर बैन लग चुका है तो इनके यूजर बेचारे रुआसे से हो रहे हैं । मजे की बात देखिए कि इस मुद्दे पर भी दो खेमे तैयार  हैं, एक पक्ष में दूसरा विपक्ष में । क्या राष्ट्रीय हितों पर ही गुटबाजी अच्छी बात है ।  इन एप्स का इतना नशा कि आप राष्ट्र की अस्मिता को भी दाँव पर लगा कर इनके प्रयोग के समर्थन में जी- जान की बाजी लगा देंगे ।

अच्छा हुआ जो बैन लगा, पता तो चला कि इस विदेशी एप तकनीकी ने किस तरह से माइंड को  बड़ी सफाई के साथ  सेट कर मास्टरमाइंड बना दिया है। सही है ; जब मानसिक युद्ध मोबाइल के मार्फ़त हो रहा है, तो बचाव भी मोबाइल के माध्यम से ही होना चाहिए । समय रहते सचेत होने से स्वदेशी एप को बढ़ावा मिलेगा व भारतीय और तकनीकी रूप से उन्नत होने का प्रयास करेंगे जिससे सुखद परिणाम अवश्य आयेंगे अतः बेचैन होने से अच्छा है ; चैन के साथ बैन का स्वागत करें ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 55 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – लोक शिक्षण ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 55

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – लोक शिक्षण ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

आपके लेखन में प्रारंभ से लोक शिक्षण पर बहुत बल है। कई लोगों का मानना है कि इस उद्देश्य के प्रबल आग्रह के कारण आपके लेखन की साहित्यिक महत्ता या गरिमा क्षतिग्रस्त हुई है, आत्म समीक्षा के एकांत क्षणों में क्या आपको भी ऐसा लगता है ?

हरिशंकर परसाई-

एक तो इसका कारण यह हो सकता है कि मैं 10-12 साल शिक्षक रहा हूं, तो जो मेरे अंदर शिक्षक था, वह मरा नहीं या मैं शिक्षक का ही रोल प्ले करता रहा। मेरे लेखन में लोक शिक्षण है और मैं अभी भी ये मानता हूं कि लोक शिक्षण बहुत आवश्यक है, जो देश में वर्तमान हालात चल रहे हैं उसके लिए मैं उसी बात को दोषी मानता हूं कि राजनैतिक दलों ने,  ट्रेड यूनियन्स ने, विश्वविद्यालयों ने लोक शिक्षण नहीं कराया। लोगों को शिक्षित नहीं किया गया। वैज्ञानिक दृष्टि नहीं दी गई, तर्क नहीं दिए गए। इतिहास सही ढंग से नहीं समझाया गया। समाज की रचना को ठीक से नहीं समझाया गया। अन्धविश्वासों को नहीं मिटाया गया, पुरानी परंपराओं के प्रति विरक्ति नहीं पैदा की गई। ये लोक शिक्षण होता है जो वास्तव में नहीं हुआ, हमारे देश में लोक शिक्षण नहीं हुआ, इसलिए हम आज भी देख रहे हैं कि हमारे देश के ऊपर संकट ही संकट हैं। लोक शिक्षण दो प्रकार का होता है, एक तो सीधा, स्पष्ट और दूसरा परोक्ष या सांकेतिक। मेरे लेखन में कहीं शायद सीधा डायरेक्ट कोई शिक्षण आ गया हो, कोशिश मैंने यही की है कि परोक्ष रूप से शिक्षण करूं, अपने व्यंग्य के द्वारा या स्थितियों का चित्रण करके मैं रख दूं और उससे पढ़ने वाला शिक्षक हो जावे, ये मैंने कोशिश की। अब इससे मेरे साहित्य की मौलिकता घटी या बढ़ी है, मैं नहीं कह सकता हूं,  हो सकता है घटी हो, मान लेता हूं, परन्तु मैं लोक शिक्षण को साहित्य में आवश्यक मानता हूं।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ व्यंग्य रचना / व्यंग्य पाठ – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट

जगत सिंह बिष्ट

( आदरणीय श्री जगत सिंह बिष्ट जी, मास्टर टीचर : हैप्पीनेस्स अँड वेल-बीइंग, हास्य-योग मास्टर ट्रेनर, लेखक, ब्लॉगर, शिक्षाविद एवं विशिष्ट वक्ता के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार भी हैं। ई- अभिव्यक्ति द्वारा आपका  प्रसिद्ध व्यंग्य एक व्यंग्यकार की आत्मकथा 28 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित किया था .

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा की कुछ पंक्तियाँ …….

यह एक व्यंग्यकार की आत्मकथा है।  इसमें आपको ’एक गधे की आत्मकथा’ से ज़्यादा आनन्द आएगा।  गधा ज़माने का बोझ ढोता है, व्यंग्यकार समाज की विडम्बनाओं को पूरी शिददत से मह्सूस करता है।  इसके बाद भी दोनों बेचारे इतने भले होते हैं कि वक्त-बेवक्त ढेंचू-ढेंचू करके आप सबका मनोरंजन करते हैं।  यदि आप हमारी पीड़ा को ना समझकर केवल मुस्कुराते हैं तो आप से बढ़कर गधा कोई नहीं।  ……….

शेष रचना को आप  निम्न लिंक्स पर पढ़ /सुन सकते हैं  —-

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं  >>>>>

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा – श्री जगत सिंह बिष्ट

इस व्यंग्य रचना को व्यंग्यकार से सीधे सुनना एक अद्भुत अनुभव होगा। इसी तारतम्य में आप श्री जगत सिंह बिष्ट जी के चित्र पर अथवा निम्न यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर इस रचना को आत्मसात कर सकते हैं ->>>>

यूट्यूब लिंक >>>>

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा – श्री जगत सिंह बिष्ट 

©  जगत सिंह बिष्ट

इंदौर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – सस्वर व्यंग्य पाठ ☆ हम कान हैं ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है  आपके नवीन व्यंग्य “हम कान हैं “ का सस्वर पाठ। ) 

☆ व्यंग्य – हम कान हैं

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का यह व्यंग्य वास्तव में एक प्रयोग है। इस व्यंग्य की रचना अभी हाल ही में की गई है जो कि अप्रकाशित है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आप व्यंग्य विधा की इस रचना को सुनकर कदापि निराश नहीं होंगे और अपने मित्रों से अवश्य साझा करेंगे।

आप आदरणीय श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के नवीनतम व्यंग्य  ” हम कान हैं “ उनके चित्र अथवा यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर उनके ही स्वर में सुन सकते हैं।

 

आपसे अनुरोध है कि आप यह कालजयी रचना सुनें एवं अपने मित्रों से अवश्य साझा करें। ई- अभिव्यक्ति इस प्रकार के नवीन प्रयोगों को क्रियान्वित करने हेतु कटिबद्ध है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 59 ☆ व्यंग्य – व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य “व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप ।  श्री विवेक जी ने  तटस्थ होकर सार्थक विषय पर विमर्श किया है।  मुझे अक्सर ऐसा साहित्य पढ़ने को मिल रहा है जिसमें स्त्री और पुरुष साहित्यकार  एक दूसरे के मन की विवेचना अत्यंत संजीदगी से कर रहे हैं या एक दूसरे के क्षेत्र में अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं । इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्या # 59 ☆

☆ व्यंग्य  – व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप  ☆

मेरी एक कविता में मैंने लिखा है कि आज की नारी ने जींस तो पहन लिया है, पर पारम्परिक साड़ी यथावत है, आशय है कि स्त्री को हर क्षेत्र में दोहरी भूमिका निभानी पड़ रही है. बड़े पदों पर स्त्री को अतिरिक्त सतर्क रहना होता है कि कोई यह न कहे कि अरे वो तो महिला हैं.

व्यंग्य के क्षेत्र में भी महिला व्यंग्यकार अपनी अन्य पारिवारिक व कार्यालयीन जिम्मेदारियो के साथ  बहुत महत्वपूर्ण लेखन कर रही हैं. यह भी सही है कि महिला होने के नाते प्रकृति दत्त गुणो के चलते कई जगह महिला लेखिकाओ पर संपादको, प्रकाशको या पाठको का सहज अतिरिक्त ध्यान जाता ही है. जिसके लाभ व हानि अवश्यसंभावी हैं.

प्रश्न है कि  क्या व्यंग्य रचना का मूल्यांकन यह देखकर किया जाय कि व्यंग्यकार स्त्री है या पुरूष ?  क्या लेखिका ही स्त्री मन को समझ सकती है ? मुझे लगता है कि व्यंग्यकार को स्त्री या पुरूष के खेमो में नहीं बांटा जाना चाहिए.  जब व्यंग्य लिखा जाता है तो विसंगतियो पर प्रहार होता है. सबसे अच्छा व्यंग्यकार वही होता है जो ” बुरा जो देखन मैं चला मुझसे बुरा न कोय “, मतलब स्वयं पर अंगुली उठाने का साहस करे. हो सकता है कि कुछ विशेष विषयो पर व्यंग्यकार अपनी स्वयं की परिस्थति परिवेश के अनुरूप पक्षपात कर जाता हो पर तटस्थ लेखन ही लोकप्रिय होता है. यह बिन्दु महिला व्यंग्यकारो पर भी लागू होता है.

अनेक व्यंग्यकार या चुटकुलो में पत्नी पर, साली पर, महिलाओ पर कटाक्ष किये जाते हैं, किन्तु महिलाये  अपनी जिजिविषा से इस सब को गलत सिद्ध करती बढ़ रही हैं. स्त्री समानता के इस समय में जितने जल्दी स्त्री विमर्श पीछे छूट जावे, समाज के लिये बेहतर होगा. व्यंग्यकार के पास सोच का अलग दायरा होता है, अतः हमें तो व्यंग्य में स्त्री समानता को बढ़ावा व सम्मान देना ही चाहिये. परिहास की बात अलग है, जिसमें मैं अपनी पत्नी के पात्र के जरिये कई बार व्यंग्य लिख देता हूं, पर अंतरमन से मैं पूरा फेमनिस्ट हूं.

पहली स्त्री व्यंग्यकार किसे कहा जावे यह शोध का विषय है, मुझे सूर्यबाला जी, अमृता प्रीतम जी,जबलपुर की सुधारानी श्रीवास्तव जिन्होने परसाई जी के प्रभाव में कुछ व्यंग्य रचनायें की  या बचपन में पढ़े हुये शिवानी जी के कुछ तंज वाले पैराग्राफ भी स्मरण आते हैं.  व्यंग्य शैली में इक्का दुक्का रचनायें तो अनेक लेखिकाओ की मिल जायेंगी. कविता, विशेष रूप से नई कविता के समय में कई कवियत्रियों ने भी चुटकुलो को व्यंग्य कविता में पिरोया है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 24 ☆ शिव संकल्प ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शिव संकल्प।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन के कटु सत्य पर विमर्श करती यह सार्थक रचना हमें कई प्रकार से प्रेरित करती है, बस शिव संकल्प की आवश्यकता है।  इस कालजयी सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 24 ☆

☆ शिव संकल्प  

आचार, सदाचार, विचार, प्रचार, भ्रष्टाचार, दुराचार;

इन प्रत्ययों  ने तो नाक में दम कर दिया है। ये सत्य है कि दो और दो चार तो होते हैं; पर इनकी तो महिमा निराली है। लोग आचार- विचार करें या न करें किन्तु प्रचार अवश्य करेंगे। सदाचार का पाठ पढ़ते -पढ़ाते न जाने कितने भ्रष्टाचार और दुराचार इस जगत में हो रहे हैं । भ्रूण हत्या से शुरुआत होती है,  यदि वहाँ से बच निकले तो दुराचार की भेंट चढ़ जाने का खतरा सदैव मंडराता रहता है। यदि भाग्यवश इन दोनों खतरों को पार कर लिया तो अवश्य ही व्यक्ति पहले सदाचार  सीखेगा फिर सिखायेगा। इस सबके साथ- साथ उसे आसपास चल रहे  विभिन्न क्षेत्रों के प्रचार – प्रसार को भी झेलना होगा  या इसका अंग बन कर स्वयं भी इसमें कूद जाना पड़ेगा।

अब जब इन सबसे विजयी होकर कर्मभूमि पर उतरो तभी से भ्रष्टाचार का प्रवेश शुरू हुआ समझो। कोई भी कार्य इसके बिना पूरा ही नहीं होता। हर व्यक्ति इसी की दुहाई देता हुआ मिल जायेगा कि  ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार छाया हुआ, कोई भी कार्य बिना बड़ी पहचान होते ही नहीं, भलाई का जमाना ही नहीं रहा।

महंगाई तो इसके साथ  अमरबेल की तरह पनपती रहती है। बस कोई आधार मिला तो समझो निराधार आरोपों का दौर शुरू हुआ, लेनदेन से क्या नहीं हो सकता, सारे समझौते इसी से शुरू हो इसी पर खत्म होते हैं। ये कोरोना थोड़ी है; जो बढ़ता ही जाए, इसे दूर करना ही होगा। जागरूक लोग क्या नहीं कर सकते, जब एक प्रेमी कल्पना में ही सही आसमान से तारे तोड़ कर ला सकता है तो क्या समझदार भारतीय नागरिक भ्रष्टाचार रूपी अमरबेल को उखाड़ कर नहीं फेक सकता है क्या…?

फेक न्यूज के विशाल सागर में; डूबने- उतराने  से बेहतर है,  कि कोई ठोस कदम उठा कर देश और समाज को स्वस्थ बना;  कुरीतियों को दूर कर सदाचारी व नेक इंसान बनें। मेहनत पर विश्वास कर आगे बढ़ें तो अवश्य ही भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारी का मुँह काला होगा, बस ऐसा शिव संकल्प लेने की जरूरत हम सबको है।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 54 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – एक रचना कौशल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 54

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – एक रचना कौशल ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

ऐसा प्राय: देखने में आया है कि आप अपनी रचना में जहां सबसे मूल्यवान कथ्य का सम्प्रेषण कर रहे होते हैं, वहां बहुत कम देर रुकते हैं, इन क्षणों में आपका गद्य अचानक बहुत संक्षिप्त और उसकी गति अत्याधिक त्वरित हो उठती है। एक लेखक के रूप में अपने इन उत्कर्ष क्षणों में स्वंय को सचेत रूप में अनुपस्थित कर देने का यह गुण आपकी मानवीय विनम्रता का सहज गुण है या सयास निर्मित एक रचना कौशल ?

 

हरिशंकर परसाई-

यह मेरी विनम्रता नहीं है,बात असल में ये है कि ये कौशल भी नहीं है। मैं वास्तव में उस बिंदु तक आते-आते परिस्थितियों का, वक्तव्यों का ऐसा वातावरण निर्मित कर लेता हूं कि उनमें से इस प्रकार की अभिव्यक्ति निकलनी ही चाहिए,जो कि निष्कर्ष रूप में होती है, लेकिन उसकी भूमिका मैं लम्बी बनाता हूं, और उस लम्बी भूमिका के बाद उस निष्कर्ष का क्षण आता है, यदि निष्कर्ष के उस क्षण को मैं लम्बा कर दूं तो मेरे लेखन का प्रभाव नष्ट हो जावेगा। मुझे संक्षिप्त में ही उसे एकदम से कहकर आगे बढ़ जाना चाहिए,कारण कि पाठक का दिमाग तो तैयार हो गया तब तक। तो एक दो वाक्य चलते फिरते कह देने भर से वह पूरी की पूरी बात ग्रहण कर लेता है। यदि मैं उसको ४-६-८ वाक्यों में समझाऊं तो इसका मतलब कि मेरी पहले की बनाई भूमिका बेकार हो जावेगीऔर उसका प्रभाव भी नहीं रह पायेगा, इसलिए मैं ऐसा करता हूं।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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