हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #278 – कथा-कहानी ☆ डाउटफुल मेन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता कब तक दमन करेंगे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #278 ☆

☆ डाउटफुल मेन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(एक लघुकथा उन हिमायतियों के नाम)

नाम क्या है तेरा ?

सर, राम विश्वास।

इसका मतलब, राम पर विश्वास है तुझे

नहीं-नही सर, ये तो सिर्फ नाम है मेरा जो मेरे माँ-बाप का रखा हुआ है।

ये तो हिन्दू नाम है, हिन्दू धरम से है न तू ?

हाँ सर, कहने को हिन्दू हूँ पर मैं हिन्दू धर्म को नहीं मानता। मूर्तिपूजा और हिंदू धर्म के पाखण्डों से बहुत दूर हूँ, बल्कि कट्टर विरोधी हूँ मैं तो।

तो फिर किस धर्म को मानता है?

मैं.. मैं सर, वैसे तो किसी धर्म को नहीं मानता हूँ, एक अलग विचाधारा के उन्नत पंथ से जुड़ा हूँ न इसलिए।

ये अलग विचाधारा क्या होती है, क्या करते हो तुम लोग?

सर शुरुआत में तो हम मेहनतकश लोगों के अधिकार की लड़ाई लड़ते थे, पर उसके बाद से अब हिदू धर्म के तथाकथित रूढ़िवाद और आडम्बरों के साथ हिंदुओं के धर्मग्रंथ इनके तीज त्योहारों के विरोध की मशाल जलाए रखने का ध्येय बना रक्खा है। देश की बात करें तो भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे अर्थहीन नारे भी हमारी जमात के साथी अपनी जुबान पर नहीं लाते।

तूने गीता, रामायण या हिंदुओं की कोई किताबें पढ़ी है?

नहीं सर- मैं क्यों इन दकियानूसी किताबों में अपने समय को खोटी करूँगा, हाँ सुनी सुनाई बातों को लेकर इनकी आलोचनाओं में जरूर भाग लेता रहा हूँ।

कुरान पढ़ा है क्या?

नहीं सर, पर कुरान पर आधारित कई किताबें और  हिन्दू विरोध में हमारे अपने ही पंथ के बड़े-बड़े विचारकों द्वारा लिखे उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ , निबन्ध, लेख आदि अक्सर पढ़ता ही रहता हूँ।

अच्छा ये बता, हमारे धरम को मानेगा क्या, सीने पर बंदूक रखते हुए एक कड़क सवाल।

सर जान बख्श दी जाए तो कोई हर्ज नहीं है।

वैसे भी हमने कभी आपके धर्म की या आप लोगों की अलोचना से अपने को सदा दूर रखा है।

बातें बहुत शातिराना है तेरी, आदमी तू बहुत गड़बड़ लगता है मुझे।

अच्छा! एक काम कर अपनी पेंट उतार।

सर प्लीज़?

जल्दी से, देख रहा है न हाथ में ये बंदूक

जी, उतारता हूँ

तूने कहा बहुत किताबें पढ़ी है हमारे धरम की, तो कलमा भी पढ़ने में आया होगा कहीं, याद है तो सुना।

 हाँ-हाँ याद है न सर,

बोलने के लिए मुँह खोला ही था रामविश्वास ने कि,

धाँय..धाँय..धाँय.

साला डाउटफुल डर्टी मेन, अपने धरम का नहीं हुआ तो हमारा क्या होगा।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – प्रवाह ? ?

वह बहती रही, मैं कहता रहा।

…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।

…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।

… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।

… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।

…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।

… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।

… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है।  तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।

… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।

… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।

… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।

 वह बहती रही।

?

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8:35, 21 मई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 18 ☆ लघुकथा – बाबू रामदयाल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “बाबू रामदयाल“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 18 ☆

✍ लघुकथा – बाबू रामदयाल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बाबू रामदयाल आज बहुत दुखी हैं। मौत के तांडव की खबरों ने उन्हें हिला कर रख दिया है। उनके शहर में भी दो परिवार निराश्रित हो गए हैं। उन परिवारों के मुखिया एक दूसरे के मित्र थे और एक जघन्य घटना में दोनों एक साथ यमलोक सिधार गए। दोनों की पत्नियां शून्य में घूर रही हैं कि अब क्या होगा। उनके पति घूमने फिरने गए थे मृत्यु को गले लगाने नहीं। इस हादसे का जिम्मेदार कौन है, इसका उत्तर उन्हें कोई नहीं दे रहा।

शहर में गमगीन वातावरण बना रहा पूरे  दिन। उनकी मौत की खबरें अखबारों में छपी उनके सामने रखी हैं । जगह जगह शोक सभाओं के बारे में सुन रहे हैं। दोषियों को सबक सिखाए जाने की कस्में खाई जा रही, ऐसी खबर भी हैं। लोग दांत किटकिटा रहे हैं वाट्सएप फेसबुक पर।

बाबू रामदयाल की  हिम्मत नहीं हो रही  कि मृतकों के घर की ओर एक चक्कर मार आएं।  न अखबार पढ़ पा रहे न टीवी रेडियो सुन पा रहे। बस एकटक शून्य में दृष्टि गढाए हुए हैं जैसे अपनी खुली आंखों से अपना जनाजा देख रहे हों। पता नहीं क्यों उनके अंदर एक भय समा रहा है कि कोई उनके घर आकर उन्हें गोली मारकर मौत की नींद सुला जाए तो उनकी पत्नी का क्या होगा। बिना पढी लिखी अधेड़ अवस्था में कैसे जीवन यापन करेगी। उनके बैंक खाते में भी इतने पैसे जमा नहीं हैं कि उसकी जिंदगी उनसे कट जाए। वे जो कमा कर लाते हैं उसीसे हम दोनों का पेट भरता है। और न जाने कितने प्रश्न उनकी आंखों में समाए हुए हैं जो उन्हें सोने भी नहीं दे रहे।

वे शांत मुद्रा में अपने घर के बाहर बैठे हैं। तभी उनके एक पड़ोसी सामने से गुजरते हुए हाथ उठा कर कहते हैं, कैसे हैं रामदयाल जी । बाबू रामदयाल उनकी ओर देखते हैं और पाते हैं कि पड़ोसी के चेहरे पर तो एक शिकन भी नहीं है। रामदयाल हक्के बक्के से अपने पड़ोसी को जाते हुए देखते रहते हैं। सोचते हैं कि वातावरण में पसरे सन्नाटे की क्या इन्हें भनक तक नहीं।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 69 – रेत… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रेत।)

☆ लघुकथा # 69 – रेत… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

शांति दास जी सोच रहे थे कि आसपास इतना सन्नाटा है। आजकल कोई सुबह की सैर को भी नहीं जाता।

सुबह हो गई अब चाय तो बना कर पी लेता हूं।

आवाज आई कचरे वाली गाड़ी आई सब लोग कचरा डालो ।

उन्होने सोचा चलो कचरा डालकर ही चाय पीता हूं ।

कचरा उठाकर  बाहर डालने के लिए गए, तभी कचरे वाले गाड़ी वाले ने कहा – बाबा मुंह पर कपड़ा बांधकर कचरा डाला करो बाहर आजकल मौसम ठीक नहीं है गर्मी बहुत हो रही है। सुना है लोगों को एक नई तरीके की बीमारी भी हो रही है।

शांति दास जी ने कहा-बेटा जान का खतरा तो वैसे भी है क्या करूं हमेशा आइसोलेशन में अकेला ही रहता हूं बेटा बहू ऊपर की मंजिल में रहते हैं नीचे मुझे अकेला छोड़ दिया।

पत्नी के गुजर जाने के बाद यह जिंदगी बोझ हो गई है।

बुढ़ापे के जीवन का बोझ मुझसे सहन भी नहीं होता। चाहता हूं कि मर जाऊं पर कोई बीमारी भी नहीं लगती।

ऐसा लगता है कि मरुस्थल के चारों ओर से में घिरा हूं और सब तरफ मुझे रेत ही रेत  दिखाई दे रही है।

कचरे की गाड़ी वाला ने कहा- बाबा आपकी बात जो है तो मेरे सर के ऊपर से जा रही है । ठीक है आपका जीवन आप जानो मैं आगे का कचरा लेता हूं। चाहे रेत कहो और चाहे  कुछ और कहो आपकी आप जानो …..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 226 – वात्सल्य धर्मिता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “वात्सल्य धर्मिता”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 226 ☆

🌻लघु कथा🌻 वात्सल्य धर्मिता 🌻

पहलगाम घटना के बाद सोशल मीडिया पर धर्म को लेकर बड़ा उछाल होने लगा। आज सिध्दी अपने होटल पर परिवार वालों के साथ बैठी थी। अच्छी खासी भीड़ थी।

वह एक गायक कलाकार था। होटल में गाना गाता था। लोगों के बीच गाना गा रहा था परन्तु डर और बेबसी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।

वह मेनैजर से बात करने लगी। बातों के इशारे को गायक को समझते देर न लगी। मेनैजर बता रहा था–हम तो अभी निकाल दे मेडम आप कहें तो?? लेकिन यह कमाने वाला अकेला माँ बाप और भाई बहन का बोझ लिए यह काम करता है और शाम को हमारे होटल में 4-5 घंटे गाना गाता है। आवाज अच्छी है।

सिध्दी ने कागज नेपकिन में कुछ रुपये बाँधे जाते समय उसे देते बोली–खुश रहो धर्म नही तुम एक अच्छे गायक हो। कला का सम्मान करो।

पैरों पर गिर पड़ा। मेरा-नाम धर्म जो भी है मेडम, मुझे आपके वात्सल्य धर्मिता की पहचान हो गई है। मै जीवन पर्यन्त आपकी भावनाओं का सम्मान करुंगा।

आज फिर एक कला जीवंत हो उठी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गद्य क्षणिका – बेबाकी… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– बेबाकी…” ।

~ मॉरिशस से ~

गद्य क्षणिका— बेबाकी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

महात्मा गांधी संस्थान में साथ काम करने वाला हमारा एक मित्र कहता था, “सभी लेखक विद्वान नहीं होते।” संस्थान में हम दो तीन लिखने वाले थे और वह लिखने वाला नहीं था। गजब यह कि वह अपनी इस बात से हम पर हावी हो जाता था। तब मेरी पक्षधरता लेखकों के लिए ही होती थी। पर अब मुझे लगता है उतनी बेबाकी से कहने वाले उस मृत आदमी की समाधि पर श्रद्धा के दो फूल चढ़ा आऊँ।

 © श्री रामदेव धुरंधर

24 – 04 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “सहानुभूति” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “सहानुभूति” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वे विकलांगों की सेवा में जुटे हुए थे। इस कारण नगर में उनका नाम था। मुझे उन्होंने आमंत्रण दिया कि आकर उनका काम व सेवा संस्थान देखूं। फिर अखबार में कुछ शब्द चित्र खीच सकूं।

वे मुझे अपनी चमचमाती गाड़ी में ले जा रहे थे। उस दिन विकलांगों के लिए कोई समारोह था संस्था की ओर से।

राह में बैसाखियों के सहारे धीमे-धीमे चल रहा था एक वृद्ध।

उनकी आंखों में चमक आई। मेरी आंखों में भी।

उन्होंने कहा कि यह वृद्ध हमारे समारोह में ही आ रहा है।

मैंने सोचा कि वे गाड़ी रोकेंगे और वृदध विकलांग को बिठा लेंगे पर वे गाड़ी भगा ले गये ताकि मुख्यातिथि  का स्वागत् कर सकें।

मेरी आंखों में उदासी तैर आई उनकी सहानुभूति देखकर।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ५ – लघुकथा – भोर का तारा ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ५ ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ भोर का तारा ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

भोर का तारा अब भी एकटक निहार रहा था। नन्हा गोलू चुप होने का नाम नही ले रहा था। मानों वह चीख चीखकर कह रहा था कि क्या मौसी! तुम भी मुझको छोड़कर चली जाओगी।

कुछ ही महीनों पहले की बात थी, सब कुछ ठीक ठाक था। घर में दुबारा मंगल बधाई बजने को थी, लेकिन उपर वाले को न जाने क्या मंजूर था कि सुमन की खुशियाँ धरी की धरी रह गयी। नन्हें आगन्तुक के आने से पहले ही वह चल बसी। गोलू अब इस दुनियां में बिना माँ के होकर रह गया था। ईश्वर को गोलू पर थोड़ी दया आयी तो उसे मौसी की गोद मिली तो उसको थोड़ी राहत मिली।

लेकिन आज एक बार फिर तेज- तेज बज रहे बैंड बाजों की आवाज ने गोलू को डरा दिया। गोलू आज बिल्कुल ही नही सोया। बार बार चिल्ला देता। बड़ी मुश्किल से उसकी कोई दूसरी चचेरी मौसी ने उसे पकड़ी तो जाकर, कहीं शादी की रस्म पूरी करने के लिये बिंदु मंडप में बैठ पायी। सिंदूरदान होने के बाद जब वह वापस कुछ रस्म अदाएगी के लिये कमरे में आयी तो गोलू उसे देखकर चिल्ला पड़ा, और इसबार उसकी गोद में पहुँच कर ही चुप हुआ। उसे आज नींद नही आयी। पूरी रात जगा ही रहा। शायद उसे इस बात का आभास हो चुका था कि उसकी मौसी भी उसे छोड़कर जाने वाली है।

बिंदु ने भी दौड़ कर उसे गले लगा लिया। सूरज निकलने से पहले ही बिदाई का मुहूर्त था। भोर का तारा अभी भी अकेले एक टक सब कुछ देख रहा था। बिंदु की विदाई की रस्म शुरू हो गयी थी। सभी रो रहे थे और गले लगकर बिंदु से मिल रहे थे। कार दरवाजे पर खड़ी हो गयी थी। अब विन्दु को इसी कार में बैठना था। किसी अंजान गोद में फंसा, गोलू एकदम से चिल्ला उठा, मानों वह कह रहा हो, मौसी.. क्या तुम भी मुझे छोड़कर चली जाओगी। बिंदु अपना बड़ा घुंघट हटाते हुए, पीछे मुड़ी तो गोलू, विवेक के गोद में था।

गोलू को गोद में लिये हुए विवेक यह कहते हुए कार में बैठा कि विन्दु तुम परेशान मत होओ, मत रोओ। गोलू भी हमारे साथ ही चलेगा। अब गोलू चुप हो गया था। फूलों से सजी कार आगे की ओर बढ़ गयी और धीरे -धीरे आँखों से ओझल हो गयी। आसमान में लालिमा छाने लगी थी। भोर का तारा भी हँसता हुआ वापस नीलगगन में समाते हुए आँखों से ओझल हो गया। 

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “अहसास“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆

✍ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

श्रीमती जी की आदत थी कि आम खाकर उसकी गुठली घर के पास ही कच्ची जगह में मिट्टी के अंदर दबा देती । कभी कभी घर के पास कच्ची जगह में फेंक देती। समय आने पर गुठली में से अंकुर फूटता, पहले जड़ दिखती फिर छोटा सा तना और उस पर छोटी छोटी पत्तियां। श्रीमती जी देखकर खुशी के मारे फूल जाती। अंकुरित गुठली को वह जगह मिलती वहां गाड़ देती। जब आम का छोटा सा पेड़ हो जाता तो हमारा तबादला हो जाता। पेड़ का क्या हुआ हमें कुछ पता नहीं चलता। हां, जहां होते वहां श्रीमती जी उस पेड़ की कल्पना करती कि अब बड़ा हो गया होगा, अब तो आम भी आ गए होंगे। ऐसा ही चलता रहता।

रिटायर होने के बाद जब यह घर बना तो आसपास काफी खाली जगह थी। श्रीमती जी आदत के अनुसार गुठली डाल दिया करती। की पेड़ भी हुए परंतु उनमें से एक पेड़ ही जीवित रहा। उसे बढते हुए देखकर सब खुश होते। आशु कल्पना करता कि जब आम लगेंगे तो पहला आम मैं खाऊंगा। गुड्डी तपाक से बोल पड़ती कि तुम्हीं क्यों, क्या मैं नहीं खा सकती पहला आम। फिर दोनों समझौता करते, अच्छा आधा आधा हम दोनों। उनकी बात सुनकर सब हँस पडते। बच्चे बड़े होते गए और पेड़ भी बड़ा होता गया।

अब पांच साल से वह पेड़ फल दे रहा है। कहते हैं कि पेड़ अपना फल नहीं खाता, बांट देता है, यह हम उस समय महसूस करते जब पका आम धप्प से गिरता। कुछ ग सलाह देते कि कच्चे आम तोड़ कर अचार डाल लो तो कुछ कहते कि तोड़ कर अखबार में लपेट कर रख दो, पर जाएंगे। परंतु श्रीमती जी को आम तोड़ना मंजूर नहीं था। कोई तोड़ने की कोशिश करता तो वह नाराज होती हैं और बच्चों को तो डांट ही देती है। कहती हैं कि पेड़ खुद थोड़े ही आम खाता है। जब फल पर जाता है तो तुरंत नीचे गिरा देता है। जिसके नसीब में होता है वह खा भी लेता है।

आज सुबह श्रीमती जी दरवाजा खोलकर खुली हवा खाने के निकलीं तो देखा कि सामने राजू टहल रहा है। उसने अचानक उछल कर दो अधपके आम तोड़ लिए। श्रीमती जी ने ऊपर की ओर देखा तो जहां से आम तोड़े थे उस जगह से पेड़ की डाल से दो बूंद पानी टपक रहा है और इधर श्रीमती जी की आंख से दो आंसू निकल कर गालों पर लुढ़क गए।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – एक क्षण विश्वास।)

☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दरवाजे की घंटी जोर-जोर से बज रही थी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक दुर्बल बुढ़िया खड़ा थी।

“क्या है?” मैंने पूछा

“मैं आपके पड़ोसी शर्मा जी के घर पर काम करती हूं उन्होंने आपके लिए एक उपहार भेजा है।”

“क्या मज़ाक कर रही हो अम्मा, शर्मा जी और उनकी वाइफ कभी सीधे मुंह बात नहीं करती वह मेरे लिए उपहार क्या भेजेगी?

उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान थी। मैंने कहा अम्मा मुझ पर व्यंग्य कर रही हो।

“आपका ही उपहार है मैडम, इसे आप ले लीजिए।”

“क्या बेटा मुझे ठंडा एक गिलास पानी मिलेगा?”

मैंने सोचा चलो, अच्छा है पड़ोसी ने कुछ उपहार तो दिया है पर क्या इस अजनबी औरत को पानी देना चाहिए? उसकी आंखों में मुझे सच्चाई दिखाई दी वह पसीने में डूबी थी और मुँह  सूख था।

चारों ओर दोपहरी का सन्नाटा था। कोई एक भी पशु पक्षी नहीं दिख रहे थे।

अचानक मेरे मन में ख्याल आया कि ज्यादा दया दिखाना उचित है या नहीं?

मैंने दरवाजा बंद करते हुए कहा आप रुको मैं पानी देती हूँ। एक बोतल में फ्रिज का पानी भरा। दो रोटी और कुछ सब्जी को एक पेपर प्लेट में रखा। बाहर आई और कहा अम्मा यहां बैठकर खा लो चाहे तो  दोपहर में आराम करके शाम को चली जाना और यह उपहार भी आप ही लेते जाना और मैंने दरवाजा बंद कर लिया। अंदर ए सी ऑन कर बैठ गई पर मन में यही ख्याल आता रहा कि वह बेचारी बुढ़िया किस मजबूरी में मेरे घर आई ।

उसके मन में क्या चल रहा है? आजकल बाहर इतना खतरा है कि किसी अजनबी पर एक क्षण विश्वास नहीं कर सकते भले ही वह सच बोल रहा हो। चलो शाम को दरवाजा खोल कर देखूंगी। अभी जाने दो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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