हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ दान का सुसंस्कार॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दान का सुसंस्कार ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

एक सद्गृहस्थ थे। बड़ी सादगी से संयमित जीवन बिता रहे थे। अपने परिवार को सुसंस्कारी बनाने में निरत थे। सबकों सदाचार की प्रेरणा देते थे। नीति पूर्वक अपनी आजीविका कमाते थे और संतोष पूर्वक रहते थे। जितना परोपकार बन सकता था करते रहते। अपने धन और समय का यथा संभव परमार्थ में नियोजन करते और आत्म शांति का अनुभव करते थे। शांति की साधना के लिए पारंपरिक रूप से वे वन तो नहीं गये वरन तपोवन की सी शांति उन्हें उनके घर में ही उपलब्ध हो गई। उनकी ऐसी योग साधना से देवता बड़े प्रसन्न हुये। एक दिन देवराज इंन्द्र ने प्रकट होकर उस विरक्त गृहस्थ से अपनी प्रसन्नता दिखाते हुए वरदान माँगने को कहा।

सरल और संतुष्ट गृहस्थ के सामने बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। आखिर जिसे कुछ नहीं चाहिए वह क्या माँगे ? जिसका मन निश्छल है और जिसे संतोष प्राप्त है उसके सामने तो विश्व की सारी संपदा भी धूल के समान तुच्छ होती है।

कहा है-

गोधन, गजधन, वाजि धन और रतन धन खान,

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान॥

वरदान माँगने की इच्छा न होते हुए भी उसने इसलिए कि कही देवराज को बुरा न लगे और वरदान न माँगने को कहीं वे अपना अपमान न समझ ले उसने बड़े सोच विचार से विनम्रता पूर्वक वरदान माँगा। वरदान में गृहस्थ ने देव राज से यह वरदान देने के प्रार्थना की कि जहाँ भी उसकी छाया पड़े वहाँ पर कल्याण की वर्षा हो। ऐसे अनोखे वरदान माँगने वाले गृहस्थ को ‘तथास्तु’ कह कर उसका मुँह माँगा  वरदान तो दिया किन्तु आश्चर्य और उत्सुकता से उसके द्वारा ऐसे वरदान माँगने का अभिप्राय जानना चाहा। उन्होंने उससे कहा कि किसी को हाथ उठाकर या उसके सिर पर हाथ रखकर कृपा करने से तो आनंद मिलता है, दूसरे पर उपकार भी किया जा सकता है प्रशंसा भी पाई जा सकती है और आभार भी किन्तु छाया के पडऩे पर कल्याण देने पर तो लेने वाला देने वाले से और देने वाला लेने वाले से पूर्णत: अपरिचत बने रहेंगे। आप किसका कल्याण कर रहे आपको मालूम भी न रहेगा।

सद्गृहस्थ ने विनम्रता से कहा-‘भगवन्ï सच्चा दान तो वही है जो औरों का कल्याण करे परन्तु दाता को यह भी ज्ञान न हो कि कल्याण किस व्यक्ति विशेष का हुआ। केवल परहित की भावना से दान उपकार करे तो वह दाता के लिये भी हितकारी है और जिसका कल्याण होता है उसको भी। दाता को देने का अभिमान भी नहीं होता और उसके निश्चित क्रिया-कलापों में दैनिक जीवन में कोई व्यवधान भी नहीं होता। ‘

दान का यही रूप पवित्र और महान है तथा दाता को महामानव की श्रेणी में पहुँचाता है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हिंदी फिल्मी गीतों में उदात्त प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  हिंदी फिल्मी गीतों में उदात्त प्रेम ??

प्रेम केवल मनुष्य नहीं अपितु सजीव सृष्टि का शाश्वत और उदात्त मूल्य है। इस उदात्तता के दर्शन यत्र-तत्र-सर्वत्र होते हैं। उदात्त प्रेम के इस रूप को प्राचीन भारत में मान्यता थी। विवाह के आठ प्रकारों की स्वीकार्यता इस मान्यता की एक कड़ी रही।

कालांतर में लगभग एक हज़ार साल के विदेशी शासन ने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भारी उलटफेर किया। इस उलटफेर ने वर्ग और वर्ण के बीच संघर्ष उत्पन्न किया। इसके चलते प्रेम की अनुभूति तो शाश्वत रही पर सामाजिक चौखट के चलते अभिव्यक्ति दबी- छिपी और मूक होने लगी।

1931 में आया पहला बोलता सिनेमा ‘आलमआरा’ और मानो इस मूक अभिव्यक्ति को स्वर मिल गया। यह स्वर था गीतों का।

अधिकांश फिल्मों की कहानी का केंद्र नायक, नायिका और उनका प्रेम बना। यह प्रेम फिल्मी गीतों के बोलों में बहने लगा। ख़ासतौर पर 50 से 70 के दशक के गीतों की समष्टि में व्यक्ति को अपनी भावना की अभिव्यक्ति मिलने लगी। कुछ ऐसी अभिव्यक्ति जैसी ‘उबूंटू’ के भाव में है। समष्टि के लिए रचे गीत वह गा सकता था, गुनगुना सकता था/ थी, जिनमें निगाहें कहीं थीं और निशाना कहीं था। इन प्रेमगीतों ने भारतीय समाज को मन के विरेचन के लिए बड़ा प्लेटफॉर्म दिया।

गीतकारों ने गीत भी ऐसे रचे जिसमें प्रेम अपने मौलिक रूप में याने उदात्त भाव में विराजमान था। प्रेम को विदेह करती यह बानगी देखिए, ‘दर्पण जब तुम्हें डराने लगे, जवानी भी तुमसे दामन छुड़ाने लगे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा सर झुका है, झुका ही रहेगा तुम्हारे लिए..।’

स्थूल को सूक्ष्म का प्रतीक मानने की यह अनन्य दृष्टि देखिए, ‘तुझे देखकर जग वाले पर यकीन क्योंकर नहीं होगा, जिसकी रचना इतनी सुंदर, वो कितना सुंदर होगा…/ अंग-अंग तेरा रस की गंगा, रूप का वो सागर होगा..।’

प्रेम के मखमली भावों की शालीन प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का यह ग़जब देखिए, ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा, बात ज़रा सी।’ श्रृंगार भी शालीनता से ही अलंकृत रहा,’ मन की प्यास मेरे मन से न निकली, ऐसे तड़पूँ हूँ जैसे जल बिन मछली।’

प्रीत की उलट रीत कुछ यों अभिव्यक्त हुई है, ‘दिल अपना और प्रीत पराई, किसने है यह रीत बनाई..।’ इस रीत के रहस्य को छिपाये रखने का भी अपना अलग ही अंदाज़ है, ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबाके चली आई, खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई..।’ प्रेयसी के अधरों तक पहुँचे शब्दों में ‘अ-क्षरा’ भाव तो सुनते ही बनता है, ‘होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो..।’ होठों की बात कहने के लिए मीत को बुलाना और मीत को सामने पाकर आँख चुराना दिलकश है, साथ ही अपनी बीमारी के प्रति अनजान बनना तो क़ातिल ही है, ‘मिलो न तुम तो हम घबराएँ, मिलो तो आँख चुराएँ../ तुम्हीं को दिल का राज़ बताएँ, तुम्हीं से राज़ छुपाएँ,…हमें क्या हो गया है..!’

चाहत अबाध है, ‘चाहूँगा तुझे सांझ सवेरे’.., चाहत में साथ की साध है, ‘तेरा मेरा साथ रहे..’ चाहत में होने से नहीं, मानने से जुदाई है,’जुदा तो वो हैं खोट जिनकी चाह में है..।’ अपने साथी में अपनी दुनिया निहारता है आदमी, ‘तुम्हीं तो मेरी दुनिया हो’ पर गीत दुनियावी आदमी को दुनिया की हकीकत से भी रू-ब-रू कराता है, ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसीके लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।’

उदात्त प्रेम केवल प्रेमी-प्रेमिका तक सीमित नहीं रहता। इसके घेरे में सारे रिश्ते और सारी संवेदनाएँ आती हैं। देश के प्रति निष्ठा हो, भाई- बहन का सहोदर भाव हो या पिता से परोक्ष बंधी पुत्री की गर्भनाल हो.., गीतों में सब अभिव्यक्त होता है। कलेजे के टुकड़े को विदा करती पिता की यह पीर साहिर लुधियानवी की कलम से निकल कर रफी साहब के कंठ में उतरती है और सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होकर अमर हो जाती है, ‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले/ मैके की ना कभी याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले..।’ उदात्त में पराकाष्ठा समाहित है तब भी इसी गीत में उदात्त की पराकाष्ठा भी हो सकती है, इसका प्रमाण छलकता है, ‘..उस द्वार से भी दुख दूर रहे, जिस द्वार से तेरा द्वार मिले..।’

गीत बहते हैं। गीतों में प्यार की लय होती है। प्यार भी बहता है। प्यार में नूर की बूँद होती है,..’ ना ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कहीं/ नूर की बूँद है, सदियों से बहा करती है।’

उदात्त प्रेम ऐसा ही होता है, फिर वह चाहे फिल्मी गीतों के माध्यम से मुखर होकर गाए या भीतर ही भीतर अपना मौन गुनगुनाए।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ प्रेम और सदाचरण की आवश्यकता॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्रेम और सदाचरण की आवश्यकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

हर दिन सबेरे अखबारों, रेडियो और टी. व्ही. से ऐसे समाचार पढऩे और सुनने को मिलते हैं जो मन को पीड़ा अधिक देते हैं खुशियाँ कम। कोई न कोई दुखद घटना जो मानवता के जिस्म पर घाव करती है और समाज के चेहरे पर काला दाग लगाती है, रोज इस विश्व में कहीं न कहीं घटती नजर आती है। धर्म और सदाचार पर ये तेजाब सा छिडक़ जाती हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ? कारण तो अनेक होते हैं परन्तु गहराई से विचार करने पर इन सबका मूल कारण मनुष्य में स्वार्थ और द्वेष भाव की बढ़त और प्रेमभाव की कमी मालूम होती है।

आदिम मानव ने हजारों वर्षांे में धीरे-धीरे क्रमिक विकास से सुख-शांति और अपनी आगे उन्नति करने के लिये जिस प्रेम भावना और आपसी सद्ïभाव को पल्लवित किया है उसी की छाया में उसने जनतांत्रिक शासन प्रणाली को प्राचीन राजतंत्र या ताना शाही की बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकने के लिए, प्रतिष्ठित किया है। आज विश्व के अधिकांश देशों में जनतांत्रिक शासन पद्धति ही प्रचलित है जिसके मूलाधार हैं-(1) स्वतंत्रता, (2) समता, (3) बन्धुता और (4) न्याय। किन्तु पिछले अनुभवों से ऐसा लग रहा है कि यह प्रणाली भी अपने वाञ्छित परिणाम दे सकने में असफल रही है। कारण है मनुष्य का स्वार्थ और न समझी। उसकी कथनी और करनी में भारी अन्तर है। लगता है उसने जनतंत्र के मूल भूत आधारों को समझा ही नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वन्छंदता नहीं है और न समता का अर्थ एकरूपता। इसी प्रकार बन्धुता का आशय सबल के द्वारा निर्बल का शोषण नहीं और न्याय का मतलब अपना निर्णय औरों पर थोपना नहीं हैं जैसा कि प्राय: हर क्षेत्र में देखा जा रहा है। यदि सिद्धान्तों की व्याख्या ही सही नहीं की जायेगी और उन पर सही आचरण न होगा तो सही परिणाम कैसे मिलेंगे ? आज यही हो रहा है। इसीलिए सदाचार की जगह दुराचार बढ़ता जा रहा है। राजनीति जिसे धर्मनीति से अनुप्रमाणित होना चाहिए उल्टे धर्मनीति की विरोधी बन उसे रौंद रही है। धर्म निरपेक्षता जिसका अर्थ वास्तव में सर्वधर्म  सद्ïभाव है अपने वास्तविक अर्थ को खोकर विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच सद्ïभाव को पुष्ट करने के बदले टकराव का कारण बन गई है। दुनियाँ का हर धर्म मानव कल्याण के लिए है और जीवन में सुख-शांति के लिये प्रेम और सह अस्तित्व की ही शिक्षा देता है। सहानुभूति और सदाचार ही सिखाता है परन्तु स्वार्थ के जुनून में अज्ञानी मनुष्य को हर जगह केवल धन और भौतिक सुख साधनों में ही आकर्षण दिखाई दे रहा है। व्यक्ति का व्यवहार आज अर्थ केन्द्रित या धन केन्द्रित हो गया हैं धर्म केन्द्रित या अध्यात्म केन्द्रित नहीं रहा है। यही आज की त्रासदी का मूल कारण है। उसका लालच ही उससे अनैतिक कार्य करा रहा है जिससे अपराध बढ़ रहे हैं और हाहाकार मचा है।

भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गये हैं जो क्रमिक रूप से हैं -(1) धर्म, (2) अर्थ, (3) काम और (4) अंतिम मोक्ष। जीवन में इनकी प्राप्ति के लिए साधना भी इसी क्रम से की जानी चाहिए जिससे जीवन का समाज में सही विकास हो और सुख-शांति बनी रहे, किन्तु आज अर्थ और काम का ही वर्चस्व दिख रहा है धर्म और मोक्ष की ओर तो कोई देखना भी नहीं चाहता इसी से सारी विसंगतियाँ है और मानव जीवन हर दिन दुख के गर्त में गिरता जा रहा है तथा विश्व अशांत है।

हितकर और सुखद वातावरण के निर्माण के लिये प्रेम और सदाचरण की आवश्यकता है जो मन और बुद्धि के संतुलित समुचित परिपोषण से ही संभव है। इस हेतु प्रयास किये जाने चाहिये।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #141 ☆ औरत की नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 141 ☆

☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’ कबीरदास जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है,निराकार है और उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न करते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर एक-दूसरे का दुश्मन भी बना देते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी,तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे,कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं,अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल,फिर बोल’ की सीख दी गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते,आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक,राजनीतिक,सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित,असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग आजकल टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते,क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल,अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/ औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाय’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, कि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है,वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है,उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना,काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं,क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं,जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है तो वह सम्मान का कारक बनती है,अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं,विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें। 

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या,बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव,छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी,बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है,जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण,फ़िरौती,दुष्कर्म,हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं। लॉकडाउन में घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना,पत्नी के साथ घर के कामों में हाथ बंटाना,परिवाजनों से मान-मनुहार करना पुरुष मानसिकता के अनुरूप उसे रास नहीं आया,जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा,ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ विभाजन ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ विभाजन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

एक देश के विभाजन के समय विभाजन की रेखा एक पागल खाने के बीच से  निकलती थी। दोनों देश के अधिकारियों ने पागलों की जिम्मेदारी लेने में आनाकानी की क्योंकि पागलों से उनकी परेशानी बढ़ सकती थी और रोज का सुख-चैन नष्ट हो सकने की संभावना थी। प्रकरण को निपटाने के लिए तय हुआ कि क्यों न संबंधित पागलों की राय ले ली जाय कि कौन किस देश में रहना चाहता है।

अधिकारियों ने पागलों से कहा-”देखो, देश का बँटवारा होना है। आप इस देश में रहना चाहते हो या उसमें’‘    

पागलों ने कहा-”हम गरीबों का पागलखाना भला क्यों बाँटा जा रहा है ? हमने ऐसी क्या गलती की है जो हमें सजा दी जा रही है। हम तो सब लोग एक साथ रहते हैं। सब एक से हैं। कोई मतभेद नहीं है। हम सबके साथ रहने में आपको क्या आपत्ति है ?’‘

अधिकारियों ने कहा-”आपको कहीं जाना नहीं है। रहना वहीं है जहाँ रह रहे हो। सिर्फ इतना बताना है कि तुम किस देश में जाना चाहते हो- यहाँ या वहाँ। कहाँ रहना चाहते हो इसमें या उसमें ?’‘

पागलों ने कहा-”भला ये भी कोई बात है। हमें जब कही जाना ही नहीं है, रहना यही है तो बँटवारे की बात पागलपन नहीं है ?  ऐसा भी भला कोई बँटवारा  है ? हम तो यूँ ही अच्छे है। ‘‘

अधिकारियों को लगा कि वे मुश्किल में फँस गये। पागलों से कौन माथापच्ची करे। पागल खाने के बीच से विभाजन रेखा पर एक दीवार उठवा दी जाये, बस झंझट दूर हो। ऐसा ही कर दिया गया।

दीवार बन जाने पर पागल कभी उस पर चढ़ कर झाँकते और दूसरों से कहते-”इन समझदार लोगों ने ये क्या बँटवारा किया है ? न हम कहीं गये न तुम। इस दीवार ने हमारा मिलना-जुलना, हँसना-बोलना बंद करा दिया। ऐसा करने से इन्हें क्या मिला ?’‘

एक पागल चिल्ला उठा-”अरे जिनने ये दीवर उठवाई है वे पागल हैं। उन्होंने देश को कहाँ बाँटा देश तो जहाँ के तहाँ है। उन्होंने तो दिलों को बाँटने की कोशिश की है। उनसे तो हम अच्छे हैं जो एक दूसरे के दिल को समझते हैं। मगर अब हमें अलग खानों में बंद कर दिया गया है।’‘

जब-जब आदमी पर मूर्खता का जुनून सवार होता है तब तब वह जन समुदाय को यों ही रंग, जाति, वेश, भाषा, प्रदेश और धर्मों  के या ऐसे ही किन्हीं अन्य के घेरों में बंद कर उन्हें विभाजित करता आया है-शायद केवल अपने ही किसी स्वार्थ के लिए, जो नई तबाही लाता है और उसकी भर नहीं सब समाज की सारी खुशी और सुख शांति नष्ट कर देता हैं।

हर विभाजन संपत्ति को घटाता और विपत्ति को बढ़ाता है। 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख से सीखें और सिखाएँ # 108 ☆ व्यास पूर्णिमा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  व्यास पूर्णिमा । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख से सीखें और सिखाएं # 108 ☆

☆ व्यास पूर्णिमा ☆ 

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थात् महान गुरु को अभिवादन, जिन्होंने उस अवस्था का साक्षात्कार करना संभव किया जो पूरे ब्रम्हांड में व्याप्त है, सभी जीवित और निर्जीव में।

इस बात पर सभी एकमत हैं कि जिससे भी ज्ञान मिले वो हमारा गुरु कहलाता है। किंतु क्या ऐसा कहना सही होगा।  ज्ञान तो वक्त के साथ – साथ कड़वे अनुभवों से मिलता है। हर पल कहीं न कहीं से कुछ न कुछ हम सीखते रहते हैं। किंतु वास्तव में इन सबको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। गुरु बिनु ज्ञान न होय। कोई भी सच्चा ज्ञानी तभी हो सकता है जब उसके मन का अंधकार दूर होकर उसकी अंतरात्मा प्रकाशित हो उठे। और ऐसा केवल सच्चा मार्गदर्शक ही कर सकता है।

जहाँ जाने से मन को सुकून मिले और ऐसा लगने लगे कि अब जीवन को जानने व समझने की  खोज खत्म हो गयी है वहीं पर विश्राम करते हुए ध्यानस्थ हो जाना चाहिए। जितने भी संत महात्मा हुए हैं वे सभी इसी तरह शांत- चित्त से समाज में रहते हुए भी परमात्मा के साथ एकीकार हो गए हैं।

व्यास पूर्णिमा यही संदेश सदियों से जनमानस को देती हुई चली आ रही है। हमारा सनातन धर्म पूर्णतया वैज्ञानिक मापदंडों पर खरा उतरता है। ॐ में सम्पूर्ण सृष्टि को समाहित करते हुए जब कोई मंत्र बोला जाता है तब वो स्वयं सिद्ध होकर जनमानस के ऊर्जान्वित करता है।

चौमासे की शुरुआत से ही पूजा पाठ का जो दौर शुरू होता है वो देवउठनी एकादशी पर पूर्णता को प्राप्त करता है। प्रकाश का जीवन में आगमन ही अंधकार का अंत होता है। इसे श्रेष्ठ गुरु के सानिध्य से ही पाया जा सकता है।

आइए विचारों की समस्त उथल- पुथल को गुरु को सौंप कर राष्ट्रहित में कुछ अच्छा करें कुछ सच्चा करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकाकार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  एकाकार ??

मनुष्य अशेष विद्यार्थी है। प्रति पल कुछ घट रहा है, प्रति पल मनुष्य बढ़ रहा है। घटने का मुग्ध करता विरोधाभास यह कि प्रति पल, पल भी घट रहा है।

हर पल के घटनाक्रम से मनुष्य कुछ ग्रहण कर रहा है। हर पल अनुभव में वृद्धि हो रही है, हर पल वृद्धत्व समृद्ध हो रहा है।

समृद्धि की इस यात्रा में प्रायः हर पथिक सन्मार्ग का संकेत कर सकने वाले मील के पत्थर को तलाशता है। इसे गुरु, शिक्षक, माँ, पिता, मार्गदर्शक, सखा, सखी कोई भी नाम दिया जा सकता है।

विशेष बात यह कि जैसे हर पिता किसी का पुत्र भी होता है, उसी तरह अनुयायी या शिष्य, मार्गदर्शक भी होता है। गुरु वह नहीं जो कहे कि बस मेरे दिखाये मार्ग पर चलो अपितु वह है जो तुम्हारे भीतर अपना मार्ग ढूँढ़ने की प्यास जगा सके। गुरु वह है जो तुम्हें ‘एक्सप्लोर’ कर सके, समृद्ध कर सके। गुरु वह है जो तुम्हारी क्षमताओं को सक्रिय और विकसित कर सके।

गुरु वह है जो तुम्हें एकल नहीं एकाकार की यात्रा कराये। एकाकार ऐसा कि पता ही न चले कि तुम गुरु के साथ यात्रा पर हो या तुम्हारे साथ गुरु यात्रा पर है। दोनों साथ तो चलें पर कोई किसी की उंगली न पकड़े।

यदि ऐसा गुरु तुम्हारे जीवन में है तो तुम धन्य हो। तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है।

जिनकी गुरुता ने जीवन का मार्ग सुकर किया, उनका वंदन। जिन्होंने मेरी लघुता में गुरुता देखी, उन्हें नमन।

शुभं भवतु।

गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 40 – कॉमेडी – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  “कॉमेडी…“।)   

☆ आलेख # 40 – कॉमेडी – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

जीवन में नवरस का होना ईश्वर के हाथ में है पर हास्यरस का होना आवश्यक है स्वास्थ्यप्रद मानसिकता के लिये. हास्यरस को स्थूल रूप से कॉमेडी भी कहा जाता है जिसका जीवन में प्रवेश, बचपन में देखे जाने वाले सर्कस के जोकर से शुरु होता है. इन्हें विदूषक भी कहा जाता है. ये अपनी वेशभूषा, भावभंगिमा से दर्शकों और विशेषकर बच्चों से तारतम्य स्थापित करते हैं. यहाँ शब्दों की आवश्कता नहीं होती.

जोकर की जीवनी पर तीन भागों, दो इंटरवल वाली चार घंटे की फिल्म सिर्फ राजकपूर ही बना सकते हैं. फिल्म का पहला भाग विश्व की किसी भी भाषा में बनी फिल्म से प्रतिस्पर्धा कर सकता था. मासूम बचपन और शिक्षिका के प्रति अज्ञात आकर्षण की संवेदना को बहुत खूबसूरती से फिल्मांकन करने में राजकपूर सिद्धहस्त थे. अभिनय की दृष्टि से अबोध ऋषिकपूर भी नहीं जानते होंगे कि स्वाभाविक अभिनय से सजी यह फिल्म उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक होगी. “शो मस्ट गो ऑन” इसी फिल्म की थीम थी और राजकपूर की संगीतकार शंकर जयकिशन के साथ अंतिम फिल्म भी यही थी यद्यपि जयकिशन पहले ही अनंत में विलीन हो चुके थे.

पर बात यहाँ सिर्फ फिल्मों की नहीं हो रही है, हास्यरस हमारा प्रमुख विषय है. कामेडी का अगला पड़ाव सर्कस से शिफ्ट होकर फिल्मों पर आता है और तरह तरह की कामेडी करने वाले, विभिन्न काया, भंगिमा और आवाज़ के स्वामी, हास्य अभिनेताओं की कामेडी से वास्ता पड़ता है. कभी सिचुएशनल कॉमेडी, कभी भाव भंगिमा, तो कभी असामान्य आवाज़ या नाकनक्श. गोप, जॉनीवाकर, आगा, मुकरी, राजेंद्र नाथ, मोहन चोटी, केश्टो मुखर्जी आदि बहुत सारे हास्य कलाकार थे पर सबसे सफल थे महमूद जिनकी फिल्म के नायक के साथ साथ खुद की कहानी भी समांतर चला करती थी और अभिनेत्री शोभाखोटे के साथ महमूद की सफल जोड़ी भी बन गई थी. बाद में यही महमूद फिल्म निर्माता बने और अमिताभ बच्चन और संगीतकार आर.डी.बर्मन को अपनी फिल्मों में मौका दिया. बांबे टू गोवा, अमिताभ बचन की सफल फिल्म थी और भूत बंगला राहुल देव बर्मन की.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ प्रकृति व पर्यावरण सुरक्षा ईश्वर की ही पूजा है ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्रकृति व पर्यावरण सुरक्षा ईश्वर की ही पूजा है ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कहा जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है सर्वव्यापी है और सर्वशक्तिमान है। वह संसार के समस्त चर-अचर प्राणियों का संरक्षक और पोषक है। वह परम दयालु और अहैतुकी कृपा करने वाला है। उसी ने इस सृष्टि की रचना की है जिसमें सबकी आवश्यकताओं के लिए सबकुछ है। परन्तु वह स्वत: अदृश्य है। उसे केवल अन्तर्चक्षुओं से देखा जा सकता है। इतनी विशालता और विविधता से परिपूर्ण सारी सृष्टि नियमितता से आबद्ध और अनुशासित है। समय चक्र समान गति से घूमता रहता है। दिन होते हैं रात होती है। ऋतुएँ आती जाती रहती है। भूमि को उर्वरा बनाती हैं। भूमि पर विभिन्न  वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं। खेती से विभिन्न फसलें होती है। समय समय पर विभिन्न फसलें पकती हैं। वृक्ष मौसम के अनुसार फल देते हैं। सब आवश्यक और हितकारी हैं। सभी जीवनधारियों की आवश्यकतानुसार सुस्वादु भोजन मिलता रहता है। नदियाँ, पहाड़, समुद्र सब अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। समय के साथ बढ़ते, बनते-बिगड़ते और सेवायें दे के उचित समय पर विनष्ट हो जाते हैं। यही नियम समस्त प्राणि जगत पर भी लागू होते हैं। मनुष्य भी वनस्पति और अन्य प्राणियों की भाँति एक उद्ïदेश्य से संसार में आता है, जन्म लेता, विकसित होता, सेवाएँ देता और अन्त में शांत हो जाता है। किन्तु मनुष्य में एक विशेषता है, उसे बुद्धि और विवेक का वरदान मिला है। वह सोचता विचारता, समझता, निष्कर्ष निकाल सकता और नई खोजें और नव निर्माण कर सकता है। शायद इसी अर्थ में वह ईश्वर का अंश कहा गया है। उसकी आत्मा ईश्वर की ही भाँति सशक्त और अविनाशी है।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी

ईश्वर ने जैसे सकल ब्रह्माण्ड की अनुपम रचना की है। सबको अलग अलग रंग रूप और गुण दिए हैं इसी प्रकार मनुष्य ने भी विभिन्न सुख-सुविधाएँ देने वाले यंत्रों-मशीनों का निर्माण कर लिया है और नये-नये अविष्कार करता जा रहा है। वह कल्पनाएँ कर सकता है और उन्हें अपने प्रयासों से साकार कर सकता है  इसीलिए तो अदृश्य ईश्वर को भी जानने के लिए अपनी कल्पनानुसार विभिन्न रूप दिए हैं। पुरातन काल से अब तक बनी विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ और मन्दिरों में उनकी स्थापना उसी का परिणाम हैं। परन्तु सर्वनियंता अलख ईश्वर आज भी अनजाना है। दर्शन शास्त्रियों ने अपने चिन्तन के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त कर उसे पहचानने का प्रयत्न किया किन्तु सभी एकमत नहीं हैं। उसका वास्तविक स्वरूप आज भी रहस्य बना हुआ है। 

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की शंकाओं को निर्मूल करने के लिए अपना विराट रूप उसे दिखाया था जिसमें सारा ब्रह्मïाण्ड ही समाहित है। यह रूप ही ईश्वर के सत्स्वरूप को समझने का सबल संकेत है। प्रकृति, ईश्वर की रचना है और प्रकृति के क्रियाकलापों  के माध्यम से नवसृजन करती है। उसी की इच्छा, प्रेरणा और कृपा से सब निर्माण-विकास-परिवर्तन और लय होते हैं अत: प्रकारान्तर से प्रकृति की यही महान शक्ति ही ईश्वर है। यही प्रकृति और उसकी सृष्टि की परमात्मा के स्वरूप की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। प्रकृति के क्रिया-कलापों से ही ईश्वर की सत्ता और स्वरूप का आभास मिलता है। प्रकृति ही सबको जीवन दान देती है और अपनी अकथनीय लीलाओं से सबका संधारण और संवरण करती है। आँधी, बाढ़, भूकम्प, तूफान, भूस्खलन जैसी आकस्मिक अनायास उत्पन्न घटनायें प्रलय ला देती हैं साथ ही विश्व को नया रूप प्रदान करती हैं। प्रकृति और पर्यावरण से ही जीवन को गति मिलती है। प्राणियों को सुख-दुख मिलते हैं और संसार में नवीनता आती है। जीवन को विकास के नये अवसर मिलते हैं। प्रकृति की मुस्कान ही फूल खिलाती है और क्रोध ही विनाश का कारण बनता है। इसलिए यह बात सहज समझ में आनी चाहिए कि पर्यावरण ही सबका रक्षक है। और विपरीत स्थितियों में विश्व का भक्षक भी हो सकता है। मानव जीवन में प्राकृतिक पर्यावरण का जीवन मरण के लिए भारी महत्व है। हमें पर्यावरण की सुरक्षा कर उसे जीवन के लिए अनुकूल बनाने के सतत प्रयत्न करने चाहिए। प्राकृतिक पर्यावरण सभी प्राणियों के साथ मानव जाति का चिर सहचर है। वह हमारे मनोभावों को समझता है हमारे सुखोंं में खुश होता है और दुखों में संवेदना सूचक उदासी प्रदर्शित करता है। शुद्ध और स्वच्छ पर्यावरण मन को प्रसन्नता और पावनता प्रदान करता है और दूषित पर्यावरण उदासी और मलिनता से दुखी करता है। जीवन के पालन पोषण और सुरक्षा में प्रकृति और पर्यावरण की निरन्तर वही भूमिका है जो सर्वशक्तिमान ईश्वर की विश्व के संचालन में है। इसीलिए तो भारतीय ऋषियों मुनियों ने प्रकृति के सानिध्य में वनों में रहकर चिन्तन मनन और ईश्वराधना को मानव जीवन के तृतीय आश्रम को ”वानप्रस्थ’‘ का नाम दिया है। प्रकृति की पूजा और पर्यावरण की सुरक्षा ही ईश्वर की सच्ची पूजा और उपासना है जिसका सहज वरदान स्वस्थ्य काया का पुण्य लाभ है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सुख और समृद्धि के लिए जरूरी है निष्ठा और नैतिकता ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सुख और समृद्धि के लिए जरूरी है निष्ठा और नैतिकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज हमारे देश में जो परिदृश्य है वह राष्ट्रहितकारी कम और स्वार्थपूरक अधिक दिखाई देता है। लोग प्राचीन मान्य परम्पराओं और मर्यादायों के प्रति उदासीन हो विभिन्न वर्जनाओं का खुला उल्लंघन कर रहे हैं। बहुतों में न लोकलाज दिख रही है न नियम-कायदों का डर।

देश तो यह वही है जिसने कभी अपने संगठित अनुशासनपूर्ण व्यवहार से आजादी के पूर्व के दिनों को देखा और भोगा है, वे जानते हैं कि तत्कालीन वातावरण में कितनी अनिश्चितता थी और विदेशी शासन के जुल्मों का कितना भय था, किन्तु तब भी देश प्रेमी जनता के मन में कत्र्तव्य के प्रति कितनी निष्ठा, लगन और ईमानदारी थी। समाज में जातीय भेदभाव होते हुए भी आत्मीय, एकता और समन्वय की भावना थी। प्रत्येक छोटे-बड़े को कत्र्तव्य की आत्मप्रेरणा थी और अपने काम को ढंग से पूर्ण गुणवत्ता के साथ निर्धारित अवधि में पूर्ण करने की लगन थी। इसी सामाजिक कत्र्तव्य परायण्ता, कत्र्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी ने एक जुटता से राष्ट्र के लिए प्राणपण से न्यौछावर होने की भावना जगाई थी और मार्ग की अनेकों दुगर्म कठिनाईयों के होते हुए भी हमें स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को पाने में सफलता मिली थी।

इसके विपरीत आज आजाद देश के नागरिकों के मन में कलुषता, लोलुपता और चरित्रहीनता दिखाई देती है। क्षेत्र चाहे कोई भी हो हर जगह मलिनता व्याप्त है। वातावरण में पवित्रता और व्यवहार में पावनता, निश्छलता और सहज सेवा उपकार की भावना कहीं स्पष्ट दिखाई बहुत कम दिख पाती है। अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार का बोलबाला हो चला है। स्वार्थ की प्रबलता है। संबंधों में अदावट है, क्रिया-कलापों में दिखावट है, रूप में निरर्थक सजावट है, सेवाओं में गिरावट है, विभिन्न उत्पादों में मिलावट है तथा सही प्रगति पथ पर जगह जगह रुकावट है। पुराना भाईचारा, आपसी सम्मान, सद्ïभावना, कत्र्तव्यनिष्ठा और गुणवत्ता बढ़ाने के लिये कुछ सीखने की इच्छा लुप्त सी हो गयी हैं। इसी से वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे। धन का अपव्यय हो रहा है और संकल्पित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पा रही। यह गहन चिन्तन का विषय है कि ऐसा क्यों हो गया ?

लगता है इस सारी बढ़ती बदहाली का मूल कारण हमारे सोच और कार्य-सरणी में बदलाव है। मनुष्य वैसा ही बनता है जैसा वह सोचता है। विचार ही व्यक्ति के व्यावहारों के उद्ïगम हैं। लोकतांत्रिक पद्धति की शासन व्यवस्था में लोगों ने शायद ”स्वातंत्र्य’‘ शब्द का अर्थ ”स्वच्छन्ता’‘ समझ गलत विचार करना शुरु कर दिया है। ‘स्वच्छंदता’ का परिणाम स्वत: के भविष्य के लिए और साथ ही समाज के लिए भी घातक होगा- यह ध्यान में नहीं रखा गया है। दूसरा शायद लोगों ने केवल धन को ही सुख का पर्याय मान लिया है। इसीकारण कम से कम श्रम से थोड़े से थोड़े समय में अधिक से अधिक धन कमा लेने की होड़ लग गई है। कमाई की अंधी दौड़ में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता  इससे सही या गलत साधन का भेद भुला दिया गया है। इसी उथली विचार धारा ने सबको संकट में डाल दिया है, व्यक्ति, समाज और शासन सभी परेशान हैं।  नई-नई समस्याएँ ‘सुरसा’ के मुख सी बढ़ती जाती हैं।

पहले हमारा आदर्श था-”सादा जीवन, उच्च विचार’‘। आज उल्टा हो गया है-” ऊँचा जीवन, निम्न विचार’‘।

धन सदा ही सुखदायी ही नहीं समस्या उत्पादक भी होता है। अनुचित साधनों से धन की प्राप्ति परिवार में नये संकट ही लाती है। सुख सचमुच में धन प्राप्ति के लिए अंधी दौड़ में नहीं, प्रेम के निश्छल आदान-प्रदान में है। सहयोग और ईमानदारी में सुख के बीज छिपे होते हैं। परन्तु इस सचाई को भुलाकर नवीनता की चका-चौंध में जो गलत प्रयत्न धन पाने के लिए अपनाएँ जा रहे हैं उन्होंने ही सारी कठिनाइयाँ बढ़ा दी है।

भारतीय संस्कृति में तप और त्याग का धार्मिक महत्व रहा है। इसी पवित्र भावना ने समाज को बाँधे रखा है और ंमन को बेलगाम होकर दौडऩे से रोके रखा है। किन्तु आज अन्य सभ्यताओं की देखा देखी भारतीय संस्कारों को तिलांजलि देकर लोगों ने बाह्यï आकर्षणों में सुख की साध पाल ली है इससे ही देश बीमार हो गया है और इसका संक्रमण फैलता ही जा रहा है।

यदि हमें अपने देश को फिर स्वस्थ और समृद्ध बनाना है तो भारत भूमि की ही जलवायु की ही उपासना करनी होगी और युग की नवीनता को अपने कार्यक्रमों में उचित रूप से समायोजित करनी होगी। बिना सदाचरण, निष्ठा और नैतिकता को अपनायें जीवन में वास्तविक सुख-शांति और समृद्धि असंभव है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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