॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्रेम और सदाचरण की आवश्यकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

हर दिन सबेरे अखबारों, रेडियो और टी. व्ही. से ऐसे समाचार पढऩे और सुनने को मिलते हैं जो मन को पीड़ा अधिक देते हैं खुशियाँ कम। कोई न कोई दुखद घटना जो मानवता के जिस्म पर घाव करती है और समाज के चेहरे पर काला दाग लगाती है, रोज इस विश्व में कहीं न कहीं घटती नजर आती है। धर्म और सदाचार पर ये तेजाब सा छिडक़ जाती हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ? कारण तो अनेक होते हैं परन्तु गहराई से विचार करने पर इन सबका मूल कारण मनुष्य में स्वार्थ और द्वेष भाव की बढ़त और प्रेमभाव की कमी मालूम होती है।

आदिम मानव ने हजारों वर्षांे में धीरे-धीरे क्रमिक विकास से सुख-शांति और अपनी आगे उन्नति करने के लिये जिस प्रेम भावना और आपसी सद्ïभाव को पल्लवित किया है उसी की छाया में उसने जनतांत्रिक शासन प्रणाली को प्राचीन राजतंत्र या ताना शाही की बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकने के लिए, प्रतिष्ठित किया है। आज विश्व के अधिकांश देशों में जनतांत्रिक शासन पद्धति ही प्रचलित है जिसके मूलाधार हैं-(1) स्वतंत्रता, (2) समता, (3) बन्धुता और (4) न्याय। किन्तु पिछले अनुभवों से ऐसा लग रहा है कि यह प्रणाली भी अपने वाञ्छित परिणाम दे सकने में असफल रही है। कारण है मनुष्य का स्वार्थ और न समझी। उसकी कथनी और करनी में भारी अन्तर है। लगता है उसने जनतंत्र के मूल भूत आधारों को समझा ही नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वन्छंदता नहीं है और न समता का अर्थ एकरूपता। इसी प्रकार बन्धुता का आशय सबल के द्वारा निर्बल का शोषण नहीं और न्याय का मतलब अपना निर्णय औरों पर थोपना नहीं हैं जैसा कि प्राय: हर क्षेत्र में देखा जा रहा है। यदि सिद्धान्तों की व्याख्या ही सही नहीं की जायेगी और उन पर सही आचरण न होगा तो सही परिणाम कैसे मिलेंगे ? आज यही हो रहा है। इसीलिए सदाचार की जगह दुराचार बढ़ता जा रहा है। राजनीति जिसे धर्मनीति से अनुप्रमाणित होना चाहिए उल्टे धर्मनीति की विरोधी बन उसे रौंद रही है। धर्म निरपेक्षता जिसका अर्थ वास्तव में सर्वधर्म  सद्ïभाव है अपने वास्तविक अर्थ को खोकर विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच सद्ïभाव को पुष्ट करने के बदले टकराव का कारण बन गई है। दुनियाँ का हर धर्म मानव कल्याण के लिए है और जीवन में सुख-शांति के लिये प्रेम और सह अस्तित्व की ही शिक्षा देता है। सहानुभूति और सदाचार ही सिखाता है परन्तु स्वार्थ के जुनून में अज्ञानी मनुष्य को हर जगह केवल धन और भौतिक सुख साधनों में ही आकर्षण दिखाई दे रहा है। व्यक्ति का व्यवहार आज अर्थ केन्द्रित या धन केन्द्रित हो गया हैं धर्म केन्द्रित या अध्यात्म केन्द्रित नहीं रहा है। यही आज की त्रासदी का मूल कारण है। उसका लालच ही उससे अनैतिक कार्य करा रहा है जिससे अपराध बढ़ रहे हैं और हाहाकार मचा है।

भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गये हैं जो क्रमिक रूप से हैं -(1) धर्म, (2) अर्थ, (3) काम और (4) अंतिम मोक्ष। जीवन में इनकी प्राप्ति के लिए साधना भी इसी क्रम से की जानी चाहिए जिससे जीवन का समाज में सही विकास हो और सुख-शांति बनी रहे, किन्तु आज अर्थ और काम का ही वर्चस्व दिख रहा है धर्म और मोक्ष की ओर तो कोई देखना भी नहीं चाहता इसी से सारी विसंगतियाँ है और मानव जीवन हर दिन दुख के गर्त में गिरता जा रहा है तथा विश्व अशांत है।

हितकर और सुखद वातावरण के निर्माण के लिये प्रेम और सदाचरण की आवश्यकता है जो मन और बुद्धि के संतुलित समुचित परिपोषण से ही संभव है। इस हेतु प्रयास किये जाने चाहिये।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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आनन्द बाला शर्मा

बहुत सुंदर और यथार्थपरक
हितकारी व्यवस्था।