॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दान का सुसंस्कार ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

एक सद्गृहस्थ थे। बड़ी सादगी से संयमित जीवन बिता रहे थे। अपने परिवार को सुसंस्कारी बनाने में निरत थे। सबकों सदाचार की प्रेरणा देते थे। नीति पूर्वक अपनी आजीविका कमाते थे और संतोष पूर्वक रहते थे। जितना परोपकार बन सकता था करते रहते। अपने धन और समय का यथा संभव परमार्थ में नियोजन करते और आत्म शांति का अनुभव करते थे। शांति की साधना के लिए पारंपरिक रूप से वे वन तो नहीं गये वरन तपोवन की सी शांति उन्हें उनके घर में ही उपलब्ध हो गई। उनकी ऐसी योग साधना से देवता बड़े प्रसन्न हुये। एक दिन देवराज इंन्द्र ने प्रकट होकर उस विरक्त गृहस्थ से अपनी प्रसन्नता दिखाते हुए वरदान माँगने को कहा।

सरल और संतुष्ट गृहस्थ के सामने बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। आखिर जिसे कुछ नहीं चाहिए वह क्या माँगे ? जिसका मन निश्छल है और जिसे संतोष प्राप्त है उसके सामने तो विश्व की सारी संपदा भी धूल के समान तुच्छ होती है।

कहा है-

गोधन, गजधन, वाजि धन और रतन धन खान,

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान॥

वरदान माँगने की इच्छा न होते हुए भी उसने इसलिए कि कही देवराज को बुरा न लगे और वरदान न माँगने को कहीं वे अपना अपमान न समझ ले उसने बड़े सोच विचार से विनम्रता पूर्वक वरदान माँगा। वरदान में गृहस्थ ने देव राज से यह वरदान देने के प्रार्थना की कि जहाँ भी उसकी छाया पड़े वहाँ पर कल्याण की वर्षा हो। ऐसे अनोखे वरदान माँगने वाले गृहस्थ को ‘तथास्तु’ कह कर उसका मुँह माँगा  वरदान तो दिया किन्तु आश्चर्य और उत्सुकता से उसके द्वारा ऐसे वरदान माँगने का अभिप्राय जानना चाहा। उन्होंने उससे कहा कि किसी को हाथ उठाकर या उसके सिर पर हाथ रखकर कृपा करने से तो आनंद मिलता है, दूसरे पर उपकार भी किया जा सकता है प्रशंसा भी पाई जा सकती है और आभार भी किन्तु छाया के पडऩे पर कल्याण देने पर तो लेने वाला देने वाले से और देने वाला लेने वाले से पूर्णत: अपरिचत बने रहेंगे। आप किसका कल्याण कर रहे आपको मालूम भी न रहेगा।

सद्गृहस्थ ने विनम्रता से कहा-‘भगवन्ï सच्चा दान तो वही है जो औरों का कल्याण करे परन्तु दाता को यह भी ज्ञान न हो कि कल्याण किस व्यक्ति विशेष का हुआ। केवल परहित की भावना से दान उपकार करे तो वह दाता के लिये भी हितकारी है और जिसका कल्याण होता है उसको भी। दाता को देने का अभिमान भी नहीं होता और उसके निश्चित क्रिया-कलापों में दैनिक जीवन में कोई व्यवधान भी नहीं होता। ‘

दान का यही रूप पवित्र और महान है तथा दाता को महामानव की श्रेणी में पहुँचाता है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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