हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 179 – दुविधा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर रचित एक सकारात्मक लघुकथा  “दुविधा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 179 ☆

🎊 लघु कथा – दुविधा 🎊

संपूर्ण भारतवर्ष में रामलला जी के विराजने का जश्न मनाने के लिए तरह-तरह से तैयारी कर रहे थे, और हो भी क्यों ना 500 साल तिरपाल बंधे कुटिया में ढके, प्रभु राम की मूर्ति राह देखते – देखते आखिर वह समय आ ही गया। जब पूरे विधि- विधान, बिना रोक-टोक और कोई दुविधा बिना हमारे प्रभु का भव्य मंदिर अयोध्या में बना।

रामलला विराजने की खुशी हम सब मना रहे हैं। रामलला का विराजमान होना, राम राज्य की कल्पना और सनातनी होने का गर्व समूचा भारतवर्ष कर रहा है

ऐसे ही कृपा शंकर अपने घर परिवार के साथ उल्लास, उमंग से भगवान के मनोहर छवि को टी.वी पर देख – देख कर हर्ष मना रहे थे।

अचानक देखते- देखते रोने लगे। अब जब सभी बातों को भूलकर भगवान, अपने मंदिर में आ गए तो क्यों ना मैं भी अपनी पिछली सारी घटना एवं मतभेद को भुलाकर अपने घर लौट जाऊँ।

दुविधा में बैठे-बैठे उनकी आंखों से अश्रुं धार बह निकली। लाल गमछे से पोंछ ही देख थे,कि बहू ने आवाज़ लगाई…. बाबूजी चाय तैयार है आपके लिए लाती हूँ ।

आज पीने का मन नहीं है.. बहू!! भरे गले से कृपा शंकर ने बहु से बोला। नंदिनी घर की इकलौती बहु थी। अपने माँ – पिता सहित पूरे परिवार का बहुत ख्याल रखती थी। नंदिनी ने कहा.. बाबूजी चाय पी लीजिए। तभी तो चाचा – चाची और घर के सभी सदस्यों की अगवानी कर सकेंगे।

क्या कहा?? जैसे कृपा शंकर को कोई खजाना मिल गया हो।

नंदिनी ने कहा हाँ.. आज अभी सभी आ रहे हैं। हम सब मिलकर भगवान श्री राम लाल की पूजा अर्चना करेंगे। चाय की प्याली एक ही घूंट में खत्म कर, कृपा शंकर जल्दी-जल्दी भगवा धोती, कुर्ता, गमछा डाल। देहरी की तरफ निहारने लगे।

कंपकंपाते हाथों से नंदनी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा.. मेरे जीवन की अंतिम साँसों में बसी दुविधा को आज तुमने मिटा दिया ।रामलला तुम्हें सदैव कृपा दृष्टि बनाए रखें।

बाबूजी और नंदिनी को ही सिर्फ मालूम था कि – – तकिये के नीचे लिखा हुआ पत्र क्या था? जो भी हो आज सारा परिवार एकत्रित होकर रामलाल विराजने  की खुशी मना रहा है।

कृपा शंकर और दया शंकर दोनों भाई ऐसे मिले जैसे राम भरत मिलाप हो।

🚩🚩जय जय श्री राम 🚩🚩

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – वर्दी… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा वर्दी…’।)

☆ लघुकथा – वर्दी… ☆

थाने के सामने, मेन रोड पर स्टॉपर लगाकर, वाहनों की चेकिंग की जा रही थी, सब इंस्पेक्टर नितिन दास, सब इंस्पेक्टर निधि तिवारी और अन्य स्टाफ वहां मौजूद था.  सभी लोग वाहनों को रोककर, हेलमेट की चेकिंग कर रहे थे. जो हेलमेट नहीं पहने थे, उनका चालान भी किया जा रहा था. बार-बार उच्च न्यायालय के आदेश पर लगातार चेकिंग की जा रही थी. तभी बुलेट पर एक युवक, बिना हेलमेट के वहां से निकला, उसको पुलिस स्टाफ ने रोक लिया.

सब इंस्पेक्टर नितिन दास ने उससे कहा कि – आप हेलमेट नहीं पहने हो, आपका चालान होगा. उसने कहा, मैं कभी नहीं चालान देता, और ना ही मेरा कभी चालान हुआ है, क्या तुम मुझे नहीं जानते?

सब इंस्पेक्टर ने कहा इसमें जानने न जानने की कोई बात नहीं है, लगातार चेकिंग चल रही है,और वाहन चालक की सुरक्षा के लिए हेलमेट आवश्यक है.

अगर आप हेलमेट नहीं पहने हो तो आपका चालान होगा.

वह युवक एकदम उग्र हो गया उसने कहा – तुम मुझे नहीं जानते हो क्या? तुम्हें अपनी वर्दी अच्छी नहीं लग रही है, मैं तुम्हारी वर्दी उतरवा दूंगा.

 नितिन दास ने उसको रोका आप अपशब्द मत कहो, चालान होगा, और कहा कि – बुलेट साइड में खड़ी कर दो.

 मैं टी आई  साहब को बताता हूं,सब इंस्पेक्टर ने टी आई को सब कुछ बताया,वो थाने से बाहर निकल कर आए, और युवक से कहा,क्या कहा इनकी वर्दी उतरवा दोगे? भाई इन्होंने ये वर्दी अपनी मेहनत से हासिल की है, अपना पसीना बहाया है, किसी की मेहरबानी से वर्दी नहीं मिली है.हम तो नौकरी के बाद नेता बन सकते हैं, पर इस जन्म  में अब आप पुलिस वाले नहीं बन सकते, इतनी मेहनत आप से नहीं हो पाएगी.

नितिन, इनको गिफ्ट दो. नितिन एक पेपर लाकर मोटर साईकिल पर चिपका देता है. 

पेपर पर हेलमेट बना है. 

टी आई ,ये चेकिंग हम आप लोगों की सुरक्षा के लिए कर रहे हैं, आपका परिवार आपकी प्रतीक्षा करता है, आप सुरक्षित रहें, हमारी यही कोशिश है.

नितिन,भाई का चालान काट दो.

युवक चालान के पैसे देता है,और कहता है – सर मुझे माफ कर दीजिए.

 सब लोग मुस्करा देते हैं. 

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 226 ☆ कहानी – बछेड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा – बछेड़ा । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 226 ☆

☆ कहानी  – बछेड़ा

मुकुन्द को दयाल साहब के परिवार की सेवा करते हुए पन्द्रह साल से ऊपर हुए। अब वह इस परिवार का अंग बन चुका है। जब वह इस घर में आया था  तब बड़े दयाल साहब पैंतालीस साल के फेरे में थे, अब वे रिटायर हो चुके हैं।

मुकुन्द की इस परिवार में खासी पकड़ है। धीरे-धीरे पूरा परिवार उस पर निर्भर हो गया है। ज़रूरत पड़ने पर परिवार के सदस्य पूरे घर को उसके भरोसे छोड़ कर चल देते हैं। घर में मुकुन्द की बात कम ही कटती है। सामान्यतया उसके निर्णय पर सब की मौन मुहर लग जाती है।

मुकुन्द खाना बनाने से लेकर घर के सब कामों में कुशल है। सफाई और टेबिल मैनर्स तक सब बातों में चाक-चौबन्द है। दूसरे मालिक अपने नौकरों को पटरी पर रखने के लिए उसका उदाहरण देते हैं। मुकुन्द दूसरे नौकरों के साथ बैठकर फालतू गपबाज़ी नहीं करता, न ही उसने कोई ऐब पाले हैं। अपने मालिक के घर में इज़्ज़त से रहना ही उसे पसन्द है।

बड़े दयाल साहब चार-पाँच साल पहले डायबिटीज़ की चपेट में आ गये। तब से उनके खाने-पीने पर परिवार की नज़र रहती है। ड्राइंग रूम में मेहमानों के बीच बैठने पर मिठाइयों पर झपट्टा मारने की कोशिश करते हैं। उन पर हर वक्त मुकुन्द की थानेदार जैसी नज़र रहती है। मेहमानों के उठते ही वह सारी मिठाइयाँ समेट कर ले जाता है और बड़े दयाल साहब खूनी नज़रों से उसे देखते रह जाते हैं। जानते हैं कि ज़्यादा गड़बड़ करने पर परिवार तक उनकी हरकत की रिपोर्ट पहुँच जाएगी।

बड़े दयाल साहब की पत्नी यानी माँ जी घुटनों के दर्द से परेशान रहती हैं। जाड़े में धूप की तलाश में रहती हैं, लेकिन आजकल मकानों में आँगन के लिए जगह छोड़ना बेवकूफी और कीमती जगह का दुरुपयोग समझा जाता है। इसलिए घर की महिलाओं को धूप और हवा के लिए छत पर ही जाना पड़ता है। माँ जी के लिए यह दुष्कर है। यह मुकुन्द की ज़िम्मेदारी होती है कि वह उन्हें सहारा देकर सीढ़ियाँ चढ़ाए और फिर वापस उतार कर लाए।

इस घर में पन्द्रह साल से अधिक की सेवा में मुकुन्द ने कभी एक बार में एक हफ्ते से ज़्यादा की छुट्टी नहीं ली, वह भी साल दो-साल में एक बार। बस दौड़ा दौड़ा गाँव जाता है और दौड़ा दौड़ा वापस आ जाता है। घर में सब कुशल क्षेम है तो और क्या चाहिए? नौकरी को मज़बूत बनाये रखना ज़रूरी है, वर्ना घर को हिलते देर नहीं लगेगी।

लेकिन इस बार मुकुन्द को लंबी छुट्टी चाहिए, कम से कम एक माह की। गाँव में बेटी जवान हो गयी है, उसके हाथ पीले करने हैं। जवान बेटी गाँव में हो तो बाप का मन हर वक्त आशंकित रहता है। इसी के लिए पेट पर गाँठ लगा  लगा कर मुकुन्द ने पैसा बचाया है।

मुकुन्द ने दयाल साहब के परिवार को आश्वासन दिया है कि वह एक माह के लिए अपने गांँव से कोई अच्छा लड़का ले आएगा ताकि परिवार को दिक्कत न हो। गाँव में बेरोज़गार लड़कों की भीड़ है। एक को बुलाओ तो दस आकर खड़े हो जाते हैं। ‘काका, हमको ले चलो। आप जो तनखा दिलाओगे, हम ले लेंगे।’ सोचते हैं निठल्लेपन के कारण घर में दिन-रात जो लानत- मलामत होती है उससे बचेंगे।

मुकुन्द एक पन्द्रह सोलह  साल के लड़के को ले आया है, नाम है नकुल। नकुल को बंगलों में काम का अनुभव नहीं है, लेकिन है तेज़ और फुर्तीला। कोई चिन्ताजनक आदतें भी नहीं हैं। बाकी मुकुन्द ने अच्छी तरह हिदायत दे दी है— ‘ठीक से काम करना। गाँव की नाक मत कटाना। छिछोरापन करोगे तो आगे कहीं काम नहीं मिलेगा। हम छुट्टी से लौट कर किसी अच्छे बंगले में लगवा देंगे।’ नकुल समझदार की तरह सहमति में सिर हिलाता है।

मुकुल निश्चिंत होकर बेटी को विदा करने चला गया है। इधर नकुल बंगले में काम में रम गया है। ज़िम्मेदारी समझता है, सिखाने पर जल्दी सीखने और फिर गलती न करने की कोशिश करता है। घर पर लोग उसके काम से खुश हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उसके बदन में सुस्ती नहीं है। सबेरे एक आवाज़ पर उठकर खड़ा हो जाता है। कभी रात को उठाना पड़े तो बिना माथा सिकोड़े तुरन्त उठ जाता है। कहीं भी बुलाए जाने पर उड़ता हुआ सा तत्काल पहुँच जाता है।

अब बड़े दयाल साहब भी खुश हैं क्योंकि नकुल उन्हें मिठाई चुराते देख नज़र फेर लेता है। अभी वह उनकी बीमारी के बारे में ज़्यादा समझता भी नहीं है। माँ जी को भी उसकी देहाती बोली-बानी सुहाती है। अभी उसके मुँह से अपने अंचल के शब्द फूलों की तरह टपकते रहते हैं। माँ जी उन्हें सुनकर मगन हो जाती हैं। एक दिन उनके हाथ से कोई काम बिगड़ने पर नकुल बोला, ‘अरे अम्माँ जी, आपने तो सब बिलोर दिया’, और माँ जी हँसते हँसते लोटपोट हो गयीं। उस दिन से ‘बिलोरना’ और ‘बिलोरन’ घर के वार्तालाप के ज़रूरी अंग बन गये। रोज़ दस बीस बार घर के सदस्यों द्वारा इन शब्दों का उपयोग होने लगा। लेकिन माँ जी जानती हैं कि कुछ दिन में नकुल भी शहर की संस्कृति में ढल जाएगा और फिर अपनी बोली को हेय समझ कर शहर की बेजान भाषा में रमने की कोशिश करेगा।

परिवार में नकुल के काम की तारीफ होती रहती है जिसे सुनकर वह खुश हो जाता है। काका लौटेंगे तो वे भी सुनकर संतुष्ट होंगे।

नकुल ने ज़िन्दगी में पहली बार स्वतंत्र रूप से पैसे रखने का सुख उठाया है। पैसे की ताकत को महसूस किया है। पैसे रखना और उन्हें सँभालना उसे खूब अच्छा लगता है।

मुकुन्द के लौटने की तिथि नज़दीक आने के साथ घर में कुछ विचार-मंथन शुरू हो गया है। नकुल की तुलना मुकुन्द से की जाने लगी है जिसमें निष्कर्ष हमेशा नकुल के पक्ष में जाता है। बड़े दयाल साहब बीच-बीच में कह देते हैं कि मुकुन्द अब बूढ़ा हो रहा है, अब घर में किसी जवान लड़के को रखना उचित होगा।

नकुल से धीरे धीरे पूछा भी जा चुका है कि अगर उसे मुकुन्द की जगह रख लिया जाए तो क्या वह पसन्द करेगा? माँ जी उसे धीरे-धीरे समझाती हैं कि उसे मुकुन्द ने भले ही वहाँ रखा हो  लेकिन उसे लिहाज छोड़कर ज़िन्दगी में अपनी राह बनाना चाहिए। अपने काम को इतनी प्रशंसा मिलते देख नकुल को खुशी होती है, लेकिन काका की जगह लेने के प्रस्ताव पर वह असमंजस में है।

मुकुन्द बेटी को विदा कर निश्चिंत लौट आया है। अब नकुल को कहीं चिपकाने की कोशिश करेगा।

लेकिन घर की फिज़ाँ में उसे कुछ बदलाव लगता है जो उसकी समझ में नहीं आता। अब घर के सदस्यों में उसके प्रति पहले जैसी गर्माहट नहीं है। उसके काम में कुछ ज़्यादा ही मीन-मेख निकाला जाने लगा है। बड़े दयाल साहब जब तब बोल देते हैं, ‘अब तुमसे नहीं होता। तुम रिटायर हो जाओ।’

आखिर एक दिन बड़े दयाल साहब ने साफ बात करने का बीड़ा उठा लिया। मुकुन्द से बोले, ‘हम सोचते हैं अब नकुल ही यहाँ काम करता रहे। तुम सयाने हो गये हो। अब तुम्हें गाँव लौट जाना चाहिए।’ यह बात कान में पड़ते ही नकुल कहीं छिप गया।

मुकुन्द सब समझ गया। उसकी समझ में आ गया कि नकुल को वहाँ काम पर लगाना उसके लिए भारी पड़ गया। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था।

दूसरे दिन सबेरे अपना हिसाब- किताब करने के बाद मुकुन्द ने अपना सामान समेटा। नकुल उससे मुँह छिपाता फिर रहा था।मुकुन्द ने उसे नहीं ढूँढ़ा। वह अपना सामान समेट कर रिक्शा पकड़कर बस स्टैंड पहुंच गया। उसके चलते वक्त  घर के लोगों ने कोई भावुकता नहीं दिखायी। अभी गाँव जाएगा, उसके बाद आगे की सोचेगा।

इधर मुकुन्द के जाने के बाद नकुल का मन पश्चात्ताप से भर गया। पैसे और प्रशंसा के लोभ में उसने बड़ी गलती कर दी थी। वह मुकुन्द को पछयाता हुआ बस स्टैंड पहुँच गया।

उसके पास पहुँचकर भरी आँखों से बोला, ‘काका, हमसे गलती हो गयी। हम उन लोगों की बातों में आ गये। आप लौट चलो। हम वहाँ नहीं रहेंगे। आप हमें कहीं और लगवा देना, नहीं तो हम गाँव लौट जाएँगे।’

उसके प्रति मुकुन्द की शिकायत पल में धुल गयी। स्नेहसिक्त स्वर में बोला, ‘भैया, अब हमारी उस घर में गुज़र नहीं होगी। हमारा दाना-पानी वहाँ से उठ गया। हम लौट भी जाएँगे तब भी अब पहले जैसी बात नहीं रहेगी। तुम जब तक रह सको वहाँ रहो। शहर के रंग-ढंग सीख जाओगे तो आगे का रास्ता बनेगा। धीरे-धीरे अपने बूते शहर में रहना सीख लेना। दूसरों पर बहुत भरोसा मत करना।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ सशक्त लघुकथा “- तस्वीर और तासीर” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय एवं सशक्त लघुकथा –तस्वीर और तासीर“.)

☆ सशक्त लघुकथा – तस्वीर और तासीर ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

उसका कान फट गया था। सुनाई देना बंद हो गया था।

लोगों ने पूछा – ‘ यह क्या हुआ’?

घरवालों ने पूछा – ‘यह कैसे हुआ’?

उसने बताया – ‘पत्नी के थप्पड़ ने यह दुर्दशा कर दी है’।

उसकी बात पर लोग हंसने लगे। उसकी खिल्ली उड़ाने लगे। उसकी औरत तक पहुंचने का मन बनाने लगे।

सहसा एक बुजुर्ग ने पूछा – ‘इतनी मजबूत औरत, मैं तो अपनी औरत को जिंदगी भर पीटता रहा। मजाल है कि उसने मेरे ऊपर कभी हाथ उठाया हो’।

वह बोला – ‘यही बात यहां मुख्य है काका। औरत को कमजोर लिजलिजी सर झुकाकर चलने वाली छवि से बाहर निकालना ही मेरा उद्देश्य है। मैंने यह प्रयत्न किया था। उसके मायके वालों की खिल्ली उड़ाई। मां बाप को बुरा बुरा कहा। उसके भाइयों को किन्नर तक कहा।‘

बस फिर क्या था, तड़ाक की एक आवाज गूंजी और जो हाल हुआ वह आपके सामने है’।

‘यह कुछ ज्यादा नहीं हुआ क्या’?

‘आपने जंतर मंतर पर महिला खिलाड़ियों की ताकत नहीं देखी क्या? अब औरत की तस्वीर और तासीर दोनों बदलनी चाहिए काका’।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – समाजसेविका… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा समाजसेविका।

? लघुकथा – समाजसेविका? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

महिला समाजसेवी संस्था ने इस  माह नेत्र चिकित्सा शिविर का आयोजन करने का फैसला किया. यह तय हुआ कि नेत्रों की जांच के साथ-साथ छोटे-मोटे विकारों का भी उपचार किया जाएगा. एक पारिवारिक नेत्र चिकित्सक को आमंत्रित कर उनसे स्वीकृति ली ली गई .

सभा को संबोधित करते हुए संस्था की अध्यक्ष ने सुझाव दिया जिनके पास अतिरिक्त वह बेकार पड़े चश्मे के फ्रेम हों  वे ले आएं ताकि निर्धन लोगों का फ्रेम का खर्च बच जाए. सभी को सुझाव पसंद आया.

 निश्चित दिन शिविर स्थल पर पुराने चश्मों के फ्रेमों  का अच्छा खासा ढेर  लग गया. इतने में ही श्रीमती बंसल पॉलिथीन का बड़ा सा बैग लिए वहां पहुंची .आसपास खड़ी महिलाओं को एक नजर देख अपना प्रभाव जमाने के उद्देश्य से बोली- “ मैंने सोचा चश्मे के फ्रेम तो काफी इकट्ठे हो जाएंगे. क्यों ना मैं मरीजों के लिए दवाइयां, टॉनिक लेती चलूं..”. सभी  की नजरें पल भर के लिए उन पर ठहर गईं .अपनी बात आगे बढाते हुए बोली- “ हमारे एक मित्र मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हैं. अक्सर दवाइयां, टॉनिक के सैंपल देते रहते हैं. ढेर सारी दवाइयां यूं ही पड़ी हैं घर में…. कइयों की तो एक्सपायरी डेट भी निकल चुकी है. अब वे  किस काम की…! मैंने सोचा शिविर में ही दे देती हूं… गरीब लोगों के काम आ जाएंगी…”

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कथा – वेष की मर्यादा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कथा – वेष की मर्यादा ? ?

(‘वह लिखता रहा’ संग्रह से।)

(दैनिक चेतना में 24 जनवरी 2024 को प्रकाशित।)

ठाकुर जी का मंदिर कस्बे के लोगों के लिए आस्था का विशेष केंद्र था। अलौकिक अनुभूति कराने वाला मंदिर का गर्भगृह, उत्तुंग शिखर, शिखर के नीचे उसके अनुज-से खड़े उरूश्रृंग। शिखर पर विराजमान कलश। मंदिर की भव्य प्राचीनता, पंच धातु का विग्रह और बूढ़े पुरोहित जी का प्रवचन..। मंदिर की वास्तु से लेकर विग्रह तक, पुरोहित जी की सेवा से लेकर उनके प्रवचन तक, सबमें गहन आकर्षण था। जिस किसी की भी दृष्टि मंदिर पर जाती, वह टकटकी बांधे देखता ही रह जाता।

मंदिर पर दृष्टि तो उसकी भी थी। सच तो यह है कि मंदिर के बजाय उसकी दृष्टि ठाकुर जी की मूर्ति पर थी। अब तक के अनुभव से उसे पता था कि पंच धातु की मूर्ति कई लाख तो दिला ही देती है। तिस पर सैकड़ों साल पुरानी मूर्ति याने एंटीक पीस। प्रॉपर्टी का डेप्रिसिएशन होता है, पर मूर्ति ज्यों-ज्यों पुरानी होती है, उसका एप्रिसिएशन होता है। मामला करोड़ों की जद में पहुँच रहा था।

उसने नियमित रूप से मंदिर जाना शुरू कर दिया। बूढ़े पुरोहित जी बड़े जतन से भगवान का शृंगार करते। आरती करते हुए उनकी आँखें मुँद जाती और कई बार तो आँखों से आँसू छलक पड़ते, मानो ठाकुर जी को साक्षात सामने देख लिया हो। मूर्ति की तरह ही पुरोहित जी भी एंटीक वैल्यू रखते थे।

आरती के बाद पुरोहित जी प्रवचन किया करते। प्रवचन के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटते। उनका बोलना तो इतना प्रभावी ना था पर जो कुछ कंठ में आता, वह हृदय तल से फूटता। सुनने वाला मंत्रमुग्ध रह जाता। अनेक बार स्वयं पुरोहित जी को भी आश्चर्य होता कि वे क्या बोल गए। दिनभर पूजा अर्चना, ठाकुर जी की सेवा और रात में वही एक कमरे में पड़े रहते पुरोहित जी।

इन दिनों वेष की मर्यादा पर उनका प्रवचन चल रहा था।

“…श्रीमद्भागवत गीता का दूसरे अध्याय का 62वाँ और 63वाँ श्लोक कहता है,

“ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।

अर्थात विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है।  आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है। कामना का अर्थ है, वांछा, प्राप्त करने की इच्छा। अतः आसक्ति से विषयभोग की इच्छा प्रबल हो जाती है। प्रबलता भी ऐसी कि विषयभोग में थोड़ा-सा भी विघ्न भी मनुष्य सहन नहीं कर पाता। यह असहिष्णुता क्रोध की जननी है।

क्रोध आने पर मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। उसमें सम्मोह (मूढ़भाव) उत्पन्न हो जाता है। सम्मोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य कार्य-अकार्य में भेद नहीं कर पाता, सही-गलत का भान नहीं रख पाता। ऐसा मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है, उसकी आंतरिक मनुष्यता का पतन हो जाता है।

पूरी प्रक्रिया पर विचार करेंगे तो पाएँगे कि मनुष्यता कहीं बाहर से नहीं लानी पड़ती। सच्चाई, सद्विचार मूल घटक हैं जो हर मनुष्य में अंतर्भूत हैं। ये हैं तभी तो दोपाया, जानवर न कहलाकर मनुष्य कहलाया।

ध्यान रखना, हर मनुष्य मूलरूप से सच्चा होता है। दुनियावी  लोभ, लालच कुछ समय के लिए उसे उसी तरह ढके होते हैं जैसे जेर से भ्रूण। देर सबेर जेर को हटना पड़ता है, भ्रूण का जन्म होता है।

ढकने की बात आई तो वेष की भूमिका याद आई। आदमी की सच्चाई पर उसके वेष का बहुत असर पड़ता है। वह जिस वेष में होता है, उसके भीतर वैसा ही बोध जगने लगता है। सेल्समैन हो तो सामान बेचने के गुर उमगने लगते हैं। शिक्षक हो तो विद्यार्थी को विषय समझाने की बेचैनी घेर लेती है।  चौकीदार का वेश हो तो प्राण देकर भी संपत्ति, वस्तु या व्यक्ति की रक्षा करने के लिए मन फ़ौलाद हो जाता है…।”

…वह पुरोहित जी के वचन सुनता, मुस्करा देता।

आरती और प्रवचन के लिए रोज़ाना आते-आते पुरोहित जी से उसका संबंध अब घनिष्ठ हो चुका था। मंदिर के ताला-चाबी की जगह भी उसे ज्ञात हो चुकी थी। एक तरह से मंदिर का मैनेजमेंट ही देखने लगा था वह।

प्रवचन की यह शृंखला तीन दिन बाद संपन्न होने वाली थी। हर शृंखला के बाद चार-पाँच दिन विराम काल होता। तत्पश्चात पुरोहित जी फिर किसी नये विषय पर प्रवचन आरंभ करते। आज रात उसने अपने सभी साथियों को बता दिया था कि विराम काल में ठाकुर जी का विग्रह कैसे अपने कब्ज़े  में लेना है। कौन सा दरवाजा कैसे खुलेगा, किस-किस दरवाज़े का ताला टूट सकता है, किसकी डुप्लीकेट चाबी वह बना चुका है। आज से तीसरी  रात योजना को सिद्ध करने के लिए तय हुई।

तीसरे दिन प्रवचन संपन्न हुआ। इस बार पुरोहित जी का स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया था। आज तो उन्हें बहुत अधिक थकान थी, ज्वर भी तीव्र था। उनका एक डॉक्टर शिष्य आज गाड़ी लेकर आया था। उसने ज़ोर दिया कि इस बार दवा से काम नहीं चलेगा। कुछ दिन दवाखाने में एडमिट रहना ही होगा।

पुरोहित जी, अपने ठाकुर जी को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। डॉक्टर शिष्य, स्थिति की नज़ाकत समझ रहा था, सो पुरोहित जी को साथ लिए बिना जाना नहीं चाहता था। अंतत:  जीत  डॉक्टर की हुई।

गाड़ी में बैठने से पहले पुरोहित जी ने उसे बुलाया। धोती से बंधी चाबियाँ खोलीं और उसके हाथ में देते हुए बोले,…”ठाकुर जी की चौकीदारी की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारी। भगवान ने खुद तुम्हें अपना रक्षक नियुक्त किया है। आगे मंदिर की रक्षा तुम्हारा धर्म है।”

उसके बाँछें खिल गईं। उसने सुना रखा था कि ऊपर वाला जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। सुने हुए को आज फलित होता देख भी रहा था। जीवन में पहली बार उसने मन ही मन सच्चे भाव से भगवान को माथा नवाया।

…रात का तीसरा पहर चढ़ चुका था। वह मंदिर के भीतर प्रवेश कर चुका था। अपनी टोली के आने से पहले सारे दरवाज़े खोलने थे। …अब केवल गर्भगृह का द्वार बाकी था। उसने चाबी निकाली और ताले में लगा ही रहा था कि गाड़ी में बैठते पुरोहित जी का चित्र बरबस सामने घूमने लगा,

“ठाकुर जी की चौकीदारी की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारी। भगवान ने खुद तुम्हें अपना रक्षक नियुक्त किया है। आगे मंदिर की रक्षा तुम्हारा धर्म है।”

जड़वत खड़ा रह गया वह। भीतर नाना प्रकार के विचारों का झंझावात उठने लगा। ठाकुर जी के जिस विग्रह पर उसकी दृष्टि थी, उसी को टकटकी लगाए देख रहा था। उसे लगा केवल वही नहीं बल्कि ठाकुर जी भी उसे देख रहे हैं। मानो पूछ रहे हों,….मेरी रक्षा का भार उठा पाओगे न?…

विचारों की असीम शृंखला चल निकली। शृंखला के आदि से इति तक प्रवचन करते पुरोहित जी थे,

“….सम्मोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य कार्य-अकार्य में भेद नहीं कर पाता, सही-गलत का भान नहीं रख पाता..।”

उसकी स्मृति पर से भ्रम का कुहासा छँटने लगा था।

“…ध्यान रखना, हर मनुष्य मूलरूप से सच्चा होता है। दुनियावी  लोभ, लालच कुछ समय के लिए उसे उसी तरह ढके होते हैं जैसे जेर से भ्रूण। देर सबेर जेर को हटना पड़ता है, भ्रूण का जन्म होता है ।”

उसके अब तक के व्यक्तित्व पर निरंतर प्रहार होने लगे। भ्रूण जन्म लेने को मचलने लगा। जेर में दरार पड़ने लगी।

तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ ने उसकी तंद्रा को भंग कर दिया। लाठियाँ लिए उसकी टोली अंदर आ चुकी थी।

“….आदमी की सच्चाई पर उसके वेष का बहुत असर पड़ता है। वह जिस वेष में होता है, उसके भीतर वैसा ही बोध जगने लगता है।”

ठाकुर जी के चौकीदार में बिजली प्रवाहित होने लगी। चौकीदार ने टोली को ललकारा। आश्चर्यचकित टोली पहले तो इसे मज़ाक समझी। सच्चाई जानकर टोली, चौकीदार पर टूट पड़ी।

चौकीदार में आज जाने किस शक्ति का संचार हो गया था।  वह गोरा-बादल-सा लड़ा। उसकी एक लाठी, टोली की सारी लाठियों पर भारी पड़ रही थी। लाठियों की तड़तड़ाहट में खुद को कितनी लाठियाँ लगीं, कितनी हड्डियाँ चटकीं, पता नहीं पर लहुलुहान  टोली के पास भागने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचा।

शत्रु के भाग खड़े होने के बाद उसने खुद को भी ऊपर से नीचे तक रक्त में सना पाया। किसी तरह शरीर को ठेलता हुआ गर्भगृह के द्वार तक ले आया। संतोष के भाव से ठाकुर जी को निहारा। ठाकुर जी की मुद्रा भी जैसे स्वीकृति प्रदान कर रही थी। उसके नेत्रों से खारे पानी की धारा बह निकली। हाथ जोड़कर रुंधे गले से बोला,

“…ठाकुर जी आप साक्षी हैं। मैंने वेष की मर्यादा रख ली।”

कुछ दिनों बाद मंदिर के परिसर में पुरोहित जी की समाधि के समीप उसकी भी समाधि बनाई गई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 6 – मोल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मोल।)

☆ लघुकथा – मोल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

करुणा भाभी आज आप सैर करने के लिए आई है क्या?

हाँ आज सोचा बहुत दिन हो गया तुम लोगों से मिले तो आज अपने कॉलोनी का ही चक्कर लगा लेती हूँ।

यह घर को जंगल क्यों बना कर रखा है तुमने? मालती ये कद्दू और बरबटी का पेड़ क्यों लगा कर रखा है, क्यों?

आखिर ये चार पाँच वाला कद्दू कितने का होगा।

भाभी आपको लेना है तो ऐसी ले लीजिए, जो पैसे की क्या बात है?

तुम समझ नहीं रही हो मैं तो यह कहना चाह रही हूं कितनी सी सब्जी होगी?

कितने पैसे बचा कर तुम कितनी अमीर होगी?

आप बिल्कुल सच कह रही हैं ।

आपको पता ही है कि मैं सब्जियों के छिलके और सब्जियों को घर के सामने की क्यारी में ही डालती हूँ। मैं अपना पूरा खाली समय पेड़ पौधों के साथ ही रहती हूँ। दुनिया में हर चीज का मोल फायदा और नुकसान देखकर मैं आपकी तरह नहीं करती। इन फूलों की तरह मेरा घर भी हरा भरा है और आप यूं ही खाली सड़कों पर सुबह-शाम भटकती हो ।

तभी अंदर से आवाज आई मां अब बाहर क्या कर रहे हो अंदर आओ किसे जीवन के नफा नुकसान का ज्ञान दे रही हो आंटी बहुत समझदार हैं।

आप तो दिन भर घर में रहते हो आप को दुनिया का क्या पता कि आजकल फैशन में क्या चल रहा है?

तुम सब ठीक ही कह रहे हो आजकल फास्ट फूड का जमाना है मेरी इन सब्जियों को कौन पूछेगा, लेकिन मोल समझने वाला ही समझेगा, क्योंकि खग की भाषा खग ही जानते है।

उमा मिश्रा© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहानी # 221 ☆ “एक रिकवरी ऐसी भी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक एवं प्रेरक कहानी  – “एक रिकवरी ऐसी भी)

☆ कहानी “एक रिकवरी ऐसी भी☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

बैंकों में बढ़ते एनपीए जैसे समाचार पढ़ते हुए उस ईमानदार मृतात्मा की याद आ गई, जिसने अपने बेटे को सपना देकर अपने पुराने लोन को पटाने हेतु प्रेरणा दी। 

किसी ने ठीक ही कहा है कि कर्ज, फर्ज और मर्ज को कभी नहीं भूलना चाहिए, लेकिन इस आदर्श वाक्य को लोग पढकर टाल देते है। कर्ज लेते समय तो उनका व्यवहार अत्यंत मृदु होता है, लेकिन मतलब निकलने के बाद वे नजरें चुराने लगते है, कई ऐसे लोग है जो बैंक से काफी लोन लेकर उसे पचा जाते है, लेकिन ऐसे भी लोगों की कमी नहीं जो कर्ज, फर्ज और मर्ज का बराबर ख्याल रखते है। 

एक बैंक की शाखा के एक कर्जदार ने अपनी मृत्यु के बाद भी बैंक से लिए कर्ज को चुकाने सपने में अपने परिजन को प्रेरित किया जिससे उसके द्वारा २० साल पहले लिया कर्ज पट गया।जब लोगों को इस बात का पता चला तो लोगों ने दातों तले उगलियाँ दबा कर हतप्रद रह गए।

बात सोलह साल पुरानी है जब हम स्टेट बैंक की एक शाखा में शाखा प्रबन्धक के रूप में पदस्थ थे। इस मामले का खुलासा करने में हमें भी तनिक हिचक और आश्चर्य के साथ सहज रूप से विश्वास नहीं हो रहा था, इसीलिए हमने कुछ अपनों को यह बात बताई,साथ ही अपनों को यह भी सलाह दी कि ”किसी से बताना नहीं ….. पर कुछ दिन पहले एक रिकवरी ऐसी भी आई।……..यह बात फैलते – फैलते खबरनबीसों तक पहुच गई, फिर इस बात को खबर बनाकर स्थानीय संवाददाता ने  खबर को प्रमुखता से अपने पत्र में प्रकाशित करवा दिया। खबर यह थी कि २० साल पहले एक ग्राहक ने बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन कर्ज चुकाने के पहले ही वह परलोक सिधार गया …………। उसके बेटे ने एक दिन बैंक में आकर अपने पिता द्वारा लिए गए कर्ज की जानकारी ली, बेटे ने  बताया कि उसके पिता बार-बार सपने में आते है और बार-बार यही कहते है कि बेटा बैंक का कर्ज चुका दो,पहले तो शाखा के स्टाफ को आश्चर्य हुआ और बात पर भरोसा नहीं हुआ, लेकिन उसके बेटे के चेहरे पर उभर आई चिंता और उसके संवेदनशील मन  पर गौर करते हुए अपलेखित खातों की सूची में उसके पिता का नाम मिल ही गया,उसकी बात पर कुछ यकीन भी हुआ, फिर उसने बताया कि पिता जी की बहुत पहले मृत्यु हो गई थी,पर कुछ दिनों से हर रात को पिता जी सपने में आकर पूछते है की कर्ज का क्या हुआ ? और मेरी नींद खुल जाती है फिर सो नहीं पता, लगातार २० दिनों से नहीं सो पाया हूँ,आज किसी भी हालत में पिता जी का कर्ज चुका कर ही घर जाना हो पायेगा। अधिक नहीं मात्र १६५००/ का हिसाब ब्याज सहित बना, उसने हँसते -हँसते चुकाया और बोला – आज तो सच में गंगा नहए जैसा लग रहा है। 

अगले दो-तीन दिनों तक उसकी खोज -खबर ली गई उसने बताया की कर्ज चुकने के बाद पिता जी बिलकुल भी नहीं दिखे, उस दिन से उसे खूब नीदं आ रही है। जिन लोगों ने इस बात को सुना उन्हें भले इस खबर पर अंधविश्वास की बू आयी है,पर उस पवित्र आत्मा की प्रेरणा से जहाँ बैंक की वसूली हो गई वहीँ एक पुत्र पितृ-लोन से मुक्त हो गया,इस खबर को तमाम जगहों पढ़ा गया और हो सकता है कि  कई दूर-दराज शाखाओं की पुरानी अपलेखित खातों में इस खबर से वसूली हुई हो। पर ये सच है कि पहले के जमाने में स्टेट बैंक  का ग्राहक होना गर्व और इज्जत का विषय होता था। तभी तो लोग कहते थे कि स्टेट बैंक में ऐसे ईमानदार कर्जदार भी होते थे जो मरकर भी अपने कर्ज को चुकवाते हुए बैंक की वसूली का माहौल भी बनाते थे…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – यह झूठ, वह झूठ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कथा यह झूठ, वह झूठ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – यह झूठ, वह झूठ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

वयोवृद्ध सरयू ने कहानियाँ सुनाने में धूम मचा रखी थी। बूढ़े लोग हों तो सरयू उनकी उम्र को ध्यान में रखते हुए कहानियाँ सुनाता था। जवान हों तो सरयू के ओठों से उनके लिए कहानियाँ तो मानो सर – सर करती बहती जाती थीं। बच्चों की उम्र के हिसाब से सरयू के पास कहानियों का खजाना हुआ। तभी तो बच्चे उसे देखने पर कहानियाँ सुनने के लिए उसे घेर लेते थे। इसी तरह बेटियों – माताओं के लिए भी सरयू के कंठ में कहानियों का भंडार था।

कहानियों की धूम मचाने वाले सरयू का समाचार राजा तक पहुँचाने वाला उसका सारथि हुआ। राजा को रथ पर बैठ कर हवाखोरी के लिए बाहर जाना था, लेकिन सारथि वक्त पर पहुँच न पाया था। राजा के डाँटने पर उसने रास्ते पर भीड़ होने के कारण अटक जाने का अपना कष्ट सुनाया। सरयू की कहानियों के दीवाने विस्तृत संख्या में उसे घेर कर उससे कहानियाँ सुन रहे थे।

राजा को सरयू विस्मयकारी लगा। उसे इस बात की जिज्ञासा हुई कि सरयू अपनी कहानियों में सुनाता क्या है? उसने पता लगाने पर जाना सरजू की कहानियाँ सत्य पर आधारित होती नहीं हैं। तो भी उसकी कहानियाँ अद्भुत होती हैं। पर उसकी कहानियाँ अद्भुत होना राजा के लिए मिथ्या हुआ। उसने इस पक्ष को लिया कि सरयू की कहानियाँ सरासर झूठी होती हैं।

राजा के आदेश पर सरयू को राज दरबार में लाया गया। राजा ने कहा, “मुझे मालूम हो गया है तुम्हारी कहानियाँ झूठी होती हैं। इसका मतलब हुआ तुम प्रजा में झूठ की आदत डाल रहे हो।”

सरजू ने अपना तर्क रखा वह तो मनोरंजन के लिए कहानियों का आश्रय लेता है। लोग उसकी कहानियों से आनन्दित होते हैं तो उसे लगता है अपना जन्म सार्थक हुआ। पर राजा ने उसे न मान कर उस पर कहानियाँ सुनाने की पाबंदी लगा दी। इस वर्जन से सरयू काँप पड़ा। उसने हाथ जोड़ कर कहा, “राजन, कहानियाँ तो मेरे खून में हैं। कहानियों के रूप में मैं अपने खून का कतरा बाँटता हूँ। मेरा यह आधार मुझसे छीना न जाए।”

उसके बहुत कहने पर भी राजा की ओर से उसे कहानियाँ सुनाने की आज्ञा नहीं मिली। राजा ने क्रोध में उसे झूठा कह कर दरबार से बाहर निकलवा दिया। राजा के न्याय में यह भी आया कि सरयू अब भी झूठी कहानियाँ सुनाने का हठ करे तो उसे देश से निष्कासित कर दिया जाएगा।

सरयू वहाँ से रो कर गया।

राज दरबार में राजकवि भी उपस्थित था। वह अपनी कविताओं के बारे में सोचने लगा था। यदि सरयू बोलने में झूठा था तो राजकवि लिखने में झूठा हुआ। उसने कब किसी औरत को नदी में नंगी देह नहाते देखा, लेकिन राजा उसकी ऐसी कविताओं से खुश हो कर उसे शाबाशी देता था। राजा एक बार शत्रु राजा से लड़ाई में पराजित हो कर लौटा था। राजकवि ने उसकी पराजय को शब्दबद्ध न कर के लिखा था राजा की तलवार की झनझनाहट सुनने पर शत्रु राजा की सेना में भगदड़ मच जाती थी।

राजकवि ने राजा को विश्व सम्राट जैसे महान झूठों का नायक बना कर उस पर आधारित जो महाकाव्य लिखा था इसके बल पर उसे आजीवन राजकवि का पद प्राप्त हुआ था।

***

© श्री रामदेव धुरंधर

17 – 12 — 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “पत्नी यानी/तीखा व्यंग” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा पत्नी यानी/तीखा व्यंग“.)

☆ लघुकथा – पत्नी यानी/तीखा व्यंग ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

पत्नी का पद हासिल करते ही औरत एक साथ पांच किरदार निभाती है

पहला – शान से बच्चा पैदा करती है और वाहवाही लूटती है।

दूसरा – महरी बनकर चूल्हा- चौका,झाड़ू -पोंछा, बर्तन और घर चमकाती है।

तीसरा – घर भर के कपड़े धोकर स्त्री करती है और धोबिन बन जाती है।

चौथा – बच्चों को पढ़ाकर, टीचर बन जाने का सुयोग भी पा जाती है।

पाँचवाँ – और अति महत्वपूर्ण-सास- ननद के चक्रव्यूह में फंसकर कभी अभिमन्यु नहीं बन पाती है।

अनुरोध – पत्नी के हालात पर ध्यान दिया जाए और गृहस्थी की दलदल में फंसने से रोका जाए। उसकी भरपूर मदद की जाए। उसे उसके हाल पर कदापि नहीं छोड़ा जाए। इति।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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