श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कथा – वेष की मर्यादा ? ?

(‘वह लिखता रहा’ संग्रह से।)

(दैनिक चेतना में 24 जनवरी 2024 को प्रकाशित।)

ठाकुर जी का मंदिर कस्बे के लोगों के लिए आस्था का विशेष केंद्र था। अलौकिक अनुभूति कराने वाला मंदिर का गर्भगृह, उत्तुंग शिखर, शिखर के नीचे उसके अनुज-से खड़े उरूश्रृंग। शिखर पर विराजमान कलश। मंदिर की भव्य प्राचीनता, पंच धातु का विग्रह और बूढ़े पुरोहित जी का प्रवचन..। मंदिर की वास्तु से लेकर विग्रह तक, पुरोहित जी की सेवा से लेकर उनके प्रवचन तक, सबमें गहन आकर्षण था। जिस किसी की भी दृष्टि मंदिर पर जाती, वह टकटकी बांधे देखता ही रह जाता।

मंदिर पर दृष्टि तो उसकी भी थी। सच तो यह है कि मंदिर के बजाय उसकी दृष्टि ठाकुर जी की मूर्ति पर थी। अब तक के अनुभव से उसे पता था कि पंच धातु की मूर्ति कई लाख तो दिला ही देती है। तिस पर सैकड़ों साल पुरानी मूर्ति याने एंटीक पीस। प्रॉपर्टी का डेप्रिसिएशन होता है, पर मूर्ति ज्यों-ज्यों पुरानी होती है, उसका एप्रिसिएशन होता है। मामला करोड़ों की जद में पहुँच रहा था।

उसने नियमित रूप से मंदिर जाना शुरू कर दिया। बूढ़े पुरोहित जी बड़े जतन से भगवान का शृंगार करते। आरती करते हुए उनकी आँखें मुँद जाती और कई बार तो आँखों से आँसू छलक पड़ते, मानो ठाकुर जी को साक्षात सामने देख लिया हो। मूर्ति की तरह ही पुरोहित जी भी एंटीक वैल्यू रखते थे।

आरती के बाद पुरोहित जी प्रवचन किया करते। प्रवचन के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटते। उनका बोलना तो इतना प्रभावी ना था पर जो कुछ कंठ में आता, वह हृदय तल से फूटता। सुनने वाला मंत्रमुग्ध रह जाता। अनेक बार स्वयं पुरोहित जी को भी आश्चर्य होता कि वे क्या बोल गए। दिनभर पूजा अर्चना, ठाकुर जी की सेवा और रात में वही एक कमरे में पड़े रहते पुरोहित जी।

इन दिनों वेष की मर्यादा पर उनका प्रवचन चल रहा था।

“…श्रीमद्भागवत गीता का दूसरे अध्याय का 62वाँ और 63वाँ श्लोक कहता है,

“ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।

अर्थात विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है।  आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है। कामना का अर्थ है, वांछा, प्राप्त करने की इच्छा। अतः आसक्ति से विषयभोग की इच्छा प्रबल हो जाती है। प्रबलता भी ऐसी कि विषयभोग में थोड़ा-सा भी विघ्न भी मनुष्य सहन नहीं कर पाता। यह असहिष्णुता क्रोध की जननी है।

क्रोध आने पर मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। उसमें सम्मोह (मूढ़भाव) उत्पन्न हो जाता है। सम्मोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य कार्य-अकार्य में भेद नहीं कर पाता, सही-गलत का भान नहीं रख पाता। ऐसा मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है, उसकी आंतरिक मनुष्यता का पतन हो जाता है।

पूरी प्रक्रिया पर विचार करेंगे तो पाएँगे कि मनुष्यता कहीं बाहर से नहीं लानी पड़ती। सच्चाई, सद्विचार मूल घटक हैं जो हर मनुष्य में अंतर्भूत हैं। ये हैं तभी तो दोपाया, जानवर न कहलाकर मनुष्य कहलाया।

ध्यान रखना, हर मनुष्य मूलरूप से सच्चा होता है। दुनियावी  लोभ, लालच कुछ समय के लिए उसे उसी तरह ढके होते हैं जैसे जेर से भ्रूण। देर सबेर जेर को हटना पड़ता है, भ्रूण का जन्म होता है।

ढकने की बात आई तो वेष की भूमिका याद आई। आदमी की सच्चाई पर उसके वेष का बहुत असर पड़ता है। वह जिस वेष में होता है, उसके भीतर वैसा ही बोध जगने लगता है। सेल्समैन हो तो सामान बेचने के गुर उमगने लगते हैं। शिक्षक हो तो विद्यार्थी को विषय समझाने की बेचैनी घेर लेती है।  चौकीदार का वेश हो तो प्राण देकर भी संपत्ति, वस्तु या व्यक्ति की रक्षा करने के लिए मन फ़ौलाद हो जाता है…।”

…वह पुरोहित जी के वचन सुनता, मुस्करा देता।

आरती और प्रवचन के लिए रोज़ाना आते-आते पुरोहित जी से उसका संबंध अब घनिष्ठ हो चुका था। मंदिर के ताला-चाबी की जगह भी उसे ज्ञात हो चुकी थी। एक तरह से मंदिर का मैनेजमेंट ही देखने लगा था वह।

प्रवचन की यह शृंखला तीन दिन बाद संपन्न होने वाली थी। हर शृंखला के बाद चार-पाँच दिन विराम काल होता। तत्पश्चात पुरोहित जी फिर किसी नये विषय पर प्रवचन आरंभ करते। आज रात उसने अपने सभी साथियों को बता दिया था कि विराम काल में ठाकुर जी का विग्रह कैसे अपने कब्ज़े  में लेना है। कौन सा दरवाजा कैसे खुलेगा, किस-किस दरवाज़े का ताला टूट सकता है, किसकी डुप्लीकेट चाबी वह बना चुका है। आज से तीसरी  रात योजना को सिद्ध करने के लिए तय हुई।

तीसरे दिन प्रवचन संपन्न हुआ। इस बार पुरोहित जी का स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया था। आज तो उन्हें बहुत अधिक थकान थी, ज्वर भी तीव्र था। उनका एक डॉक्टर शिष्य आज गाड़ी लेकर आया था। उसने ज़ोर दिया कि इस बार दवा से काम नहीं चलेगा। कुछ दिन दवाखाने में एडमिट रहना ही होगा।

पुरोहित जी, अपने ठाकुर जी को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। डॉक्टर शिष्य, स्थिति की नज़ाकत समझ रहा था, सो पुरोहित जी को साथ लिए बिना जाना नहीं चाहता था। अंतत:  जीत  डॉक्टर की हुई।

गाड़ी में बैठने से पहले पुरोहित जी ने उसे बुलाया। धोती से बंधी चाबियाँ खोलीं और उसके हाथ में देते हुए बोले,…”ठाकुर जी की चौकीदारी की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारी। भगवान ने खुद तुम्हें अपना रक्षक नियुक्त किया है। आगे मंदिर की रक्षा तुम्हारा धर्म है।”

उसके बाँछें खिल गईं। उसने सुना रखा था कि ऊपर वाला जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। सुने हुए को आज फलित होता देख भी रहा था। जीवन में पहली बार उसने मन ही मन सच्चे भाव से भगवान को माथा नवाया।

…रात का तीसरा पहर चढ़ चुका था। वह मंदिर के भीतर प्रवेश कर चुका था। अपनी टोली के आने से पहले सारे दरवाज़े खोलने थे। …अब केवल गर्भगृह का द्वार बाकी था। उसने चाबी निकाली और ताले में लगा ही रहा था कि गाड़ी में बैठते पुरोहित जी का चित्र बरबस सामने घूमने लगा,

“ठाकुर जी की चौकीदारी की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारी। भगवान ने खुद तुम्हें अपना रक्षक नियुक्त किया है। आगे मंदिर की रक्षा तुम्हारा धर्म है।”

जड़वत खड़ा रह गया वह। भीतर नाना प्रकार के विचारों का झंझावात उठने लगा। ठाकुर जी के जिस विग्रह पर उसकी दृष्टि थी, उसी को टकटकी लगाए देख रहा था। उसे लगा केवल वही नहीं बल्कि ठाकुर जी भी उसे देख रहे हैं। मानो पूछ रहे हों,….मेरी रक्षा का भार उठा पाओगे न?…

विचारों की असीम शृंखला चल निकली। शृंखला के आदि से इति तक प्रवचन करते पुरोहित जी थे,

“….सम्मोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य कार्य-अकार्य में भेद नहीं कर पाता, सही-गलत का भान नहीं रख पाता..।”

उसकी स्मृति पर से भ्रम का कुहासा छँटने लगा था।

“…ध्यान रखना, हर मनुष्य मूलरूप से सच्चा होता है। दुनियावी  लोभ, लालच कुछ समय के लिए उसे उसी तरह ढके होते हैं जैसे जेर से भ्रूण। देर सबेर जेर को हटना पड़ता है, भ्रूण का जन्म होता है ।”

उसके अब तक के व्यक्तित्व पर निरंतर प्रहार होने लगे। भ्रूण जन्म लेने को मचलने लगा। जेर में दरार पड़ने लगी।

तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ ने उसकी तंद्रा को भंग कर दिया। लाठियाँ लिए उसकी टोली अंदर आ चुकी थी।

“….आदमी की सच्चाई पर उसके वेष का बहुत असर पड़ता है। वह जिस वेष में होता है, उसके भीतर वैसा ही बोध जगने लगता है।”

ठाकुर जी के चौकीदार में बिजली प्रवाहित होने लगी। चौकीदार ने टोली को ललकारा। आश्चर्यचकित टोली पहले तो इसे मज़ाक समझी। सच्चाई जानकर टोली, चौकीदार पर टूट पड़ी।

चौकीदार में आज जाने किस शक्ति का संचार हो गया था।  वह गोरा-बादल-सा लड़ा। उसकी एक लाठी, टोली की सारी लाठियों पर भारी पड़ रही थी। लाठियों की तड़तड़ाहट में खुद को कितनी लाठियाँ लगीं, कितनी हड्डियाँ चटकीं, पता नहीं पर लहुलुहान  टोली के पास भागने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचा।

शत्रु के भाग खड़े होने के बाद उसने खुद को भी ऊपर से नीचे तक रक्त में सना पाया। किसी तरह शरीर को ठेलता हुआ गर्भगृह के द्वार तक ले आया। संतोष के भाव से ठाकुर जी को निहारा। ठाकुर जी की मुद्रा भी जैसे स्वीकृति प्रदान कर रही थी। उसके नेत्रों से खारे पानी की धारा बह निकली। हाथ जोड़कर रुंधे गले से बोला,

“…ठाकुर जी आप साक्षी हैं। मैंने वेष की मर्यादा रख ली।”

कुछ दिनों बाद मंदिर के परिसर में पुरोहित जी की समाधि के समीप उसकी भी समाधि बनाई गई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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