हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – तृष्णा और सम भाव ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

☆ दो लघुकथाएं – तृष्णा और सम भाव  ☆ डॉ. हंसा दीप

☆ तृष्णा ☆

वह चिड़िया तिनका-तिनका सहेज कर लाती और बड़ी लगन से अपना घोंसला बनाती। कुछ दिनों बाद उसके नन्हें घोंसले में तीन-चार बच्चे चहचहाने लगे। अब चिड़िया बहुत खोजबीन कर दाने लाती और अपने बच्चों को चुगाती। एक दिन उसे एक सरकारी गोडाउन दिख गया जो अनाज के बोरों से भरा पड़ा था। वह डरते-डरते वहाँ पहुँची और दाना चोंच में भर कर उड़ गयी। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था। निडर होकर चोंच भर-भरकर दाने ले जाती। बच्चे जितना खा सकते उतना खाते, शेष वहीं एक कोने में इकट्ठा होने लगा। अब चिड़िया और उसके बच्चे काफी हष्ट-पुष्ट हो गए थे। दानों का ढेर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। नन्हा घोंसला इतना बोझ सह न सका और एक दिन भरभरा कर गिर पड़ा। 

☆ सम भाव ☆ 

बस की प्रतीक्षा करते हुए पति-पत्नी इधर-उधर देख रहे थे। एक सुंदर लड़की भी वहीं आकर खड़ी हो गयी। कुछ देर पत्नी उसे एकटक देखती रही फिर पति की ओर मुड़ी, वे एकटक लड़की को देख रहे थे। अपने आठ वर्षीय बेटे पर नजर गयी तो वह भी कौतुक से उसी लड़की को देख रहा था।

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- वृत्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा- वृत्त ?

सात-आठ साल का रहा होगा जब गृहकार्य करते हुए परकार से वृत्त खींच रहा था। बैठक में लेटे हुए दादाजी अपने किसी मिलने आये हुए से कह रहे थे कि जीवन वृत्त है। जहाँ से आरंभ वहीं पर इति, वहीं से यात्रा पुनः आरंभ। कुछ समझ नहीं पाया। जीवन वृत्त कैसे हो सकता है?

समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा। उसे याद आया कि पड़ोस के लक्खू बाबा की मौत पर कैसा डर गया था वह! पहली बार अर्थी जाते देखी थी उसने। कई रातें दादी के आँचल में चिपक कर निकाली थीं। उसे लगा, जो बाबा उससे रोज़ बोलते-बतियाते थे, उसे फल, मेवा देते थे, वे मर कैसे सकते हैं।

जीवन आगे बढ़ा। दादा-दादी भी चले गए। माता, पिता भी चले गए। जिन शिक्षकों, अग्रजों से कुछ सीखा, पढ़ा, उन्होंने भी विदा लेना शुरू कर दिया। पिछली पीढ़ी के नाम पर शून्य शेष रहा था।

उसकी अपनी देह भी बीमार रहने लगी। कहीं आना-जाना भी छूट चला। उस दिन अख़बार में अपने पुराने साथी की मृत्यु और बैठक का समाचार पढ़ा तो मन विचलित हो उठा। अब तो विचलन भी समाप्त हो गया क्योंकि गाहे-बगाहे संगी-साथियों के बिछड़ने की ख़बरें आने लगी हैं।

आज पलंग पर लेटा था। शरीर में उठ पाने की भी शक्ति नहीं थी। लेटे-लेटे देखा छोटा पोता होमवर्क कर रहा है। सहज पूछ लिया, ‘मोनू, क्या कर रहा है?’…’दद्दू, सर्कल ड्रॉ कर रहा हूँ, आई मीन गोला, मीन्स वृत्त खींच रहा हूँ।’…’जीवन भी वृत्त है बेटा..’ कहते हुए वह फीकी हँसी हँस पड़ा।

©  संजय भारद्वाज

(कविता संग्रह ‘योंही’)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – (1) वजन (2) हाथी के दाँत ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

☆ दो लघुकथाएं – (1) वजन (2) हाथी के दाँत ☆ डॉ. हंसा दीप

☆ (1) वजन ☆

मोहिनी जी को अपनी किताब छपवानी थी। विरही जी ने बताया उनके दो कविता संग्रह भारत के गरिमामयी प्रकाशक से छपकर आ रहे हैं। हालांकि कविताओं पर एक सवालिया चिन्ह था। आश्चर्य, इतना बड़ा प्रकाशक विरही जी की कविताएँ प्रकाशित कर रहा है! 

“उनकी शर्तें क्या हैं?”

“कोई शर्त नहीं, रचनाओं का वजन होना चाहिए।”

“कितना वजन, पंद्रह-बीस हजार का?”

“हजार का जमाना गया मैडम, शून्य बढ़ाइए।”

मोहिनी जी के हाथ अपनी आने वाली किताब का वजन महसूस कर रहे थे।  

☆ (2) हाथी के दाँत ☆ 

आज एक प्रतिष्ठित पत्रिका में रचना छपी। उन्होंने बधाई देकर उस नामी-गिरामी पत्रिका का ईमेल आईडी माँगा। मैंने तुरंत भेज दिया। उनका तत्काल फोन आया- “अरे, यह ईमेल आईडी तो सार्वजनिक है! आप वह ईमेल आईडी दीजिए जिस पर भेजने से रचना तुरंत स्वीकृत होकर प्रकाशित हो जाए।”

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – मेहमानवाजी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है पर्यटन स्थल के अनुभवों पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “मेहमानवाजी। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 98 ☆

? लघुकथा – मेहमानवाजी ?

सृष्टि की सुंदर मनमोहक और प्राकृतिक अनुपम सुंदरता लिए कश्मीर और श्रीनगर। श्रीनगर की शोभा बढ़ाती डल झील, पहलगाम, सोनमर्ग और गुलमर्ग । सभी एक से बढ़कर एक आंखों को सुकून देने वाले दृश्य और बर्फ से ढकी चोटियां। जहां तक नजर जाए मन आनंदित हो जा रहा था।

मनोरम वातावरण में घूमते घूमते मोनी और श्याम ने वहां पर एक कार घूमने के लिए लिया गया था। उस पर चले जा रहे थे। रास्ता बहुत ही खुशनुमा। कश्मीर का कार  ड्राइवर बीच-बीच में सब बताते चला जा रहा था’ सजाद’ नाम था उसका।

हालात के कारण सभी के मुंह पर मास्क लगे हुए थे अचानक गाड़ी रोक दी गई, देखा फिर से चेकिंग शुरू। हर पर्यटक को थोड़ी- थोड़ी दूर पर चेक करते थे। गाड़ियां एक के बाद एक लगी थी। करीब एक घंटे खड़े रहे। अचानक आगे से गाड़ियां सरकती दिखी। सजाद ने भी गाड़ी बढा ली।

परंतु यह क्या पूरा रास्ता जाम हो गया, अचानक बीस पच्चीस पुलिस वाले दौड़ लगाते भागने लगे। एक पुलिस वाला गाड़ी के पास आया।

डंडे से कांच को मारकर कांच नीची करवाया और जोर से बोला… “तैने दिखाई नहीं देता के? ऐसी तैसी करनी है क्या? एंबुलेंस कहां से निकलेगी?” और वह कुछ कहता इसके पहले ही सिर पर एक कस के डंडा और सजाद के गोरे- गोरे गाल पर एक तड़ाक का चांटा!!!!!

पांच ऊंगलियों के निशान लग गए, लाल होता देख मोनी और उसके पति देव ने पुलिस वालों को सॉरी कहना चाह रहे थे कि रास्ता खाली हुआ और गाड़ियां चल पड़ी।

कार में तीनों चुपचाप थे अचानक सजाद ने कहा… “आप क्यों सॉरी बोल रहे थे? आपकी कोई गलती थोड़ी ना है। आप कोई गिल्टी फील ना करें मैडम जी। हम लोग इस के आदी हो गए हैं। “

मोनी ने कहा.. “यदि कुछ हो जाता तो ..?” बीच में बात काटकर सजाद बोला… “मैडम जी हम अपने  मेहमानों को भगवान समझते हैं और भगवान को कुछ ना होने देंगे।“

खिलखिलाते हंस पड़ा मासूम सा चौबीस साल का युवा सजाद कहने लगा… “कभी-कभी एक, दो सप्ताह तक कुछ भी नहीं मिलता। कश्मीर बड़ा खुशनुमा है पर रोटी के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है।“ वह रूआँसा हो चुका था। “आप चिंता ना करें। यह सजाद आप लोगों को कुछ होने नहीं देगा। खुदा कसम हम मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। खुदा की रहमत हैं सभी का भला होगा।“

गाड़ी अपनी रफ्तार से चली जा रही थी और सजाद की मुस्कुराहट बढ़ने लगी थीं। यह कैसी मेहमानवाजी मन में विचार करने लगे मोनी और उसके पति देव।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #60 – लाल फर्श वाला कमरा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #60 – लाल फर्श वाला कमरा  ☆ श्री आशीष कुमार

इस बार जब घर गया तो कुछ देर के लिए अकेला जाकर लाल फर्श वाले कमरे में बिस्तर पर लेट गया।

वो कमरा जो बचपन में बहुत बड़ा लगता था अब वो बहुत छोटा लगने लगा था क्योकि मैं शायद अपने आपको बहुत बड़ा समझने लगा था।

मैं कुछ ही देर लेटा था की तुरंत यादें मन का हाथ थामे ले गयी मुझे बचपन में

जब इस कमरे में बैठकर पूरा परिवार होली से पहले गुंजिया बनवाता था।

हां वो ही कमरा जिसमे दिवाली की पूजा होती थी और पूजा के दौरान मन बेचैन रहता था की जल्दी पूजा ख़त्म हो और मैं अपने भाई- बहन के साथ घर की छत पर जाकर पठाखे फोड़ सकू।

अनायास ही मेरा ध्यान उस कमरे के टांड पर चला गया जो लाधे खड़ा था मेरा हँसता हुआ बचपन अपने कंधो पर।

पता नहीं अचानक मुझे क्या हुआ मैं बिस्तर पर से उठा और उस टांड के सिरों को सहलाने लगा जो मेरी खुशियों का बोझ उठाते उठाते बूढा हो चला था।

जिस पर एक बार घरवालों से छिपाकर मैंने एक कॉमिक छुपाई थी

उस टांड के गले में हम पैरो को फंसा कर उल्टा लटककर बेताल बना करते थे।

एक बार छुपन-छुपाई में मैं उस टांड पर चढ़ कर बैठा गया था और आगे से पर्दा लगा लिया था।

तभी मेरा ध्यान कमरे में लगें कढ़ो पर गया क्योकि कमरा पुराना था इसलिए कढ़ो वाला था।

वो कढ़ा भी मेरी ओर देखकर 360 की मुसकुराहट दे रहा था जिसमे से होकर हम डैक के स्पीकरों का तार निकला करते थे।

कमरे की दीवारों की पुताई कई जगह से छूट गयी थी और कई परतों के बीच मेरे बचपन वाली पुताई की परत ऐसे झांक कर देख रही थी जैसे गुजरे ज़माने में घर की बहुएँ किसी बुजुर्ग को अपने पल्ले के परदे के पीछे से झांकती थी।

अब उस कमरे में लाल रंग का फर्श नहीं रहा

wooden flooring हो गयी है

जिस कमरे को मैं छोटा सोच रहा था उसमे तो मेरा पूरा बचपन बसा था

अब मैं आपने आप को उस कमरे मे फिर से बहुत छोटा अनुभव कर रहा था ।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 97 – लघुकथा – टुकिया का झूला ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  गरीबी से संघर्ष करते परिवार की एक संवेदनशील लघुकथा  “टुकिया का झूला। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 97 ☆

 ? लघुकथा – टुकिया का झूला ?

साइकिल की आवाज सुन कर  वह बाहर निकली।  टुकिया रोज की तरह अपने बाबा को दौड़ कर गले लगा, उनकी बाहों में छुप जाना चाहती थी।

पांच साल की टुकिया परंतु आज बाबा ने न तो टुकिया को गोद लिया और न ही उसके लिए जलेबी की पुड़िया दी। टकटकी लगाए हुए पापा की ओर देखने लगी।

परंतु उसे क्या मालूम था कि बाबा ऐसा क्यों कर रहे हैं। पापा अंदर आने पर अपनी पत्नी से पानी का गिलास लेकर कहने लगे… अब मैं बच्ची को उसकी इच्छा के अनुसार पढ़ाई नहीं करवा पाऊंगा। उसकी यह इच्छा अधूरी रहेगी, क्योंकि आज फिर से काम से निकाल दिया गया हूँ।

तो क्या हुआ बाबा…  गले से झूलते हुए बोली… बाबा हम आपके साथ सर्कस जैसा काम करेंगे। हमारे पास खूब पैसे आ जाएंगे। बाबा को अपने पुराने दिन याद आ गए । उन्होंने बिटिया का माथा चूम लिया।

शाम ढले दो बांसों के बीच रस्सी बांध दिया गया। टुकिया चलने लगी सिर पर मटकी और मटकी पर जलता दिया।

दिए की लौ से प्रकाशित होता पूरा मैदान। टुकिया चलते जा रही थी, बाबा  का कलेजा फटा जा रहा था। बच्चीं ने रस्सी पार कर कहा… बाबा हमें जीत मिल गई अब हम रस्सी पर खूब काम करेंगे। और देखना एक दिन आपको हवाई जहाज में घुमाएंगे।

बाबा ने सोचा क्या गरीबी का बोझ हवाई जहाज उड़ा कर ले जा सकेगी? टुकिया रस्सी पर कब तक चलेगी।

सिक्के और रुपए उसकी थाली पर गिरते जा रहे थे। तालियों की गड़गड़ाहट  में उसकी सिसकियां कहाँ  सुनाई देती?

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के विदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है। हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी?

वह चाहती थी कि हाथी स्वीकार करे, तू भी है,,,,, तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछना चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले नहीं जी सकता,,,,,,, दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है।

इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें और हमारी उपेक्षा न हो।

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें,,,,,,, धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,,,,, दूसरे देखें और स्वीकार करें कि हम कुछ विशिष्ट हैं, ना कि साधारण।

हम मिट्टी से ही बने हैं और फिर मिट्टी में मिल जाएंगे,,,,,,,,

हम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हैं,,, वरना तो हम बस एक मिट्टी के पुतले हैं और कुछ नहीं।

अहंकार सदा इस तलाश में रहता है कि वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

याद रखना चाहिए आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए हमे झूठा अहंकार त्याग कर,,, जब तक जीवन है सदभावना पूर्वक जीना चाहिए और सब का सम्मान करना चाहिए,,,, क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 73 ☆ प्यार ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा प्यार । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 73 ☆

☆ लघुकथा – प्यार ☆

रविवार का दिन। घर में छुट्टी के दिन सबके काम इत्मीनान से होते हैं। बच्चे तो दस बजे तक सोकर उठते हैं। रिया जल्दी से नहाने चली गई, छुट्टी के दिन सिर ना धो तो फिर पूरे हफ्ते समय ही नहीं मिलता। ऑफिस से लौटते हुए शाम के सात बज जाते हैं। उसने नहाकर पूजा की और रसोई में जाकर नाश्ता बनाने लगी। रविवार को नाश्ता में कुछ खास चाहिए सबको। आज नाश्ते में इडली बना रही है। नाश्ते में ही ग्यारह बज गए। उसने बच्चों को आवाज लगाई खाने की मेज साफ करने को। तभी पति की आवाज सुनाई दी – रिया! मेरी पैंट शर्ट भी वाशिंग मशीन में डाल देना। झुंझला गई – अपने गंदे कपडे भी धोने को नहीं डालते, बच्चे तो बच्चे ही हैं, ये और —

अरे, बारह बज गए, जल्दी से खाने की तैयारी में लग गई। दाल, चावल,सब्जी बनाते – बनाते दो बजने को आए। गरम  फुलके खिलाने लगी सबको। तीन बजे उसे खाना नसीब हुआ। रसोई समेटकर कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि बारिश शुरू हो गई। अरे, मशीन से निकालकर कपडे  बाहर डाल दिए थे , जब तक बच्चों को आवाज लगाएगी कपडे गीले हो जाएंगे, खुद ही भागी। सूखे कपडे तह करके सबकी अल्मारियों में रख दिए, जो थोडे गीले  थे कमरे में सुखा दिए। शाम को फिर वही क्रम रात का खाना, रसोई की सफाई— ।

छुट्टी के दिन के लिए कई काम सोचकर रखती है पर रोजमर्रा के काम में ही रविवार निकल जाता है। छुट्टीवाले दिन कुछ ज्यादा ही थक जाती है। छुट्टी का तो  इंतजार ही अच्छा होता है बस। आँखें बोझिल हो रही थीं। बिस्तर पर लेटी ही थी कि पति ने धीरे से कंधे पर हाथ रखकर कहा – आज सारा दिन मैं घर पर था पर तुम दो मिनट आकर बैठी नहीं मेरे पास, पता नहीं क्या करती रहीं सारा दिन?  प्यार करती हो ना मुझसे? वह जैसे नींद में ही बोली — प्यार? उसके होठों पर मुस्कुराहट आई, पर कुछ बोले बिना ही वह गहरी नींद में सो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 89 – लघुकथा – सहयोग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा  “सहयोग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 89

☆ लघुकथा — सहयोग ☆ 

” उसे जरूरी काम है। अवकाश मंजूर कर दो भाई।”

” नहीं करूंगा। वह अपने आपको बहुत ज्यादा होशियार समझता है।” प्रभारी प्राचार्य ने कहा।

” उसकी मजबूरी है। देख लो।”

“उससे कहो- वह मेरी बात मान ले।”

“अरे भाई ! वह नास्तिक है। आपकी बात कैसे मान  सकता है? ” उसके साथी ने सिफारिश करते हुए कहा।

” उससे कहो- ताली एक हाथ से नहीं बजती है,”  प्राचार्य ने विजय मुद्रा में मुस्कुराते हुए कहा,”  वह मंदिर-निर्माण के लिए दान दे कर मेरा सहयोग करें तब मैं उस का अवकाश मंजूर कर के उसका सहयोग करूंगा।”

यह निर्णय सुनते ही उसका साथी चुप हो गया।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-08-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सपने ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सपने? ?

कभी डराया कभी धमकाया, कभी कुचला, कभी दबाया, कभी तोड़ा, कभी फोड़ा, कभी रेता, कभी मरोड़ा, सब कुछ करके हार गईं, हाँफने लगी परिस्थितियाँ।….जाने क्या है जो मेरे सपने मरते ही नहीं..!

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.17, 19.9.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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