हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 107 ☆ लघुकथा – लिफाफा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  लघुकथा  ‘लिफाफा’).   

☆ लघुकथा # 107 ☆ लिफाफा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उस बेचारी ने कलेक्ट्रेट में ज्वाइन किया। 

कुछ दिन बाद नेता जी ने खबर भिजवाई कि हर महीने की पांच तारीख तक लिफाफा पहुंच जाना चाहिए।

वो भोली थी, पिता की लाडली थी उसी पिता की जो बार्डर पर कुछ साल पहले शहीद हो गए थे। उस बेचारी ने लिफाफे का मतलब नहीं समझा तो उसने चपरासी से लिफाफे के बारे में पूछा। चपरासी ने बताया कि नेताजी सब अधिकारियों से हर माह उगाही करते हैं, और लिफाफा लेते हैं। 

पिता के शहीद होने के बाद उस बेचारी ने बड़ा संघर्ष किया था, पैसे पैसे के लिए तरस गई थी, और पहली तनख्वाह में नेता जी को घूंस वाला लिफाफा देकर नौकरी बचाने की बात उसे जमी नहीं। उसने विरोध किया, बात चपरासी से होती हुई  ऊपर तक गई, और नेता जी तक पहुंच गई। 

दो महीने बाद उस बेचारी को एक लिफाफा मिला, खोलकर देखा तो प्रदेश के बार्डर के पिछड़े जिले के लिए उसका ट्रान्सफर आर्डर था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #63 – गैर हाज़िर कन्धे ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #63 – गैर हाज़िर कन्धे ☆ श्री आशीष कुमार

विश्वास साहब अपने आपको भागयशाली मानते थे। कारण यह था कि उनके दोनो पुत्र आई.आई.टी. करने के बाद लगभग एक करोड़ रुपये का वेतन अमेरिका में प्राप्त कर रहे थे। विश्वास साहब जब सेवा निवृत्त हुए तो उनकी इच्छा हुई कि उनका एक पुत्र भारत लौट आए और उनके साथ ही रहे; परन्तु अमेरिका जाने के बाद कोई पुत्र भारत आने को तैयार नहीं हुआ, उल्टे उन्होंने विश्वास साहब को अमेरिका आकर बसने की सलाह दी। विश्वास साहब अपनी पत्नी भावना के साथ अमेरिका गये; परन्तु उनका मन वहाँ पर बिल्कुल नहीं लगा और वे भारत लौट आए।

दुर्भाग्य से विश्वास साहब की पत्नी को लकवा हो गया और पत्नी पूर्णत: पति की सेवा पर निर्भर हो गई। प्रात: नित्यकर्म से लेकर खिलाने–पिलाने, दवाई देने आदि का सम्पूर्ण कार्य विश्वास साहब के भरोसे पर था। पत्नी की जुबान भी लकवे के कारण चली गई थी। विश्वास साहब पूर्ण निष्ठा और स्नेह से पति धर्म का निर्वहन कर रहे थे।

एक रात्रि विश्वास साहब ने दवाई वगैरह देकर भावना को सुलाया और स्वयं भी पास लगे हुए पलंग पर सोने चले गए। रात्रि के लगभग दो बजे हार्ट अटैक से विश्वास साहब की मौत हो गई। पत्नी प्रात: 6 बजे जब जागी तो इन्तजार करने लगी कि पति आकर नित्य कर्म से निवृत्त होने मे उसकी मदद करेंगे। इन्तजार करते करते पत्नी को किसी अनिष्ट की आशंका हुई। चूँकि पत्नी स्वयं चलने में असमर्थ थी, उसने अपने आपको पलंग से नीचे गिराया और फिर घिसटते हुए अपने पति के पलंग के पास पहुँची।

उसने पति को हिलाया–डुलाया पर कोई हलचल नहीं हुई। पत्नी समझ गई कि विश्वास साहब नहीं रहे। पत्नी की जुबान लकवे के कारण चली गई थी; अत: किसी को आवाज देकर बुलाना भी पत्नी के वश में नहीं था। घर पर और कोई सदस्य भी नहीं था। फोन बाहर ड्राइंग रूम मे लगा हुआ था। पत्नी ने पड़ोसी को सूचना देने के लिए घसीटते हुए फोन की तरफ बढ़ना शुरू किया। लगभग चार घण्टे की मशक्कत के बाद वह फोन तक पहुँची और उसने फोन के तार को खींचकर उसे नीचे गिराया। पड़ोसी के नंबर जैसे तैसे लगाये।

पड़ौसी भला इंसान था, फोन पर कोई बोल नहीं रहा था, पर फोन आया था, अत: वह समझ गया कि मामला गंभीर है। उसने आस– पड़ोस के लोगों को सूचना देकर इकट्ठा किया, दरवाजा तोड़कर सभी लोग घर में घुसे। उन्होने देखा -विश्वास साहब पलंग पर मृत पड़े थे तथा पत्नी भावना टेलीफोन के पास मृत पड़ी थी। पहले विश्वास और फिर भावना की मौत हुई। जनाजा दोनों का साथ–साथ निकला।

पूरा मोहल्ला कंधा दे रहा था परन्तु दो कंधे मौजूद नहीं थे जिसकी माँ–बाप को उम्मीद थी। शायद वे कंधे करोड़ो रुपये की कमाई के भार से पहले ही दबे हुए थे।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ फूल के आँसू  ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ कथा कहानी ☆ फूल के आँसू  ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

सुबह- सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ना उसका रोज़ का नियम था। आज भी वह नहा कर आई तो देखा कनेर हुलस रहा है, पीले फूलों संग, मगर, वह भीतर गई और प्रणाम करके भगवान के ऊपर से कल के बासी फूल उतार लाई। उन्हें एक बड़े से झाड़ की जड़ों में मसल कर डाल दिया।साथ ही तांबे के छोटे कलश का पानी भी उड़ेल दिया । बासीपन का विसर्जन, रोज़ ही तो करती है पर क्या कभी हो पाया? यथार्थ में बासीपन का विसर्जन कितना कठिन है । बीत चुकी घटनाएँ स्मृतियों के घोंसले से अपनी मुंडी निकाल बाहर झांकती रहतीं हैं। इतना ही नहीं वे प्रायः हर नवीन निर्णय में पूर्वाग्रह बन कर गुथमगुत्था रहतीं हैं।

सीमा ने भरपूर कोशिश की थी इस घर में कभी किसी को अपनी पिछली ज़िंदगी के कंकड़ कांटे नज़र नहीं आने देगी। आखिर इस घर के लोगों का इसमें क्या दोष? इन साधु समान लोगों ने उसे बिना झिझक अपनाया। सीमा ने भी अपनी पिछली ज़िंदगी के पन्ने दीपक के सामने खोल कर रखने में कोई कोताही नहीं बरती थी। आज दोनों के विवाह को एक बरस हो गया था । दीपक ने भी संक्षेप में सारी जानकारी घर वालों को दे दी थी।

सुबह स्नान के बाद पूजा की तैयारी का जिम्मा सीमा ने तभी से अपने ऊपर ले लिया था जबसे वह ससुराल आई थी। घर मे सास नहीं, दादी सास थीं जो यदाकदा नियम धर्म की शिक्षा भी दिया करतीं थी।उनका यह शिक्षण- प्रशिक्षण पूजा तक ही सीमित नहीं था अपितु रसोई से होते हुए शयनकक्ष तक पहुंच जाया करता था। एक दिन उन्हींने बताया था ,”जिन पौधों से तोड़ने पर दूध निकलता है उनके फूल ठाकुर जी को नहीं चढ़ाते।”और यह भी,” पीले फूल विष्णु जी को अधिक प्रिय हैं।”

इसके आगे सीमा ने कभी नहीं पूछा कि  दादी पूजा के लिए कनेर के फूल क्यों तुड़वातीं हैं उसका मन दुविधा में ही रहता कि फूल पीले हैं इसलिए चढ़ाए जाते हैं लेकिन तोड़ने पर दूध निकलता है तो फिर क्यों चढ़ाए जाते हैं!  पूछने पर दादी न जाने क्या सोचेंगी? दीपक को यह घटना किस तरह बताएंगीं? सबसे भली चुप।दिन बीतते गए और सीमा ने पूजा के फूल चुनने के साथ-साथ घर के अन्य काम भी अपने ही ऊपर ले लिए।

आज करवाचौथ का व्रत रखा था उसने।सारा दिन रसोई में बीता।मोहल्ले की कुछ महिलाएं उसे पति के साथ अपने घर आकर पूजा करने का न्यौता दे गईं।जब वह पूजा करके आई सभी ने भोजन किया और अपने-अपने कमरे में चले गए।मगर सीमा छत पर रखे बड़े से सिंटेक्स की ओट में बैठी न जाने कहाँ खोई थी। आहट हुई तो उसने देखा दादी हैं।दादी ने शरारती बच्चे की तरह अपने हाथ मे लाए छोटे से पेंडल को खोल कर उसके सामने अपनी बूढ़ी हथेलियां फैला दीं।इसमें सीमा और प्रकाश की विवाह के समय की फ़ोटो थी।इसे देखते ही सीमा दादी के गले लग गई।सीमा विवाह के कुछ माह बाद ही विधवा हो गई थी। उसके सहकर्मी दीपक से यह उसका दूसरा विवाह था।

अगली सुबह ,दादी ने पूजा में कनेर का पुष्प उठाया तो सीमा कुछ कहना चाहती थी ।फूल के डंठल पर वह सफेद बूंदें देख रही थी।दादी ताड़ गईं, बोलीं ये जहर नहीं बेटी ये तो फूल के आंसू हैं।प्रभु के चरणों में चढ़ कर खुश तो होता है फिर भी अपनी हरी डाली से विछोह को भुला नहीं पाता।सीमा ने महसूस किया कि वह भी तो ऐसी ही है। स्मृतियों में उसका अतीत आ कर उसे रुला जाता है।चाहे जितनी बासी हो जाएं,स्मृतियों का विसर्जन नहीं हो पाता।

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

टीकमगढ़

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 91 – लघुकथा – पहल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “पहल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 91 ☆

☆ लघुकथा — पहल ☆ 

दोनों शिक्षिका रोज देर से शाला आती थी. उन्हें बार-बार आगाह किया मगर कोई सुधार नहीं हुआ. एक बार इसी बात को लेकर शाला निरीक्षक ने प्रधान शिक्षिका को फटकार दिया. तब उसने सोचा लिया कि दोनों शिक्षिका की देर से आने की आदत सुधार कर रहेगी.

” ऐसा कब तक चलेगा?”  प्रधान शिक्षिका ने अपने शिक्षक पति से कहा,” आज के बाद इनके उपस्थिति रजिस्टर में सही समय अंकित करवाइएगा.”

” अरे! रहने दो. उनके पति नेतागिरी करते हैं.”

” नहीं नहीं, यह नहीं चलेगा. वे रोज देर से आती हैं और उपस्थिति रजिस्टर में एक ही समय लिखती हैं. क्या वे उसी समय शाला आती हैं?”

” अरे! जाने भी दो.”

” क्या जाने भी दो ?”  प्रधान शिक्षिका ने कहा,” आप उनको नोटिस बनाते हो या मैं बनाऊं?”

” ऐसी बात नहीं है.”

” फिर क्या बात है स्पष्ट बताओ?”

” पहले तुम तो समय पर आया करो, ताकि मैं भी समय पर शाला आ पाऊं,”  शिक्षक पति ने कहा,” तभी हमारे नोटिस का कुछ महत्व होगा, अन्यथा…” कह कर शिक्षक पति चुप हो गया.

वाचाल प्रधान शिक्षिका ने इसके आगे कुछ कहना ठीक नहीं समझा.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-10-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – लेखक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? चंद्रमा मनसो जात: ?

शरद पूर्णिमा अर्थात समुद्र मंथन में लक्ष्मी जी के प्रकट होने की रात्रि,….शरद पूर्णिमा अर्थात द्वापर में रासरचैया द्वारा राधारानी एवं गोपिकाओं सहित महारास की रात्रि, जिसे देखकर आनंद विभोर चांद ने धरती पर अमृत वर्षा की थी।

चंद्रमा की कला की तरह घटता-बढ़ता-बदलता रहता है मनुष्य का मन भी। यही कारण है कि कहा गया, ‘चंद्रमा मनसो जात:।’

मान्यता है कि आज की रात्रि लक्ष्मी जी धरती का विचरण करती हैं और पूछती हैं, ‘को जागर्ति?’.. कौन जाग रहा है?..जागना याने ध्येयनिष्ठ और लक्ष्यनिष्ठ परिश्रम करना।

परिश्रमजनित ऐश्वर्य, आनंद, अमृत की कुमुदिनी आपके जीवन में सदा खिली रहे। जागते रहें, आनंदामृत से पुलकित रहें।

शरद / कोजागिरी / कौमुदी पूर्णिमा की हार्दिक बधाई

? संजय दृष्टि – लघुकथा – लेखक ?

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता हूँ।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जानबूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेष में थे। मुझे वेष और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 5:14 बजे, 18 अक्टूबर 2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  गत अंक में हमने अपने प्रबुद्ध पाठकों से उनके पात्र ‘असहमत’ से परिचय  करवाया था। यदि आप पढ़ने से वंचित रह गए हों तो असहमत का परिचय निम्न लिंक पर क्लिक कर प्राप्त सकते हैं।

मैं ‘असहमत’ हूँ …..!

अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत का मन सुबह के नाश्ते में पोहा और जलेबी खाने का हो रहा था क्योंकि परसों ही उसने वाट्सएप ग्रुप में इस पर काफी कुछ पढ़ा था. पर जब वो सुबह जागा जैसे कि उसकी देर से बिस्तर छोड़ने की आदत थी तो नाश्ते का मेन्यू डिसाइड हो चुका था. मां ने आलू पराठे बनाये थे और मां से इसरार करने पर भी मां सहमत नहीं हुई बल्कि डांट पिलाई. दरअसल परिवार में बेरोजगार होना आपकी डिग्री और रिश्ते दोनों को ही कसौटी पर रख देता है और हर मांग डांट खाने का बहाना बन जाती है. पर आज असहमत भी राज़ी नहीं हुआ क्योंकि कभी कभी स्वाद या चटोरापन अनुशासन से ऊपर उठकर और भैया या पिताजी की जेब टटोलकर फाइनेंसियल निदान  ढूंढ ही लेता है. उसने कुशल वित्तमंत्री के समान सरकारी खजाने से उतनी ही overdrawing की जितना उसने पोहा, जलेबी और चाय + पान का बज़ट बनाया था. रिश्तों का जरूरत से ज्यादा शोषण उसके सिद्धांतों के विपरीत था. तो मां के बनाये आलू पराठे ठुकराकर उसने अपने निर्धारित गंतव्य की राह पकड़ी. वर्किंग डे था, रविवार नहीं तो उसका नंबर जल्द ही आ गया पर आर्डर पूरा करने के लिये उसने जेब में रखे कड़कड़ाते नोट को हल्का सा बाहर निकाला ताकि पोहे वाला उस पर ध्यान दे. नज़रों में संदेह देखकर बाकायदा पूरे नोट के दर्शन कराये और रोबीले स्वर में कहा: फुटकर देने लायक धंधा तो हो गया है ना. दुकानदार पक्का व्यापारी था, हलकट भी अगर पैसा लेकर पोहा खाने आया है तो वो ग्राहक उसके लिये कटहल के समान बन जाता था. खैर जलेबी के साथ पोहा खाकर फिर अदरक वाली कड़क मीठी एक नंबर चाय का आस्वादन कर फिनिशिंग शॉट मीठा पान चटनी चमनबहार से करके असहमत मंत्रमुग्ध हो गया था. घर अभी जाने का सवाल ही नहीं था क्योंकि अभी फिलहाल वो कुटने के लिये मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से तैयार नहीं था. तो उसने बाकी पैसे वापस लेकर साईकल उठाई और “साइकिल से मार्निंग वॉक” के उद्देश्य से आगे बढ़ा.मौसम ठंडा था, हवा भी सामान्य से तेज ही चल रही थी. रास्ते में एक स्कूल ग्राउंड पर उसकी नजर पड़ी तो वो रुक गया और हो रही गतिविधि के नजारों में रम गया.

स्कूल टीचर क्लास के छात्रों के बीच कुर्सी दौड़ का खेल खिला रहे थे. जैसा कि सब जानते ही हैं कि कुर्सी हमेशा खिलाड़ियों से एक कम ही होती है. नौ खिलाड़ियों और आठ कुर्सियों से खेल शुरु हुआ, टीचर के हाथ में घंटी थी जो बजायी जा रही थी. जैसे ही घंटी का बजना बंद होता, खिलाड़ी दौड़कर सबसे पास या सबसे सुगम कुर्सी में विराजमान हो जाते पर इस दौड़ में कुर्सी नहीं हासिल कर पाने वाला पहले तो उज़बक के समान खड़ा रहता और फिर देखने वालों की हंसी के बीच किनारे आकर गौतम बुद्ध जैसा निर्विकार बन जाता.अब खेल रोचक होते जा रहा था और धूप भी तेज़.असहमत को अपने स्कूल के दिन भी याद आ गये जिनसे होता हुआ वो वर्तमान तक आ पहुंचा जहां कुर्सियां 8 ही रहीं पर खेलने वाले नौ नहीं बल्कि नब्बे हजार हो गये और ये खेल रोजगार पाने का नहीं बल्कि बेरोजगार होने का रह गया.फिर उसका ध्यान स्कूल में खेली जा रही कुर्सी दौड़ पर केंद्रित हुआ. अब कुर्सी एक बची थी और खिलाड़ी दो. एक हृष्टपुष्ट था और दूसरा स्लिम पर फुर्तीला. जैसे ही घंटी की आवाज थमी दोनों कुर्सी की तरफ दौड़े, पहुंचे भी लगभग एक साथ, शायद फ्रेक्शन ऑफ सेकेंड का अंतर रहा होगा पर जब तक स्लिम खिलाड़ी कुर्सी पर पूरा कब्जा जमाता, हृष्टपुष्ट के आकार ने उसकी फ्रेक्शन ऑफ सेकेंड की बढ़त पर पानी फेर दिया. नज़ारा ऐसा हो गया कि आखिरी कुर्सी पर दोनों खिलाड़ी विराज़मान नहीं बल्कि कब्जायमान हो गये. रिप्ले की सुविधा नहीं थी और टीचर को निर्णय लेना था तो उन्होंने अपने पसंदीदा स्लिम खिलाड़ी के पक्ष में निर्णय सुनाया पर हृष्टपुष्ट ये फैसला मानने को तैयार नहीं था तो बात प्रिसिंपल के चैम्बर तक पहुंची, टीचर और दोनों खिलाड़ियों के साथ. वैसे तो असहमत को इस फैसले से कोई लेना देना नहीं था पर हर जगह घुस कर तमाशा देखने की बुरी आदत ने उसे अनधिकृत रूप से प्रिसिंपल के चेम्बर में प्रविष्ट करा ही दिया.टीचर जी ने सोचा प्रिसिंपल से मिलने आये होंगे और प्रिसिंपल ने सोचा कि ये चारों एक साथ हैं. टीचर ने पूरा माज़रा प्रिसिंपल के संज्ञान में लाया और उनके निर्णय की प्रतीक्षा  में कुर्सी पर बैठ गये. खिलाड़ी रूपी छात्र ये दुस्साहस नहीं कर सकते थे पर असहमत ने कुर्सी पर बैठते हुये थर्ड अंपायर की बिन मांगी सलाह दे डाली ” सर, हृष्टपुष्ट नहीं पर ये स्लिम खिलाड़ी ही सही विजेता है.”

अब सबका ध्यान असहमत पर, आप कौन हैं?

जी मैं असहमत

प्रिसिंपल : आप सहमत रहो या असहमत, मेरे चैंबर में कैसे आ धमके, विदाउट परमीशन.

सर असहमत मेरा नाम है और अक्सर लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं पर सच्ची बात बोलना मेरी आदत है तो आप सुन लीजिये.मुझे कौन सा रुककर यहां स्कूल चलाने को मिल रहा है. वैसे ये हृष्टपुष्ट बालक अपने आकार का गलत फायदा उठाना चाहता है.

प्रिंसिपल : हृष्टपुष्ट शर्मा इस बालक के पिताजी का नाम है  जो स्कूल के ट्रस्टी भी हैं. सवाल बाहर ग्राउंड की कुर्सी का नहीं बल्कि मेरी और इन शिक्षक महोदय की कुर्सी का बनेगा.

असहमत : सर 6-6 महीने के लिये कुर्सी बांट दीजिये, शायद दोनों ही संतुष्ट हो जायें.

प्रिसिंपल : देखो ये कुरसी तो टीचर्स के लिये हैं जो ऐसे खेल में कुछ समय के लिये काम में आती हैं. वरना स्टूडेंट तो डेस्क पर ही बैठते हैं जो हमें अपने सुपुत्र के एडमीशन के लिये आने वाले पिताश्री लोग भेंट करते हैं.

असहमत कुछ बोलता इसके पहले ही स्कूल की घंटी बज गई और प्रिसिंपल साहब ने असहमत को इशारा किया कि ये घंटी तुम्हारे लिये भी यहां से गेट आउट का संकेत है. और जाते जाते सलाह भी दी कि लोगों को क्या करना है और क्या नहीं, इस ज्ञान को बिना मांगे बांटने का सबसे अच्छा प्लेटफार्म सोशलमीडिया है. जिसको ज्ञान दोगे वे ध्यान नहीं दंगेे क्योंकि वे सब तुमसे बहुत बड़े ज्ञानी हैं. वे लोग भी बुद्धि बल से नहीं बल्कि संख्या बल से कुर्सियों पर कब्जायमान हैं.

असहमत समझ गया, फिर उसे याद आया कि सौ रुपये वाली पिटाई उसका घर पर इंतजार कर ही रही है तो यहां पिटने की एडवांस इन्सटॉलमेंट मंहगी पड़ सकती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 100 – लघुकथा – बेऔलाद ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “बेऔलाद । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 100 ☆

? लघुकथा – ?? बेऔलाद ??‍♀️ ?

आठ बरस का दीपक रोज पास वाले ग्राउंड पर खेलने जाता था। आते समय अक्सर वह अपने दोस्त आकाश के यहां रुकता।

आकाश के यहां रोज कुछ ना कुछ बातों को लेकर कहा सुनी – लड़ाई होते रहती थी। जबकि घर में बेटा – बहू, सास – ससुर और उसका दोस्त आकाश। फिर भी क्यों?? लड़ाई होती है उसके समझ में नहीं आता। परंतु वह हमेशा ‘बेऔलाद’ शब्द का उच्चारण बार बार सुनता था।

आज लौटते समय पांव ठिठक गए। आकाश की दादी कह रही थी— उसे देखो बे औलाद हो कर भी कितना सुख, शांति और खुशी से घर-परिवार चल चला रहा है। किसी और का बेटा आज अपनों से भी ज्यादा सगा और वफादार है। तुझसे अच्छा तो मैं भी बेऔलाद होती!!!

दीपक की समझ में नहीं आया। घर आकर अपना सामान फेंकते हुए अपनी मां से पूछा— मम्मा यह  बेऔलाद क्या? होता हैं और वफादारी से इसका क्या संबंध। दूसरे कमरे में दादा दादी पोते की आवाज सुनकर सन्न हो गए।

मम्मी ने दीपक के मुंह को पोछते हुए कहा – – – बेटा बेऔलाद वे होते हैं जिनको भगवान ने एक अद्भुत शक्ति, सहनशीलता और बिना मां बाप के अनाथ बच्चों को सीने से लगाते, उसे पढ़ा लिखा कर योग्य बनाते हैं और सारी जिंदगी उसकी खुशी को अपनी खुशी समझते हैं।

ईश्वर इस नेक कार्य के लिए उनको बहुत-बहुत आशीर्वाद और सुखी होने का आशीर्वाद देते हैं। पास के कमरे से दादा-दादी की आंखों से खुशी की अश्रुधार बह निकली।

आँसू पोछ दादी बाहर आई दीपक को सीने से लगा लिया। उसी समय दीपक के पापा ऑफिस से घर के अंदर आए। मम्मी – पापा और नीरा के बहते आंसू देख जरा सा घबरा गया।

बोला – – क्या हुआ है? मुझे भी कुछ बताया जाएगा? पिताजी ने कसकर सीने से लगा लिया और कहा – – मुझे आज अपने भाग्य पर बहुत गर्व हो रहा है।

साक्षात भाग्यलक्ष्मी हमारे घर हैं।

पिताजी के सीने से लगे वह नीरा की ओर देख रहा था। 

बहुत ही मधुर मुस्कान लिए नीरा कहती है – – – आप सभी के लिए मैं चाय लेकर आती हूं। वह सभी के रोते रोते हंसी और हंसते हुए राज को समझ नहीं पा रहा  था।

पर दादा – दादी पूर्ण संतुष्ट। अपने दीपक के साथ खेलने लगे उन्हें अब भविष्य की चिंता नहीं थीं।  बेऔलाद का दर्द अब सदा सदा के लिए जाता रहा। मासूम दीपक सभी को खुश देख हंसने लगा।

   

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 106 ☆ वापिसी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  कथा ‘वापिसी’).   

☆ व्यंग्य # 106 ☆ वापिसी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

दस दस घरों के पांच टोले मिलाकर बना है कसवां गांव। गांव के एक टोले के खपरैल घर के अंदर गोबर से पुते चूल्हे के पास मुन्ना पैदा हुआ। पैदा होते ही खिसककर चूल्हे में घुस गया।  धीरे धीरे मुन्ना बड़ा हुआ।

मुन्नालाल गांव के सम्पन्न घरों के बड़े लड़कों को लोहे का रिंग दौड़ाते देखता तो उसका मन भी रिंग के साथ दौड़ने लगता। उसके घर में ऐसा कोई रिंग नहीं था जिससे वह अपनी ललक पूरी कर लेता। दिनों रात रिंग के जुगाड की ऊहापोह में वह परेशान रहता।एक रात मुन्ना ने सपना देखा, सपने में उसे कोयले की सिगड़ी दिखी जिसमें एक रिंग लगा दिखा। सपने की बात उसने जब मां को बताई तो मां ने कहा कि बहुत साल पहले जब उसके ताऊ जी शहर से नौकरी छोड़कर आये थे तो सामान के साथ पुरानी सिगड़ी भी थी जिसे गाय भैंस बांधने वाली सार के पीछे फेंक दिया गया था, फिर वह मिट्टी में दबती गई और उसका पता नहीं चला। सुबह उठते ही मुन्ना लाल ने सिगड़ी की तलाश करना चालू कर दिया, मिट्टी खोदने के बाद उसे सपने में देखी वही सिगड़ी मिल गई,मुन्नालाल की बांछें खिल गई। मुन्ना लाल ने सिगड़ी के सड़े-गले टीन को तोड़कर उसमें से एक सबूत छोटा सा रिंग निकाल लिया, उसे बड़ा सुकून मिला चूंकि अब वह भी गांव के अन्य लड़कों की तरह रिंग लेकर दौड़ सकता था।उसे लगा जैसे उसने दुनिया जीत ली। दिन दिन भर वह रिंग लेकर दौड़ लगाता रहता,खाना पीना भी भूल जाता। गांव के गरीब घर का बेटा लोहे का रिंग लिए खेले,यह बात कुछ लोगों को अच्छी नहीं लगती थी। जबकि मुन्ना लाल ने यह रिंग अपने बुद्धि कौशल से प्राप्त किया था।जब यह बात उसके बाबू को पता चली तो बाबू को लगा कि हमारा मुन्ना लाल होनहार लड़का है, अचानक बाबू के अंदर उम्मीदों का रेला बह गया, उसके बाबू तुरन्त उसके पढ़े-लिखे फूफा के पास मुन्ना लाल को ले गए और उनसे सारी बात बताई।

फूफा ने कहा- इसका मतलब लड़के के अंदर वैज्ञानिक सोच है, इसे अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहिए,यह बड़ा होकर बड़ा वैज्ञानिक बन सकता है। बाबू गरीब था, लड़के को अच्छे स्कूल में पढ़ाना सपने की बात थी। गांव के फटेहाल स्कूल में पढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं था, पर मुन्ना लाल के फूफा ने बाबू के अंदर अजीब तरह की उम्मीदें भर लीं थीं, उसके अंदर कुलबुलाहट होती रहती कि थोड़ा बड़ा होने के बाद शहर के अच्छे स्कूल में मुन्ना लाल का दाखिला करायेगा।

मुन्ना लाल उस सिगड़ी के रिंग को दौड़ाते दौड़ाते बड़ा हो गया,गांव के सम्पन्न घरों के लड़के उसके लिंग से चिढ़ते,उस पर हंसते। ऐसा भी नहीं था कि सम्पन्न परिवार के लड़कों के रिंग कोई सोने चांदी के बने थे या उनमें कोई अजूबा था,मात्र कुछ रुपए देकर गांव के लुहार से उनके रिंग बने थे, मुन्ना लाल का रिंग मुफ्त में धोखे से मिल गया था, मुन्ना लाल के बाबू गरीब थे उनके पास लुहार को देने के लिए पैसे नहीं थे।

मुन्ना लाल बड़ा होता गया, उसे शहर में उसके फूफा के पास पढ़ने को छोड़ दिया गया,वह पढ़ता गया, और बड़ा इंजीनियर हो गया। एक बड़े सरकारी संस्थान में महत्वपूर्ण पद मिल गया, विभाग वाले उसे अब एम एल साब कहने लगे। शादी हुई इंजीनियर लड़की से। दो बच्चे भी तीन साल में हो गये, फिर एक दिन सरकारी काम से मुन्ना लाल अमेरिका के लिए उड़ गए। गांव के उस छोटे से टोले के खपरैल घर की टूटी खटिया में लेटे लेटे बापू ने ये सब बातें खांसते खांसते सुनी, बापू को संतोष भी हुआ और मुन्ना लाल को देखने की ललक पैदा हुई,पर लम्बी बीमारी और बेहिसाब कमजोरी ने खाट से उठने नहीं दिया।

बीच बीच में सुनने में आया कि मुन्ना लाल कनेडियन लड़की के साथ रहने लगे हैं, फिर छै महीने बाद सुनने में आया कि कनेडियन लड़की से अलग होकर अब पाकिस्तानी लड़की के साथ घर बसा लिया है। बीच बीच में अपनी असली पत्नी पत्र भेज देते, थोड़ा पैसा भी भेज देते।जो लोग अमेरिका से छुट्टियों में इंडिया लौटते वे लोग मुन्ना लाल के बड़े रोचक कारनामे सुनाते। बात फैलते फैलते कसवां गांव तक जाती, गांव के लोग सुनकर दांतों तले उंगली दबाते। बीच में एक बार मुन्ना लाल की ओरिजनल पत्नी बच्चों के साथ अमेरिका गयी तो मुन्ना लाल के रंगरेलियां देख कर हताश होकर लौट आयी।

मुन्ना लाल के हर नये चरचे पर गांव के लोग शर्म से पानी पानी हो जाते, फूफा को गलियाते,बाबू अपनी गलती पर पछताते, मुन्ना लाल के बचपन के साथी गांव की चौपाल में हंसी उड़ाते।

एक नई ताज खबर चलते चलते इन दिनों कसवां गांव पहुंची है, मुन्ना लाल के हम उम्र दिलचस्प खबर सुनने बेताब हैं, सुना है कि मुन्ना लाल तीस पेंतीस साल बाद कसवां गांव आने वाले हैं।लोग कहते काहे को आ रहा है, मां बाप को बिलखता छोड़ खुद ऐश करता रहा,एक एक दाना को मां बाप तरसते तरसते मर गए। मां बाप के मरने पर भी नहीं आया,अब काहे को आ रहा है गांव।

एक दिन मुन्ना लाल अमेरिकी संस्कृति लिए गांव पहुंचे। गांव आकर पता चला कि उसके माता-पिता कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भूखे प्यासे दुनिया छोड़ चुके थे। बहुत दिन बीत गए थे, उनकी आत्मा की शांति के लिए मुन्ना लाल गांव के गेवडे़ के पीपल के नीचे मिट्टी का दिया जलाकर आंखें मूंदे खड़े हो गए,उसी समय गांव के दो छोटे लड़के लोहे का रिंग लेकर दौड़ते हुए वहां से गुजरे… उसे अचानक याद आया… बचपन में इस लोहे के रिंग को लुहार से बनवाने के लिए उसके बाबू के पास पैसा नहीं था। उसे याद आया, टूटी-फूटी टीन की सिगड़ी को तोड़कर जब उसने रिंग बनायी थी और गांव के सम्पन्न घराने के लड़कों की सम्पन्नता को उस छोटे से रिंग से मात दी थी, फिर उसे याद आया कि वह शायद बचपन में टूटी सिगड़ी से बनाए गए रिंग को शायद वह अमेरिका ले गया था।नम आंखों से मुन्ना लाल ने तय किया कि वह तुरंत अमेरिका पहुंचकर बचपन में बनाये गये उस रिंग की तलाश करेगा और उस रिंग को बाबू की संगमरमर की विशाल प्रतिमा के हाथों में पकड़ा देगा। उसने तय किया कि उस विशाल प्रतिमा को गांव के बीच के चौराहे पर खड़ा करेगा और मूर्ति के उदघाटन के लिए पाकिस्तानी पत्नी ठीक रहेगी या पुरानी भारतीय पत्नी…. इसी उहापोह में मुन्ना लाल पीपल के नीचे खड़ा बहुत देर तक रिंग चलाते बच्चों को देखता रहा। उसने जैसे ही उन खेलते बच्चों को आवाज दी, हवा के झोंके से मिट्टी का दिया बुझ गया और पीपल के पत्ते खड़खड़ाकर आवाज करने लगे, उसे लगा चारों तरफ के पेड़ लड़खड़ाते हुए हंस रहे हैं और उसके नीचे की जमीन खिसक रही है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – राम-लक्ष्मण ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा राम-लक्ष्मण। )

☆ लघुकथा – राम-लक्ष्मण ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

इस पावन पर्व पर एक नयी दृष्टि से लिखी ये लघुकथा, श्रीराम को प्रणाम करते हुए :-

राम जब वन में सीता को ढूंढ रहे थे तो उन्हें एक हार दिखाई पड़ा । उन्होंने लक्ष्मण से पूछा-” देखो, ये हार कहीं सीता का तो नहीं है ? ” इस पर लक्ष्मण ने कहा-” भैया, मैंने तो जीवनभर भाभी के चरण ही देखे हैं, मैं हार नहीं पहचान सकता। हाँ, पायल होती तो पहचान लेता। ” यह पौराणिक प्रसंग पढ़-सुनकर मेरा मन लक्ष्मण की इस पावन श्रद्धा के प्रति झुक गया ।

पर एक बात मन में बार-बार उठ भी रही थी कि राम का लक्षण से यह पूछना, क्या लक्ष्मण का अपमान नहीं है ? लक्ष्मण की पावनता को भला राम से ज्यादा कौन जानता होगा ?

इस सोच-विचार मैं मेरी आँख लग गई । और मैंने सपने में राम से पूछ ही लिया-” आपको तो पता ही होगा कि लक्ष्मण की नजरें सीता के चरणों के ऊपर नहीं होंगी, फिर भी हार के बारे में पूछना क्या उचित,था ? ”

राम बोले-” लक्ष्मण स्वयं को जितना नहीं जानता, उतना मैं उसे जानता हूँ । ये तो फ्लो में, टाइम पास के लिए, यूँ ही उस सहजता से पूछ लिया था। जैसे कि तुम लोग जब ट्रेन आने को ही होती है, तब प्लेटफॉर्म पर गर्दन झुकाये देखते ही रहते हो, और जैसे ही इंजन दिखा, आप उस गर्दन से भी कहते हो ट्रेन आ गई, जो गर्दन खुद इंजन को देख रही थी। बस उसी सहज भाव से लक्ष्मण से पूछा था। ” एक पल रुक कर राम पुनः बोले-” ये तो लक्ष्मण के बारे में कवि-भक्त की महानता थी, वैसे मैं बताऊँ, लक्ष्मण ने सिर्फ चरण ही नहीं, सीता का चेहरा भी कई बार देखा है। सम्भवतः मुझसे भी ज्यादा बार । “

राम के इस कथन पर मैं शंकित-सा लक्ष्मण के पास गया और पूछा-” राम का तुमसे पूछना व उनका कथन क्या उचित है ? “

लक्ष्मण ने कहा-” उन्होंने यूँ ही फ्लो में टाइम पास के लिए सहज पूछा होगा। जैसे ट्रेन आते…”

” बस-बस रहने दो। वो ट्रेन का किस्सा राम से सुन चुका हूँ ।आप तो यह बताइए कि क्या आपने सीता का चेहरा भी देखा है ? “

” क्यों नहीं, अनेक बार। सीता जैसा पावन सौन्दर्य युगों बाद धरती पर आता है। वो अभागा होगा, जो इस पावन सौन्दर्य को न देखे। “

” पर वो कवि-भक्त का तो कथन है कि आपकी नजरें सीता के चरणों के ऊपर कभी नहीं गई। “

वह कवि-भक्त की महानता है, कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण। मैं बताऊँ- पाप आँखों में नहीं, मन में होता है। तुम कवि हो । इसलिए कविता के जैसे समझता हूँ ।

” आँखों में जरा झाँकिए

दिल का राज

गहरा दिखाई देता है,

दिल में गर पाप हो

तो कदमों में भी

चेहरा दिखाई देता है। “

मैंने सीता के चरणों भी देखें हैं और सूरत भी। “

” दोनों देखते हो एक साथ। वो कैसे? “

वो ऐसे।कविराज कविता में सुनो-

” सीता के पावन सौन्दर्य में

मैं इतना खो जाता हूँ ,

जब चरण देखता हूँ

तो राम का भाई हूँ

सूरत देखते ही

पुत्र हो जाता हूँ । “

लक्ष्मण फिर बोले-” और सुनो,

” किसी स्त्री का चेहरा उसका पुत्र ही ज्यादा गहराई से पहचानता है, पति से भी ज्यादा। पति चेहरा कम, जिस्म ज्यादा पहचानता है। जबकि पुत्र सूरत, सूरत और सिर्फ सूरत पहचानता है। इसलिए राम ने हार के सम्बन्ध में मुझसे पूछा था। “

इसके बाद मेरी नींद खुल गई । और मेरा मन राम-लक्ष्मण-सीता के प्रति और अधिक श्रद्धा से भर गया । सिर अपने आप झुक गया । हाथ अपने आप जुड़ गए।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

नदी के तट पर एक भिक्षु ने वहां बैठे एक वृद्ध से पूछा “यहां से नगर कितनी दूर है?

सुना है, सूरज ढलते ही नगर का द्वार बंद हो जाता है।

अब तो शाम होने ही वाली है। क्या मैं वहां पहुंच जाऊंगा?’

वृद्ध ने कहा “धीरे चलो तो पहुंच भी सकते हो।” भिक्षु यह सुनकर हैरत में पड़ गया।

वह सोचने लगा कि लोग कहते हैं कि जल्दी से जाओ, पर यह तो विपरीत बात कह रहा है।

भिक्षु तेजी से भागा। लेकिन रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला था। थोड़ी देर बाद ही भिक्षु लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

किसी तरह वह उठ तो गया लेकिन दर्द से परेशान था।

उसे चलने में काफी दिक्कत हो रही थी। वह किसी तरह आगे बढ़ा लेकिन तब तक अंधेरा हो गया।

उस समय वह नगर से थोड़ी ही दूर पर था। उसने देखा कि दरवाजा बंद हो रहा है। उसके ठीक पास से एक व्यक्ति गुजर रहा था। उसने भिक्षु को देखा तो हंसने लगा। भिक्षु ने नाराज होकर कहा, “तुम हंस क्यों रहे हो?”

उस व्यक्ति ने कहा, ‘आज आपकी जो हालत हुई है, वह कभी मेरी भी हुई थी। आप भी उस बाबा जी की बात नहीं समझ पाए जो नदी किनारे रहते हैं।’

भिक्षु की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा “साफ साफ बताओ भाई।”

उस व्यक्ति ने कहा “जब बाबाजी कहते हैं कि धीरे चलो तो लोगों को अटपटा लगता है। असल में वह बताना चाहते हैं कि रास्ता गड़बड़ है, अगर संभलकर चलोगे तो पहुंच सकते हो

कथा का तात्पर्य

जिंदगी में सिर्फ तेज भागना ही काफी नहीं है। सोच-समझकर संभलकर चलना ज्यादा काम आता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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