श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  गत अंक में हमने अपने प्रबुद्ध पाठकों से उनके पात्र ‘असहमत’ से परिचय  करवाया था। यदि आप पढ़ने से वंचित रह गए हों तो असहमत का परिचय निम्न लिंक पर क्लिक कर प्राप्त सकते हैं।

मैं ‘असहमत’ हूँ …..!

अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत का मन सुबह के नाश्ते में पोहा और जलेबी खाने का हो रहा था क्योंकि परसों ही उसने वाट्सएप ग्रुप में इस पर काफी कुछ पढ़ा था. पर जब वो सुबह जागा जैसे कि उसकी देर से बिस्तर छोड़ने की आदत थी तो नाश्ते का मेन्यू डिसाइड हो चुका था. मां ने आलू पराठे बनाये थे और मां से इसरार करने पर भी मां सहमत नहीं हुई बल्कि डांट पिलाई. दरअसल परिवार में बेरोजगार होना आपकी डिग्री और रिश्ते दोनों को ही कसौटी पर रख देता है और हर मांग डांट खाने का बहाना बन जाती है. पर आज असहमत भी राज़ी नहीं हुआ क्योंकि कभी कभी स्वाद या चटोरापन अनुशासन से ऊपर उठकर और भैया या पिताजी की जेब टटोलकर फाइनेंसियल निदान  ढूंढ ही लेता है. उसने कुशल वित्तमंत्री के समान सरकारी खजाने से उतनी ही overdrawing की जितना उसने पोहा, जलेबी और चाय + पान का बज़ट बनाया था. रिश्तों का जरूरत से ज्यादा शोषण उसके सिद्धांतों के विपरीत था. तो मां के बनाये आलू पराठे ठुकराकर उसने अपने निर्धारित गंतव्य की राह पकड़ी. वर्किंग डे था, रविवार नहीं तो उसका नंबर जल्द ही आ गया पर आर्डर पूरा करने के लिये उसने जेब में रखे कड़कड़ाते नोट को हल्का सा बाहर निकाला ताकि पोहे वाला उस पर ध्यान दे. नज़रों में संदेह देखकर बाकायदा पूरे नोट के दर्शन कराये और रोबीले स्वर में कहा: फुटकर देने लायक धंधा तो हो गया है ना. दुकानदार पक्का व्यापारी था, हलकट भी अगर पैसा लेकर पोहा खाने आया है तो वो ग्राहक उसके लिये कटहल के समान बन जाता था. खैर जलेबी के साथ पोहा खाकर फिर अदरक वाली कड़क मीठी एक नंबर चाय का आस्वादन कर फिनिशिंग शॉट मीठा पान चटनी चमनबहार से करके असहमत मंत्रमुग्ध हो गया था. घर अभी जाने का सवाल ही नहीं था क्योंकि अभी फिलहाल वो कुटने के लिये मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से तैयार नहीं था. तो उसने बाकी पैसे वापस लेकर साईकल उठाई और “साइकिल से मार्निंग वॉक” के उद्देश्य से आगे बढ़ा.मौसम ठंडा था, हवा भी सामान्य से तेज ही चल रही थी. रास्ते में एक स्कूल ग्राउंड पर उसकी नजर पड़ी तो वो रुक गया और हो रही गतिविधि के नजारों में रम गया.

स्कूल टीचर क्लास के छात्रों के बीच कुर्सी दौड़ का खेल खिला रहे थे. जैसा कि सब जानते ही हैं कि कुर्सी हमेशा खिलाड़ियों से एक कम ही होती है. नौ खिलाड़ियों और आठ कुर्सियों से खेल शुरु हुआ, टीचर के हाथ में घंटी थी जो बजायी जा रही थी. जैसे ही घंटी का बजना बंद होता, खिलाड़ी दौड़कर सबसे पास या सबसे सुगम कुर्सी में विराजमान हो जाते पर इस दौड़ में कुर्सी नहीं हासिल कर पाने वाला पहले तो उज़बक के समान खड़ा रहता और फिर देखने वालों की हंसी के बीच किनारे आकर गौतम बुद्ध जैसा निर्विकार बन जाता.अब खेल रोचक होते जा रहा था और धूप भी तेज़.असहमत को अपने स्कूल के दिन भी याद आ गये जिनसे होता हुआ वो वर्तमान तक आ पहुंचा जहां कुर्सियां 8 ही रहीं पर खेलने वाले नौ नहीं बल्कि नब्बे हजार हो गये और ये खेल रोजगार पाने का नहीं बल्कि बेरोजगार होने का रह गया.फिर उसका ध्यान स्कूल में खेली जा रही कुर्सी दौड़ पर केंद्रित हुआ. अब कुर्सी एक बची थी और खिलाड़ी दो. एक हृष्टपुष्ट था और दूसरा स्लिम पर फुर्तीला. जैसे ही घंटी की आवाज थमी दोनों कुर्सी की तरफ दौड़े, पहुंचे भी लगभग एक साथ, शायद फ्रेक्शन ऑफ सेकेंड का अंतर रहा होगा पर जब तक स्लिम खिलाड़ी कुर्सी पर पूरा कब्जा जमाता, हृष्टपुष्ट के आकार ने उसकी फ्रेक्शन ऑफ सेकेंड की बढ़त पर पानी फेर दिया. नज़ारा ऐसा हो गया कि आखिरी कुर्सी पर दोनों खिलाड़ी विराज़मान नहीं बल्कि कब्जायमान हो गये. रिप्ले की सुविधा नहीं थी और टीचर को निर्णय लेना था तो उन्होंने अपने पसंदीदा स्लिम खिलाड़ी के पक्ष में निर्णय सुनाया पर हृष्टपुष्ट ये फैसला मानने को तैयार नहीं था तो बात प्रिसिंपल के चैम्बर तक पहुंची, टीचर और दोनों खिलाड़ियों के साथ. वैसे तो असहमत को इस फैसले से कोई लेना देना नहीं था पर हर जगह घुस कर तमाशा देखने की बुरी आदत ने उसे अनधिकृत रूप से प्रिसिंपल के चेम्बर में प्रविष्ट करा ही दिया.टीचर जी ने सोचा प्रिसिंपल से मिलने आये होंगे और प्रिसिंपल ने सोचा कि ये चारों एक साथ हैं. टीचर ने पूरा माज़रा प्रिसिंपल के संज्ञान में लाया और उनके निर्णय की प्रतीक्षा  में कुर्सी पर बैठ गये. खिलाड़ी रूपी छात्र ये दुस्साहस नहीं कर सकते थे पर असहमत ने कुर्सी पर बैठते हुये थर्ड अंपायर की बिन मांगी सलाह दे डाली ” सर, हृष्टपुष्ट नहीं पर ये स्लिम खिलाड़ी ही सही विजेता है.”

अब सबका ध्यान असहमत पर, आप कौन हैं?

जी मैं असहमत

प्रिसिंपल : आप सहमत रहो या असहमत, मेरे चैंबर में कैसे आ धमके, विदाउट परमीशन.

सर असहमत मेरा नाम है और अक्सर लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं पर सच्ची बात बोलना मेरी आदत है तो आप सुन लीजिये.मुझे कौन सा रुककर यहां स्कूल चलाने को मिल रहा है. वैसे ये हृष्टपुष्ट बालक अपने आकार का गलत फायदा उठाना चाहता है.

प्रिंसिपल : हृष्टपुष्ट शर्मा इस बालक के पिताजी का नाम है  जो स्कूल के ट्रस्टी भी हैं. सवाल बाहर ग्राउंड की कुर्सी का नहीं बल्कि मेरी और इन शिक्षक महोदय की कुर्सी का बनेगा.

असहमत : सर 6-6 महीने के लिये कुर्सी बांट दीजिये, शायद दोनों ही संतुष्ट हो जायें.

प्रिसिंपल : देखो ये कुरसी तो टीचर्स के लिये हैं जो ऐसे खेल में कुछ समय के लिये काम में आती हैं. वरना स्टूडेंट तो डेस्क पर ही बैठते हैं जो हमें अपने सुपुत्र के एडमीशन के लिये आने वाले पिताश्री लोग भेंट करते हैं.

असहमत कुछ बोलता इसके पहले ही स्कूल की घंटी बज गई और प्रिसिंपल साहब ने असहमत को इशारा किया कि ये घंटी तुम्हारे लिये भी यहां से गेट आउट का संकेत है. और जाते जाते सलाह भी दी कि लोगों को क्या करना है और क्या नहीं, इस ज्ञान को बिना मांगे बांटने का सबसे अच्छा प्लेटफार्म सोशलमीडिया है. जिसको ज्ञान दोगे वे ध्यान नहीं दंगेे क्योंकि वे सब तुमसे बहुत बड़े ज्ञानी हैं. वे लोग भी बुद्धि बल से नहीं बल्कि संख्या बल से कुर्सियों पर कब्जायमान हैं.

असहमत समझ गया, फिर उसे याद आया कि सौ रुपये वाली पिटाई उसका घर पर इंतजार कर ही रही है तो यहां पिटने की एडवांस इन्सटॉलमेंट मंहगी पड़ सकती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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