मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बाप लेकाचा अनोखा खटला !!… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती : सुश्री माधुरी परांजपे ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ बाप लेकाचा अनोखा खटला !!… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती : सुश्री माधुरी परांजपे ☆

आपल्या मुलाबद्दल तक्रार करता यावी म्हणून एक वृद्ध माणूस न्यायालयात दाखल झाला.

न्यायाधीशांनी विचारले की तुमची काय तक्रार आहे.

वृद्ध वडील म्हणाले, मला माझ्या मुलाकडून त्याच्या परिस्थितीनुसार महिन्याचा खर्च हवा आहे.

न्यायाधीश म्हणाले की, हा तुमचा अधिकार आहे. यामध्ये सुनावणीची गरज नाही. तुमचा सांभाळ तुमच्या मुलाने केलाच पाहिजे. ते त्यांचं कर्तव्यच आहे.

वडील म्हणाले की मी खूप श्रीमंत आहे. माझ्याकडे पैशांची कमतरता नाही. पण तरीही मला माझ्या मुलाकडून दर महिन्याचा खर्च घ्यायचा आहे.

न्यायाधीश आश्चर्यचकित झाले,ते त्या वृद्ध वडीलांना म्हणाले “जर तुम्ही इतके श्रीमंत आहात तर तुम्हाला तुमच्या मुलाच्या पैशांची काय गरज आहे ?”

यावर त्या वृद्ध वडीलांनी आपल्या मुलाचे नाव आणि पत्ता सांगितला. वडील न्यायाधीशांना म्हणाले, माझ्या मुलाला कोर्टात बोलावलं तर तुम्हाला सगळं नीट कळेल.

न्यायाधीश त्या मुलाला कोर्टात बोलावून घेतात आणि सांगतात की, तुमच्या वडीलांना दर महिन्याला तुमच्याकडून खर्च हवा आहे,मग तो कितीही असो, तुमच्या परिस्थितीनुसार तुम्हाला तो द्यावा लागेल.

न्यायाधीशांचं बोलणे ऐकून मुलगा गोंधळून जातो आणि म्हणतो, माझे वडील तर खूप श्रीमंत आहेत, त्यांच्याकडे पैशांची कमतरता नाही मग त्यांना माझ्या पैशांची काय गरज आहे ?

न्यायाधीश म्हणतात, ही तुमच्या वडीलांची मागणी आहे आणि त्यांचा हक्क पण आहे.

मग वडील म्हणतात, न्यायाधीश महोदय, तुम्ही माझ्या मुलाला सांगा की, त्याने मला दरमहा फक्त १०० रुपये द्यावे, परंतु अट अशी आहे की त्याने स्वतःच्या हाताने मला पैसे आणून द्यावेत आणि ते पैसे देण्यास कोणताही विलंब होता कामा नये.

न्यायाधीश म्हणतात, ठीक आहे, तुमच्या मनासारखं होईल. मग न्यायाधीश त्या मुलाला सांगतात की, तुम्ही दर महिन्याला १०० रुपये तुमच्या वडिलांना विलंब न करता हातात आणून देत जावे आणि हा कोर्टाचा आदेश आहे, त्याचे तुम्ही पालन कराल ही अपेक्षा !

खटला संपल्यावर न्यायाधीश त्या वृद्ध वडिलांना आपल्याकडे बोलवतात. तुमची काही हरकत नसेल तर मला तुम्हाला एक गोष्ट विचारायची आहे. तुम्ही इतके श्रीमंत असताना तुमच्या मुलावर हा खटला का दाखल केला आणि मुलाकडून फारच तुटपुंजी किंमत का मागितली ? असे का ??

आता मात्र त्या वृद्ध वडीलांचे डोळे पाणावले. न्यायाधीश साहेब,मला माझ्या मुलाचा चेहरा पाहण्याची खूप इच्छा होती, तो त्याच्या कामात इतका व्यस्त आहे की, मला त्याला भेटून बरेच दिवस झाले आणि समोर बसून तर सोडाच पण मोबाईलवर ही कधी आम्ही बोललो मला खरच् काही आठवत नाही.

माझे माझ्या मुलावर खूप प्रेम आहे.म्हणूनच मी त्याच्यावर हा खटला दाखल केला, जेणेकरुन दर महिन्याला तो माझ्यासमोर येईल, त्याला पाहून माझ्या मनाला आनंद होईल.

वृद्ध वडीलांचे म्हणणे ऐकून न्यायाधीशांच्या डोळ्यात अश्रू आले. न्यायाधीश म्हणाले, तुम्ही जर हे मला आधी सांगितले असते तर वडीलांना दुर्लक्षित केल्याचा आणि सांभाळ न केल्याच्या गुन्ह्याची शिक्षा मी तुमच्या मुलाला सुनावली असती.

यावर ते वृद्ध वडील हसतमुखाने न्यायाधीशांकडे बघतात आणि म्हणतात, माझ्या मुलाला शिक्षा झाली आणि ते ही माझ्यामुळे या सारखे वाईट काय ! कारण माझा त्याच्यावर खूप जीव आहे आणि माझ्यामुळे त्याला शिक्षा किंवा त्रास झालेलं मला कधीच सहन होणार नाही.

हे सर्व तो मुलगा लांबून ऐकत असतो. आता मात्र त्याच्याही डोळ्यातील अश्रूंचा बांध फुटतो. तो धावत येतो आणि वडीलांना मिठी मारतो. बस्स ! अजून काय हवं असतं म्हातारपणी आईवडीलांना….

मित्रांनो हजारो माणसं भेटतील आयुष्याच्या प्रवासात, पण आपल्या हजारो चुकांना क्षमा करणारे आईवडील पुन्हा मिळणार नाहीत… हो ना !!!

लेखक – अज्ञात 

संग्राहिका – सुश्री माधुरी परांजपे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ऊपरवाला देता है तो … ☆ हिन्दी-रूपांतरण – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ ऊपरवाला देता है तो … ☆ हिन्दी-रूपांतरण – सौ. उज्ज्वला केळकर

 एना और जोसेफ एक सुखी दंपति है। जोसेफ का इंपोर्ट-एक्सपोर्टका व्यवसाय है। वह व्यवसाय सम्हालता है और एना अकाउंट्स देखती है। उनके सुख में एक ही मलाल है, काँटे की तरह चुभनेवाला। विवाह के पाँच साल हो गये किंतु अब तक उन्हें कोई इश्यू नहीं है। अब यह काँटा निकालने की भी उन्होंने ठान ली।  

दोनों शहर के नामी डॉक्टर के पास गए। डॉक्टर ने दोनों की बारीकी से जाँच की और बताया, बच्चा पैदा करने में जोसेफ सक्षम है किंतु एना कभी माँ नहीं बन सकती।

अब क्या करें? दोनों विचार-विमर्श करने लगे। एना ने कहा, ‘‘किसी अनाथालय से बच्चा गोद लेंगे और उसे पाल-पोस कर बड़ा करेंगे। बच्चा बढ़ता जाएगा और हमें आनंद, सुख मिलेगा।’

जोसेफ ने कहा, ‘मैं बाप बन सकता हूँ, तो क्यों न मैं अपना बच्चा पैदा करूँ? हम सरोगेट मदरके बारे में  सोचेंगे। वह बच्चा दोनों का ना सही, कम से कम मेरा तो होगा ना!’

थोड़ा विचार-विमर्श करने के बाद एना ने अपनी सहमति जताई।

जोसेफने दैनिक न्यूज बुलेटिन में सरोगेट मदरके बारे में एड दे दी। इस एड को मैरी की ओर से प्रतिसाद मिला।

मुलाकात के वक्त मैरीने बताया, ‘उसके दो बच्चे और एक बच्ची है। बच्ची छोटी रोझेलिना। वह पेट में थी, तब उस का पति जॉन, हार्ट अटैक से स्वर्गवासीहुआ।

रोझेलिना अब डेढ़ साल की है। उस का बडा भाई एरिक तीन साल का और उस से बडा लेस्ली पाँच साल का है।’

मैरी कुछ घरों में साफ-सफाई का काम करती है और बच्चों को पालती है। मैरी ने सोचा, सरोगेट मदर की जिम्मेदारी निभाई, तो अच्छे पैसे मिलेंगे।

बच्चों का पालन-पोषण और अच्छी तरह से कर सकूँगी। उन्हें अधिक सुविधा दे सकूँगी।

मैरी के हामी भरने के बाद डॉक्टर साहब ने उसकी बारीकी से जाँच की। मैरी थोड़ी दुबली थी किंतु उसका गर्भाशय सशक्त था। थोड़ी पौष्टिक खुराक, ताजे फल,

टॉनिक मिल जाय, तो उसकी प्रकृति सुधारने में ज्यादा दिन नहीं लगेंगे, यह डॉक्टर साहब की राय थी। आखिर सर्व संमतिनुसार डॉक्टर साहब ने टेस्ट ट्यूब द्वारा

मैरी के गर्भाशय में बीज रोपित किया।

उस के बाद डॉक्टर साहब ने जब पहली बार मैरी की जाँच की, तब वे कुछ हद तक हड़बड़ा गए। उसके गर्भाशयमें दो नहीं, तीन बच्चे पल रहे थे।

तीन-तीन बच्चों का गर्भ में पलना उसके लिए जानलेवा हो सकता था क्योंकि वह बहुत दुबली थी।

डॉक्टर साहब ने मैरी से कहा, ‘तीन में से एक भ्रूण एबॉर्ट करेंगे, लेकिन सीधी-सादी, सदाचारी, पापभीरू, श्रद्धालू मैरी ने कहा,

‘ये नहीं हो सकता डॉक्टर साहब! ये तीनों बच्चे मेरे अपने भी तो हैं। इनमें से किसी एक को मैं कैसे मरवा सकती हूँ?’

डॉक्टर साहब ने मैरी को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन मैरी नहीं मानी।

दिन बीतते गए। मैरी के पेट में बच्चे पलते रहे। अब उस की डिलिव्हरी का समय समीप आ गया। एक दिन मैरी पेट के दर्द से कराहने लगी।

उसे हॉस्पिटल में एडमिट किया गया। बाहर एना और जोसेफ बहुत ही उत्साहित थे। आखिर प्रतीक्षा का क्षण समाप्त हुआ। बाहर आते-आते डॉक्टर साहब ने कहा,

‘काँग्रेचुलेशन! तीन बच्चे हुए हैं। तीनों बच्चे गोल-मटोल, स्वस्थ, सुदृढ़ हैं।’ उन के पीछे-पीछे एक नर्स बच्चों को लेकर बाहर आयी। बच्चों को देखते हुए एना बोली,

‘देखो जोसेफ, तुम्हें अपना एक बच्चा चाहिये था। प्रभू येशू ने तुम्हें तीन-तीन बच्चे दिये। चलो, अब मैरी से मिल कर आते हैं।

इतने में असिस्टेंट डॉक्टर बाहर आए। उन्होंने मैरी का ब्लड प्रेशर शूट हो जाने के कारण उसके गुजर जाने का शोक समाचार सुना दिया। समाचार सुनने के बाद दोनों स्तब्ध थे।

इस स्थिति से थोड़ा उबरने के बाद जोसेफ ने कहा, ‘अब मैरी के बच्चे भी अपने ही हैं।’

‘हाँ! मैरी के कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं है। हम उन्हें अनाथाश्रम में नहीं भेज सकते। हमारे बच्चों को जन्म देते हुए मैरी का देहांत हो गया है।’ एना का गला भर आया।

‘देख, तू अनाथाश्रम से एक बच्चा एडॉप्ट करने का सोच रही थी। मैरी माय ने तुझे तीन-तीन बच्चे दिये।‘

एक ओर मैरी के दु:खद निधन का शोक, दूसरी ओर बच्चों की प्राप्ति का आनंद और तीसरी ओर इन छ: बच्चों को अच्छी तरह से पाल-पोस कर बड़ा करने की चिंता में डूबे  वे दोनों छ: बच्चों को गाड़ी में रखने लगे।

मूल कल्पना – डॉ. मिलिंद विनोद   

स्वैर संक्षिप्त रुपांतर – सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 148 – मोहन-विहार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक शिक्षाप्रद लघुकथा “मोहन-विहार ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 148 ☆

🌺 लघुकथा 🏠 मोहन-विहार 🏠

पूरन सिंह खेत में काम कर रहे थे। मटर तोड़ा जा रहा था। काफी एरिया में फैला हुआ खेत, बारहों महीने कुछ ना कुछ फसल लगी होती थी। आज मकर सक्रांति पर सुबह – सुबह तैयार होकर वह खेत पर आ चुके थे।

उनके अपने दोनों बेटे बहू के आपसी मतभेद के कारण उनका अपना घर ‘मोहन-बिहार’ दो भागों में बंट चुका था। कान्हा जी के अनन्य भक्त थे। वह नहीं चाहते थे कि घर में किसी प्रकार का कोई कलह बने।

किसी बात को लेकर कहा सुनी हो गई थी। दोनों भाइयों में मनमुटाव हो गया था। खेत में बैठकर वह अपने भगवान कान्हा जी का भजन सुन रहे थे और धीरे-धीरे मटर तोड़ रहे थे।

उन्होंने देखा कि थोड़ी दूर से छोटी बहू घूंघट निकाल हाथों में झोला लिए खेतों की ओर चली आ रही है। आकर बोली… “बाबूजी खिचड़ी लाई हूं प्रसाद के रूप में खा लीजिए।” थाली पर निकाल ही रही थी कि बड़ी बहू जल्दी-जल्दी हांफते हुए आई और आते ही कहने लगी…. “मैंने अब आप की पसंद से खिचड़ी बनाई है, बाबूजी इस डिब्बे से खाइए।”

पूरन सिंह ने कहा…. “हाँ – हाँ थाली ले आओ।” थाली में एक कोने पर थोड़ी सी खिचड़ी बड़ी बहू की ले लिया और एक कोने पर छोटी बहू की थोड़ी सी खिचड़ी ले लिया, और दोनों को एक- एक बार खाने लगे।

परंतु यह क्या? बाबू जी ने कहा… “खिचड़ी में बिल्कुल भी स्वाद नहीं है समझ नहीं आ रहा है किस चीज की कमी हुई है।”

बहुएं कहने लगी… “मैंने  तो बहुत ध्यान से नमक दाल का ख्याल रखा है मेरी खिचड़ी अच्छी होगी।”

दूसरी ने कहा “मैंने तो बहुत मेहनत से खिचड़ी बनाई है। खाकर भी देखी है, स्वाद बहुत अच्छा है कोई कमी नहीं है। सब कुछ सही डाला है। पिताजी.. मेरी लाई खिचड़ी खा लीजिए, खराब नहीं है।”

पिताजी ने कहा -” ठीक है”। तब तक बेटे भी आ चुके थे। खड़े-खड़े सब देख रहे थे। पिताजी ने थाली में एक चम्मच से दोनों खिचड़ी को इधर-उधर मिलाकर एक कर लिया और अपने जेब से घी की डिबिया निकालकर उस पर डालकर खाने लगे।

नीचे सिर करके ही बोले…. “अब खिचड़ी में स्वाद आ गया। चाहो तो तुम दोनों भी खा सकते हो।” दोनों बेटों ने देखा, आँखों से बातें हुई और पिता का आशय जानते ही दोनों ने तुरंत पिताजी की थाली के साथ बैठ खिचड़ी खाने लगे।

दोनों बहुओं का डिब्बा खिचड़ी मिला – मिला कर खाया गया और खत्म हो गया।

बहुएं जो अब तक एक दूसरे की तरफ पीठ किए खड़ी थी। एक दूसरे को गले लग कर मकर सक्रांति की बधाइयाँ दे रही थी और तिल के लड्डू को एक दूसरे को खिला रही थी। जो बात घर में समझाने पर भी बेटा बहू नहीं समझ रहे थे। आज पूरन सिंह ने खेतों में कर दिखाया और किसी की सहायता भी नहीं ली और काम बन गया। उनकी आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे और हंसते हुए बोले….. “मुझे भी कोई पूछेगा लड्डू खाने को।”

दोनों बहुओं ने एक थाली में अपने-अपने लड्डू डाल मिलाकर परोस दिये… कहा… “पिताजी कोई भी खा लीजिए मिठास एक जैसी ही आएगी।” यही तो चाहते थे पूरन सिंह ‘मोहन-विहार’ के लिए।  

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 170 ☆ “यश का नशा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं  विचारणीय कविता  – “यश का नशा”)

☆ लघुकथा # 170 ☆ “यश का नशा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

फेसबुक में उन्होंने धड़ाधड़ 5000 मित्र बना डाले, फिर उन्हें हर किसी की तस्वीर पर जल्दबाजी में टिप्पणी लिखकर यश कमाने का भूत सवार हो गया। मोबाइल में जल्दबाजी में हिंदी में टायपिंग करना और चैक नहीं करना कभी कभी लठ्ठ पड़वा देता है। किसी ने अपनी पत्नी के साथ बैठकर अंंगूर खाती हुई अपनी फोटो फैसबुक में डाली थी। लिखा था–‘ आज मेरी खूबसूरत पत्नी का जन्मदिन है।’ टिप्पणी देने में  वे तेज तो थे ही तुरंत लिख मारा–‘ वाह क्या लंगूर है,जुग जुग जियो’।

दूसरे दिन उनको लठ्ठ पड़ गये और सिर में पट्टी बांधे वे पछता रहे थे कि टाइप करने के बाद दुबारा चैक करके ही पोस्ट डालना चाहिए।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #131 – लघुकथा – “पहल” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “पहल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 131 ☆

☆ लघुकथा – “पहल” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

दोनों शिक्षिका रोज देर से शाला आती थी. उन्हें बार-बार आगाह किया मगर कोई सुधार नहीं हुआ. एक बार इसी बात को लेकर शाला निरीक्षक ने प्रधान शिक्षिका को फटकार दिया. तब उसने सोचा लिया कि दोनों शिक्षिका की देर से आने की आदत सुधार कर रहेगी.

” ऐसा कब तक चलेगा?”  प्रधान शिक्षिका ने अपने शिक्षक पति से कहा,” आज के बाद इनके उपस्थिति रजिस्टर में सही समय अंकित करवाइएगा.”

” अरे! रहने दो. उनके पति नेतागिरी करते हैं.”

” नहींनहीं, यह नहीं चलेगा. वे रोज देर से आती हैं और उपस्थिति रजिस्टर में एक ही समय लिखती हैं. क्या वे उसी समय शाला आती हैं?”

” अरे! जाने भी दो.”

” क्या जाने भी दो ?”  प्रधान शिक्षिका ने कहा,” आप उनको नोटिस बनाते हो या मैं बनाऊं?”

” ऐसी बात नहीं है.”

” फिर क्या बात है स्पष्ट बताओ?”

” पहले तुम तो समय पर आया करो, ताकि मैं भी समय पर शाला आ पाऊं,”  शिक्षक पति ने कहा,” तभी हमारे नोटिस का कुछ महत्व होगा, अन्यथा…” कह कर शिक्षक पति चुप हो गया.

वाचाल प्रधान शिक्षिका ने इसके आगे कुछ कहना ठीक नहीं समझा.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खूबसूरत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 भास्कर साधना संपन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी । 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – खूबसूरत ??

..लाल रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..पीले रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..सफेद रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..नीले रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..गुलाबी रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

“ऐसे मैसेज भेजता है रोज़। उसकी आँखों में कहीं ‘कलर ब्लाइंडनेस’ तो नहीं आ गया”, आशंकित होकर उसने अपनी सहेली से पूछा।

“बेवकूफ है तू। दरअसल खूबसूरती उसकी आँख में बसी हुई है”, सहेली ने गहरा साँस लेकर कहा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आसमान साफ हो गया ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆आसमान साफ हो गया ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

परेशान हो गए है सब लोग। बारिश का नामोनिशान नहीं। अंदर–बाहर जी ऊबने लगा है। कुसुम की दोनों बेटियां आँगन में झिम्मा खेल रही है।

झिम पोरी झिम, तुझ्या कपाळाचे भिंग

भिंग गेलं फुटून, पोरी आल्या उठून

कुसुम को लगा, अपनी किस्मत भी फूटी है जो सासुराल को छोडकर मायके की ओसारी पर डेरा डालना ज़रूरी हो गया है।

कुसुम को आए चार दिन हो गए। वह बोली तो कुछ नहीं किन्तु गौराई जान गई है, कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है।

‘ क्यों कुसू, दामादजी, तुम्हारी सास, देवर सब ठीक हैं ना?’

‘उन को क्या हुआ है? घूम रहे है, मत्त साँड की तरह।‘

‘बेटी अपने लोगों के बारे में ऐसा नहीं बोलते।‘

‘कौन अपने लोग? वे मेरे कुछ नहीं लगते. मेरी बेटियों के भी..’

‘लेकिन…’

‘लेकिन… वेकिन कुछ नहीं। मैं अब उस घर में कदम नहीं रखूंगी। ससुराल में बारात में जाए और अर्थी पर ही बाहर निकले, ऐसा मेरे बारे में नहीं होगा। मैं अपने पैरों से चलकर यहां आई हूँ। अब यहीं रहूँगी।‘

‘लेकिन हुआ क्या?’

‘वो मेरी सास, वो रांड और वो मेरा पति, मेरी बच्ची का गला घोंटने पर तुले हैं… जन्म से पहले ही… सास कहती है, ‘रांड तुझे लड़का नहीं देगी।‘

 ‘पर इस बार तुझे लड़का ही होनेवाला है। तू देख लेना, तेरा पेट सामने से आगे निकला है.’  

‘ पेट सामने से आगे से निकले या पीछे से, इस बार भी लड़की ही होनेवाली है।‘

‘किसने कहा?’

‘डॉक्टर ने… ।

‘तो डॉक्टर क्या भगवान है?’

‘डॉक्टर ने गर्भ से सुई द्वारा पानी निकाला और ऊसकी जाँच कर के कहा, ‘लड़की ही होगी। तब दोनों बोले, ‘बच्ची निकाल देंगे। पेट साफ करेंगे। जब लड़का होगा, तभी रखेंगे।‘

मैं ने कहा, ‘नहीं… मैं अपनी बेटी को पेट में मरने नहीं दूँगी। तो मुझे उन्हों ने इन लड़कियों के साथ बाहर निकाल दिया। मुझे यकीन है, अगर मैं वहाँ गई, तो मेरी अर्थी ही वहाँ से निकलेगी। मेरी सास बोली, ‘मैं अपने बेटे की दूसरी शादी करूंगी। अपनी बेटियों को लेकर तू मर जा कही!’

अब इस पर क्या कहे, गौराई को समझ में नहीं आ रहा था। वह कुसुम के पीठ पर हाथ फेरती, कन्धे थापथपाती रही।

‘माँ, मैं काम करूँगी। आपनी बेटियों का पालन करूँगी। पेट से रही बच्ची का भी। उन के लिए मैं जिऊंगी। पर माँ, तुम मुझे सहारा दोगी ना? मुझे पराया तो नहीं करोगी ना? थोडे दिनों की तो बात है। बच्ची को जनते ही मैं काम पर लग जाऊँगी। मोल-मजदूरी करूँगी। भैय्या-भाभी पर बोझ बन कर यहां नहीं रहूंगी। मेहनत करूँगी। पैसा कमाऊँगी।  बेटियों को पढाऊँगी।‘

गौराई कुसुम के पीठ पर हाथ फेरती रही। उस के हाथ के स्पर्श से ही कुसुम  को आश्वासन मिला, उसे चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। गौराई उस के पीछे दृढतापूर्वक खड़ी रहेगी। 

बारिश हो चुकी थी। आसमान साफ हो गया था। पूरब में इंद्रधनुष हँस रहा था। उस में कुसुम और उस की बच्चियों के भविष्य के रंग निखर रहे थे।  

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लेडीज फर्स्ट – लेखक- अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री रंजना नांगरे ☆

? जीवनरंग ?

☆ लेडीज फर्स्ट 🍀 लेखक- अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री रंजना नांगरे ☆

शोभना, विजय आणि त्यांचा मुलगा रोहित, असं हे त्रिकोणी, सुखी दिसणारं कुटूंब. विजय बँकेत मॅनेजर, शोभना एका नावाजलेल्या शाळेत मुख्यापध्यापिका.

शोभना म्हणजे शिस्तप्रिय, स्पष्टवक्ती आणि कामात अतिशय sincere अशी तिची ओळख होती. रोहित तिच्याच शाळेत आठवीत शिकत होता, पण कधीही त्याला शाळेत विशेष वागणूक मिळाली नाही, ना कुठेही शिस्तीत सवलत मिळाली.

शोभना रोज गाडीने शाळेत जात असे पण रोहित बाकीच्या मुलांबरोबर व्हॅन मधेच येत असे. शाळेत बऱ्याचशा मुलांना तर माहीत ही नव्हते की रोहित आपल्या मुख्याध्यापक मॅडम चा मुलगा आहे म्हणून.

शोभना ने तिच्या कामाच्या आणि शिस्तीच्या बळावर शाळेला खूप चांगले नाव मिळवून दिले होते.

शाळेचा कामाचा ताण सांभाळूनही शोभना ने घराकडे दुर्लक्ष होऊ दिले नव्हते, विशेषतः रोहित चे खाणे, पिणे, त्याचा अभ्यास, कपडे अगदी कुठेही ती कमी पडली नव्हती.

विजय मात्र तिच्या अगदी विरुद्ध. बँकेचे काम आणि वेळ मिळाल्यास वाचन या मधेच त्याचा वेळ जात असे. घरातले काम करणे त्याला कधीच जमले नाही.

नाही म्हणायला तो कधीतरी कामात मदत करायचे ठरवायचा पण मदत होण्यापेक्षा गोंधळच जास्त होत असे. आणि ह्यावरून मात्र त्याला  शोभना खूप बोलत असे. रागाच्या भरात कधीकधी अपमान देखील करत असे. असे झाले की मग तो गच्चीवर जाऊन एकांतात विचार करत बसत असे आणि आपण खूप अपराधी असल्याची भावना त्याच्या मनात येत असे.

रोहित मात्र असे प्रसंग पाहून खूप खिन्न होत असे.

परवा तसाच प्रसंग घडला. घरी पाहुणे येणार म्हणून शोभनाने विजयला बँकेतून येताना आंबे आणायला  सांगितले. घरी आल्यावर शोभनाने ते आंबे पाहिले आणि खूप भडकली.”अहो तुम्हाला काही समजतं का? उद्या पाहुणे येणार आणि तुम्ही एवढे कडक आंबे घेऊन आलात?  एक काम धड करता येत नाही.”

विजय म्हटला ,”अगं, मागच्या वेळी मी तयार आंबे आणले तरी तू रागावली होती म्हणून आज कडक आणले.”    

“अरे देवा, काय करू या माणसाचं. अहो तेव्हा आपल्याकडे मुलं राहायला येणार होती, त्यांना पंधरा दिवस खाता यावे म्हणून कडक आंबे हवे होते. तुम्ही पुरुष ना, घरामध्ये शून्य कामाचे.”

आणि मग शोभनाची गाडी घसरली. “तुम्हा पुरुषांना तर काहीही करायला नको घरासाठी. घर आंम्हीच आवरायचं, सगळ्यांची खाण्या पिण्याची व्यवस्था करायची, मुलांची तर सगळी जबाबदारी स्त्री चीच. तुमचा काय  रोल असतो सांगा बरं, मुलांच्या जन्मात आणि संगोपनात ; ‘तो’ एक क्षण सोडला तर? मुलांना नऊ महिने पोटात वाढवायचं, आणि प्रसूती सारख्या जीवघेण्या प्रसंगाला सामोरे जायचं.

बरं एवढ्यावरच सगळं थांबत नाही, जन्मानंतरही त्यांचं फीडिंग, त्यांचं सगळं आवरणं, मग थोडे मोठे झाल्यावर शाळा, अभ्यास, डबे सगळं सगळं स्त्री नेच बघायचं, पुरुष कोणती जबाबदारी घेतो सांगा?”

विजय निरुत्तर. तरी शोभनाचं संपलेलं नव्हतं.

“तुम्ही काय फक्त पैसे कमवून आणता, पण आता तर स्त्रिया सुद्धा काम करतात, त्यामुळे त्याचीही तुम्ही काही फुशारकी मारू शकत नाही.”

आज मात्र विजय खूपच दुखावला गेला, शोभना च्या  बोलण्यात  agresiveness   असला तरी तथ्य देखील होते. स्वतः अगदी useless असल्याची भावना त्याला येत होती.

तो आपल्या नेहमीच्या एकांताच्या जागी जाऊन बसला. तेवढ्यात रोहित खेळून आला व त्याने पाहिले, आपले बाबा एकटे गच्चीत बसले आहेत व त्याच्या लक्षात आले, काय घडले असेल ते.

असेच काही दिवस गेले आणि एके दिवशी रोहित त्याच्या बाबांना म्हटला, “बाबा, उद्या आमच्या शाळेत वक्तृत्व स्पर्धा आहे, मी पण भाग घेतला आहे. माझी इच्छा आहे तुम्ही पण यावे. येणार ना?”

विजय ने होकार दिला. खरं म्हणजे त्याची कुठल्याही समारंभात जायची इच्छा नव्हती पण रोहितचं मन राखण्यासाठी त्याने जायचं ठरवलं.

वक्तृत्व स्पर्धेत आठवी ते दहावी पर्यंतच्या विद्यार्थ्यांनी भाग घेतला होता आणि स्पर्धेला विद्यापीठाचे कुलगुरु प्रमुख पाहुणे म्हणून येणार होते. शाळेसाठी आणि विशेषतः शोभना साठी फार महत्वाची बाब होती. विषय होता ‘मला सर्वात प्रिय व्यक्ती.’

भाषणं सुरू झाली. विजय शेवटच्या रांगेत बसला होता. मुलांनी खूप तयारी केली होती.  जवळजवळ सगळ्या मुलांची सर्वात प्रिय व्यक्ती ‘आई’ च होती. खूप सुंदर भाषणं सुरू होती. बऱ्याचश्या मुलांना पालकांनी भाषण लिहून दिल्याचं जाणवत होतं, तरी मुलांची स्मरण शक्ती, बोलण्यातले उतार चढाव, श्रोत्यांच्या नजरेत बघून बोलणं, प्रत्येक गोष्ट खरोखर कौतुकास्पद होती,

जवळजवळ पाच ते सहा भाषणं झाल्यावर रोहितचा नंबर आला. त्याने मात्र स्वतःच भाषण तयार केलं होते, कारण शोभनाला तेच अपेक्षित होतं.

“व्यासपीठावर उपस्थित सर्व मान्यवर, माझे गुरुजन आणि विद्यार्थी मित्रांनो, मला सर्वांत प्रिय व्यक्ती म्हणजे माझे बाबा! मी असे का म्हणतोय ते तुम्हाला माझे बोलणे ऐकून झाल्यावर समजेलच.

बाबा मला अगदी छोट्या छोट्या प्रसंगातून खूप महत्वाच्या गोष्टी समजावून सांगतात. मी आपणासमोर काही प्रसंग सांगणार आहे.

पहिली गोष्ट बाबांनी शिकवली ती म्हणजे, स्त्रीचा सन्मान. पण सन्मान म्हणजे नुसती पूजा नव्हे तर सक्षम बनवणं, संधी उपलब्ध करून देणे. बाबांनी जे शिकवले, स्वतः ही तसेच वागले. 

माझी आई जेव्हा लग्न होऊन घरी आली त्यावेळेस फक्त बारावी झालेली होती. घरात अगदी पुराणमतवादी वातावरण होते, पण बाबांनी सगळ्यांशी विरोध पत्करून आईला शिकवायचे ठरवले. तिला कॉलेजला अॅडमिशन घेऊन दिली आणि तिला स्वतःची स्कुटर दिली व स्वतः बसने जात. ते म्हणत ‘तुला घरातली सर्व कामं करून कॉलेजला जावे लागते खूप दमछाक होते तुझी.’ आणि  अश्याप्रकारे, आपल्या शाळेला लाभलेल्या ह्या आदर्श मुख्याध्यापिका साकारल्या.

एवढंच नाही तर तीन वर्षांपूवी बाबांना बँकेमार्फत फोर व्हिलर गाडी मिळाली, त्यावेळेस देखील बाबा आईला म्हटले ‘तू गाडी वापरत जा, मी जाईन स्कुटर ने. हे बघ तू शिक्षिका आहेस, शिक्षकांनी शाळेत कसं ऊर्जेने भरपूर जायला हवं, कारण तुम्ही शिक्षक लोक पिढ्या घडवायचं काम करता, तुम्ही जेवढे कम्फर्टेबल असणार तेवढं मुलांना चांगलं शिकायला मिळेल.’ 

दुसरी गोष्ट सांगतो, त्यांनी नेहमी श्रमाला प्रतिष्ठा द्यायला शिकवले. घरी येणारा कोणीही कष्टकरी असो त्याला प्रेमाने वागवायला सांगत. कधीही छोट्या छोट्या व्यावसायिकाबरोबर पैशाची घासाघीस करू देत नसत.

अगदी रस्त्यावरून जातांना एखादा ढकलगाडी वाला जात असेल तर त्याला आधी जाऊ देत. ते म्हणतात ‘आपल्याला गाडीवर जायचं असतं, पण त्याला एवढं वजन न्यायचं असतं.’

त्यांनी शिकवलेली अजून एक गोष्ट सांगतो. खरं म्हणजे तो एक प्रसंग होता. माझी परीक्षा जवळ आली होती आणि मी आईला, पहाटे लवकर उठवायला सांगून झोपलो होतो, पण तिने उठवले नाही आणि मग मला उशिराने जाग आल्यावर जोरात भोंगा पसरवला. घरात मोठाच गोंधळ निर्माण झाला.

मी काही ऐकायच्या मनस्थितीत नव्हतो, तेव्हा बाबा आले आणि मला बाजुला नेऊन म्हटले, ‘मी काय सांगतो ते नीट ऐक आणि मग ठरव पुढे, रडायचं की काय करायचं. हे बघ बाळा दुसरी मुलं अभ्यास करायला लागतो म्हणून रडतात पण आमचा मुलगा अभ्यास करायला मिळाला नाही म्हणून रडतो , किती भाग्यवान आहोत आम्ही.

आणि दुसरं एक सांगतो, आपल्याला येणाऱ्या अडचणी, दुःख आणि सुख या सर्व गोष्टींना आपण स्वतःच जबाबदार असलं पाहिजे. असं असेल तरच आपल्याला त्यातून मार्ग काढायला सुचतं. दुसऱ्याला जबाबदार धरलं तर कधीही तो प्रश्न सुटत नाही. आता तूच ठरव, जे झालं त्याला कोण जबाबदार?’

बाबाचं म्हणणं ऐकून मला एकदम काहीतरी सुचलं, रडणं बिडणं कुठेच गेलं. दुसऱ्या दिवसापासून मी घड्याळामध्ये अपेक्षित वेळेचा गजर लावून झोपू लागलो आणि तेव्हापासून अगदी वेळेवर, कुणीही न उठवता देखील उठतो.

असे कितीतरी प्रसंग सांगता येतील, पण वेळेचं भान ठेवलं पाहिजे.

तर अशाप्रकारे बाबांनी मला बरीच अमूल्य अशी मूल्ये शिकवली. आईने शरीराचं संगोपन केलं तर बाबांनी संवेदनशील मन जोपासलं.

आई ही हिऱ्याची खाण असेल तर बाबा त्याला पैलू पडणारे जवाहीर आहेत.

आणि म्हणून माझी सर्वात आवडती व्यक्ती म्हणजे माझे बाबा. आई तर प्रिय आहेच, परंतु आईपेक्षाही बाबा मला माझे हिरो आहेत. माझे बाबा इज द ग्रेट..!

सर्वाना नमस्कार, जय हिंद !”

रोहितचं भाषण संपल्यावर सगळे उभे राहिले आणि बराचवेळ टाळ्या सुरू होत्या.

बक्षीस अर्थात रोहितलाच मिळाले. बक्षीस वाटपाच्या वेळेस त्याच्या आई आणि बाबांना देखील स्टेजवर बोलवण्यात आले.

कुलगुरूंच्या हस्ते बक्षीस वाटप होते. शोभनाला आज आपल्या नवऱ्याचा आणि मुलाचा खूप अभिमान वाटला.

विजयला तर जणू  जगण्याची नवी उमेद मिळाली, आणि रोहित, रोहितच्या आनंदाचे खरे कारण तर फक्त त्यालाच माहीत होते.

बक्षीस वाटपाच्या वेळी विजय सर्वात मागे उभा होता तेव्हा कुलगुरू म्हटले, “विजयराव पुढे या .”

तेव्हा विजय ने म्हटलं, “नाही सर,  लेडीज फर्स्ट..!”

प्रस्तुती – सुश्री रंजना नांगरे  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 109 ☆ लघुकथा – वोट के बदले नोट ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘वोट के बदले नोट’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 109 ☆

☆ लघुकथा – वोट के बदले नोट ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

हैलो रमेश ! क्या भाई,  चुनाव प्रचार कैसा चल रहा है ?

बस चल रहा है । कहने को तो शिक्षा क्षेत्र का  चुनाव है लेकिन कथनी और करनी का अंतर यहाँ भी दिखाई दे ही जाता है । कुछ तो अपने बोल का मोल होना चाहिए यार ? मुँह देखी बातें करते हैं सब, पीठ पीछे कौन क्या खिचड़ी पका  रहा है, पता ही नहीं  चलता ?

अरे छोड़ , चुनाव में तो यह सब चलता ही रहता है। जहाँ चुनाव है वहाँ राजनीति और जहाँ राजनीति आ गई वहाँ तो —–

पर यह तो विद्यापीठ का चुनाव है, शिक्षा क्षेत्र का! इसमें उम्मीदवारों का चयन उनकी अकादमिक योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए ना !

रमेश किस दुनिया में रहता है तू ? अपनी आदर्शवादी सोच से बाहर निकल। अकादमिक योग्यता, कर्मनिष्ठा ये बड़ी – बड़ी बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं । तुझे पता है क्या कि अभय ने कई मतदाताओं के वोट पक्के कर लिए हैं ?

कैसे ? मुझे तो कुछ भी नहीं पता इस बारे में ।

इसलिए तो कहता हूँ अपने घेरे से बाहर निकल, आँख – कान खुले रख । खुलेआम वोट के बदले नोट का सौदा चल रहा है । बोल तो तेरी भी बात पक्की करवा दूं ? ठाठ से रहना फिर, हर कमेटी में तेरा नाम और जिसे तू चाहे उसका नाम डालना। चुनाव में खर्च किए पैसे तो यूँ वापस आ जाएंगे और सब तेरे आगे – पीछे भी रहेंगे ।

नहीं – नहीं यार,  शिक्षक हूँ मैं, वोट के बदले नोट के बल पर मैं जीत भी गया तो अपने विद्यार्थियों को क्या मुँह दिखाऊंगा। अपनी अंतरात्मा को क्या जवाब दूंगा ?

 

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #130 – लघुकथा – “गन्दगी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “गंदगी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 130 ☆

☆ लघुकथा – “गंदगी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

” गंदगी तेरे घर के सामने हैं  इसलिए तू उठाएगी।”

” नहीं! मैं क्यों उठाऊं? आज घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाने का नंबर तेरा है, इसलिए तू उठाएगी।”

” मैं क्यों उठाऊं! झाड़ू लगाने का नंबर मेरा है। गंदगी उठाने का नहीं। वह तेरे घर के नजदीक है इसलिए तू उठाएगी।”

अभी दोनों आपस में तू तू-मैं मैं करके लड़ रही थी। तभी एक लड़के ने नजदीक आकर कहा,” मम्मी! वह देखो दाल-बाटी बनाने के लिए उपले बेचने वाला लड़का गंदगी लेकर जा रहा है। क्या उसी गंदगी से दाल-बाटी बनती है?”

यह सुनते ही दोनों की निगाहें साफ सड़क से होते हुए गंदगी ले जा रहे लड़के की ओर चली गई। मगर, सवाल करने वाले लड़के को कोई जवाब नहीं मिला।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-11-21 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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