हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 62 ☆ व्यंग्य – एक श्वान के वेदनामय स्वर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का एक सटीक  व्यंग्य एक श्वान के वेदनामय स्वर। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 62

☆ व्यंग्य – एक श्वान के वेदनामय स्वर ☆ 

थैंक्यू आदरणीय जी…आपने अपने ‘मन की बात’ में देशी श्वानों को मान सम्मान देते हुए राष्ट्र के हर नागरिक को प्रेरणा दी कि वे देशी श्वान पालें, क्योंकि देशी श्वान पालने का खर्च भी कम बैठता है। आप महान हैं, ‘सबका साथ सबका विकास’ वाले व्यक्तित्व हैं और सबके अच्छे दिन लाने में आपका अटूट विश्वास है। हम सब देशी श्वान आपकी दिल से तारीफ करते हुए आपको धन्यवाद देते हैं। अभी तक हमने दुनिया में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं देखा जैसे आप हो, इसीलिए हम सब श्वान गौरव महसूस कर रहें हैं। अधिकांश प्रधानमंत्री विदेशी कुत्ता पालने में विश्वास करते हैं एक अकेले आप ऐसे हैं जो देसी कुत्ता पालने की सलाह देते हैं, और देशी श्वानों के अच्छे दिन लाने जैसे प्रयास करते हैं। हर पल आप तरह-तरह से नये रिकॉर्ड बना देते हैं। आप में विश्व गुरु बनने के सारे गुण हैं। आप हमारे माई बाप हैं जो हमारा इतना ध्यान रखते हैं, और हमारा महत्त्व समझते हैं वरन् पिछले सत्तर सालों से यहां का हर नागरिक हमें पत्थर मारता रहा और विदेशी कुत्ता पालता रहा।आप खुद सोचिए कि पूरे देश में विदेशी श्वान पालने में सत्तर साल में कितने करोड़ अरबों रुपए खर्च हो गए होंगे,इतने रुपयों में तो पूरी गरीबी दूर हो जाती और सबको रोजगार मिल जाता।आप तो अच्छे से जानते हैं कि विदेशी श्वानों के कितने नखरे होते हैं चाहे वो चीन का श्वान हो, चाहे कहीं और का…..।

आप क्रांतिकारी प्रधानमंत्री हैं, विश्व गुरु बनने की तैयारी में हैं इसलिए ऐसे विस्फोटक निर्णय लेने में आपका जबाव नहीं। आपने मन की बात में श्वानों के साहस और देशभक्ति की जो तारीफ की,उसी दिन से देश भर के गली गली मोहल्लों में अब लड़के और शराबी देशी श्वानों को पत्थर मारने में संकोच करने लगे हैं, आप सही में गजब के आदमी हैं, इसीलिए हम लोग भी हर गली मोहल्लों में शेर जैसा सिर उठाकर घूमने लगे हैं और कोई सफेद कपड़े वाला ‘हाथ’ दिखाता है तो हम गुर्राने में संकोच नहीं करते हैं। सच्ची बात तो जे है कि अब विदेशी कुत्ते वाले मालिक हमसे जलने लगे हैं। पहले जब विदेशी कुत्ते लघुशंका और दीर्घ शंका के लिए सड़क पर आते थे तो उनका मालिक हमारे ऊपर पत्थर मारता था हालांकि विदेशी कुतिया हमें देखकर पूंछ हिलाती थी पर मालिक का अहंकार आड़े आ जाता था, विदेशी कुतिया को देखकर हम ललचाते भी थे। भाई गजब हुआ एक ही दिन से गजब का क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला कि अब बड़े बंगलों की मेडमे भी बड़े प्यार से बुलाकर हमें रोटी खिलाने लगीं हैं, अब वे सब हमें स्ट्रीट डाग कहने में संकोच करने लगीं हैं, चूंकि यह देशी श्वान पालने की सलाह राष्ट्रीय स्तर से दी गई है इसीलिए देश के हर नागरिक का मूड देशी नस्ल का श्वान पालने का बन गया है,हर फील्ड में हमें आत्मनिर्भर बनना है।

हमें आपको बताने में थोड़ा संकोच हो रहा है पर बताना भी जरूरी है कि पिछले बहुत सालों से देश में चल रहे श्वान नसबंदी कार्यक्रम से हमारी जनसंख्या घटती जा रही है। देश का करोड़ों अरबों रुपया श्वानों के बधियाकरण के काम में लगे लोग लूट रहे हैं।हर नगरनिगम और नगरपालिका में श्वानों के बधियाकरण के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। एक शहर में तो … एक बड़े अधिकारी की मेडम ने जुगाड़ लगाकर बधियाकरण का ठेका लिया और पिछले दो साल में बधियाकरण के नाम पर टुकड़े टुकड़े में दो करोड़ रुपए के बिल पास करा चुकी है,हर अधिकारी, महापौर, मंत्री के पास प्रर्याप्त कमीशन पहुंचा दिया जाता है और एक मंत्री जी को तो मेडम ने गिफ्ट में झबरा विदेशी कुत्ता भी दिया है।

सर जी, ये मेडम हम देशी श्वानों की नसबंदी बेरहम तरीके से कराती है जिससे हमारे भाई लोगो की मौत भी हो जाती है। इस मेडम ने एक खण्डहरनुमा कमरा किराए पर लिया है जिसकी छत जर्जर और दरवाजे टूटे हुए हैं, बारिश के रिसते पानी में जंग लगे औजारों व अव्यवस्थाओं के बीच हमारे श्वान भाईयों बहनों की नसबंदी करवाती है, इसी जानलेवा तरीके के चलते कुछ सालों से हमारे बहुत से श्वान भाई बहनों की जान जा चुकी है, कुल मिलाकर नसबंदी की आड़ में जमकर कमाई की जाती है, आम जनता को इस बात का पता न चले इसलिए मेडम स्थानीय पत्रकारों और चैनल वालों को भी भरपूर खुश रखती है, और ये शायद सब जगह ऐसा ही हो रहा होगा।

आपको यह बताते हुए हम सब देशी श्वानों को शर्म आ रही है कि नसबंदी वाले जर्जर कमरे के बाहर श्वानों की नसबंदी करने की आदर्श गाइड लाइन का बोर्ड लगा है जिसमें लिखा है कि श्वानों की नसबंदी कैसे की जानी चाहिए और इसमें क्या क्या सावधानियां बरती जानी चाहिए, साथ में लाल बड़े अक्षरों से लिखा है कि गाइड लाइन का सख्ती से पालन होना चाहिए। सर जी गाइड लाइन में तो ये भी लिखा है कि श्वानों की नसबंदी के लिए एक स्वच्छ विकसित आपरेशन थियेटर एवं कुशल चिकित्सक भी होना चाहिए। आपरेशन के बाद श्वनों के आराम करने के लिए एक बढ़िया सेपरेट कमरा होना चाहिए उनके खाने-पीने का बढ़िया इंतजाम होना चाहिए, जगह भी साफ-सुथरी होना चाहिए ताकि आपरेशन के दौरान या बाद में श्वानों को इंफेक्शन न हो, लेकिन यहां तो सब उल्टा-पुल्टा है, एक गन्दे कमरे में सिवाय गंदगी के अलावा कुछ नहीं है।

सर जी हम श्वानों को इस बात का भी दुख है कि बधियाकरण के नाम पर हमारे स्वस्थ भाई-बहनों को भी पकड़कर इस कमरे में बीमार बना दिया जाता है। बड़े बड़े बंगलों में राज कर रहे विदेशी श्वानों का कभी बधियाकरण नहीं किया जाता, क्योंकि बाजार में उनकी संतानों को मुंह मांगे दाम पर लिया जाता है। सर जी आपने हम देशी श्ववानों पर विश्वास कर हमारी जाति पर बड़ा उपकार किया है, आपने अपने अनुभव से पूंछ हिलाते आदमीनुमा श्वानों को भी देखा है इसका हम सबको गर्व है।

आदरणीय जी, कृपया एक छोटा सा निर्णय और ले लेते तो देश का बड़ा भला हो जाता,यह कि विदेशी श्वानों के पालन पोषण पर प्रतिबंध लग जाता और देशी श्वानों के बधियाकरण पर रोक लग जाती, ताकि हमारी जाति के लोग आसानी से हर जगह उपलब्ध हो जाते। आदरणीय जी आपने हमारे वेदनामय स्वरों को धैर्य और संयम से सुना और मन की बात में हम श्वानों को मान दिया, इसके लिए आपका दिल से शुक्रिया।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 65 ☆ व्यंग्य >> उनकी यादों में हम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक सार्थक  व्यंग्य  ‘उनकी यादों में हम’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान परिवेश में महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा  और मानवीय व्यवहार पर उसके प्रभाव पर तीक्ष्ण  प्रहार किया है। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 65 ☆

☆ व्यंग्य – उनकी यादों में हम

  वे मेरे पुराने मित्र थे। एकाएक उन्हें अन्यत्र एक स्वर्णिम अवसर मिला और वे ‘निष्ठुर परदेसी’ की तरह हमारे शहर के प्यार की अवहेलना करते हुए नये सूरज की तलाश में चले गये। बीच बीच में पता चलता रहा कि वे स्थितियों को अपने पक्ष में करते, ‘लफड़ों’ से बचते, अपनी प्रगति का मार्ग साफ कर रहे हैं और मुस्तकिलमिजाज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। मनुष्य सभी देवताओं को फूल-प्रसाद चढ़ाता जाए,कभी किसी देवता को रुष्ट न करे,तो इस असार संसार में विकास के द्वार स्वतः खुलते जाते हैं।

बीच बीच में पता चलता था कि वे काम-काज से हमारे शहर आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन वे मेरे घर कभी नहीं आये, न मुझे कभी संदेसा भेजा। उनके आने और इस तरह चले जाने की खबर पाकर मैं दुखी होता रहा और वे मुझे बार बार दुखी करते रहे। कई बार सुना कि वे मेरे मुहल्ले तक आये और अपना कोई काम साधकर, हवाओं में अपनी खुशबू छोड़ते हुए चले गये। फूलों, पत्तों, मुहल्ले की गलियों और गलियों के कुत्तों ने उनके आने की खबर दी, लेकिन उन्होंने मेरे घर की तरफ रुख़ नहीं किया, न मुझे याद किया।

फिर उड़ती खबरें मिलीं कि उनकी प्रतिभा और निखरी है तथा वे शिक्षा मंत्री की माकूल सेवा करके किसी सरकारी अकादमी के अध्यक्ष बन गये हैं। उसके बाद एक दिन एक लंबा-चौड़ा लिफाफा मेरे घर में गिरा। खोल कर देखा, वह उसी अकादमी के एक कार्यक्रम की सूचना थी जिसमें मुझे ‘शोभा बढ़ाने’ के लिए आमंत्रित किया गया था। अध्यक्ष के पद के ऊपर मित्र महोदय का नाम अंकित था।

बड़ी देर तक सोचता रहा कि इस सरकारी अकादमी को मेरे जैसे मामूली आदमियों की याद कैसे आयी। हम तो अपने शहर में भी ‘शोभा बढ़ाने’ के काबिल नहीं समझे जाते,तो शहर के बाहर वालों को हमसे यह उम्मीद कैसी? सोचते सोचते ज्ञान का विस्फोट हुआ कि यह कोई आमंत्रण नहीं था, यह तो केवल सूचना थी कि हर आमोख़ास को मालूम हो कि हमारे मित्र अकादमी की बुलन्द कुर्सी पर बैठ चुके हैं और इस देश के गली-नुक्कड़ में बैठे उनके भूले-बिसरे परिचितों का फर्ज़ बनता है कि उन्हें अपनी बधाई भेजें।

लिफाफे में फिर से झाँक कर देखा तो उसमें एक पत्र भी था। पत्र अकादमी के पैड पर था जिसमें बड़े अक्षरों में अध्यक्ष का नाम था, और बाकायदा पत्र- क्रमांक आदि अंकित था। पत्र में लिखा था कि उन्हें अध्यक्ष के पद पर बैठा कर फालतू झंझट में डाल दिया गया है। उन्हें पुराने मित्रों की बहुत याद आती है और उनसे मिलने का बड़ा मन करता है। मेरे लिए अनुरोध था कि जब भी उनके शहर जाऊँ, उनसे मिलना न भूलूँ। पत्र में उन दिनों को याद किया गया था जब कभी हम शाम को सदर बाज़ार में आवारागर्दी करते थे और पुलिया पर बैठकर मूँगफली चटकाते थे। काफी मार्मिक पत्र था।

मैंने बधाई भेजकर उनकी जयजयकार करने का फर्ज़ पूरा किया। पत्र में उन्हें लिखा कि उनके अध्यक्ष बनने से मेरे जैसे उनके सभी मित्र खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं और हम दिन-रात पालथी मारकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे इसी तरह नयी बुलन्दियाँ छूते रहें और हम मित्रों को उन पर गर्व करने का मौका देते रहें।

इसके बाद उनका पत्र तो नहीं आया, लेकिन कार्यक्रमों के कार्ड बराबर आते रहे। अपने खर्चे पर कहीं जाने से, पहले अपनी शोभा बिगड़ जाती है, इसलिए मैं उनके कार्यक्रमों की शोभा नहीं बढ़ा पाया।

एक बार उनके शहर जाने का मौका मिला। उनके कार्यालय गया। वे अपने पूरे गौरव के साथ उपस्थित थे। मुझसे ऐसे गले मिले जैसे शायद  सुदामा से कृष्ण से भी न मिले हों। इतनी देर तक मुझे भींचे रहे कि मुझे घबराहट होने लगी। छूटा तो तीन चार लंबी सांसें लेकर सामान्य हुआ। उन्होंने अपने सचिव को बुलवाया, मेरे लिए चाय मंगायी। बड़ी देर तक पुराने दिनों और पुराने मित्रों को याद किया। बीच बीच में कहते रहे, ‘कहाँ फँस गया, यार!’
विदा लेते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर बड़ी देर तक मेरे कंधे पर सिर धरे रहे। फिर चपरासी के हाथ से मेरा ब्रीफ़केस बाहर भिजवाकर सरकारी कार से मुझे गंतव्य तक पहुँचाया।

इस प्रेम-मिलन के कुछ दिन बाद सरकार बदल गयी और, जैसा कि होता है, सभी राजनीतिक नियुक्तियों पर झाड़ू मार दी गयी। पता चला कि मेरे मित्र भी इस सफाई अभियान में बुहार दिये गये। उसके बाद उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली।
कुछ दिन बाद फिर शहर के फूलों पत्तों और हवा में सरगोशियाँ शुरू हुईं कि वे आते और जाते रहते हैं, लेकिन उन्होंने मुझे कभी अपने आने की सूचना नहीं दी। एक बार वे एक कार की अगली सीट पर बैठे हुए धीमी रफ़्तार से मेरी बगल से गुज़रे। उन्हें देखकर मैंने प्रसन्नता दिखाते हुए दाँत निकाले, लेकिन वे मुझे ऐसे देखते हुए निकल गये जैसे मैं पारदर्शी काँच का बना हूँ।

एक दिन एक मित्र ने बताया कि वे एक ‘ज़रूरी’ काम से उसके घर पधारे थे और चूँकि ‘काम’ था, इसलिए बड़ी देर तक आत्मीयता के साथ उसके घर में बैठे थे। उसने बताया कि बातचीत में कहीं मेरा ज़िक्र आया था, लेकिन उन्होंने माथे पर बल देकर कहा था, ‘उन्हें जानता तो हूँ, लेकिन कोई खास परिचय नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 71 ☆ व्यंग्य – चरित्र प्रमाण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय  व्यंग्य  चरित्र प्रमाण।  अब तो चरित्र प्रमाण की भी जांच के लिए बाजार में बैकग्राउंड वेरिफाइंग एजेंसीस आ गईं हैं। ऐसे विषय पर बेबाक  राय रखने के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 71 ☆

☆ व्यंग्य – चरित्र प्रमाण ☆

चरित्र प्रमाण पत्र का अपना महत्व होता है, स्कूल से निकलते समय हमारे  मास्टर साहब ने हमसे केवल 10 रुपये स्कूल के विकास के लिए लेकर हमारी सद्चरित्रता का प्रमाण पत्र दिया था. फिर हमारी नौकरी लगी गोपनीय तरीके से हमारे चरित्र की जांच हुई.  मुंशी जी हमारे घर आकर हमारे चरित्र की जांच कर गए. वे पिताजी से इकलौते बेटे के गजटेड पोस्ट पर पोस्टिंग का नजराना लेना नहीं भूले. इस तरह हम प्रमाणित चरित्रवान हैं. बिना चरित्र के मनुष्य कुछ नहीं होता, हमें एक सूत्र वाक्य याद आता है “यदि धन गया तो कुछ नहीं गया यदि स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और यदि चरित्र गया तो सब कुछ गया”. गणित के विलोम साध्य के अनुसार सहज ही प्रमाणित होता है कि यदि किसी के पास चरित्र है तो सब कुछ है.अर्थात मेरे पास और देश के हर नागरिक के पास जिसके पास चरित्र प्रमाण पत्र है सब कुछ है. हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकले हर विद्यार्थी के पास सब कुछ है, इसीलिये सरकारो को उनकी नौकरी की ज्यादा फिकर नही.

पिछले दिनों मैने कॉलेज के चरित्र प्रमाण पत्र जारी करने वाले रजिस्टर की सूची देखी, मैंने पाया कि  जब से कॉलेज चल रहा है ऐसा कोई भी छात्र नहीं है जिसे अच्छे चरित्र प्रमाण पत्र नही दिया गया. मतलब चरित्र प्रमाण पत्र खोया पाया वाला अखबारी कालम हो गया. जिसमें आज तक मैंने सिर्फ और सिर्फ खोया वाली  सूचनाएं ही पढ़ी है,  पाया कि नहीं. यदि आपको कहीं कोई सूचना पाया कि  मिले तो मुझे जरूर सूचित करें जिससे मुझे अपने देश के चरित्रवान लोगों के चरित्र का एक और प्रमाण पत्र मिल सके. टीवी पर गुमशुदा लोगों के चेहरे आपने जरूर देखें होंगे. मैं अपने बच्चों के साथ यह कार्यक्रम जरूर देखता हूं और चित्र दिखाए जाने के बाद उद्घोषक के गुमशुदा की आयु बताने से पहले खोए हुए व्यक्ति की अनुमानित आयु चित्र में चेहरा देखकर बता देता हूं. धीरे-धीरे बच्चों को भी अनुमान लगाने वाले इस खेल में मजा आने लगा है और हमें महारत हासिल होती जा रही है. यहां यह सब बताने का मेरा उद्देश्य यही है कि इन चित्रों के प्रसारण से अब तक कितने लोग ढूंढ निकाले गए हैं यह शोध का विषय  है.

चरित्र का महत्व निर्विवाद है. रामचरित्र पर गोस्वामी जी की पूरी रामायण ही लिख गये हैं.  महापुरुषों के जीवन चरित्र बाल भारती के पाठ में कैद कर दिए गए हैं. जिस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर देकर बच्चे बहुत अच्छे नंबरों से पास होते रहते हैं. यह बात और है कि उन पाठों को पढ़ने के लिए मास्टर ट्यूशन के लिए प्रेरित करते हैं और ट्यूशन वाले छात्रों को विशेष गेसिंग भी उपलब्ध करवाते हैं, खैर यह मास्टर साहब का चरित्र है. बच्चे उन पाठो को जीवन में कितना उतार पाते हैं यह बच्चों का चरित्र है.

जैसा राजा वैसी प्रजा बहुत पुरानी कहावत है. इसलिए राजाओं का चरित्रवान होना मेरे जैसे आम नागरिक के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है. मुझे संतोष है कि हमारे नेता लगातार चरित्रवान सिद्ध हो रहे हैं पिछले कई घोटालों में अनेक विदेशी ताकतों या विपक्ष ने हमारे नेताओं के चरित्र पर कीचड़ उछालने के प्रयत्न किए पर गर्व का विषय है कि हमारी अदालतों से हमारे नेता बेदाग बरी होकर, फिर से चुनाव लड़कर नये चरित्र प्रमाण पत्र अर्जित कर चुके हैं. यह बात काबिले गौर नहीं है कि अदालत संदेह के आधार पर किसी को सजा देने के पक्ष में नहीं होती, और साक्ष्य के बिना सजा नही देती. और होशियार घोटालेबाज  कभी साक्ष्य नही छोड़ते, या गलती से छूट भी जायें तो केस चलने से पहले नष्ट कर देते हैं, भले ही इसके लिये उन्हें हत्या ही क्यो न करनी पड़ी. चरित्र की रक्षा के लिये हर खतरा उठाना ही पड़ता है.  नेता ही नहीं अभिनेता भी चरित्र प्रमाण पत्र एकत्रित करने में पीछे नहीं हैं.

एक बार एक ग्वाला भैंस खरीदने गया विक्रेता ने उसे 3 भैंसें दिखलाईं पहली भैंस 15 लीटर दूध देती थी और उसका मूल्य 15000 रुपये था, दूसरी भैंस 10 लीटर दूध देती थी और उसका मूल्य 10000 रुपये था, तीसरी भैंस बिल्कुल दूध नहीं देती थी उसका मूल्य 30000 रुपये बताया गया. जब इसका कारण पूछा गया तो उसने कहा कि आखिर चरित्र की भी तो कोई कीमत होती है. तो भैंस के चरित्र के 30,000 होते हैं. क्रिकेट में खिलाड़ी नीलामी में बिकते हैं, उनका अपना अपना मोल है. एक बड़े वकील साहब ने सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना की, उन्हें एक रुपये की सजा हुई, मैं नही समझ पाया कि  यह मूल्य न्यायालय की अवमानना का था या वकील साहब का. दल बदल कानून की नाक के नीचे, आम आदमी की फिकर करते विधायको सांसदो की हार्स ट्रेडिंग प्रायः अखबारों की सुर्खी बनती है, पर हर बार जब भी सरकार नही गिरती मुझे अपने चुने हुये नेताओ के चरित्र पर बड़ा गर्व होता है, कैसे निकालते होंगे वे बेचारे रिसार्ट्स में वे प्रलोभन भरे दिन सोचना चाहिये.   नेताओं के चरित्र का मूल्य सिर्फ एक मंत्री पद तो नहीं है. तो हमारे, आपके चरित्र का मूल्य हमें स्वयं निर्धारित करना है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 33 ☆ ख़ास चर्चा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “ ख़ास चर्चा ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 33 – ख़ास चर्चा ☆

पत्र सदैव से ही आकर्षण का विषय बने रहे हैं। कोई भी इनकी उपयोगिता को, नकार नहीं सकता है। प्रमाण पत्र, परिपत्र, प्रशस्ति पत्र, सम्मान पत्र, अभिनंदन पत्र, परिचय पत्र, प्रेमपत्र, अधिपत्र, इन सबमें प्रशस्ति पत्र, वो भी डिजिटल ; बाजी मारता हुआ नजर आ रहा है। किसी भी कार्य के लिए, जब तक दो तीन सम्मान पत्र न मिल जाएँ, चैन ही नहीं आता। इसके लिए हर डिजिटल ग्रुप में दौड़ -भाग करते हुए, लोग इसे एकत्र करने के लिए जुनून की हद से गुजर रहे हैं। विजेता बनने की भूख सुरसा के मुख की तरह बढ़ती ही जा रही है।

लगभग रोज ही कोई न कोई उत्सव और एक दूसरे को सम्मानित करने की होड़ में, कोरोना काल सहायक सिद्ध हो रहा है। आजकल अधिकांश लोग घर,परिवार व मोबाइल इनमें ही अपनी दुनिया देख रहे हैं। कर्मयोगी लोग बुद्धियोग का प्रयोग कर धड़ाधड़ कोई न कोई कविता,कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, आलेख या कुछ नहीं तो संस्मरण ही लिखे जा रहे हैं।  वो कहते हैं न, कि एक कदम पूरी ताकत से बढ़ाओ तो सही,  बहुत से मददगार हाजिर हो जायेंगे। वैसा ही इस समय देखने को मिल रहा है। गूगल मीट, वेब मीट, जूम और ऐसे ही न जाने कितने एप हैं, जो मीटिंग को सहज व सरल बना कर; वैचारिक दूरी को कम कर रहे हैं।

अरे भई चर्चा तो सम्मान पत्र को लेकर चल रही है, तो ये मीटिंग कहा से आ धमकी। खैर कोई बात नहीं, इस सबके बाद भी तो  सम्मान पत्र मिलता ही है। वैसे समय पास करने का अच्छा साधन है, ये मीडिया और डिजिटल दोनों का मिला जुला रूप।

जब भी मन इस सब से विरक्त होने लगता है, फेसबुक  प्रायोजित पोस्ट पुनः जुड़ने के लिए बाध्य कर देती है। और व्यक्ति फिर से इसे लाइक कर चल पड़ता है, इसी राह पर। यहाँ पर सबसे अधिक रास्ता, मोटिवेशनल वीडियो रोकते हैं। इन्हें देखते ही खोया हुआ आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है। और पुनः और सम्मान पत्र पाने की चाहत बलवती हो जाती है। अपने चित्त को एकाग्र कर, गूगल बाबा की मदद से, सीखते-सिखाते हुए हम लोग पुनः अभिनंदन करने व कराने की जुगत, बैठाने लगते हैं।

खैर कुछ न करने से, तो बेहतर है, कुछ करना, जिससे अच्छे कार्यों में मन लगा रहता है। इस पत्र की लालसा में ही सही, हम सम्मान करना और करवाना दोनों ही नहीं भूलते हैं। जिससे वातावरण व पारस्परिक आचार- व्यवहार में सौहार्दयता बनी रहती है।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 64 ☆ व्यंग्य >> कृतघ्न नयी पीढ़ी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर कालजयी  व्यंग्य  ‘कृतघ्न नयी पीढ़ी’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान परिवेश में  आत्ममुग्ध साहित्यकार की मनोव्यथा को मानों स्याही में घोल कर कागज पर उतार दिया है। इस कालजयी व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 64 ☆

☆ व्यंग्य – कृतघ्न नयी पीढ़ी

बंधु, आज दिल एकदम बुझा बुझा है। कुछ बात करने का मन नहीं है। वजह यह है कि कुछ देर पहले कुछ लड़के दुर्गा जी का चन्दा माँगने आये थे। मैंने रोब से कहा, ‘ठीक है, इक्यावन रुपया लिख लो। ‘ वे रसीद काटते हुए बोले, ‘थैंक यू, अंकल जी। क्या नाम लिख दें?’

सवाल सुनकर मेरा दिल भरभराकर बैठ गया। ऐसा बैठा कि फिर घंटों नहीं उठा। निढाल पड़ा रहा। बार बार दिमाग़ में यही बात बवंडर की तरह घूमती रही कि साहित्य की सेवा में अपने बेशकीमती तीस साल देने और अपने खून को स्याही की जगह इस्तेमाल करने के बाद भी यह हासिल है कि इलाके की नयी पीढ़ी हमारे नाम से नावाकिफ़ है। बस यही लगता था कि धरती फट जाए और हम अपने साहित्य के विपुल भंडार को लिये-दिये उसमें समा जाएं। यह पीढ़ी हमारे बहुमूल्य साहित्य की विरासत पाने लायक नहीं है।

हमसे यह गलती ज़रूर हुई कि हम अपने ड्राइंग रूम से निकल कर सड़क पर नहीं आये। कागज़ पर क्रान्ति करते रहे। ड्राइंग रूम के भीतर बैठे बैठे रिमोट कंट्रोल से दुनिया को बदलते रहे।  ‘आम आदमी’ की माला पूरी निष्ठा से जपते रहे, लेकिन इस आम आदमी नाम के जीव को ढूँढ़ नहीं पाये। आम आदमी की तरफ पीठ करके श्रीमानों को सलाम बजाते रहे।  इस बीच हमारे इलाके के बहुत मामूली और घटिया लोग जनता की समस्याओं को लेकर दौड़ते रहे, उनके मरे-जिये में शामिल होते रहे, उनके लिए नेताओं-अफसरों से जूझते रहे। हमारी इस मामूली भूल के कारण हम जैसे महत्वपूर्ण लोग ड्राइंग रूम में ही बैठे रह गये और फालतू लोगों ने बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के बीच घुसपैठ कर ली। अब ये बच्चे हमसे हमारा नाम पूछते हैं तो हमारे मन में ग़ालिब का यह शेर कसकता है—‘पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है, कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या?’

थोड़ी सी गड़बड़ी यह हुई कि बीस लाख की आबादी वाले इस शहर में से पन्द्रह बीस लोगों को चुन कर हम ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की तरह दुनिया से बेख़बर,एक कोना पकड़ कर बैठे रह गये। ये पन्द्रह बीस लोग हमारी पीठ ठोकते रहे और हम उन्हें ‘वाह पट्ठे’ कहते रहे। हम उनकी घटिया रचनाओं पर झूमते रहे और वे हमारी घटिया रचनाओं पर सिर धुनते रहे। उन्हीं के साथ बैठकर चाय, सिगरेट और कुछ अन्य चीज़ें पीते रहे और दुनिया की दशा और दिशा पर ज्ञान बघारते रहे। जब बाहर निकले तो पाया कि दुनिया दूसरी दिशा में खिसक गयी है।

आपकी सूचनार्थ बता दूँ कि साहित्य के शब्दकोश में ‘आलोचना’ का अर्थ ‘प्रशंसा’ होता है। साहित्यकार का मन कोमल होता है, आलोचना का आघात उसे बर्दाश्त नहीं होता। इसलिए गोष्ठियों में आलोचना के नाम पर ख़ालिस तारीफ के अलावा कुछ नहीं होता। कोई मूर्ख साहित्य की पवित्रता के नशे में आलोचना कर दे तो मारपीट की नौबत आ जाती है। तीन चार साल पहले ‘वीरान’ और ‘बेचैन’ उपनाम वाले जो दो साहित्यकार स्वर्गवासी हुए थे वे वस्तुतः एक गोष्ठी में आलोचना के शिकार हुए थे। किसी नासमझ ने गोष्ठी में उनकी कविताओं को घटिया बता दिया था और चौबीस घंटे के भीतर उनकी जीवनलीला समाप्त हो गयी थी। यह तो अच्छा हुआ कि हादसा गोष्ठी के दौरान नहीं हुआ, अन्यथा सभी हाज़िर साहित्यकार दफा 302 में धर लिये जाते।

नयी पीढ़ी के बीच हमारी पहचान न बन पाने का ख़ास कारण यह है कि नयी पीढ़ी गुमराह है। टीवी, मोबाइल से चिपकी रहती है, साहित्य से कुछ वास्ता नहीं रहा। हमारा उत्कृष्ट लेखन बेकार जा रहा है। जल्दी ही हम साहित्यकार सरकार से माँग करने जा रहे हैं कि पच्चीस साल तक की उम्र के लोगों के लिए टीवी और मोबाइल कानूनन निषिद्ध कर दिया जाए और उनके लिए साहित्य का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाए। साहित्य में भी चाहे प्रेमचंद का साहित्य न पढ़ा जाए, लेकिन मेरे जैसे हाज़िर साहित्यकारों का साहित्य गर्दन पकड़कर पढ़ाया जाए। हमारी किताबों की बिक्री और हमारी रायल्टी बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी है।

कुछ कुचाली लोग कहते हैं कि आज के साहित्य में दम नहीं है, वह पाठक को पकड़ता नहीं है, और इसीलिये पाठक उससे दूर भागता है। यह सब दुष्प्रचार है। हम तो हमेशा बहुत ऊँचे स्तर का साहित्य ही रचते हैं (यकीन न हो तो हमारे मित्रों से पूछ लीजिए), लेकिन इस देश के पाठक का कोई स्तर नहीं है। जिस दिन पाठक मेरे साहित्य को खरीदने-पढ़ने लगेगा उस दिन समझिएगा कि उसका स्तर सुधर गया।

कुछ लोग कहते हैं कि आज के लेखक को जीवन की समझ नहीं है, उसके साहित्य में पाठक को कुछ मिलता नहीं है। मुझे यह सुनकर हँसी आती है। हमारे साहित्य में तो जीवन-तत्व भरा पड़ा है। जिसमें समझ हो वह ढूँढ़ ले। हीरा खोजने के लिए गहरे खोदना पड़ता है। ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ’। हमारे साहित्य में पैठो, मालामाल होकर बाहर निकलोगे। किनारे बैठे रहोगे तो मोती कैसे पाओगे भाई? हाँ,जब मिल जाए तो हमें ज़रूर सूचित कीजिएगा।

हमसे यह गलती भी हुई कि सारे वक्त छपने के लिए संपादकों की ठुड्डी सहलाते रहे, किताब के विमोचन के लिए मंत्रियों-नेताओं के चक्कर लगाते रहे, और पुरस्कारों के लिए समितियों के सदस्यों को साधते रहे। अपनी किताबों को कोर्स में लगवाकर कुछ माया पैदा करने के लिए दौड़-भाग करते रहे। इस बीच पाठक हमारी पकड़ से खिसक गया। हम जनता के बीच से ‘कच्चा माल’ उठाकर वापस अपने खोल में घुसते रहे। अपना तैयार माल लेकर जनता के बीच आने का आत्मविश्वास और साहस नहीं रहा, इसलिए अपने ‘सुरक्षा-चक्र’ के बीच बैठे, मुँहदेखी तारीफ सुन सुन कर आश्वस्त और मगन होते रहे।

जो भी हो, नयी पीढ़ी को चाहिए कि हमारा साहित्य खरीदे और पढ़े। माना कि किताबों की कीमत ऊँची है, लेकिन प्रकाशकों, लेखकों और सरकारी खरीद में मददगार अधिकारियों को लाभ देने की दृष्टि से यह उचित है। माना कि देश की जनता गरीब है और रोटी के लाले पड़े हैं, लेकिन साहित्य की अहमियत को देखते हुए पेट पर गाँठ लगाकर उसे हमारी किताबें खरीदना चाहिए। जब लोग पान खाकर थूक सकते हैं तो हमारा साहित्य खरीद कर ऐसा क्यों नहीं कर सकते?

नयी पीढ़ी का फर्ज़ बनता है कि देश में हमारे योगदान को समझे और हम पर धन और सम्मान की वर्षा करे। हर हफ्ते हमारा अभिनन्दन करे और हमारी जन्मतिथि और पुण्यतिथि को पर्वों की तरह मनाये। हमें भले ही उससे ताल्लुक रखने की फुरसत न मिले, लेकिन वह हमें न भूले।

फिलहाल तो बंधु, उन लड़कों के रुख़ से दिल बहुत गिरा है। मायूसी ही मायूसी है। शाम को एक गोष्ठी है। उसमें मित्रों से मरहम लगवाऊँगा, तसल्ली के दो बोल सुनूँगा, तब कुछ मनोबल वापस लौटेगा। अभी तो बात करने का मन नहीं है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पगडंडी की पीड़ा ☆ श्री अमरेंद्र नारायण

श्री अमरेंद्र नारायण

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं  देश की एकता अखण्डता के लिए समर्पित व्यक्तित्व श्री अमरेंद्र नारायण जी की एक भावप्रवण कविता पगडंडी की पीड़ा)

☆ पगडंडी की पीड़ा  

 कभी घोड़ों की निर्मम टापें

कभी तपती धरती का क्रंदन

कभी धूल उड़ाती वायु की

झुलसाती , चुभती हुई तपन

 

कभी दंभ भरे कर्कश वाहन

कभी पशुओं का स्वच्छंद गमन

कभी लाठी की फटकार, कभी

जूतों का चुभता रूखापन

 

कभी फुसफुस,चोरी की बातें

तो सिक्कों की झनकार कभी

किसी गहन निशा में आती है

करुणा से भरी चीत्कार कभी

 

पगडंडी सहती जायेगी

कब तक यह निर्मम आवर्तन?

कोई सरस हृदय दे पायेगा

उसके उर को क्या स्निग्ध छुअन ?

 

हां सच है सुनने को मिलता

समवेत स्वरों में गीत मधुर

कभी घर को लौट रहे किसी का

आतुरता से प्रेरित कोई सुर

 

ना जाने कितने पांवों का

आघात सहन करना पड़ता

वे अपनी मंजिल को पा लें

बस यही ध्येय उर में रहता!

 

जल्दी जाने की धुन सबको

यह सबकी उपेक्षा सहती है

कोई प्यार से मुड़ कर देख तो ले

इतनी ही अपेक्षा रखती है!

 

किसको उसकी परवाह भला?

पगडंडी क्या कभी रोती है?

वह टाप,चाप,संताप,तपन

अपनी छाती पर ढोती है!

 

कोई कीचड़,फिसलन दे जाता

गंदगी,प्रदूषण फैलाता

यह सब सहती है पगडंडी

जाने वाले का क्या जाता?

 

संवेदनशील अगर हों हम

खुश हो बांहें फैलायेगी

सदियों से सहती आई है

आगे भी सहती जायेगी!

 

क्या कोई भावुक हृदय कभी

हौले से पांव बढ़ायेगा?

सुन्दर मुस्काते फूलों की

क्यारी क्या कभी लगायेगा?

 

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

२७ अगस्त २०२०

जबलपुर

मो ९४२५८०७२००

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 32 ☆ मख्खी नहीं मधुमख्खी बने ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “मख्खी नहीं मधुमख्खी बने”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 32 – मख्खी नहीं मधुमख्खी बने ☆

जन्मोत्सव की पार्टी चल रही थी, पर उनकी निगाहें किसी विशेष को ढूंढ रहीं थीं,  कि तभी वहाँ  एक  पत्रिका के संपादक आये और  उनके चरण स्पर्श कर कहने लगे  – चाचा जी जन्मदिवस की शुभकामनाएँ …..

“ओजरी भर विभा, वर्ष भर हर्ष मन,

शांति,सुख, कल्पना,आस्था, आचमन।

जन्मदिन की पुनः असीम शुभकामनाएँ…

उन्होंने कहा, “अब अच्छा लगा,  कितनी भी खुशी मिले, उपहार मिलें सब  अधूरे  लगते  हैं,  जब तक बच्चों  द्वारा खुशी न मिले।

बहुत बढ़िया पंक्तियाँ……   चाचा जी ने सिर पर हाथ रखते हुए शुभाशीष दिया।

इसी पार्टी में प्रमोशन सबंधी विवाद की चर्चा भी चल रही थी। जहाँ दो गुट आपस में भिड़े हुए थे।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए  उन्होंने कहा,  जिस तरह माह में दो पक्ष होते हैं, सिक्के में  दो पहलू होते हैं, विचारों में दो विचार होते हैं,मतों में दो मत होते हैं, ठीक  वैसे ही जब कोई शुभ आयोजन अच्छे से निपटता हुआ दिखे तो अवश्य ही कहीं न कहीं से अशुभ रूपी विघ्न आ धमकता है। पर  हम तो ठहरे मोटिवेशनल लेखक सो ये तय है कि बस सकारात्मक पहलू ही देखना है, चाहे  स्थिति कुछ भी हो।

तभी उनके संपादक भतीजे ने चुटकी लेते हुए कहा –

यहाँ एक बात और याद आती है कि  अक्सर  विवाद के बाद  ही फ़िल्म रिकार्ड तोड़ कमाई करती है, अब ये  उत्सव भी करेगा, बस सही योजना बने, जिससे नियमित कार्य शुरू हो और इस जन्मोत्सव के प्रायोजक का खर्चा – पानी भी निकल सके।

प्रायोजक महोदय ने गहरी साँस भरते हुए, गंभीर स्वर में कहा ” समयाभाव के कारण जितना कार्य किया है, वही रूप रेखा बना दी है,  अब आप लोग सुझाएँ। आप तो गुरुदेव हैं, सबसे ज्यादा समझदार होना चाहिए आपको।”

उनका एक सहयोगी कहने लगा “चरणों तक पहुँच गया हूँ, माफी माँगने,अब क्या करूँ ?”

एक सदस्य रोनी सी सूरत लिए कहने लगा ” बेटा बन जाइये, बेटे की हर ग़लती माफ़ रहती है।”

पागलपन की हद हो गई मक्खी नहीं मधुमक्खी बनिए,अभी भी समय है सुधर जाएँ संपादक महोदय ने कहा।

तभी  उन्होंने ने  ज्ञान बाँट  दिया समस्याओं से लड़ना चाहिए, शिखर पर पहुँचने में बहुत ठोकरें लगेंगी पर हार नहीं मानना चाहिए, संपादक को तो बिल्कुल नहीं  पत्रिका सही थी, है और रहेगी। शुरुआत में तो सबको आलोचना सहनी  पड़ती है  बाद में प्रतिष्ठित होते ही जो लिखो वही सत्य बन जाता है, बस उस मुकाम तक  पहुँचने की देर होती है।

वहाँ उपस्थित एक अधिकारी ने  कहा “प्रभु आप तो साक्षात परमहंस की श्रेणी में आ गये, आप अवतारी हैं, कोई साधारण मानव  नहीं ,अब कोई दुविधा नहीं जैसा  चाहें वैसा  निर्णय  लें मैं  तो सदैव  अनुगामी हूँ।

चलो भाई इस  निरर्थक वार्तालाप को विराम दें अब लंच का समय हो गया है, जन्मोत्सव का आनन्द उठाते हुए जम के  रसगुल्ले और केक खाते हैं, पनीर टिक्का का नाम सुनते ही पानी आ जाता है, सभी हहहहहहह……. करते हुए  खाने की टेबल की ओर चल दिए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 61 ☆ व्यंग्य – एक रुपैया बारह आना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का एक समसामयिक व्यंग्य एक रुपैया बारह आना। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 61

☆ व्यंग्य – एक रुपैया बारह आना ☆ 

जब से महाकोर्ट में एक रुपए जुर्माना हुआ,तब से एक रुपए इतना भाव खा रहा है कि उसके भाव ही नहीं मिलते। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको पढ़ने में आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा। रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी हो गई होती। पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था, तभी तो हर गली मुहल्ले के रेडियो में एक ही गाना बजता रहता था। ” एक रुपैया बारह आना,”

तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना 56 इंच का हुआ, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर सत्तर साल का जिक्र आया,  भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटक देता है।

बाजार में हर चीज पर एम आर पी लिख कर कीमत तय कर दी जाती है एक रुपये में कभी एम आर पी लिखा नहीं जाता, क्योंकि इसमें गवर्नर के हस्ताक्षर नहीं होते। शादी विवाह के मौके पर एकरुपए की गड्डी ब्लैक में बिकती थी तो डालर को बड़ा बुरा लगता था। हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है ,इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

एक रुपए का जुर्माना भरने वाला बहुत परेशान है माथे पर हाथ टिकाए सोच रहा है अजीब बात है सरकार कह रही है कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ और पुरानी सरकार की लकवाग्रस्त नीतियों से रुपये की कीमत गिरी है। अब जब छै साल से विकास ही विकास हो रहा है और अच्छे दिन का डंका बज रहा है तो रुपया और तेजी से क्यों गिर रहा है और चीन चाहे जब दम दे रहा है।

रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में सरकार द्वारा जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 63 ☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर समसामयिक विषय पर व्यंग्य  ‘सेतु का निर्माण फिर फि’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से हाल ही में टूटे हुए पुलों के निर्माण के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 63 ☆

☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर

आठ साल में दो सौ साठ करोड़ की लागत से बना पुल उद्घाटन के उन्तीसवें दिन काल-कवलित हो गया. एक दो दिन हल्ला-गुल्ला मचा, फिर सब अपने अपने काम में लग गये. कारण? सबको पता है कि आजकल पुल गिरने के लिए ही बनते हैं. कोई लाल किला थोड़इ है जो चार सौ साल तक खड़ा रहे, या कुतुबमीनार जो सात सौ साल तक हमें मुँह चिढ़ाती रहे. अंग्रेजों के ज़माने के भी कई पुल सैकड़ों साल से बेशर्मी से खड़े हैं. हमारा पुल एक महीना चल गया, यह क्या कम फ़ख्र की बात है? कोई जन-हानि तो नहीं हुई न? इसके पहले भागलपुर का पुल तो उद्घाटन से पहले ही दम तोड़ गया था. पुराने ज़माने की टेक्नोलॉजी पिछड़ी थी, हमारी टेक्नोलॉजी एडवांस्ड है. इसीलिए ये उपलब्धियाँ हैं. लोग कहते हैं कि पुराने ज़माने में भी भ्रष्टाचार था, तो ये पुरानी इमारतें गिरती क्यों नहीं हैं भाई? हमारे कर-कमलों से निर्मित पुल ही क्यों छुई-मुई बने हुए हैं?

पुल का मुआयना करने के लिए मंत्री जी आये हैं. पेशानी पर शिकन नहीं, उन्नत माथा, तना हुआ वक्ष. उन्हें देखकर वहाँ इकट्ठी भीड़ में से कुछ शिकायत की आवाज़ें उठती हैं. मंत्री जी एक मिनट सुनते हैं, फिर हाथ ऊपर उठाते हैं. उधर सन्नाटा हो जाता है. मंत्री जी किंचित क्रोध से कहते हैं, ‘कौन अफवाह उड़ाता है कि पुल टूट गया है? वो सामने पूरा पुल खड़ा है कि नहीं? अलबत्ता ‘अप्रोच रोड’ टूट गया है तो क्या कीजिएगा? जब हजारों क्यूसेक पानी आएगा तो रोड कैसे टिकेगा? पुल और अप्रोच रोड एक ही होता है क्या?’

आगे कहते हैं, ‘रोड टूटने से हम भी दुखी हैं, लेकिन प्राकृतिक विपदा को तो झेलना ही पड़ेगा न. ये पुल बनाने वाली कंपनी के इंजीनियर खड़े हैं. बेचारे कितने दुखी हैं. कंपनी की रेपुटेशन का सवाल है. ब्लैकलिस्ट होने का डर है.

लेकिन जो लोग कहते हैं कि ढाई सौ करोड़ पानी में चला गया वे झूठे हैं. अरे भई, आठ साल काम चला तो पैसा मज़दूर को मिला, ठेकेदार इंजीनियर को मिला, ईंट पत्थर सीमेंट लोहा सप्लाई करने वालों को मिला. पानी में कैसे गया?थोड़ा सा गड़बड़ हो गया तो सुधार दिया जाएगा. जब आठ साल पुल के बिना काम चल गया तो महीना दो महीना में कौन सी मुसीबत टूटने वाली है?’

थोड़ा रुककर मंत्री जी कहते हैं, ‘आप लोग थोड़ा समझिए. सौ साल पुराने जमाने में मत रहिए.  यह ‘यूज़ एंड थ्रो’ का जमाना है. पुरानी चीज को खतम कीजिए, नयी बनाइए.  एक ही चीज से मत चिपके रहिए. तभी तरक्की होगा. पुल  टूट गया तो टूट जाने दीजिए. हम दूसरा पुल बनाएंगे. और लोगों को रोजगार मिलेगा, और चीजें बिकेंगी. यही विकास का रास्ता है. किसी के बहकावे में मत आइए. ‘

मंत्री जी अन्त में कहते हैं, ‘मैंने कॉलेज के दिनों में एक कविता पढ़ी थी ‘नीड़ का निर्माण फिर फिर’. उसकी एक पंक्ति है ‘नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख’. इसलिए हम अपने दुख के बावजूद निर्माण के मिशन से पीछे नहीं हटेंगे. आप अपना हौसला और हममें भरोसा बनाये रहिए. जय हिन्द. भारत माता की जय. ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 31 ☆ अभिमान की डिजिटल गाथा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “अभिमान की डिजिटल गाथा यह रचना एडमिन द्वारा संचालित सोशल साइट्स के कार्यप्रणाली और सदस्यों के मनोविज्ञान का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 31 – अभिमान की डिजिटल गाथा ☆

भाव बढ़ने के साथ; प्रभाव का बढ़ना तय ही समझ लीजिए। जीवन में भले ही अभावों का दौर चल रहा हो किन्तु स्वभाव तो ऐसा रखेंगे; जिससे दुर्भाव ही उत्पन्न होता हो। क्या किया जाए ये अभिमान चीज ही ऐसी है कि जिसे हुआ समझो वो अपने साथ- साथ सबको ले डूबता है। घमंड का साथ हो और छप्पर फाड़ कर जब अनायास कुछ मिलने लगता है, तो बहुत सारे प्रतिद्वंद्वी भी तैयार हो जाते हैं। ऐसी ही कुछ कहानी डिजिटल समूहों के एडमिन की भी होती है।

जरा – जरा सी बात पर हाय तौबा करना, पूरे पटल को सिर पर उठा लेना। नए- नए नियमों को बनाना फिर लागू करवाना। अरे भई संख्या बल यहाँ भी आ टपकता है। जब अपनी पकड़ मजबूत हो तो जिसे जो जी चाहे कहते रहो, पूरे सदस्य का भरा- पूरा डिजिटल परिवार है। कुछ लोग रूठ कर चले भी जाएँ, तो क्या फर्क पड़ता है। जहाँ भी जायेंगे यही राम कहानी गायेंगे, इससे मुफ्त का प्रचार होगा। कि फलाँ ग्रुप बहुत अहंकारी है, नए नियमों की तो रोज ही बौछार करता है। और  जितनी भी बुराई हो सकती है, कर देंगे।

पर मजे की बात तो ये है, कि व्यक्ति वहीं आकर्षित होता है, जहाँ पूछ- परख कम होती हो। कुछ नया सीखने को मिलता हो। जब तक नयापन हो तभी तक लगाव जायज रहता है,जैसे ही वहाँ पहचान बढ़ी, तो  अड़ंगेबाज लोग अपनी असलियत पर उतर ही आते हैं और सुझावों का दौर शुरू कर देते हैं।

अरे भई जोड़- तोड़,और सलाह  देने में तो हम सबकी मास्टरी है, बस आवश्यकता उन लोगों की है जो नियमों का पालन करें।

ऐसे लोगों की खोजबीन में सारे एडमिन लगे रहते हैं, जैसे ही कोई जुझारू व्यक्ति मिला, बस उसकी धरपकड़  शुरू हो गयी। मीठी भाषा से रिझा कर कार्य करवाना व सम्मानित करना तो अभिमान की पहली सीढ़ी है। बस समझो सफल शुरुआत हो गयी। बदलाव करते रहिए, बढ़ते रहिए।

कुछ न कुछ करते रहने वालों का सम्मान तो बनता है, भले ही अभिमान क्यों न सिर पर चढ़ने लगे। धीरे- धीरे कब ये सारे चरण पार कर सुप्रीमों की श्रेणी में आ बैठता है, पता ही नहीं चलता। हद तो तब होती है जब ये एडमिन को ही अपना असली रूप दिखाने लगता है। बस फिर क्या एक झटके में रिमूव रूपी तलवार से काम तमाम।

अभिमान और अहंकार तो किसी के नहीं टिकते तो इन सामान्य डिजिटल सदस्यों के कैसे बचेंगे,इसी पर चिंतन – मनन जारी है।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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