हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #80 ☆ व्यंग्य – उल्लू जिंदाबाद! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य  उल्लू जिंदाबाद !  इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 80 ☆

☆ व्यंग्य उल्लू जिंदाबाद ! ☆

अमेरिका में गधे और हाथी की रेस में गधे जीत गए बाईडेंन का चुनाव चिन्ह गधा था, और ट्रम्प का हाथी।

चुनावो के समय अपने देश मे भी अचानक २००० रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आती है,  मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा होता हूं कि २००० के गुलाबी नोट धीरे धीरे  काले हो रहे हैं.

अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय १० ढ़ोकलों  में बिके.  सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं.  राजस्थान में ऊंटों में सौदे होते हैं।

सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग जाती हैं  और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही देती.  माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया ,  किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो  किसी एफ एम  से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है,  सारे जन प्रतिनिधियो ने दल बल सहित वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया.  लगता है कि क्षेत्रीय दल,  राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं,  सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट,  नित नये दल बदल,  इस्तीफे, के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं.  हार्स ट्रेडिंग सुर्खियों में है। यानी घोड़ो के सौदे भी राजनीतिक हैं।

रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से,  रोष और तैश में बातें हो रहीं थी.  चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को  हार्स ट्रेडिंग  कहना घोड़ो का  सरासर अपमान है.  घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है.  चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी, टीपू सुल्तान,  महारानी लक्ष्मीबाई  की घोड़े के साथ  प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है.  अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े,   बादल,  राजा, पवन,  सारंगी,  जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं.  धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा.  अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है. राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी,  जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं. बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है.  यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं.  फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है,  फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की.  शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं.  एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले  ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं.  घोड़े अपने मालिक के प्रति  सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है.

वाक्जाल से,  उसूलो से उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं.  अंतर्आत्मा की आवाज  वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये इस्तेमाल करते हैं.   नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं.  पार्टी अदलते बदलते रहते हैं  पर नेताजी टिके रहते हैं.  गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा,  आपका हुआ था.  कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही  तोड़ पाती.   यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही  हैं !

वो उल्लू होते हैं,  और उल्लू लक्ष्मी प्रिय हैं,  वे रात रात जागते हैं,  और सोती हुईं गाय सी जनता के काम पर लगे रहते हैं । इसलिए अपना नारा है,  उल्लू जिंदाबाद!

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #79 ☆ व्यंग्य – आश्वासन के सम्मान में वोट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य  आश्वासन के सम्मान में वोट ।  इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 79 ☆

☆ व्यंग्य आश्वासन के सम्मान में वोट ☆

हम भारत के लोग सदा से आश्वासन का सम्मान करते आये हैं. प्रत्येक चुनाव में हर पार्टी के घोषणा पत्र निखालिस आश्वाशन ही तो होते हैं, जिनके सम्मान में नेता जी सादर चुन लिये जाते हैं.  सरकारें बन जाती हैं फिर आश्वाशन पूरे हों न हों यह जनता के भाग्य पर निर्भर करता है. हम स्वयं अपने वोट से उत्साह पूर्वक अपने ही उपर राज करने के लिये चार किंबहुना समान चेहरो मे से किसी न किसी को चुन ही लेते हैं वह भी केवल उसके आश्वाशन का सम्मान करते हुये.

डाक्टर मरीज को आश्वासन देता है और बीमार महंगी दवाइयों पर भरोसा कर लेता है. बच्चे को माता पिता ईनाम का आश्वासन देते हैं और वह उसके सम्मान में मन लगाकर पढ़ने बैठ जाता है. पति पत्नी एक दूसरे को रोज दिये जाते  आश्वासनो की पूर्ति में दाम्पत्य की इबारत लिखते रहते हैं. मालिक नौकर को वेतन बढ़ाने का आश्वासन देते हैं और वह उसके सम्मान में एक आशा के साथ महीनों निकाल देता है. मतलब हम सदा से आश्वासन का सम्मान करते आये हैं.

सामान्यतः सम्मान पोस्टपेड एक्टिविटी होती है. पहले लोग अपना सर्वस्व दांव पर लगा देते हैं, एक जुनून के पीछे. तब कहीं व्यक्ति के कार्य फलीभूत होते हैं और जब धरातल  पर प्रयास कार्य में परिणित हो जाते हैं तब जब समाज उनका मूल्यांकन करता है तब बारी आती है सम्मान की. पर संयुक्तराष्ट्र संघ ने चैम्पियन्स आफ अर्थ का प्रतिष्ठापूर्ण सम्मान हमारे प्रधान मंत्री जी को प्रदान किया है.  वास्तव में यह हर भारत वासी के लिये गर्व की बात है. मैं  भी बहुत प्रसन्न हुआ. न केवल इसलिये कि प्रधानमंत्री जी के सम्मान से दुनियां में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है बल्कि इसलिये भी कि संयुक्त राष्ट्र संघ  आश्वासन पर यह सम्मान देता है.  यह सम्मान कार्य होने से पहले ही कार्य के आश्वासन का है. हमारे प्रधानमंत्री जी ने एक संकल्प, एक ढ़ृड़ता एक कमिटमेंट प्रदर्शित किया है कि २०२२ तक एकल उपयोग वाली सभी तरह की प्लास्टिक को भारत से हटा दिया जावेगा.इसी तरह उन्होने सोलर पावर के उपयोग के प्रति भी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है  यह असाधारण नेतृत्व क्षमता सचमुच सम्मान योग्य है. संयुक्त राष्ट् संघ ने प्रधानमंत्री जी के इस महत्वपूर्ण कमिटमेंट को चेंपियन्स आफ अर्थ पुरस्कार से रिकगनाईज किया है.

ऐसे पुरस्कारो से सम्मान करने वाली संस्थाओ को प्रेरणा लेनी चाहिये.मतलब यह कि न केवल परिणामो का सम्मान हो बल्कि परिणामो के लिये प्रतिबद्धता का भी सम्मान किया जाना चाहिये. सम्मान केवल काम करने पर ही नही अब काम करने की योजनाओ पर भी दिये जाने शुरू कर दिये जाने चाहिये जिससे समाज में और रचनात्मक व सकारात्मक वातावरण बने.

यानी मैं उन अकादिमियो की ओर आशा भरी निगाहो से देख रहा हूं जो सम्मान के लिये प्रविष्टियां बुलाती हैं. नामांकन में आवेदन के प्रारूप में प्रकाशित पुस्तको की प्रतियां मांगती हैं. अब इसमें संशोधन की गुंजाइश है. किताब लिखने के संकल्प पर, लेखन के कमिटमेंट पर भी संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुकरण करते हुये पुरस्कार दिया जा सकता है.

खैर लेखन के आश्वासन पर जब पुरस्कार मिलेंगे तब की तब देखेंगे, फिलहाल फ्री वेक्सीन, फ्री लैपटाप, लाखों नौकरियो  के आश्वासनो के सम्मान में न सही अवार्ड कम से कम वोट तो दे ही रहे हैं हम.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 40 ☆ बदलू और बदलागिरी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलू और बदलागिरी”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 40 – बदलू और बदलागिरी☆

वक्त बदलता है ये तो सही है, पर पूरा कार्य करवाने के बाद न पहचानना,ये खूबी कुछ लोगों में ही पायी जाती है। ऐसी ही कहानी है बदलू की, जो दलबदल करने वाले लोगों से भी एक हाथ आगे जाकर अपनी रणनीति बनाता है। नीति कोई भी हो, शोध की हद पार करते ही सबको समझ में आने लगती है। कुछ लोग मौनव्रत धारी होते हैं। ठीक समय पर हाजिर होकर हाजिरी लगवाई और चलते बनें।

हाजिरी लेने वाले भी ऐसे लोगों से ही दोस्ती रखते हैं। आखिर शो बाजी का जमाना जो ठहरा। थोड़ा बहुत दिखावा किया और शो मैन बनकर चलते बनें। काम करने वाला करता रहे, उससे किसी को कोई लेना देना नहीं होता। बदलू जी के पास वैसे भी कोई ज्यादा देर टिकता ही नहीं है।

दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेंकने में इन्हें महारथ हासिल है। पर मक्खी तो स्वभाव से ही मीठे पर मंडराने वाली होती है। सो भिन- भिन करती हुई उड़ती रहती है। कुछ लोग जो  बैठे हारे मक्खी मारते रहते हैं, वे तो हमेशा ऐसा ही करेंगे पर बदलू अपनी बात पर अड़िग ही नहीं रह सकता सो कोई न कोई नया आयोजन करता रहता है। सच तो ये है जब कोई कार्य अच्छा हो तो उसे अपना बनाकर आधिपत्य हासिल करने में जो मजा है वो और कहीं नहीं हो सकता। ऐसे ही ये क्रम चलता चला आ रहा है क्योंकि लोग बदलागिरी से दूर रहकर शांति प्रिय जीवन जीना चाहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 ☆ आमने-सामने -3 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री मुकेश राठौर जी , खरगोन  के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 

☆ आमने-सामने  – 3 ☆

श्री मुकेश राठौर (खरगौन) – 

प्रश्न-१ 

आप परसाई जी की नगरी से आते है| परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में तत्कालीन राजनेताओं,राजनैतिक दलों और जातिसूचक शब्दों का भरपूर उपयोग किया | क्या आज व्यंग्यलेखक के लिए यह सम्भव है  या फ़िर कोई बीच का रास्ता है ?ऐसा तब जबकि रचना की डिमांड हो सीधे-सीधे किसी राजनैतिक दल,राजनेता या जाति विशेष के नामोल्लेख की|

प्रश्न- २

कथा के माध्यम से किसी सामाजिक, / नैतिक विसंगति की परतें उधेड़ना। बग़ैर पंच, विट, ह्यूमर के |ऐसी रचना कथा मानी जायेगी या व्यंग्य?

जय प्रकाश पाण्डेय १ –

मुकेश भाई, व्यंग्य लेखन जोखिम भरा गंभीर कर्म है, व्यंग्य बाबा कहता है जो घर फूंके आपनो, चले हमारे संग। व्यंग्य लेखन में सुविधाजनक रास्तों की कल्पना भी नहीं करना चाहिए, लेखक के लिखने के पीछे समाज की बेहतरी का उद्देश्य रहता है। परसाई जी जन-जीवन के संघर्ष से जुड़े रहे,लेखन से जीवन भर पेट पालते रहे,सच सच लिखकर टांग तुड़वाई,पर समझौते नहीं किए, बिलकुल डरे नहीं। पिटने के बाद उन्हें खूब लोकप्रियता मिली, उनकी व्यंग्य लिखने की दृष्टि और बढ़ी।लेखन के चक्कर में अनेक नौकरी गंवाई। व्यंंग्य तो उन्हीं पर किया जाएगा जो समाज में झूठ, पाखंड,अन्याय, भ्रष्टाचार फैलाते हैं, व्यंग्यकार तटस्थ तो नहीं रहेगा न, जो जीवन से तटस्थ है वह व्यंंग्यकार नहीं ‘जोकर’ है। यदि आज का व्यंग्य लेखक तत्कालीन भ्रष्ट अफसर या नेता या दल का नाम लेने में डरता है तो वह अपने साथ अन्याय करता है। आपने अपने सवाल में अन्य कोई बीच के रास्ते निकाले जाने की बात की है, तो उसके लिए मुकेश भाई ऐसा है कि यदि ज्यादा     डर लग रहा है तो उस अफसर या नेता की प्रवृत्ति से मिलते-जुलते प्रतीक या बिम्बों का सहारा लीजिए, ताकि पाठक को पढ़ते समय समझ आ जाए। जैसे आप अपने व्यंग्य में सफेद दाढ़ी वाला पात्र लाते हैं तो पाठक को अच्छे दिन भी याद आ सकते हैं।पर आपके कहने का ढंग ऐसा हो, कि ऐसी स्थिति न आया…….

रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग-पताल।

आप तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।

जय प्रकाश पाण्डेय – २

मुकेश जी, व्यंग्य वस्तुत:कथन की प्रकृति है कथ्य की नहीं।कथ्य तो हर रचना की आकृति देने के लिए आ जाता है। आपके प्रश्न के अनुसार यदि कथा के ऊपर कथन की प्रकृति मंडराएंगी तो वह व्यंग्यात्मक कथा का रुप ले लेगी।

क्रमशः ……..  4

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 39 ☆ सॉरी का चलन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “सॉरी का चलन ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 39 – सॉरी का चलन ☆

कुछ लोगों को ये शब्द इतना पसंद आता है, कि वे कामचोरी करने के बाद इसका प्रयोग यत्र-तत्र करते नजर आ जाते हैं। उम्मीदों की गठरी थामकर जब कोई चल पड़ता है, तो सबसे पहले इसी शब्द से उसका पाला पड़ता है। जिसकी ओर भी उम्मीद की नज़र से देखो वो अपना पल्ला झाड़कर,आगे बढ़ जाता है। अब क्या किया जाए कार्य तो निर्धारित समय पर करना ही है, सो बढ़ते चलो, जो मेहनती है, वो अवश्य ही अपने उदेश्य में सफल होगा ।

क्षमा कीजिए का स्थान सॉरी शब्द ने तेजी के साथ हड़प लिया है। सनातन काल से ही क्षमा को वीरों का अस्त्र व आभूषण कहा जाता रहा है। इसका प्रयोग कमजोर लोग नहीं कर पाते हैं, वे क्रोधाग्नि में आजीवन जलकर रह सकते हैं किंतु अपना हृदय विशाल कर किसी को माफ नहीं कर सकते। जैन धर्म में तो क्षमा पर्व का आयोजन किया जाता है। जिसमें वे एक दूसरे से हाथों को जोड़कर अपनी जानी – अनजानी गलतियों के प्रति प्रायश्चित करते हुए दिखते हैं।

अच्छा ही है, अपनी पुरानी भूलों को भूलकर आगे बढ़ना ही तो सफल जिंदगी का पहला उसूल होता  है। पापों को धोने की परंपरा तो अनादिकाल से चली आ रही है। पवित्र नदियों में डुबकी लगाकर हम यही तो करते चले आ रहे हैं।

क्षमा की बात हो और महात्मा गांधी जी का नाम न आये ये तो बिल्कुल उचित नहीं है। जिनका मन सच्चा होता है वे किसी के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं रखते हैं। हो सकता है किसी व्यस्तता के चलते आज उन्होंने सॉरी कहा हो पर जैसे ही अच्छे दिनों की दस्तक होगी अवश्य ही हाँ कहेंगे, “अरे भई मेरी ओर भी निहारा कीजिए, हम भी लाइन में खड़े होकर कब से दस्तक दे रहे हैं।”

समय पर समय का साथ भले ही छूट जाए पर ये शब्द कभी नहीं छूटना चाहिए। आज वो सॉरी कह रहे हैं कल  सफ़लता हासिल करने के बाद आप भी इसे बोल सकते हैं। जिस तरह ब्रह्मांड में ऊर्जा घूमती रहती है, कभी नष्ट नहीं होती, ठीक वैसे ही ये शब्द  व्यक्ति, स्थान, भाव, उदेश्य को बदलता हुआ इस मुख से उस मुख तक चहलकदमी करता रहता है। लोगों को तो अब इसका अभ्यास हो चुका है। बात- बात पर सॉरी कहा औरआगे बढ़ चले।

बस कहते – सुनते हुए आगे बढ़ते रहें यही हम सबका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 ☆ आमने-सामने -2 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

आज से प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ललित लालित्य जी के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67

☆ आमने-सामने  – 2 ☆

डॉ ललित लालित्य (दिल्ली)

1-  पांडेय जी आप चुपचाप काम करने वाले व्यंग्यकार हैं जबकि आपके जूनियर कहाँ से कहाँ पहुँच गए ।

2- क्या आप मानते है कि व्यंग्यकार को ईमानदार होना चाहिए,चुगलखोर या ईर्ष्यालु नहीं ?

3- क्या जीते जी व्यंग्यकार मंदिर बनवा कर पूजे जाएं यह कहाँ की भलमान्सियत है ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

1- सर जी, लेखन में कोई जूनियर, सीनियर या वरिष्ठ, कनिष्ठ या गरिष्ठ नहीं होता, ऐसा हमारा मानना है। ईमानदारी और दिल से जितना कुछ संभव हो, वही संतुष्टि देता है। यदि कोई कहां से कहां पहुंच भी गया तो खुशी की बात है, उसकी प्रतिभा उसका अध्ययन उसे और ऊपर ले जाएगा।

2- ईमानदार और दीन-दुखी जन जन के साथ खड़ा लेखक ही असली व्यंंग्यकार कहलाने का हकदार है, जैसे आप हर दिन आम आदमी की दैनिक जीवन में आने वाली विसंगतियों और पाखंड पर रोज लिखकर आम आदमी के साथ खड़े दिखते हो। समाज की बेहतरी के लिए व्यंंग्यकार की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए, ईमानदार प्रयास ही इतिहास में दर्ज होते हैं, फोटो और बोल्ड लेटर के नाम पानी के बुलबुले हैं। भाई,व्यंंग्यकार ही तो है जो जुगलखोरी और ईर्षालुओं के विरोध में लिखकर उनके चरित्र में बदलाव की कोशिश करता है।

3- ऐसे लोगों को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो आत्म प्रचार और आत्ममुग्धता के नशे में जीते जी मंदिर बनवाने की कल्पना करते हैं। ऐसे लेखक के अंदर खोट होती है, वे अंदर से अपने प्रति भी ईमानदार नहीं होते, जो लोग ऐसे लोगों के मंदिर बनवाने में सहयोग देते हैं वे भी साहित्य के पापी कहलाने के हकदार हो सकते हैं।

क्रमशः ……..  3

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 70 ☆ व्यंग्य – साहित्यिक किसिम के दोस्त ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर व्यंग्य रचना  ‘साहित्यिक किसिम के दोस्त’।  इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 70 ☆

☆ व्यंग्य – साहित्यिक किसिम के दोस्त

सबेरे सात बजे फोन घर्राता है। आधी नींद में उठाता हूँ।

‘हेलो।’

‘हेलो नमस्कार। पहचाना?’

‘नहीं पहचाना।’

‘हाँ भई, आप भला क्यों पहचानोगे! एक हमीं हैं जो सबेरे सबेरे भगवान की जगह आपका नाम रट रहे हैं।’

‘हें, हें, माफ करें। कृपया इस मधुर वाणी के धारक का नाम बताएं।’

‘मैं धूमकेतु, दिल्ली का छोटा सा कवि। अब याद आया? सन पाँच में लखनऊ के सम्मेलन में मिले थे।’

याद तो नहीं आया,लेकिन शिष्टतावश वाणी में उत्साह भरकर बोला,’अरे, आप हैं? खू़ब याद आया। वाह वाह। कहाँ से बोल रहे हैं?’

‘यहीं ठेठ आपकी नगरी से बोल रहा हूँ।’

‘कैसे पधारना हुआ?’

‘विश्वविद्यालय ने बुलाया था एक कार्यशाला में।’

‘वाह! मेरा फोन नंबर कहाँ से मिला?’

‘अब यह सब छोड़िए। जहाँ चाह वहाँ राह। हमें आपसे मुहब्बत है, इसीलिए हमने हाथ-पाँव मारकर प्राप्त कर लिया।’

‘वाह वाह! क्या बात है!तो फिर?’

‘तो फिर, भई, यहाँ तक आकर आपसे मिले बिना थोड़इ जाएंगे। आपके लिए पलकें बिछाये बैठे हैं।’

मुझे खाँसी आ गयी। गला साफ करके बोला,’कहाँ रुके हैं?’

‘यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में। कमरा नंबर 15 ।’

‘ठीक है। मैं आता हूँ।’

‘ऐसा करें। शाम को कहीं बैठ लेते हैं। शहर के चार छः साहित्यिक मित्रों को बुला लें। परिचय हो जाएगा और चर्चा भी हो जाएगी। एक दो पत्रकारों को भी बुला लें तो और बढ़िया। आकाशवाणी वाले आ जाएं तो सोने में सुहागा। इतनी व्यवस्था कर लें तो मेरा आपके नगर में आना सार्थक हो जाए। मैं शाम छः बजे के बाद आपका इंतजार करूँगा। जैसे ही आप आएंगे, मैं चल पड़ूँगा।’

मैं चिन्ता में पड़ गया। कहा,’ठीक है, मैं कोशिश करता हूँ।’

‘अजी, कोशिश क्या करना! आप फोन कर देंगे तो शहर के सारे साहित्यकार दौड़े आएंगे। आपकी कूवत को जैसे मैं जानता नहीं। आप के लिए क्या मुश्किल है? तो फिर मैं शाम को आपका इंतजार करूँगा।’

‘ठीक है।’

मैंने फोन रखकर पहले अपने संकोची स्वभाव को जी भरकर कोसा, फिर अपने दिमाग़ को दबा दबा कर उसमें से धूमकेतु जी को पैदा करने की कोशिश में लग गया। बड़ी जद्दोजहद के बाद एक झोलाधारी कवि की याद आयी जो लखनऊ सम्मेलन में सब तरफ घूमते और खास लोगों को अपना कविता-संग्रह बाँटते दिखते थे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो भारी से भारी सम्मेलन में भी अपने तक ही कैद रहते हैं—अपनी चर्चा, अपनी प्रशंसा, अपनी कविता। धूमकेतु जी भी पूरी तरह आत्मप्रचार में लगे थे। तभी उनसे संक्षिप्त परिचय हुआ था। फिर दिल्ली के अखबारों में कभी कभी उनकी कविताएँ देखी थीं।

मैं फँस गया था। आयोजन-अभिनन्दन के मामले में मैं बिलकुल फिसड्डी हूँ और शायद इसीलिए अब तक लोगों ने मुझे अभिनन्दन के लायक नहीं समझा।

लेकिन साहित्य के क्षेत्र में संभावनाओं की कमी नहीं है। बहुत से साहित्यकर्मी चन्दन-अभिनन्दन को ही असली साहित्य समझते हैं। इसलिए मैंने एक स्थानीय स्तर के साहित्यकार ज्ञानेन्द्र को इन्तज़ाम का सारा भार सौंप दिया और उन्होंने सहर्ष कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार भी कर लिया। उन्होंने एक सांध्यकालीन अखबार के प्रतिनिधि को भी खानापूरी के लिए पकड़ लिया। मैं निश्चिंत हुआ।

शाम को धूमकेतु जी की सेवा में उपस्थित हुआ तो उन्होंने दोनों बाँहें फैलाकर मुझे भींच लिया। फिर अपना बाहुपाश ढीला करके बोले, ’हमारे प्यार की कशिश देखी? हमने आपको ढूँढ़ ही निकाला। वो जो चाहनेवाले हैं तेरे सनम, तुझे ढूँढ़ ही लेंगे कहीं न कहीं।’

हमने उनके मुहब्बत के जज़्बे की दाद दी, फिर उन्हें कार्यक्रम की तैयारी की रिपोर्ट दी। वे प्रसन्न हुए, बोले, ’स्थानीय लोगों से मेल-मुलाकात न हो तो कहीं जाने का क्या फायदा?’

मैं उन्हें स्कूटर पर लेकर रवाना हुआ। कार्यक्रम-स्थल पर आठ दस भले लोग आ गये थे। हर शहर में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो हर साहित्यिक कार्यक्रम की शोभा होते हैं। कार्यक्रम के आयोजक उन्हें याद करना कभी नहीं भूलते। वे हर कार्यक्रम को संभालने वाले स्तंभ होते हैं। उड़ती हुई सूचना भी उनके लिए पर्याप्त होती है। ऐसे ही तीन चार रत्न इस कार्यक्रम में भी डट गये थे।

कार्यक्रम बढ़िया संपन्न हुआ। ज्ञानेन्द्र ने धूमकेतु जी को कोने में ले जाकर उनका बायोडाटा लिख लिया था। धूमकेतु जी ने मुहल्ला-स्तर से लेकर अपनी सारी उपलब्धियों का विस्तृत ब्यौरा लिखा दिया था। उनको गुलदस्ता भेंट करने के बाद उनका परिचय हुआ और फिर आज की कविता पर उनका वक्तव्य हुआ। फिर जनता की फरमाइश पर उन्होंने अपनी पाँच छः कविताएं सुनायीं जिन पर हमने शिष्टतावश भरपूर दाद दी। फिर कुछ श्रोताओं ने हस्बमामूल उनके कृतित्व के बारे में कुछ सवाल पूछे और इस तरह कार्यक्रम  सफलतापूर्वक मुकम्मल हो गया। धूमकेतु जी गदगद थे। विदा होते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर उन्होंने इज़हारे-मुहब्बत किया। जाते वक्त हाथ हिलाकर बोले, ’स्नेह-भाव बनाये रखिएगा।’

पाँच छः माह बाद दिल्ली जाने का सुयोग बना। पहुँचकर मैंने उमंग से धूमकेतु जी को फोन लगाया। उधर से उनकी आवाज़ आयी,’हेलो।’

मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त। जबलपुर वाला।’

वे स्वर में प्रसन्नता भर कर बोले,’अच्छा,अच्छा। कहाँ से बोल रहे हैं?’

मैंने कहा, ’दिल्ली से ही। काम से आया था।’

वे बोले, ’वाह! बहुत बढ़िया! तो कब मिल रहे हैं?’

मैंने कहा, ’जब आप कहें। मैंने तो पहुँचते ही आपको फोन लगाया।’

वे जैसे कुछ उधेड़बुन में लग गये। थोड़ा रुककर बोले,’अभी तो मैं थोड़ा काम से निकल रहा हूँ। आप शाम चार बजे फोन लगाएं। मैं आपको बता दूँगा।’

मेरा उत्साह कुछ फीका पड़ गया। चार बजे फिर फोन लगाया। उधर से धूमकेतु जी की आवाज़ आयी,’हेलो।’

मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त।’

आवाज़ बोली, ’मैं धूमकेतु जी का बेटा बोल रहा हूँ। पिताजी एक साहित्यिक कार्य से अचानक बाहर चले गये हैं।’

मैंने कहा,’लेकिन यह आवाज़ तो धूमकेतु जी की है।’

जवाब मिला,’धूमकेतु जी की नहीं, धूमकेतु जी जैसी है। हम पिता पुत्र की आवाज़ एक जैसी है। कई लोग धोखा खा जाते हैं।’

मैंने पूछा,’कब तक लौटेंगे?

आवाज़ ने पूछा,’आप कब तक रुकेंगे?’

मैंने कहा,’मैं परसों वापस जाऊँगा।’

आवाज़ ने कहा,’वे परसों के बाद ही आ पाएंगे। प्रणाम।’

उधर से फोन रख दिया गया। मैं खासा मायूस हुआ।

जबलपुर वापस पहुँचा कि दूसरे ही दिन धूमकेतु जी का फोन आ गया—‘क्यों भाई साहब! दिल्ली आये और बिना मिले लौट गये? ऐसी भी क्या बेरुखी।’

मैंने कहा,’आपसे मिलना भाग्य में नहीं था, इसीलिए तो आप बाहर चले गये थे।’

वे बोले,’चले गये थे तो आप एकाध दिन हमारी खातिर रुक नहीं सकते थे? कैसी मुहब्बत है आपकी?’

मैंने कहा,’हाँ, लगता है हमारी मुहब्बत में कुछ खोट है।’

वे दुखी स्वर में बोले,’हमने सोचा था कि आपके सम्मान में छोटी मोटी गोष्ठी कर लेते। कुछ आपकी सुनते, कुछ अपनी सुनाते।’

मैंने कहा,’क्या बताऊँ! मुझे खुद अफसोस है।’

वे बोले,’खैर छोड़िए। वादा कीजिए कि अगली बार दिल्ली आएंगे तो मिले बिना वापस नहीं जाएंगे।’

मैंने कहा,’पक्का वादा है,भाई साहब। आपसे मिले बिना नहीं लौटूँगा। आप दुखी न हों।

वे बोले,’चलिए ठीक है। स्नेह बनाये रखें।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ वजन नहीं है ☆ श्री बसंत कुमार शर्मा

श्री बसंत कुमार शर्मा 

(ई- अभिव्यक्ति में प्रसिद्ध साहित्यकार श्री बसंत कुमार शर्मा जी का हार्दिक स्वागत है।आप वर्तमान में वरिष्ठ मंडल वाणिज्य प्रबंधक, जबलपुर मंडल, पश्चिम मध्य रेल हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आज प्रस्तुत है आपकी एक व्यंग्य रचना  वजन नहीं है।)

प्रिय  लेखन विधाएँ – गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, व्यंग्य, लघुकथा

प्रकाशन – विभिन्न साझा संकलनों एवं पत्र/पत्रिकाओं में दोहा, गीत, नवगीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, लघुकथा आदि का सतत प्रकाशन

पुस्तक प्रकाशन – बुधिया लेता टोह – गीत नवगीत संग्रह – 2019 – काव्या प्रकाशन, दिल्ली

☆ व्यंग्य – वजन नहीं है ☆

हमें नया नया कवितायें लिखने का शौक लगा, जैसे तैसे तुकबंदी कर हमने एक गजल लिखी और हमने अपने परम मित्र को सुनाई, और कोई शायद सुनने को तैयार न होता, तो वे बोले कि गजल  तो ठीक है लेकिन मतले यानी गजल के पहले शेर में वजन नहीं है. लोग शायर के वजन के साथ साथ हर शेर में भी वजन ढूंढते रहते हैं. मैं सोचता हूँ कि शेर में वजन की क्या जरूरत, अगर वजन की जरूरत होती तो शायर शेर का नाम शेर न रखकर हाथी रख लेते. हाथी तो काफी वजनदार होता है. मुझे एक चुटुकला याद आता है जिसके  लेखक का नाम मुझे ज्ञात नहीं, चुटुकलों के लेखक अधिकतर अज्ञात ही होते हैं,जिसे बचपन में कभी सुना था, आप भी सुन लीजिये “एक बार एक कवि सम्मलेन चल रहा था जिसमें एक नौसिखिये कवि को काव्य पाठ करने को अचानक कह दिया, उन नए कवि को को तो कुछ आता ही नहीं था, उन्होंने कहा भी कि श्रीमान मुझे कुछ नहीं आता, लेकिन वरिष्ठ कविगण कहाँ मानने वाले उन्होंने कहा नहीं भाई एक शेर तो बनता है, तो मायूसी से नव कवि उठ कर खड़ा हुआ और बोला “मुम्बई से दिल्ली तक….., दिल्ली से मुंबई तक….” एक श्रोता बीच में चिल्लाया “गुरू शेर में वजन नहीं है”. यह सुनकर कवि जो हूट होने की कगार पर खड़ा था, बोला “बैठ जाओ भाई, बैठ जाओ, रफ़्तार नहीं दिख रही तुम्हें, हमेशा वजन नहीं देखना चाहिए, कभी कभी रफ़्तार भी देख लिया करो”. खैर अब हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, शायरी या कविता जो भी कह लो उसमें रफ़्तार के साथ साथ पर्याप्त वजन भी हो.

बचपन में हम सरकंडे जैसे दुबले पतले थे, माँ कहती रहती थी कि दूध, दही, घी और माखन खाओ जिससे तुम्हारा वजन थोड़ा सा बढ़ जाये, बचपन में तो वजन बढ़ नहीं पाया लेकिन आजकल जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, वजन भी बढ़ रहा है. ज्यादातर लोगो के साथ ऐसा ही होता है. एक बार हमें सर्दी जुकाम हुआ, हम डॉक्टर साहिबा के पास गए, हमारी श्रीमती जी साथ में ही थीं. श्रीमती जी ने डॉक्टर साहिबा को ये भी बता दिया कि इनका वजन अचानक से 8-10 किलो कम हो गया है और वो भी एक हफ्ते में. डॉक्टर साहिबा ने खतरे को भांपते हुए तुरंत हमारा थाइराइड टेस्ट करवा दिया, पता चला कि हमें वजन कम करने वाला थाइराइड हो गया है. थाइराइड की बीमारी भी अजीब है जो वजन बढ़ाना चाहता है उसका कम और जो कम करना चाहता है उसका बढ़ा देती है, याने ज्यादातर उल्टे ही काम करती है. यह भी अधिकतर देखा गया है कि श्रीमती जी को वजन बढ़ाने वाला थाइराइड होता है और श्रीमान जी को वजन कम करने वाला. दोनों आपस में चाह कर भी इसे बदल नहीं सकते. हमने सोचा हो सकता इसी कारण से हमारी शायरी में वजन नहीं आ पा रहा था. खैर डॉक्टर साहिबा और ऊपर वाले की दुआओं से अब सब कुछ नियंत्रण में आ गया है, कम से कम कुछ लोग तो यह कहने लगे हैं कि आपकी शायरी में थोड़ा वजन आ गया है, यानी दमदार हो रही है. हमारा वजन कम होना भी रुक गया है. उन सभी मित्रों का शुक्रिया कि जिन्होंने कठिन समय में हमारा साथ दिया, जिन्होंने नहीं दिया उनका भी शुक्रिया. पुरानी कहावत है जो दे उसका भला जो न दे उसका भी भला.

हलकी चीजें आसानी से चल सकती हैं, दौड़ सकती हैं, उड़ सकतीं हैं. भारी चीजों को ज्यादा ताकत लगानी पड़ती है. लेकिन साहब सरकारी कार्यालयों में तो उल्टा ही होता है, फाइल पर वजन न हो तो आगे चलना तो दूर, खिसकती भी नहीं. सभी तरह के आवेदन हवा में ही उड़ जाते हैं और रद्दी की टोकरी में विराजमान होकर अपनी सद्गति को प्राप्त होते हैं. ये अलग बात हैं कि सरकार आवेदनों को उड़ने से बचने के लिए पेपरवेट खरीदने पर भी बजट का कुछ हिस्सा खर्च करती है, लेकिन सरकारी लोग, कभी कभी उनका इस्तेमाल टेबल पर गोल-गोल घुमाकर फिरकी का आनंद लेते हुए दिख जाते हैं.

एक और बात आजकल देखने में आती है कि नेताओं के भाषणों में एक आध बात पसंद आ जाती है तो खुसुर पुसुर होने लगती है कि नेताजी की इस बात में तो कुछ वजन है, इसी वजन के आधार पर कुछ वोटों का जुगाड़ हो जाता है और उन्हें चुनाव में जीत हासिल हो जाते है, हालांकि उनका वह थोड़ा सा वजन भी, ज्यादातर भाषण तक ही सीमित रह जाता है. चुनाव के बाद सारे नेता और उनके चमचे ही क्रमश: वजनदार होते चले जाते हैं. जनता क्रमश: और भी दुबली होती चली जाती है, फिर हवा में यहाँ से वहाँ रद्दी कागज़ की तरह उड़ती रहती है. आप को कुछ भी करवाना हो तो वजनदार होना या साथ में वजनदार की सिफारिश होना या वजनदार लिफाफा होना जरूरी है. यह वजन कुछ खास लोगों के पास ही होता है, बाकी तो राम ही राखे.

जब लोग अपने बेटे के लिए दुल्हन तलाशने निकलते हैं तो उन्हें दुल्हन वजन में कम और दहेज़ वजन में ज्यादा चाहिए होता है. शादी होकर नई बहू जब घर में आती है, तो घर की वजनदार महिलायें दहेज़ में मिले या उपहार में आये गहनों को हाथ में ले उन्हें उछाल उछाल कर वजन का अनुमान लगाने और यह पता लगाने का प्रयास करते हुए देखी जा सकतीं हैं कि वजनदार रिश्तेदारों, मित्रों और शुभचिन्तकों ने अपने वजन के हिसाब से गहने दिए हैं कि नहीं. उपरोक्तानुसार वजन के हिसाब से ही फिर बहू को ससुराल में इज्जत प्रदान की जाती है. जो दुलहन वजनी दहेज़ के साथ ससुराल नहीं आती कभी कभी समय से पूर्व ही भगवान को प्यारी हो जाती हैं.

अमीरों और गरीबों के वजन के शौक भी अलग अलग किस्म के होते हैं.यहाँ पर मैं शरीर के वजन की बात कर रहा हूँ. जिनके शरीर का वजन ज्यादा होता है उन्हें हर कोई कुतूहल की दृष्टि से देखता है, रिक्शा, टैक्सी, बसों और खासकर कहीं लाइन में लगे भारी आदमी को मुसीबत का सामना करना पड़ता है, यदि वो महिला हुई तो उसकी परेशानी और विकराल रूप धारण कर लेती है. जहाँ अमीर अपना वजन कम करने के लिए महँगे-मंहगे जिम या घर पर विशिष्ट किस्म के उपकरणों का इस्तेमाल कर अपना वजन कम करने का प्रयास करते रहते हैं,कुछ अति उत्साही लोग आजकल वजन कम करने के लिए ऑपरेशन भी करवाने लगे हैं.उनका वजन कम होता हो या न होता हो, उनका धन अवश्य कम हो जाता है. वहीँ गरीब लोग पेट में दो रोटी का वजन डालने के लिए धूप में मेहनत कर दो रोटी के वजन के बराबर पसीना निकाल देता है और साथ में गाली खाता है सो अलग. अंतत: अमीर और गरीब दोनों ही अपने अपने प्रयासों में असफल होते है. न अमीर का वजन कम होता है न गरीब का बढ़ता है. प्रभु की लीला अपरम्पार, पाया नहीं किसी ने पार.

© श्री बसंत कुमार शर्मा

संपर्क : 354, रेल्वे डुप्लेक्स, फेथ वैली स्कूल के सामने, पचपेढ़ी, साउथ सिविल लाइन्स, जबलपुर (म.प्र.) पिनकोड- 482001

मोबाइल : 9479356702

ईमेल : [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 38 ☆ अवसरवादी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अवसरवादी”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 38 – अवसरवादी ☆

जो एक बार कार्य में हीला हवाली करता है ,उसे दुबारा कभी भी अवसर नहीं देना चाहिए। ऐसा एक संस्था प्रमुख ने अपने अधीनस्थ से कहा।

सर, बिना न नुकुर के तो कोई अच्छे कार्य आज तक हुए ही नहीं है। आखिर थोड़ा बहुत नक्शा तो दिखाना ही पड़ता है।

सही कहा,  सरल कार्य को कठिन बना कर,  रास्ते को बाधित करते हुए जीने की कला तो नौकरशाहों को सबसे पहले सिखाई जाती है। यही तो एटीट्यूट कहलाता है। सफल ऑफिसर वही माना जाता है, जो अपने लिए दुर्गम राहों से भी राह निकाल लेता है, और दूसरों को उसमें उलझा कर रख देता है।

जी सर, मेरा तो मानना है कि कोई कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि कहने से न चले तो उसे बाहर का रास्ता दिखाने में देरी नहीं करनी चाहिए। कोई किसी को न तो बढ़ा सकता है न घटा सकता है। व्यक्ति स्वयं ही अपने भाग्य का  निर्माता होता।

बिल्कुल सही ,अब मेरी कार्यशैली आपको समझ में आने लगी है। स्थायी कुछ भी नहीं होता है। जो कार्य करना चाहता है, उसे रास्ते भी मिलते हैं और मददगार भी। जब सब कुछ आपको दिया गया है तो उसे बेहतर कर के दिखाइए अन्यथा दूसरों को मौका देना होगा।

जी सर जी, यह एक बड़ा सत्य है। अक्सर लोग ये शिकायत करते दिखते हैं कि मुझे कोई महत्व नहीं  देता। कारण साफ है , जब आप उपयोगी बनेंगे, तभी पूछ परख बढ़ेगी। कार्य गुणवत्तापूर्ण हो, कुछ नयापन हो, सबसे महत्वपूर्ण बात उससे मानवता को लाभ पहुँचे। ऐसे लोग जो जरूरत के समय बहानेबाजी करें, उन्हें दुबारा अवसर न दें। हमेशा बैकअप प्लान तैयार रखें। सबसे महत्वपूर्ण स्वयं को तराशें, वन मैन आर्मी को ही सब पसंद करते हैं। अधिकारी वही बनता है , जो जरूरत पड़ने पर हर कार्य को बखूबी कर सके। अक्सर व्यक्ति आखिरी क्षणों में ही हिम्मत हार जाता है। और धैर्य खो देता है। बस वहीं से उसकी तरक्की रुक जाती है।

सही कहा आपने। दो लोगों की लड़ाई में सही परिणाम नहीं आने पाता, जो बलशाली हुआ उसी की तरफ पड़ला झुक जाता है। तटस्थ लोग ही इसके दोषी होते हैं क्योंकि सेफ जोन के चक्कर में वे मूक दर्शक बन कर पूरी फिल्म का आनन्द उठाते हैं ,सर जी।

ऐसे लोग भी हमको चाहिए क्योंकि भीड़तंत्र की आवश्यकता संस्थाओं को पड़ती ही है।

जी सर , अब पूरी तस्वीर मेरी आँखों में छप चुकी है। अब दुबारा आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा।

चलिए देर आये दुरस्त आये कहते हुए संस्था प्रमुख हँस दिए।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 14 ☆ व्यंग्य ☆ मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 14 ☆

☆ व्यंग्य – मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार  ☆

दोस्तों, आज हम आपको बताते हैं कि कैसे एक आर्किटेक्ट एक बिल्डिंग का पूरा कैरेक्टर बदल सकता है. अब आप ताजमहल को ही लीजिये. कालिंदी किनारे, सुरम्य वातावरण में खड़ी की गई भव्य, खूबसूरत, नायाब इमारत को अपना रेजिडेंस बनाना कौन नहीं चाहेगा ? लेकिन शाहजहाँ ने ऐसा नहीं किया, उसने उसमें मकबरा बनाने का फैसला किया तो इसके पीछे एक महान आर्किटेक्ट की अहम् भूमिका रही है. इतिहास में जो अब तक दर्ज नहीं किया जा सका वो काल्पनिक किस्सा संक्षेप में कुछ इस तरह से है.

जैसा कि आपको पता ही है ताजमहल मुग़ल शासक शाहजहाँ ने क्रोनोलॉजी के हिसाब से अपनी बेगम क्रमांक दो मुमताज़-महल के मरने के बाद बनवाया था, मगर उसका शुरूआती इरादा इसे मकबरा बनाने का नहीं था. वो अपनी नेक्स्ट बेगम के साथ वहाँ एक थ्री बीएचके विथ लॉन एंड कवर्ड पार्किंग बनवाकर बाकी की जिंदगी सुकून से गुजारना चाहता था, मगर आर्किटेक्ट ने आलीशान इमारत तान दी. वो महज रसोईघर में संगेमरमर लगवाने के मूड में था, आर्किटेक्ट ने पूरी बिल्डिंग संगेमरमर की तामीर कर दी. आर्किटेक्चर की ये महान परम्परा आज भी जारी है – आप कॉम्प्लेक्स डिझाइन करवाईये आर्किटेक्ट होटल बना देगा, होटल कहेंगे तो अस्पताल तान देगा, और अस्पताल कहेंगे तो मॉल खड़ा कर देगा. कभी कभी तो किसी बिल्डिंग को देखकर आप हैरत में पड़ जाते हैं कि यार ऐसा बेहूदा स्ट्रक्चर खड़ा करने में कितनी बेवकूफियाँ लगीं होंगी. बहरहाल, पठ्ठे ने एक न्यारा सा बंगला बनाने के चक्कर में एक भव्य इमारत बना दी, तब भी वो इमारत रेजिडेंस के लायक नहीं बन सकी.

हुआ ये कि रेजिडेंस शिफ्ट करने से पहले एक रोज़ बादशाह अपनी बेगम क्रमांक तीन के साथ मुआईना करने गये कि आखिर कैसा बना है नया आशियाना. उन्होंने पाया कि आर्किटेक्ट वॉश एरिया निकालना तो भूल ही गया. फटकारे जाने पर उसने कहा – ‘जहाँपनाह, नये डिजाईन के घरों में वॉश एरिया का चलन खत्म हो गया है. मुल्क में जो फिरंगी आना शुरू हुवे हैं उनसे पूछ लीजिये. विलायत में बने उनके घरों में वॉश एरिया नहीं होता. घर में कहीं भी वॉश करने की फ्रीडम बड़ी चीज़ है. और फिर आप तो ठहरे शहँशाह, जहाँ मन करे वॉश करें आप.’ मन तो किया बादशाह का कि इस खूबसूरत बहानेबाज़ी पर इस साले को इन्हीं दीवारों में जिंदा चुनवा दें. मगर वो मन मसोस कर रह गया.

हर कालखंड में आर्किटेक्ट कभी सिर्फ आर्किटेक्ट नहीं रहे, वे वकील भी होते हैं, अपने किये धरे के पक्ष में कैसी भी दलील दे सकते हैं. वे डिप्लोमेट भी होते हैं, आप उनके जवाब में कोई भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं. वे तर्कशास्त्री भी होते हैं, वे दरवाजे को खिड़की, खिड़की को झरोखा, झरोखे को उजालदान, उजालदान को दरीचा निरुपित कर सकते हैं. एक सफल आर्किटेक्ट उन सारी प्रमेयों को हल कर सकता है जो बड़े बड़े गणितज्ञ अभी तक नहीं कर पाये. उनके कुतर्क मालिक-ए-मकाँ की जेनुइन जरूरतों पर भारी पड़ते हैं.

बेगम ने रसोईघर का मुआईना करते हुवे पूछा – “यहाँ चूल्हा रखेंगे तो पानी का नल कहाँ लगेगा ?” बादशाह ने इस पर आर्किटेक्ट की ओर घूर कर देखा.

“जान की अमान हो जहाँपनाह, पीछे कालिंदी कल-कल बह रही हैं. बेगम साहिबा चाहेंगी तो हम उसकी एक पूरी नहर आपकी रसोई में से होती हुई बाहर की तरफ निकाल देंगे. चौबीस घंटे नेचुरल वाटर. रियाया में आपकी कुदरत से बेपनाह मोहब्बत का डंका बजने लगेगा.” बादशाह ने जान की अमानत नहीं दी होती तो अब तक तो सर कलम करवा दिया होता. आगे बढ़े – “और ये इतने बड़े बड़े गुसलखाने ? आरामखाना इतना छोटा और अटैच्ड गुसलख़ाना इतना बड़ा ?”

“जहाँपनाह, नाचीज़ आपके गुसलख़ाने में गाने का शौक से वाकिफ़ है. आप जब तक चाहें, जितना चाहें, घूम घूम कर गा सकें इसीलिये गुसलख़ाने आरामखानों से दोगुना बड़े रखे गये हैं.”

“और इसमें कमोड लगाने को कहा गया था तुम्हें वो.”

“जहाँपनाह, इन्डियन स्टाईल में घुटनों की एक्सरसाईज हो जाती है इसीलिए खुड्डीवाली लगवा दी है.” गुस्से में दांत पीस लेता बादशाह मगर मसूड़े कमजोर हो चले थे सो नहीं पीस पाया.

“और ये पार्किंग की जगह इतनी कम छोड़ी है, हम अपनी शाही बग्घी खड़ी कहाँ करेंगे ?”

“वो तो कोचवान आपको छोड़कर अपने घर ले जायेगा. पार्किंग में स्पेस वेस्ट क्यों करना जहाँपनाह.”

अब तक आगबबूला हो चुका था बादशाह. यही आर्किटेक्ट था जो पीछे पीछे चल रहे वजीर के मकान के काम लगा चुका था. उसने मौका मुनासिब जानकर पूछा – “जहाँपनाह भूस लाया हूँ साथ में, भरवा दूं इसकी खाल में ?”

आर्किटेक्ट ने बादशाह के लिये कुछेक ऐशगाहें बेगम से छुपाकर बनाईं थीं. राज़ खुल जाने के डर से उसने उस समय तो मना कर दिया मगर कहते हैं बाद में उसके हाथ कटवा दिये. सोचा कम से कम उसके हाथों अब और किसी के मकान का डिझाईन खराब न हो.

इस बीच बेगम ने इसरार किया कि अब जैसा भी है उसी में शिफ्ट कर लेते हैं मगर इंटीरियर कराना पड़ेगा. बादशाह इंटीरियर का खर्च सोचकर ही डर गया. सोने से घड़ावन महँगी. इमारत से ज्यादा लागत इंटीरियर की. ताजमहल पूरा करने में एक बारगी तो पूरा खजाना खाली हो चला था. जो इंटीरियर कराता बादशाह तो उधार लेना पड़ता. अब उस समय आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक जैसी एजेंसियां तो थी नहीं कि सार्वभौम मुग़ल सल्तनत को आसान शर्तों पर लोन दे सके, कि लीजिये युवर मेजेस्टी हमने आपके लिये ईएमआई कम कर दी है और कोई प्रोसेसिंग शुल्क भी नहीं.

तब बादशाह ने एक अकलमंदी का काम किया. उसने फ़ौरन से पेश्तर रेजिडेंस शिफ्ट करने का फैसला रद्द किया. फिर ऊपर नीली छतरी की ओर देखकर मरहूम बेगम मुमताज़-महल को याद किया. बुदबुदाये – ‘बेगम ये इमारत हम आपके मकबरे के लिये मुकम्मल करते हैं. इस निकम्मे तामीरगार की वजह से हम इसमें रहने तो नहीं आ सकेंगे, अलबत्ता मरने के बाद आपके बगलगीर जरूर होंगे. हमारी मोहब्बत का यह बुलंद शाहकार क़ुबूल फरमायें.’

दोस्तों, इस तरह एक आर्किटेक्ट की कुछ मासूम गुस्ताखियों ने दुनिया को मोहब्बत का खूबसूरत स्मारक भेंट किया है. सो, द रियल ट्रिब्यूट गोज टू द आर्किटेक्ट.

 

© शांतिलाल जैन 

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 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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