हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70☆ आमने-सामने – 6 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे।  आज अंतिम में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार श्री रमेश सैनी जी  (जबलपुर), श्री राजशेखर चौबे जी (रायपुर) एवं  श्री आत्माराम भाटी जी के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70

☆ आमने-सामने  – 6 ☆

श्री रमेश सैनी (जबलपुर)

वर्तमान समय में सभी तरफ व्यंग्य पर बहुत गंभीरता से विमर्श हो रहा है, विशेषकर परसाई जी और आज लिखे जा रहे व्यंग्य के संदर्भ में। क्योंकि आज के पाठक और आलोचक इससे संतुष्ट नज़र नहीं हो रहे। एक व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में आपके सवाल के उत्तर में यह बात उभर कर आई थी कि व्यंग्य में खतपरवार ऊग आई है, जो फसल को नष्ट कर रही है।

उक्त टिप्पणी को केंद्र में रखकर व्यंग्य में खतपरवार और अराजक परिदृश्य पर आप क्या सोचते हैं ?

इसकी सफाई कैसे संभव हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय सैनी जी  व्यंग्य विधा के उन्नयन और संवर्धन के यज्ञ में आपका योगदान महत्वपूर्ण है, अब व्यंग्य विमर्श के आयोजन के बिना आपका खाना नहीं पचता, हम सब आप से और सबसे ही बहुत कुछ सीख रहे हैं। खरपतवार हमारे अपने ही कुछ लोग पैदा कर रहे हैं इसलिए व्यंग्य की लान में ऊग आयी जंगली घास को आप जैसे पुराने व्यंग्यकारों को निंदाई का कार्य करना पड़ेगा और जो लोग खरपतवार में खाद पानी दे रहे हैं उन्हें चौगड्डे में लाकर खड़ा करना पड़ेगा।

श्री राजशेखर चौबे (रायपुर) 

आज बहुत सारे व्यंग्यकार सत्ता के साथ खड़े होकर विपक्ष को टारगेट  करते नजर आते हैं ऐसा क्यों है ?

आप इसका क्या कारण मानते हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई, शेरदिल धाकड़ व्यंग्यकार यह तो भली-भांति जानता है कि उसका धर्म और दायित्व सत्ता पर अंकुश रखते हुए विपक्ष की भूमिका निभाना है। मीडिया जब कमजोर बना दिया जाता है, या बिक जाता है, विपक्ष भी जब तोड़फोड़ के चक्कर में विपक्ष की भूमिका ठीक से नहीं निभा पाता है तब व्यंंग्यकार ही वह महान हस्ती के रूप में विपक्ष की दमदार भूमिका निभाने में सक्षम माना जाता है। तब व्यंंग्यकार ही घोड़े की लगाम खींच खींच कर घोड़े को नियंत्रण में रख पाता है, तो आज के विकट समय में व्यंंग्यकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जो नकली व्यंग्यकार लोभ लालच और पूंछ हिलाने के चक्कर में विपक्ष पर व्यंग्य लिखकर सत्ता पक्ष के सामने इम्प्रैशन जमाकर पुरस्कार लूटना चाहते हैं, वे व्यंंग्यकार नहीं जोकर होते हैं और सियार की खाल पहनकर कूद फांद करने में विश्वास करते हैं।

श्री आत्माराम भाटी

जयप्रकाश जी ! बतौर साहित्यकार स्वयं लिखी रचना को सम्पादित करना आसान है या किसी दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से देखना ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय जी,स्वयं लिखी रचना को सबसे पहले सम्पादित करने और कांट-छांट करने का अधिकार, कायदे से घर की होम मिनिस्ट्री के पास होना चाहिए, फिर उसके बाद आवश्यक सुधार, संशोधन आदि स्वयं लेखक को करना चाहिए।  दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से नहीं बल्कि सुझाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पहले किसी लेखक की रचना जब संपादक के पास प्रकाशनार्थ जाती थी तो संपादक लेखक की अनुमति लेकर छुट-पुट सुधार कर लेता था।  आजकल तो कुछ संपादक ऐसे हैं जो विचारधारा के गुलाम हैं,सत्ता के दलाल बनकर बैठे हैं, रचना मिलते ही सबसे पहले कांट-छांट कर रचना की हत्या करते हैं बिना लेखक की अनुमति लिए। फिर छापकर अच्छी रचना बनाने का श्रेय भी खुद ले लेते हैं।

समाप्त

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 42 ☆ जोर लगाकर हईशा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जोर लगाकर हईशा…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 42 – जोर लगाकर हईशा… ☆

एकता और शक्ति कार्यक्रम में शक्ति का प्रदर्शन चल रहा था। सभी से एकता बनाए रखने की अपील की जा रही थी। पर एकता के तो भाव ही नहीं मिलते हैं। एक- एक मिलकर ग्यारह तो हो सकते हैं। एक- एक जल की बूंद से सागर भर सकता है। एक – एक लकड़ी मिलकर बड़ा सा गट्ठर बना सकती है, पर प्रत्येक व्यक्ति के विचारों को एकता के सूत्र में बाँधकर रहना बहुत मुश्किल होता है ।

हर व्यक्ति अपनी ही जीत चाहता है। जिसके लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाकर गुटबाजी करने से भी नहीं चूकता है। एकता का जाप करते हुए मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा का गीत अवश्य ही उसका नारा होता है। परंतु कथनी और करनी का भेद यहाँ भी टपक पड़ता है। जिस तरह रस्सी खींच प्रतियोगिता में दो गुट बनाकर , दोनों ओर बराबर संख्या में प्रतिभागी होते हैं। वैसा ही किसी भी आयोजन में देखा जाता है। यहाँ लोग पुरानी बातों को एक – एक कर खोलने लगते हैं ताकि सामने वाले का मनोबल कम हो जाए। पर लोगों ने भी कोई कच्ची गोटियाँ नहीं खेली होती हैं। आयोजक ऐसे लोगों को चयनित ही करते हैं। जो आकर्षण के सिद्धांत का पालन करते हुए ही नीतियाँ बनाता और लागू करवाता हो।

जोर लगाकर हईशा…

इस नारे की गूँज से वातावरण गुंजायमान हो गया, सब लोग पूरे दमखम के साथ मैदान पर उतरे हुए थे। बस इंतजार था कि जिस दल की एकता भंग हुई वही चारो खाने चित्त होगा। पर इसकी यही तो खूबी है कि ये सत्ता पक्ष के साथ ही इतराती है। एकता को भी साजो शृंगार की आदत जो ठहरी , ये  वहीं रुकेगी जहाँ स्थायित्व हो। प्रतियोगिता अपने चरम पर थी , दर्शकों की धड़कनें थम गयीं …अब क्या होगा , सभी की निगाहें परिणाम की ओर थीं। दोनों दल पूरे मनोयोग से रस्सी खींच रहे थे। सभी ओर एक से बढ़कर एक नीतिकार योद्धा मौजूद थे। दर्शकों ने भी गुटबाजी में अपनी भलाई समझी ,सो वे भी दो समूहों में बँट कर आंनद लेने लगे। अब तो निर्णायकों को भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। उन्होंने चारों ओर निगाहें दौड़ाई और आँखों ही आँखों में ये तय कर लिया कि यदि समय पूरा हो गया और कोई आशाजनक परिणाम नहीं मिल पाया तो  इस जीत से ज्यादा फायदा जिसके द्वारा हम लोगों को मिल सकता है उसे ही विजेता बना देंगे ।

पर एकता में शक्ति होती है। सो एक समूह जो पहले से ही एकता के सूत्र की मिसाल है वो जीत ही गया क्योंकि एक – एक मोती मिलकर ही सम्पूर्ण माला को बनाते  हैं ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 69☆ आमने-सामने – 5 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार  डॉ सुरेश कुमार मिश्रा जी (हैदराबाद),श्री  अशोक व्यास जी (भोपाल) एवं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी  (जबलपुर) के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 69

☆ आमने-सामने  – 5 ☆

डॉ सुरेश कुमार मिश्रा (हैदराबाद)

क्या एक सरकारी कर्मचारी सत्ता पक्ष के गलत फैसलों पर तंज कसते हुए व्यंग्य लिख सकता है? यदि हाँ तो उसके लिए क्या प्रावधान हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

सुरेश कुमार जी, जब तक ढका मुंदा है और आपके कार्यालय परिवार के लोग जीवन से तटस्थ हैं, तब तक तो कुछ नहीं होता, कार्यालय का काम और अनुशासन आपकी प्राथमिकता है और यदि लेखक के अहंकार में चूर होकर बास से खुन्नस ली तो साथ के लोग और बास आपको फांसी चढ़ाने के लिए बैठे रहते हैं। क्योंकि आप जानते हैं कि सच को उजागर करने वालों का दुनिया पक्ष कम लेती है और आपको व्यंग्य लिखने की सरकारी अनुमति मिलेगी नहीं, ऐसी दशा में लेखक को विसंगतियों पर इशारे करके लिखना होगा।

 

श्री अशोक व्यास (भोपाल) 

मेरा प्रश्न है कि आजकल जो व्यंग्य पढ़ने में आ रहे हैं उसमें  साहियकारों  पर जिसमें अधिकतर व्यंग्यकारों पर व्यंग्य किया जा रहा है । क्या विसंगतियों को अनदेखा करके दूसरे के नाम पर अपने आप को व्यंग्य का पात्र बनाने में खुजाने जैसा मजा ले रहे हैं हम ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

भाई साहब, सही पकड़े हैं। हम आसपास बिखरी विसंगतियों, विद्रूपताओं, अंधविश्वास को अनदेखा कर अपने आसपास के तथाकथित नकली व्यंंग्यकारों को गांव की भौजाई बनाकर मजा ले रहे हैं, जबकि हम सबको पता है कि इनकी मोटी खाल खुजाने से कुछ होगा नहीं, वे नाम और फोटो के लिए व्यंग्य का सहारा ले रहे हैं।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव (जबलपुर)

आप लंबे समय तक बैंकिंग सेवाओं मे थे, बैंक हिंदी पत्रिका छापते थे, आयोजन भी करते थे।

आप क्या सोचते हैं की व्यंग्य, साहित्य के विकास व संवर्धन में संस्थानों की बड़ी भूमिका हो सकती है ? होनी चाहिये ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

विवेक भाई, हम लगातार लगभग 36 साल बैंकिंग सेवा में रहे और शहर देहात, आदिवासी इलाकों के आलावा सभी स्थानों पर लोगों के सम्पर्क में रहे और अपने ओर से बेहतर सेवा देने के प्रयास किए। पर हर जगह पाया कि बेचारे दीन हीन गरीब, दलित, किसान, मजदूर दुखी है पीड़ित हैं, उनकी बेहतरी के लिए लगातार सामाजिक सेवा बैंकिंग के मार्फत उनके सम्पर्क में रहे, गरीबी रेखा से नीचे के युवक युवतियों को रोजगार की तरफ मोड़ा, दूरदराज की ग़रीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत मदद की मार्गदर्शन दिया। प्रशासनिक कार्यालय में रहते हुए गृह पत्रिकाओं के मार्फत गरीबों के उन्नयन के लिए स्टाफ को उत्साहित किया, बिलासपुर से प्रतिबिंब पत्रिका, जबलपुर से नर्मदा पत्रिका, प्रशिक्षण संस्थान से प्रयास पत्रिका आदि के संपादन किए, और जो थोड़ा बहुत किया वह आदरणीय प्रभाशंकर उपाध्याय जी के उत्तर में देख सकते हैं। बैंक में रहते हुए साहित्य सेवा और सामाजिक सेवा से समाज को बेहतर बनाने की सोच में उन्नयन हुआ, दोगले चरित्र वाले पात्रों पर लिखकर उनकी सोच सुधारने का अवसर मिला। कोरोना काल में विपरीत परिस्थितियों के चलते बैंकों में अब समय खराब चल रहा है इसलिए आप जैसा सोच रहे हैं उसके अनुसार अभी परिस्थितियां विपरीत है।

क्रमशः ……..  6

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ लोकतंत्र की चुनावी दीवाली ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

श्री नवेन्दु उन्मेष

☆ व्यंग्य ☆ लोकतंत्र की चुनावी दीवाली ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

लोकतंत्र में मतदाता ही चुनाव में दीपावली मनाते हैं। मतदाता ही लोकतंत्र के दीये जलाते हैं और मतदाता ही लोकतंत्र के दीये बझाते भी हैं। जिस दल या नेता का दीया मतदाता जलाते देते हैं उसके घर पर दीपावली मनती है और जिसके घर के दीये मतदाता बुझा देते हैं उसके घर पर बीरानी छा जाती हैं।

चुनाव आयोग जैसे ही चुनाव की दीपावली जलाने की तिथि की घोषणा करता है। राजनीतिक दल और उनके नेता दीपावली का जश्न मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। इसके लिए प्रत्याशी चयन से लेकर प्रचार तक का काम शुरु कर दिया जाता है। इसके बाद शुरु होती है मतदाताओं को यह बतलाने का काम कि किस दिन
दीपावली मनायी जायेगी। घर-घर जाकर उम्मीदवार मतदाताओं को बताते हैं कि अमुक दिन लोकतंत्र की दीवाली मनायी जायेगी। उम्मीदवार मतदाताओं को यह भी बताते हैं कि दीपावली मनाते वक्त किस तरह की सावधानी बरतने की जरूरत है। सावधानी बताते वक्त वे यह भी बताते हैं कि किस दल के उम्मीदवार की क्या
कथनी और करनी रही है। किस दल ने मतदाताओं के लिए कार्य किया है और किसी दल ने मतदाताओं के लिए कार्य नहीं किया है।

लोकतंत्र के दीये जलाने के लिए महंगाई, बेरोजगारी, नाली, सड़क, चिकित्सा व्यवस्था, युवा, महिलाएं और लोगों की समस्याएं टूल्स का कार्य करती हैं। अगर ये टूल्स न रहें तो लोकतंत्र के दीये जल ही नहीं सकते हैं। नेता या उम्मीदवार इन्हीं टूल्स के भरोसे दीये जलाने वाले मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ये ऐसे टूल्स है जो कभी खत्म हो ही नहीं सकते। अगर ये टूल्स खत्म हो जायें तो फिर लोकतंत्र के दिये जलेंगे कैसे। इसलिए नेता हमेशा इन टूल्स को जिंदा रखने का काम करते हैं। उम्मीदवार जब भी मतदाताओं के घर पर जाते हैं तो वे जानते हैं कि मतदाता उन्हें देखकर भड़केगा जरूर। इसके लिए वे उन्हें आश्वासन की घुट्टी पिलाते हैं ताकि मतदाता उन्हें मत देकर उनका दीया जला सके। अगर मतदाता उम्मीदवार के झांसे में आ जाता है तो वह उम्मीदवार के दीये जा देता है। अगर झांसे में नहीं आता है तो उसके दीये को बुझा देता है। नेता कहते हैं ’हमने चहुंमुख दीये जलाये, न जाने किस पथ से लक्ष्मी आ जाये।‘ इसका मतलब है कि लोकतंत्र की दीपावली में नेता अपने चुनाव क्षेत्र में घूम-घूमकर मतदाताओं को रिझाते हैं यानी आश्वासन के दीये बांटते हैं ताकि वे मतदान के दिन इवीएम पर बटन दबाकर  उनके पक्ष में दीये जला सकें।

इवीएम पर बटन दबते ही लोकतंत्र के धनतेरस और दीपावली का त्यौहार संपन्न हो जाता हैं। इस दिन मतदाता के साथ-साथ चुनाव आयोग और अन्य लोग धनकुबेर की जमकर पूजा करते हैं। चुनाव आयोग मतदान की व्यवस्था करने में धन खर्च करता है तो राजनीतिक दल बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं पर खर्च करते है। इस प्रकार लोकतंत्र में मतदान के दिन दीपावली और धनतेरस का त्यौहार संयुक्त रूप से मनाया जाता है।

अगर मतदाता न हों तो लोकतंत्र की दीपावली का कोई मतलब नहीं रह जाता है। लोकतंत्र की दीपावली मनाने के लिए मतदाताओं की जरूर वैसे ही पड़ती है जैसे दीये को जलाने के लिए तेल की। अगर तेल न हो तो दीये जल नहीं सकते। मतदाता न हों तो लोकतंत्र की दीपावली भी मन नहीं सकती। लोकतंत्र की दीपावली मनते ही मतदाताओं और ईवीएम का वहीं हस्र होता है जैसे दीपावली के बाद मिट्टी के दीये का होता है। दीपावली के दूसरे दिन न दीये की जरूरत पड़ती है और न मतदान के दूसरे दिन मतदाताओं की कोई अहमियम रह जाती है। दोनों ही भुला दिये जाते हैं। दीयों को लोग उठाकर फेंक देते हैं तो मतदाताओं की कोई की कोई सुधी लेने वाला नहीं रहता। इसके बाद मतगणना के दिन छोटी दीपावली मनायी जाती है। इसके मतदाताओं कोई जरूरत नहीं पड़ती। इसका जश्न सिर्फ दल के कार्यकर्ता या नेता मनाते हैं।

©  श्री नवेन्दु उन्मेष

संपर्क – शारदा सदन,  इन्द्रपुरी मार्ग-एक, रातू रोड, रांची-834005  (झारखंड) मो  -9334966328

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 41 ☆ बदलापुर की गाथा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलापुर की गाथा”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 41 – बदलापुर की गाथा ☆

बड़े घमंड के साथ, प्रचार – प्रसार द्वारा लगभग लाखों सब्सक्राइबर बना लिए,  पर जब भी कोई पोस्ट करते तो बस दस पन्द्रह लाइक ही झोली में आते हैं, अब तो बदलू जी परेशान रहने लगे। हद तो तब हो गयी जब वे बदलापुर के लिए निकल पड़े तो उनके दो अनुयाई भी उनका साथ न देकर,  नए नेता की ओर चल दिये। लोटा और पेंदी का साथ बहुत अच्छी बात है,  पर जब दोनों अलग हो जाएँ तो बिन पेंदी का लोटा लुढ़कता ही है।

इसी सब में क्षमा के गुणों की चर्चा भी चल निकली। ‘क्षमा वीर आभूषण’ होता कहना और सुनना तो सरल होता है पर जब किसी को क्षमा करना हो तो अहंकार आड़े आ ही जाता है। वो तो भला हो वीरचंद्र का जो सबको संमार्ग  ही दिखाते हैं। उन्होंने ने न जाने कितने लोगों को माफ किया और आगे बढ़ चले। सच ही कहा गया है। सिर पर ज्यादा बोझ हो तो चलना मुश्किल होता है ।

मजे की बात ये है कि अधिकांश लोग पूर्वाग्रही होते हैं। वे एक ही रंग का चश्मा पहन कर दुनिया को बदलने चल पड़ते हैं। अरे भई जब तक स्वयं को नहीं बदलोगे तब तक कुछ भी बदलने से रहा। कब तक कुएँ के मेढ़क की तरह उछल कूद करते रहोगे। कभी नदी का सफर भी करो। कैसे वो प्रपात बनाती हुई चलती है। तट का पहरा अवश्य ही उसके ऊपर रहता है। पर अपने लक्ष्य को साधकर आगे बढ़ने में उसे महारत हासिल होती है। सागर में समाहित होकर भी अपना अस्तिव व पहचान बनाए रखती है। उद्गम से चलते हुए न जाने कितनी बाधाओं को पार करना पड़ता है। कई छोटी – बड़ी नदियों के साथ संगम बनाती हुई,  रास्ते के कूड़े- करकट, नालियों का पानी सबको आत्मसात कर निरंतर चरैवेति – चरैवेति के सिद्धांत पर अड़िग होकर बढ़ती जाती है ।

सिक्के के एक पहलू से दूसरे पहलू की मित्रता कभी हो ही नहीं सकती ये तो दिन- रात की भांति दिखते हैं। कभी हेड तो कभी टेल बस जिस नज़र से दिखेंगे वही दिखेगा। यहाँ फिर से बात नजरिए पर आ टिकी,  सोच बदलो जीवन बदल जायेगा। ये बदलाव भी आखिर क्या चीज है। बदलू जिसे अपनाकर इतिहास रच रहा है। बदला लेने के लिए लोग क्या- क्या नहीं कर बैठते। औरंगजेब को देखिए उसने तो बदले की सभी हदें पार कर दी थीं । अपने पिता शाहजहां को बूंद- बूंद पानी के लिए तरसा दिया था। जरा सोचिए हमारी परंपरा तो प्याऊ लगवाने की रही है वहाँ ऐसा घोर अनाचार,  आखिर ये भी तो बदलापुर की बदलागिरी ही लगती है ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 68 ☆ आमने-सामने -4 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार सुश्री अलका अग्रवाल सिगतिया जी ( मुंबई ) एवं श्री शशांक दुबे जी  ( मुंबई ) के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 68

☆ आमने-सामने  – 4 ☆

अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) – 

प्रश्न- 

आपने परसाईं जी का साक्षात्कार  भी किया है।

उस साक्षात्कार  के अनुभव क्या रहे?

आज यह कहा जा रहा है, व्यंग्यकार खुल कर नहीं  लिख रहे,अक्सर व्यंग्य  चर्चाओं  में  बहस छोड़ रही है ।

कितने सहमत  हैं, आप?

क्या अभिव्यक्ति  के खतरे पहले नहीं  थे?

आपके लेखन में आप इसे कितना  उठाते हैं, या स्टेट बैंक  के मुख्य प्रबंधक  पद  पर रहकर उठाए?

परसाई जी से आप अपने लेखन  को लेकर चर्चा  करते थे?

 

जय प्रकाश पाण्डेय – 

अलका जी की कहानियां हम 1980 से पढ़ रहे हैं, कहानियां मासिक चयन (भोपाल) पत्रिका में हम दोनों अक्सर एक साथ छपा करते थे। उन्हें परसाई जी का आत्मीय आशीर्वाद मिलता रहा है।

वे परसाई जी के बारे में सब जानतीं हैं। पर चूंकि प्रश्र किया है इसलिए थोड़ा सा लिखने की हिम्मत बनी है।

सुंदर नाक नक्श, चौड़े ललाट,साफ रंग के विराट व्यक्तित्व परसाई जी से हमने इलाहाबाद की पत्रिका कथ्य रूप के लिए इंटरव्यू लिया था। हमने उनकी रचनाओं को पढ़कर महसूस किया कि उनकी लेखनी स्याही से नहीं खून से लेख लिखती थी, व्यंग्य करती थी और हृदय भेदकर रख देती थी। परसाई जी से हमारे घरेलू तालुकात थे, ऐसे विराट व्यक्तित्व से इंटरव्यू लेना बड़े साहस का काम था। इंटरव्यू के पहले परसाई जी कुछ इस तरह प्रगट हुए जैसे अर्जुन के सामने कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उनके विराट रूप और आभामंडल को देखकर हमारी चड्डी गीली हो गई, पसीना पसीना हो गये क्योंकि उनके सामने बैठकर उनसे आंख मिलाकर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हुई, तो टेपरिकॉर्डर छोटा था हमने बहाना बनाया कि टेपरिकॉर्डर पुराना है आवाज ठीक से रिकार्ड नहीं हो रही और हमने उनके सिर के तरफ बैठकर सवाल पूछे। परसाई जी पलंग पर अधलेटे जिस ऊर्जा से बोल रहे थे, हम दंग रह गए थे।

हमारा सौभाग्य था कि हमारी पहली व्यंग्य रचना परसाई ने पढ़ी और पढ़कर शाबाशी दी, और लगातार लिखते रहने की प्रेरणा दी।

आजकल बहुत से व्यंंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे हैं, इस बारे में आदरणीय शशांक दुबे जी  के उत्तर में स्पष्ट कर दिया गया है।

 

श्री शशांक दुबे (मुंबई) – 

पाण्डेय जी आपको व्यंग्य के बहुत बड़े हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। परसाई जी के दौर के व्यंग्यकारों के बौद्धिक व रचनात्मक स्तर में और आज के दौर के व्यंग्यकारों के स्तर में आप कोई अंतर देखते हैं?

 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई दुबे जी, वास्तविकता तो ये है कि जब परसाई जी बहुत सारा लिख चुके थे, उन्होंने 1956 में वसुधा पत्रिका निकाली, उसके दो साल बाद हमारा धरती पर आना हुआ। बड़ी देर बाद परसाई जी के सम्पर्क में आए 1979 से। पर हां 1979से 1995 तक उनका आत्मीय स्नेह और आशीर्वाद मिला।

परसाई और जोशी जी के दौर के व्यंंग्यकार त्याग, तपस्या, संघर्ष की भट्टी में तपकर व्यंग्य लिखते थे,उनका जीवन यापन व्यंग्य लेखन से होता था, उनमें सूक्ष्म दृष्टि, गहरी संवेदना, विषय पर तगड़ी पकड़ के साथ निर्भीकता थी ।आज के समय के व्यंग्यकारों में इन बातों का अभाव है। परसाई जी, जोशी जी के दिमाग राडार के गुणों से युक्त थे,वे अपने समय के आगे का ब्लु प्रिंट तैयार कर लेते थे, उन्हें पुरस्कार और सम्मान की भूख नहीं थी। बड़े बड़े पुरस्कार उनके दरवाजे चल कर आते थे।आज के अधिकांश व्यंग्यकार अवसरवादी, सम्मान के भूखे, पकौड़े छाप जैसी छवि लेकर पाठक के सामने उपस्थित हैं और इनके अंदर बर्र के छत्ते को छेड़ने का दुस्साहस कहीं से नहीं दिखता।

क्रमशः ……..  5

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #80 ☆ व्यंग्य – उल्लू जिंदाबाद! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य  उल्लू जिंदाबाद !  इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 80 ☆

☆ व्यंग्य उल्लू जिंदाबाद ! ☆

अमेरिका में गधे और हाथी की रेस में गधे जीत गए बाईडेंन का चुनाव चिन्ह गधा था, और ट्रम्प का हाथी।

चुनावो के समय अपने देश मे भी अचानक २००० रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आती है,  मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा होता हूं कि २००० के गुलाबी नोट धीरे धीरे  काले हो रहे हैं.

अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय १० ढ़ोकलों  में बिके.  सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं.  राजस्थान में ऊंटों में सौदे होते हैं।

सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग जाती हैं  और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही देती.  माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया ,  किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो  किसी एफ एम  से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है,  सारे जन प्रतिनिधियो ने दल बल सहित वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया.  लगता है कि क्षेत्रीय दल,  राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं,  सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट,  नित नये दल बदल,  इस्तीफे, के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं.  हार्स ट्रेडिंग सुर्खियों में है। यानी घोड़ो के सौदे भी राजनीतिक हैं।

रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से,  रोष और तैश में बातें हो रहीं थी.  चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को  हार्स ट्रेडिंग  कहना घोड़ो का  सरासर अपमान है.  घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है.  चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी, टीपू सुल्तान,  महारानी लक्ष्मीबाई  की घोड़े के साथ  प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है.  अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े,   बादल,  राजा, पवन,  सारंगी,  जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं.  धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा.  अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है. राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी,  जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं. बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है.  यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं.  फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है,  फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की.  शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं.  एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले  ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं.  घोड़े अपने मालिक के प्रति  सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है.

वाक्जाल से,  उसूलो से उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं.  अंतर्आत्मा की आवाज  वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये इस्तेमाल करते हैं.   नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं.  पार्टी अदलते बदलते रहते हैं  पर नेताजी टिके रहते हैं.  गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा,  आपका हुआ था.  कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही  तोड़ पाती.   यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही  हैं !

वो उल्लू होते हैं,  और उल्लू लक्ष्मी प्रिय हैं,  वे रात रात जागते हैं,  और सोती हुईं गाय सी जनता के काम पर लगे रहते हैं । इसलिए अपना नारा है,  उल्लू जिंदाबाद!

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #79 ☆ व्यंग्य – आश्वासन के सम्मान में वोट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य  आश्वासन के सम्मान में वोट ।  इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 79 ☆

☆ व्यंग्य आश्वासन के सम्मान में वोट ☆

हम भारत के लोग सदा से आश्वासन का सम्मान करते आये हैं. प्रत्येक चुनाव में हर पार्टी के घोषणा पत्र निखालिस आश्वाशन ही तो होते हैं, जिनके सम्मान में नेता जी सादर चुन लिये जाते हैं.  सरकारें बन जाती हैं फिर आश्वाशन पूरे हों न हों यह जनता के भाग्य पर निर्भर करता है. हम स्वयं अपने वोट से उत्साह पूर्वक अपने ही उपर राज करने के लिये चार किंबहुना समान चेहरो मे से किसी न किसी को चुन ही लेते हैं वह भी केवल उसके आश्वाशन का सम्मान करते हुये.

डाक्टर मरीज को आश्वासन देता है और बीमार महंगी दवाइयों पर भरोसा कर लेता है. बच्चे को माता पिता ईनाम का आश्वासन देते हैं और वह उसके सम्मान में मन लगाकर पढ़ने बैठ जाता है. पति पत्नी एक दूसरे को रोज दिये जाते  आश्वासनो की पूर्ति में दाम्पत्य की इबारत लिखते रहते हैं. मालिक नौकर को वेतन बढ़ाने का आश्वासन देते हैं और वह उसके सम्मान में एक आशा के साथ महीनों निकाल देता है. मतलब हम सदा से आश्वासन का सम्मान करते आये हैं.

सामान्यतः सम्मान पोस्टपेड एक्टिविटी होती है. पहले लोग अपना सर्वस्व दांव पर लगा देते हैं, एक जुनून के पीछे. तब कहीं व्यक्ति के कार्य फलीभूत होते हैं और जब धरातल  पर प्रयास कार्य में परिणित हो जाते हैं तब जब समाज उनका मूल्यांकन करता है तब बारी आती है सम्मान की. पर संयुक्तराष्ट्र संघ ने चैम्पियन्स आफ अर्थ का प्रतिष्ठापूर्ण सम्मान हमारे प्रधान मंत्री जी को प्रदान किया है.  वास्तव में यह हर भारत वासी के लिये गर्व की बात है. मैं  भी बहुत प्रसन्न हुआ. न केवल इसलिये कि प्रधानमंत्री जी के सम्मान से दुनियां में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है बल्कि इसलिये भी कि संयुक्त राष्ट्र संघ  आश्वासन पर यह सम्मान देता है.  यह सम्मान कार्य होने से पहले ही कार्य के आश्वासन का है. हमारे प्रधानमंत्री जी ने एक संकल्प, एक ढ़ृड़ता एक कमिटमेंट प्रदर्शित किया है कि २०२२ तक एकल उपयोग वाली सभी तरह की प्लास्टिक को भारत से हटा दिया जावेगा.इसी तरह उन्होने सोलर पावर के उपयोग के प्रति भी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है  यह असाधारण नेतृत्व क्षमता सचमुच सम्मान योग्य है. संयुक्त राष्ट् संघ ने प्रधानमंत्री जी के इस महत्वपूर्ण कमिटमेंट को चेंपियन्स आफ अर्थ पुरस्कार से रिकगनाईज किया है.

ऐसे पुरस्कारो से सम्मान करने वाली संस्थाओ को प्रेरणा लेनी चाहिये.मतलब यह कि न केवल परिणामो का सम्मान हो बल्कि परिणामो के लिये प्रतिबद्धता का भी सम्मान किया जाना चाहिये. सम्मान केवल काम करने पर ही नही अब काम करने की योजनाओ पर भी दिये जाने शुरू कर दिये जाने चाहिये जिससे समाज में और रचनात्मक व सकारात्मक वातावरण बने.

यानी मैं उन अकादिमियो की ओर आशा भरी निगाहो से देख रहा हूं जो सम्मान के लिये प्रविष्टियां बुलाती हैं. नामांकन में आवेदन के प्रारूप में प्रकाशित पुस्तको की प्रतियां मांगती हैं. अब इसमें संशोधन की गुंजाइश है. किताब लिखने के संकल्प पर, लेखन के कमिटमेंट पर भी संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुकरण करते हुये पुरस्कार दिया जा सकता है.

खैर लेखन के आश्वासन पर जब पुरस्कार मिलेंगे तब की तब देखेंगे, फिलहाल फ्री वेक्सीन, फ्री लैपटाप, लाखों नौकरियो  के आश्वासनो के सम्मान में न सही अवार्ड कम से कम वोट तो दे ही रहे हैं हम.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 40 ☆ बदलू और बदलागिरी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलू और बदलागिरी”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 40 – बदलू और बदलागिरी☆

वक्त बदलता है ये तो सही है, पर पूरा कार्य करवाने के बाद न पहचानना,ये खूबी कुछ लोगों में ही पायी जाती है। ऐसी ही कहानी है बदलू की, जो दलबदल करने वाले लोगों से भी एक हाथ आगे जाकर अपनी रणनीति बनाता है। नीति कोई भी हो, शोध की हद पार करते ही सबको समझ में आने लगती है। कुछ लोग मौनव्रत धारी होते हैं। ठीक समय पर हाजिर होकर हाजिरी लगवाई और चलते बनें।

हाजिरी लेने वाले भी ऐसे लोगों से ही दोस्ती रखते हैं। आखिर शो बाजी का जमाना जो ठहरा। थोड़ा बहुत दिखावा किया और शो मैन बनकर चलते बनें। काम करने वाला करता रहे, उससे किसी को कोई लेना देना नहीं होता। बदलू जी के पास वैसे भी कोई ज्यादा देर टिकता ही नहीं है।

दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेंकने में इन्हें महारथ हासिल है। पर मक्खी तो स्वभाव से ही मीठे पर मंडराने वाली होती है। सो भिन- भिन करती हुई उड़ती रहती है। कुछ लोग जो  बैठे हारे मक्खी मारते रहते हैं, वे तो हमेशा ऐसा ही करेंगे पर बदलू अपनी बात पर अड़िग ही नहीं रह सकता सो कोई न कोई नया आयोजन करता रहता है। सच तो ये है जब कोई कार्य अच्छा हो तो उसे अपना बनाकर आधिपत्य हासिल करने में जो मजा है वो और कहीं नहीं हो सकता। ऐसे ही ये क्रम चलता चला आ रहा है क्योंकि लोग बदलागिरी से दूर रहकर शांति प्रिय जीवन जीना चाहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 ☆ आमने-सामने -3 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री मुकेश राठौर जी , खरगोन  के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 

☆ आमने-सामने  – 3 ☆

श्री मुकेश राठौर (खरगौन) – 

प्रश्न-१ 

आप परसाई जी की नगरी से आते है| परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में तत्कालीन राजनेताओं,राजनैतिक दलों और जातिसूचक शब्दों का भरपूर उपयोग किया | क्या आज व्यंग्यलेखक के लिए यह सम्भव है  या फ़िर कोई बीच का रास्ता है ?ऐसा तब जबकि रचना की डिमांड हो सीधे-सीधे किसी राजनैतिक दल,राजनेता या जाति विशेष के नामोल्लेख की|

प्रश्न- २

कथा के माध्यम से किसी सामाजिक, / नैतिक विसंगति की परतें उधेड़ना। बग़ैर पंच, विट, ह्यूमर के |ऐसी रचना कथा मानी जायेगी या व्यंग्य?

जय प्रकाश पाण्डेय १ –

मुकेश भाई, व्यंग्य लेखन जोखिम भरा गंभीर कर्म है, व्यंग्य बाबा कहता है जो घर फूंके आपनो, चले हमारे संग। व्यंग्य लेखन में सुविधाजनक रास्तों की कल्पना भी नहीं करना चाहिए, लेखक के लिखने के पीछे समाज की बेहतरी का उद्देश्य रहता है। परसाई जी जन-जीवन के संघर्ष से जुड़े रहे,लेखन से जीवन भर पेट पालते रहे,सच सच लिखकर टांग तुड़वाई,पर समझौते नहीं किए, बिलकुल डरे नहीं। पिटने के बाद उन्हें खूब लोकप्रियता मिली, उनकी व्यंग्य लिखने की दृष्टि और बढ़ी।लेखन के चक्कर में अनेक नौकरी गंवाई। व्यंंग्य तो उन्हीं पर किया जाएगा जो समाज में झूठ, पाखंड,अन्याय, भ्रष्टाचार फैलाते हैं, व्यंग्यकार तटस्थ तो नहीं रहेगा न, जो जीवन से तटस्थ है वह व्यंंग्यकार नहीं ‘जोकर’ है। यदि आज का व्यंग्य लेखक तत्कालीन भ्रष्ट अफसर या नेता या दल का नाम लेने में डरता है तो वह अपने साथ अन्याय करता है। आपने अपने सवाल में अन्य कोई बीच के रास्ते निकाले जाने की बात की है, तो उसके लिए मुकेश भाई ऐसा है कि यदि ज्यादा     डर लग रहा है तो उस अफसर या नेता की प्रवृत्ति से मिलते-जुलते प्रतीक या बिम्बों का सहारा लीजिए, ताकि पाठक को पढ़ते समय समझ आ जाए। जैसे आप अपने व्यंग्य में सफेद दाढ़ी वाला पात्र लाते हैं तो पाठक को अच्छे दिन भी याद आ सकते हैं।पर आपके कहने का ढंग ऐसा हो, कि ऐसी स्थिति न आया…….

रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग-पताल।

आप तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।

जय प्रकाश पाण्डेय – २

मुकेश जी, व्यंग्य वस्तुत:कथन की प्रकृति है कथ्य की नहीं।कथ्य तो हर रचना की आकृति देने के लिए आ जाता है। आपके प्रश्न के अनुसार यदि कथा के ऊपर कथन की प्रकृति मंडराएंगी तो वह व्यंग्यात्मक कथा का रुप ले लेगी।

क्रमशः ……..  4

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