श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 14 ☆

☆ व्यंग्य – मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार  ☆

दोस्तों, आज हम आपको बताते हैं कि कैसे एक आर्किटेक्ट एक बिल्डिंग का पूरा कैरेक्टर बदल सकता है. अब आप ताजमहल को ही लीजिये. कालिंदी किनारे, सुरम्य वातावरण में खड़ी की गई भव्य, खूबसूरत, नायाब इमारत को अपना रेजिडेंस बनाना कौन नहीं चाहेगा ? लेकिन शाहजहाँ ने ऐसा नहीं किया, उसने उसमें मकबरा बनाने का फैसला किया तो इसके पीछे एक महान आर्किटेक्ट की अहम् भूमिका रही है. इतिहास में जो अब तक दर्ज नहीं किया जा सका वो काल्पनिक किस्सा संक्षेप में कुछ इस तरह से है.

जैसा कि आपको पता ही है ताजमहल मुग़ल शासक शाहजहाँ ने क्रोनोलॉजी के हिसाब से अपनी बेगम क्रमांक दो मुमताज़-महल के मरने के बाद बनवाया था, मगर उसका शुरूआती इरादा इसे मकबरा बनाने का नहीं था. वो अपनी नेक्स्ट बेगम के साथ वहाँ एक थ्री बीएचके विथ लॉन एंड कवर्ड पार्किंग बनवाकर बाकी की जिंदगी सुकून से गुजारना चाहता था, मगर आर्किटेक्ट ने आलीशान इमारत तान दी. वो महज रसोईघर में संगेमरमर लगवाने के मूड में था, आर्किटेक्ट ने पूरी बिल्डिंग संगेमरमर की तामीर कर दी. आर्किटेक्चर की ये महान परम्परा आज भी जारी है – आप कॉम्प्लेक्स डिझाइन करवाईये आर्किटेक्ट होटल बना देगा, होटल कहेंगे तो अस्पताल तान देगा, और अस्पताल कहेंगे तो मॉल खड़ा कर देगा. कभी कभी तो किसी बिल्डिंग को देखकर आप हैरत में पड़ जाते हैं कि यार ऐसा बेहूदा स्ट्रक्चर खड़ा करने में कितनी बेवकूफियाँ लगीं होंगी. बहरहाल, पठ्ठे ने एक न्यारा सा बंगला बनाने के चक्कर में एक भव्य इमारत बना दी, तब भी वो इमारत रेजिडेंस के लायक नहीं बन सकी.

हुआ ये कि रेजिडेंस शिफ्ट करने से पहले एक रोज़ बादशाह अपनी बेगम क्रमांक तीन के साथ मुआईना करने गये कि आखिर कैसा बना है नया आशियाना. उन्होंने पाया कि आर्किटेक्ट वॉश एरिया निकालना तो भूल ही गया. फटकारे जाने पर उसने कहा – ‘जहाँपनाह, नये डिजाईन के घरों में वॉश एरिया का चलन खत्म हो गया है. मुल्क में जो फिरंगी आना शुरू हुवे हैं उनसे पूछ लीजिये. विलायत में बने उनके घरों में वॉश एरिया नहीं होता. घर में कहीं भी वॉश करने की फ्रीडम बड़ी चीज़ है. और फिर आप तो ठहरे शहँशाह, जहाँ मन करे वॉश करें आप.’ मन तो किया बादशाह का कि इस खूबसूरत बहानेबाज़ी पर इस साले को इन्हीं दीवारों में जिंदा चुनवा दें. मगर वो मन मसोस कर रह गया.

हर कालखंड में आर्किटेक्ट कभी सिर्फ आर्किटेक्ट नहीं रहे, वे वकील भी होते हैं, अपने किये धरे के पक्ष में कैसी भी दलील दे सकते हैं. वे डिप्लोमेट भी होते हैं, आप उनके जवाब में कोई भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं. वे तर्कशास्त्री भी होते हैं, वे दरवाजे को खिड़की, खिड़की को झरोखा, झरोखे को उजालदान, उजालदान को दरीचा निरुपित कर सकते हैं. एक सफल आर्किटेक्ट उन सारी प्रमेयों को हल कर सकता है जो बड़े बड़े गणितज्ञ अभी तक नहीं कर पाये. उनके कुतर्क मालिक-ए-मकाँ की जेनुइन जरूरतों पर भारी पड़ते हैं.

बेगम ने रसोईघर का मुआईना करते हुवे पूछा – “यहाँ चूल्हा रखेंगे तो पानी का नल कहाँ लगेगा ?” बादशाह ने इस पर आर्किटेक्ट की ओर घूर कर देखा.

“जान की अमान हो जहाँपनाह, पीछे कालिंदी कल-कल बह रही हैं. बेगम साहिबा चाहेंगी तो हम उसकी एक पूरी नहर आपकी रसोई में से होती हुई बाहर की तरफ निकाल देंगे. चौबीस घंटे नेचुरल वाटर. रियाया में आपकी कुदरत से बेपनाह मोहब्बत का डंका बजने लगेगा.” बादशाह ने जान की अमानत नहीं दी होती तो अब तक तो सर कलम करवा दिया होता. आगे बढ़े – “और ये इतने बड़े बड़े गुसलखाने ? आरामखाना इतना छोटा और अटैच्ड गुसलख़ाना इतना बड़ा ?”

“जहाँपनाह, नाचीज़ आपके गुसलख़ाने में गाने का शौक से वाकिफ़ है. आप जब तक चाहें, जितना चाहें, घूम घूम कर गा सकें इसीलिये गुसलख़ाने आरामखानों से दोगुना बड़े रखे गये हैं.”

“और इसमें कमोड लगाने को कहा गया था तुम्हें वो.”

“जहाँपनाह, इन्डियन स्टाईल में घुटनों की एक्सरसाईज हो जाती है इसीलिए खुड्डीवाली लगवा दी है.” गुस्से में दांत पीस लेता बादशाह मगर मसूड़े कमजोर हो चले थे सो नहीं पीस पाया.

“और ये पार्किंग की जगह इतनी कम छोड़ी है, हम अपनी शाही बग्घी खड़ी कहाँ करेंगे ?”

“वो तो कोचवान आपको छोड़कर अपने घर ले जायेगा. पार्किंग में स्पेस वेस्ट क्यों करना जहाँपनाह.”

अब तक आगबबूला हो चुका था बादशाह. यही आर्किटेक्ट था जो पीछे पीछे चल रहे वजीर के मकान के काम लगा चुका था. उसने मौका मुनासिब जानकर पूछा – “जहाँपनाह भूस लाया हूँ साथ में, भरवा दूं इसकी खाल में ?”

आर्किटेक्ट ने बादशाह के लिये कुछेक ऐशगाहें बेगम से छुपाकर बनाईं थीं. राज़ खुल जाने के डर से उसने उस समय तो मना कर दिया मगर कहते हैं बाद में उसके हाथ कटवा दिये. सोचा कम से कम उसके हाथों अब और किसी के मकान का डिझाईन खराब न हो.

इस बीच बेगम ने इसरार किया कि अब जैसा भी है उसी में शिफ्ट कर लेते हैं मगर इंटीरियर कराना पड़ेगा. बादशाह इंटीरियर का खर्च सोचकर ही डर गया. सोने से घड़ावन महँगी. इमारत से ज्यादा लागत इंटीरियर की. ताजमहल पूरा करने में एक बारगी तो पूरा खजाना खाली हो चला था. जो इंटीरियर कराता बादशाह तो उधार लेना पड़ता. अब उस समय आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक जैसी एजेंसियां तो थी नहीं कि सार्वभौम मुग़ल सल्तनत को आसान शर्तों पर लोन दे सके, कि लीजिये युवर मेजेस्टी हमने आपके लिये ईएमआई कम कर दी है और कोई प्रोसेसिंग शुल्क भी नहीं.

तब बादशाह ने एक अकलमंदी का काम किया. उसने फ़ौरन से पेश्तर रेजिडेंस शिफ्ट करने का फैसला रद्द किया. फिर ऊपर नीली छतरी की ओर देखकर मरहूम बेगम मुमताज़-महल को याद किया. बुदबुदाये – ‘बेगम ये इमारत हम आपके मकबरे के लिये मुकम्मल करते हैं. इस निकम्मे तामीरगार की वजह से हम इसमें रहने तो नहीं आ सकेंगे, अलबत्ता मरने के बाद आपके बगलगीर जरूर होंगे. हमारी मोहब्बत का यह बुलंद शाहकार क़ुबूल फरमायें.’

दोस्तों, इस तरह एक आर्किटेक्ट की कुछ मासूम गुस्ताखियों ने दुनिया को मोहब्बत का खूबसूरत स्मारक भेंट किया है. सो, द रियल ट्रिब्यूट गोज टू द आर्किटेक्ट.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments