हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 120 ☆ वैचारिक तरक्की ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 120 ☆

☆ वैचारिक तरक्की ☆ 

युक्त, अभियुक्त, प्रयुक्त, संयुक्त, उपयुक्त ये सब कहने को तो आम  बोलचाल के हिस्से हैं किंतु इनके अर्थ अनेकार्थी होते हैं। कई बार ये हमारे पक्ष में दलील देते हुए हमें कार्य क्षेत्र से मुक्त कर देते हैं तो कई बार कटघरे में खड़ा कर सवाल-जबाब करते हैं।

क्या और कैसे जब प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ प्रयुक्त होता है तो बहुत सारे उत्तर अनायास ही मिलने लगते हैं। पारखी नजरें इसका उपयोग कैसे हो इस पर विचार- विमर्श करने लगतीं हैं। त्योहारों व धार्मिक किरदारों के साथ छेड़छाड़ मिथ्या कथानक बना देते हैं। क्रमशः विकास अच्छी बात है किंतु जो ऐतिहासिक धरोहर हैं, इतिहास हैं, हमारे संस्कार से जुड़े तथ्य हैं उनमें मनमानी करना किसी भी हद तक सही नहीं कहा जा सकता।

स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी लिखना व उसके अनुरूप चित्रांकन कर आम जनता को बरगलाना क्या सकारात्मक विचारधारा को तोड़ने जैसा नहीं होगा। सबका सम्मान हो इसके लिए किसी आधारभूत स्तम्भों को तोड़ना- मरोड़ना नहीं चाहिए। सूरज को पश्चिम से निकालना, धूप को शीतल करना, चंद्रमा को कठोर बताना क्या सही होगा। इससे हमारे आगे का भविष्य एक ऐसे दो राहे पर खड़ा मिलेगा जो ये नहीं समझ पायेगा की जो बातें हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं वो सही हैं या जो फिल्में दिखाती हैं वो? वैसे भी धार्मिक आदर्शों को कार्टून द्वारा मनोरंजन के नाम पर बदल कर रख दिया गया है। एक प्रश्न आप सभी से है कि क्या इस तरह के बदलाव हमारे लिए उचित होंगे। वैचारिक तरक्की के नाम पर  कहीं हम अपना अस्तित्व तो नहीं खो देंगे?

खैर कुछ भी हो अपनी संस्कृति से अवश्य जुड़ें। अच्छा साहित्य पढ़ें और पढ़ाएँ क्योंकि यही आपको उचित- अनुचित का भान कराएगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 119 ☆ सुधारीकरण की आवश्यकता ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 119 ☆

☆ सुधारीकरण की आवश्यकता ☆ 

दूसरों को सुधारने की प्रक्रिया में हम इतना खो जाते हैं कि स्वयं का मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में गलत रास्ते पर चल देना आजकल आम बात हो गयी है। पुरानी कहावत है चौबे जी छब्बे बनने चले दुब्बे बन गए। सब कुछ अपने नियंत्रण करने की होड़ में व्यक्ति स्वयं अपने बुने जाल में फस जाता है। दो नाव की सवारी भला किसको रास आयी है। सामान्य व्यक्ति सामान्य रहता ही इसीलिए है क्योंकि वो पूरे जीवन यही तय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना है। कभी इस गली कभी उस गली भटकते हुए बस माया मिली न राम में गुम होकर पहचान विहीन रह जाता है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि एक ओर ध्यान केंद्रित करें। सर्वोच्च शिखर पर बैठकर हुकुम चलाने का ख्वाब देखते- देखते कब आराम कुर्सी छिन गयी पता ही नहीं चला। वो तो सारी साजिश तब समझ में आई कि ये तो खेला था मुखिया बनने की चाहत कहाँ से कहाँ तक ले जाएगी पता नहीं। अब पुनः चौबे बनना चाह रहे हैं, मजे की बात दो चौबे एक साथ कैसे रहें। किसी के नियंत्रण में रहकर आप अपना मौलिक विकास नहीं कर सकते हैं। समय- समय पर संख्या बल के दम पर मोर्चा खोल के बैठ जाने से भला पाँच साल बिताए जा सकेंगे। हर बार एक नया हंगमा। जोड़ने के लिए चल रहे हैं और  स्वयं के ही लोग टूटने को लेकर शक्तिबल दिखा रहे हैं। देखने और सुनने वालों में ही कोई बन्दरबाँट का फायदा उठा कर आगे की बागडोर सम्भाल लेगा। वैसे भी लालची व्यक्ति के पास कोई भी चीज ज्यादा देर तक नहीं टिकती तो कुर्सी कैसे बचेगी। ऐसे में चाहें जितना जोर लगा लो स्थिरता आने से रही। हिलने- डुलने वाले को कोई नहीं पूछता अब तो स्वामिभक्ति के सहारे नैया पार लगेगी। समस्या ये है कि दो लोगों की भक्ति का परीक्षण कैसे हो, जो लंबी रेस का घोड़ा होगा उसी पर दाँव लगाया जाएगा। जनता का क्या है कोई भी आए – जाए वो तो मीडिया की रिपोर्टिंग में ही अपना उज्ज्वल भविष्य देखती है। ऐसे समय में नौकरशाहों के कंधे का बोझ बढ़ जाता है व उनकी प्रतिभा, निष्ठा दोनों का मिला- जुला स्वरूप ही आगे की गाड़ी चलता है। कुल मिलाकर देश की प्रतिष्ठा बची रहे, जनमानस इसी चाहत के बलबूते सब कुछ बर्दाश्त कर रहा है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ इससे अधिक ताजा क्या? ☆ श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ ☆

श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

(श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ जी हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं  (लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हायकु-चोका आदि)  की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आप एक अच्छी ब्लॉगर हैं। कई सम्मानों / पुरस्कारों  से सम्मानित / पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपकी कई रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं एवं आकाशवाणी के कार्यक्रमों में प्रसारित हो चुकी हैं। ‘रोशनी के अंकुर’ लघुकथा एकल-संग्रह प्रकाशित| आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य ‘इससे अधिक ताजा क्या?‘. हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करने की अपेक्षा करते हैं।)

 ☆ व्यंग्य – इससे अधिक ताजा क्या? ☆ सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ ☆

संपादक महोदय ने साहित्यकारों से ताजा-तरीन व्यंग्य ऐसे माँगा जैसे, फूल वाले से ग्राहक ताजा-तरीन फूल, सब्जी वाले से ताजा सब्जी, फल वाले से ताजे-ताजे फल, मिठाई वाले से ताजा-तरीन मिठाईयाँ। अब ये किसको पता चलता है कि ताजा चीज का दावा करने वाले उपर्युक्त लोग ताजा-ताजा का शोर मचा करके ग्राहक को चूना लगा देते हैं। तो भई व्यंग्यकार भला कैसे पीछे रहे, वह तो इन सब का बाप होता है। इन सबका क्या, वह तो सबका बाप बनने हेतु प्रयत्नशील रहता है, बन नहीं पाए ये और बात है। व्यंग्यकार से कवि बना मानुष से तो छुटंकी माचिस भी भय खाती है। अपनी हर रचना को ताजा-ताजा कहकर स्टेज पर खड़ा होकर धड़ल्ले से भीड़ के बीच, पुरानी छूटी-बिछड़ी पड़ी कविता को तड़का मारकर परोसकर आग लगा देता है| और बड़ी बेशर्मी से तालियों की माँग भी अपने लिए कर डालता है। जैसे गृहिणी बासी सब्जी को फ्रिज से निकालकर तड़का देकर ताजा कर देती है और घर वालों से तारीफ बटोर लेती है।  कभी- कभी अपनी छूटी-बिछड़ी नहीं, बल्कि इधर-उधर से झपटी गयी रचनाएँ भी सुना मारता है| सोशल साइट पर बिखरे दो लाइनों के हास्य पर वह ऐसे झपट्टा मारता है कि बेचारी चील की प्रजाति देख ले तो शरमा जाय| उसकी यह निर्भीकता साहित्यिक क्षेत्र के उस शगूफे की राह से होकर आयी रहती है, जहाँ यह शोर छाया रहता है कि ‘कोई किसी को पढ़ता नहीं है’। बस इसी पूर्वाग्रह के जाल में मकड़ी की तरह फंस जाता है चौर्यकर्म करने वाला वह खिलाड़ी| क्योंकि चुपके-चुपके ही सही, दूसरों की रचनाओं को पढ़ने वालों की कमी नहीं है। सब एक दूजे को पढ़ते रहते हैं, न अधिक सही, थोड़ा बहुत ही सही| बस कभी-कभी चोरों की किस्मत साथ नहीं देती है तो वे ऐसे पढ़ाकूओं के हत्थे चढ़ जाते हैं, दूसरे की रचना को अपनी कहने वालों पर चुपके-चुपके, चोरी-चोरी पढ़ने वाले आखिरकार नकेल डाल ही देते हैं। यधपि ताजा कह अपनी रचना कहने वाला कवि तब भी अड़ा ही रहता है, अड़ियल बैल क्या अड़ेगा उसके सामने।

 इस ताजे-ताजे की गुगली स्वप्रिय खेल तक सीमित नहीं है, इसका क्षेत्रफल उतना ही विशाल है जितना कि, हमारे देश में भ्रष्टाचार का खेल। इस ताजा के चक्कर में अपनी रचनाओं को ताजा अप्रकाशित कहकर पत्रिकाओं में ठिकाने लगाने वाले लोग पत्रिका तक नहीं रुकते हैं, बल्कि प्रतियोगिताओं में भी सेंध करने का प्रयत्न करते हैं। ताजा लिख न पाएं तो दूसरे साहित्यकारों की सोशल मीडिया पर घूमती रचनाओं को पकड़ते हैं, अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देते हुए उसके ढाँचे में फेरबदल करते हैं, और ताजा-तरीन कहकर पेश कर देते हैं सबके सामने।

मात वही खाते हैं जो इस क्षेत्र में नवागत होते हैं या फिर उनकी बुद्धि गधों से आयातित हुई होती है। कुछ बैल बुद्धि वाले भी प्रकट कृपालु की तरह प्रकट होते हैं और आरोप-प्रत्यारोप से आहत हुए बिना बैल से डटे रहते हैं कि भई रचना मेरी ही है। भले सबूत-दर-सबूत पेश किए जाते रहें। इस किस्म की प्रजाति झेंपने वाली जात-बिरादरी से नहीं होती है कि गदहे की तरह सब कुछ सुनकर चुप हो जाए| ये उस किस्म के गधे नहीं हैं जो धोबी के घर पाये जाते हैं, ये नेताओं के आगे-पीछे घूमने वाले गधे हैं| अतः प्रत्यारोप अधिक होने पर ‘क्या कर लोगे!’ कहकर दुलत्ती जमाकर अपने चौर्यकर्म में मेहनत और लगन पूर्वक पुनः जुट जाते हैं| आखिर परवाह क्योंकर करें, उन्हें भी तो किताबों के पहाड़ में अपनी आहुति डालनी होती है| पुस्तकों की गिनती बढ़ाने के लिए सबसे आवश्यक कार्य यह हेराफेरी ही तो है, और कई-कई गदहें इस अभूतपूर्व कार्य में लगे हुए हैं| उन्हें लगे रहने दीजिए साहेब, वैसे भी आप रोक भी नहीं सकते हैं| जब रोक नहीं सकते हैं तो फिर उन्हें बासी रचनाओं  से ताजा रचनाएँ बनाने दीजिए| कभी न कभी धोबी उन्हें खुद ही धोबिया पछाड़ दे देगा| 

हम कर रहे थे बैलों की बात और पहुँच गए फिर गदहों पर| समस्या वहाँ ही बार-बार पहुँचने की नहीं है, बल्कि समस्या प्रवृत्ति की है| इन्सान बलिष्ठ को छोड़कर कमजोर को सताने, उसकी किरकिरी करने में अपना समय अधिक खपाता है| यह  पूर्वाग्रह नहीं है प्रत्युत सौ-प्रतिशत सच है| बैल बचकर निकल जाते हैं और बेचारे गदहों को सैकड़ों बातें सुनाई जाती हैं| बैल को छेड़ने की हिम्मत किसी में है ही नहीं| ‘बैल बुद्धि’ की कहावत न जाने क्यों कही गयी, ‘गदहा बुद्धि’ कहावत क्यों नहीं बनी| ये जो बैल, साहित्य के क्षेत्र में घूमते हुए दूसरों की ताजा-ताजा रचनाएँ चर ले रहे हैं खुल्लम-खुल्ला, उनका क्या! बैल बुद्धि के होते तो इतनी सफाई से चर लेते और पता भी न चलता? हमें लगता है जो बैल, साहित्य में विद्वान हैं वे गदहों को मात दे रहे हैं| डंके की चोट पर लोगों की रचना उड़ाते हैं, टोंको तो घुघुआते हैं। यही रुके तो भी ठीक परन्तु ये दो कदम और आगे बढ़ते हैं और उसे अपनी लेखन कला से तिकड़म करके उसमें अपना रंग भरते हैं कि कहीं से से भी चोरी की प्रतीत न हो| तदुपरांत ताजातरीन कहकर सोशल मीडिया पर बिखरा देते हैं| दूसरों के आँखों में धूल झोंकने की ये इनकी सामान्य प्रक्रिया हो गयी है। कोई बोले तो बैल तो हैं ही और उनका दबदबा होता ही है, अतः ये गदहे की तरह दुलत्ती मारकर चारों खाने चित्त करने में विश्वास नहीं रखते हैं बल्कि सीधे सामने वाले के दिमाग पर वार करते हैं| इनके सिंघ भी होती है, अब गधे की तो होती नहीं है! अतः इनका वार कभी खाली नहीं जाता, इन्सान का दिमाग सुन्न हो जाता है| वह या तो पीछे हट जाता है, या फिर ब्लैक होल में समा जाता है| बैल हुँकार भरता हुआ मैदान में डटा रहता है और साहित्य के बियाबान जंगल में  विचरण करता है, इनका सानिध्य पाकर गधे भी खुल्लमखुल्ला विचरण करने से बाज नहीं आते हैं| 

 ताजा ताजा रचना है कहकर, दूसरे की बाग़ का फूल  संपादक-प्रकाशक के चरणों में चढ़ाकर साहित्यकार बने फिरते हैं| और ईमानदार, स्वाभिमानी, असल साहित्यकार ब्लैक होल को ही अपनी दुनिया समझ कर कर्मठता से रचता रहता है भावनाओं का संसार या फिर सन्यास ले लेता है|

संपादक जी हम ताजा-ताजा रचना भेज रहे हैं, बासी होने और दूसरे के हाथ साफ़ करने से पहले आपसे विनम्र विनती है संपादक महोदय, कृपा करिए और अपने ताजा-ताजा अंक में इस ताजातरीन रचना को छाप दीजिए वरना बेचारी एक और कलमकार कहीं ब्लैक होल में न समा जाए|  और यह हमारी ताजा रचना बासी होकर
किसी और के हाथ में उछल-कूद करती हुई और अन्य पत्रिकाओं में छपके हमें ही दुलत्ती मारने लगे|

…इति ताजातरीन कथा!

© श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

फ़्लैट नंबर -३०२, हिल हॉउस, खंदारी अपार्टमेंट, खंदारी, आगरा, पिन- 282002

ई-मेल : [email protected]

मो. :  09411418621

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #160 ☆ व्यंग्य – पच्चीस परसेंट  का वादा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘पच्चीस परसेंट  का वादा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 160 ☆

☆ व्यंग्य – पच्चीस परसेंट  का वादा

सबसे पहले हमारा परनाम लीजिए क्योंकि आप ठहरे व्होटर और हम ठहरे उम्मीदवार। उम्मीदवार का धरम बनता है व्होटर को परनाम करने का। हम हैं सीधे-सादे आदमी, इसलिए हम सीधी-सादी बात करेंगे। फालतू का फरफंद हमें आता नहीं,कि एक घंटा भर तक आपको बंबई- कलकत्ता घुमाएँ, उसके बाद मतलब की बात पर आएँ।

तो हम यह निवेदन करने आये हैं कि अब की बार चुनाव में बंसीधर को व्होट मत दीजिए, हमें दीजिए, यानी मुरलीधर को। अब आप कहेंगे कि क्यों दीजिए भई मुरलीधर को? तो हमारा निवेदन है कि हमें बंसीधर के कोई खास सिकायत नहीं। सिकायत यही है कि उन्होंने छेत्र की परगति के लिए कोई काम नहीं किया। अब छेत्र परगति नहीं करेगा तो देस कैसे परगति करेगा?

हमारी सिकायत यही है कि बंसीधर ने छेत्र की परगति पर एक्को पैसा खरच नहीं किया। कुछ अपनी परगति पर खरच किया, बाकी अफसर-अमला की परगति पर खरच हो गया। अब ये तो गलत काम हो गया है ना? आप छेत्र पर एक्को पैसा खरच नहीं करेंगे तो छेत्र कैसे परगति करेगा और देस कैसे परगति करेगा? इसलिए हमारा जी दुखी है।

अब आप कहेंगे कि मुरलीधर, कल तक तो बंसीधर के गलबाँही डाले फिरते थे,आज सिकायत करते हो। तो आपका कहना वाजिब है। लेकिन मामला सिद्धांत का बन गया है। जब सिद्धांत के खिलाफ बात जाने लगेगी तब भला कौन बरदास्त करेगा?

हमारा कहना यह है कि भाई, छेत्र की परगति के लिए जो पैसा मिलता है उसका पच्चीस परसेंट जरूर छेत्र पर खरच होना चाहिए। पच्चीस परसेंट भी खरच नहीं होगा तो छेत्र तो एक्को तरक्की नहीं करेगा ना? इसलिए पच्चीस परसेंट छेत्र पर खरच होना ही चाहिए।

बाकी पचत्तर परसेंट नेता और अफसर- अमला अपनी परगति पर खरच कर सकता है। यह तो एकदम जायज बात है। सोचिए, नेता सार्वजनिक जीवन में किस लिए आया है? भाड़ झोंकने आया है क्या? जो नेता अपनी और अपने नाते-रिस्तेदारों की परगति न कर पाए वो देस की परगति क्या खाके करेगा? तो भई नेता तो अपनी परगति करेगा।
अफसर-अमला अपनी परगति नहीं करेगा तो काम कैसे करेगा? सूखी तनखा में काम करेगा क्या? मोटर चलाने के लिए पेटरोल-डीजल नहीं लगेगा? तब? तनखा से कोई काम करने की ताकत आती है क्या? तनखा तो सबको मिलती है, लेकिन सब के ऊपर तो देस की परगति का भार नहीं होता। तब?

तो पचत्तर परसेंट नेता और अफसर- अमला अपनी परगति पर खरच कर सकता है। बाकी पच्चीस परसेंट छेत्र पर हर हालत में खरच होना चाहिए। इसमें कोई गड़बड़ हम बरदास्त नहीं करेंगे। बंसीधर ने यही गड़बड़ किया कि सेंट परसेंट पैसा अपनी परगति पर खरच कर लिया। इसलिए हमारा बंसीधर से बिरोध है। हम आपसे क्या बताएँ कि जाने कितनी योजनाओं का पैसा बंसीधर के पास आया और उन्होंने पूरा का पूरा अपनी परगति पर खरच कर लिया। एकदम गलत काम हो गया। अब आप ये मत पूछिए कि कौन-कौन योजनाओं का पैसा आया था, क्योंकि हम ये न बताएँगे। बात ये है कि कल के दिन हमीं  चुने जाएँगे और आप हमसे पूछने लगे कि फलाँ- फलाँ योजना में कितना-कितना पैसा आया तो हम मुस्किल में पड़ जाएँगे। इसलिए आप बस इतना समझ लीजिए कि बंसीधर ने बहुत सी योजनाओं का सेंट परसेंट पैसा अपनी परगति पर खरच कर लिया।

तो हमारा आपसे वादा है कि हम पच्चीस परसेंट पैसा छेत्र की परगति पर जरूर खर्च करेंगे। ये फरफंद नहीं है, आपको दिखायी पड़ेगा कि पच्चीस परसेंट पैसा खरच हुआ है। हाथ कंगन को आरसी क्या? तो आप हमारा बिसवास कीजिए और अपना व्होट हमीं को दीजिए, यानी मुरलीधर को। पच्चीस परसेंट का हमारा आपसे वादा है। हम कसम-वसम तो न खाएँगे क्योंकि कसम खाएँगे तो आप समझेंगे कि झूठ बोल रहे हैं। इसलिए हम कसम न खाएँगे। वादा जरूर करते हैं।

अंत में आप से निवेदन है कि हमें व्होट दीजिए और देस से भरस्टाचार खतम करने में हमारी मदद कीजिए। अब एक बार ताली तो बजा दीजिए। हम आपसे इतना बड़ा वादा कर रहे हैं और आप बस हमें मुटुर मुटुर निहारे जा रहे हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 118 ☆ जागिए – जगाइए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जागिए – जगाइए । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 118 ☆

जागिए – जगाइए  

जरा सी आहट में नींद टूट जाती है, वैसे भी अधूरी नींद के कारण ही आज इस उच्च पद पर विराजित हैं। बस अंतर इतना है कि पहले पढ़ने के लिए ब्लैक कॉफी पीकर जागते थे। अब कैसे ब्लैक मनी को व्हाइट करे इस चिंतन में रहते हैं। अब तो कॉफी से काम नहीं चलता अब  शराब चाहिए गम गलत करने के लिए।

भ्रष्टाचार की पालिश जब दिमाग में चढ़ जाती है तो व्यक्ति गरीब से भी बदतर हो जाता है। सोते-जागते बस उसे एक ही जुनून रहता है कि कैसे अपनी आमदनी को बढ़ाया जाए। उम्मीद की डोर थामें व्यक्ति इसके लिए क्या- क्या कारगुजारियाँ नहीं करता।

वक्त के साथ- साथ लालच बढ़ता जाता है, एक ओर उम्र साथ छोड़ने लगती है तो वहीं दूसरी ओर व्यक्ति रिटायरमेंट के करीब आ जाता है। अब सारे रुतबे छूटने के डर से उसे पसीना छूट जाता है। ऐसे में पता चलता है कि हार्ट की बीमारी ने आ घेरा। बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर दवाइयों से भी काबू नहीं आ रहा। ऐसे में उतार- चढ़ाव भरी जिंदगी भगवान का नाम भी नहीं ले पा रही है। समय रहते जो काम करने चाहिए थे वो किए नहीं। बस निन्यानवे का चक्कर वो भी गलत रास्ते थे। बच्चों को विदेश भेजकर  पढ़ाया वो भी वहीं सेटल हो गए। इतने बड़े घर में बस दो प्राणी के अलावा पालतू कुत्ते दिखते। जीवन में वफादारी के नाम पर कुत्तों से ही स्नेह मिलता। अपनी अकड़ के चलते पड़ोसियों से कभी नाता जोड़ा नहीं। वैसे भी धन कुबेर बनने की ललक हमें दूर करती जाती है।

जीवन के अंतिम चरण में बैठा हुआ व्यक्ति यही सोचता है ये झूठी कमाई किस काम की, जिस रास्ते से आया उसी रास्ते में जा रहा है। काला धन विदेशी बैंकों में जमा करने से भला क्या मिलेगा। देश से गद्दारी करके अपने साथ-साथ व्यक्ति सबकी नजरों में भी गिर जाता है। सदाचार की परंपरा का पालन करने वाले देश में भ्रष्टाचार क्या शोभा देता है। सारी समस्याओं की जड़ यही है। आत्मा की आवाज सुनने की कला जब तक हमारे मनोमस्तिष्क में उतपन्न नहीं होगी तब तक ऐसे ही उथल-पुथल भरी जीवन शैली का शिकार हम सब होते रहेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ व्यंग्य – चीता समर्थक गायें ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम समय समय पर आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कराते रहते हैं।

☆ व्यंग्य – चीता समर्थक गायें

( व्यंग्य स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

गायें पहले सीधी हुआ करती थीं। अब मूर्ख भी हो गई हैं।वे हिंसक चीतों के समर्थन में उतर आई हैं। चीते उन्हें खूबसूरत लगने लगे हैं। उनकी धारियां उन्हें आकर्षित कर रही हैं। किसी ने कहा कि चीते हिंसक होते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि यह बेहद पुराना और घिसापिटा विचार है, संकीर्ण सोच का प्रतीक और अब हम  पहले जैसी भोली-भाली गाएं नहीं रहीं। हमारी सोच प्रगतिशील है। हम चीतों को किसी के कहने से कब तक हिंसक मानते रहेंगे। हमें समय समय पर अपने विचारों में परिवर्तन करते रहना चाहिए। हम चीतों को हिंसक माने जाने के खिलाफ हैं। चीते जंगल की शान हैं। चीतों से ही हमारा वन्य प्रदेश सुशोभित होता है। चीते हमारी शान हैं। हमारा अलंकरण हैं। “बिन चीता सब सून।”

समझाने वाले ने फिर कहा  ” पागल मत बनो। एक दिन यही चीते मौका देखते ही तुम्हें और तुम्हारे बछड़ों को खा जायेंगे और तुम लोग कुछ नहीं कर पाओगी।”

“हम तुम्हारी चीता विरोधी मानसिकता को भलीभांति समझ गए हैं। हम लोग तुम्हारी बातों में आने वाली नहीं। हमें हमारे अपने ही लोगों से ज्ञात हुआ कि अब चीते शाकाहारी हो गए हैं। अब वे निरीह जानवरों का शिकार नहीं करते। नित्य स्नान और पूजापाठ करने लगे हैं। जंगल की अस्मिता और उसके पुराने वैभव को लौटाने के लिए वे कुछ भी त्याग करने को तत्पर रहते हैं। जंगल में उनकी वजह से सब तरह से मंगल है।भय , भूख का नामोनिशान नहीं रहा।जंगल दशकों बाद फिर से हराभरा  हो गया है।”

समझाने वाले को लगा कि जब मूर्ख को अपनी मूर्खता पर गर्व होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अब उसका अंत निकट आ गया है।अंधेरे के समर्थक रोशनी में आंखें मूंद लेते हैं। उसे लगा कि गाएं गांधारी से कुछ ज्यादा ही प्रभावित दिख रही हैं। चीतों के दलालों ने उनकी जो अहिंसक छवि जंगल में बना रखी है गाएं उसके प्रभाव में खुद का गाय होना भूल गई थीं।

चीतों का प्रचारतंत्र इतना तगड़ा था कि गंजों के मोहल्लों में कंघियों की सेल लगाते थे और सारे गंजे एक की बजाय चार चार कंघियां खरीद लेते थे।

फिर भी उसने अंतिम कोशिश की “देखो मैं फिर भी कह रहा हूं कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तुम्हें चीतों से सावधान रहना चाहिए।”

“तुम हमें हमारे हाल पर छोड़ दो और अपना कांमधंधा देखो।” गायों ने एक स्वर में कहा।

यह सुनकर वह जाने के लिए मुड़ा ही था कि चीतों का एक झुंड आया और गायों के ऊपर टूट पड़ा।

गायों के रंभाने की आवाज से वातावरण गूंज उठा।

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 117☆ जुगत की पहेली, सच्ची सहेली ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जुगत की पहेली, सच्ची सहेली। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 117 ☆

जुगत की पहेली, सच्ची सहेली ☆ 

जोड़ तोड़ की पहल क्या कुछ नहीं करवा देती है। सम्मान पाने की लालसा लिए सही गलत का भेद भुला कर बस कॉपी पेस्ट की ओर चल दिए नवीन लाल जी, आपकी हर रचना किसी न किसी की रचना का अंश होती थी पर हद तो तब हो गयी जब पूरा का पूरा ठीकरा ही अपने सर पर लाद लिया। कहते हैं महाभारत काल में दुर्योधन की पत्नी भानुमती ने उसकी मृत्यु के बाद  पूरे कुनबे को जोड़ने के लिए कुछ भी जोड़ तोड़ किया था। आदिकाल से विवाह द्वारा सम्बन्धों को जोड़ने की परम्परा चली आ रही है। इसे दूसरे शब्दों में रिश्तों की वैधता को सर्टिफाइड करना कहें तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

शक्ति, धैर्यता, प्रकृति, पूर्णता, प्रार्थना ये  सब कुछ करते हुए भी कहीं न कहीं कुछ अधूरा रह जाता जिसके लिए इन्जार करना पड़ता है कृपा का, पर ये  मिले कैसे…?

सहन करने की भी एक सीमा होती है, बार – बार जब कोई असफ़ल होता है  तो बजाय पूरी ताकत के फिर से प्रयास करे इससे अच्छा वो ये समझता है कि मैदान छोड़कर भाग जाओ।

ये विराट संसार है जैसे ही आप पलायन करेंगे कोई और आकर उस रिक्त स्थान को भर देगा  इसलिए जैसे ही अवसर मिले उसका भरपूर लाभ उठाएँ, चाहें कितनी बार भी गिरें पर उठें और पुनः जीवन की दौड़ में शामिल हों।

कोई भी व्यक्ति या वस्तु पूर्ण नहीं होती है ये तो सर्वसत्य है, हमें उसके  गुण दोषों को  स्वीकार करने की समझ होनी चाहिए।

इस संदर्भ में  छोटी सी कहानी याद आती है, एक शिष्य बहुत दुःखी होकर अपने गुरु के  सम्मुख  रुदन करते हुए कहने लगा कि मैं आपके शिष्य बनने के काबिल नहीं हूँ, हर परीक्षा में जितने अंक मिलने चाहिए वो मुझे कभी नहीं मिले इसलिए मैं  अपने घर जा रहा हूँ, वहाँ पिता के कार्य में हाथ बटाऊँगा, गुरु जी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर वो अधूरी शिक्षा  छोड़ कर अपने  गाँव चला गया।

किसी के जाने का दुःख एक दो दिन तो सभी करते हैं पर जल्दी ही उस रिक्त स्थान की पूर्ति हो जाती है। एक दिन गुरुजी सभी शिष्यों को पढ़ा रहे थे तभी  उन्हें  वहाँ कुछ पक्षी उड़ते हुए दिखे उनका मन भी सब कुछ छोड़ हिमालय की ओर चला गया कि कैसे  वो अपने गुरु के सानिध्य में वहाँ रहते थे, तो  गुरुदेव ने भी  तुरन्त अपने प्रिय शिष्य को आश्रम की जिम्मेदारी दी और  चल दिये हिमालय की गोद में।

ये किस्सा एक बार का नहीं जब मन करता गुरुदेव कहीं न कहीं अचानक चल देते सो उनके शिष्य भी उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए अधूरे ज्ञान के साथ जब जी आता  अपनी पढ़ाई छोड़ कर चल देते कुछ वापस भी आते।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #158 ☆ व्यंग्य – गाँव की धूल और नेता के चरन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य गाँव की धूल और नेता के चरन। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 158 ☆

☆ व्यंग्य – गाँव की धूल और नेता के चरन

नेताजी के गाँव के दौरे पर आने की खबर पहुँच चुकी थी। कलेक्टर और बहुत से छोटे अफसर साज़-सामान के साथ पहुँच चुके थे। कलश, फूलमाला वगैरः का मुकम्मल प्रबंध हो चुका था। गाँव के लोगों की एक भीड़ नेता जी के भाषण के लिए बनाये गये मंच के पास इकट्ठी होकर उत्सुकता से उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। बच्चे और औरतें किलिर-बिलिर कर रहे थे।

नेता जी की कार आती दिखी और इंतज़ामकर्ताओं और दर्शकों में हरकत होने लगी।  कार रुकी और उसके रुकते ही धूल का एक बड़ा ग़ुबार उठा और गाँव वालों के ऊपर बरस गया। गाँव वालों ने अपने गमछों से मुँह और कपड़ों की धूल झाड़ी।

नेता जी ने मोटर से उतर कर गाँव वालों को झुक कर नमस्कार किया। सरपंच के हाथों से माला पहनी। जब गाँव की स्त्रियों के द्वारा उनकी आरती उतारी गयी तो वे आँखें मूँदे, हाथ जोड़े खड़े रहे। यह सब हो गया तो नेता जी ने घूम कर गाँव का सिंहावलोकन किया। उनकी मुद्रा से ऐसा लगा जैसे वह गाँव को देख कर भाव-विभोर हो गये। उनका मुख प्रसन्नता के फैल गया और दोनों हाथ प्रशंसा के भाव से उठ गये।

नेताजी की इच्छानुसार उन्हें पूरे गाँव के राउंड पर ले जाया गया। नेताजी अगल-बगल के घरों में झुक झुक कर झाँकते जाते थे, हाथ जोड़कर नमस्कार करते जाते थे। गाँव की स्त्रियाँ घूँघट में दो उँगलियाँ लगाये उन्हें देख रही थीं। एक घर में से हाथ-चक्की चलने की आवाज़ आ रही थी। नेताजी एकाएक भाव-विभोर होकर उस घर की चौखट पर बैठकर ठुनकने लगे— ‘मैं तो चने की मोटी रोटी और चटनी खाऊँगा।’ कलेक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहाँ से उठाया। नेताजी जैसे बड़ी अनिच्छा से दुखी मुँह लिये उठे। गाँव वाले उनकी सरलता को देखकर बहुत प्रभावित, एक दूसरे का मुँह देख रहे थे।

गाँव के चक्कर के बाद नेता जी का भाषण हुआ। नेताजी बोले, ‘भाइयो, मेरी मोटर और मेरे कपड़ों को देखकर आप समझते होंगे कि मैं बहुत सुखी हूँ। लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस देश में आपसे ज्यादा सुखी कोई नहीं है। हम शहर में रहने वाले माटी की इस सुगंध के लिए, इस ताजी हवा के लिए, इन पेड़ों के लिए तरसते हैं। मैं शहर में रहता हूँ, लेकिन मेरी आत्मा भारत के गाँवों में घूमती रहती है। मेरे प्यारे ग्रामवासियो, तुम अपने को छोटा मत समझो। तुम हमारे अन्नदाता हो, हमारे मालिक हो। मैं आप लोगों को प्रणाम करता हूँ।’

नेता जी ने झुक कर गाँव वालों को नमस्कार किया।

नेता जी ने एक गाँव वाले को मंच पर बुलाया, जिसकी नीली कमीज़ पर पसीने की अनगिनत सफेद रेखाएं थीं। नेताजी ने उसे बगल में खड़ा करके उसकी कमीज़ की तरफ इशारा किया, बोले,  ‘भाइयो, ये पसीने के निशान देखते हैं आप? यह पसीना गंगा के पानी से भी ज्यादा पवित्र है। आप अपनी गरीबी पर दुखी मत होइए। आज आपसे धनी कोई नहीं। आपके पास मेहनत की संपत्ति है, इसलिए आप गरीब होते हुए भी राजा हो और हम जैसे लोग निर्धन हैं।’

नेताजी ने गर्व से दाहिने-बायें देखा और सरपंच ने कलेक्टर के इशारे पर तालियाँ बजवा दीं।

भाषण खत्म करते हुए नेताजी बोले, ‘मेरे प्यारे गाँववासियो, मैं राजधानी में जरूर रहता हूँ, लेकिन मेरा दिल हमेशा आपके साथ रहता है। काम ज्यादा रहने के कारण आपके बीच में आने का सुख प्राप्त नहीं कर पाता। लेकिन मैं आपका आदमी हूँ। आप कभी राजधानी आयें तो मुझे सेवा का मौका दें। मेरा दरवाजा हर वक्त आपके लिए खुला रहेगा।’

कलेक्टर और सरपंच के इशारे पर गाँव वालों ने फिर तालियाँ बजायीं।

उधर नेताजी की कार के पास उनके ड्राइवर से एक ग्रामीण युवक बड़ी दीनता से बात कर रहा था। युवक ड्राइवर से बोला, ‘ड्राइवर साहब, शहर में हमारे लिए कुछ काम का जुगाड़ लगवा दो।’

ड्राइवर सिगरेट का कश खींचकर बोला, ‘किराये के पैसे हों तो दिल्ली आ जाना। वहाँ आकर नेता जी से विनती करना।’

युवक विनती के स्वर में बोला, ‘किराये के पैसे कहाँ हैं साहब? इसी मोटर में एक कोने में बैठा कर ले चलते तो बड़ी मेहरबानी होती।’

ड्राइवर ने सिगरेट मुँह से निकाल कर ठहाका लगाया, फिर हाथ झटकता हुआ बोला, ‘अरे भाग पगलैट, भाग यहाँ से। कैसे-कैसे पागल आ जाते हैं।’

युवक वहाँ से खिसक कर कुछ दूर जाकर चुपचाप खड़ा हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 116 ☆ मन का मनका फेर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मन का मनका फेर। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 116 ☆

☆ मन का मनका फेर ☆ 

हेरा- फेरी के चक्कर में केवल दोषी ही मानसिक कष्ट नहीं उठाता वरन उससे जुड़े लोग भी शक के घेरे में आ जाते हैं। शिकायतकर्ता अपने को सौ प्रतिशत सही मानता है जबकि आरोपी मामला शांत करवाने हेतु हर समझौते के लिए तैयार हो जाता है। ऐसे में सबसे बड़ी भूमिका संवाद की होती है। यदि विवाद को शांत करना है तो क्षमा याचना के साथ की गयी प्रार्थना को स्वीकार करना चाहिए। अनावश्यक बात का बतंगड़ सबका चैन छीनता  है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जहाँ उसके अच्छे कार्यों से सभी सुखी होते हैं तो वहीं दूसरी ओर जाने- अनजाने किए गए गलत कार्यों की आँच से जुड़े हुए लोगों का झुलसना स्वाभाविक है।

करे कोई भरे कोई  ये मुहावरा कई अर्थों में प्रयोग होता है। कहते हैं कर्म का प्रभाव अवश्यम्भावी होता है। कार्य तो करें किन्तु इतनी जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए कि परिणाम क्या होगा इसकी चिंता करने का अवसर ही न मिले। सबको साथ लेकर चलने की कला जिसको आ गयी उसे सब कुछ आ जाता है। जाना आना तो प्रकृति का नियम है। सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है। किसी का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता बस योजना सही होनी चाहिए। यदि सही तरीके से निर्धारण हो तो प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रहती है। वास्तव में टीम लीडर ऐसा होना चाहिए जो हमेशा बैकअप प्लान तैयार करके रखता हो।  बस शुरुआत करिए यदि आप चलने लगेंगे तो लोग स्वयं आपके साथ खड़े होकर हिप- हिप हुरै करनें में सहयोग देंगे।

पूरी व्यवस्था यदि चार चरणों में हो तो कोई भी आकर खाली स्थान को भर देगा और किसी को समझ भी नहीं आएगा कि क्या उठा- पटक हो गयी।  प्रातः स्मरणीय वंदना के साथ विचार शक्ति को सशक्त करिए और जुट जाइए दैनिक कार्यों के संपादन में। लगभग पचहत्तर प्रतिशत कार्य पूरा करने के बाद इंतजार करिए कि कोई न कोई बचा हुआ पच्चीस प्रतिशत पूरा करने के लिए आएगा क्योंकि आखिरी दौर में अपने आप भीड़ इकट्ठी हो जाती है।

जीवन का फलसफा है कि-

मन का मनका जाप कर, कर्म करो निःस्वार्थ।

लक्ष्य साध बढ़ते रहो, जैसे बढ़ता पार्थ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 153 ☆ “बारिश तुम कब जाओगी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “बारिश तुम कब जाओगी”)  

☆ व्यंग्य # 153 ☆ “बारिश तुम कब जाओगी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

Preview imageराजा के देश में पानी नहीं गिर रहा था, गर्मी से हलाकान महिलाओं ने इन्द्र महराज को खुश करने कपड़े उतार कर फेंक दिए, राजा की मर्जी से चारों तरफ टोटके होने लगे, शिव शक्ति मंडल ने एक मंदिर में मेंढक मेंढकी का विवाह धूमधाम से करा दिया, खर्चा हुआ दस बारह लाख। विपक्षियों ने मांग उठाई, विवाह के खर्च में जीएसटी की चोरी की गई है। एक दूसरी पार्टी वाले का कहना था कि शायद राजा ने लगता है कि स्कूलों में नर्सरी और के. जी. के कोर्स  से नर्सरी राइम्स में से “रेन रेन गो अवे ” को हटा दिया होगा, तभी बारिश रूठ गई है। कुछ कहने लगे जब राजा को हटाया जाएगा तब बादल खुश होंगे।

हर जगह नये नये टोटकों की बाढ़ आ गई।इन्द्र महराज के दरबार में किसी ने शिकायत कर दी कि नीचे वालों ने एक मेंढक के साथ अत्याचार और अन्याय किया है उसकी इच्छा के विरुद्ध एक मंदिर में मेंढकी से विवाह कर दिया है।इन्द्र महराज ने नीचे झांककर देखा एक गांव में सैकड़ों औरतें उमस और गर्मी से परेशान हैं और बूंद बूंद को तरस रहीं हैं,  पसीने से तरबतर महिलाएं धीरे-धीरे अपने वस्त्रों को शरीर से अलग कर रहीं हैं शरीर के पूरे कपड़े उतार कर नाचते और  लोकगीत गाते हुए किसी देवता को रिझाने के लिए पूजा पाठ कर रहीं हैं …बरसात के देवता ने झांक कर देखा और तत्काल दूत को आदेश दिया कि बंगाल की खाड़ी के इंचार्ज साहब से बोलो कि हमने आर्डर दिया है कि बंगाल की खाड़ी से बादलों की एक खेप इस गांव की ओर तुंरत रवाना करें …

आदेश का पालन इतना तेज हुआ कि भूखे बादलों को तेज हवा ने ढकेल दिया , बादल भूखे थे,बादलों की माँ समुद्र में रोटी सेंक रही थी उनकी भी परवाह नहीं की ,डर के मारे बादल चलते चलते जैसई रास्ते में ऊंचे पहाड़ मिले ,भूखे मेघ चरने लगे ,तभी पीछे से तेज हवा ने हंटर चलाना चालू किया, गुस्से में आकर इतना बरसे कि रिकार्ड तोड़ दिया, हाहाकार मच गया, करोड़ों रुपए के बांध टूटने की कगार में पहुंच गए, शहर और गांव डूब गए,पुल टूट गये, सड़कें धंस गई,विपक्ष ने कहा हर जगह भ्रष्टाचार हुआ है।

राजा के भक्तों ने आरोपों का खंडन करते हुए विपक्ष पर नये आरोप गढ़ दिये, मीडिया को दंगल कराके पैसा कमाने का अच्छा मौका मिल गया, विपक्ष पर आरोप लगाया गया कि आने वाले चुनावों को देखते हुए इन लोगों ने पैसा खिलाकर इंद्र महराज से सारी बारिश इसी क्षेत्र में कराने का षड़यंत्र रचा,इसलिए इस बार जनता को तकलीफ उठानी पड़ रही है।विवाद बढ़ते देख हाईकमान ने खरीदी मंत्री को जांच करने भेजा,जांच से पता चला कि जुलाई महीने में एक मंदिर में मेंढक मेंढकी का जबरदस्ती विवाह कराया गया था जिसकी शिकायत किसी ने बरसात के देवता को कर दी थी और राजा के इशारे पर रोज तरह तरह के टोटके होने लगे थे। खरीदी मंत्री ने तुरंत अरकाटियों और पंडितों को बुलाया,सलाह मशविरा किया और तय किया गया कि जुलाई में धूमधाम से सम्पन्न हुये मेंढक मेंढकी का तलाक करा दिया जाए, और राजा के दरबार में यज्ञ के दौरान ‘बारिश तुम कब जाओगी’ के सवा लाख मंत्रों का जाप कराया जाए।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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