श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जुगत की पहेली, सच्ची सहेली। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 117 ☆

जुगत की पहेली, सच्ची सहेली ☆ 

जोड़ तोड़ की पहल क्या कुछ नहीं करवा देती है। सम्मान पाने की लालसा लिए सही गलत का भेद भुला कर बस कॉपी पेस्ट की ओर चल दिए नवीन लाल जी, आपकी हर रचना किसी न किसी की रचना का अंश होती थी पर हद तो तब हो गयी जब पूरा का पूरा ठीकरा ही अपने सर पर लाद लिया। कहते हैं महाभारत काल में दुर्योधन की पत्नी भानुमती ने उसकी मृत्यु के बाद  पूरे कुनबे को जोड़ने के लिए कुछ भी जोड़ तोड़ किया था। आदिकाल से विवाह द्वारा सम्बन्धों को जोड़ने की परम्परा चली आ रही है। इसे दूसरे शब्दों में रिश्तों की वैधता को सर्टिफाइड करना कहें तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

शक्ति, धैर्यता, प्रकृति, पूर्णता, प्रार्थना ये  सब कुछ करते हुए भी कहीं न कहीं कुछ अधूरा रह जाता जिसके लिए इन्जार करना पड़ता है कृपा का, पर ये  मिले कैसे…?

सहन करने की भी एक सीमा होती है, बार – बार जब कोई असफ़ल होता है  तो बजाय पूरी ताकत के फिर से प्रयास करे इससे अच्छा वो ये समझता है कि मैदान छोड़कर भाग जाओ।

ये विराट संसार है जैसे ही आप पलायन करेंगे कोई और आकर उस रिक्त स्थान को भर देगा  इसलिए जैसे ही अवसर मिले उसका भरपूर लाभ उठाएँ, चाहें कितनी बार भी गिरें पर उठें और पुनः जीवन की दौड़ में शामिल हों।

कोई भी व्यक्ति या वस्तु पूर्ण नहीं होती है ये तो सर्वसत्य है, हमें उसके  गुण दोषों को  स्वीकार करने की समझ होनी चाहिए।

इस संदर्भ में  छोटी सी कहानी याद आती है, एक शिष्य बहुत दुःखी होकर अपने गुरु के  सम्मुख  रुदन करते हुए कहने लगा कि मैं आपके शिष्य बनने के काबिल नहीं हूँ, हर परीक्षा में जितने अंक मिलने चाहिए वो मुझे कभी नहीं मिले इसलिए मैं  अपने घर जा रहा हूँ, वहाँ पिता के कार्य में हाथ बटाऊँगा, गुरु जी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर वो अधूरी शिक्षा  छोड़ कर अपने  गाँव चला गया।

किसी के जाने का दुःख एक दो दिन तो सभी करते हैं पर जल्दी ही उस रिक्त स्थान की पूर्ति हो जाती है। एक दिन गुरुजी सभी शिष्यों को पढ़ा रहे थे तभी  उन्हें  वहाँ कुछ पक्षी उड़ते हुए दिखे उनका मन भी सब कुछ छोड़ हिमालय की ओर चला गया कि कैसे  वो अपने गुरु के सानिध्य में वहाँ रहते थे, तो  गुरुदेव ने भी  तुरन्त अपने प्रिय शिष्य को आश्रम की जिम्मेदारी दी और  चल दिये हिमालय की गोद में।

ये किस्सा एक बार का नहीं जब मन करता गुरुदेव कहीं न कहीं अचानक चल देते सो उनके शिष्य भी उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए अधूरे ज्ञान के साथ जब जी आता  अपनी पढ़ाई छोड़ कर चल देते कुछ वापस भी आते।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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