हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 36 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आदमी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 36 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(एक पुराना गीत)

एक मिट्टी का

घड़ा है आदमी

छलकते अहसास से रीता।

 

मुँह कसी है

डोर साँसों की

ज़िंदगी अंधे कुँए का जल,

खींचती है

उम्र पनहारिन

आँख में भ्रम का लगा काजल

 

झूठ रिश्तों पर

खड़ा है आदमी

व्यर्थ ही विश्वास को जीता।

 

दर्द से

अनवरत समझौता

मन कोई

उजड़ा हुआ नगर

धर्म केवल

ध्वजा के अवशेष

डालते बस

कफ़न लाशों पर

 

बड़प्पन ढोता

है अदना आदमी

बाँचता है कर्म की गीता।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी“)

✍ ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ख़ुशी की जलती कहीं पे मशाल अब भी है

हमारे  घर में खुशी का अकाल अब भी है।

बदल गया है कलेंडर महज दीवारों पर

जो हाल पहले था वैसा ही हाल अब भी है

ये आ गया है नया साल बस मिथक हमको

हमारी रोज़ी का वो ही सवाल अब भी है

ये चौचले है रहीसों के जश्न मनते सब

श्रमिक के हाथ में देखो कुदाल अब भी है

ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी

गरीब घर में जो मकड़ी का जाल अब भी है

ये नाम अम्न के बारूद जो जमा रख्खा

विनाश करने उसका इस्तेमाल अब भी है

किसी के गाल से चिकनी सड़क के दावे भर

सड़क पे चैन से चलना मुहाल अब भी है

सबक न वक़्त से कुछ सीख ले के सीख सके

अरुण ये धर्म पे होता वबाल अब भी है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 35 – कसक… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कसक…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 35 – कसक… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हुक्मरानों के आगे, निडर है ग़ज़ल 

लेकर विद्रोही तेवर, मुखर है ग़ज़ल

घुंघरू परतंत्रता के, न पाँवों में अब 

आशिकी का, न केवल हुनर है ग़ज़ल

हर्म से अब नवाबों के, बाहर निकल 

होकर आजाद, फुटपाथ पर है ग़ज़ल

महफिलों का, न केवल ये शृंगार है 

जिन्दगी का, समूचा सफर है ग़ज़ल

ऐशो-आराम का मखमली पथ नहीं 

कंटकों, पत्थरों की डगर, है ग़ज़ल

खेत-खलिहान, जंगल, नदी, ताल, जल

मोट, हल, बैलगाड़ी, बखर है ग़ज़ल 

गाँव, तहसील, थाना, कचहरी जिला 

राष्ट्र क्या, विश्व से बाखबर है ग़ज़ल

प्रान्त, भाषा न मजहब की सीमा यहाँ 

आप जायें जिधर, ये उधर है गजल

मुक्तिका, गीतिका, तेवरी कुछ कहें 

आज हिन्दी में भी, शीर्ष पर है ग़ज़ल

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 111 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 111 – मनोज के दोहे… ☆

1 नया साल

नया साल यह आ गया, लेकर खुशी अपार।

जन-मन हर्षित आज है, झूम उठा संसार।।

2 नववर्ष

स्वागत है नव वर्ष का,  देश हुआ खुशहाल।

विश्व जगत में अग्रणी, उन्नत-भारत-भाल।।

3 शुभकामना

मोदी की शुभकामना, मिले सभी को मान।

देश तरक्की पर बढ़े, बने विश्व पहचान ।।

4 दो हजार चौबीस

लेकर खुशियाँ आ रहा, दो हजार चौबीस ।

भूलो अब तेईस को, मिला राम आसीस।।

5 अभिनंदन

अभिनंदन है आपका, नए वर्ष पर आज।

कार्य सभी संपन्न हों, बिगड़ें कभी न काज।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मृत्यु ? ?

प्रासंगिकता के बोझ तले दबी

अप्रासंगिकता

एकाएक आज़ाद हो जाती है

शरीर की सीमाओं और

देह की वर्जनाओं से,

प्रासंगिकता

शव में पथराई पड़ी रहती है;

अप्रासंगिक धुएँ में

किर्च-किर्च बहता है,

निरंतर कहता है;

प्रासंगिकता में छिपी

आदिम अप्रासंगिकता की कथा

या शायद

अप्रासंगिकता के

नित प्रासंगिक होने के प्रमाण!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “तुम अचानक न आना…” ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता खंडकर

 ☆ कविता  – “तुम अचानक न आना” 🦋 ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

(काव्यसंग्रह ..अलवार)

मेरे घर कभी तुम, अचानक न आना,

इज्जत को मेरी, ना दाँव पे लगाना|

मेहमानियत में तेरी, ना रहे कोई कमी,

इसीलिए आने की, खबर जरूर करना|

मेरे घर कभी तुम, अचानक न आना!

खबर जो मिलेगी, बुला लूँगी सबको,

मस्ती भरे गीत, सुना दूँगी तुझ को,

महफिल से सारी मिला दूँगी तुझ को,

कही भूल न जाऊँ, किसी को बुलाना,

मेरे घर कभी तुम, अचानक न आना |

दोस्तों से कर लूँगी, चंद बातेंं,

मिटा दूँगी दिल से, सारे ही शिकवे,

मिल जाएंगे सारे, अपने-परायें,

वजह ना हो कोई, तुम्हें पडे न रूकना,

मेरे घर कभी तुम, अचानक न आना |

मेरे छोटे दिल में, समाओगी कैसे?

मेरे अपने सारे, तो साथ ही होंगे,

दिल में सभी के ही, तुम बस जाना,

मोहलत  इतनी ही, तुम जरूर देना,  

मेरे घर, खुशी तुम, अचानक न आना |

   ☆        

© सुश्री प्रणिता खंडकर

ईमेल – [email protected] वाॅटसप संपर्क – 98334 79845.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 170 – दोहे – मीरा ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – क्यों कर पालिश करती हो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 170 – दोहे  –  मीरा…  ✍

चित्रकार चित्रित करेलिखें ग्रंथ विद्वान

पर मीरा के ‘रहस’ को, कौन सका कब जान॥

पहुंची मीरा द्वारकाथी गिरधर से होड़

पल भर में ही हो गये‘मीरा-मय’ रणछोड़।।

मीरा जन्मी जगत् में, साक्षी सकल समाज

देख न पाये विदाईरहे सभी मुहताज ॥

तुलसी सूर कबीर के, जीवन चरित अनुप

मीरा अपने आप-सी, हो गई श्याम स्वरूप।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 169 – “ऑंगन का अपना दुख था…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  ऑंगन का अपना दुख था...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 169 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “ऑंगन का अपना दुख था...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

यह भी तो छत की मुँडेर का

अपना अनुभव था ।

उस पर ही बैठेगी चिडिया

कैसे संभव था ॥

 

ऑंगन का अपना दुख था

ना छा पायी बदली ।

अगर कभी उस तरफ मुड़ी

तो भी बदल बदली ।

 

आमों के पेडों के नीचे

छाँव नहीं लौटी ।

मौसम के अपनेपन का

यह कथित पराभव था ॥

 

दीवारें चुपचाप अहंकारी

जैसी दिखतीं ।

दरवाजे, खिड़कियाँ, चौखटें

खिंची खिंची लगतीं ।

 

जिन पर प्रसन्नता का कुछ

कुछ था चढ़ा घमंड रहा ।

यह उनकी निर्वाध सोच का

चिन्तन लाघव था ॥

 

आत्म प्रचारक दिखी पौर,

व चिन्तक दालाने ।

जो अपने वैविध्य समन्वय

की थीं पहचानें ।

 

जो खपरैलों से होकर

सब से बस यह कहतीं ।

यहाँ जिंदगी जीना शायद

बहुत असंभव था ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-10-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पगडंडी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पगडंडी ? ?

कुछ राजपथ, कुछ स्वर्णपथ,

मद-भोग के पथ,

विलास के कुछ पथ,

चमचमाती कुछ सड़कें,

विकास के ‘एलेवेटेड’ रास्ते,

चमकीली भीड़ में

शेष बची संकरी पगडंडी,

जिनसे बची हुई हैं

माटी की आकांक्षाएँ,

जिनसे बनी हुई हैं

घास उगने की संभावनाएँ,

बार-बार, हर बार

मन की सुनी मैंने,

हर बार, हर मोड़ पर

पगडंडी चुनी मैंने,

मेरी एकाकी यात्रा पर

अहर्निश हँसनेवालो!

राजपथ, स्वर्णपथ,

विलासपथ चुननेवालो!

तुम्हें एक रोज़

लौटना होगा मेरे पास,

जैसे ऊँचा उड़ता पंछी

दाना चुगने, प्यास बुझाने

लौटता है धरती के पास,

कितना ही उड़ लो,

कितना ही बढ़ लो,

रहो कितना ही मदमस्त,

माटी में पार्थिव का क्षरण

और घास की शरण

हैं अंतिम सत्य..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 161 ☆ # वो # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# वो #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆

☆ # वो #

वो चुप रहता है

लोगों से अलग थलग

पीपल के पेड़ के नीचे

शांत गुमसुम बैठा रहता है

उसकी आंखें

शुन्य में

कुछ ढूंढ़ती रहती है

कभी कभी नीले आसमान में

बादलों के पीछे पहुंच कर

बेरंग वापस लौट आती है

वो हर आवाज़ को

पुरी गंभीरता से सुनता है

चारों तरफ के शोर से

कर्कश ध्वनि से

चिल्लम चिल्लाई से

घबराकर

बेचैन रहता है

उसके मन में

द्वंद्व चलता रहता है

जिव्हा कुछ कहना चाहती है

पर मन रोकता है

वह अपनी बुद्धि से

जरूर कुछ सोचता है

पर परिस्थितियों से हारकर

परेशान होकर

बस चुप रहता है

उसके पेट की अंतड़ियां

सिकुड़ गई है

पसलियां उभर आई है

क्लांत चेहरा

भूख प्यास से

बेबस दिखता है

वो समाज में

व्याप्त विसंगतियों को देख

अंदर ही अंदर

क्रोधित होता है

उत्तेजित होता है

पर मन मारकर

शांत रहने का प्रयास करता है

अगर किसी दिन

उसकी शांति भंग होगी

चुप्पी टूटेगी

तो उसकी आंखों से

बहते आंसुओं से

सैलाब आयेगा

अगर वो बोलेगा तो

राज पाट हिल जायेगा

उसकी एक दहाड़ से

ये शोर थम जायेगा

उसके विद्रोह के शंखनाद से

भूख-प्यास का

यह गंदा खेल मिट जायेगा

वो चुप है

इस में ही

सब की भलाई है

और

उस के जागने में

लड़ने में

हक के लिए

विद्रोह करने में

सिर्फ तबाही,

तबाही और तबाही है /

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print