हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 49 ☆ स्वास्थ्य पर दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “स्वास्थ्य पर दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 49 ☆

☆ स्वास्थ्य पर दोहे ☆ 

 

स्वस्थ वही है “चक्र” सुन , मन जो रखे  प्रसन्न।

शाकाहारी बन सदा, खा ले भाजी-अन्न ।।

 

श्वास-श्वास तेरी सखा, हरदम रहती पास।

“चक्र”समझ ले स्वयम को, ये ही तेरी खास ।।

 

“चक्र”वही रोगी रहें, जो रहते हैं खिन्न ।

जीवन तो उपहार है, रख तू सदा प्रसन्न।।

 

सत्य मार्ग ही श्रेष्ठ है,  करता है उद्धार ।

तन -मन आनंदित रहे , मिले प्रेम का हार ।।

 

जीवन तो अनमोल है, करें सैर और योग।

पाँच मिनट व्यायाम से, सुखमय रहें निरोग।।

 

योग,परिश्रम नित करूँ,सोचूँ शुभ -शुभ काम।

सभी समर्पित ईश को, मुझे कहाँ  विश्राम।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 71 – और कब तक…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “और कब तक….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 71 ☆ और कब तक…. ☆  

और कब तक

तुम रहोगे मौन साधो,

शब्द को स्वर तुम, नहीं तो

और देगा कौन साधो।

मनुजता पर हैं लगे प्रतिबंध

जिह्वा है सिली

जब करी कोशिश

कहीं संकेत करने की

उधर से

भृकुटियां टेढ़ी मिली

अन्नजल आश्रित

विवश चुपचाप बैठे

भीष्म गुरुवर द्रोण साधो।

और कब तक

आम बरगद नीम

पीपल मिट रहे

झील सरिता बावड़ी

पनघट रुआँसे,

अब तबाही के लिए

उद्यत शिकारी हाथ में

खंजर उठाए दिख रहे,

लग गया है स्वाद

जिनको खून का

वे क्यों करे दातौन साधो।

और कब तक

अब सरे बाजार

सब कुछ हो रहा

मशविरों में मस्त है

राजा पियादा

चैन की बंसी बजाते

कुंभकरणी नींद

गहरी सो रहा,

नेत्रहीन धृतराष्ट्र

सिंहासन भ्रमित है

द्रोपदी को

अब बचाए कौन साधो।

और कब तक

तुम रहोगे मौन साधो।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विमर्श ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ विमर्श

 राजनीति ने

वाद और पंथ

निरुपित किये,

साहित्य ने

धारा और विमर्श

के बैनर तले

की समीक्षाएँ,

सोचता हूँ

आँसू, पीड़ा,

वेदना, दाह का

भला कौनसा पंथ,

कैसी धाराएँ….!

 

©  संजय भारद्वाज 

11:40 रात्रि, 29.10.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Experiments…☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem  “प्रयोग …”.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

☆ संजय दृष्टि  ☆ प्रयोग 

अदल-बदल कर

समय ने किये

कई प्रयोग पर

निष्कर्ष वही रहा,

धन, रूप, शक्ति,

सब खेत हुए

केवल ज्ञान

चिरंजीव रहा!

 ©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 12:08  21-10-2018.

☆ Experiments…☆ 

Interchangeably,

Time conducted

countless experiments

But, the inference

remained the same,

Wealth, beauty,

power and authority

all perished,

Knowledge only

emerged timelessly alive!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता उसूलों का जोड़ बाकी । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆

 

खर्च हो गयी जिंदगी बेकार के असूलों को निभाने में,

उसूलों का जोड़ बाकी गुणा भाग सब अब शून्य हो गया ||

 

हिफ़ाजत से रखे थे कुछ उसूलों बुढ़ापे के लिए,

डॉक्टर ने बताया तुम्हारा जीवन अब बोनस में तब्दील हो गया ||

 

डॉक्टर ने कह दिया अब जिंदगी का हर दिन बोनस है,

जी लो जिंदगी अपनों के संग, हर दिन सुकून से बीत जाएगा ||

 

मौत करती नहीं रहम कभी पल भर का भी,

मिटा लो गिले शिकवे, दिल का बोझ दिल से उतर जाएगा ||

 

कल तक जिंदगी ठेंगा दिखाती रही मौत को,

आज मौत हंस कर बोली,आज हंस ले कल सब शून्य हो जाएगा ||

 

मौत ने कहा भगवान भी नहीं दिला सकता मुझसे निजात,

आज या कल हर कोई मेरे आगोश में आकर दुनिया छोड़ जाएगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆ जी चाहता है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “जी चाहता है”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆

☆  जी चाहता है ☆

गले सितारों को लगाने को, जी चाहता है

पास महताब के जाने को, जी चाहता है

 

बड़ी ही सिरफिरी हवाएं हैं, मचल रही हैं

उनके साथ मचल जाने को, जी चाहता है

 

सुनाई नहीं देती आहट, ख़ामोशी है बड़ी

गाने को सरगम निराली, जी चाहता है

 

रात महके जुस्तजू से, अंदाज़ हैं निराले

पास से आसमान छू जाने को, जी चाहता है

 

समाई सी लगती है परिंदों की रूह मुझमें

आज फ़लक तक उड़ जाने को, जी चाहता है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दीवाली की दस्तकें, दीपक की पदचाप।

आओ खुशियां मनायें, क्यों बैठे चुपचाप।।

 

अंधियारे की शक्ल में, बैठे कई सवाल ।

कर लेना फिर सामना, पहले दीप उजाल।।

 

कष्टों का अंबार है, दुःखों का अंधियार ।

हम तुम दीपक बनें तो, फैलेगा  उजियार ।।

 

नहीं पूर्व थी सूचना,और न था संकेत ।

अकस्मात तुम चल  दिए , त्यागा नेह निकेत।।

 

भटक-भटक कर आ गया, मैं फिर तेरे द्वार।

और किसी का है नहीं, बस तेरा अधिकार ।।

 

आंख उलझ कर रह गई, रहे तरसते कान।

बस इतनी थी खैरियत, झांक गई मुस्कान।

 

अधरों पर मुस्कान वह, जैसे हो फरमान।

तिल कातिल सा देखता, बना हुआ दरबान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 24 – जीवन की गति उलझी… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “जीवन की गति उलझी…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 24– ।। अभिनव गीत ।।

☆ जीवन की गति उलझी... ☆

साड़ी के छोर सखी

ऐसे मत बाँध री  |

लोगों के चेहरे पर

मन की सड़ाँध री ||

 

सर्पिला है परछाई

तन की द्युति शरमाई

चूल्हे का है कहना

भात नहीं राँध री ||

 

जीवन की गति उलझी

छुअन तक नहीं समझी

घूर घूर क्या ताके

तू  है क्या  आँधरी ?

 

कोमल कोमल हाथों

पिघली इन बरसातों

सबर  कर तनिक तो डर

देहरी मत फाँद री  ||

 

संध्या है घिर आई

लौट गई तरुणाई

आ उतरा  मँगरे पर

धुला धुला चाँद री ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

11-02-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 25 ☆ दीपावली ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक कविता  “दीपावली”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 25 ☆ 

☆ दीपावली

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी I

 

दीपों की रौशनी से मिटता निशा का अंधकार सा,

द्वार की रंगोली से, भरती जीवन में नया आकार सा,

हर रूठे मन मे भरता उजाले सा,

हर अंग सजता, अलंकार सा,

हर मुखड़ा चहकता मोहक चितवन सा,

हर आँगन लगता मधुवन सा I

 

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी।

 

निधिपति का स्वागत करने का ये पर्व,

राम के लिये हर पूजा हर जतन करने का ये पर्व,

राम के वनवास से लौटने का ये पर्व,

हर आँगन में फैलता स्वर्ण लता सा ये पर्व,

मिठाईयों में मीठा रसगुल्ले सा ये पर्व,

पुष्पों में सुन्दर कमल सा ये पर्व,

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी।

 

ऐसे ही हर साल आये ये पर्व,

कुमार के मौसम को जगमगाये ये पर्व,

भाईचारे और एकता को जगाये ये पर्व,

हर आँगन हर मुखड़ा पटाखे की रोशिनी से चहके ये पर्व,

पकवानों की महक से हर आँगन महकाये ये पर्व,

रुढ़िवाद, भेदभाव को दूर करे ये पर्व।

 

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी।

 

सरोवर में स्वर्ण मीन सा ये पर्व,

भानु पर अग्नि सा ये पर्व,

प्रभात में रोशन और पानी में दामिनी सा ये पर्व,

भाईचारे और एकता की मिसाल पैदा करे ये पर्व।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #17 ☆ इक ज्योति जलाइए ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण एवं भावप्रवण  कविता “इक ज्योति जलाइए”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 17 ☆ 

☆ इक ज्योति जलाइए ☆ 

हर मायूस दिल में

इक ज्योति जलाइए

दीपोत्सव का उत्सव है

सब मिलकर मनाइए

माना हवाओं में

जहर बहुत है

माना तूफानों में

कहर बहुत बहुत है

घमंड, अभिमान के

मेले लग रहे हैं

बिक रहा इन्सान

और बिकते इन्सानों के

ठेले लग रहे हैं

मर्यादा पुरुषोत्तम

कशमकश में पड़े हैं

अटृहास करते

चहुं ओर रावण खड़े हैं

वध कीजिये इन दुष्टात्माओं का

सत्य को बचाइये

इक ज्योति जलाइये

 

कुछ उम्मीद लिए

आसमान में तांक रहें हैं

फिर अपनी झोपड़ी के

अंधेरे में झांक रहें हैं

चाँद सितारे

हो तुमको मुबारक

उनको तो है

बस जुगनुओं की जरूरत

कोई टूटा हुआ तारा

उनकी नजर कर देता

अरमानों से उनकी

झोली भर देता

कुछ पल जीवन में

खुशियाँ आ जाती

मिठाई की मिठास तो

सबको है भाती

बुझ गई आँखों में

रोशनी जलाइए

टूटे हुए दिलों को

धीरज बंधाइए

बाँटिए खुशियाँ

उनको गले लगाइए

इक ज्योति जलाइए

 

कब तलक एक दूसरे से

नफ़रत करोगे

इन्सान हो इन्सान से

कब मुहब्बत करोगे

जख्मों को कुरेदोगे

तो क्या फ़ायदा होगा ?

भर जाये जख्म ऐसा

क्या कोई कायदा होगा ?

मंदिर की घंटियाँ हो

या मस्जिद की हो अजान

हर जगह सर झुकाके

खड़ा है इन्सान

कुछ सौदागर यह अफीम

बाँट रहे हैं

एकता, भाईचारे की जड़ों को

काट रहे हैं

इन भटके हुए राहगीरों को

सही राह दिखाइए

इक ज्योति जलाइए

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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