हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #215 – कविता – ☆ आज के संदर्भ में – षड्यंत्रों का दौर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय रचना  आज के संदर्भ में – षड्यंत्रों का दौर…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #215 ☆

☆ आज के संदर्भ में – षड्यंत्रों का दौर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँप छछूंदर और नेवले

मिलने लगे गले

षड्यंत्रों का दौर

अकेले घर से न निकलें।

सूरज के तेवर ठंडे

तारों की चहल-पहल

है विषाद में चाँद

चाँदनी सहमी हुई विकल,

चर्चाओं के फेरे

नित जारी है साँझ ढले

षड्यंत्रों का दौर….

 

पत्ते पत्ते पर पसरे हैं

कुटिल हवा के पैर

मिल बैठे हैं आज

रहा जिनसे जीवन भर बैर,

अब न उगलते बने

समस्या है कैसे निगलें

षड्यंत्रों का दौर ….

 

चोले बदले वर्क चढ़ा

पीतल पर सोने का

वशीकरण के मंत्र

समय ये जादू टोने का,

इसके उसके किस्सों के

हैं कई अलाव जले

षड्यंत्रों का दौर…

 

जीत उसी की तो होगी

जिसने संघर्ष किया

श्वांस-श्वांस में अपने

इष्ट-धर्म को सदा जिया

रामयज्ञ की आहुतियों में

तर्क-कुतर्क चले

षड्यंत्रों का दौर….

 

विगत बही-खातों का

अब पूछें हिसाब इनसे

कितने-कितने कब कैसे

गठजोड़ कहाँ किससे,

नासमझी में अब तक

आस्तीन में साँप पले

षड्यंत्रों का दौर….

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 39 ☆ मौन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “मौन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 39 ☆ मौन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

तुम कुछ कहो

न हम कुछ कहें

हम तुम करें न बात

यूँ ही गुमसुम

रहकर सारी

कट जायेगी रात।

 

साँसों से हो जाये

साँसों का परिचय

धड़कन से जुड़ जाये

धड़कन की हर लय

अधर सहें

अधरों से मिलकर

कोमल से आघात।

 

महक रहा है

रूप चाँदनी से उपवन

चटक रहा है

प्रतिबिंबों से हर दर्पन

मधुरस छलके

आलिंगन में

सिमटे हों जज़्बात ।

 

अलक पलक कोरों से

छलके मधुशाला

बहका बहका फिरे

मीत मन मतवाला

मौन तोड़ती

हर अभिलाषा

माँग रही सौग़ात।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनादि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अनादि ? ?

जिज्ञासा घनी है,

प्रश्न गहरा है,

जो ठिठका था,

आकर ठहरा है,

कब चलेगा..?

कब बढ़ेगा..?

जल बहता है,

सूत्र कहता है,

आरम्भ करो

मार्ग दिखेगा,

आदि से अंत

संवाद करेगा..!

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 6:30 बजे, 29.10.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ “दर्द” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता – “दर्द” 📚 सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

🏵️

समय पखेरू

अपने महाकार डैनों तले

उड़ा जा रहा है

पसरी हुई पृथ्वी से

अनासक्त

अनथक

अनवरत

यात्रा पथ अनंत !!

*

कहीं तो अवश है वह भी

पीछे मुड़ नहीं सकता

संभवतः शापित

*

लोग उसकी कमी के

स्मारक बनाते हैं

यादें,तस्वीरें, मूर्तियां ,किताब

दे देते हैं

कई कई नाम

अपनी पसंद के!!

*

काश !समय

दो घड़ी ठहरने की कला

जान पाता

सृष्टि का दर्द

इतना गहरा न होता !!

🏵️

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए“)

✍ अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

अजीब खेल है इन हाथ की लकीरों का

लिए है हाथ में क़ासा धनी ज़खीरों का

अगर नजर वो इनायत की फेर लेता है

गुलाम होता है राजा यहाँ फ़क़ीरों का

 *

अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए

वहाँ पे डेरा है तलवार और तीरों का

 *

यहाँ तो फैसले सिक्कों के दम पे होते हैं

नहीं हैं काम गवाहों काऔर नजीरों का

 *

अँधेरी रात भी चमके है पूर्णिमा बनकर

ये पायेबाग ये काशाना है अमीरों का

 *

चढ़े है सूली पे अपना वतन बचाने को

ये देश प्रेम शहीदों के है जमीरों का

 *

जिसे भी देखिए रुसवाईयाँ समेटे है

ये हाल कैसा है इस देश के वज़ीरों का

 *

वफ़ा जो ज़ज़्बा है  गंगा के जैसा पाक अगर

मिलन जरूरी नहीं होता है शरीरों का

 *

कहाँ अब फ़ूक के घर राह कोई दिखलाता

अरुण अजीब सा यह काम है कबीरों का

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 38 – फूल मेरी किताब में आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – फूल मेरी किताब में आये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 38 – फूल मेरी किताब में आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

लाख चेहरे, हिसाब में आये 

उनके जैसे, न ख्वाब में आये

*

उम्र का, हुस्न पर चढ़ा पानी 

अंग उनके, शबाब में आये

*

उसकी खुशबू से, खूब परिचित हूँ 

चाहे कितने नकाब में आये

*

गुफ्तगू मुझसे, बात दुश्मन की 

ज्यों कि, हड्डी कबाब में आये

*

याद मेरा पता तो है उसको 

कोरे पन्ने, जवाब में आये

*

नाम का जाम पी लिया तेरा 

अब, नशा क्या शराब में आये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अक्षय ? ?

पत्थर से टकराता प्रवाह

उकेर देता है

सदियों की गाथाएँ

पहाड़ों के वक्ष पर,

बदलते काल

और ॠतुचक्र

के संस्मरण

लिखे होते हैं

चट्टानों की छाती पर,

और तो और

जीवाश्म होते हैं

उत्क्रांति का एनसाइक्लोपीडिया,

और तुम कहते हो

लिखने के लिए शब्द नहीं मिलते!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 114 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 114 – मनोज के दोहे… 

रामलला की आरती,  करता भारत वर्ष।

मंदिर फिर से सज गया,  जन मानस में हर्ष।।

*

मन मंदिर में रम गए,  श्याम वर्ण श्री राम।

शायद कारागार से,  मुक्त दिखें घन श्याम।।

*

प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम,  बना अयोध्या धाम।

सूर्यवंश के मणि मुकुट,  रघुनंदन श्री राम।।

*

आल्हादित सरयू नदी,  लौटा स्वर्णिमकाल।

सजा अयोध्या नगर है,  उन्नत संस्कृति भाल।।

*

हर्षोल्लास का पल अब,  लाया है चौबीस।

देश तरक्की कर रहा,  मिले कौशलाधीश।।

*

धनुषबाण लेकर चले,  निर्भय सीता-राम।

सरयू तट पर सज गया,  राम अयोध्या धाम।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत गाता हूँ मैं… ☆ श्री रामनारायण सोनी ☆

श्री रामनारायण सोनी

?कविता गीत गाता हूँ मैं ? श्री रामनारायण सोनी ?

अक्षरों से शब्द तक का यह सफर

चेतना फिर हो चले जिस में प्रखर

भाव की उत्प्रेरणा जब जागती है

तब कहीं इक गीत होता है मुखर

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

वेदना, संवेदना, प्रतिवेदना मिल

हो गलित इक धार में बहने लगे

खुद बहे पहले, सभी उसमें बहें

तो समझ लो गीत हैं उठने लगे

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत का उत्थान भी इक ज्वार है

गीत काली रात का अभिसार है

गीत भावों की विकल अभिव्यंजना

गीत अधरों का मधुर श्रृंगार है

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

प्रियतमा के नैन से जब नीर बहता

श्वाँस में प्रश्वाँस में है गीत चलता

जब प्रणय की रागिनी में हो घुला

छ्न्द बन्दों में स्वयं ही गीत ढलता

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत करुणा की मृदुल सी धार है

गीत घुंघरू की मुखर झंकार है

गीत दिल के बादलों से झर रही

झिरमिराती सी मधुर मनुहार है

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत हैं उत्सव, हैं गीत भी कलरव

स्वर्ग भी हैं ये, हैं और ये रौरव

सुख के और दुःख के अधिमान भी

हैं पुरातन के पुरोधा और अभिनव

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत हैं आलाप उठता कण्ठ से

गीत भीगा है कहीं मकरन्द से

गीत उठता नाद है मिरदंग से

झर रहा अनुराग हो हर छ्न्द से

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत लय है गीत सुर है ताल भी

गीत गति है गीत मद्धिम चाल भी

शौर्य का आह्वान करते गीत हैं

गीत मारक शक्ति भी है ढाल भी

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत गाथागीत बन जग में रमा

लोकरंजक गीत ने बाँधा समा

लोकमंगल गीत बिन कैसे शुरू

गीत ही हर उत्स की है मधुरिमा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

प्रीत की पावन धरा में बीज सा

भावना के सिन्धु में है मीन सा

पुष्प के हर अंग में अभ्यंग में

महमहाता गीत है मधुमास सा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत जीवन जीवनी के गा रहा

प्रेम की पगडण्डियों पे ला रहा

एक बन्जारा समझलो आज मैं

कारवाँ के गीत अपने गा रहा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री रामनारायण सोनी

२५.०१.२४

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 174 – गीत – बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 174 – गीत  –  बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ…  ✍

 

मोल लगाया था जग ने मैं बिकी नहीं

बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ

मंत्र चलाया, जादू डाला

तार तार चादरिया

झूठ खबर ही भिजवा देता

मैं आती साँवरिया

मैं भी तो मीरा सी दरद दिवानी हूँ।

 

जाने किस चुम्बक ने खींचा

खिंची चली में आई

क्या है तेरा कर्ज पावना

आज करूं भरपाई

तुम कहते मधुमती मुझे, मैं पानी हूँ।

मां पहले ही भेज दिया था

देह फूल अब लाई

करो विसर्जित मां का संसार प्राणों की पहुनाई

रंगी पिया के रंग में प्रेम दिवानी।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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