हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचारणीय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – विचारणीय ??

मैं हूँ

मेरा चित्र है;

थोड़ी प्रशंसाएँ हैं

परोक्ष, प्रत्यक्ष

भरपूर आलोचनाएँ हैं,

 

मैं नहीं हूँ

मेरा चित्र है;

सीमित आशंकाएँ

समुचित संभावनाएँ हैं,

 

मन के भावों में

अंतर कौन पैदा करता है-

मनुष्य का होना या

मनुष्य का चित्र हो जाना…?

 

प्रश्न विचारणीय

तो है मित्रो!

© संजय भारद्वाज

(शुक्रवार, 11 मई 2018, रात्रि 11:52 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ महानगर वाया नगर ☆ श्री वीरेंद्र प्रधान ☆

श्री वीरेंद्र प्रधान

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री वीरेंद्र प्रधान जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन (कवि, लघुकथाकार, समीक्षक)। प्रकाशित कृति – कुछ कदम का फासला (काव्य-संकलन), प्रकाशनाधीन कृति – गांव से बड़ा शहर। साहित्यकारों पर केन्द्रित यू-ट्यूब चैनल “प्रधान नामा” का संपादन। )

☆ कविता ☆ महानगर वाया नगर ☆ श्री वीरेंद्र प्रधान  ☆

पहले उच्च शिक्षा पाने कम तादाद में

विलायत जाते थे कुछ लोग

और अंग्रेजी कानून में शिक्षित होकर

कूद पड़ते थे अंग्रेजों के ही विरुद्ध

स्वतंत्रता संग्राम में

त्याग कर सब निजी लाभ

भोग और उपभोग।

भीड़ का हिस्सा न बनकर

अलग रहते थे भीड़ से

और एक रास्ता दिखाते थे भीड़ को

आजाद पंछी बन उड़ते थे

छोड़कर अपने नीड़ को।

 

आज जाते हैं सैकड़ों/हजारों

शिक्षित होने नगर में

नगर से महानगर में

मगर वापिस नहीं लौटते।

नगर में ही बस जाता है गांव

याद रहते हैं

बस सड़क, बिजली और पानी।

खपा देते हैं

रोजी-रोटी और आर्थिक बेहतरी

के संघर्ष में अपनी जवानी।

भीड़ का ही बन जाते हैं हिस्सा

नहीं करते भीड़ से

अलग दिखने की नादानी।

© वीरेन्द्र प्रधान

संपर्क – जयराम नगर कालोनी, शिव नगर, रजाखेड़ी, सागर मध्यप्रदेश 

मो – 7067009815

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #122 ☆ मोहन जीवन प्राण आधार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  भावप्रवण रचना “मोहन जीवन प्राण आधार। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 122 ☆

☆ मोहन जीवन प्राण आधार  

एक आसरो तुमरो स्वामी, झूठो सब संसार

पग-पग में प्रभु कंटक ठाड़े, तुमहिं करो परिहार

रीति जगत की हम नहिं जानें, अजबै कारोबार

कौन प्रभु जी अपनो परायो, मिथ्या जग व्यबहार

मन माया को बनो पुजारी, निरखत रंग हजार

प्रभु “संतोष” दरश को प्यासो, करियो श्याम उद्धार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (1 – 5) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

 

उस निषधराज की पुत्री से जो पुत्र अतिथि को हुआ प्राप्त।

गिरि निषध सा था वह बलशाली था नाम भी उसका ‘निषध’ आप्त।।1।।

 

जैसे वर्षा पा पके शालि से होता आनंदित जहान।

वैसे ही योग्य युवा सुत से नृप अतिथि हुए हर्षित महान।।2।।

 

चिरकाल भोग सब सुख जीवन के, राज्य-भार देकर सुत को

गये अतिथि स्वर्ग, पाने अपने शुभ कर्माजित स्वर्गिक सुख को।।3।।

 

उस कमल नेत्र, गंभीर चित्त, कुश-पौत्र निषध बलशाली ने।

आसिंधु-भूमि पर राज्य यिा एक छत्र जानु-भुजा वाले ने।।4।।

 

उपरांत निषध, पाई गद्दी राजा की तेजस्वी नल ने।

उस कमल कांति वाले ने अरिदल मथा, कमल को ज्यों गज है।।5।।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – किसी के काम आना ही…☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना किसी के काम आना ही…।)

☆ मुक्तक – ।। किसी के काम आना ही जीवन की परिभाषा है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

जाने क्यों आदमी इतना मगरूर रहता है।

जाने कौन से नशे में वो चूर रहता है।।

पानी के बुलबुले सी होती है जिंदगी।

फिर भी अहम में भरपूर रहता है।।

[2]

हर काम स्वार्थ को नहीं सरोकार से करो।

मत किसी का अपमान तुम अहंकार से करो।।

उबलते पानी मेंअपना चेहरा भी दीखता नही है।

जो भी करो बस तुम सही व्यवहार से करो।।

[3]

कुछ पाकर इतरांना ठीक होता नहीं है।

अपनो से ही कतराना ठीक होता नहीं है।।

जाने कौन किस मोड़ पर काम आ जाये।

किसी को यूँ ठुकराना ठीक होता नहीं है।।

[4]

तुम्हारी वाणी ही तुम्हारे दिल की भाषा है।

किसी के लिए कुछ करना सच्ची अभिलाषा है।।

हर कोई आशा करता है सहयोग की।

किसीके काम आना ही जीवन की परिभाषा है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तत्त्वमसि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – तत्त्वमसि ??

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कहन से लजाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

कागज़ मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गये

पन्ने कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू ,

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या

पढ़ता रहा…!

 

© संजय भारद्वाज

प्रात: 9:19 बजे, 25.7.2018

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 110 ☆ बाल कविता – क्यों न मैं तुलसी बन जाऊँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 110 ☆

☆ बाल कविता – क्यों न मैं तुलसी बन जाऊँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

क्यों न मैं तुलसी बन जाऊँ

सारे जन के रोग मिटाऊँ।

घर – आँगन को कर दूँ  पावन

जीवन अपना सफल बनाऊँ।।

 

मैं हूँ रामा, मैं हूँ कृष्णा।

मैं हूँ श्वेत और विष्णु भी।

मैं होती हूँ वन तुलसी भी।

मैं होती नींबू तुलसी भी।

 

पाँच तरह की तुलसी बनकर

खूब ओषजन मैं फैलाऊँ।।

 

एंटी बायरल, एंटी फ्लू

एंटीबायोटिक मैं हूँ होती।

एंटीऑक्सीडेंट बनकर

एंटीबैक्टीरियल होती।।

 

एंटीडिजीज बनकर मित्रो

परहित में ही मैं लग जाऊँ।।

 

खाँसी, सर्दी या जुकाम भी

सब रोगों में काम मैं करती।

कालीमिर्च, अदरक, गिलोय सँग

काढ़ा बन अमृत बन दुख हरती।।

 

हर मुश्किल का करूँ सामना

जीवनभर उपहार लुटाऊँ।।

 

मैं लक्ष्मी का रूप स्वरूपा

मैं हूँ आर्युवेद में माता।

पूरा भारत करता पूजा

कोई मेरा ब्याह रचाता।।

 

मैं श्रद्धा का दीपक बनकर

सदा पुण्य कर मैं मुस्काऊँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (76-81)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (76 – 81) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

यदपि दिग्विजय कामना थी पर हित प्रतिकूल।

तदपि अश्वमेघ चाह थी उचित धर्म-अनुकूल।।76।।

 

शास्त्रविहित पथ मानकर चल नियमों के साथ।

इंद्र-देव के देव सम बना राज-अधिराज।।77।।

 

गुण समानता से हुआ वह पंचम दिक्पाल।

महाभूत में षष्ठ औं अष्ट्म भू भृतपाल।।78।।

 

जैसे सुनते देव सब विनत इंद्र आदेश।

तैसेहि सब राजाओं को थे उसके संदेश।।79।।

 

अश्वमेघ में याज्ञिकों को कर दक्षिणा प्रदान।

‘अतिथि’ धनद अभिधान से बना कुबेर समान।।80।।

 

इंद्र ने वर्षा की, यम ने रोगों का रोका बढ़ाव।

वरूण ने जलमार्ग दे दिखाये मित्रभाव।

कोष में रघु-राम के युग सी कुबेर ने वृद्धि की,

लोकपालों ने अतिथि की, भय से सब समृद्धि की।।81।।

सत्रहवां सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#132 ☆ अदले-बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “अदले-बदले की दुनियाँ…”)

☆  तन्मय साहित्य # 132 ☆

☆ अदले-बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ ढली सँग सूरज भी ढल जाए

फिर ऊषा के साथ लौट वह आये।

 

अदले-बदले के दुनियाँ के रिश्ते हैं

जो न समझ पाते कष्टों में पिसते हैं

कठपुतली से रहें नाचते परवश में

स्वाभाविक ही मन को यही लुभाए….

 

थे जो मित्र आज वे ही प्रतिद्वंद्वी हैं

आत्मनियंत्रण कहाँ सभी स्वच्छंदी हैं

अतिशय प्रेम जहाँ ईर्ष्या भी वहीं बसे

प्रिय अपने ही दिवास्वप्न दिखलाये…..

 

चाह सभी को बस आगे बढ़ने की है

कैसे भी हों सफल, शिखर चढ़ने की है

खेल चल रहे हैं शह-मात अजूबे से

वक्त आज का सबको यही सिखाये…..

 

आदर्शों के हैं अब भी कुछ अभ्यासी

कीमत उनकी कहाँ आज पहले जैसी

अपनों के ही वार सहे आहत मन पर

रूख हवा का नहीं समझ जो पाए….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संपादक के नाम ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता  ☆ संपादक के नाम ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

संपादक जी, इक बात कहूं

बुरा तो नहीं मानोगे जी?

आपका अखबार स्याही से नहीं

लहू से छपता है जी ।

कहीं गोली न चले

बम न फटे, आगजनी न हो

तब आप क्या करेंगे जी ?

संपादक जी, इक बात पूछ लूं ?

देर गए रात तक

अखबार के दफ्तर में बैठकर

अखबार की हेडलाइन बनाने के लिए

अखबार की बिक्री बढाने के लिए

किसके मरने का इंतजार करते रहते हो जी ?

संपादक जी, इक विनती है , मानोगे ?

अखबार के मुखपृष्ठ पर

काले हाशिये में किसी

आतंकवादी का चेहरा न हो

कभी किसी दिन

किसी देव जैसे शिशु का चेहरा

या किसी खुशबू बिखेरते

गुलाब के फूल का चित्र हो

क्या ऐसा दिन कभी आएगा जी ?

संपादक जी, कोई उम्मीद करूं ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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