हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गणतंत्रता दिवस विशेष – राष्ट्र-स्तुति के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गणतंत्रता दिवस विशेष – राष्ट्र-स्तुति के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

शोभित,सुरभित,तेजमय,पावन अरु अभिराम।

राष्ट्र हमारा मान है,लिए उच्च आयाम।।

राष्ट्र-वंदना मैं करूँ,करता हूँ यशगान।

अनुपमेय,उत्कृष्ट है,भारत देश महान।।

नदियाँ,पर्वत,खेत,वन,सागर अरु मैदान।

नैसर्गिक सौंदर्यमय,मेरा हिंदुस्तान।।

लिए एकता अति मधुर,गीता और कुरान।

दीवाली-होली सुखद,एक्यभाव-पहचान।।

सारे जग में शान है,है प्रकीर्ण उजियार।

राष्ट्र हमारा है प्रखर,परे करे अँधियार।।

मातु-पिता,गुरु,नारियाँ,पातीं नित सम्मान।

संस्कार मम् राष्ट्र की,है चोखी पहचान।।

तीन रंग के मान से,हैं हम सब अभिभूत।

राष्ट्रवंदना कर रहे,भारत माँ के पूत।।

राष्ट्रप्रेम अस्तित्व में,आया नवल विहान।

कण-कण करने लग गया,भारत का यशगान।।

रखवाली नित कर रहे,सीमाओं पर लाल।

शौर्य,वीरता देखकर,होते सभी निहाल।।

आज़ादी की वंदना,करता सारा देश।

आओ,हम रच दें यहाँ,वासंती परिवेश।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #166 – तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नव वर्ष पर प्रस्तुत हैं  आपके भावप्रवण तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव…। )

☆  तन्मय साहित्य  #166 ☆

☆ तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव…

पथरीली  पगडंडियाँ,  उस पर  नंगे पाँव।

चिंताओं के बोझ से, गुमसुम-सा है गाँव।।

बारिश में  कीचड़ लगे, गर्मी जले अलाव।

ठंडी  ठिठुराती  यहाँ, डगमग जीवन नाव।।

नव विकास की आँधियाँ, उड़ा ले गई गाँव।

लगा केकटस आँगने, अब तुलसी के ठाँव।।

गाँव  ताकता  शहर को,  शहर  गाँव  की ओर

अपनी-अपनी सोच है, किस पर किसका जोर।।

पेड़  सभी  कटने  लगे,   जो  थे  चौकीदार।

कौन नियंत्रित अब करे, मौसम के व्यवहार।।

कलप रही है कल्पना,  कुढ़ता रहा समाज।

साहूकार की डायरी, चढ़ा ब्याज पर ब्याज।।

ऊब गई है जिंदगी, गिने माह दिन साल।

रीता मन कृशकाय तन,  ढूँढे पंछी डाल।।

अब प्रभात फेरी नहीं, गुम सिंदूरी प्रात

चौराहे चौपाल की,  किस्सों वाली रात।।

इकतारे खँजरी नहीं, झाँझ मृदंग सुषुप्त।

पर्व-गीत औ’ लावणी, होने लगे विलुप्त।।

चौके चूल्हे बँट गए, बाग बगीचे खेत।

दीवारें  उठने  लगी,  घर में फैली रेत।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 54 ☆ गणतंत्र दिवस विशेष ☆ गीत – मातृभूमि… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “मातृभूमि…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 52 ✒️

?  गणतंत्र दिवस विशेष ☆ गीत – मातृभूमि…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

हे मातृभूमि तेरा वंदन

करते हैं हम।

अंजुरी में अर्ध्य लेकर

अर्चन करते हैं हम।।

 

फ़िरते हैं वेश बदले

चहूं ओर भेड़िऐ ,

अपनों की भीड़ में हैं

असंख्य भेदिऐ ,

साग़र की भांति उन पे

गर्जन करते हैं हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

हैं रिश्वती हवाएं

आतंक की बदलियां,

कोहरा है भ्रष्टाचार का

स्वार्थ की बिजलियां ,

फ़िर से नूतन गगन का

सृजन करेंगे हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

कुछ तो शरम करो ऐ

ग़द्दार – ए – वतन ,

अपने ही मृत भाई का

खींचो न तुम कफ़न ,

फ़िर से एक बनेंगे

संकल्प ले – लें हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

किस वास्ते किया है

आत्मा का हनन ,

संकीर्ण सांप्रदायिकता को

कर दें हम दफ़न ,

हैवानियत को छोड़कर

इन्सां बन जाए हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

फ़िर ना उठाएगा कोई

हम पर उंगलियां ,

नई आन – बान होगी

ना उजड़ेगीं बस्तियां ,

दुआ मांगती है सलमा

भारत में हो अमन ।

हे मातृभूमि ——– ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – प्रेम – ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक  विचारणीय कविता – प्रेम)

☆ कविता – प्रेम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

एक झोंका हवा का आएगा

धर्मग्रंथों के पन्ने फड़फड़ा कर बिलखने लगेंगे

सूरज की पहली किरण फूटेगी

अँधेरा चीखता हुआ कहीं दुबक जाएगा

समंदर में पछाड़ खाती लहर उठेगी

भरभरा कर गिर जाएगी इस्पात कंक्रीट की दीवार

एक मुलायम डोर सरसराती हुई आएगी

कट जाएगी नैतिकता की कँटीली तार

छिटक जाएँगे तार में गुंथे वर्जनाओं के पत्थर

प्रेम स्थापित नैतिकता के विरुद्ध विद्रोह है

अनैतिक और उच्छृंखल नहीं है प्रेम

प्रेम दरअसल मनुष्य होने की गवाही है

और इसीलिए प्रेम दुनिया की सबसे बड़ी

कारगर और अनिवार्य नैतिक कार्रवाई है ।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 66 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 66 – मनोज के दोहे ☆

1 बसंत

ऋतु बसंत की धूम फिर, बाग हुए गुलजार।

रंग-बिरंगे फूल खिल, बाँट रहे हैं प्यार।।

2 शिशिर

शिशिर काल में ठंड ने, दिखलाया वह रूप।

नदी जलाशय जम गए, तृण हिमपात अनूप।।

3 ऋतु

स्वागत है ऋतु-राज का, छाया मन में हर्ष।

पीली सरसों बिछ गई, मिलकर करें विमर्ष।।

4 बहार

आम्रकुंज बौरें दिखीं, हुआ प्रकृति शृंगार।

कूक रही कोयल मधुर, छाई मस्त बहार।।

5 परिवर्तन

परिवर्तन अब देश में, दिखने लगा उजास।

शत्रु पड़ोसी देख कर, मन में बड़ा उदास।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धरना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – धरना  ??

वह चलता रहा

वे हँसते रहे..,

वह बढ़ता रहा,

वे दम भरते रहे..,

शनै:-शनै: वह

निकल आया दूर,

इतनी दूरी तय करना

बूते में नहीं, सोचकर

सारे के सारे ऐंठे हैं..,

कछुए की सक्रियता के विरुद्ध

खरगोश धरने पर बैठे हैं..!

© संजय भारद्वाज 

3.01.2020, प्रात: 4:35 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 122 – गीत –प्रतिबंध बहुत हैं… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – प्रतिबंध बहुत हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 122 – गीत – प्रतिबंध बहुत हैं…  ✍

मुझ पर तो प्रतिबंध बहुत हैं

तू तो चल फिर सकता मन।

 

जा जल्दी से निकल बाहरे

कुलियों कुलियों जाना

राजमार्ग पर आ जाये तो

तनिक नहीं घबराना

थोड़ी दूर सड़क के पीछे

दिख जायेगा भव्य भवन।

 

भव्य भवन के किसी कक्ष में

होगी प्रिया उदासी

क्या जाने क्या खाया होगा

कब से होगी प्यासी

सुधबुध खोकर बैठी होगी

अपने में ही आप मगन।

 

पास खड़े हो हौले हौले

केशराशि सहलाना

‘आयेगा’ – वो गीत महल का

धीरे धीरे गाना।

आगे कुछ भी देख न पाऊँ

नीर भरे हो रहे नयन।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ गजल # 123 – “उसकी आँखो की है तारीफ यही……” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गजल –उसकी आँखो की है तारीफ यही…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 123 ☆।। गजल।। ☆

☆ || “उसकी आँखो की है तारीफ यही || ☆

ओढ कर मुस्कराहट की चादर

दिख रहा हरा भरा अपना घर

 

देहरी पर खडा हुआ कोई

पूछ ने क्या हो गई दुपहर ?

 

किस तरह अस्त व्यस्त दिखता है

दूरके गाँव से पुराना शहर

 

उसकी आँखो की है तारीफ यही

लगा करती थी कभी जिनको नजर

 

तुम्हारे घरकी गली में अबभी

ढूँडता हूँ वही पुराना असर

 

देख लें जिन्दा अभी होंगे वहाँ

मिलें किताब में वे फूल अगर

 ©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – घनीभूत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – घनीभूत ??

कंठ से फूटता नहीं शब्द

अवाक हो जाता है यकायक,

सोचता हूँ;

कितनी घनीभूत होती होगी

वाणी का अपहरण

करनेवाली पीड़ा,

जो हरे को कर देती है ठूँठ,

अच्छे बोलते-चलते को

कर देती है मूक !

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 171 ☆ “मौसम औरअंगड़ाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं  विचारणीय कविता  – “मौसम औरअंगड़ाई”)

☆ कविता # 171 ☆ “मौसम औरअंगड़ाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 आज

जैसे चिड़िया 

उड़ी है फुर्र से,

वैसे फुर्र से

उड़ गई है ठंड,

 

आज

जैसे पाहुना 

आता है बिन बताए

वैसे ही सूरज

लेकर आया तेज धूप ,

 

आज

जैसे बच्चा 

खुश होता है

आइसक्रीम पाकर

वैसे ही नीम

के पत्ते खिलखिलाए,

 

आज

जैसे भूख पेट से

लिपट पड़ती है

वैसे ही लिपट रही है

गेहूं की बाली,

 

आज

जब दिन बढ़ने 

लगे हैं बित्ते बित्ते

 तो सियासी समर 

के दिन बचे

हैं कित्ते,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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