हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 120 ⇒ चिंतन मनन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिंतन मनन।) 

? अभी अभी # 120 ⇒ चिंतन मनन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

इस सृष्टि में सभी प्राणियों में से केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो न केवल बोल सकता है, अपितु सोच विचार कर सकता है, अपना अच्छा बुरा और हित अहित भी समझ सकता है। वह आहार, भय, निद्रा के वशीभूत होकर भी यह अच्छी तरह से जानता है कि चिंता से चिंतन भला, चिंता चिता समान।

जहां सोचने विचारने की शक्ति है, वहां मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी मौजूद हैं। भला बुरा और पाप पुण्य तराजू के दो पलड़े हैं और उनका हिसाब रखने वाला कोई तीसरा ही है। ।

कहते रहें इसे ईश्वर की माया, जीव ने अगर जन्म लिया है तो इस संसार को उसे तैरकर ही पार करना है। कब तक चलेंगे किनारे किनारे, जरा सा पांव फिसला और हर हर गंगे।

जहां मनुष्य में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार है, वहीं उसके पास ज्ञान, बुद्धि, विवेक और वैराग्य की बैसाखी भी है। वह पढ़ लिखकर एक अच्छा इंसान बन सकता है। सभी अवतार इस धरती पर ही प्रकट होते हैं, हे भगवान ! कितने भगवान हैं इस धरती पर, कुछ स्वयंभू और कुछ स्वयंसिद्ध। ।

हम जो पढ़ते, सुनते और समझते हैं वह हमारे चित्त में प्रवेश कर जाता है, बुद्धि उसे ग्रहण कर लेती है, और वह हमारी चिंतन प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन जाता है। हम जो पढ़ते हैं, हमें याद हो जाता है, जो सुनते हैं, मन में बैठ जाता है, और जो सुनते हैं, वह भी स्मृति कोष में एकत्रित होता चला जाता है। किसी भंडार से कम नहीं हमारा चित्त।

चिंतन से आगे की प्रक्रिया मनन कहलाती है। जो पढ़ा अथवा सुना है, उस पर बार बार मनन भी आवश्यक है, वर्ना आगे पाट और पीछे सपाट वाली स्थिति बन जाती है। मनन को पढ़े अथवा सुने हुए को हम बार बार दोहराना भी कह सकते हैं। बचपन से ही हमें हर पाठ को दोहराने का अभ्यास कराया जाता है।।

जिस विषय में हम कमजोर होते थे, वह सबक पच्चीस बार दोहराने का सबक किसे याद नहीं। हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन आवश्यक हो जाता है। अंग्रेजी में एक शब्द है cotemplation !

बार बार का अभ्यास ही अध्ययन है, स्वाध्याय है, चिंतन मनन है। सभी तत्वज्ञ, योगी महात्मा और वैज्ञानिक इसी चिंतन, मनन, contemplation और मेडिटेशन की राह से गुजरे हैं। जो प्रकट है, वह प्रत्यक्ष है, जो अप्रकट है, उसका प्रकट होना शेष है। धारणा, ध्यान और समाधि केवल शब्दांडर नहीं, एक जन्म की उपलब्धि नहीं, कई जन्मों के चिंतन मनन का परिणाम है। जानिये, जितना जान सकते हैं, सीमाएं अनंत आकाश है। सितारों के आगे जहान और भी हैं। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 78 – पानीपत… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 78 – पानीपत… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

स्थानांतरण याने ट्रांसफर जो हिंदी में लिखा जाय या इंग्लिश में, सौ में से अस्सी बार तनाव देता है, नया माहौल, अपरिचित लोग, नया शहर/गाँव बहुत कुछ नया नया पर दुख दर्द पुराना पुराना. ये कोविड संक्रमण के समान देश व्यापी है जिसमें कोविशील्ड और कोवैक्सीन भी निष्फल हो जाती है. ऐसा कहा जाता है कि कभी कभी “को ब्रदर और को सिस्टर” नामक वैक्सीन रोग की व्यथा कम या दूर कर देती है. वांछित स्थान के स्थानांतरण आदेश प्रेमपत्र जैसे अजीज लगते हैं और दुर्गम स्थान के आदेश चार्जशीट के समान, जो पाने वाले का सुकून डिस्चार्ज कर देते हैं. पानीपत सदृश्य शाखा के मुख्य प्रबंधक “घर वापसी” का आदेश सपनों में अक्सर देखा करते थे और सपनीली खुशी के कारण आंख खुलने पर “मेरा सुंदर सपना टूट गया ” मद्धम सुर में गाते थे.

फिर कुछ दिनों बाद चुनावों का मौसम आया. ये विधानसभा या संसद के चुनाव नहीं थे बल्कि अधिकारी संघ के चुनाव थे. महासचिव पद के प्रत्याशी अपने अगले टर्म के लिये दलबल सहित शाखा में पधारने वाले थे. रात में रुकने की व्यवस्था और समीपस्थ सारी शाखाओं के अधिकारियों को शाम 5 बजे के बाद संबोधित करने के निर्देश, इन्हें प्राप्त हो चुके थे. शाखाओं के कुछ प्रवीण अधिकारी रुकने और सभा की व्यवस्था में लग चुके थे. उपस्थिति के हिसाब से सभा के लिये नगर के ही प्रसिद्ध होटल के मीटिंग हाल का चयन किया जा चुका था. आने वाले मेहमान जो मंचासीन होंगे, की संख्या ज्ञात करने के पश्चात एक सैकड़ा पुष्प मालायें और पुष्प गुच्छ आ चुके थे. पहले वेलकम शीतल पेय से और फिर संबोधन के पश्चात हाई टी की बेहतरीन व्यवस्था की गई थी. समयानुसार महासचिव की अगुवाई में उनके नौ सहयोगी सभाकक्ष में प्रविष्ट हुये. सारे अधिकारी गण पहले ही आ चुके थे. जो आपसी बातचीत में मगन थे, यह दृश्य देखकर उठ खड़े हुये और करतल ध्वनि से स्वागत करने की प्रतियोगिता में नज़र आने का प्रयास करते दिखे. महासचिव पद के प्रत्याशी, जिनका फिर से चुना जाना भी सुनिश्चित ही था, उड़ती नजरों से उपस्थित जनों को देखते हुये, सभाकक्ष की पहली पंक्ति में स्थान ग्रहण करने के लिये बढ़ रहे थे. जिन्हें पहचानते थे, उनकी ओर हल्की सी मुस्कान फेंकते और परिचित निहाल हो जाता. इसके पहले कि वे प्रथम पंक्ति में बैठते, हमारे मुख्य प्रबंधक उन्हें शालीनता के साथ मंच की ओर ले गये और सम्मान के साथ मध्य में बिठाया. टीम के शेष सदस्य, निर्देशानुसार पहली पंक्ति में ही बैठ गये. मीटिंग हॉल रोशनी से जगमगा रहा था, ब्लैक सफारी में सुसज्जित, क्लीन शेव, अत्यंत गौर वर्ण के महासचिव के चेहरे का तेज और व्यक्तित्व का प्रताप, स्टेज से भी ज्यादा दीपायमान था. उपस्थित जन उनकी सुंदर काया से चमत्कृत थे और तुरंत वोट देने को तैयार भी. मंच संचालन, इस कार्य के विशेषज्ञ युवा अधिकारी द्वारा किया जा रहा था और पर्याप्त समय और पर्याप्त से भी अधिक शब्दों के साथ प्रशस्तिगान चल रहा था. फिर उनकी टीम के शेष सदस्य एक एक करके पहले मंच संचालक द्वारा और फिर स्वयं भी अपना परिचय देते हुये विराजित होते गये. स्वागत भाषण के बाद और कुछ वक्ताओं के संक्षिप्त उदबोधन के पश्चात, शाखा के मुख्य प्रबंधक को सुपरसीड करते हुये, महासचिव जी ने संबोधन की डोर संभाली. उनके भाषण के कुछ रोचक अंश:

  1. पानीपत शाखा के मुख्य प्रबंधक (नाम लिया था) तो खुश होंगे कि आज फिर, … वे बोलने से बच गये. मेरे अनुज के साथी हैं और यहाँ इनकी पदस्थापना से पहली बार मुझे लगा कि बैंक सिर्फ बोलने वालों को नहीं बल्कि कभी कभी साइलेंट वर्कर्स को भी नोटिस कर लेती है.
  2. ये आखिरी चुनाव होगा, यह सुनकर हाल में उत्तेजक खामोशी छा गई. फिर थोड़ा समय लेकर और अपनी लोकप्रिय मुस्कान से उन्होंने हॉल को आलोकित किया और बोले: मित्रों, अभी मैं रिटायर होने वाला नहीं हूँ और मेरा स्वास्थ्य भी टनाटन है. (ये उनकी बोलने की शैली थी और सब इस शैली के हास्यरस से परिचित थे) उनकी जीत का एक फैक्टर उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी था जिसे वो गाहे बगाहे इस्तेमाल करते रहते थे. उनकी हाजिरजवाबी से बहुत सी डिमांड, हंसी के माहौल में ही सैटल हो जाती थीं. फिर उन्होंने कहा कि हम सब एक संस्था से जुड़े हैं और आपकी समस्याओं के लिये आवाज उठाना और अधिकतम प्रकरणों में निदान पाना, हम सबकी लड़ाई है. जब हम सब एक हैं तो फिर इलेक्शन क्यों. वो मेरा आदमी है और ये उसका, मैं इस पर नहीं जाता. चुनाव माहौल बिगाड़ता है और हमारी एकता को खंडित करता है, इस कारण ही उच्च प्रबंधन दूर से मजे लेता है. एक बागी तेवर वाला नौजवान मेरे पास आया था. मैंने यही समझाया कि आपस में लड़ने से बेहतर मेरा साथ दो. मेरी पारखी नजरें तुम्हारे भीतर एक उप महासचिव बनने की संभावनाएं देख रही हैं, थोड़ा धीरज रखो. समझदार बंदा था मान गया.
  3. भोपाल का पानी, अपने फायदे की राजनीति सिखा देता है. भोपाल घरवापसी के लिये इतने लोग मिलने आते हैं कि सुकमा, बीजापुर, पखांजूर, अंतागढ़, कमलेश्वरपुर वालों के बारे में सोचना भी भूल जाते हैं. ये नाम तक मुझे याद नहीं हैं, लिखकर लाना पड़ा.

इस तरह हंसी मजाक के बीच में सहजता के माहौल में मीटिंग समाप्त हुई. बाद में उनसे भेंट के दौरान ही और एकांत पाने पर मुख्य प्रबंधक जी ने अपनी घरवापसी के लिये मदद करने की बात कही. महासचिव जानते थे कि इन्हें तो अभी एक साल भी नहीं हुआ है. तो उनका ह्यूमर फिर से बाहर आया “अरे एक साल में तो मैं अपना ट्रांसफर भी नहीं करा सकता. हमारे भी स्थानांतरण हुये हैं अच्छे भी और बुरे भी. अभी भी हमारे दो ट्रांसफर तो होते ही होते हैं. एक हारने पर और दूसरा घर वापसी याने जीतने पर. पास खड़े लोग मुस्कान बिखेर रहे थे. फिर बाद में महासचिव महोदय अपने परिचितों के साथ अआगे की नीति बनाने में व्यस्त हो गये.

कथा में वर्णित सारे पात्र काल्पनिक हैं और यहाँ से कोस कोस दूर तक उनका किसी वास्तविक पात्र से कोई संबंध नहीं है. इंज्वॉय कीजिए क्योंकि अब तो यही करना चाहिए. डॉक्टर मनमोहनसिंह जी की नकल प्रधानमंत्री नहीं बना सकती इसलिए “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल.”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 119 ⇒ तमीज और तहजीब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तमीज और तहजीब”।)  

? अभी अभी # 119 ⇒ तमीज और तहजीब? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

• Manners & Etiquettes

विद्या ददाति विनयम् !

जहां शिक्षा है, वहां संस्कार है। हमने साक्षरता पर अधिक जोर दिया है, डिग्रियों पर दिया है, लेकिन बुद्धि, ज्ञान और विवेक पर नहीं दिया। मानवीय गुणों के अभाव के कारण अभी तक हमारी शिक्षा अधूरी ही साबित हुई है ;

दया, धर्म का मूल है

पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छोड़िए

जब तक तन में प्राण। ।

हम मूक प्राणियों पर तो दया का ढोंग करते हैं, कहीं कबूतरों को दाना चुगाते हैं, तो कहीं चींटियों तक को आटा डालते हैं, लेकिन आपस में इंसान से नफरत और दुश्मनी पालते हैं। कहीं पैसे के लिए, तो कहीं पानी के लिए, एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं।

नीति का तो पता नहीं, और राजनीति करते नजर आते हैं। और शायद यही कारण है कि हमारी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर है। हमारे पांव तो जमीन पर नहीं, लेकिन हम आसमान छूना चाहते हैं।

तमीज को हम मैनर्स कहते हैं, मैनर्स यानी इंसानों वाली हरकतें। लोक व्यवहार हमारी तहजीब का एक हिस्सा है। एक सभ्य समाज की नींव माता पिता के संस्कार, स्कूल में शिक्षक की शिक्षा दीक्षा और जीवन में सदगुरु के शुभ संकल्प पर ही मजबूत होती है। ।

सभ्यता की अपनी अलग परिभाषा है। एक गांव का अनपढ़ किसान अथवा आदिवासी भी सभ्य हो सकता है और शहर का कथित पढ़ा लिखा इंसान भी असभ्य। लेकिन हमने सभ्यता को शिक्षा, पद, पैसा और कपड़े लत्ते से जोड़ लिया है, और इसीलिए आज की आधुनिक पीढ़ी पढ़ लिखकर भी असभ्य और अनैतिक होती जा रही है, जिसका असर उन लोगों पर पड़ रहा है, जिन्हें अच्छी शिक्षा और संस्कार नहीं मिले हैं। गुड़ गोबर एक होना इसी को कहते हैं।

एक समय था, जब हर छोटी बड़ी सरकारी अथवा गैर सरकारी नौकरी के लिए चरित्र प्रमाण पत्र मांगा जाता था, तब भी भले ही यह एक महज औपचारिकता मात्र ही हो, लेकिन नौकरी का चरित्र से क्या संबंध। आपकी निजी जिंदगी आपकी है। ढंग से काम करो, और ऐश करो। ।

छोटी मोटी नौकरियों के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट, फिटनेस सर्टिफिकेट और ड्राइविंग लाइसेंस ही काफी है। एक पेशेवर ड्राइवर के लिए शराब पीकर वाहन चलाना अपराध है, बाकी उसके चाल चलन की जिम्मेदारी प्रशासन की नहीं है। चोरी, डकैती, स्मगलिंग जैसे अपराध तो पकड़े जाने पर ही सामने आते हैं। पुलिस और प्रशासन कोई भगवान नहीं, जो हर आती जाती गाड़ी पर निगरानी रखता फिरे।

आज के युग में सभी अपराधों की जड़ है, easy money ! पैसा कमाना आर्थिक अपराध नहीं। रिश्वत अगर अपराध होती, तो लोगों के घर ही नहीं बनते, गाड़ी बंगले कार जहां, वहीं तो है भ्रष्टाचार।

फिर भी आप easy money को काला पैसा, यानी ब्लैक मनी नहीं कह सकते। पैसा दिमाग और सूझ बूझ से कमाया जाता है। हर ईमानदार गरीब नहीं होता और हर बईमान अमीर भी नहीं हो सकता। सबका नसीब अपना अपना। ।

जहां तमीज नहीं, तहजीब नहीं, वहां बदतमीजी और बदमिजाजी है। आप किसी को तमीज नहीं सिखला सकते। किसी का अच्छा व्यवहार किसे नहीं सुहाता, लेकिन किसी का दुर्व्यवहार आपको मानसिक चोट पहुंचा सकता है। पुरुष हो या महिला, दुर्व्यवहार आजकल आम बात है।

जिनके अपने वाहन नहीं होते, उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ही सहारा लेना पड़ता है। पहले आप डिजिटल अपडेट हों, अपनी आर्थिक स्थिति अनुसार ओला, जुगनू अथवा उबेर बुक करें। कभी कभी जल्दी में, चलते रिक्शा को भी रोक लेना पड़ता है। बुक किए वाहन का तो हमारे पास ऑटो नंबर सहित पूरी जानकारी होती है, लेकिन तत्काल उपलब्ध वाहन और चालक की हमारे पास कोई जानकारी नहीं होती। ।

पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। अच्छे बुरे सभी तरह के लोग हर पेशे में होते हैं, आपसे कौन टकराता है, यह तो आप भी नहीं जानते। मेरा अब तक का अनुभव इतना बुरा भी नहीं रहा। लेकिन पिछले दिनों एक ऑटो चालक की बदतमीजी और बदमिजाजी ने तो सभी हदें पार कर दी।

जब हम दूध से जलते हैं तो छाछ भी फूंक फूंककर पीने लगते हैं। इतनी बेपरवाही भी अच्छी नहीं। अपनी सुरक्षा के लिए पहले ऑटो का नंबर नोट करें, उसके बाद ही यात्रा सुख का आनंद लें। आजकल तो मोबाइल ने यह काम भी आसान कर दिया है। ।

फिर भी कहने वाले तो कहते ही रहते हैं ;

हर शाख पे उल्लू बैठा है

अंजामे गुलिस्तां क्या होगा

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 46 – देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 46 ☆ देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र लाल कोठी क्षेत्र, जयपुर में स्थित “जन्म/ मृत्यु” पंजीयन कार्यालय का है। आगंतुकों के लिए बैठने की उपलब्ध बेंच को लेवल करने के लिए एक किनारे पर पत्थर लगाया हुआ हैं। दूसरा सिरा बहुत नीचे है। कुर्सी की बेंत भी नहीं है, ताकि गर्मी में पीठ से पसीना नहीं आए।

ये तो एक उदहारण है, डेढ़ वर्ष पूर्व भी ये ही दृश्य था। कौन इसका जिम्मेवार हैं? इस प्रकार के मनभावन दृश्य प्राय सभी सरकारी विभाग में मिल जाते हैं। इसका दूसरा पहलू ये भी है कि यदि किसी जगह टूटा/ गंदा फर्नीचर पड़ा है, तो आप बिना गूगल की मदद से ये जान सकते है, कि ये ही सरकारी कार्यालय हैं। अनुपयोगी सामान से तो सामान का ना होना ही उचित होता हैं। सरकारी कर्मचारी खराब सामान को हटाने में डरते हैं, कि कहीं कुछ गलत ना हो जाए, वैसे गलत (रिश्वात इत्यादि) कार्य अधिकतर कर्मचारियों के प्रतिदिन का प्रमुख कार्य होता हैं।

करीब दो दशक पूर्व तक बैंकों में भी ग्राहकों के लिए पुराना/ टूटा हुआ फर्नीचर कुछ शाखाओं में मिल जाता था। वर्तमान में स्थिति बहुत बेहतर हैं। हालांकि मुख्य यंत्र सिस्टम, नेट प्रणाली, कंप्यूटर, प्रिंटर इत्यादि समय समय पर विश्राम में चले जाते हैं।

पुलिस थानों की स्थिति तो और भी भयावह हैं।  जब्त किए गए वाहन, न्यायालय के निर्णय/ आदेश की दशकों तक प्रतीक्षा करते हुए जंग( rust) से जंग लड़ते हुए, अपना अस्तित्व समाप्त कर लेते हैं।

कर उपदेश कुशल बहुतेरे” मेरे स्वयं के घर में भी ढेर सारी अनुपयोगी वस्तुओं उपलब्ध हैं।

 © श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 118 ⇒ बजरबट्टू… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बजरबट्टू”।)  

? अभी अभी # 118 ⇒ बजरबट्टू? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बचपन में पहली बार यह शब्द मेरे गुरुतुल्य अग्रज श्रद्धेय हरिहर जी लहरी के मुंह से सुना था, जब वे पढ़ाते वक्त अपने विद्यार्थी को संबोधित करते हुए अक्सर कहा करते थे, अरे बजरबट्टू ! तुम्हारे मस्तिष्क में हम जो समझाते हैं, वह प्रवेश करता है भी कि नहीं।

हम तो बजरबट्टू का मतलब तब ही समझ गए थे, लेकिन उसके बाद इस शब्द का प्रचलन लुप्तप्राय हो गया। जब शब्दकोश में मूर्ख, जाहिल और बेवकूफ जैसे शालीन और प्रभावशील शब्द मौजूद हों, तो बेचारे बजरबट्टू को कौन पूछे।।

बहुत समय बाद अचानक कहीं यह शब्द फिर कानों में पढ़ा ! खोज की तो पता चला, पहाड़ी नस्ल के एक घोड़े को भी बजरबट्टू कहा जाता है, जो खच्चर से कुछ मिलता जुलता है। शायद इसीलिए हम आज जाकर यह समझ पाए कि लहरी जी ने उस छात्र को बजरबट्टू क्यों कहा था।

आप बजरबट्टू को यूं ही नजरंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि बजरबट्टू एक वृक्ष से निकलने वाले दाने को भी कहते हैं। इस दाने की माला को नजर से बचाने के लिए बच्चों को पहनाया जाता है। बोलचाल की भाषा में जिसे बरबटी कहते हैं, वह भी एक पौधे का बीज ही है, जिसे ही शहरी भाषा में beans कहा जाता है। प्रकृति में ऐसे कितने पौधे और उपयोगी जड़ी बूटियां हैं, जिनसे हम तो दूर हैं, लेकिन आदिवासी और पशु पक्षी भली भांति परिचित हैं।।

जिस तरह बुद्धिमानी किसी की बपौती नहीं, उसी तरह मूर्खता पर भी किसी का एकाधिकार नहीं। कोई मूर्ख है तो कोई वज्र मूर्ख। जरा वज्र मूर्ख में वज्र का वजन तो देखिए, क्या आप उसे टस से मस कर सकते हैं। दुख तो तब होता है जब कुछ लोग इसी अर्थ में जड़ भरत जैसे शब्द का भी प्रयोग कर बैठते हैं। जो संसार की आसक्ति से बचने के लिए जड़वत् रहे, वह जड़ भरत।

बहुत अंतर है उज्जड़ और जड़वत् भरत में, लेकिन कौन समझाए इन बजरबट्टुओं को।

इसी से मिलता जुलता एक और शब्द है नजरबट्टू, जिसका सीधा सीधा संबंध नजर से ही है। हम भले ही अंध विश्वास को ना मानें, फिर भी मां अपने बच्चे को हमेशा बुरी नजर से बचाकर ही रखेगी, और उसकी नजर भी उतारेगी। बुरी नजर वाले, तेरा मुंह काला तो ठीक है, लेकिन आजकल आपको बाजार में आपको नजरबट्टू के मुखौटे भी नजर आ जाएंगे, जिनको पहनना आजकल फैशन होता जा रहा है।।

सभी जानते हैं, उज्जैन टेपा सम्मेलन के लिए भी जाना जाता है। एक अप्रैल मूर्ख दिवस जो होता है। इस विशुद्ध हास्य और साहित्यिक आयोजन की देखादेखी आजकल राजनेता बजरबट्टू सम्मेलन का आयोजन करने लग गए हैं। जो असली है, उसे नकली से छुपाया नहीं जा सकता।

जो अभी नेता है, वही आज का वास्तविक अभिनेता है।

बजरबट्टुओं को किसी की नजर नहीं लगती। अपनी असलियत नजरबट्टू के मुखौटे में छुपाने से भी क्या होगा। कल ही एक ऐसे कलाकार का जन्मदिन था, जो झुमरू भी था और बेवकूफ भी। खुद हंसता था, सबको हंसाता था। एक बेहतरीन, संजीदा इंसान, अभिनेता, सफल गायक, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, संगीत निर्देशक, क्या नहीं था वह। जैसा अंदर था, वैसा बाहर था, करोड़ों प्रशंसकों का चहेता किशोर कुमार। उसी का एक मस्ती भरा गीत;

सच्चाई छुप नहीं सकती

बनावट के उसूलों से।

कि खुशबू आ नहीं सकती

कभी कागज़ के फूलों से।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 203 – इनबिल्ट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 203 इनबिल्ट ?

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों की प्रगति तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर हैं। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज़ मांगते हो, वह रोज़ मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज़ लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताए मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी आंतरिक प्रेरणा को जाग्रत करता है। यह प्रेरणा बताती है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि हे प्रभो,  फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जाग्रत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 117 ⇒ जे सी बी (Joseph Cyril Bamford)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  व्यंग्य – “जे सी बी (Joseph Cyril Bamford)।)  

? अभी अभी # 117 ⇒ जे सी बी (Joseph Cyril Bamford)? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

सृष्टि के सर्जक, पालक और संहारक भले ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश हों, कलयुग में निर्माण और विध्वंस का कार्य जेसीबी ने अपने जिम्मे ले लिया है। आपातकाल में बुलडोजर का आतंक था, अमृत काल में यह जेसीबी विकास रथ को देश के नव निर्माण की ओर अग्रसर कर रही है।

आप केबीसी को कौन बनेगा करोड़पति कह सकते हैं, केवायसी(KYC) को know your customer कह सकते हैं, लेकिन जेसीबी, जैसी भी है, वैसी ही कहलाएगी।

स्कूल की बसों की तरह इसका रंग भी पीला ही कर दिया गया है। भरे बाजार में जब यह भीमकाय यंत्र चलता है तो किसी आवारा सांड अथवा पागल हाथी से कम खतरनाक प्रतीत नहीं होता। शुक्र है, इसका महावत एक कुशल ड्राइवर होता है, फिर भी हादसे तो हो ही जाते हैं।।  

हमारे देश में कई क्रांतियां हुई हैं। जेपी की संपूर्ण क्रांति के बाद अब जेसीबी पूरे देश में समृद्धि की क्रांति ला रही है। बड़ी बड़ी हाइड्रोलिक मशीनें मेट्रो और रेलवे ट्रैक का निर्माण कर रही हैं। किसान के खेत से लगाकर स्मार्ट सिटी तक आज जेसीबी का ही राज है।

आजकल गणित में पहले जैसे सवाल नहीं पूछे जाते! बीस मजदूर एक कुएं को दस दिन में खोदते हैं, तो पचास मजदूर कितने दिनों में खोदेंगे। मजदूर की तो कब की छुट्टी हो गई है। ड्रिलिंग मशीन चार घंटे में चार सौ फीट नीचे पाताल से पानी निकाल लाती है। बोल मजूरा हल्ला बोल की तो अब बोलती ही बंद है।।  

विकास की धारणा हमारे यहां देशी विदेशी का कॉकटेल है। हम विदेशों से ज्ञान भी अर्जित करते हैं और तकनीक भी लेकर आते हैं, जो हमें आगे चलकर स्वावलंबन का पाठ पढ़ाती है। एक बच्चा भी पहले माता पिता की उंगली का सहारा लेता है, और बाद में अपने पांव पर खड़ा ही नहीं होता, बुढ़ापे में अपने माता पिता का सहारा बनता है।

आज बच्चे पढ़ लिखकर विदेश में बस रहे हैं, और ये श्रवणकुमार और कुमारियां अपने माता पिता को तीर्थाटन नहीं, अपने पास बुलाकर वर्ल्ड टूर करवाते हैं। फिर भी अगर आपको हमारे देश में कहीं वृद्धाश्रम नजर आते हैं, तो समझिए, अभी ग्लास आधा खाली है, और आधा भरा है।

आपने स्वराज पॉल का नाम तो सुना ही होगा, लॉर्ड स्वराज पॉल! वे भारतीय मूल के एक ब्रिटिश उद्योगपति हैं। स्वराज माजदा ट्रक हो अथवा स्वराज ट्रैक्टर, पूरे देश में इनका जाल बिछा हुआ है। देश में हों या विदेश में, नाम तो हमारे देश का ही रोशन कर रहे हैं।।  

जेसीबी को बेकहो लोडर्स भी कहते हैं। 92 HP की ताकत, इसका खुद का वजन करीब 7460 किलो और इसकी वजन उठाने की क्षमता आठ हजार किलो।

मेरे आवास के पास एक बहुमंजिला आवासीय इमारत बन रही है। रोज सुबह ९ बजे जेसीबी आ जाती है, बेचारी काम पर लग जाती है। यहां गड्ढा खोदा, मिट्टी निकाली, कहीं दूर जाकर फेंकी। सभी तरह का बोझा भी ढो ले। कभी कलपुर्जे ढीले हो जाएं तो काम ठप पड़ जाए। बस जैसी भी है, बेचारी मशीन है। उसे आदेश मिलेगा तो चंद मिनटों में किसी का मकान भी तोड़फोड़ देगी। ईश्वर करे इसका उपयोग विकास में ही हो, विनाश और विध्वंस में नहीं।।  

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 116 ⇒ उंगलियों का अंक गणित… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगलियों का अंक गणित”।)  

? अभी अभी # 116 ⇒ उंगलियों का अंक गणित? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

हम आज न तो हाथों की चंद लकीरों का जिक्र करेंगे और न ही आसन, प्राणायाम से जुड़ी मुद्राओं का, हमारे दोनों हाथों की दस उंगलियों का सीधा सादा गणित है यह, जिसका न तो सामुद्रिक शास्त्र से कुछ लेना देना है, और न ही हस्त रेखा और ज्योतिष अथवा एक्यूप्रेशर से।

जिन उंगलियों पर आज नारियां पुरुषों को नचा रही हैं, कभी उन उंगलियों पर बचपन में हमने गिनती सीखी है, जोड़ना घटाना सीखा है। कहने को हमारी उंगलियां पांच हैं, लेकिन हर उंगली के बीच तीन आड़ी लकीरें हैं, और दाहिने अंगूठे

के बीच चार। वैसे जरूरी नहीं, आपके हाथ में भी ऐसा ही हो। जोड़ने वाले इसे किसी भी विज्ञान से जोड़ें, हम तो मुट्ठी बांधते हैं और खोलते हैं, जहां जहां से उंगलियां मुड़ती हैं, वहां लकीरें स्वाभाविक रूप से ही बन जाती हैं।।

हमने इन उंगलियों पर दिन रात गिने हैं, सप्ताह के दिन गिने हैं, इंतजार के दिन गिने हैं और बैंक की नौकरी में इन्हीं उंगलियों से नोट भी गिने है। इन्हीं उंगलियों को हमने कभी कैसियो और हारमोनियम पर नचाया है तो इन्हीं उंगलियों से हमने घंटों टाइपराइटर पर थीसिस भी टाइप की है। हमारे जीवन में हमने कभी किसी पर अनावश्यक उंगली नहीं उठाई और न ही किसी ने कभी हमें उंगली दिखाई।

हमारा अंकों और अक्षरों का ज्ञान पट्टी पेम अर्थात् स्लेट से ही तो शुरू होता था। गिनती के लिए एक लकड़ी अथवा प्लास्टिक का बोर्ड आता था, जिसके अंदर दस पतले तारों के बीच कुछ लकड़ी अथवा प्लास्टिक के मोटे, गोल गोल दाने झूलते रहते थे। हर खाने में दस दाने होते थे। आप उनको हाथ से चलाकर गिन सकते थे। गिनती सीखने का यह बोर्ड एक खिलौना था बच्चों के लिए। फिसलपट्टी की तरह दाने फिसल रहे हैं, एक, दो, तीन, चार और इस तरह गिनती भी सीखी जा रही है, एक से सौ तक। मोतियों की माला की तरह ही तो था यह टेबल बोर्ड।।

स्लेट पट्टी और ऐसे खिलौने छूट गए लेकिन उंगलियों पर गिनने की कला आज भी जारी है। सभी चीजें उंगलियों पर ही तो याद की जाती हैं, आटा, दाल, शकर, माचिस, तेल और बच्चों की मैगी भी खत्म हो गई। क्या क्या याद रखें।

घर के सदस्यों और रिश्तेदारों की लिस्ट तो हम पहले उंगलियों पर ही बनाते थे। तीस तक की संख्या तो उंगलियों के बीच आसानी से समा जाती थी। जब कोई बड़े अंकों वाली संख्या पढ़ने में आती थी, तो उंगलियों पर गिनना पड़ता था, इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, बाप रे, यह तो पच्चीस लाख है।।

हमने बहुत कुछ याद किया है इन उंगलियों पर। हनुमान चालीसा हो अथवा दोहा चौपाई। दादी जी को हमने इन्हीं उंगलियों से माला जपते देखा है। हमने इन्हीं उंगलियों पर अगर समय को नापा है तो पैदल चलते समय, दूरी को भी नापा है। चलते वक्त हम अपने ही कदम उंगलियों पर गिनते जाते हैं। इन उंगलियों पर हमने हजारों तक गिनना सीख लिया है। कितने कदम चलने पर एक किलोमीटर होता है, हमें अच्छी तरह ज्ञात है। आजकल यह काम भी महंगी महंगी घड़ियां कर रही हैं।

कभी जो अपना हाथ जगन्नाथ था, उसके बीच आज एड्रॉयड, डेस्कटॉप और पीसी आ गया है। उंगलियों के साथ आंखें भी व्यस्त हो गई हैं। जो उंगलियां कभी आजाद थी, आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की गुलामी कर रही है। इंसान वर्कोल्हिक

और बच्चे भी आपस में ऑनलाइन हो गए हैं। इतना होमवर्क और कितने कंप्यूटर गेम्स, क्या करे बेचारे। आंखों पर चश्मा तो चढ़ना ही है।।

हम किसी पर उंगली नहीं उठा रहे, बस आज भी अपनी उंगलियों का कमाल देखते हैं। इसी उंगली पर किसी ने गोवर्धन पर्वत धारण किया था और समय आने पर सुदर्शन चक्र भी चलाया था। एकलव्य ने गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा भेंट किया था, फिर भी वह अर्जुन जैसा ही धनुर्धर था।

हम भी अगर चाहें तो हमारी पांचों उंगलियां घी में हो सकती हैं, बस अपने सर को कढ़ाई से बचा लीजिए। अनावश्यक कहीं उंगली मत कीजिए, अपनी उंगलियों का सदुपयोग कीजिए। किसी कंप्यूटर से कम नहीं आपकी दसों उंगलियां।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #194 ☆ ख़ामोश रिश्ते ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोश रिश्ते। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 194 ☆

ख़ामोश रिश्ते 

‘मतलब के बग़ैर बने संबंधों का फल हमेशा मीठा होता है’… यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु हैं कहां आजकल ऐसे संबंध? आजकल तो सब संबंध स्वार्थ के हैं। कोई संबंध भी पावन नहीं रहा। सो! उनकी तो परिभाषा ही बदल गई है। ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध और रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ यह बयान करते हैं, दर्द के संबंधों और उनकी हक़ीक़त को, जिनका आधिपत्य पूरे समाज पर स्थापित है। रिश्ते ख़ामोश हैं, पहाड़ियों की तरह और उनकी अहमियत तब उजागर होती है, जब आप उन्हें पुकारते हैं, अन्यथा आपके शब्दों की गूंज लौट आती है अर्थात् आपके पहल करने पर ही उत्तर प्राप्त होता है, वरना तो अंतहीन मौन व गहन सन्नाटा ही छाया रहता है। इसका मुख्य कारण है– संसार का ग्लोबल विलेज के रूप में सिमट जाना, जहां इंसान प्रतिस्पर्द्धा के कारण एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है और अधिकाधिक धन कमाना… उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। वह आत्मकेंद्रितता के रूप में जीवन में दस्तक देता है और अपने पांव पसार कर बैठ जाता है, जैसे वह उसका आशियां हो। वैसे भी मानव सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है, क्योंकि उसके स्वार्थ एक-दूसरे से टकराते हैं। वह सब संबंधों को नकार केवल ‘मैं ‘अर्थात् अपने ‘अहं’ का पोषण करता है; उसकी ‘मैं’ उसे सब से दूर ले जाती है। उस स्थिति में सब उसे पराये नज़र आते हैं और स्व-पर व राग-द्वेष के व्यूह में फंसा आदमी बाहर निकल ही नहीं पाता। उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता और स्वार्थ-लिप्तता के कारण वह उनसे मुक्ति भी नहीं प्राप्त कर सकता।

आधुनिक युग में कोई भी संबंध पावन नहीं रहा; सबको ग्रहण लग गया है। खून के संबंध तो सृष्टि- नियंता बना कर भेजता है और उन्हें स्वीकारना मानव की विवशता होती है। दूसरे स्वनिर्मित संबंध, जिन्हें आप स्वयं स्थापित करते हैं। अक्सर यह स्वार्थ पर टिके होते हैं और लोग आवश्यकता के समय इनका उपयोग करते हैं। आजकल वे ‘यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास करते हैं, जो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। समाज में इनका प्राधान्य है। इसलिए जब तक उसकी उपयोगिता-आवश्यकता है, उसे महत्व दीजिए; इस्तेमाल कीजिए और उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति बाहर फेंक दीजिए…जिसका प्रमाण हम प्रतिदिन गिरते जीवन-मूल्यों के रूप में देख रहे हैं। आजकल बहन, बेटी व माता-पिता का रिश्ता भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहा। इनके स्थान पर एक ही रिश्ता काबिज़ है औरत का…चाहे दो महीने की बालिका हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा, उन्हें मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है, जिसका प्रमाण हमें दिन-प्रतिदिन के बढ़ते दुष्कर्म के हादसों के रूप में दिखाई देता है। परंतु आजकल तो मानव बहुत बुद्धिमान हो गया है। वह  दुष्कर्म करने के पश्चात् सबूत मिटाने के लिए, उनकी हत्या करने के विमिन्न ढंग अपनाने लगा है। वह कभी तेज़ाब डालकर उसे ज़िंदा जला डालता है, तो कभी पत्थर से रौंद कर, उसकी पहचान मिटा देता है और कभी गंदे नाले में  फेंक… निज़ात पाने का हर संभव प्रयास करता है।

आजकल तो सिरफिरे लोग गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, बहन-भाई आदि सब संबंधों को ताक पर रख कर– हमारी भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वे मासूम बालिकाओं को अपनी धरोहर समझते हैं, जिनकी अस्मत से खिलवाड़ करना वे अपना हक़ समझते हैं। इसलिए हर दिन उस अबला को ऐसी प्रताड़ना व यातना को झेलना पड़ता है… वह अपनों की हवस का शिकार बनती है। चाचा, मामा, मौसा, फूफा या मुंह बोले भाई आदि द्वारा की गयी दुष्कर्म की घटनाओं को दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है, क्योंकि इससे उनकी इज़्ज़त पर आंच आती है। सो! बेटी को चुप रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है, क्योंकि इसके लिए अपराधी उसे ही स्वीकारा जाता है, न कि उन रिश्तों के क़ातिलों को… वैसे भी अस्मत तो केवल औरत की होती है… पुरुष तो जहां भी चाहे, मुंह मार सकता है… उसे कहीं भी अपनी क्षुधा शांत करने का अधिकार प्राप्त है।

आजकल तो पोर्न फिल्मों का प्रभाव बच्चों, युवाओं व वृद्धों पर इस क़दर हावी रहता है कि वे अपनी भावनाओं पर अंकुश लगा ही नहीं पाते और जो भी बालिका, युवती अथवा वृद्धा उन्हें नज़र आती है, वे उसी पर झपट पड़ते हैं। चंद दिनों पहले दुष्कर्मियों ने इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहा था कि यह पोर्न- साइट्स उन्हें वासना में इस क़दर अंधा बना देती हैं कि वे अपनी जन्मदात्री माता की इज़्ज़त पर भी हाथ डाल बैठते हैं। इसका मुख्य कारण है…माता- पिता व गुरुजनों का बच्चों को सुसंस्कारित न करना;  उनकी ग़लत हरक़तों पर बचपन से अंकुश न लगाना …उन्हें प्यार-दुलार व सान्निध्य देने के स्थान पर सुख -सुविधाएं प्रदान कर, उनके जीवन के एकाकीपन व शून्यता को भरने का प्रयास करना…जिसका प्रमाण मीडिया से जुड़ाव, नशे की आदतों में लिप्तता व एकांत की त्रासदी को झेलते हुए, मन-माने हादसों को अंजाम देने के रूप में परिलक्षित हैं। वे इस दलदल में इस प्रकार धंस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाते।

आधुनिक युग में संबंध-सरोकार तो रहे नहीं, रिश्तों की गर्माहट भी समाप्त हो चुकी है। संवेदनाएं मर रही हैं और प्रेम, सौहार्द, त्याग, सहानुभूति आदि भाव इस प्रकार नदारद हैं, जैसे चील के घोंसले से मांस। सो! इंसान किस पर विश्वास करे? इसमें भरपूर योगदान दे रही हैं महिलाएं, जो पति के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। वे शराब के नशे में धुत्त, सिगरेट के क़श लगा, ज़िंदगी को धुंए में उड़ाती, क्लबों में जुआ खेलती, रेव पार्टियों में स्वेच्छा व प्रसन्नता से सहभागिता प्रदान करती दिखाई पड़ती हैं। घर परिवार व अपने बच्चों की उन्हें तनिक भी फ़िक्र नहीं होती और बुज़ुर्गों को तो वे अपने साये से भी दूर रखती हैं। शायद!वे इस तथ्य से बेखबर रहते हैं कि एक दिन उन्हें भी उसी अवांछित-अप्रत्याशित स्थिति से गुज़रना पड़ेगा;   एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा और उनका दु:ख उनसे भी भयंकर होगा। आजकल तो विवाह रूपी संस्था को युवा पीढ़ी पहले ही नकार चुकी है। वे उसे बंधन स्वीकारते हैं। इसलिए ‘लिव-इन’ व विवाहेतर संबंध स्थापित करना, सुरसा के मुख की भांति तेज़ी से अपने पांव पसार रहे हैं। सिंगल पैरेंट का प्रचलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। आजकल तो महिलाओं ने विवाह को पैसा ऐंठने का धंधा बना लिया है, जिसके परिणाम-स्वरूप लड़के विवाह- बंधन में बंधने से क़तराने लगे हैं। वहीं उनके माता- पिता भी उनके विवाह से पूर्व, अपने आत्मजों से किनारा करने लगे हैं, क्योंकि वे उन महिलाओं की कारस्तानियों से वाकिफ़ होते हैं, जो उस घर में कदम रखते ही उसे नरक बना कर रख देती हैं। पैसा ऐंठना व परिवारजनों पर झूठे इल्ज़ाम लगा कर, उन्हें जेल की सीखचों के पीछे भेजना उनके जीवन का प्रमुख मक़सद होता है।

ह़ैरत की बात तो यह है कि बच्चे भी कहां अपने माता-पिता को सम्मान देते हैं? वे तो यही कहते हैं, ‘तुमने हमारा पालन-पोषण करके हम पर एहसान नहीं किया है; जन्म दिया है, तो हमारे लिए सुख- सुविधाएं जुटाना तो आपका प्राथमिक दायित्व हुआ।  सो! हम भी तो अपनी संतान के लिए वही सब कर रहे हैं। इस स्थिति में अक्सर माता-पिता को न चाहते हुए भी, वृद्धाश्रम की ओर रुख करना पड़ता है। यदि वे तरस खाकर उन्हें अपने साथ रख भी लेते हैं, तो उनके हिस्से में आता है स्टोर-रूम, जहां अनुपयोगी वस्तुओं को, कचरा समझ कर रखा जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें तो अपने पौत्र-पौत्रियों से बात तक भी नहीं करने दी जाती, क्योंकि उन्हें आधुनिक सभ्यता व उनके कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ समझा जाता है। उन्हें तो ‘हेलो-हाय’ व मॉम-डैड की आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति पसंद होती है। सो! मम्मी तो पहले से ही ममी है, और डैड भी डैड है…जिनका अर्थ मृत्त होता है। सो! वे कैसे अपने बच्चों को सुसंस्कारों से पल्लवित-पोषित कर सकते हैं? कई बार तो उनके आत्मज उन्हें माता-पिता के रूप में स्वीकारने व अहमियत देने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं; अपनी तौहीन समझते हैं।

आइए! आत्मावलोकन करें, क्या स्थिति है मानव की आधुनिक युग में, जहां ज़िंदगी ऊन के गोलों की भांति उलझी हुई प्रतीत होती है। मानव विवश है; आंख व कान बंद कर जीने को…और होम कर देता है, वह अपनी समस्त खुशियां और परिवार में समन्वय व सामंजस्यता स्थापित करने के लिए सर्वस्व समर्पण। वास्तव में हर इंसान मंथरा है…  ‘मंथरा! मन स्थिर नहीं जिसका/ विकल हर पल/ प्रतीक कुंठित मानव का।’ चलिए ग़ौर करते हैं, नारी की स्थिति पर ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है, पति के हाथों का।’ और ‘द्रौपदी/ पांच पतियों की पत्नी/ सम-विभाजित पांडवों में / मां के कथन पर/ स्वीकारना पड़ा आदेश/ …..और नारी के भाग्य में/ लिखा है/ सहना और कुछ न कहना ‘…इस से स्पष्ट होता है कि नारी को हर युग में पति का अनुगमन करने व मौन रहने का संदेश दिया गया है, अपना पक्ष रखने का नहीं। जहां तक नारी अस्मिता का प्रश्न है, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। चलिए विचार करते हैं, आज के इंसान पर… ‘आज का हर इंसान/ किसी न किसी रूप में  रावण है/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य में/ … शायद ठंडी हो चुकी है /अग्नि/ जो नहीं जला सकती/ इक्कीसवीं सदी के रावण को।’ यह पंक्तियां चित्रण करती हैं– आज की भयावह परिस्थितियों का…  जहां संबंध इस क़दर दरक चुके हैं कि चारों ओर पसरे…’परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है… शैतान/ वे हैं नर-पिशाच।’ …जिसके कारण जन्मदाता बन जाता है/ वासना का उपासक/ और राखी का रक्षक/ बन जाता है भक्षक/ या उसका जीवन साथी ही/ कर डालता है सौदा/ उसकी अस्मत का/ जीवन का।’ रावण कविता की अंतिम पंक्तियां समसामयिक समस्या की ओर इंगित करती हैं…हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष भी अधिकाधिक धन-संपत्ति पाने और जीने का हक़ मिटाने में भी संकोच नहीं करते। कहां है उनकी आस्था… नारायण अथवा सृष्टि-नियंता में…आधुनिक युग में तो सारा संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। यह सब उद्धरण 2007 में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह अस्मिता से उद्धृत हैं, जो वर्तमान का दस्तावेज़ हैं। विश्रृंखलता के इस दौर में संबंध दरक़ रहे हैं, अविश्वास का वातावरण चहुंओर व्याप्त है…जहां भावनाओं व संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं। सो! मानव के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है?

‘हमारी बात सुनने की/ फ़ुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ इरफ़ान राही सैदपुरी की ये पंक्तियां कारपोरेट जगत् के बाशिंदों अथवा बंधुआ मज़दूरों की हकीक़त को बयान करती है। वैसे भी इंसान व्यस्त हो या न हो, परंतु अपनी व्यस्तता के ढोल पीट, शेखी बघारता है…जैसे उसे दूसरों की बात सुनने की फ़ुर्सत ही नहीं है। सो! चिन्तन-मनन करने का प्रश्न कहां उठता है? ‘बहुत आसान है /ज़मीन पर मकान बना लेना/ परंतु दिल में जगह बनाने में /ज़िंदगी गुज़र जाती है’ यह कथन कोटिश: सत्य है। सच्चा मित्र बनाने के लिए मानव को जहां स्नेह-सौहार्द लुटाना पड़ता है, वहीं अपनी खुशियों को भी होम करना पड़ता है।सुख-सुविधाओं को दरक़िनार कर, दूसरों पर खुशियां उंडेलने से ही सच्चा मित्र अथवा सुख-दु:ख का साथी प्राप्त हो सकता है। वैसे तो ज़माने के लोग अजब-ग़ज़ब हैं. उपयोगितावाद में विश्वास रखते हैं और बिना मतलब के तो कोई ‘हेलो हाय’ करना भी पसंद नहीं करता। लोग इंसान को नहीं, उसकी पद-प्रतिष्ठा को सलाम करते हैं; जबकि आजकल एक छत के नीचे अजनबी-सम रहने का प्रचलन है। सो! वाट्सएप, ट्विटर व फेसबुक से दुआ-सलाम करना आज का फैशन हो गया है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद, अहं में लीन, सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर… प्रतीक्षा करते हैं, एक-दूसरे की…कि इन विषम परिस्थितियों में वार्तालाप करने की पहल कौन करे…उनके मनोमस्तिष्क में यह प्रश्न बार-बार दस्तक देता है।

काश! हम अपने निजी स्वार्थों, स्व-पर व राग-द्वेष के बंधनों से, ‘पहले आप,पहले आप’ की औपचारिकता से स्वयं को मुक्त कर सकते… तो यह जहान कितना सुंदर, सुहाना व मनोहारी प्रतीत होता और वहां केवल प्रेम, समर्पण व त्याग का साम्राज्य होता। हमारे इर्द-गिर्द खामोशियों की चादर न लिपटी रहती और हमें मौन रूपी सन्नाटे के दंश नहीं झेलने पड़ते। वैसे रिश्ते पहाड़ियों की भांति खामोश नहीं होते, बल्कि पारस्परिक संवाद से जीवन-रेखा के रूप में बरक़रार रहते हैं। संबंधों को शाश्वत रूपाकार प्रदान करने के लिए ‘मैं हूं न’ के अहसास  दिलाने अथवा आह्वान मात्र से, संकेत समझ कर वे चिरनिद्रा से जाग जाते हैं और उनकी गूंज लम्बे समय तक रिश्तों को जीवंतता प्रदान करती है।

रिश्तों को स्वस्थ व जीवंत रखने के लिए प्रेम, त्याग  समर्पण आदि की आवश्यकता होती है, वरना वे रेत के कणों की भांति, पल-भर में मुट्ठी से फिसल जाते हैं। अपेक्षा व उपेक्षा, रिश्तों में सेंध लगा, एक-दूसरे को घायल कर तमाशा देखती हैं। सो! ‘न किसी की उपेक्षा करो, न किसी से अपेक्षा रखो’…यही जीवन में सफलता प्राप्ति का मूल साधन है और मूल-मंत्र व शुभकामनाएं तभी फलीभूत होती हैं, जब वे तहे- दिल से निकलें। ‘खामोश सदाएं व दुआएं, दवाओं से अधिक कारग़र व प्रभावशाली सिद्ध होती हैं, परंतु खामोशियां अक्सर अंतर्मन को नासूर-सम सालती व आहत करती रहती हैं। वे सारी खुशियों को लील, जीवन को शून्यता से भर देती हैं और हृदय में अंतहीन मौन व सन्नाटा पसर जाता है; जिससे निज़ात पाना मानव के वश में नहीं होता। सो! सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधे रहने के लिए, संशय, संदेह व शक़ को जीवन से बाहर का रास्ता दिखा देना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि स्नेह-सौहार्द, परोपकार, त्याग व समर्पण संबंधों को चिर-स्थायी बनाए रखने की संजीवनी है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 115 ⇒ काली टोपी लाल रूमाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काली टोपी लाल रूमाल।)  

? अभी अभी # 116 ⇒ काली टोपी लाल रूमाल? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

सन् १९५९ में एक फिल्म आई थी, काली टोपी लाल रूमाल, वैसे वह समय भी टोपी और रूमाल का ही था। महिलाएं तो ठीक, पुरुष भी खुले सिर नहीं घूमते थे। टोपी कहें या पगड़ी, असली इज्जत वही थी।

गांधीजी ने कभी टोपी नहीं पहनी, लेकिन गांधीवादी लोग सफेद टोपी पहनने लगे। नेहरू आधुनिक विचारों के होते हुए भी, टोपी पहनते थे। राजनीति में टोपी पहनी भी गई, जनता को पहनाई भी गई, और दूसरों की टोपी उछाली भी गई।।

वह समय था जब हर सज्जन और सभ्रांत पुरुष काली टोपी पहनता था। ग्रामीण अंचल में किसान पगड़ी बांधते थे, और पसीना पोंछने के लिए रूमाल नहीं, लाल गमछा रखते थे, कहीं कहीं यह अंगोछे की शक्ल का भी होता था।

हमारा विद्यालय तब एक तरह से सरस्वती का मंदिर ही था, बस उसका नाम गणेश विद्या मंदिर था। शहर की महाराष्ट्र साहित्य सभा उसका संचालन करती थी, और अधिकांश वरिष्ठ शिक्षकों का परिधान धोती, कुर्ता, कुर्ते पर खुले गले का कोट, काली टोपी और आंखों पर चश्मा ही होता था। वे तब के शिक्षा, संस्कार और नैतिकता के ब्रांड एम्बेसडर थे। उनका आचरण छात्रों के लिए अनुकरणीय होता था।।

वह समय था, जब घरों में, मोटी मोटी दीवारों में खूटियां हुआ करती थीं, जिन पर छाता, कुर्ता और टोपी टांगी जाती थी।

हम आज भले ही वाहन चलाते वक्त सुरक्षा हेतु हेलमेट ना पहनें, लोग घर से बाहर जाते समय सर पर टोपी लगाना और हाथ में छाता ले जाना नहीं भूलते थे।

जब परिवेश बदलता है तो परिधान भी बदलता है। सर की टोपी और पगड़ी आजकल गायब हो चुकी है, विदेशी परिवेश में धोती कुर्ते की जगह सूट बूट ने ले ली है और गले के रूमाल का स्थान टाई ने ले लिया है। पहले कैप आई और पश्चात् मंकी कैप।।

सर पर टोपी अथवा पगड़ी अनुशासन और अस्मिता का प्रतीक है। पुलिस, और फौज में आज भी वर्दी और कैप अनिवार्य है। पब्लिक स्कूलों में आज भी यूनिफॉर्म अनिवार्य है। बेचारा रूमाल तो आजकल शर्म के मारे छोटा होकर पर्स का नैपकिन हो गया है।

हमारे परिवार में पिताजी की आज एक ही तस्वीर उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने काली टोपी लगा रखी है।

क्या समय था, जब मांगलिक अवसरों पर की जाने वाली पुरुषों की कपड़ा रस्म में धोती कुर्ता, रूमाल अथवा अंगोछे के साथ टोपी भी रखी जाती थी।।

महिलाएं आज भी धार्मिक स्थलों में जाते वक्त सर पर पल्लू ले लेती हैं, कई पूजा स्थलों में पुरुष को भी सर ढंकना होता है, जेब का रूमाल तब बहुत काम आता है। लोग तो रूमाल रखकर, बस की सीट तक रोक लेते हैं। सर कहें अथवा मस्तक, यह अगर सदके में झुकता है तो गर्व से उठता भी है।

आज भले ही टोपी हमारे सर से गायब हो गई हो, रूमाल ने आज भी हमारा साथ नहीं छोड़ा। हमारी साख ही हमारी पगड़ी है। दूल्हा आज भी जीवन में एक बार ही सही, पगड़ी जरूर पहनता है। जो आज भी अपनी अस्मिता और गौरव को बनाए रख रहे हैं, उनके लिए टोपी और पगड़ी आभूषण है, सम्मान, सादगी और अभिमान का प्रतीक है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print