हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 107 – “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री  मनोज श्रीवास्तव जी  द्वारा सम्पादित पत्रिका  “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक) की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 107 ☆

☆ “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पत्रिका चर्चा

अक्षरा नई यात्रा पर…

पत्रिका चर्चा… अक्षरा अंक २०३, मासिक पत्रिका,

“सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक “

संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव

प्रकाशक… म. प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल

वार्षिक सदस्यता… ३०० रु

किसी विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका में  लेख पढ़कर किसी अपरिचित पाठक का स्वस्फूर्त फोन आवे तो निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाशित शब्द पाठक के मन पर छबि अंकित कर रहे हैं, पत्रिका सांगोपांग पढ़ी जा रही है. वरना विशुद्ध साहित्य की कतिपय कथित गरिष्ठ पत्रिकायें वरिष्ठ साहित्यकारों के पास भी लिफाफे से बाहर निकलने को ही तरसती रह जाती हैं. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की मुख पत्रिका “अक्षरा” विगत ४० वर्षो से अनवरत छप रही है, खरीद कर पढ़ी जा रही है, इसमें प्रकाशित होना रचनाकार को आंतरिक प्रसन्नता देता है, अर्थात अक्षरा विशिष्ट है.  नये आकार, नये गेटअप, कलेवर के नये स्वरूप में सेवानिवृत वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव के संपादन में नई  टीम के साथ अक्षरा अंक २०३, “सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक ” २०० पृष्ठो  की विशद सामग्री निश्चित ही स्थाई संदर्भ हेतु  संग्रहणीय है. वर्तमान परिदृश्य में साहित्य  समाज को चिंतन, विचार और दिशा तो देता है किन्तु उससे सीधा आर्थिक लाभ नगण्य ही होता है.  सामाजिक गरिमा व सम्मान के लिये ही रचनाकार यह सारस्वत अनुष्ठान करते समझ आते हैं.

इस अंक को पढ़कर एक बुजुर्ग पाठक का फोन मेरे पास आाया वे मेरे व्यंग्य लेख ” सरस्वती वंदना से आभार तक ” की प्रशंसा कर रहे थे, मैं फुरसत में था तथा पत्रिका पढ़ ही रहा था सो मैंने उनसे पत्रिका के बाकी लेखों के विषय में भी बातें कीं, और मुझे लगा कि अक्षरा की इस नई यात्रा की चर्चा पाठको के बीच की जानी चाहिये जिससे अक्षरा और भी व्यापक हो.

हाल ही हमने समाचार देखा कि दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में बहने वाली ब्रिंगी नदी की जलधारा अचानक रुक गई है,  इसका पानी ‘पाताल’ में समा रहा है,  इसका कारण नदी का स्रोत समाप्त होना नहीं, बल्कि एक गहरा गड्ढा (सिंकहोल) बनना है जिसमें सारा पानी समाता जा रहा है. आगे की नदी का करीब 20 किमी लंबा हिस्सा सूखने से बड़ी संख्या में ट्राउट मछलियां भी मर गई हैं. 

अनेक नदियां उनके बेसिन में जंगलो की कटाई के चलते सूख रही हैं, जैसे जालौन से निकली नून नदी विलुप्त होती जा रही है. जालौन के 89 किलोमीटर के दायरे में फैली इस नदी से करीब 30 गांवों की फसलें सिंचित होती थीं. लेकिन, बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे के कारण ये नदी विलुप्त होती जा रही है.

अनेक नदियां व उनके जीव जंतु रेत के अंधाधुंध दोहन से मृतप्राय हो रही हें जैसे गाडरवाड़ा की शक्कर नदी सूख रही है. प्रातः स्मरणिय श्लोक “गंगे यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ” में तो सरस्वती बांची जाती है पर पवित्र  नदी सरस्वती विलुप्त हो चुकी है. अक्षरा का यह विशेषांक सारस्वत साहित्य मंथन के साथ ही लुप्त होती नदियों की ओर भी पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित करे ऐसी कामना है.

अंक के आरंभिक पन्ने पर अगली पीढ़ी को अपने सम्मुख ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ाने का सुख “अपनी बात” में संपादन दायित्व से मुक्त होते कैलाश चंद्र पंत जी ने अभिव्यक्त किया है. नये विद्वान संपादक मनोज श्रीवास्तव जी के संपादकीय का शब्द शब्द, विभिन्न व्यापक संदर्भ, सरस्वती को लेकर उनका गहन चिंतन व संदर्भ विमर्श के श्रोत हैं. श्री रमेश दवे के आलेख सरस्वती मात्र शब्द नहीं दर्शन है, में वे लिखते हें कि ” भारतीय ज्ञान परंपरा का जीवंत होना, शक्तिमय होना ही सरस्वती होना है.

पत्रिका में माँ सरस्वती के दुर्लभ चित्र यत्र तत्र संदर्भानुकूल प्रकाशित किये गये हैं. अंक का सुंदर आवरण चित्र क्षमा उर्मिला जी ने बनाया गया है. 

श्री विनय कुमार, प्रेमशंकर शुक्ल, आभा बोधिसत्व, सुधीर सक्सेना, स्वदेश भटनागर, अभिषेक सिंह,बृजकुमार पटेल, राजकुमार कुम्भज, मुरलीधर चांदवाला, व देवेंद्र दीपक की  चयनित प्रकाशित कविताओ में से स्वदेश भटनागर जी की पंक्तियां उधृत करता हूं..

” हिंसा पर हिंसा

जमती जा रही है

आसमान भी तिरछा हो गया

तुम्हें मालूम होगा न माँ

मौन भी अब हिंसा की जद में आ गया

सुबह रक्त भरे पन्ने से शुरू होने लगी है

मनुष्य भी संवेदन शील नही रहा “

सोनल मानसिंह का लेख सरस्वती, कुसुमलता केडिया का लेख सरस्वती के मुहाने पर दम तोड़ता आर्य आक्रमण सिद्धांत,सरस्वती भारतीय सारस्वत साधना का जीवंत प्रतीक द्वारा राधावल्लभ त्रिपाठी, अरुण उपाध्याय का आलेख सरस्वती वाक् तरंगें और एक नदी, रंगों और रेखाओं में सरस्वती आलेख नर्मदा प्रसाद उपाध्याय,  राजा भोज के सरस्वती कंठाभरण : धुंध के पार एक चमकदार लकीर में  विजय मनोहर तिवारी ने धार की भोजशाला पर विस्तृत ऐतिहासिक विवेचना की है. 

सरस्वती के बहाने आत्म प्रत्यभिज्ञा की खोज में  आनंद सिंह,  आखिर कविता संयत और सिद्ध वाचालता ही तो है / कुमार मुकुल,  सा मां पातु सरस्वती भगवती / राजेश श्रीवास्तव,  सरस्वती का स्वरूप निराकार से साकार तक / मीनाक्षी जोशी,  भारतीय संगीत में सरस्वती / विजया शर्मा,  लुप्त सरस्वती की खोज : श्रीधर वाकणकर ‍-  रेखा भटनागर,  सरस्वती, श्रुति महती न हीयताम् : सरस्वती शाश्वत है / श्यामसुंदर दुबे,  सरस्वती की कालजयिता / विजयदत्त श्रीधर,  ‘ सरस्वती ‘ में महिला संचेतना / मंगला अनुजा,  पुरातन का रूपान्तरण है बसन्त / इंन्दुशेखर तत्पुरुष विशेषांक पर केंद्रित सभी आलेख पौराणिक साहित्य, वेदो, से संदर्भ उधृत करते हुये गंभीर चिंतन जनित लेख हैं. प्रत्येक लेख को पढ़ने समझने में लंबा समय लगेगा.  वैज्ञानिक व तकनीकी दृष्टिकोण से विलुप्त सरस्वती नदी पर एक आलेख की कमी लगी.

नारी तू सरसती / सुमन चौरे, मुझे सरस्वती से कोई दिक्कत नहीं है / निरंजन श्रोत्रिय एवं दारागंज में निराला / देवांशु पद्मनाभ संस्मरणात्मक लेख हैं. सरस्वती संदर्भ की अनूदित सामग्री भी संयोजित है जिसमें “ज्ञान प्रदाता : सरस्वती माता / मूल : विजयभास्कर दीर्घासि / अनुवादक एस. राधा,   सरस्वती नाद शब्द और परब्रह्म का वपुधारण / मूल पुदयूर जयनारायनन नंबूदरीपाद / अनुवादक तथा देवी सरस्वती अंतहीन ज्ञान की देवी मूल : वृन्दा रामानन के हिन्दी अनुवादक स्वयं संपादक मनोज श्रीवास्तव  हैं. इस तरह मनोज जी के अनुवादक स्वरूप के भी दर्शन हम करते हैं.

सरस – वती भव में नरेन्द्र तिवारी ने अद्भुत कल्पना कर स्वयं वाग्देवी सरस्वती से स्वप्न साक्षात्कार ही प्रस्तुत कर दिया है. स्मरणांजलि में श्री नरेश मेहता दृष्टि और काव्य पर प्रमोद त्रिवेदी व गहरे सामाजिक बोध के कवि नरेश महता / प्रतापराव कदम के लेख महत्वपूर्ण हैं.  व्यंग्य “सरस्वती से आभार तक”  / विवेक रंजन श्रीवास्तव,  ललित निबंध राग की वासंतिका : सरस्वती की रंगाभा / परिचय दास के अतिरिक्त दो  कहानियां  बदरवा बरसे रे : कृष्णा अग्निहोत्री एवं यू – टर्न / इंदिरा दाँगी भी पत्रिका में समाहित हैं.  तीन किताबो पर पुस्तक परिचय में बात की गई हैं.  समय जो भुलाए नहीं भूलता (अश्विनी कुमार दुबे), उपनिषद त्रयी (एम. एल. खरे) / पहाड़ी,  नर्मदा (सुरेश पटवा) : रामवल्लभ आचार्य, खंडित होती शाश्वत अवधारणाएँ (सदाशिव कौतुक) / माधव नागदा ने प्रस्तुत की है.   पगडंडियों का रिश्ता (विजय कुमार दुबे) / रमेश दवे,  बीर – बिलास (सं. प्रो. वीरेन्द्र निर्झर) / गंगा प्रसाद बरसैंया,  वसंत का उजाड़ (प्रकाश कांत) / सूर्यकांत नागर,  शिखण्डी (शरद सिंह) / मैथिली मिलिंद साठे,  लोकतंत्र और मीडिया की निरंतर बदलती चुनौतियाँ (मनीषचंद्र शुक्ल) / जवाहर कर्नावट ने पुस्तको पर समीक्षायें रखी हैं.

कुल मिलाकर इस अंक के साथ अक्षरा जिस नई यात्रा पर निकल पड़ी है, उसमें पूर्ण कालिक संपादकीय समर्पण दृष्टि गोचर है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा – आत्मानंद साहित्य #110 ☆ ‌सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 110 ☆

☆ ‌पुस्तक चर्चा – सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

 

पुस्तक का नाम – सोनपरी 

रचना कार – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’

विधा – हिंदी काव्य।

प्रकाशक – नोशन प्रेस

मूल्य– ₹ 135

उपलब्ध – अमेज़न लिंक  >> सोनपरी  फ्लिपकार्ट लिंक >> सोनपरी 

☆ पुस्तक चर्चा –  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यह वृत्तांत नहीं है कोरा,

यह जीवन की जीवंत परिभाषा।

सोन परी अब लौट गई घर,

बची रही केवल अभिलाषा।

एहसास कराती मानवता की,

खुद मानवता की थी परिभाषा।

सोन परी थी सोने जैसी,

उम्मीद किरण की आशा।

असमय छोड़ गई वह सबको,

और हिया में दे गई पीर।

जब जब करता याद उसे,

तब मेरा मन होता अधीर।

लिखते पढ़ते  सोन परी को,

आंखें मेरी भर आई,।

उसके संग जो समय बिताया ,

मेरी स्मृतियों में उतर आई।

रचनाकार – सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

यूँ  तो हिंदी साहित्य जगत में रचनाएं होती रही है  जो विद्वत समाज द्वारा तथा पाठक वर्ग द्वारा सराही जाती रही है, उन्ही कृतियों के बीच कभी कभी ऐसे रचनाकार या उनकी कृतियां हाथों में  आ जाती है जो बरबस दिमाग से होती हुई दिल में उतर जाती है, और सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती आवरण पृष्ठ की जो सहज में ही पाठक को आकृष्ट तो करता ही है, लेखन सामग्री के बारे मूक शब्दों बहुत कुछ आभास करा देता है और यही उक्ति चरितार्थ होती दीख रही है सोनपरी के बारे में। बाकी ज्यादा लिखना तो कटोरी भर पानी में चांद को समेटने जैसा टिट्टिभ प्रयास है बाकी साहित्य का पूर्ण आनंद लेने के लिए इस कृति का आदि से अंत तक पढ़ना आवश्यक है, यह लेखक के दृढ़ इक्षाशक्ति का परिचायक भी है, इसके सारे अध्याय सोनपरी के जीवन का दर्शन है जो कभी गुदगुदाती है तो कभी भावुक कर जाती है।

यह हर पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने में सक्षम है और हम कामना करते हैं कि साहित्यकार श्री रमेश सिंह यादव “मौन” जी इसी तरह साहित्य सेवा में तन्मयता के साथ अग्रसर हो कर  अपने साहित्य के द्वारा समाज के सही रास्ता दिखाते रहेंगे। हम उनके उज्वल भविष्य की मंगल मनोकामना करते हैं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा श्री पवन कुमार वर्मा जी की पुस्तक “पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियांकी समीक्षा।

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

पुस्तक- पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां

प्रकाशक- निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, 37-शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज, आगरा (उत्तर प्रदेश) 94588 009 531

पृष्ठ संख्या- 160 

मूल्य- ₹500

बच्चों की पुस्तक बच्चों के अनुरूप होना चाहिए। उनकी कहानी रोचक हो। आरंभ में जिज्ञासा का पुट हो। कहानी पढ़ते ही उसमें आगे क्या होगा? का भाव बना रहे। वाक्य छोटे हो। प्रवाह के साथ कथा आगे बढ़ती रहे। तब वे बच्चों को अच्छी लगती है।

इस हिसाब से पवन कुमार वर्मा की कहानियां उम्दा है। वे पेशे से अभियंता है। मगर मन से बाल साहित्यकार। आपने बालसाहित्य में अपनी कलम बखूबी चलाई है। इनकी समस्त कहानियां सोउद्देश्य होती है। बिना उद्देश्य इन्होंने कुछ नहीं लिखा है।

प्रस्तुत समीक्ष्य कहानी संग्रह आपकी कहानियों का चुनिंदा संग्रह है। इसमें संग्रहित कहानियां आप के विभिन्न संग्रह से ली गई है। इनका चयन कहानियों की श्रेष्ठता के आधार पर किया गया है। आपकी जो कहानियां ज्यादा चर्चित रही है उन्हीं कहानियों को इस संग्रह में लिया गया है।

इस मापदंड से देखें तो यह कहानी संग्रह अन्य कहानी संग्रह से उम्दा है। इसमें चयनित कहानियां बहुत चर्चित व पठनीय रही है। इस कारण से इन्हें पवन कुमार की श्रेष्ठ कहानियां के रूप में संकलित किया गया है।

भाषा शैली की दृष्टि से आपने मिश्रित भाषाशैली का उपयोग किया है। अधिकांश कहानियां वर्णन के साथ शुरू होती है। मगर वर्णन में रोचकता का समावेश हैं। संवाद चुटीले हैं। भाषा सरल और संयत है। कहानी में तीव्रता का समावेश है। इस कारण कथा में गति बनी रहती है।

मिट्ठू चाचा कहानी आपके मिट्ठू चाचा संग्रह से ली गई है। इस कहानी में शरारती बच्चों को मिट्ठू चाचा की सहृदयता का ज्ञान अचानक हो जाता है। वे अपनी शरारत छोड़ देते हैं। तीन-तीन राजा- कहानी पर्यावरण की स्वच्छता पर एक नई दृष्टि से बुनी गई है। इसका कथानक बहुत ही बढ़िया और रोचक है।

घमंड चूर हो गया- आपसी ईर्ष्या को दर्शाती एक अच्छी कहानी है। इसमें घमंड को दूर करने का अच्छा रास्ता अपनाया गया है। कहानी में अंत का पैरा अनावश्यक प्रतीत होता है। मोटा चूहा पकड़ा गया- घर के सामान की परेशानी और चूहे की समस्या का अच्छा समाधान प्रस्तुत करती है।

मोती की नाराजगी- में गौरैया और मोती के द्वारा कहानी का सुंदर ताना-बाना बुना गया है। कौन, किससे और कैसे नाराज हो सकता है? बच्चों को अच्छी तरह समझ में आ जाता है। वही पिंकू सुधर गया- कहानी में पिंकू की शरारत का अच्छा चित्रण किया गया है।

अनोखी दोस्ती- में दीपू के द्वारा तोते की आजादी को बेहतर ढंग से प्रदर्शित किया गया है। खुशी के आंसू- सृष्टि द्वारा गर्मी की छुट्टियों के सदुपयोग पर प्रकाश डालती है। दावत महंगी पड़ी- में कौए और कोयल द्वारा नारद विद्या पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।

प्रणय ने राह दिखाई- बच्चों को स्कूल में श्रम सिखाने का प्रयास करती है। वही सुधर गया विनोद- में शरारत का अंत बेहतर ढंग से किया गया है। वहीं खेल-खेल में- बहुत बढ़िया सीख दे जाती है।

सच्चा दोस्त, समझदारी, असली जीत, दीपू की समझदारी, बात समझ में आई, अंधविश्वास, हम सबका साथ हैं, नई साइकिल, कहानी बच्चों को अपने शीर्षक अनुरूप बढ़िया कथा प्रस्तुत करती है। वही अच्छा सबक मिला, देश हमारा हमको प्यारा, दादाजी का मौनव्रत, गांव की सैर, आदत छूट गई, कल की बात पुरानी, नया साल, रामदेव काका, चोर के घर में चोर, मम्मी मान गई, कहानियां कथानक के हिसाब से रोचक व शीर्षक के हिसाब से उद्देशात्मक है। इनकी सकारात्मकता बच्चों को बहुत अच्छी लगेगी।

कुल मिलाकर पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ कहानियां बच्चों के मन के अनुरूप व श्रेष्ठ है। इनमें रोचकता का समावेश है। वाक्य छोटे और प्रभावी हैं। कथा में प्रवाह हैं। अंत सकारात्मक है। यानी बालसाहित्य के रूप में कहानी संग्रह उम्दा बन पड़ा है।

त्रुटिरहित छपाई और आकर्षक मुख्य पृष्ठ ने पुस्तक का आकर्षण द्विगुणित हो गया है। हार्ड कवर में 160 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹500 ज्यादा लग सकता है। मगर साहित्य की उपयोगिता के हिसाब से यह मूल्य वाजिब है। आशा की जा सकती है कि बाल साहित्य के क्षेत्र में इस संग्रह का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाएगा।

समीक्षक –  ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 106 – “इक्कीसवीं सदी का भारत” – डा उमेश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा उमेश कुमार सिंग जी की पुस्तक  “इक्कीसवीं सदी का भारत” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 106 – “इक्कीसवीं सदी का भारत” – डा उमेश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – इक्कीसवीं सदी का भारत

म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार के संपादकीय का संकलन

लेखक – डा उमेश कुमार सिंग

प्रकाशक – संदर्भ प्रकाशन, भोपाल

मूल्य – ३०० रु

संदर्भ प्रकाशन भोपाल श्री राकेश सिंह के समर्पित साहित्य प्रेम का उदाहरण है, किसी भी तरह दिल्ली या जयपुर के प्रकाशको से प्रकाशन, प्रस्तुति, उत्कृष्ट साहित्य के चयन में उन्नीस नही है. विविध विषयो पर साश्वत साहित्य वे लगातार प्रकाशित कर रहे हैं. इसी क्रम में “इक्कीसवीं सदी का भारत ” पुस्तक पढ़ने में आई. लेखक डा उमेश कुमार सिंग जो साहित्य अकादमी के निदेशक रह चुके हैं, और जिनके संपादन में म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार ने नई उंचाईयां स्पर्श की थीं, के द्वारा उनके संपादन में निकले साक्षात्कार के अंको के संपादकीय आलेखो का संकलन इस पुस्तक में है. कुल २६ लेख हैं. सभी लेख शाश्वत मुक्त चिंतन से उपजे हैं. हर उस व्यक्ति को जिसे स्व से पहले समाज और देश की चिंता हो, ये आलेख जरूर पसंद आयेंगे. अधिकांश लेख मेरे पहले ही साक्षात्कार में पढ़े हुये हैं, जिन पर मैं यदा कदा पाठकीय प्रतिक्रिया भी पत्रिका में ही व्यक्त करता रहा हूं. साहित्य का सरोकार मई २०१६ के अंक से आरंभ जून २०१८ में प्रकाशित रंक को तो रोना है लेख तक सभी न केवल पठनीय हैं वरन मनन करने और चिंताकरते हुये राष्ट्र के लिये किंचित कुछ करने को प्रेरित करते हुये लेख पुस्तक में हैं. लेखक डा उमेश कुमार सिंग ने इतिहास, कविता, आलोचना, संपादन में निरंतर बड़े काम किये हैं उन्हें कई सम्मान और जिम्मेदारियां मिली जिनका उन्होने सफल निर्वाह किया है. ऐसे साहित्यिक समर्पित मनीषी के चिंतन का लाभ पाठको को इस कृति के माध्यम से मिलना तय है.

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘खामोशियों की गूंज ’ – अदिति भादौरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘खामोशियों की गूंज ’ – अदिति भादौरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय

कागज़ पर कलम से खुद को सींचना …..यानी अदिति भादौरिया की कविताएं – कमलेश भारतीय

अदिति भादौरिया फेसबुक पर मिलीं और पाठक मंच से भी जुड़ीं । एक पत्रिका की सहसंपादिका भी बनीं और लघुकथा में भी सक्रिय हैं । पहला पहला कविता संग्रह आया है- खामोशियों की गूंज । इच्छा भी आई फोन पर कि कुछ लिखूं , कुछ कहूं । आखिर इन खामोशियों की गूंज सुनी और यही लगा कि कवयित्री कह रही है कि कागज़ पर कलम से खुद को सींचती हैं अदिति यानी हर लेखक ।

कागज़ पर कलम से खुद को सींचती हूं मैं

अश्कों के प्रवाह को सीने में भरकर देखा है

क्योंकि खामोशी के शब्दों को मैंने

पलकों की स्याही से सोखा है ।

अदिति की कविताओं में आम लड़की की चाहें , प्यार , विरह , गृहस्थी और समाज सब आते हैं । वे कहती हैं :

मैं पाना चाहूं वह उड़ान

जो आशाओं को थामेगी।

अदिति ने पति , परिवार और बच्चों पर अपने प्रेम की कवितायें भी इसमें शामिल की हैं । कुछ भी छिपाया नहीं । तभी तो कहती हैं :

हां छिपाना चाहूं तुझसे मैं जख्म अपने

पर टूटा आइना कहे मुझे तेरा अक्स छिपाऊं कैसे ?

कोई भी लेखक समाज का ही अक्स दिखाता है । अपने आसपास का अक्स दिखाता है ।

अपनी कलम से अदिति कहती है

न डरना , न घबराना तुम

शब्दों को बुनते जाना तुम ।

खामोशियों की गूंज में गज़लें भी हैं तो दो दो चार चार पंक्तियों की छोटी छोटी कविताएं भी और गीत भी । सपने पर लिखी कविता पहचान लिखी है और पहचान यह है कि :

#आशा की किरणों को थामे

मैं राह अपनी चुनता हूं ,,,

छोटी छोटी कविताओं में से एक :

#बनना चाहती हूं एक ऐसा आसमान

जहां मैं उड़ सकूं और सुन सकूं

वो धड़कनें जो मेरे दिल में भी धड़कती हैं ।

,,,,,

काश ! कोई समझ पाये

कि मौत सिर्फ चिता पर ही नही होती

बल्कि झूठी मुस्कुराहटें ओढ़ने से भी होती है ।

,,,,,

हंसने के लिए मुस्कुराहटें नहीं

बल्कि नकाब की जरूरत पड़ती है

आजकल ,,,

लोग हैं चारों तरफ

फिर भी तन्हाई क्यों लगती है

क्यों भीड़ में खो जाती हूं मैं

हर पल बस अपनी ही तलाश में रहती क्यों हूं मैं ?

 

यह तलाश जारी रहनी चाहिए अदिति और इसकी भूमिका लिखी है लालित्य ललित ने । शुभकामनाएं । बधाई । अगले काव्य संग्रह या लघुकथा की प्रतीक्षा रहेगी ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  परबंत सिंह मैहरी जी की पुस्तक  “लेखन कला” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – लेखन कला

लेखक.. परबंत सिंह मैहरी, हावडा 

पृष्ठ १३२, मूल्य ३००, पेपर बैक

प्रकाशक.. रवीना प्रकाशन गंगा नगर दिल्ली ९४

हिन्दी साहित्य के सहज, शीघ्र प्रकाशन के क्षेत्र में रवीना प्रकाशन एक महत्वपूर्ण नाम बनकर पिछले कुछ समय में ही उभर कर सामने आया है. लगभग हर माह यह प्रकाशन २० से २५ विभिन्न विषयो की, विभिन्न विधाओ की, देश के विभिन्न क्षेत्रो से नवोदित तथा सुस्थापित लेखको व कवियों की किताबें लगातार प्रकाशित कर चर्चा में है. रवीना प्रकाशन से ही  हाल ही चर्चित पुस्तक लेखन कला प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक क्या है,  गागर में सागर है.

आज लोगों में विशेष रूप से युवाओ में  प्रत्येक क्षेत्र में इंस्टेंट उपलब्धि की चाहत है. नवोदित लेखको की सबसे बड़ी जो कमी परिलक्षित हो रही है वह है उनकी न पढ़ने की आदत. वे किसी दूसरे का लिखा अध्ययन नही करना चाहते पर स्वयं लिक्खाड़ बनकर फटाफट स्थापित होने की आशा रखते दिखते हैं. परबंत सिंह मैहरी स्वयं एक वरिष्ठ लेखक, पत्रकार व संपादक हैं. उन्होने अपने सुदीर्घ अनुभव से लेखन कला सीखी है. बड़ी ही सहजता से, सरल भाषा में, उदाहरणो से समझाते हुये उन्होने प्रस्तुत पुस्तक में अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओ कहानी,लघुकथा,  उपन्यास, निबंध, हास्य, व्यंग्य, रिपोर्टिंग, संस्मरण, पर्यटन, फीचर, आत्मकथा, जीवनी, साक्षात्कार,नाटक, कविता, गजल, अनुवाद आदि लगभग लेखन की प्रत्येक विधा पर सारगर्भित दृष्टि दी है.

मैं वर्षो से हिन्दी का निरंतर पाठक, लेखक, समीक्षक व कवि हूं.  किन्तु किसी एक किताब में इस तरह का संपूर्ण समावेश मुझे अब तक कभी पढ़ने नही मिला. यद्यपि इस तरह के स्फुट लेख कन्ही पत्र पत्रिकाओ में यदा कदा पढ़ने मिले पर जिस समग्रता से सारी विषय वस्तु को एक नये रचनाकार के लिये इस पुस्तक में संजोया गया है, उसके लिये निश्चित ही लेखक व प्रकाशक के प्रति हिन्दी जगत ॠणी रहेगा.

निश्चित ही स्वसंपादित सोशल मीडीया ने भावनाओ की लिखित अभिव्यक्ति के नये द्वार खोले हैं, जिससे नवोदित रचनाकारो की बाढ़ है. हर पढ़ा लिखा स्वयं को लेखक कवि के रूप में स्थापित करता दिखता है, किंतु मार्गदर्शन व अनुभव के अभाव में उनकी रचनाओ में वह पैनापन नही  दिखता कि वे रचनायें शाश्वत या दीर्घ जीवी बन सकें. ऐसे समय में इस पुस्तक की उपयोगिता व प्रासंगिकता स्पष्ट है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘ताल-बेताल’ – रवि राय  ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘ताल-बेताल’ – रवि राय  ☆ श्री कमलेश भारतीय

फ्लिपकार्ट लिंक >> ताल-बेताल – रवि राय 

अमेज़न लिंक >> ताल-बेताल – रवि राय

ताल है और व्यंग्य भी – कमलेश भारतीय

लगभग डेढ़ माह पहले मित्र रवि राय का एक अद्भुत संकलन ताल-बेताल मिला । कोशिश थी कि जल्दी पढ़ कर प्रतिक्रिया दूं लेकिन कुछ रोजमर्रा के काम और कुछ मेरे पुराने अखबार से मिलतीं समीक्षार्थ पुस्तकें इसे दूर ठेलती रहीं पर फिर ठान लिया कि इस ताल बेताल पर कुछ लिखने लायक होना है ।

असल में इसे अद्भुत इसलिए कहा कि हम सब मन की मौज के चलते फेसबुक मंच पर कुछ न कुछ लिखते रहते हैं और भूल जाते हैं लेकिन रवि राय ने पिछले कुछ वर्षों से इस मंच पर लिखी अपने मन की तरंगों की चुन चुन कर इस संकलन में शामिल किया है ।

पहला भाग -जो अक्सर याद आते हैं शुरू होता है बैडमिंटन के खिलाड़ी सैयद मोदी से और बहुत भावुक कर जाता है यह प्रसंग । इंदिरा गांधी , डाॅ शिव रत्न लाल , बाश्शा भाई यानी बादशाह हुसैन रिजवी आदि पर खूब प्यारे प्यारे संस्करण। दूसरे भाग को यादें के रूप में रखा तो फिर अगले भाग में जमाने को बातें हैं बल्कि जमाने भर की बातें हैं । आखिर में ताल बेताल ।

इस पुस्तक का लेखक रवि प्रकाश है तो एक्टर रवि परकासवा यानी खुद लेखक के अनेक रंग रूप सामने आते जाते हैं । बचपन , शरारतें , जवानी के विद्रोह , जीवन के काम धंधे जैसे पत्रकारिता से चलते चलते बैंक में कर्मचारी ही गये । फिर गोरखपुर शहर की यादें और किस्से दर किस्से ।

शहर छूटा , साथी छूटे , राहें छूटीं पर ये यादें कैसे छूट सकेंगी या भूल सकेंगी,,,,यही कसक , व्यथा , सपने सब इसमें मिल गये ।

खिचड़ी का संदेश खूब यानी मकर संक्रांति की याद । रक्षाबंधन पर बहन को पत्थर मार कर घायल कर देना , परकासवा के बाप कैसे क्या कर गये अस्पताल में , भैंस के कटड़ी और नारी के लड़का ही अच्छा , आई लव यू दिनेश , जूतियापा की पूरी छानबीन , हे राम पर भी सारगर्भित टिप्पणी और खंड खंड पाखंड कितना कुछ मिला । एक फक्कड़ लेखक का अंदाज लिए लकुटिया हाथ सबके चेहरे दिये दिखाये । मुझे मिले अनेक रूप रवि परकासवा के । खूब खूब आनंद आया । डूब कुछ दिन इसमें और ताल से सुर भी निकले और व्य॔ग्य भी । सबसे बड़ी बात कि भोजपुरी सीखने को मिली ।।

ताल-बेताल में व्यंग्य भी हो तो लघुकथा भी और व्यंग्य नाटक जैसे छोटे छोटे वृतांत भी ।

जल्द ही इसका दूसरा भाग आने वाला है । मैं इंतज़ार कर रहा हूं । आप भी कीजिए ।बहुत बहुत बधाई परकासवा भाई । रवि राय जी । बधाई ।

बड़ी बात कि रवि राय जी हमारे पाठक मंच के सम्मानित सदस्य हैं ।

इन दिनों डाॅ रश्मि बजाज और अदिति भादौरिया के काव्य संग्रह इंतज़ार में हैं कि इन्हें भी पढ़ा जाये जल्दी से जल्दी । जरूर पढूंगा पाठक मंच के सदस्यों की किताबों को और कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 104 – “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” – डा हरेराम समीप ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा हरेराम समीप जी के काव्य संग्रह  “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 104 – “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” – डा हरेराम समीप ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

 पुस्तक चर्चा

कृति – बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)

कवि – हरेराम समीप

प्रकाशक – पुस्तक बैंक, फरीदाबाद

पृष्ठ  – 104

मूल्य – 195/-

देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर- हरेराम समीप के हाइकू – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है। विशेष रूप से जब वह कविता जापान जैसे देश से हो जहाँ वृक्षो के भी बोन्साई बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को  अभिव्यक्ति मिलती है। साहित्य विश्वव्यापी होता है। वह किसी एक देश या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकता। जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहितियक प्रतिष्ठा दिलवाई।

जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यकित है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गई। किंतु तीन पंक्तियों मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन आज भी हाइकू की विशेषता है।

डॉ हरे राम समीप जनवादी रचनाकार है। वे विगत लंबे समय से जवाहर लाल नेहरू स्मारक निधि तीन मूर्ति भवन मे सेवारत है। उन्हें संत कबीर राष्ट्रीय शिखर सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी पुस्तक पुरस्कार, फिराक गोरखपुरी सम्मान जैसे अनेक सृजन सम्मान प्राप्त हो चुके है। स्वाभाविक ही है कि उनके वैश्विक परिदृश्य एवं राष्ट्रीय चिंतन का परिवेश उनकी कविताओ मे भी परिलक्षित होगा। उदाहरण स्वरूप यह हाइकू देखे-

किताबें रख

बस इतना कर

पढ ले दिल

वसुधैव कुटुम्बक का भारतीय ध्येय और भला क्या है, या फिर,

गलीचे बुने

फिर भी मिले उन्हे

नंगी जमीन

हिंदी एवं उर्दू भाषाओ पर हरे राम समीप का समान अधिकार है। अत: उनके हाइकू मे उर्दू भाषा के शब्दो का प्रयोग सहज ही मिलता है।

पहने फिरे

फरेब के लिबास

कीमती लोग

     या

शराफत ने

कर रखा है मेरा

जीना हराम

कबीर से प्रभावित समीप जी लिखते है

चाक पे रखे

गिली मिटटी, सोचू मैं

गढूं आज क्या

    और

कैसा सफर

जीवन भर चला

घर न मिला

अंग्रेजी को देवनागरी मे अपनाते हुये भी उनके अनेक हाइकू बहुत प्रभावोत्पादक है।

हो गए रिश्ते  

पेपर नेपकिन

यूज एंड थ्रो

     या

निगल गया

मोबाइल टावर

प्यारी गौरैया

कुल मिलाकर बूढा सूरज मे संकलित हरेराम समीप के हाइकू उनकी सहज अभिव्यकित से उपजे है। वे ऐसे चित्र है जिन्हें हम सब रोज सुबह के अखबार मे या टीवी न्यूज चैनलो मे रोज पढते और देखते है किंतु कवि के अनदेखा कर देते है। किंतु उनके संवदेनशील मन ने परिवेष के इन विविध विषयो को सूक्ष्म शब्दो मे अभिव्यक्त किया है। संकलन मे कुल 450 हाइकू संग्रहित है। सभी एक दूसरे से श्रेष्ठ है। पुस्तक का शीर्षक बूढा सूरज जिस हाइकू पर केनिद्रत है वह इस तरह है।

बूढा सूरज

खदेडे अंधियारे

अन्ना हजारे

वर्तमान सामाजिक सिथति मे अन्ना हजारे के लिये इससे बेहतर भला और क्या उपमा दी जा सकती है। कवि से और भी अनेक सूत्र स्वरूप हाइकू की अपेक्षा हिंदी जगत करता है। समीप जी ने गजले, कहानिया और कवितायें भी लिखी है पर हाइकू मे उन्होने जो कर दिखाया है उसके लिये यही कहा जा सकता है कि देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर. समीप जी ने अपने अनुभवो के सागर को हाइकू के छोटे से गागर में सफलता पूर्वक ढ़ाल दिया है .

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “धूप की मछलियाँ” – डा० अनिता कपूर (कैलिफोर्निया,अमेरिका) ☆ समीक्षक- श्री विजय कुमार तिवारी

डा० अनिता कपूर

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “धूप की मछलियाँ” – डा० अनिता कपूर (कैलिफोर्निया,अमेरिका) ☆ समीक्षक- श्री विजय कुमार तिवारी ☆

समीक्षित कृति – धूप की मछलियाँ

कथाकार – डा० अनिता कपूर (कैलिफोर्निया,अमेरिका)

मूल्य – $ 2.40

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स एल एल सी, नोएडा

फ्लिपकार्ट >> धूप की मछलियाँ

 

समीक्षक – श्री विजय कुमार तिवारी

“धूप की मछलियाँः भाव-संवेदनाओं की कहानियाँ” –  श्री विजय कुमार तिवारी 

समीक्षा करते समय केवल सारांश प्रस्तुत करना सम्यक नहीं है। रचना के पात्रों की परिस्थितियाँ,उनके संघर्ष,उनकी संभावनाएं,सुख-दुख,रचनाकार की प्रतिबद्धता और समझ सब तो परिदृश्य में उभरते ही हैं। विद्वतजनों ने खूब विवेचनाएं की हैं और आधार के सन्दर्भ में समृद्ध परम्परा विकसित की है। लेखन एक कला है,समीक्षा को भी स्वतन्त्र तरीके से बुना-देखा जाना चाहिए। यह सही है कि समीक्षा रचना आधारित होती है परन्तु चिन्तन किया जाय तो इसे भी प्रभावशाली बनाने की प्रविधियाँ विकसित की जा सकती हैं। लेखक या रचनाकार की संघर्ष-चेतना,प्रतिबद्धता,भाषा और शैली के संस्कार उभरने ही चाहिए।

पक्ष और विपक्ष में बहुत सी चर्चाएं हो रही हैं तथा मारकाट मची हुई है। उचित है या नहीं,यह तो बाद का विषय है,इसके होने को कोई रोक नहीं सकता। दरअसल सब कुछ मनुष्य की प्रवृत्तियों और चिन्तन से जुड़ा हुआ है। हमारा या हमारे समाज का चिन्तन जितना सारगर्भित और महत्वपूर्ण होगा,सृजन भी श्रेष्ठ होता जायेगा। इसके पक्ष में अन्यान्य बातें की जा सकती हैं। इतना तो स्वीकार करना ही चाहिए, कोई भी रचनाकार कुछ लिखता है,उससे पहले,लेखन के पूर्व की सम्पूर्ण प्रक्रियाओं से गुजरता ही है। अभी तक हमारे साहित्य चिन्तन में ऐसे तत्वों की पड़ताल कम ही हुई है। मान लेना चाहिए कि लेखक का भीतरी, किसी घटना से ,परिस्थिति से,व्यक्ति या व्यक्ति-समूहों से प्रभावित हुए बिना लिख ही नहीं सकता। आदर्श परिस्थितियों से विचलन लेखक सह नहीं सकता,उसकी कलम जय बोलने लगती है। सारांशतः हर लेखक को समुचित सम्मान दिया जाना चाहिए क्योंकि वह ऐसा चितेरा है जो संगतियों-विसंगतियों को पहचानता है और समाज को दिशा देता है। देश हो या विदेश,पूरी दुनिया में साहित्यकार अपने-अपने तरीके से सृजन में लगे हैं और मानवता का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

हिन्दी साहित्य में प्रवासी भारतीयों ने कम योगदान नहीं किया है और विदेशी भूमियों पर रहते हुए साहित्य को,नाना विधाओं से समृद्ध कर रहे हैं। एक ऐसी ही प्रतिबद्ध और समर्पित प्रवासी भारतीय लेखिका हैं-डा० अनिता कपूर, अमेरिका के कैलीफोर्निया में रहते हुए सतत लेखन-सृजन में लगी हैं। ‘धूप की मछलियाँ’ उनकी लघुकथाओं का संग्रह मेरे हाथों में है और अच्छा लग रहा है उनकी भावनाओं,संवेदनाओं और सुखद जीवन की उड़ान देखकर। डा० चंद्रेश कुमार छतलानी ने उनके लिए शुभकामना संदेश लिखा है,”वस्तुतः हिन्दी साहित्य में सार्थक कार्यों की महती परम्पराओं द्वारा पाठकों में उचित सन्देश प्रेषित करती लघुकथाओं का यह संग्रह ‘धूप की मछलियाँ’ सामयिक पाठक पीढ़ी के लिए सत्प्रेरणादायक सिद्ध हो सकता है जो कि अभिनंदनीय है।”

भूमिका के तौर पर डा० अनिता कपूर ने ‘कहानी लिखना एक कला है’ शीर्षक से अपना मन्तव्य लिखा है-“वह यानी लेखक अपनी कल्पना और वर्णन शक्ति से कहानी के कथानक,पात्र या वातावरण को प्रभावशाली बना देता है।— लेखक की भाषा-शैली पर बहुत कुछ निर्भर करता है। —आज की कहानी व्यक्तिवादी है जो व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन करती है।—लघुकथा आसान विधा नहीं है।” साथ ही उन्होंने लघुकथा सम्बन्धी अपना चिन्तन भी लिखा है। पाठक और साहित्य के मर्मज्ञ सहमत हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते। इतना अवश्य है कि डा० अनिता कपूर ने अमेरिकी धरती से भारत को,यहाँ के पात्रों को और उनके जीवन संघर्षों को देखा है,अनुभव किया है और हमारे लिए संजोया है। ये पात्र विदेशों में बस गये हैं या रह रहे हैं।  इस संग्रह में कुल 30 लघुकथाएं संग्रहित हुई हैं। प्रवासी होने के साथ-साथ वे भ्रमणशील भी हैं। अतः उम्मीद किया जाना चाहिए कि उनके अनुभव का दायरा विस्तृत होगा। उनके इस पुनीत कार्य के लिए अपनी और आप सभी की ओर से बधाई देता हूँ।

डा० अनिता कपूर जी की कहानियाँ सीधी-सपाट भाषा में लिखी गयी हैं। शुरु-शुरु में यह सहजता शायद निराश करे,यह तो होता ही है,परन्तु अंत आते-आते हर कहानी हमारे सामने कोई न कोई प्रश्न खड़ा कर ही देती है। इसे उनकी विशेषता के रुप में लेना चाहिए और सम्पूर्ण समाज के हित में विस्तार देते हुए सोचना चाहिए। पहली ही कहानी ‘मानसिकता’ में सब कुछ स्वतः उजागर होता हुआ दिखता है,प्रश्न तो है और उत्तर हम सभी को खोजना है। वैसे ही अगली कहानी ‘मास्क’ के बारे में चिन्तन कीजिए। हमारे सम्बन्ध ऐसे क्यों हैं?क्यों कोई भाई ऐसा करता है?उसे तो सुख में,दुख में साथ रहना चाहिए था। ठीक ही तो लिखा गया है,कोरोना काल में रिश्तों के मास्क परत-दर-परत उतर गये हैं। अपनी कहानियों में डा० अनिता कपूर ने अपने अनुभूत या आसपास के समाज में घटित सत्य को उजागर किया है। ‘फाहा’ की सुनन्दा की पीड़ा,उनके साथ घटा हुआ सत्य विचलित करता है और यह संदेश देता है कि ईश्वर ने हमारे भीतर बहुत से गुण और कलायें भर रखी हैं जो हमारे जीवन का आधार हो सकती हैं,वरना रिश्ते-नाते तो स्वार्थ में दुखी ही  करते हैं। ‘अमिया’कहानी में भी सम्बन्धों को लेकर वही निराशा की भावनाएं हैं जबकि बाहर समृद्धि है और सुख के सभी साधन हैं। ‘बेटी’ कहानी भी रिश्तों पर प्रश्न उठाती है। धन और सम्पत्ति के आगे लोग अंधे हो जाते हैं,जिम्मेदारियाँ और नैतिकता को तिलांजलि दे देते हैं। अपनों के बजाय पराये मदद करते हैं।

रिश्तों को लेकर दुनिया में बहुत लिखा गया है। रिश्ते दुखी भी करते हैं और सुख भी देते हैं। महत्वपूर्ण है कि हमारे हिस्से में क्या आया है और हम अपने सम्बन्धों के साथ कैसे तालमेल बिठाते हैं? ‘विसर्जन’ अकेलेपन से जूझते वृद्ध  की कहानी है। कम शब्दों में पूरी व्यथा उभर आयी है। कहानी में अकेले से जूझने का समाधान बताया गया है। बेहतर तो यही है कि हमसे जो बन पड़े,हम अपनी सक्रियता बढ़ाएं और प्रसन्न रहने की कोशिश करें। ‘गर्व’ किंचित भटकाव के साथ उभरती कहानी है। उद्देश्य और कथानक सार्थक है और सम्प्रेषण यानी बातचीत करके स्थिति स्पष्ट की गयी है जिसका अच्छा प्रभाव पड़ा है। ‘आइनों के जाले’ दुखद कहानी है। पाश्चात्य देशों में रह रहे ऐसे बेटों पर प्रश्न उठाती कहानी है जो अपनी मां को बेसहारा छोड़ देते हैं। आशा जी स्वयं को सक्रिय करती हैं,कहती हैं,” अब मैं अपने जैसे आईनों को देखती हूँ तो तुरत उसके जाले हटाने में जुट जाती हूँ। ‘ग्रहण’ कहानी में स्वार्थ और बेईमानी है। डा० अनिता जी को ऐसे लोग ज्यादा मिले हैं जो इस हद तक गिरते हैं और रिश्तों की मर्यादा तोड़ते हैं। ‘गरीबी का इलाज’ की स्थिति स्वतः स्पष्ट है। दो देशों के बीच आने-जाने के नियम होते हैं। अबैध तरीके से बार्डर पार करते हुए पति मारा जाता है। मारिया अमेरिका में रह रही है और जीविका के लिए साफ-सफाई का काम करती है। प्रश्न सोचने पर विवश करता है,पता नहीं यह अमेरिका का आकर्षण है या अपने को खो कर गरीबी का इलाज?

‘गंगा-जल’ बहुत ही मार्मिक भाव-दशा का चित्रण करती कहानी है। अपने अंतिम क्रिया-कर्म के लिए बीमा ले लेने के बाद गुप्ता जी को लगा-इस वृद्धाश्रम और अपनों के बीच ठहरे पानी पर जमी काई से जो दुर्गन्ध आने लगी थी, वो अब गंगा-जल हो गयी है। ‘पेट की सरहद’ थोड़े अलग तरह की मानसिकता बयान करती कहानी है। नासिरा पाकिस्तान से आयी मिठाइयाँ परोसकर कहती है,”अरे जमीनी सरहदें तो सियासी हैं पर पेट की नहीं।” असुरक्षा की भावना से ग्रसित सोनी की कहानी ‘असुरक्षा’ व्यथित करती है। सोनी ऐसा कैसे कर सकती है? दोस्ती के नाम पर ऐसा शोषण? कहानी का संदेश यह भी है कि किसी के लिए चिन्ता करते समय वस्तु-स्थिति की पूरी जानकारी ले लेनी चाहिए। ‘इतिहास’ कहानी में व्यक्त हुई पीड़ा किसी मां को न झेलना पड़े। मां जाते हुए पुत्र को व्यथित हो देखते हुए कहती है,”बेटा! इतिहास कभी न कभी अपने आप को दोहराता जरूर है। तुम्हारी पत्नी भी तो कभी सास बनेगी। तुम भी तो कभी बूढ़े होगे एक दिन।” अगली कहानी ‘एक बेटी यह भी’ में बेटी के द्वारा दुत्कारे जाने पर मां दुखी होकर बुदबुदाती है,”बच्चों! इतिहास खुद को अवश्य दोहराता है—तुम देखना एक दिन।”

हमारे समाज में लड़का-लड़की की मानसिकता भरी हुई है। अजय को लड़का चाहिए और पत्नी रुचि को लड़की। रुचि कारण बताती है,”मैं नहीं चाहती,मेरा बेटा बड़ा होकर मुझे भुला दे जैसे तुमने अपनी मां के साथ किया है।” अजय सम्हलता है और मां को लाने चल पड़ता है। ‘सही तस्वीर’ अच्छी कहानी है। ‘हैलो 911′ की तत्परता और व्यवस्था देख कहानीकार के मन में आता है,हे ईश्वर! बुजुर्गो के दुख व अकेलेपन का अहसास कराने वाली ऐसी ही कोई अलर्ट चीप उनके बच्चों के हृदय से जुड़ा हो।” अकेलेपन के अहसास को जीना कठिन है।’दिस इस अमेरिका’ की मार्मिकता प्रभावित करती है। जार्ज ने कहा,”आपके अकेलेपन से मेरी निःशब्द दोस्ती हो गयी है। आप वापस अपने देश लौट जाओ।” एक दिन नीना ने देखा,जार्ज के घर के सामने भीड़ लगी है और उन्हें वैन में रखा जा रहा है। नीना घबरा कर बैठ गयी। उसे जार्ज के बंद दरवाजे पर पसरे सन्नाटे ने भविष्य का आईना दिखा दिया। ‘सेवा’ ऐसी ही मार्मिक कहानी है। बेटा मां-बाप को छोड़ दिया है। दोनों गुरु द्वारे में सेवा करके जी रहे हैं। अमेरिका में बच्चे भी वही खेल खेलते हैं जो अपने आसपास घटित होते देखते हैं। बच्चों का बंटवारा हो जाता है। स्वीटी कहती है,’इस सप्ताह मैं पापा के घर रहने जा रही हूँ, अगले संडे मम्मी के पास वापस आऊँगी।’

‘आई लव यू’ में व्यक्त भाव गहरी पीड़ा का संकेत दे रहे हैं। लाॅकडाउन के दौर में पहले वाली बातें नहीं रहीं। आज ऐसे तैयार हो रहे हैं जैसे कोई दुल्हा। एक तरह से यहाँ व्यंग्य भाव भी है। ‘बुजुर्ग’ कहानी की अलग समस्या है। बच्चा बीमार है। मां-बाप दोनों नौकरी करते हैं। भारत से किसी बुजुर्ग को बुलाने की योजना बनी है। मीना एलान करती है कि उसकी मां आ रही है। सुरेश को अपनी मां की याद आती है जो किसी वृद्धाश्रम में है। वह बुदबुदाता है,”भगवान! मेरी बीबी सास तो बने पर बेटा मेरे जैसा न बने।” कहानी ‘उतरन’  में सुखी,सम्पन्न सी दिखने वाली लड़की के कारनामे निराले हैं। उसने अपने सामान्य पति को छोड़ा और दीदी के पति से शादी कर ली, दीदी का सम्बन्ध-विच्छेद करवा दिया। आज उसकी दीदी शहर की मेयर है और वह किसी की उतरन पर खुश है। ‘प्रतिक्रिया’ में बेटे के छोड़ जाने की पीड़ा सहेजे सरिता अपने पुत्र अनिल के पुत्र होने के समाचार से खुश नहीं होती,कहती है,”बेटी होती तो अच्छा होता।” उसका मानना है कि बेटियाँ मां की होती हैं और बेटे पराया धन होते हैं।

‘ईश्वर का डबल प्रेम’ रचना अनिता कपूर जी की आत्म-लघुकथा है। इस पर अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है,जैसा है,स्वीकार कर लेना है। उनके अपने द्वन्द्व-अन्तर्द्वन्द्व हैं,अपनी खोज है और जरूरी भी है। ‘सोने की मुर्गी’ अच्छी व्यंग्य रचना है। जिस खोज में पंडित जी हैं,संजीव बाबू अधिक ही तेज निकले। सम्बन्धों की आड़ में ऐसा ही होता है। ‘चाबी का गुच्छा’ कहानी किसी अश्लील संस्कृति की ओर संकेत करती है। मेघा को पीड़ा है कि उसे उसके पति ने ही ढकेला है। एक महिला के मुँह से अमर्यादित बात सुनकर दुखी होती है।’मेहँदी’ कहानी में सोनिया के प्रश्न ने कि आप विधवा जैसी दिखती नहीं हैं,मिसेज शर्मा को शून्य कर दिया। डा० अनिता कपूर लिखती हैं,”मैं समझ नहीं पाई कि ऐसी स्वार्थी सोच रखने वाली मुखौटा पहने हुए कुछ महिलाएं नारी शक्ति और स्त्री-विमर्श की बातें कर दोगली जिन्दगी कैसे जी लेती हैं। ‘तीसरी पारी’ में पुत्र के शब्द नीरा के मन को बेध रहे हैं। पति के गुजर जाने के बाद उसने सब कुछ किया और आज शादी होते ही पुत्र के शब्दों ने तिराहे पर ला खड़ा कर दिया है। उसे जिन्दगी की तीसरी पारी अकेले ही खेलने के लिए मजबूर कर दिया गया है। नीरा नकारात्मक बातों को परे करती है क्योंकि उसे अपनी उम्मीद को जिंदा रखना है।’आराम’ संग्रह की अंतिम कहानी है। सीमा मुम्बई की अपनी बालकनी में खड़ी है।   सामने की जमीन में मकान खड़े हैं जहाँ पाँच वर्षों पहले मजदूरों की झोपड़ियाँ थीं। वह रज्जो से पूछती है। उसका उत्तर है,”मैडम जी! हम मजदूर ही तो हैं। आप लोगों को मकान बनाकर दे दिये और खुद बेघर होकर किसी और का घर बनाने चल दिये।

शीर्षक ‘धूप की मछलियाँ’ रचनाकार की भीतरी तड़प को दर्शाता है। मछलियों का पानी से बाहर जीवित रहना संभव नहीं है,शीघ्र ही उनका प्राणान्त हो जाता है। वैसे ही अपनों के सम्बन्धों से बाहर किसी का भी जीवन सहज नहीं रह जाता। डा० अनिता कपूर का अनुभव हर रचना में बयान हुआ है। उन्होंने अपने आसपास की दुनिया को गहराई से देखा और अनुभव किया है। विदेशों में जा बसे लोगों का अपनी सभ्यता-संस्कृति से लगाव नहीं रह जाता क्या? क्या वे भारतीय संस्कार भूल जाते हैं? क्या सचमुच वे स्वार्थी, निष्ठुर और मां-बाप के प्रति उदासीन हो जाते हैं? यदि ऐसा है तो कहीं न कहीं उनके संस्कार और पालन-पोषण पर प्रश्न खड़े होते हैं। निश्चित ही,ऐसे कुछ ही लोग होंगे,सब के सब ऐसा नहीं करेंगे। एक भी व्यक्ति को ऐसा नहीं होना चाहिए,चाहे देश में हो या विदेश में। ऐसा भी संभव है,संयोग बस डा० अनिता कपूर जी को ऐसे ही लोगों से मिलना हुआ हो। उनकी कहानियाँ अनुभवों पर आधारित हैं,इसलिए कथ्य-कथानक प्रभावित करते हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं। भाषा-शैली अनुकूल है,परन्तु कहीं-कहीं मानो जल्दबाजी में प्रवाह टूटता सा दिखता है। उन्हें अपनी कहानियों पर कुछ और श्रम करना चाहिए। पाठक को उनके मन्तव्य या निहितार्थ को समझने में जोर लगाना पड़ता है। कुछ समस्या प्रकाशन के चलते भी है। भाव-संवेदनाएं खूब अभिव्यक्त हुई हैं। कहीं-कहीं व्यंगात्मक भाव भी उभरे हैं। अंग्रेजी शब्दों का बहुतायत प्रयोग हुआ है। लम्बे समय तक विदेश में रहने से ऐसा हुआ होगा। रिश्तों की पड़ताल हर रचना में हुई है,यह शायद उनकी मूल अनुभूति और चिन्तन है। निश्चित ही पाठक उनके अनुभवों से सीखेंगे और जीवन के ऐसे विचलनों से बचेंगे।

समीक्षक – श्री विजय कुमार तिवारी 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा संजीव कुमार जी के काव्य संग्रह  “खामोशी की चीखें” की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : खामोशी की चीखें (काव्य संग्रह)

कवि – डा संजीव कुमार

प्रकाशक : इंडिया नेट बुक्स, नोएडा

मूल्य २२५ रु, अमेजन पर सुलभ

प्रकाशन वर्ष २०२१

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆  

खामोशी की चीख शीर्षक से ही  मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं…

“खामोशी की चीख के

सन्नाटे से,

डर लगता है मुझे

मेरे हिस्से के अंधेरों,

अब और नहीं गुम रहूंगा मैं

छत के सूराख से

रोशनी की सुनहरी किरण

चली आ रही है मुझसे बात करने. “

कवि मन अपने परिवेश व समसामयिक संदर्भो पर स्वयं को अभिव्यक्त करता है यह नितांत स्वाभाविक प्रक्रिया है. हिमालय पर्वत श्रंखलायें सदा से मेरे आकर्षण का केंद्र रही हैं. मुझे सपरिवार दो बार जम्मू काश्मीर के पर्यटन के सुअवसर मिले. बारूद और संगिनो के साये में भी नयनाभिराम काश्मीर का करिश्माई जादू अपने सम्मोहन से किसी को रोक नही सकता.वरिष्ठ कवि पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ने वहां से लौटकर लिखा था.. “

लगता यों जगत नियंता खुद है यहाँ प्रकृति में प्राणवान

मिलता नयनो को अनुपम सुख देखो धरती या आसमान 

जग की सब उलझन भूल जहाँ मन को मिलता पावन विराम 

हे धरती पर अविरत स्वर्ग काश्मीर तुम्हें शत शत प्रणाम “

आतंकी विडम्बना से वहां की जो सामाजिक राजनैतिक दुरूह स्थितियां विगत दशकों में बनी उनसे हम सभी का मन उद्वेलित होता रहा है. किन्तु ऐसा नही है कि काश्मीर की घाटियां पहली बार सेना की आहट सुन रही है, इतिहास बताता है कि सदियों से आक्रांता इन वादियों को खून से रंगते रहे हैं. लिखित स्पष्ट क्रमबद्ध इतिहास के मामले में काश्मीर धनी है, नीलमत पुराण में उल्लेख है कि आज जहां काश्मीर की प्राकृतिक छटा बिखर रही है, कभी वहाँ विशाल झील थी, कालांतर में झील का पानी एक छेद से बह गया और इससुरम्य घाटी का उद्भव हुआ. इस पौराणिक आख्यान से प्रारंभ कर,  १२०० वर्ष ईसा पूर्व राजा गोनंद से राजा विजय सिन्हा सन ११२९ ईस्वी तक का चरणबद्ध इतिहास कवि कल्हण ने “राजतरंगिणी ” में लिपिबद्ध किया है. १५८८ में काश्मीर पर अकबर का आधिपत्य रहा, १८१४ में राजा रणजीत सिंह ने काश्मीर जीता, यह सारा संक्षिपत इतिहास भी डा संजीव कुमार ने  “खामोशी की चीखें” के आमुख में लिखा है, जो पठनीय है. श्री यशपाल निर्मल, डा लालित्य ललित, व डा राजेशकुमार तीनो ही स्वनामधन्य सुस्थापित रचनाकार हैं जिन्होने पुस्तक की भूमिकायें लिखीं है.

पुस्तक में वैचारिक रूप से सशक्त ५२ झकझोर देने वाली अकवितायें काश्मीर के पिछले दो तीन दशको के सामाजिक सरोकारो, जन भावनाओ पर केंद्रित हैं. यद्यपि कविता आदिवासी व कोरोना दो ऐसी कवितायें हैं जिनकी प्रासंगिकता पुस्तक की विषय पृष्ठभूमि से मेल नहीं खाती, उन्हें क्यो रखा गया है यह डा संजीव कुमार ही बता सकेंगे.

डा संजीव कुमार स्त्री स्वर के सशक्त व मुखर हस्ताक्षर हैं. वे काश्मीरी महिलाओ पर हुये आतंकी अत्याचारो के खिलाफ संवेदना से सराबोर एक नही अनेक रचनाये करते दिखते हैं.

उदाहरण स्वरूप..

लुता चुकी हूं,

अपना सब कुछ,

अपना सुहाग,

अपना बेटा, अपनी बेटी,

अपना घर,

पर पता नही कि मौत क्यों नही आई ?

ये वेदना जाति धर्म की साम्प्रदायिक सीमाओ से परे काश्मीरी स्त्री की है. ऐसी ही ढ़ेरो कविताओ को आत्मसात करना हो तो “खामोशी की चीखें” पढ़ियेगा, किताब अमेजन पर भी सुलभ है.  

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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