श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री  मनोज श्रीवास्तव जी  द्वारा सम्पादित पत्रिका  “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक) की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 107 ☆

☆ “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पत्रिका चर्चा

अक्षरा नई यात्रा पर…

पत्रिका चर्चा… अक्षरा अंक २०३, मासिक पत्रिका,

“सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक “

संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव

प्रकाशक… म. प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल

वार्षिक सदस्यता… ३०० रु

किसी विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका में  लेख पढ़कर किसी अपरिचित पाठक का स्वस्फूर्त फोन आवे तो निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाशित शब्द पाठक के मन पर छबि अंकित कर रहे हैं, पत्रिका सांगोपांग पढ़ी जा रही है. वरना विशुद्ध साहित्य की कतिपय कथित गरिष्ठ पत्रिकायें वरिष्ठ साहित्यकारों के पास भी लिफाफे से बाहर निकलने को ही तरसती रह जाती हैं. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की मुख पत्रिका “अक्षरा” विगत ४० वर्षो से अनवरत छप रही है, खरीद कर पढ़ी जा रही है, इसमें प्रकाशित होना रचनाकार को आंतरिक प्रसन्नता देता है, अर्थात अक्षरा विशिष्ट है.  नये आकार, नये गेटअप, कलेवर के नये स्वरूप में सेवानिवृत वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव के संपादन में नई  टीम के साथ अक्षरा अंक २०३, “सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक ” २०० पृष्ठो  की विशद सामग्री निश्चित ही स्थाई संदर्भ हेतु  संग्रहणीय है. वर्तमान परिदृश्य में साहित्य  समाज को चिंतन, विचार और दिशा तो देता है किन्तु उससे सीधा आर्थिक लाभ नगण्य ही होता है.  सामाजिक गरिमा व सम्मान के लिये ही रचनाकार यह सारस्वत अनुष्ठान करते समझ आते हैं.

इस अंक को पढ़कर एक बुजुर्ग पाठक का फोन मेरे पास आाया वे मेरे व्यंग्य लेख ” सरस्वती वंदना से आभार तक ” की प्रशंसा कर रहे थे, मैं फुरसत में था तथा पत्रिका पढ़ ही रहा था सो मैंने उनसे पत्रिका के बाकी लेखों के विषय में भी बातें कीं, और मुझे लगा कि अक्षरा की इस नई यात्रा की चर्चा पाठको के बीच की जानी चाहिये जिससे अक्षरा और भी व्यापक हो.

हाल ही हमने समाचार देखा कि दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में बहने वाली ब्रिंगी नदी की जलधारा अचानक रुक गई है,  इसका पानी ‘पाताल’ में समा रहा है,  इसका कारण नदी का स्रोत समाप्त होना नहीं, बल्कि एक गहरा गड्ढा (सिंकहोल) बनना है जिसमें सारा पानी समाता जा रहा है. आगे की नदी का करीब 20 किमी लंबा हिस्सा सूखने से बड़ी संख्या में ट्राउट मछलियां भी मर गई हैं. 

अनेक नदियां उनके बेसिन में जंगलो की कटाई के चलते सूख रही हैं, जैसे जालौन से निकली नून नदी विलुप्त होती जा रही है. जालौन के 89 किलोमीटर के दायरे में फैली इस नदी से करीब 30 गांवों की फसलें सिंचित होती थीं. लेकिन, बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे के कारण ये नदी विलुप्त होती जा रही है.

अनेक नदियां व उनके जीव जंतु रेत के अंधाधुंध दोहन से मृतप्राय हो रही हें जैसे गाडरवाड़ा की शक्कर नदी सूख रही है. प्रातः स्मरणिय श्लोक “गंगे यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ” में तो सरस्वती बांची जाती है पर पवित्र  नदी सरस्वती विलुप्त हो चुकी है. अक्षरा का यह विशेषांक सारस्वत साहित्य मंथन के साथ ही लुप्त होती नदियों की ओर भी पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित करे ऐसी कामना है.

अंक के आरंभिक पन्ने पर अगली पीढ़ी को अपने सम्मुख ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ाने का सुख “अपनी बात” में संपादन दायित्व से मुक्त होते कैलाश चंद्र पंत जी ने अभिव्यक्त किया है. नये विद्वान संपादक मनोज श्रीवास्तव जी के संपादकीय का शब्द शब्द, विभिन्न व्यापक संदर्भ, सरस्वती को लेकर उनका गहन चिंतन व संदर्भ विमर्श के श्रोत हैं. श्री रमेश दवे के आलेख सरस्वती मात्र शब्द नहीं दर्शन है, में वे लिखते हें कि ” भारतीय ज्ञान परंपरा का जीवंत होना, शक्तिमय होना ही सरस्वती होना है.

पत्रिका में माँ सरस्वती के दुर्लभ चित्र यत्र तत्र संदर्भानुकूल प्रकाशित किये गये हैं. अंक का सुंदर आवरण चित्र क्षमा उर्मिला जी ने बनाया गया है. 

श्री विनय कुमार, प्रेमशंकर शुक्ल, आभा बोधिसत्व, सुधीर सक्सेना, स्वदेश भटनागर, अभिषेक सिंह,बृजकुमार पटेल, राजकुमार कुम्भज, मुरलीधर चांदवाला, व देवेंद्र दीपक की  चयनित प्रकाशित कविताओ में से स्वदेश भटनागर जी की पंक्तियां उधृत करता हूं..

” हिंसा पर हिंसा

जमती जा रही है

आसमान भी तिरछा हो गया

तुम्हें मालूम होगा न माँ

मौन भी अब हिंसा की जद में आ गया

सुबह रक्त भरे पन्ने से शुरू होने लगी है

मनुष्य भी संवेदन शील नही रहा “

सोनल मानसिंह का लेख सरस्वती, कुसुमलता केडिया का लेख सरस्वती के मुहाने पर दम तोड़ता आर्य आक्रमण सिद्धांत,सरस्वती भारतीय सारस्वत साधना का जीवंत प्रतीक द्वारा राधावल्लभ त्रिपाठी, अरुण उपाध्याय का आलेख सरस्वती वाक् तरंगें और एक नदी, रंगों और रेखाओं में सरस्वती आलेख नर्मदा प्रसाद उपाध्याय,  राजा भोज के सरस्वती कंठाभरण : धुंध के पार एक चमकदार लकीर में  विजय मनोहर तिवारी ने धार की भोजशाला पर विस्तृत ऐतिहासिक विवेचना की है. 

सरस्वती के बहाने आत्म प्रत्यभिज्ञा की खोज में  आनंद सिंह,  आखिर कविता संयत और सिद्ध वाचालता ही तो है / कुमार मुकुल,  सा मां पातु सरस्वती भगवती / राजेश श्रीवास्तव,  सरस्वती का स्वरूप निराकार से साकार तक / मीनाक्षी जोशी,  भारतीय संगीत में सरस्वती / विजया शर्मा,  लुप्त सरस्वती की खोज : श्रीधर वाकणकर ‍-  रेखा भटनागर,  सरस्वती, श्रुति महती न हीयताम् : सरस्वती शाश्वत है / श्यामसुंदर दुबे,  सरस्वती की कालजयिता / विजयदत्त श्रीधर,  ‘ सरस्वती ‘ में महिला संचेतना / मंगला अनुजा,  पुरातन का रूपान्तरण है बसन्त / इंन्दुशेखर तत्पुरुष विशेषांक पर केंद्रित सभी आलेख पौराणिक साहित्य, वेदो, से संदर्भ उधृत करते हुये गंभीर चिंतन जनित लेख हैं. प्रत्येक लेख को पढ़ने समझने में लंबा समय लगेगा.  वैज्ञानिक व तकनीकी दृष्टिकोण से विलुप्त सरस्वती नदी पर एक आलेख की कमी लगी.

नारी तू सरसती / सुमन चौरे, मुझे सरस्वती से कोई दिक्कत नहीं है / निरंजन श्रोत्रिय एवं दारागंज में निराला / देवांशु पद्मनाभ संस्मरणात्मक लेख हैं. सरस्वती संदर्भ की अनूदित सामग्री भी संयोजित है जिसमें “ज्ञान प्रदाता : सरस्वती माता / मूल : विजयभास्कर दीर्घासि / अनुवादक एस. राधा,   सरस्वती नाद शब्द और परब्रह्म का वपुधारण / मूल पुदयूर जयनारायनन नंबूदरीपाद / अनुवादक तथा देवी सरस्वती अंतहीन ज्ञान की देवी मूल : वृन्दा रामानन के हिन्दी अनुवादक स्वयं संपादक मनोज श्रीवास्तव  हैं. इस तरह मनोज जी के अनुवादक स्वरूप के भी दर्शन हम करते हैं.

सरस – वती भव में नरेन्द्र तिवारी ने अद्भुत कल्पना कर स्वयं वाग्देवी सरस्वती से स्वप्न साक्षात्कार ही प्रस्तुत कर दिया है. स्मरणांजलि में श्री नरेश मेहता दृष्टि और काव्य पर प्रमोद त्रिवेदी व गहरे सामाजिक बोध के कवि नरेश महता / प्रतापराव कदम के लेख महत्वपूर्ण हैं.  व्यंग्य “सरस्वती से आभार तक”  / विवेक रंजन श्रीवास्तव,  ललित निबंध राग की वासंतिका : सरस्वती की रंगाभा / परिचय दास के अतिरिक्त दो  कहानियां  बदरवा बरसे रे : कृष्णा अग्निहोत्री एवं यू – टर्न / इंदिरा दाँगी भी पत्रिका में समाहित हैं.  तीन किताबो पर पुस्तक परिचय में बात की गई हैं.  समय जो भुलाए नहीं भूलता (अश्विनी कुमार दुबे), उपनिषद त्रयी (एम. एल. खरे) / पहाड़ी,  नर्मदा (सुरेश पटवा) : रामवल्लभ आचार्य, खंडित होती शाश्वत अवधारणाएँ (सदाशिव कौतुक) / माधव नागदा ने प्रस्तुत की है.   पगडंडियों का रिश्ता (विजय कुमार दुबे) / रमेश दवे,  बीर – बिलास (सं. प्रो. वीरेन्द्र निर्झर) / गंगा प्रसाद बरसैंया,  वसंत का उजाड़ (प्रकाश कांत) / सूर्यकांत नागर,  शिखण्डी (शरद सिंह) / मैथिली मिलिंद साठे,  लोकतंत्र और मीडिया की निरंतर बदलती चुनौतियाँ (मनीषचंद्र शुक्ल) / जवाहर कर्नावट ने पुस्तको पर समीक्षायें रखी हैं.

कुल मिलाकर इस अंक के साथ अक्षरा जिस नई यात्रा पर निकल पड़ी है, उसमें पूर्ण कालिक संपादकीय समर्पण दृष्टि गोचर है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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