डा० अनिता कपूर

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “धूप की मछलियाँ” – डा० अनिता कपूर (कैलिफोर्निया,अमेरिका) ☆ समीक्षक- श्री विजय कुमार तिवारी ☆

समीक्षित कृति – धूप की मछलियाँ

कथाकार – डा० अनिता कपूर (कैलिफोर्निया,अमेरिका)

मूल्य – $ 2.40

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स एल एल सी, नोएडा

फ्लिपकार्ट >> धूप की मछलियाँ

 

समीक्षक – श्री विजय कुमार तिवारी

“धूप की मछलियाँः भाव-संवेदनाओं की कहानियाँ” –  श्री विजय कुमार तिवारी 

समीक्षा करते समय केवल सारांश प्रस्तुत करना सम्यक नहीं है। रचना के पात्रों की परिस्थितियाँ,उनके संघर्ष,उनकी संभावनाएं,सुख-दुख,रचनाकार की प्रतिबद्धता और समझ सब तो परिदृश्य में उभरते ही हैं। विद्वतजनों ने खूब विवेचनाएं की हैं और आधार के सन्दर्भ में समृद्ध परम्परा विकसित की है। लेखन एक कला है,समीक्षा को भी स्वतन्त्र तरीके से बुना-देखा जाना चाहिए। यह सही है कि समीक्षा रचना आधारित होती है परन्तु चिन्तन किया जाय तो इसे भी प्रभावशाली बनाने की प्रविधियाँ विकसित की जा सकती हैं। लेखक या रचनाकार की संघर्ष-चेतना,प्रतिबद्धता,भाषा और शैली के संस्कार उभरने ही चाहिए।

पक्ष और विपक्ष में बहुत सी चर्चाएं हो रही हैं तथा मारकाट मची हुई है। उचित है या नहीं,यह तो बाद का विषय है,इसके होने को कोई रोक नहीं सकता। दरअसल सब कुछ मनुष्य की प्रवृत्तियों और चिन्तन से जुड़ा हुआ है। हमारा या हमारे समाज का चिन्तन जितना सारगर्भित और महत्वपूर्ण होगा,सृजन भी श्रेष्ठ होता जायेगा। इसके पक्ष में अन्यान्य बातें की जा सकती हैं। इतना तो स्वीकार करना ही चाहिए, कोई भी रचनाकार कुछ लिखता है,उससे पहले,लेखन के पूर्व की सम्पूर्ण प्रक्रियाओं से गुजरता ही है। अभी तक हमारे साहित्य चिन्तन में ऐसे तत्वों की पड़ताल कम ही हुई है। मान लेना चाहिए कि लेखक का भीतरी, किसी घटना से ,परिस्थिति से,व्यक्ति या व्यक्ति-समूहों से प्रभावित हुए बिना लिख ही नहीं सकता। आदर्श परिस्थितियों से विचलन लेखक सह नहीं सकता,उसकी कलम जय बोलने लगती है। सारांशतः हर लेखक को समुचित सम्मान दिया जाना चाहिए क्योंकि वह ऐसा चितेरा है जो संगतियों-विसंगतियों को पहचानता है और समाज को दिशा देता है। देश हो या विदेश,पूरी दुनिया में साहित्यकार अपने-अपने तरीके से सृजन में लगे हैं और मानवता का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

हिन्दी साहित्य में प्रवासी भारतीयों ने कम योगदान नहीं किया है और विदेशी भूमियों पर रहते हुए साहित्य को,नाना विधाओं से समृद्ध कर रहे हैं। एक ऐसी ही प्रतिबद्ध और समर्पित प्रवासी भारतीय लेखिका हैं-डा० अनिता कपूर, अमेरिका के कैलीफोर्निया में रहते हुए सतत लेखन-सृजन में लगी हैं। ‘धूप की मछलियाँ’ उनकी लघुकथाओं का संग्रह मेरे हाथों में है और अच्छा लग रहा है उनकी भावनाओं,संवेदनाओं और सुखद जीवन की उड़ान देखकर। डा० चंद्रेश कुमार छतलानी ने उनके लिए शुभकामना संदेश लिखा है,”वस्तुतः हिन्दी साहित्य में सार्थक कार्यों की महती परम्पराओं द्वारा पाठकों में उचित सन्देश प्रेषित करती लघुकथाओं का यह संग्रह ‘धूप की मछलियाँ’ सामयिक पाठक पीढ़ी के लिए सत्प्रेरणादायक सिद्ध हो सकता है जो कि अभिनंदनीय है।”

भूमिका के तौर पर डा० अनिता कपूर ने ‘कहानी लिखना एक कला है’ शीर्षक से अपना मन्तव्य लिखा है-“वह यानी लेखक अपनी कल्पना और वर्णन शक्ति से कहानी के कथानक,पात्र या वातावरण को प्रभावशाली बना देता है।— लेखक की भाषा-शैली पर बहुत कुछ निर्भर करता है। —आज की कहानी व्यक्तिवादी है जो व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन करती है।—लघुकथा आसान विधा नहीं है।” साथ ही उन्होंने लघुकथा सम्बन्धी अपना चिन्तन भी लिखा है। पाठक और साहित्य के मर्मज्ञ सहमत हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते। इतना अवश्य है कि डा० अनिता कपूर ने अमेरिकी धरती से भारत को,यहाँ के पात्रों को और उनके जीवन संघर्षों को देखा है,अनुभव किया है और हमारे लिए संजोया है। ये पात्र विदेशों में बस गये हैं या रह रहे हैं।  इस संग्रह में कुल 30 लघुकथाएं संग्रहित हुई हैं। प्रवासी होने के साथ-साथ वे भ्रमणशील भी हैं। अतः उम्मीद किया जाना चाहिए कि उनके अनुभव का दायरा विस्तृत होगा। उनके इस पुनीत कार्य के लिए अपनी और आप सभी की ओर से बधाई देता हूँ।

डा० अनिता कपूर जी की कहानियाँ सीधी-सपाट भाषा में लिखी गयी हैं। शुरु-शुरु में यह सहजता शायद निराश करे,यह तो होता ही है,परन्तु अंत आते-आते हर कहानी हमारे सामने कोई न कोई प्रश्न खड़ा कर ही देती है। इसे उनकी विशेषता के रुप में लेना चाहिए और सम्पूर्ण समाज के हित में विस्तार देते हुए सोचना चाहिए। पहली ही कहानी ‘मानसिकता’ में सब कुछ स्वतः उजागर होता हुआ दिखता है,प्रश्न तो है और उत्तर हम सभी को खोजना है। वैसे ही अगली कहानी ‘मास्क’ के बारे में चिन्तन कीजिए। हमारे सम्बन्ध ऐसे क्यों हैं?क्यों कोई भाई ऐसा करता है?उसे तो सुख में,दुख में साथ रहना चाहिए था। ठीक ही तो लिखा गया है,कोरोना काल में रिश्तों के मास्क परत-दर-परत उतर गये हैं। अपनी कहानियों में डा० अनिता कपूर ने अपने अनुभूत या आसपास के समाज में घटित सत्य को उजागर किया है। ‘फाहा’ की सुनन्दा की पीड़ा,उनके साथ घटा हुआ सत्य विचलित करता है और यह संदेश देता है कि ईश्वर ने हमारे भीतर बहुत से गुण और कलायें भर रखी हैं जो हमारे जीवन का आधार हो सकती हैं,वरना रिश्ते-नाते तो स्वार्थ में दुखी ही  करते हैं। ‘अमिया’कहानी में भी सम्बन्धों को लेकर वही निराशा की भावनाएं हैं जबकि बाहर समृद्धि है और सुख के सभी साधन हैं। ‘बेटी’ कहानी भी रिश्तों पर प्रश्न उठाती है। धन और सम्पत्ति के आगे लोग अंधे हो जाते हैं,जिम्मेदारियाँ और नैतिकता को तिलांजलि दे देते हैं। अपनों के बजाय पराये मदद करते हैं।

रिश्तों को लेकर दुनिया में बहुत लिखा गया है। रिश्ते दुखी भी करते हैं और सुख भी देते हैं। महत्वपूर्ण है कि हमारे हिस्से में क्या आया है और हम अपने सम्बन्धों के साथ कैसे तालमेल बिठाते हैं? ‘विसर्जन’ अकेलेपन से जूझते वृद्ध  की कहानी है। कम शब्दों में पूरी व्यथा उभर आयी है। कहानी में अकेले से जूझने का समाधान बताया गया है। बेहतर तो यही है कि हमसे जो बन पड़े,हम अपनी सक्रियता बढ़ाएं और प्रसन्न रहने की कोशिश करें। ‘गर्व’ किंचित भटकाव के साथ उभरती कहानी है। उद्देश्य और कथानक सार्थक है और सम्प्रेषण यानी बातचीत करके स्थिति स्पष्ट की गयी है जिसका अच्छा प्रभाव पड़ा है। ‘आइनों के जाले’ दुखद कहानी है। पाश्चात्य देशों में रह रहे ऐसे बेटों पर प्रश्न उठाती कहानी है जो अपनी मां को बेसहारा छोड़ देते हैं। आशा जी स्वयं को सक्रिय करती हैं,कहती हैं,” अब मैं अपने जैसे आईनों को देखती हूँ तो तुरत उसके जाले हटाने में जुट जाती हूँ। ‘ग्रहण’ कहानी में स्वार्थ और बेईमानी है। डा० अनिता जी को ऐसे लोग ज्यादा मिले हैं जो इस हद तक गिरते हैं और रिश्तों की मर्यादा तोड़ते हैं। ‘गरीबी का इलाज’ की स्थिति स्वतः स्पष्ट है। दो देशों के बीच आने-जाने के नियम होते हैं। अबैध तरीके से बार्डर पार करते हुए पति मारा जाता है। मारिया अमेरिका में रह रही है और जीविका के लिए साफ-सफाई का काम करती है। प्रश्न सोचने पर विवश करता है,पता नहीं यह अमेरिका का आकर्षण है या अपने को खो कर गरीबी का इलाज?

‘गंगा-जल’ बहुत ही मार्मिक भाव-दशा का चित्रण करती कहानी है। अपने अंतिम क्रिया-कर्म के लिए बीमा ले लेने के बाद गुप्ता जी को लगा-इस वृद्धाश्रम और अपनों के बीच ठहरे पानी पर जमी काई से जो दुर्गन्ध आने लगी थी, वो अब गंगा-जल हो गयी है। ‘पेट की सरहद’ थोड़े अलग तरह की मानसिकता बयान करती कहानी है। नासिरा पाकिस्तान से आयी मिठाइयाँ परोसकर कहती है,”अरे जमीनी सरहदें तो सियासी हैं पर पेट की नहीं।” असुरक्षा की भावना से ग्रसित सोनी की कहानी ‘असुरक्षा’ व्यथित करती है। सोनी ऐसा कैसे कर सकती है? दोस्ती के नाम पर ऐसा शोषण? कहानी का संदेश यह भी है कि किसी के लिए चिन्ता करते समय वस्तु-स्थिति की पूरी जानकारी ले लेनी चाहिए। ‘इतिहास’ कहानी में व्यक्त हुई पीड़ा किसी मां को न झेलना पड़े। मां जाते हुए पुत्र को व्यथित हो देखते हुए कहती है,”बेटा! इतिहास कभी न कभी अपने आप को दोहराता जरूर है। तुम्हारी पत्नी भी तो कभी सास बनेगी। तुम भी तो कभी बूढ़े होगे एक दिन।” अगली कहानी ‘एक बेटी यह भी’ में बेटी के द्वारा दुत्कारे जाने पर मां दुखी होकर बुदबुदाती है,”बच्चों! इतिहास खुद को अवश्य दोहराता है—तुम देखना एक दिन।”

हमारे समाज में लड़का-लड़की की मानसिकता भरी हुई है। अजय को लड़का चाहिए और पत्नी रुचि को लड़की। रुचि कारण बताती है,”मैं नहीं चाहती,मेरा बेटा बड़ा होकर मुझे भुला दे जैसे तुमने अपनी मां के साथ किया है।” अजय सम्हलता है और मां को लाने चल पड़ता है। ‘सही तस्वीर’ अच्छी कहानी है। ‘हैलो 911′ की तत्परता और व्यवस्था देख कहानीकार के मन में आता है,हे ईश्वर! बुजुर्गो के दुख व अकेलेपन का अहसास कराने वाली ऐसी ही कोई अलर्ट चीप उनके बच्चों के हृदय से जुड़ा हो।” अकेलेपन के अहसास को जीना कठिन है।’दिस इस अमेरिका’ की मार्मिकता प्रभावित करती है। जार्ज ने कहा,”आपके अकेलेपन से मेरी निःशब्द दोस्ती हो गयी है। आप वापस अपने देश लौट जाओ।” एक दिन नीना ने देखा,जार्ज के घर के सामने भीड़ लगी है और उन्हें वैन में रखा जा रहा है। नीना घबरा कर बैठ गयी। उसे जार्ज के बंद दरवाजे पर पसरे सन्नाटे ने भविष्य का आईना दिखा दिया। ‘सेवा’ ऐसी ही मार्मिक कहानी है। बेटा मां-बाप को छोड़ दिया है। दोनों गुरु द्वारे में सेवा करके जी रहे हैं। अमेरिका में बच्चे भी वही खेल खेलते हैं जो अपने आसपास घटित होते देखते हैं। बच्चों का बंटवारा हो जाता है। स्वीटी कहती है,’इस सप्ताह मैं पापा के घर रहने जा रही हूँ, अगले संडे मम्मी के पास वापस आऊँगी।’

‘आई लव यू’ में व्यक्त भाव गहरी पीड़ा का संकेत दे रहे हैं। लाॅकडाउन के दौर में पहले वाली बातें नहीं रहीं। आज ऐसे तैयार हो रहे हैं जैसे कोई दुल्हा। एक तरह से यहाँ व्यंग्य भाव भी है। ‘बुजुर्ग’ कहानी की अलग समस्या है। बच्चा बीमार है। मां-बाप दोनों नौकरी करते हैं। भारत से किसी बुजुर्ग को बुलाने की योजना बनी है। मीना एलान करती है कि उसकी मां आ रही है। सुरेश को अपनी मां की याद आती है जो किसी वृद्धाश्रम में है। वह बुदबुदाता है,”भगवान! मेरी बीबी सास तो बने पर बेटा मेरे जैसा न बने।” कहानी ‘उतरन’  में सुखी,सम्पन्न सी दिखने वाली लड़की के कारनामे निराले हैं। उसने अपने सामान्य पति को छोड़ा और दीदी के पति से शादी कर ली, दीदी का सम्बन्ध-विच्छेद करवा दिया। आज उसकी दीदी शहर की मेयर है और वह किसी की उतरन पर खुश है। ‘प्रतिक्रिया’ में बेटे के छोड़ जाने की पीड़ा सहेजे सरिता अपने पुत्र अनिल के पुत्र होने के समाचार से खुश नहीं होती,कहती है,”बेटी होती तो अच्छा होता।” उसका मानना है कि बेटियाँ मां की होती हैं और बेटे पराया धन होते हैं।

‘ईश्वर का डबल प्रेम’ रचना अनिता कपूर जी की आत्म-लघुकथा है। इस पर अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है,जैसा है,स्वीकार कर लेना है। उनके अपने द्वन्द्व-अन्तर्द्वन्द्व हैं,अपनी खोज है और जरूरी भी है। ‘सोने की मुर्गी’ अच्छी व्यंग्य रचना है। जिस खोज में पंडित जी हैं,संजीव बाबू अधिक ही तेज निकले। सम्बन्धों की आड़ में ऐसा ही होता है। ‘चाबी का गुच्छा’ कहानी किसी अश्लील संस्कृति की ओर संकेत करती है। मेघा को पीड़ा है कि उसे उसके पति ने ही ढकेला है। एक महिला के मुँह से अमर्यादित बात सुनकर दुखी होती है।’मेहँदी’ कहानी में सोनिया के प्रश्न ने कि आप विधवा जैसी दिखती नहीं हैं,मिसेज शर्मा को शून्य कर दिया। डा० अनिता कपूर लिखती हैं,”मैं समझ नहीं पाई कि ऐसी स्वार्थी सोच रखने वाली मुखौटा पहने हुए कुछ महिलाएं नारी शक्ति और स्त्री-विमर्श की बातें कर दोगली जिन्दगी कैसे जी लेती हैं। ‘तीसरी पारी’ में पुत्र के शब्द नीरा के मन को बेध रहे हैं। पति के गुजर जाने के बाद उसने सब कुछ किया और आज शादी होते ही पुत्र के शब्दों ने तिराहे पर ला खड़ा कर दिया है। उसे जिन्दगी की तीसरी पारी अकेले ही खेलने के लिए मजबूर कर दिया गया है। नीरा नकारात्मक बातों को परे करती है क्योंकि उसे अपनी उम्मीद को जिंदा रखना है।’आराम’ संग्रह की अंतिम कहानी है। सीमा मुम्बई की अपनी बालकनी में खड़ी है।   सामने की जमीन में मकान खड़े हैं जहाँ पाँच वर्षों पहले मजदूरों की झोपड़ियाँ थीं। वह रज्जो से पूछती है। उसका उत्तर है,”मैडम जी! हम मजदूर ही तो हैं। आप लोगों को मकान बनाकर दे दिये और खुद बेघर होकर किसी और का घर बनाने चल दिये।

शीर्षक ‘धूप की मछलियाँ’ रचनाकार की भीतरी तड़प को दर्शाता है। मछलियों का पानी से बाहर जीवित रहना संभव नहीं है,शीघ्र ही उनका प्राणान्त हो जाता है। वैसे ही अपनों के सम्बन्धों से बाहर किसी का भी जीवन सहज नहीं रह जाता। डा० अनिता कपूर का अनुभव हर रचना में बयान हुआ है। उन्होंने अपने आसपास की दुनिया को गहराई से देखा और अनुभव किया है। विदेशों में जा बसे लोगों का अपनी सभ्यता-संस्कृति से लगाव नहीं रह जाता क्या? क्या वे भारतीय संस्कार भूल जाते हैं? क्या सचमुच वे स्वार्थी, निष्ठुर और मां-बाप के प्रति उदासीन हो जाते हैं? यदि ऐसा है तो कहीं न कहीं उनके संस्कार और पालन-पोषण पर प्रश्न खड़े होते हैं। निश्चित ही,ऐसे कुछ ही लोग होंगे,सब के सब ऐसा नहीं करेंगे। एक भी व्यक्ति को ऐसा नहीं होना चाहिए,चाहे देश में हो या विदेश में। ऐसा भी संभव है,संयोग बस डा० अनिता कपूर जी को ऐसे ही लोगों से मिलना हुआ हो। उनकी कहानियाँ अनुभवों पर आधारित हैं,इसलिए कथ्य-कथानक प्रभावित करते हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं। भाषा-शैली अनुकूल है,परन्तु कहीं-कहीं मानो जल्दबाजी में प्रवाह टूटता सा दिखता है। उन्हें अपनी कहानियों पर कुछ और श्रम करना चाहिए। पाठक को उनके मन्तव्य या निहितार्थ को समझने में जोर लगाना पड़ता है। कुछ समस्या प्रकाशन के चलते भी है। भाव-संवेदनाएं खूब अभिव्यक्त हुई हैं। कहीं-कहीं व्यंगात्मक भाव भी उभरे हैं। अंग्रेजी शब्दों का बहुतायत प्रयोग हुआ है। लम्बे समय तक विदेश में रहने से ऐसा हुआ होगा। रिश्तों की पड़ताल हर रचना में हुई है,यह शायद उनकी मूल अनुभूति और चिन्तन है। निश्चित ही पाठक उनके अनुभवों से सीखेंगे और जीवन के ऐसे विचलनों से बचेंगे।

समीक्षक – श्री विजय कुमार तिवारी 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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