हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 93 – गीत – गीतों का यह गुलाब जल ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – गीतों का यह गुलाब जल…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 93 – गीत – गीतों का यह गुलाब जल✍

लो !यह

गीतों का गुलाब जल को अपने मन पर।

 

वैसे तुम खुशबू की बेटी रूपगंध  से भरा खजाना

पर कस्तूरी पास रखी है ब्राह्मण ने यह कभी न जाना।

 

तुम्हें बताऊँ तुममें क्या है, सुधा सिंधु जियो नील गगन पर।

 

तुम्हें कौन सा संबोधन हूं वह मेरी साधों की सीता

चंद्रप्रिया कह तुम्हें पुकारूँ

गायत्री गीतों की गीता

 

अनगिन चित्र उभरते रहते,  कभी नजर डालो मन घन पर।

 

तुम्हें देख संकोच सिहरता संयम, नियम बना लेता है

मेरे जैसा सन्यासी भी

गीत रूप के गा देता है

 

आखिर ऐसा क्यों होता है,

कभी नजर डालो जीवन पर।

 

लो ! यह

गीतों का गुलाब जल छिड़को अपने मन पर।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 95 – “गतिशील हो गई हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “गतिशील हो गई हैं…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 95 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “गतिशील हो गई हैं”|| ☆

परी बनी ,हरी-हरी

सी पहिन साडियाँ

सिल्की दिखा किये हैं

सुबह की पहाडियाँ

 

हौले से तह किये

लगीं जैसे दुकान में

ठहरी प्रसन्नता हो ।

खुद के मकान में

 

चिडियों की चहचहाहटों

के खुल गये स्कूल

 पेड़ों के साथ पढ ने

आ जुटीं झाडियाँ

 

धुँधला सब दिख रहा है

यहाँ अंतरिक्ष में

खामोश चेतना जगी है वृक्ष-वृक्ष  में

 

जैसे बुजुर्ग, बादलों

के झूमते दिखें

लेकर गगन में श्वेत-

श्याम बैल गाडियाँ

 

गतिशील हो गई हैं

मौसम की शिरायें

बहती हैं धमनियों में

ज्यों खून सी हवायें

 

या कोई वैद्य आले

को  लगा देखता

कितनी क्या ठीक चल

रहीं , सब की नाडियाँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 86 ☆ # फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 86 ☆

☆ # फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार # ☆ 

पापा कैसे होंगे सोच रही हूँ

अपने खयालों में खोज रही हूँ

सीने से लगाके रख्खा था आपने

आप हो सागर,

मै बनके लहर रोज रही हूँ

 

वो ‘स्लेट ‘ पर मुझको बारहखड़ी लिखाना

वो उंगली में चाक लेकर सिखाना

जहां चूक हुई उसको दिखाना

फिर से वही शब्द दुबारा लिखाना

 

वो ‘मोटी’ का हम पर गुर्आना

वो ‘डोडो’ का चालाकी से इतराना

वो ‘टिंकू’ का लड़ना, हम सबको लड़वाना

आपका मुझे गोद में लेकर,

सबको समझाना

 

स्कूल से आकर, कुछ भी खाकर

‘डोडो’ और मै सो जाते थे

‘बड़ी ताई’ और टिंकू

चुगली लगाते थे

मम्मी जब हम पर चिल्लाती थी

बच्चें है कहकर मम्मी से बचाते थे

 

स्कूल, कालेज में

मनमर्जी से पढ़ने दिया

अपने कॅरीयर को

मर्जी से चुनने दिया

राह की बाधाओं से

स्वयं को लड़ने दिया

जीवन में आत्मनिर्भर

बनने दिया

 

आपका हमारे सर पर वरदहस्त है

सुख सुविधाएं सब मस्त है

खुशियां ही खुशियां है जीवन में

अपने संसार में सब व्यस्त है

 

आज फादर्स डे पर

आपकी याद आई है

संग संग पुरानी यादें लाई है

आपसे कितनी दूर हूँ

इसलिए आंखें भर आईं हैं

 

पापा, आप सदा मुस्कुराते रहें

गीत लिखकर गाते रहें

दुःख छुये ना आपका दामन

अपनी कविताओं से

सबको लुभाते रहें  /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 97 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 97 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 97) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 97 ?

 ☆

☆ Silent Conversation ☆

वो खामोशी जो गुफ्तगू के
बीच ठहरी थी,
वही इक बात तमाम गुफ्तगू में
सब से गहरी थी…!

The silence that appeared in
the middle of talks…,
That was the deepest thing in
the whole of conversation…!


☆ Soulful Poetry ☆

महक उठते हैं मेरे लफ्ज भी
तुम्हें ख्वाबों में सोचकर,
दिल के एहसासों में डूबी हुई
एक बेहतरीन नज़्म हो तुम…!

My words too become fragrant,
thinking of you in the dreams…
You’re nothing but a soulful poetry,
dipped in the feelings of heart…!

☆ Enforced relationship ☆

ज़बरदस्ती से बनाये रिश्ते
ज़्यादा दिन टिका नहीं करते
जब तक दिल ना मिलें
रिश्तों का वजूद ही क्या…


Enforced relationship shall
never ever last very long…
Unless the hearts meet, its
survival remains questionable

☆ Death ☆

कहने को तो मौत यूँही
इतनी बदनाम है, साहब
कुछ जिंदा लोग भी जिंदगी
में कभी लौटकर नहीं आते…!

Death is needlessly infamous
just like that, so to say…
Even some living people never
come back again in the life…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 97 ☆ गीत…रंग जा हरि के रंग… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित गीत…रंग जा हरि के रंग… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 97 ☆ 

☆ गीत…रंग जा हरि के रंग… ☆

सोते-सोते उमर गँवाई

खुलीं न अब तक आँखें

आँख मूँदने के दिन आए

काम न दें अब पाँखें

 

कोई सुनैना तनिक न ताके

अब जग बगलें झाँके

फना हो गए वे दिन यारों

जब हम भी थे बाँके

 

व्यथा कथा कुछ कही न जाए

मन की मन धर मौन

हँसी उड़ाएगा जग सारा

आँसू पोछे कौन?

 

तन की बाखर रही न बस में  

ढाई आखर भाग

मन की नागर खाए न कसमें

बिसर कबीरा-फाग

 

चलो समेटो बोरा-बिस्तर

रहे न छाया संग

हारे को हरिनाम सुमिरकर

रंग जा हरि के रंग

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #128 ☆ गीता तत्वबोध ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 129 ☆

☆ ‌कविता – गीता तत्वबोध  ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

निर्मल चित्त हो प्रेम से,

जो गीता का करता पाठ ।

वह मानव भय शोक रहित हो,

कृष्ण धाम में करता वास ।

 

नित्य निरंतर सदा प्रेम से,

जो गीता को पढ़ता है।

होते नष्ट पाप सब उसके,

मिटते  हैं जीवन संताप।

 

जो करते जल से स्नान,

उनके तन मल होता साफ।

 पर ज्ञान रूप गीता के जल से,

होता है मन का मल साफ।

 

जो कृष्णा के मुख से हुई प्रकट,

केवल उस गीता का पाठ करो।

अन्य देव से क्या मतलब है,

यदुनंदन का ध्यान धरो।

 

महाभारत का मूल तत्व ,

जो मोहन मुख से प्रकट हुआ।

जिसने उसका श्रवण किया,

वह आत्मज्ञान से युक्त हुआ।

 

सारी उपनिषदें गौ समान है,

मनमोहन है दुहने वाला ।

अर्जुन उसका बछड़ा है,

जो पीता है नित सत् का प्याला।

 

यह गीता है सर्वोत्तम है,

यह यदुनंदन की वाणी है।

सब देवों में कृष्ण श्रेष्ठ है,

उनकी अमिट कहानी है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। आओ मिल कर दुनिया की कहानी नई लिखते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना आओ मिल कर दुनिया की कहानी नई लिखते हैं।)

☆ मुक्तक – ।। आओ मिल कर दुनिया की कहानी नई लिखते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

आओ मिल कर कहानी , नई लिखते हैं।

जीवन रंग ढंग रवानी, नई लिखते हैं।।

सबके लिए सरोकार, की बात हैं करते।

जीने का सलीका जिंदगानी, नई लिखते हैं।।

[2]

बात मेहरबानी की हर, किसी के लिए हो।

कम परेशानी हर, किसी के लिए हो।।

अधिकार और कर्तव्यं , का मेल हो खूब।

दुनिया दीवानी सी हर, किसी के लिए हो।।

[3]

कड़ी से कड़ी जोड़ कर, जंजीर बनाते हैं।

मेहनत से मिल कर ,चलो तक़दीर बनाते हैं।।

कण कण में जहाँ पर, प्रेम हो बिखरा हुआ।

दुनिया की ऐसी कोई ,नई तस्वीर बनाते हैं।।

[4]

हमदर्द हमसाया कोई ,समाज नया रचते हैं।

हमराह सा अब रिवाज़, कोई नया रचते हैं।।

प्यार की हर रीत ,प्रेम की प्रथा हो जहाँ पर।

हमदम मेरे दोस्त का,कोई साज़ नया रचते हैं।।

[5]

स्नेह प्रेम प्यार के हम सब, बनते चित्रकार हैं।

दोस्ती और दुआ के बनते, हम दस्तकार हैं।।

महाभारत पांसे नहीं, लाते रमायण के आदर्श।

स्वर्ग सरीखी दुनिया के, बनते अब शिल्पकार हैं।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 86 ☆ गजल – ’’हिलमिल रहो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “हिलमिल रहो …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 86 ☆ गजल – हिलमिल रहो …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

परचम लिये मजहब का जो गरमाये हुये हैं

आवाज लगा लड़ने को जो आये हुये हैं।

उनको समझ नहीं है कि मजहब है किस लिये

कम अक्ल हैं बेवजह तमतमाये हुये हैं।

नफरत से सुलझती नहीं पेचीदगी कोई

यों किसलिये लड़ने को सर उठाये हुये हैं।

मजहब तो हर इन्सान की खुशियों के लिये हैं

ना समझी में अपनों को क्यों भटकाये हुये हैं।

औरों की भी अपनी नजर अपने खयाल हैं

क्यों तंगदिल ओछी नजर अपनाये हुये हैं।

दुनियां बहुत बड़ी है औ’ ऊँचा है आसमान

नजरें जमीन पै ही क्यों गड़ाये हुये है।

फूलों के रंग रूप औ’ खुशबू अलग है पर

हर बाग की रौनक पै सब भरमाये हुये हैं।

मजहब सभी सिखाते है बस एक ही रास्ता

हिल-मिल रहो, दो दिनों को सभी आये हुये हैं।

कुदरत भी यही कहती है-दुख को सुनो-समझो

जीने का हक खुदा से सभी पाये हुये हैं।

इन्सान वो इन्सान का जो तरफदार हो

इन्सानियत पै जुल्म यों क्यों ढाये हुये हैं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #136 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 136 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

पाती तेरी मिल गई, लिया प्रभु का नाम।

संदेशा आया सुखद, हुई निराली शाम।।

सुनती है सखियां सभी, क्या लिखते हैं श्याम।

रोम रोम पुलकित हुआ, केवल मेरा नाम।।

शब्द पाती के पढ़कर, नहीं चैन आराम।

मिलना होगा कब प्रिये, आओगे कब धाम।

पाती तुमको लिख रही, लिखती  हूं अविराम।

शब्द शब्द में है रचा, बस तेरा ही नाम।।

नेह निमंत्रण दे रहे, इसे करो स्वीकार।

आपस के संबंध में, नहीं जीत या हार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #125 ☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “बुन्देली पूर्णिका… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 125 ☆

☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

एक नओ भुनसारो हो रओ

घर-घर में बंटवारों  हो रओ

 

जब सें आई  नई दुल्हनिया

बेटा  घर सें  न्यारो हो  रओ

 

नई  पीढ़ी  के  मोड़ा-मोड़ी

अपनों सँग नबारो हो रओ

 

जाने कौन मुरहु सें फँस खें

अपनो पूत गंवारों हो  रओ

 

कबहुँ सुनें ने घर  की  भैया

पी खें वो  आबारो  हो रओ

 

को समझावे उन खों अब तो

जैसे   भूसा   चारो   हो  रओ

 

हमखों अब “संतोष” ने आबे

मों करतूतों से कारो हो रओ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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