हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में लोकोत्तियां – भाग – 1॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में लोकोत्तियां – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

बालकाण्ड

सठ सुधरहिं सत्संगति पाई-पारस परसु कुधातु सुहाई।

गुन अवगुन जानत सब कोई-जौ जेहिं भाव नीक तेहि सोई।

होइहिं सोई जौ राम रुचि राखा-को करि तर्क बढ़ावै साखा।

नहिं कोउ अस उपजा जग माहीं-प्रभुता पाई जाहिं मद नाहीं।

जहां विरोध माने कहुं कोई, तहां गये कल्याण न होई।

समरथ को नहिं दोष गुँसाईं-रवि पावक सुरसरि की नाँई।

परहित लागि तजई जो दैही-संतत संत प्रशंसहि तेही।

बांझ कि जान प्रसव की पीरा।

पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता, कहहिं सुनहिं बहुविधि सब संता।

जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरति देखी तिन्ह तैसी।

जेहि के जा पर सत्य सनैहू, सौ तेहि मिलई न कछु संदेहु।

का वर्षा जब कृषि सुखानै, समय चूकि पुनि का पछिताने।

मन मलीन तन सुन्दर कैसे, विष रस भरा कनक घट जैसे।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – अंतर्प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – अंतर्प्रवाह  ??

हलाहल निरखता हूँ

अचर हो जाता हूँ,

अमृत देखता हूँ

प्रवाह बन जाता हूँ,

जगत में विचरती देह

देह की असीम अभीप्सा,

जीवन-मरण, भय-मोह से

मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,

दृश्य और अदृश्य का

विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,

स्थूल और सूक्ष्म के बीच

सोचता हूँ मैं कहाँ हूँ..!

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 3: 33, 23.3.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #138 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 138 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … 

व्याकुल है पंछी सभी,नहीं बुझ रही प्यास।

गरमी इतनी बढ़ रही,बस पानी की आस।।

 

प्यासी धरा पुकारती, कब बरसोगे श्याम।

अब तो सुनो पुकार तुम ,मिले चैन आराम।।

 

प्रेम प्यार की पड़ रही,कैसी गजब फुहार।

मिलना है तुमको अभी,आई प्रीति बहार।।

 

तपी जेठ की धूप में,लगा धरा को घात।

बूँद-बूँद छिड़काव से,ठंडक होता गात।।

 

मन खुशी से झूम रहा,झड़ी लगी है खूब।

थिरक रही है आज धरा,हरी हो रही दूब।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #127 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 127 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नशा कभी मत कीजिये, यह अवगुण की खान

बुरा असर परिवार पर, गिरे मान सम्मान

 

लाभ न होता है कभी, धन जाता बेकार

रोष बढ़ाता है यही, जबरन कर तकरार

 

दारू गुटखा, पान अरु, पीते खूब शराब

हासिल कुछ होता नहीं, जीवन करे खराब

 

नव युवक हैं गिरफ्त में, बुरा नशे का जाल

गांजा, हीरोइन, चरस, करे अफीम कमाल

 

मद से ग्रसित न हों कभी, करता सबसे दूर

पद,दौलत सत्ता सभी, मद में करते चूर

 

मन कुंठित तन खोखला, लगें अनेकों रोग

बदले नजर समाज की, समझें सारे लोग

 

घर में बढ़ती है कलह, छोड़ नशे की राह

खुशहाली आये तभी, यही सभी की चाह

 

नशा मौत सम समझिए, होता जहर समान

बिक जाते घर-द्वार भी, धन-दौलत सम्मान

 

हरता बुद्धि विवेक भी, करता यह कमजोर

कुछ नशेड़ी स्वयं ही, घर में बनते चोर

 

दूर रहें सब नारियाँ, नशा पाप का मूल

देता है अपमान, दुख, सोना करता धूल

 

कला और साहित्य का, खूब करें विस्तार

तन-मन हो संगीतमय, झंकृत मन के तार

 

ध्यान-योग निश दिन करें, गर चाहें “संतोष”

बचकर रहें प्रमत्त से, यह जीवन का कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 169 ☆ आभास दायिनी है बिजली !☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  – आभास दायिनी है बिजली !।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 169 ☆  

? कविता  – आभास दायिनी है बिजली ! ?

शक्ति स्वरूपा, चपल चंचला, दीप्ति स्वामिनी है बिजली ,

निराकार पर सर्व व्याप्त है, आभास दायिनी है बिजली !

 

मेघ प्रिया की गगन गर्जना, क्षितिज छोर से नभ तक है,

वर्षा ॠतु में प्रबल प्रकाशित, तड़ित प्रवाहिनी है बिजली !

 

क्षण भर में ही कर उजियारा, अंधकार को विगलित करती ,

हर पल बनती, तिल तिल जलती, तीव्र गामिनी है बिजली !

 

कभी उजाला, कभी ताप तो, कभी मशीनों का ईंधन बन जाती है,

रूप बदल, सेवा में तत्पर, हर पल हाजिर है बिजली !

 

सावधान ! चोरी से इसकी, छूने से भी, दुर्घटना घट सकती है ,

मितव्ययिता से सदुपयोग हो, माँग अधिक, कम है बिजली !

 

गिरे अगर दिल पर दामिनि तो, सचमुच, बचना मुश्किल है,

प्रिये हमारी ! हम घायल हैं, कातिल हो तुम, अदा तुम्हारी है बिजली !

 

सर्वधर्म समभाव सिखाये, छुआछूत से परे तार से, घर घर जोड़े ,

एक देश है ज्यों शरीर और, तार नसों से , रक्त वाहिनी है बिजली !!

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 116 ☆ किशोर गीत – वैकुंठ शुक्ला बलिदानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 116 ☆

☆ किशोर गीत – वैकुंठ शुक्ला बलिदानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भारत माँ के बेटे की तुम

सुन लो अमर कहानी।

बैकुंठ शुक्ला नाम उनका

वीर हुए बलिदानी।।

 

त्याग नौकरी शिक्षक की वह

कूद पड़े आजादी को।

सिर पर बाँध कफन मुस्काए

हुए समर्पित खादी को।

 

वैशाली में जन्म हुआ था

देशभक्त स्वाभिमानी।।

 

सविनय अवज्ञा आंदोलन में

भाग लिया बढ़ – चढ़ करके।

चंद्रशेखर से हुए प्रभावित

संघर्ष किया था डट के।।

 

अंग्रेजों को खूब छकाया

सच्चे हिंदुस्तानी।।

 

योगेंद्र शुक्ल उनके चाचा

थे सुभाष के सहपाठी।

 हष्ट – पुष्ट थे अति फुर्तीले,

थी बलशाली कदकाठी।।

 

जीवन किया समर्पित माँ को,

झोंकी पूर्ण जवानी।।

 

धर्मपत्नी राधिका जी भी

बनीं साथ में पथगामी।

कठिन पथों से जब वह गुजरे

रहीं रात-दिन अनुगामी।।

 

चौदह मई फाँसी पर झूले

साक्ष्य ‘गया’ निशानी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#138 ☆ तन्मय दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे… ”)

☆  तन्मय साहित्य # 138 ☆

☆ तन्मय दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

लगा रहे हैं कहकहे, कर के वे दातौन।

दंतहीन बापू खड़े, सकुचाहट में मौन।।

 

मोहपाश में है घिरा , अर्जुन सा जनतंत्र।

कौरव दल के  बढ़ रहे, मायावी षडयंत्र।।

 

बदल रही हैं बोलियां, बदल रहे हैं ढंग।

बौराये से सब लगें, ज्यों  खाएँ हो भंग।।

 

ठहर गई है  जिंदगी, नहीं  पक्ष में वोट।

रुके पाँव उम्मीद के, अपनों से ही चोट।।

 

भूल  गए  सरकार जी, आना  मेरे  गाँव।

छीन ले गए साथ में, मेल-जोल की छाँव।।

 

शकुनि – से   पाँसे  चले,  ये  सरकारी  लोग।

तब-तक खुश होते नहीं, जब-तक चढ़े न भोग।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 39 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 39 – मनोज के दोहे

ताल हुए बेताल अब, नीर गया है सूख।

सूरज की गर्मी विकट, उजड़ रहे हैं रूख।।

 

नदी हुई अब बावली, पकड़ी सकरी राह।

सूना तट यह देखता, जीवन की फिर चाह।।

 

पोखर दिखते घाव से, तड़प रहे हैं जीव।

उपचारों के नाम से, खड़ी कर रहे नीव।।

 

झील हुई ओझल अभी, नाव सो रही रेत।

तरबूजे सब्जी उगीं, झील हो गई  खेत।।

 

हरियाली गुम हो रही, सूरज करता दाह।

प्यासे झरने हैं खड़े, दर्शक भूले राह।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 94 – गीत – ओ शीशे की राजकुमारी ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – ओ शीशे की राजकुमारी…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 94 – गीत – ओ शीशे की राजकुमारी✍

बिखर बिखर कर गिरो नहीं तो

तुमको हाथ लगा देखूँ

पावन नदी कंठ तक आई

अपनी प्यास जगा देखूँ।

 

ऐसी देह दमकती जैसे

कोई निर्मल दरपन  हो

ऐसी ठंडी आग कि जिसमें

 जलता मन भी चंदन हो ।

 

ओ शीशे की राजकुमारी ,छूकर देखूँ देह तुम्हारी

 

देह धर्म का दरवाजा है

ऐसा लोग कहा करते

संयम की साँकल में बँधकर

कितने लोग रहा करते?

 

एक सुद्र माटी का पुतला

कब तक नेम निभाएगा

बाँहो के राहों में बोलो

रथ रूपम कब आएगा।

 

ओ फूलों की राजकुमारी, छूकर देखूँ देह तुम्हारी

ओ यादों  की राजकुमारी, छूकर देखूँ देह तुम्हारी।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 96 – “कहाँ रहेगी माँ, यह भय है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कहाँ रहेगी माँ, यह भय है…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 96 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कहाँ रहेगी माँ, यह भय है”|| ☆

जितने बेटे, उतने कमरे

कहाँ रहेगी माँ, यह भय है

बेशक यह बूढ़ी अम्मा का

सुविधा वंचित कठिन समय है

 

माता जो निश्चेष्ट बैठकर

देख रही सारी गतिविधियाँ

क्या ग्यारस, रविवार काटने

दौड़ा करते वासर-तिथियाँ

 

जिन बहुओं के होने का वह

गर्व सदा करती आयी

उनकी घनाक्षरी के आगे

चकित अचंभे में छप्पय है

 

सुबह नाश्ता दोपहरी  हो

या फिर संध्या की ब्यालू

क्रम से बँटी तीन बेटों में

पर माँके हिस्से आलू-

 

की चीजें उस मधुमेही को

मिलती रहती हैं प्रतिदिन

जान सकी है पति न रहनेकी

विपदा का क्या आशय है

 

तीनों बहुयें स्वांग किया

करती हैं लोगों के आगे-

” अम्मा जैसी सासू माँ

से भाग हमारे हैं जागे “

 

कोई अगर न देखे तो मुँह

फेर चली जाया करतीं

मगर लोग भी जान गये थे

उनका यह नकली अभिनय है .

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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