हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 80 ⇒ सत्यवादी हरिश्चंद्र… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सत्यवादी हरिश्चंद्र।)  

? अभी अभी # 80 ⇒ सत्यवादी हरिश्चंद्र? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक तरफ कवि शैलेन्द्र कह गए हैं, सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है, और दूसरी ओर सच बोलने वाले की ईश्वर इतनी परीक्षा लेता है कि, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का राजपाट छीन, उसे कंगाल बना देता है। शायद इसीलिए हमारे घरों में सत्यवादी हरिश्चन्द्र की नहीं, सत्यनारायण की कथा होती है। जिसमें सिर्फ़ सत्य नारायण की कथा के प्रसाद का जिक्र है, सत्य और नारायण की कथा का, कहीं पता नहीं।

सच्चे का हमारे यहाँ कितना बोलबाला है, आप नहीं जानते! संविधान हो, या सुप्रीम कोर्ट, सत्यमेव जयते! फ़िल्म कैसी भी हो, टाइटल, सत्यं शिवम सुंदरम!

और तो और, लोगों तो सच का स्वाद भी पता है, कड़वा होता है। इसीलिए शास्त्रों में मीठा बोलने का कहा गया है। ।

सदा सच बोलने वाले को हमारे यहाँ सत्यवादी हरिश्चंद्र कहते हैं। जब कहीं कोई ईमानदार व्यक्ति किसी बेईमानी के काम में टाँग अड़ाता है, तो बरबस मुँह से निकल जाता है, बड़ा हरिश्चंद्र बना फिरता है। इसको सेट करना पड़ेगा। कितने लोगों को अपसेट कर पाते हैं, ये कथित हरिश्चंद्र, हम देख ही रहे हैं।

मुझे मालूम है घर घर में सत्यनारायण की कथा ही होगी, सत्यवादी हरिश्चंद्र की नहीं, आखिर क्यों ? एक धर्मराज युधिष्ठिर हुए हैं, उन्हें भी अश्वत्थामा की मृत्यु पर झूठ का सहारा लेना ही पड़ा। नरो वा, कुंजरो वा! अरे भले आदमी, जब छल-कपट नहीं जानते, तो शकुनि के साथ जुआ खेलने क्यों बैठ गए। किसी ने सच कहा है, सच बोलने वालों की मति मारी जाती है। अगर भरोसा न हो तो हरिश्चंद्र की कथा सुन भले ही लीजिए, घर में कभी न कराइये। ।

वह रामराज्य नहीं, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का राज था। उनके सच के डंके की आवाज़ स्वर्ग तक सुनी जा सकती थी। स्वर्ग में अक्सर इस धरती की बात चला करती है। एक थे राजा राम के गुरु वशिष्ठ और दूसरे ऋषि विश्वामित्र जो किसी के मित्र नहीं थे। राजा हरिश्चंद्र को लेकर दोनों में शर्त लग गई। शर्त बुरी चीज है, किसी का सत्यानाश करके ही छोड़ती है।

गुरु विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने की सोची! श्रीमान सत्यवादी के सपने में आए, और सारा राजपाट दान में माँग लिया। राजा की नींद खुल गई और देखते क्या हैं, सपना सच हो गया। विश्वामित्र सामने खड़े हैं। बोले, लाओ जो तुमने सपने में दान दिया है! और हमारे सत्यवादी हरिश्चंद्र ने सारा राजपाट, गुरु विश्वामित्र को दे दिया। ओ भाई मेरे, यह तो हुआ दान, दक्षिणा कहाँ है ? राजा ने नौकरों को आदेश दिया। विश्वामित्र ने कहा, ओ मिस्टर!

जब तुम्हारा राजपाट ही नहीं तो काहे के नौकर-चाकर। दक्षिणा देओ, और चलते बनो। हमारे सत्यवादी ने पत्नी और बच्चे को दक्षिणा में दे दिया और सड़क पर आ गए। ।

सच और भी कड़वा होता है।

एक बार सत्ता हाथ से गई, तो काहे की गुडविल! किसी धन्ना सेठ मुकेश का भला किया होता तो श्मशान में डोम की नौकरी तो नहीं करनी पड़ती। सत्यानाश किसे कहते हैं, देखिये! बालक मरा, तो भूतपूर्व रानी के पास पैसा नहीं, साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया, और ले चली श्मशान, जहाँ उनके स्वामी, भूतपूर्व राजा, अपनी पत्नी से, लाश के क्रिया कर्म के लिए पैसे माँग रहे थे।

रानी ने असहाय स्थिति में अपना पहना हुआ वस्त्र जब फाड़ा, तब जाकर, सच्चे का बोलबाला हुआ। दोनों ऋषि प्रकट हुए, प्रसन्न हुए। हमेशा की तरह देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की। धन्य है, राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र। न भूतो, न भविष्यति।

कथा की सीख! सत्य की, ज्यादा गहराई में न जाएँ। बोलो सत्यनारायण भगवान, सॉरी, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की जय।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #188 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 188 ☆

☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा 

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 79 ⇒ डिवाइडर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिवाइडर।)  

? अभी अभी # 79 ⇒ डिवाइडर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

पहाड़ों, जंगलों और आसपास बसे गांवों में सड़क नहीं होती, पगडंडियां होती हैं। लगातार एक ही जगह पर चलने से रास्ते पर पांव के निशान बनते चले जाते हैं। जब इन पगडंडियों पर आवाजाही बढ़ती चली जाती है तो वहां कच्ची सड़क का निर्माण हो जाता है। चौपायों और बैलगाड़ी की आमदरफ्त से आवागमन में इज़ाफा होने लगता है। ये ही कच्ची सड़कें शहर जाती पक्की सड़कों से मिल जाती हैं। गांव, जंगल, पहाड़ और शहर इन सड़कों के माध्यम से ही एक दूसरे से जुड़ पाते हैं। बारिश में पानी के बहाव से पगडंडियां और कच्ची सड़क किसी काम की नहीं रहती। आम भाषा में इन्हें फेयर वेदर रोड कहते हैं। ऐसी ही परिस्थिति में यह गीत गाया जाता है ;

नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं ….।

आज पूरे देश में सड़कों का जाल बिछा हुआ है। गांव गांव और बस्ती में पक्की सड़कों का निर्माण हो चुका है। बारिश के मौसम में पुलियाओं के बहने से अब रास्ते नहीं रुकते। नदियों के बहाव को बांध के जरिए रोककर बिजली और सिंचाई दोनों काज सिद्ध हो रहे हैं। लेकिन बारिश के मौसम में जब नदियां विकराल रूप धारण कर लेती हैं, तो फसलें बर्बाद हो जाती हैं, जनजीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। ।

बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी के कारण लोग गांव से शहर की ओर रुख करने लगते हैं। शहरों में रोजगार है, काम धंधे हैं, अच्छी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा है। शहरों की सड़कों का सीना चौड़ा हो रहा है, शहर की संस्कृति आसपास के गांवों को लील रही है।

शहर के अधिकाश मार्ग पहले एकांगी हुए, फुटपाथों पर अतिक्रमण हुआ, सड़कें सिकुड़ने लगीं। परिणामस्वरूप अतिक्रमण हटाए गए, सड़कें चौड़ी हुई और बीच में डिवाइडर पसर गए। पहले शहर में एक मुख्य मार्ग होता था और एक राजमार्ग ! विकास की एक अपनी ही कहानी है। अगर आवागमन को सुगम करना है, यातायात को नियंत्रित करना है तो सबसे पहले सड़क को दो भागों में बांटो। जो अंग्रेजों का डिवाइड एंड रूल था, वह सड़क का डिवाइडर बन गया। शहर के बाहर पहले रिंग रोड और बाद में उसके भी बाहर बायपास। ।

आज हर बड़ा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा है और हर शहरी एक आदर्श नागरिक। जब विकास आदर्श तरीके से होता है तो सबसे पहले अतिक्रमण पर गाज गिरती है। एक आदर्श नागरिक से अनुशासन की भी अपेक्षा की जाती है। बुलडोजर न केवल सड़कों को सिक्स लेन करने के लिए अतिक्रमण को हटाता है, उत्तेजित भीड़ को अनुशासित भी करता है।

डिवाइडर है जहां, बुलडोजर है वहां।

शहर से वापस गांव जाना आजकल पलायन कहलाता है। स्मार्ट सिटी के सड़कों के डिवाइडर क्या शहर और गांव के विभाजक सिद्ध नहीं हो रहे। क्या गरीब और अमीर के बीच की रेखा भी इंसानियत के विभाजन की रेखा नहीं। ।

सड़कों के बीच के डिवाइडर पर आजकल पौधारोपण होता है, शहर के सौंदर्यीकरण के प्रतीक हैं ये डिवाइडर। क्या हुआ जो सड़क के इस पार के लोगों की, उस पार के लोगों के बीच की दूरी बढ़ गई। किसी के लिए वह डिवाइडर है तो किसी के लिए दीवार। एक किलोमीटर चलकर इस पार से उस पार जाने के बजाय एक मजदूर, कामगार अथवा युवा अपनी जान पर खेलकर डिवाइडर फांदकर उस पार निकल जाता है।

क्या यह एक खतरनाक, दुस्साहस भरा, जानलेवा, अनुशासनहीनता का कृत्य नहीं।

खेत में नई फसल के लिए बीज बोने के पहले खरपतवार को साफ करना पड़ता है। विकास की राह भी संघर्ष और बलिदान की राह है। आपस में एक दूसरे को बांटने के बजाय हम अगर एक दूसरे के दुख दर्द बांटें, तो जीवन की डगर आसान हो। डिवाइडर हमारी राह आसान करे, लेकिन हमारे बीच के दिलों की दूरी तो कम ना करे। ।

पगडंडियों से सिक्स लेन के डिवाइडर तक का सफर, और जंगल से स्मार्ट सिटी के कांक्रीट जंगल तक की दूरी में कहीं मानवता और पर्यावरण पीछे ना छूट जाए, अमीर भले ही गरीब ना हो, लेकिन हर गरीब अमीर हो जाए, तो समझिए अच्छे दिन बस आए ही आए ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 218 ☆ आलेख – विश्वगुरू भारत… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखविश्वगुरू भारत

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 218 ☆  

? आलेख –विश्वगुरू भारत?

भारतीय सभ्यता आज विश्व की प्राचीनतम फल फूल रही जीवंत सभ्यताओ में से एक है. अपने श्रेष्ठ अतीत पर गौरव करना स्वाभाविक ही है. हमारी संस्कृति प्रामाणिक रूप से पांच हजार वर्षो से भी प्राचीन है. भारत ने सदैव सह अस्तित्व, वसुधैव कुटुम्बकम, नारी समानता, प्रकृति पूजा, ज्ञान पर सबका अधिकार, गुरु के सम्मान, कमजोर की मदद, शरणागत को अभय  जैसे सार्वभौमिक, सर्वकालिक, वैश्विक समन्वय के सिद्धांतो का समर्थन किया है.

  हमारे महर्षि आर्यभट्ट ने ही  दुनिया को सबसे पहले शून्य के उपयोग के बारे में समझाया था. इसके अलावा वेदों से हमें 10 खरब तक की संख्याओं के बारे में पता चलता है. सम्राट अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि हमें संख्याओं का ज्ञान बड़े प्राचीन समय से था. भास्कराचार्य की लीलाबती में लिखा हुआ है कि “जब किसी अंक में शून्य से भाग दिया जाता है तब उसका फलक्रम अनंत आता है. इस तरह प्रामाणिक रूप से गणितीय ज्ञान में हम अग्रणी हैं.

पौराणिक प्रमाण मिलते हैं कि शल्य चिकित्सा का जन्म भी भारत में ही हुआ. इस विज्ञान के अंतर्गत शरीर के अंगों की चीड-फाड़ की जाती है और उन्हें ठीक किया जाता है. शरीर को ठीक करने वाली इस विधि की शुरुआत सबसे पहले महर्षि सुश्रुत द्वारा की गई.

योग एक जीवन शैली है जिसकी शुरुआत भारत में ही हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा की गई थी. आज के दौर में विभिन्न मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्त संतुलित निरोगी जीवन  के लिए ध्यान ऐसा रास्ता है जिसे सारा विश्व अपना रहा है. प्रति वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस मनाये जाने को मान्यता मिलना विश्वगुरू भारत की परिकल्पना की यथार्थ में परिणिति की ओर एक कदम है.

ज्योतिष शास्त्र के रूप में दुनिया को भारत ने एक अनोखी भेंट दी है. ज्योतिष की गणनाओं से ही पता चला कि यह पृथ्वी गोल है और इसके घूमने से ही दिन रात होते हैं. आर्यभट तो सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण होने के कारण भी जानते थे. वेदों में इस अनंत ब्रम्हाण्ड का  वर्णन है और उड़न तश्तरी अर्थात UFO के बारे में भी वर्णन मिलता है.

संस्कृत भाषा को  विश्व की सबसे प्राचीन भाषा माना जाता है. दुनिया में बोली जाने वाली कई भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित हैं अथवा उन भाषाओं में संस्कृत के शब्द देखने को मिलते हैं. नासा ने भी संस्कृत को विज्ञान संमत भाषा प्रमाणित किया है. हमारे सारे पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं.

महात्मा गांधी ने, गौतम बुद्ध ने विश्व को अहिंसा से समस्याओ के निराकरण के जो सूत्र दिये हैं वे भारत की पूंजी हैं. भगवत गीता और रामचरित मानस हमारे विश्व ग्रंथ हैं, जिनमें हर परिस्थिति में सफल जीवन दर्शन के सारे पाठ हैं.

नया विश्व तर्क और विज्ञान का है. अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु शक्ति आज देशो की वह ताकत बन चुकी है जो दुनिया में किसी राष्ट्र का महत्व प्रतिपादित कर रही है. भारत स्वयं अपने बूते परमाणु शक्ति संपन्न है, और इसका प्रयोग शांति पूर्ण तरीको से विकास के लिये करने को प्रतिबद्ध है, यह तथ्य हमें अन्य देशो से भिन्न व विशिष्ट बनाकर प्रस्तुत करता है.

यदि भारत को वर्तमान परिस्थितियों में पुनः विश्वगुरू के रूप में स्वयं को स्थापित करना है तो हमें विश्व नागरिकता  के लिये पैरवी करनी होगी आज युवा पीढ़ी वैश्विक हो चुकी है उसे कागजी वीसा पासपोर्ट के बंधनो में ज्यादा बांधे रहना उचित नही है, अंतरराष्ट्रीय वैवाहिक संबंध हो रहे हैं, अब महर्षि महेश योगी की विश्व सरकार की परिकल्पना मुर्त स्वरूप ले सकती है. पहले चरण में भारत को ई वीसा के लिये समान वैश्विक मापदण्ड बनाने के लिये प्रयास होने जरूरी हैं ।   विदेश यात्रा हेतु इमरजेंसी हेल्थ बीमा अधिक उम्र के लोगों के लिए उपलब्ध नहीं है, विदेशों में भारत की तुलना में इमरजेंसी हेल्थ सेवा बहुत मंहगी है ।

यू ए ई में तो बिना हेल्थ बीमा के वीजा ही नहीं दिया जाता, तो वरिष्ठ व्यक्ति वहां कैसे जाएं ?

सरकारों को विजीटर्स को स्वास्थ्य सेवा तो देनी ही चाहिए । यह ह्यूमन राइट्स है।  यू एन ओ में भारत को यह प्रस्ताव लाना चाहिये, तथा इसके लिये विभिन्न देशो का समर्थन जुटाने के पुरजोर प्रयास द्विपक्षीय स्तर पर किये जाने चाहिये. जब कोई सेना पक्षियो की दुनियां भर में निर्बाध आवाजाही, सूरज, चांद, हवा, पानी को नही रोक सकती, सीमाओ को जब संगीत की स्वर लहरियां यूं ही पार कर सकती हैं तो संकुचित नागरिकता का विचार कितना बौना, अनैसर्गिक और तुच्छ है यह सहज ही समझा जा सकता है.

एक बहुत छोटा सा मुद्दा है इस ग्लोबल दुनिया मे आज कही लेफ्ट हेंड ड्राइव सड़के गाड़ियां हैं तो किन्ही देशों में राइट हेंड ड्रिवन गाड़ियां चल रही है । इसमें एकरूपता जरूरी है, आवश्यकता केवल पहल करने की है ।

इंटरनेट आधारित दुनिया पर किसी का कोई नियंत्रण ही नही है । पोर्न साइट्स व सायबर अपराध बढ़ रहे हैं । भारत पहल कर इसे नियमो में ला सकता है जिसके लिए वैश्विक सहमति बनाने का काम करना होगा।

दुनियां में निरस्त्रीकरण एक बलशाली मुद्दा है. अनेक देशो की ईकानामी ही हथियारो के व्यापार पर टिकी हुई है. यदि मिलट्री पर होने वाला व्यय गरीबो के विकास पर लगाया जावे तो साल भर में दुनियां के हालात बदल सकते हैं, जरूरत है कि भारत इस आवाज को बुलंदियां देने की पहल करे.

किसी भी देश के वैज्ञानिको द्वारा किये जा रहे शोध पर पूंजी लगाने वाले देश का नही समूची मानवता का अधिकार होना चाहिये इस सिद्धांत को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है. क्योकि सचाई यह है कि जो भी अगले शोध हो रहे हैं वे पिछले अनुसंधान तथा अन्वेषणो पर ही आधारित हैं. भारत जैसे देशो से ब्रेन ड्रेन बहुत सरल है, अमेरिका में शोध केवल इसलिये संभव हो पा रहे हैं क्योकि वहां वैसी सुविधायें तथा वातावरण विकसित हुआ है. अतः वैज्ञानिक शोध पटेंट से परे मानव मात्र की धरोहर होनी चाहिये.

अंतरिक्ष, समुद्र और ब्रम्हांड की संपदा, शोध पर सारी मानव जाति के अधिकार को हमें प्रतिपादित करना चाहिये. साल २०१४ में पहले ही प्रयास में मंगलयान का मंगल गृह की कक्षा में पहुँच जाना हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है. भारतीयों का प्रौद्योगिकी ज्ञान पश्चिम से भी आगे पहुंचे और हम उदारमना उसे सबके लिये सुलभ करवायें तभी हम विश्वगुरू की पदवी के सच्चे हकदार बन सकते हैं. कहा गया है रिस्पेक्ट इज कमांडेड नाट डिमांडेड, मतलब हमें हर स्तर पर स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होगा तभी हम नेतृत्व कर सकेंगें.

आतंकवाद से विश्वस्तर पर निपटने में भारत ने बहुत महत्वपूर्ण अगुवाई की  है. आवश्यक है कि इस दिशा में स्थाई वैश्विक अभिमत बनाया जावे. धार्मिक कट्टरता नियंत्रित करने में भारत को कड़े कदम उठाने होंगे.

यह युग बाजारवाद का समय है. मल्टी नेशनल कंपनियों में अनेकानेक देशो की पूंजी दुनियां भर में लगी हुई है, दुनियां भर के युवा, इन कंपनियो में अपने देश से बाहर जगह जगह कार्यरत हैं. सोशल मीडिया का युग है, अब ज्ञान का अश्वमेध ही विश्व विजय करवा सकता है. सेनाओ के भरोसे भौतिक युद्ध जीतने की परिकल्पना समय के साथ अव्यवहारिक होती जा रही है. ऐसे समय में भारत को विश्व का  समुचित नेतृत्व करते हुये वसुधैव कुटुम्बकम के वेद वाक्य को सुस्थापित कर स्वयं को विश्वगुरू सिद्ध करने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने का समय आ चुका है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 78 ⇒ मन की बातें, मन ही जाने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मन की बातें, मन ही जाने।)  

? अभी अभी # 78 ⇒ मन की बातें, मन ही जाने? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

मन रे, तू काहे न धीर धरे! गोपियों ने तो आसानी से कह दिया, उधो! मन नहीं दस बीस। मन की शरीर में एक्ज़ेक्ट लोकेशन किसी को पता नहीं है। कभी लोग दिल को मन मान बैठते हैं, तो कभी दिमाग को।

मन संकल्प विकल्प करता है, और दिमाग सोचता है। अगर कभी, मन नहीं करे, तो दिमाग कुछ सोचता भी नहीं। आप कह सकते हैं कि दिल और दिमाग़ पर मन की दादागिरी है। ।

अध्यात्म में मन पर लगाम कसने की बात की जाती है। मन बड़ा उच्छ्रंखल है! साहिर ने मन पर पीएचडी की है! तोरा मन दर्पण कहलाये। भले बुरे, सारे कर्मों को, देखे और दिखाए। यानी मन, मन ना हुआ, किसी पुराने फिल्मी थिएटर का प्रोजेक्टर हुआ। वह फ़िल्म देखता भी है, और उसे दर्शकों को दिखाता भी है। एक व्यक्ति मन मारकर प्रोजेक्टर चलाता है, हम मन लगाकर फ़िल्म देखते हैं। सही भी तो है! कहीं हमारा मन लग जाता है, और कहीं हमें मन को मारना पड़ता है।

हमारे शरीर में जितना स्थूल है, वह सूक्ष्म यंत्रों से देखा जा सकता है। दिल, दिमाग़, लिवर और किडनी! किडनी दो, बाकी तीनों एक एक। दो दो हाथ, दोनों कान, दो ही आँख, और एक बेचारी नाक! हमारी समझ से बाहर की बात है। दाँतों तले उँगली दबाइए, और उस बनाने वाले का एहसान मानिए। ।

जो हमारे अंदर है, लेकिन नहीं नज़र आते, वे मन, चित्त, बुद्धि, और अहंकार हैं। जब हम मन की बात करते हैं, तो कभी उसके विकारों की बात नहीं करते। दुनिया में इतनी बुराई है, कि हमें अपनी बुराई कहीं नजर ही नहीं आती। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को मन के विकार माना गया है। भले ही आप इन्हें विकार मानें, लेकिन इनके बिना भी कहीं संसार चला है।

बुद्धि का काम सोच विचार करना है। चित्त और मन को आप अलग नहीं कर सकते! हमारे लिए तो दिल, चित्त और मन सब एक ही बात है। कौन ज़्यादा मगजमारी करे। हमारी आम भाषा में अगर कहें तो भई दिल को साफ रखो। किसी के प्रति मन में मैल न आने दो और चित्त शुद्धि के प्रति सजग रहो। ।

एक गांठ होती है, जिसे प्रेम की गांठ कहते हैं। यह जितनी मजबूत हो, उतनी अच्छी! दुश्मनी की गांठ अगर ढीली होती जाए, खुलती चली जाए, तो बेहतर। दुश्मनी दोस्ती में बदल जाए, तो और भी बेहतर।

मन में भी गांठ पड़ जाती है! यह बहुत बुरी होती है। चिकित्सा पद्धति में शरीर की किसी भी गांठ का इलाज है, मन की गांठ का नहीं। प्रेम, भक्ति और समर्पण ही वह संजीवनी औषधि है, जो मन की गांठ को खोल सकते हैं। जब मन मुक्त होता है, मस्त होता है, तब ही ये बोल सार्थक होते हैं;

मन मोरा बावरा!

निस दिन गाए, गीत मिलन के ..

चिंता को चिता कहा गया है!

कम सोचो। चिंतन अधिक करो। किसी माँ को कभी मत सिखाना कि चिंता मत करो।

माँ का नाम ही care and concern है। हम भी अगर खुद का खयाल रखें, और थोड़ी बहुत दूसरों की भी चिंता करें, तो कोई बुरा नहीं। मन लगा रहेगा, दिल को तसल्ली मिलेगी और हाँ, थोड़ा बहुत चित्त भी शुद्ध होगा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 77 ⇒ मौलाना साहब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मौलाना साहब “।)  

? अभी अभी # 77 ⇒ मौलाना साहब ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

शहर के व्यस्ततम, एम जी रोड पर हमारी दुकान के पास ही मौलाना साहब की फूलों की दुकान थी। असली फूलों की नहीं, गुरुदत्त वाले नकली कागज़ के फूलों की। मौलाना साहब ने अपनी दुकान सजाने के लिए किसी के गुलशन को नहीं उजाड़ा, बस कुछ रंग बिरंगे काग़ज़ के टुकड़ों को मिलाकर फूलों का गुलदस्ता तैयार कर लिया। उनके गुलाब में अगर खुशबू नहीं होती थी, तो कांटे भी नहीं होते थे।

मौलाना साहब उनका असली नाम नहीं था ! उन्हें मौलाना क्यों कहते थे, वे कितनी जमात पढ़े थे, हमें इसका इल्म नहीं था। बस पिताजी इन्हें मौलाना साहब कहते थे, इसलिए हम भी कहते थे। एक शांत, सौम्य, दाढ़ी वाला चेहरा, जो सदा मुस्कुराता रहता था। पड़ोसी दुकानदार होने के नाते, पहली चाय मौलाना साहब और हमारे पिताजी साथ साथ ही पीते थे। तब दुकान खुली छोड़कर चाय पीने जाने का रिवाज नहीं था। चाय दुकान पर ही पी जाती थी .क्योंकि दुकान, दुकान नहीं पेढ़ी थी। रोजी रोटी का साधन थी। ।

आज भी अगर कोई दुकानदार अपनी दुकान खोलेगा तो पहले पेढ़ी को प्रणाम करेगा, साफ सफाई करेगा, अपने आराध्य के चित्र पर श्रद्धा से अगरबत्ती लगाएगा, इसके बाद ही कारोबार शुरू करेगा। श्रद्धा का ईमान से कितना लेना देना है, यह एक अलग विषय है। श्रद्धा, श्रृद्धा है, ईमान ईमान।

हमारी दुकान के आसपास लगता था, पूरा भारत बसा हुआ हो। कोई दर्जी, कोई गोली बिस्किट वाला तो कोई पेन, घड़ी और चश्मे वाला। एक संगीत के वाद्यों की दुकान भी थी, जिसका नाम ही वीणा था। एक रैदास था, जो सुबह पिताजी के जूते पॉलिश करने के लिए ले जाता था, और थोड़ी देर बाद वापस रख जाता था। एक शू मेकर भी थे, जिनके पास चार पांच कारीगर थे। ।

हमारी और मौलाना साहब की दुकान एक साथ ही खुलती थी। हमारी दुकान के दूसरी ओर बिना तले समोसे और बिस्किट की प्रसिद्ध एवरफ्रेश की दुकान थी, जहां शहर के खास लोग, शाम को घूमने और टाइम पास करने आते थे। सड़कों पर आवागमन तो रहता था, लेकिन उसे आप चहल पहल ही कह सकते हैं, भीड़भाड़ नहीं। ईद पर हमारा पूरा परिवार मौलाना साहब के घर सिवइयां खाने जाता था।

हमें इस रहस्य का पता बहुत दिनों बाद चला, जब मौलाना साहब और हमारे पिताजी दोनों इस दुनिया में नहीं रहे। राखी के दिन मौलाना साहब की बेगम हमारे पिताजी का इंतजार करती थी। उनकी कलाई पर एक राखी बेगम के हाथों से भी बंधी होती थी। स्नेह के बंधन कभी काग़ज़ी नहीं होते। उनमें भी प्यार की खुशबू होती है। ।

सुबह का समय सभ दुकानदारों का मिलने जुलने का रहता था। जैसे जैसे दिन चढ़ता, ग्राहकी बढ़ने लगती, लोग अपने काम में लग जाते। दोपहर का वक्त भोजन का होता था। अक्सर सभी के डब्बे घर से आ जाया करते थे। तब टिफिन और लंच जैसे शब्द प्रचलन में नहीं थे। गुरुवार को बाज़ार बंद रहता था, और हर गुरुवार को सिनेमाघरों में नई फिल्म रिलीज होती थी। कालांतर में, दूरदर्शन पर रविवार को रामानंद सागर के रामायण सीरियल के कारण यह अवकाश गुरुवार की जगह रविवार कर दिया गया। अब कहां रामायण सीरियल और शहर के सिनेमाघर ! हर दुकानदार के पास अपने हाथ में ही, अपना अपना सिनेमाघर अर्थात् 4जी मोबाइल जो उपलब्ध है। ।

वार त्योहारों पर मौलाना साहब के यहां लोग अपने दुपहिया वाहनों का श्रृंगार काग़ज़ के हार फूल और रंग बिरंगी पत्तियों से करते थे। दशहरे पर नई खरीदी साइकिल को दुल्हन की तरह सजाया जाता था। शादियों में जिस तरह दूल्हा दुल्हन को ले जाने वाली कार की आजकल जिस तरह सजावट, बनाव श्रृंगार होता है, वैसा ही साइकिल का होता था। विशेष रूप से दूध वाले अपनी नई साइकिलों का श्रृंगार मनोयोग से करते थे, क्योंकि वही उनका दूध वाहन भी था।

आज मौलाना साहब इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी काग़ज़ के फूलों की दुकान फल फूल रही है। कल की एक दुकान का विस्तार हो चला है, वह छोटी से बहुत बड़ी हो चुकी है। परिवार की तीसरी पीढ़ी उसी परंपरा का निर्वाह कर रही है। आज के कृत्रिम संसार में कभी न मुरझाने वाले हार फूलों का ही महत्व है। आज की रंग बिरंगी दुनिया वैसे भी किसी काग़ज़ के फूल से कम नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “योग से मिले नया जीवन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “योग से मिले नया जीवन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल

ऋषि मुनियों और संतों की पावन भूमि कहा जाने वाला हमारा देश आज योग गुरु देश बन गया है। भारतीय योग गुरुओं ने विदेशी जमीन पर योग की उपयोगिता और महत्व के बारे में जागरूक किया है।

वर्ष 2015 से विश्व भर में 21जून को विश्व योग दिवस मनाया जा रहा है। योग दिवस मनाने की तारीख 21 जून ही निश्चित की गई है। इसका कारण भारतीय परंपरा के अनुसार, ग्रीष्म संक्रांति के बाद सूर्य दक्षिणायन होना है। सूर्य दक्षिणायन का समय ही आध्यात्मिक सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए असरदार माना गया है। इसलिए प्रतिवर्ष 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाते हैं।

कोरोना काल के बाद से योग का महत्व अधिक बढ़ गया है। संक्रमण से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से लोग योग अभ्यास करने लगे हैं। योग दिवस 2023 की थीम ‘वसुधैव कुटुंबकम के लिए योग’ है। धरती ही परिवार है। धरती जब ही स्वस्थ और शुद्ध रहेगी, जब मानव स्वस्थ रहेंगे। योग भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक रहा है। यह एक प्राचीन अभ्यास है, जिसकी सृष्टि भारत में हुई है। योग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विषयों को शामिल करता है। यह शरीर और मन के बीच सद्भाव को बढ़ावा देता है और व्यक्तियों को अच्छी तरह से एक संम्पूर्ण आधुनिक जीवन प्राप्त करने में मदद करता है।

जब भी दुनिया ने मानवता कल्याण के लिए समग्र स्वास्थ्य और जीवन के लिए आवाज उठाया है तो भारत के प्राचीन ज्ञान की हमेशा चर्चा की और सराहना की है. दुनिया भर में इस अभ्यास की एक बढ़ती स्वीकृति, इसकी व्यापक लोकप्रियता इसका एक साक्ष्य है, जिससे दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में भारत का कद बढ़ रहा है. अब, दैनिक जीवन शैली के एक हिस्से के रूप में योग का तेज पश्चिमी दुनिया में भी देखा जा रहा है. इसकी लोकप्रियता कोविड महामारी के दौरान काफी बढ़ गई , जब शारीरिक और मानसिक फिटनेस को लेकर विश्व स्तर पर ज्यादा जोर दिया गया था, लाखों लोगों को इसी उद्देश्य के लिए योग में घुसना पड़ा।

योग दुःखों को कम करने में मानवता प्रदान करता है और लोगों को एक साथ आनन्द की भावना को बढ़ावा देने और एक साथ दुनिया के बीच लचीलापन बनाने के अलावा लोगों को एक साथ लाता है. अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस ने विश्व स्तर पर विशाल लोकप्रियता प्राप्त की है, और लाखों लोग इस दिन योग-संबंधित घटनाओं में भाग लेते हैं. यह समग्र स्वास्थ्य और कल्याण की खोज में विभिन्न पृष्ठभूमि, संस्कृतियों और धर्मों से लोगों को एकजुट करने का अवसर बन गया है. योग दिवस के निरंतर समारोह को इस अभ्यास के बारे में लोगों के बीच जागरूकता फैलाने और यह सुनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति की आंतरिक चेतना और बाहरी दुनिया के बीच निरंतर संबंध की भावना को गहरा करता है।

☆ योग से मिले नया जीवन ☆

नित उठ करो योग साधना।

   स्वस्थ रहने की यही प्रार्थना।।

 

सारे रोग योग से भागे।

    ह्रदय रोग भी पास ना आवै।।

 

योग से हो जीवन उजियारा।

    मिटे व्याधियों का अंधियारा।।

 

दर्द दवा और दुआ योग है।

    सुखी जीवन का यही संयोग है।।

 

योग उपचार और औषधि है।

    योग बढ़ाए जीवन अवधि है।।

 

योग साधना में जो जुट जाए।

     तनाव मुक्त जीवन हो जाए।।

 

रोग भगाए योग, करो साधना सारे।

     ताजा रहे मनोयोग मिट जाए सारे।।

 

योग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाए।

   जीवाणु, विषाणु से लड़ना सिखाए।।

 

शक्तिवर्धक औषधि योग है।

     बुद्धि प्रबर्धक, चेतन्य योग है।।

 

काया प्रबल बनाता योग है।

       रूप सौंदर्य भी देता योग है।।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “महाकवि कालिदास दिन – (आषाढस्य प्रथम दिवसे!)” – भाग-2 ☆ लेखक और प्रस्तुतकर्ता – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ “महाकवि कालिदास दिन – (आषाढस्य प्रथम दिवसे!)” – भाग-2 ☆ लेखक और प्रस्तुतकर्ता – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

मित्रों, पहले बतायेनुसार यक्ष को आषाढ़ के प्रथम दिन पर्वतशिखरों को लिप्त कर आलिंगन देनेवाला मेघ, क्रीडा करनेवाले दर्शनीय हाथी के सामान दिखा। जिसमें १२१ श्लोक (पूर्वार्ध यानि, पूर्वमेघ ६६ श्लोक तथा उत्तरार्ध यानि, उत्तरमेघ ५५ श्लोक) संलग्न है, वह सकल खंडकाव्य सिर्फ और सिर्फ एक ही वृत्त (छंद), मंदाक्रांता वृत्त में (इस वृत्त के प्रणेता हैं, स्वयं कालिदासजी!) गेय काव्य में छंदबद्ध करने की प्रतिभा (और प्रतिमा नहीं परन्तु प्रत्यक्ष में) केवल और केवल कालिदासजी की!

यक्ष आकाश में विचरते मेघ को ही अपना सखा समझ दूत बनाता है, उसे रामगिरी से अलकापुरी का मार्ग बताता है, अपनी प्रियतमा का विरहसे क्षतिग्रस्त शरीर इत्यादि का वर्णन करने के बाद, मेघ को अपना संदेश प्रियतमा तक पहुँचाने की अत्यंत आवेग से बिनती करता है! पाठकों, यक्ष है भूमि पर, परन्तु पूर्वमेघ में वह मेघ को प्रियतमा की अलकानगरी तक जाने का मार्ग बताता है, इसमें ९ प्रदेश, ६६ नगर, ८ पर्वत तथा १० नदियों का भौगोलिक होते हुए भी विहंगम और रमणीय वर्णन किया गया है| विदर्भ के रामगिरी से इस मेघदूत का हिमालय की गोद में बसी हुई अलकानगरी तक का प्रदीर्घ प्रवास इसमें वर्णित किया गया है| अन्त में कैलास के तल पर बसी अलकानगरी में मेघ पहुँचता है| इस वर्णन में मेघ की प्रियतमा विद्युल्लता से हमारी भेंट होती है| उत्तर मेघ में यक्ष ने ने अपनी प्रेयसीको दिया हुआ संदेश है| प्रियतमा विरहव्याधि के कारण प्राणत्याग न कर दे और धीरज रखे, ऐसा संदेश वह यक्ष मेघ द्वारा भेजता है| उसे वह मेघ द्वारा यह संदेश दे रहा है “अब शाप समाप्त होने में केवल चार मास ही शेष हैं, मैं कार्तिक मास में आ ही रहा हूँ”| काव्य के अंतिम श्लोक में यह यक्ष मेघ से कहता है “तुम्हारा किसी भी स्थिति में तुम्हारी प्रिय विद्युलता से कभी भी वियोग न हो!” ऐसा है यह यक्ष का विरहगीत।

मित्रों! स्टोरी कुछ विशेष नहीं, हमारे जैसे अरसिक व्यक्ति पत्र लिखते समय, पोस्टल ऍड्रेस लिखते हैं, अंदर अच्छे बुरे हालचाल की ४ पंक्तियाँ! परन्तु ऍड्रेस एकदम करेक्ट, विस्तृत और अंदर का मैटर रोमँटिक होने के कारण, पोस्ट ऑफिस वालों को भायेगा न, और फिर पोस्टल डिपार्टमेंट पोस्ट का टिकट छपवाकर उस लेखक को सन्मानित करेगा या नहीं! नीचे के फोटो में देखिये पोस्ट का सुन्दर टिकट, यह कालिदासजी के ऍड्रेस लिखने के कौशल्य को किया साष्टांग प्रणिपात ही समझ लीजिये! इस वक्त अगर कालिदासजी होते तो वे ही निर्विवाद रूप से इस डिपार्टमेंट के Brand Ambassador रहे होते! कालिदासजी ने अपने अद्वितीय दूतकाव्य में दूत के रूप में अत्यंत विचारपूर्वक आषाढ़ के निर्जीव परन्तु बाष्पयुक्त धूम्रवर्ण के मेघ का चयन किया, क्योंकि यह जलयुक्त मेघसखा रामगिरी से अलकापुरी तक की दीर्घ यात्रा कर सकेगा इसका उसे पूरा विश्वास है! शरद ऋतु में मेघ रिक्त होता है, इसके अलावा, आषाढ़ मास में सन्देश भेजने पर वह उसकी प्रियतमा तक शीघ्र पहुंचेगा ऐसा यक्ष ने सोचा होगा!

(“आषाढस्य प्रथम दिवसे”- प्रहर वोरा, आलाप देसाई “सूर वर्षा”)

मित्रों, आषाढ़ मास का प्रथम दिन और कृष्णवर्णी, श्यामलतनु, जलनिधि से परिपूर्ण ऐसा मेघ होता है संदेशदूत! पता बताना और सन्देश पहुँचाना, बस, इतनी ही शॉर्ट अँड स्वीट स्टोरी, परन्तु कालिदासजी के पारस स्पर्श से लाभान्वित यह आषाढ़मेघ अमर दूत हो गया! रामगिरी से अलकानगरी, बीच में हॉल्ट उज्जयिनी (मार्ग तनिक वक्र करते हुए, क्योंकि उज्जयिनी है कालिदासजी की अतिप्रिय रम्य नगरी!) इस तरह मेघ को कैसा प्रवास करना होगा, राह में कौनसे माईल स्टोन्स आएंगे, उसकी विरह से व्याकुल पत्नी (और मेघ की भौजाई हाँ, no confusion!) दुःख में विव्हल होकर किस तरह अश्रुपात कर रही होगी यह सब यक्ष मेघ को उत्कट और भावमधुर काव्य में बता रहा है! इसके बाद संस्कृत साहित्य में दूतकाव्योंकी मानों फॅशन ही आ गई (इसमें महत्वपूर्ण है नल-दमयंती का आख्यान), परन्तु मेघदूत शीर्ष स्थान पर ही रहा, उसकी बराबरी कोई काव्य नहीं कर पाया! प्रेमभावनाओं के इंद्रधनुषी आविष्कार का रूप, पाठकों को यक्ष की विरहव्यथा में व्याकुल करने वाला ही नहीं, बल्कि अपनी काव्यप्रतिभा से मंत्रमुग्ध करने वाला यह काव्य “मेघदूत!’ इसीलिये आषाढ मास के प्रथम दिन इस काव्य का तथा उसके रचयिता का स्मरण करना अपरिहार्य ही है!

प्रिय पाठकगण, अब कालिदासजी की महान सप्त रचनाओं का अत्यल्प परिचय देना चाहूंगी! इस साहित्य में ऋतुसंहार, कुमारसंभवम्, रघुवंशम् और मेघदूत ये चार काव्यरचनाएँ हैं, वैसे ही मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुंतलम् ये तीन संस्कृत नाटक-महाकाव्य हैं!

आचार्य विश्वनाथ कहते हैं “वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” अर्थात रसयुक्त वाक्य यानि काव्य!

कालिदासजी की काव्यरचनाऐं हैं केवल चार! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)

रघुवंशम् (महाकाव्य)

यह महाकाव्य कालिदासजी की सर्वोत्कृष्ट काव्यरचना मानी जाती है! इसमें १९ सर्ग हैं, सूर्यवंशी राजाओं की दैदिप्यमान वंशावली का इसमें तेजस्वी वर्णन है| इस वंश के अनेक राजाओं के, मुख्यतः दिलीप, रघु, अज और दशरथ के चरित्र इस महाकाव्य में चित्रित किये गए हैं| सूर्यवंशी राजा दिलीप से तो श्रीराम और उनके वंशज ऐसे इस काव्य के अनेक नायक हैं| 

कुमारसंभवम् (महाकाव्य)

यह है कालिदासजी का प्रसिद्ध महाकाव्य! इसमें शिवपार्वती विवाह, कुमार कार्तिकेय का जन्म और उसके द्वारा तारकासुर का वध ये प्रमुख कथाएं हैं|

मेघदूत (खंडकाव्य)

इस दूतकाव्य के विषय में मैं पहले ही लिख चुकी हूँ| 

ऋतुसंहार (खंडकाव्य)

यह कालिदासजी की सर्वप्रथम रचना है| इस गेयकाव्य में ६ सर्ग हैं, जिनमें षडऋतुओंका (ग्रीष्म, वर्षा, शरत, हेमंत, शिशिर और वसंत) वर्णन है|

कालिदासजी की नाट्यरचनाएं हैं केवल तीन! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)

अभिज्ञानशाकुन्तलम् (नाटक)

इस नाटक के बारे में क्या कहा गया है देखिये, “काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला” (कविताके विविध रूपों में अगर कोई नाटक होगा, तो नाटकों में सबसे अनुपमेय रम्य नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्) महाकवी कालिदासजी का यह नाटक सर्वपरिचित और सुप्रसिद्ध है| यह नाटक महाभारतके आदिपर्व में वर्णित शकुन्तला के जीवनपर आधारित है| संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्!

विक्रमोर्यवशियम् (नाटक)

महान कवी कालिदासजी का यह एक रोमांचक, रहस्यमय और रोमांचकारी कथानक वाला ५ अंकों का नाटक है! इसमें कालिदासजी ने राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के प्रेमसम्बन्ध का काव्यात्मक वर्णन किया है। 

मालविकाग्निमित्र (नाटक)

कवी कालिदासजी का यह नाटक शुंगवंश के राजा अग्निमित्र और एक सेवक की कन्या मालविका की प्रेमकथापर आधारित है| कालिदासजी की यह प्रथम नाट्यकृति है।      

तो, मित्रों, ‘कालिदास दिवस’ के उपलक्ष्य पर इस महान कविराज को मेरा पुनश्च साष्टांग प्रणिपात!

प्रणाम और धन्यवाद!    

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे                              

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

(टिप्पणी : लेख में दी जानकारी लेखिका के आत्मानुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है|)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 76 ⇒ उठापटक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उठापटक”।)  

? अभी अभी # 76 ⇒ उठापटक? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किसी को उठाना और फिर पटकना, यह अखाड़े में पहलवानों का काम है। पहले प्रतिद्वंद्वी से भिड़ना, दांव पेंच लगाना, उसे उठाकर पटक देना और जब विजयी घोषित हो जाएं, तो उसी का हाथ पकड़कर सबका अभिवादन करना।

कभी कभी जब सामने वाला पहलवान कमजोर और दुबला होता है तो वह सीधा ज़ोरदार पहलवान के क़दमों से जोंक की तरह चिपक जाता है। मानो पांव पड़कर माफी मांग रहा हो। कई बार रेफ्री उसे अलग करता है, लेकिन वह उस भारी भरकम पहलवान के अंगद के पांव को हिलाता नहीं, उस पर मलखम करने लग जाता है। लेकिन जब सामने वाले पहलवान का धोबी पछाड़ दांव लगता है, ये पहलवान चारों खाने चित, और इन्हें दिन में तारे नजर आ जाते हैं। ।

धोबी पछाड़ का तो कॉपीराइट ही धोबी के पास है। धोबी पछाड़ का सीधा प्रसारण देखना हो तो कभी धोबी घाट चले जाएं। धोबी जी के घाट पर, भई कपड़न की भीड़। हर कपड़े को उठा, पटक मारे पत्थर पर रजक वीर।

एक आम आदमी के जीवन में भी कितनी उठापटक है, केवल वह ही जानता है। हर जगह प्रतिस्पर्धा, टांग खिंचाई। जो आपकी टांग खींच रहा है, उसे कभी आशीर्वाद नहीं दिया जाता। उस उठाकर पटक ही दिया जाता है। नौकरी में उतार चढ़ाव आते हैं, धंधे में मंडी आती है। कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं इंसान को, और आप कहते हैं, उठापटक मत करो।

राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है, जहां हमेशा उठापटक चला ही करती है। वणिक शब्दकोश में इसे हेराफेरी का नाम दिया गया है। वैसे उठापटक के बिना भी कभी उलटफेर हुआ है। कुछ विधायक इधर से उठाए, उधर रख दिए। अब आप चाहे इसे उठापटक कहें, हेराफेरी कहें, अथवा उलटफेर, सब चलता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम ने तो जिसे उठाया, उसे गले से ही लगाया। जिसे भी उठाओ, प्रेम से गले लगाओ। जिस तरह हम एक बच्चे को प्यार से उठाते हैं, गले लगाते हैं। गलती से भी किसी पत्थर को भी ठोकर लगे, तो वह अहिल्या बन जाए। जो पत्थर इन हाथों से फेंका जाए, वह किसी को नुकसान न पहुंचाए, केवल राम जी के नाम से पानी में भी तैर जाए। जब जाम उठाया है तो उसे मुंह तक जाने दीजिए, ज़मीन पर मत पटकिए। शीशा हो या दिल, टूट जाता है। बेवजह उठापटक से किसी का दिल कभी ना तोड़िए। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 39 – देश-परदेश – मुगालता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 39 ☆ देश-परदेश – मुगालता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विश्व के किसी भाग में जब भी कोई घटना या परिवर्तन होता है, विशेष रूप से राजनैतिक, हमारे देशवासी तुरंत कोई निष्कर्ष निकाल कर अपने हित साधने लगते हैं।   

यूनाइटेड किंगडम से कुछ घंटे पूर्व ज्ञात हुआ कि भारतीय मूल के श्री ऋषि सुनक वहां के आगामी प्रधान मंत्री बनेंगे। हमारा सोशल मीडिया इस समाचार की बाढ़ में साल भर के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली को भूल उनसे अपने रिश्ते ढूंढने लगा।

विदेशों में व्यापार करने वाले नए नए सपने संजोने लग गए हैं। उनके परिवार को विदेश में बसे लंबा समय हो जाने के बावजूद लोग उनके पैतृक गांव में ज़मीन महंगी होने के शिगूफे छोड़ रहे हैं।

उनका सुसराल का परिवार भी भारतीय है। हमारे व्हाट्स ऐप माध्यम ने उनकी सात पुश्ते खोज ली हैं। “अपना ऋषि” बोलकर लोग नज़दीकी रिश्तेदार होने का प्रणाम दे रहे हैं। कुछ तो कह रहे हैं अंग्रेजों ने जो महाराजा रंजीत सिंह जी का हीरा ” कोहिनूर” लूटा था, वो कार्तिक की पूर्णिमा (पंद्रह दिन बाद) याने गुरुनानक जयंती तक ऋषि सुनक देश को वापस दिलवा देंगे।

कुछ वर्ष पूर्व श्रीमती कमला हैरिस, अमेरिका की उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुई तो हमारे देशवासी उनको “कमला बुआ” कहने लगे और सोचने लगे जैसे उनके घर की ही बेटी निर्वाचित हुई हो। अमेरिका से ऐसी उम्मीद करने लगे, जैसे मोहल्ले का कोई लड़का जब बैंक में भर्ती हो जाता है, तो वो एक के नोट की गड्डियां प्रतिदिन घर पहुंचा देगा।

गलतफहमी/मुगालता तो बहुत जल्दी से हो जाता हैं। कुछ दिन बाद ही ऐसे लोग हकीकत देखकर परेशान हो जाते हैं। बहुत जल्द खुश होकर मुगालते पालने से तो धीरज रखकर आने वाले समय को पहचानना चाहिए।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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