डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ “महाकवि कालिदास दिन – (आषाढस्य प्रथम दिवसे!)” – भाग-2 ☆ लेखक और प्रस्तुतकर्ता – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

मित्रों, पहले बतायेनुसार यक्ष को आषाढ़ के प्रथम दिन पर्वतशिखरों को लिप्त कर आलिंगन देनेवाला मेघ, क्रीडा करनेवाले दर्शनीय हाथी के सामान दिखा। जिसमें १२१ श्लोक (पूर्वार्ध यानि, पूर्वमेघ ६६ श्लोक तथा उत्तरार्ध यानि, उत्तरमेघ ५५ श्लोक) संलग्न है, वह सकल खंडकाव्य सिर्फ और सिर्फ एक ही वृत्त (छंद), मंदाक्रांता वृत्त में (इस वृत्त के प्रणेता हैं, स्वयं कालिदासजी!) गेय काव्य में छंदबद्ध करने की प्रतिभा (और प्रतिमा नहीं परन्तु प्रत्यक्ष में) केवल और केवल कालिदासजी की!

यक्ष आकाश में विचरते मेघ को ही अपना सखा समझ दूत बनाता है, उसे रामगिरी से अलकापुरी का मार्ग बताता है, अपनी प्रियतमा का विरहसे क्षतिग्रस्त शरीर इत्यादि का वर्णन करने के बाद, मेघ को अपना संदेश प्रियतमा तक पहुँचाने की अत्यंत आवेग से बिनती करता है! पाठकों, यक्ष है भूमि पर, परन्तु पूर्वमेघ में वह मेघ को प्रियतमा की अलकानगरी तक जाने का मार्ग बताता है, इसमें ९ प्रदेश, ६६ नगर, ८ पर्वत तथा १० नदियों का भौगोलिक होते हुए भी विहंगम और रमणीय वर्णन किया गया है| विदर्भ के रामगिरी से इस मेघदूत का हिमालय की गोद में बसी हुई अलकानगरी तक का प्रदीर्घ प्रवास इसमें वर्णित किया गया है| अन्त में कैलास के तल पर बसी अलकानगरी में मेघ पहुँचता है| इस वर्णन में मेघ की प्रियतमा विद्युल्लता से हमारी भेंट होती है| उत्तर मेघ में यक्ष ने ने अपनी प्रेयसीको दिया हुआ संदेश है| प्रियतमा विरहव्याधि के कारण प्राणत्याग न कर दे और धीरज रखे, ऐसा संदेश वह यक्ष मेघ द्वारा भेजता है| उसे वह मेघ द्वारा यह संदेश दे रहा है “अब शाप समाप्त होने में केवल चार मास ही शेष हैं, मैं कार्तिक मास में आ ही रहा हूँ”| काव्य के अंतिम श्लोक में यह यक्ष मेघ से कहता है “तुम्हारा किसी भी स्थिति में तुम्हारी प्रिय विद्युलता से कभी भी वियोग न हो!” ऐसा है यह यक्ष का विरहगीत।

मित्रों! स्टोरी कुछ विशेष नहीं, हमारे जैसे अरसिक व्यक्ति पत्र लिखते समय, पोस्टल ऍड्रेस लिखते हैं, अंदर अच्छे बुरे हालचाल की ४ पंक्तियाँ! परन्तु ऍड्रेस एकदम करेक्ट, विस्तृत और अंदर का मैटर रोमँटिक होने के कारण, पोस्ट ऑफिस वालों को भायेगा न, और फिर पोस्टल डिपार्टमेंट पोस्ट का टिकट छपवाकर उस लेखक को सन्मानित करेगा या नहीं! नीचे के फोटो में देखिये पोस्ट का सुन्दर टिकट, यह कालिदासजी के ऍड्रेस लिखने के कौशल्य को किया साष्टांग प्रणिपात ही समझ लीजिये! इस वक्त अगर कालिदासजी होते तो वे ही निर्विवाद रूप से इस डिपार्टमेंट के Brand Ambassador रहे होते! कालिदासजी ने अपने अद्वितीय दूतकाव्य में दूत के रूप में अत्यंत विचारपूर्वक आषाढ़ के निर्जीव परन्तु बाष्पयुक्त धूम्रवर्ण के मेघ का चयन किया, क्योंकि यह जलयुक्त मेघसखा रामगिरी से अलकापुरी तक की दीर्घ यात्रा कर सकेगा इसका उसे पूरा विश्वास है! शरद ऋतु में मेघ रिक्त होता है, इसके अलावा, आषाढ़ मास में सन्देश भेजने पर वह उसकी प्रियतमा तक शीघ्र पहुंचेगा ऐसा यक्ष ने सोचा होगा!

(“आषाढस्य प्रथम दिवसे”- प्रहर वोरा, आलाप देसाई “सूर वर्षा”)

मित्रों, आषाढ़ मास का प्रथम दिन और कृष्णवर्णी, श्यामलतनु, जलनिधि से परिपूर्ण ऐसा मेघ होता है संदेशदूत! पता बताना और सन्देश पहुँचाना, बस, इतनी ही शॉर्ट अँड स्वीट स्टोरी, परन्तु कालिदासजी के पारस स्पर्श से लाभान्वित यह आषाढ़मेघ अमर दूत हो गया! रामगिरी से अलकानगरी, बीच में हॉल्ट उज्जयिनी (मार्ग तनिक वक्र करते हुए, क्योंकि उज्जयिनी है कालिदासजी की अतिप्रिय रम्य नगरी!) इस तरह मेघ को कैसा प्रवास करना होगा, राह में कौनसे माईल स्टोन्स आएंगे, उसकी विरह से व्याकुल पत्नी (और मेघ की भौजाई हाँ, no confusion!) दुःख में विव्हल होकर किस तरह अश्रुपात कर रही होगी यह सब यक्ष मेघ को उत्कट और भावमधुर काव्य में बता रहा है! इसके बाद संस्कृत साहित्य में दूतकाव्योंकी मानों फॅशन ही आ गई (इसमें महत्वपूर्ण है नल-दमयंती का आख्यान), परन्तु मेघदूत शीर्ष स्थान पर ही रहा, उसकी बराबरी कोई काव्य नहीं कर पाया! प्रेमभावनाओं के इंद्रधनुषी आविष्कार का रूप, पाठकों को यक्ष की विरहव्यथा में व्याकुल करने वाला ही नहीं, बल्कि अपनी काव्यप्रतिभा से मंत्रमुग्ध करने वाला यह काव्य “मेघदूत!’ इसीलिये आषाढ मास के प्रथम दिन इस काव्य का तथा उसके रचयिता का स्मरण करना अपरिहार्य ही है!

प्रिय पाठकगण, अब कालिदासजी की महान सप्त रचनाओं का अत्यल्प परिचय देना चाहूंगी! इस साहित्य में ऋतुसंहार, कुमारसंभवम्, रघुवंशम् और मेघदूत ये चार काव्यरचनाएँ हैं, वैसे ही मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुंतलम् ये तीन संस्कृत नाटक-महाकाव्य हैं!

आचार्य विश्वनाथ कहते हैं “वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” अर्थात रसयुक्त वाक्य यानि काव्य!

कालिदासजी की काव्यरचनाऐं हैं केवल चार! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)

रघुवंशम् (महाकाव्य)

यह महाकाव्य कालिदासजी की सर्वोत्कृष्ट काव्यरचना मानी जाती है! इसमें १९ सर्ग हैं, सूर्यवंशी राजाओं की दैदिप्यमान वंशावली का इसमें तेजस्वी वर्णन है| इस वंश के अनेक राजाओं के, मुख्यतः दिलीप, रघु, अज और दशरथ के चरित्र इस महाकाव्य में चित्रित किये गए हैं| सूर्यवंशी राजा दिलीप से तो श्रीराम और उनके वंशज ऐसे इस काव्य के अनेक नायक हैं| 

कुमारसंभवम् (महाकाव्य)

यह है कालिदासजी का प्रसिद्ध महाकाव्य! इसमें शिवपार्वती विवाह, कुमार कार्तिकेय का जन्म और उसके द्वारा तारकासुर का वध ये प्रमुख कथाएं हैं|

मेघदूत (खंडकाव्य)

इस दूतकाव्य के विषय में मैं पहले ही लिख चुकी हूँ| 

ऋतुसंहार (खंडकाव्य)

यह कालिदासजी की सर्वप्रथम रचना है| इस गेयकाव्य में ६ सर्ग हैं, जिनमें षडऋतुओंका (ग्रीष्म, वर्षा, शरत, हेमंत, शिशिर और वसंत) वर्णन है|

कालिदासजी की नाट्यरचनाएं हैं केवल तीन! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)

अभिज्ञानशाकुन्तलम् (नाटक)

इस नाटक के बारे में क्या कहा गया है देखिये, “काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला” (कविताके विविध रूपों में अगर कोई नाटक होगा, तो नाटकों में सबसे अनुपमेय रम्य नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्) महाकवी कालिदासजी का यह नाटक सर्वपरिचित और सुप्रसिद्ध है| यह नाटक महाभारतके आदिपर्व में वर्णित शकुन्तला के जीवनपर आधारित है| संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्!

विक्रमोर्यवशियम् (नाटक)

महान कवी कालिदासजी का यह एक रोमांचक, रहस्यमय और रोमांचकारी कथानक वाला ५ अंकों का नाटक है! इसमें कालिदासजी ने राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के प्रेमसम्बन्ध का काव्यात्मक वर्णन किया है। 

मालविकाग्निमित्र (नाटक)

कवी कालिदासजी का यह नाटक शुंगवंश के राजा अग्निमित्र और एक सेवक की कन्या मालविका की प्रेमकथापर आधारित है| कालिदासजी की यह प्रथम नाट्यकृति है।      

तो, मित्रों, ‘कालिदास दिवस’ के उपलक्ष्य पर इस महान कविराज को मेरा पुनश्च साष्टांग प्रणिपात!

प्रणाम और धन्यवाद!    

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे                              

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

(टिप्पणी : लेख में दी जानकारी लेखिका के आत्मानुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है|)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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