श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे नए साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  स्व गणेश प्रसाद नायकके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

 

☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆

“स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक  ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

माता – पिता को याद करती टिप्पणियों की आत्मीयता प्रसन्न भी करती है और विकल भी… उनमें स्मृतियों का सुखद संसार, माता- पिता के होने की सम्पन्नता  और उन्हें खो देने की टीस होती है… एक बीत गयी निश्छल दुनिया को याद करना होता है ।… पिता गणेश प्रसाद नायक को गये उनतालीस साल हो गये, वे इस समय 111 वर्ष के होते | 24 मार्च 1913 को वे जन्मे थे | माँ गायत्री नायक को गये भी  तेरह साल हो गये |

जबलपुर में 1930 में रानी दुर्गावती  की समाधि पर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने की शपथ के साथ उन्होंने खादी पहनने का संकल्प भी किया था। वे कभी अपने संकल्पों से डिगे नहीं। पारिवारिक दबाव के कारण  गंजबासौदा, भोपाल, जबलपुर में रेलवई की नौकरी की, पर फिर उसे छोड़छाड़ कर आंदोलन में कूद पड़े। घोर ग़रीबी के दिनों में खादी का संकल्प लिया था और तीन काम तय किये थे, पढ़ना, इसके लिए ट्यूशन करना, ताकि आधिकाधिक स्वावलम्बी हों और आज़ादी के लिए काम करना। यह 1930 की बात है, तब वे सत्रह के थे। दो साल बाद खादी दुगनी महँगी हो गयी। पिता ने गाँधीजी को लिखा कि मेरा जैसा छात्र इस गरीबी, महँगाई में खादी का संकल्प कैसे निभाये? उनका पोस्टकार्ड आया, ‘डियर गणेश प्रसाद, वेयर देअर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे। कट शार्ट यूअर एक्सपेंसेस, बापू |’ 

दूसरे विश्व युद्ध में गाँधीजी ने जनता से अपील की कि भारत को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ युद्ध में घसीटा जा रहा है इसलिए वह युद्ध में धन-जन की कोई मदद न करे। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करते हुए सत्याग्रहियों का चुनाव अपने हाथ में लिया। सत्याग्रहियों की नैतिक व चारित्रिक मर्यादाएं निश्चित कीं। सत्याग्रह की विधि निर्धारित की। विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही बनाया। पिता का नाम नगर की पहली सूची में था पर गोविंद दास और द्बारिका प्रसाद मिश्र ने उनसे कहा कि सूची के मुताबिक सत्याग्रह होने पर बाद में तो सत्याग्रह कराने वाला कोई न होगा इसलिए तुम बाद में सत्याग्रह करना, तब तक सत्याग्रही तैयार करो और अपनी परीक्षा भी दे लो। नियम यह था कि सत्याग्रही पुलिस को सूचना देते थे। समय, स्थान बताते थे, पुलिस उन्हें सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार कर ले जाती थी। मार्च में पिताजी की परीक्षा हो गई। दूसरी लिस्ट तक पुलिस गिरफ़्तार करती रही, लेकिन फिर तीसरी लिस्ट के सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी बंद कर दी। पहले ही नहीं सत्याग्रह के बाद भी गिरफ़्तारी रुक गयी। पिता नई-नई विधि से तब भी गिरफ़्तारी कराते। पिता ने अपने सत्याग्रह का दिन तय कर लिया था पर इसके पहले मूलचंद यादव नाम के सत्याग्रही की गिरफ़्तारी आवश्यक थी। पिताजी ने  एक परचा बनाया कि सरकारी कर्मचारी युद्ध में सहयोग न करें। इसकी कई प्रतियां टाइप करायीं। सत्याग्रही की यूनीफार्म बनायी – सफ़ेद पेंट, सफ़ेद कमीज़, गाँधी टोपी और झोला। सत्याग्रही से कहा कि कचहरी की शांति भंग न करे, न कोई नारा लगाये। सिर्फ़ कहे कि गाँधीजी का संदेश देने आया हूँ। उसे सबसे पहले सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पूरे सम्मान के साथ पत्र देना था। जब सत्याग्रही पत्र लेकर बाहर निकलने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे रोककर पुलिस बुलाकर जेल भेज दिया, इसी की उम्मीद थी। इस सत्याग्रही की अनोखी विधि की अख़बारों में चर्चा हुई। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने इस विधि को गाँधीजी के विचारों के विपरीत बताकर उस सत्याग्रही को अमान्य कर दिया। पिता ने गाँधीजी को पत्र लिखा कि सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी न होने से यह विधि अपनायी, जोकि किसी भी तरह आपके उसूलों का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने गाँधीजी को मजिस्ट्रेट को दिये पत्र की कॉपी भी भेजी। इसके बाद पिता सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार हो गए। पहले वे जबलपुर जेल में रहे फिर नागपुर भेज दिये गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि गाँधीजी ने प्रदेश कांग्रेस के फ़ैसले को रद्द करने का आदेश देते हुए सत्याग्रही को मान्य घोषित किया और कहा कि उस लड़के ने बहुत ही सूझबूझ से काम लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजाशंकर अग्निहोत्री ने प्रेस को इस फ़ैसले की सूचना दी थी। नागपुर जेल से छूटकर  पिताजी सीधे सेवाग्राम गए। दिन भर गाँधीजी की कुटी के बाहर खड़े रहे। शाम को महादेव देसाई मिले उन्होंने घूमते समय गाँधीजी से भेंट करने को कहा, तभी गाँधीजी कुटी से निकले और पिता पर नज़र पड़ी तो पूछा, कहां से आये हो? नागपुर जेल से सुनकर बोले, तो भोजन कर लो। नागपुर जेल में कैदियों द्बारा काता तीन सेर सूत भेंट करने पर गाँधीजी बोले, ‘बहुत कम काता।’ 

वे मध्यप्रांत और बरार  ( पुराने मध्यप्रदेश, सीपी एंड बरार) स्टुडेंट कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, त्रिपुरी कांग्रेस में सेवादल के प्रधान थे | 1939 मैं हरि विष्णु कामथ फ़ार्वर्ड ब्लॉक में ले गए, फिर समाजवादी आंदोलन से जुड़े… फिर जेपी के साथ सर्वोदय और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में शामिल हुए… वे मध्यप्रदेश संघर्ष समिति के संयोजक थे| पत्रकारिता भी ख़ूब की ।अमृत पत्रिका, अमृत बाजार पत्रिका, एपी ( एसोशिएटिड प्रेस के संवाददाता रहे। नवभारत में रहे। साप्ताहिक ‘प्रहरी’ के अंतरंग मंडल में रहे। 

पिता ने अनेक बार जेल यात्राएंँ कीं  जिसमें अंतिम आपात्काल के दौरान उन्नीस महीने की थी | कभी उन्होंने पेरोल नहीं लिया, 1944 में भी नहीं जब उनके पिता का निधन हो गया था ,तब भी | अंतिम दर्शन के लिये पेरोल पर आना गवारा न हुआ | वे  सिद्धांतवादी थे… अपने विचारों -कार्यक्रमों पर सख़्त और अडिग… राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोर शत्रु… समाजवादी दिनों में पार्टी के स्थानीय नेता विरोध में थे पर उन्होंने ठान लिया कि शहर में गोलवलकर की शोभायात्रा नहीं निकलेगी तो नहीं निकलने दी…  स्टेशन पर ही सारी शोभा ध्वस्त हो गयी |  प्रदेश संघर्ष समिति में भी जनसंघ की चलने नहीं दी, जबकि वह सबसे बड़ी पार्टी थी… उनकी छवि जुझारू  , बेदाग़ नेता की थी… इसलिए उन्हें हटाने की जनसंघी  नेताओं की कोशिशें नाकाम हुईं  … जेपी ने उन्हीं पर भरोसा जताया | 

 समाज और राजनीति को समर्पित रहा , उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा। निहित हितों को जीवन-मूल्यों  पर कभी  हावी नहीं होने दिया | जबलपुर में समाजवादियों का वर्चस्व रहा, बाद में नेताओं में राजनीति खुलकर खेली.. . बिना किसी छल-छंद में पड़े वे राजनीति से हट गए, लेकिन जनता में घुले -मिले रहे, हमेशा उसके हक़ में आवाज़ उठाते रहे और 1974 में जनसंघर्ष  में कूद पड़े | … वे अच्छे संगठनकर्ता और ओजस्वी वक्ता थे और  सहज , आत्मीय, ख़ुशमिज़ाज व्यक्ति  |राजनीतिक मतभेदों के बावजूद पुराने मित्रों से पारिवारिकता बनी रही | शहर -प्रदेश में उनकी प्रतिष्ठा थी | परसाईजी ने एक बार मुझसे कहा कि आज इस बात की कल्पना  करना कठिन है कि नायकजी और तिवारीजी ( भवानी प्रसाद) समाज में किस संजीदगी और ईमानदारी से काम करते थे | ग़लत बात उन्हें नापसंद थी, और वे भड़क जाते थे | संघर्ष समिति की भोपाल में पहली बैठक में विजयराजे सिंधिया ने टोकाटाकी की तो नायकजी ने कहा कि आप दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि यह किसी रजवाड़े की संघर्ष समिति है | परसाईजी कहते थे नायकजी के होंठों पर हंसी और नाक पर ग़ुस्सा रहता था | वे नागपुर जेल में भी रहे| वहाँ मिलने वाले खाने का विरोध किया, राजनीतिक बंदियों के लिये  अलग रसोई की मांग की, अनशन किया… अंत में सभी मांगे मानी गयी |  नागपुर जेल के साथियों को उपाधियाँ दी गयी थीं नायकजी को दी गयी उपाधि की चार पंक्तियाँ थीं :

झुकी कमर पर ज़ोर दिये

डिक्टेटरशिप का बोझ लिये

सुबह सुबह चरखा कातें

मुँह में मीठे बोल लिए ।

लेखक – श्री मनोहर नायक 

प्रस्तुति –  श्री जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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