सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  एक और कर्ण )

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – एक और कर्ण ?

मुंबई की बारिश से तो सभी परिचित हैं। भारी बारिश हर वर्ष सबका जीवन उथल-पुथल कर देती है। गरीबों का तो निर्वाह करना ही कठिन हो जाता है। चाहे मिट् टी की बनी हुई झोंपड़ी हो या पतरे का बना हुआ झोंपड़ा सभी कुछ जलमग्न हो जाता है। कुछ भाग्यशाली ऐसे भी हैं जो थोड़ी ऊँचाई पर रहते हैं और कुछ अच्छे बड़े कॉलोनी के इर्द-गिर्द उनका घर बना हुआ है। ये झोंपड़ियाँ तो जलमग्न होने से बची रहती हैं पर उनकी पतरे की छतें टपकती ही रहती हैं। जिस कारण घर के भीतर के सामान गीले ही हो जाते हैं। बड़ी कॉलोनी के इर्द-गिर्द रहनेवाले झुग्गी-झोंपड़ी के निवासियों को कोई न कोई काम मिल ही जाता है।

बात हाल ही की है। लगातार कई दिनों तक वर्षा होती रही। अब दो दिन से बारिश बंद हुई। आसपास के खुले मैदान और खुली जगहों पर जहाँ दीवारें हैं या तार लगे हुए हैं वहाँ ये झोंपड़ी के निवासी अपनी गुदड़ियाँ और गीले कपड़े टाँगकर सुखाने की व्यवस्था कर लेते हैं। ज़मीन अभी गीली है, जहाँ पक्की सड़क नहीं वहाँ लोगों के आने-जाने के कारण कीचड़ ही कीचड़ हो गया है। गीले कपड़े वहाँ भी नीचे जमीन पर फैलाकर सुखाए जाते हैं साधारणतया देखा जाता है कि फुटपाथ पर बेचारे गरीब अपनी गीली गुदड़ी सूखने के लिए रख देते हैं।

मुंबई वासी भी इस बात को जानते हैं, संवेदनशील हैं और गुदड़ी के ऊपर से चलने से बचते हुए साइड से निकल जाते हैं।

गणराज नाम का व्यक्ति इसी तरह के एक टीन के पतरेवाले घर में निवास करता था। बड़े कॉलोनी के बाहर रास्ते के उस पार कुछ इस तरह की अस्थायी घर बने हुए थे। वह कॉलोनी के निवासियों की गाड़ियाँ धोता था। चुप रहने वाला, स्वभाव से नम्र व्यक्ति था। कई साल से काम करता आ रहा था। काम भी साफ़ और आदमी भी ईमानदार था।

सुबह-सुबह दूध लेने के लिए कोल्ही साहब अपनी कॉलोनी के गेट के बाहर आए थे। लौटते समय बहुत शोर मचाने लगे। वॉचमैन से पूछताछ करने लगे। समस्या यह थी कि कॉलोनी के बाहर वाली दीवार पर किसी ने अपनी एक गुदड़ी सूखने के लिए फैला रखी थी। कोल्ही साहब को इस बात से बहुत परेशानी थी कि शानदार कॉलोनी की दीवार के बाहर इस तरह की चीजें टाँगकर उसकी शान को बट् टा लगाया जा रहा था। शोर – पुकार सुनकर पास पड़ोस से कुछ लोग उपस्थित हो गए। वॉचमेन ने बताया कि वह गुदड़ी गणराज सुबह ही फैला गया था। पर वहाँ गणराज उपस्थित न था। वह तो कॉलोनी के भीतर लोगों की गाड़ियाँ साफ़ कर रहा था। कर्तव्यपरायण जो था वह।

उसी कॉलोनी में रहने वाले मलिक साहब सुबह – सुबह सैर करके लौट रहे थे। कोल्ही साहब की बात सुनकर उनकी पीठ पर हाथ रखते हुए बोले, ” सुबह-सुबह क्यों नाराज़ होते हैं सर, चलिए बात करते हैं गणराज से। हटवा देंगे। आप चिंता ना करें। ”

कोल्ही साहब को एक तरह से खींचते हुए वे उन्हें कॉलोनी के अंदर ले आए। कोल्ही जी भुनभुनाते हुए अपने घर चले गए।

मलिक साहब अभी लिफ्ट में घुसने ही वाले थे कि गणराज दिख गया। उन्होंने उससे कहा, “अपनी गुदड़ी हमारी बिल्डिंग की छत पर जाकर सूखने के लिए रख दो। कोई कुछ नहीं कहेगा। कोई कुछ कहे तो मुझसे बात करने के लिए कहना। वह छत किसी की बपौती नहीं है अतः वहाँ पर गरीब की गुदड़ी सुखाई जा सकती थी। ”

अब तक कॉलोनी में काम करनेवालों ने कोल्ही साहब के गुस्सा होने की बात गणराज के कान तक पहुँचा ही दी थी।

मलिक साहब अपने घर में घुसते ही साथ पत्नी से बोले, ” सरला, अपने पास कोई पुराने कंबल और चादरें हो तो निकाल के रखो। गणराज के घर के सारे सामान गीले हो गए हैं। ”

सरला सुबह-सुबह नाश्ता बना रही थी। रसोई का काम बिटिया के हाथ में सौंपकर तुरंत कपड़े निकालने चली गई। दो खेस और दो पुरानी चादरें अलमारी से निकाल कर लाईं। ये चादरें फटी हुई नहीं थीं, हाँ पुरानी ज़रूर थीं। किसी के काम ज़रूर आ सकती थीं।

थोड़ी देर में गणराज ने बेल बजाया। बिटिया ने दरवाज़ा खोला। माँ ने जो खेस और चादरें निकालकर रखी थीं उसके हाथ में रख दिए। वह देखता ही रहा।

इतने में सरला ने अपने बेटे को आवाज लगाई और कहा, दरवाजे पर गणराज खड़ा है उसे ये भोग चढ़ा दो। ” एक ठोंगे में चार आलू के पराँठे बाँध दिए। बेटे ने वे पराठें भी गणराज को दिए और कहा, ” भैया, पराँठे गरम हैं अभी खा लेना। ”

आँखों में आँसू लिए दुआएँ देता हुआ गणराज वहाँ से चला गया। अपने आप से कह रहा था आज समझ में आया कि मोहल्ले वाले मलिक साहब के पीछे उन्हें *उदार कर्ण कहकर क्यों संबोधित करते हैं!!!*

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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