हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कॉवर्ट इनसेस्ट ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।

आज प्रस्तुत है समाज को आईना दिखाती हृदय को झकझोर देने वाली एक विचारणीय कथा  ‘कॉवर्ट इनसेस्ट’।)

 ☆ कथा कहानी ☆ कॉवर्ट इनसेस्ट ☆

एक कमरा। कमरे की खिड़कियां बंद और पर्दे खिंचे हुए। एक मेज पर दो मोमबत्तियां जल रही हैं। तीन युवक तथा एक युवती मेज के चारों ओर चार कुर्सियों पर बैठे हैं। मेज पर एक सफेद ड्राइंग शीट बिछी है। शीट पर आंग्ल वर्णमाला के सभी अक्षर बड़े आकार में अंकित हैं। उस चार्ट के ऊपरी सिरों पर एक तरफ ‘यस’ और दूसरी ओर ‘नो’ लिखा है।

उन युवकों से एक युवक कुर्सी छोड़कर उठ गया। उसके एक हाथ में एक छोटी कटोरी, एक रूपए का एक सिक्का, दूसरे हाथ में एक जलती हुई मोमबत्ती तथा एक अगरबत्ती है। उन्हें लेकर वह कमरे की छत के एक किनारे पर जाकर, मोमबत्ती को मुंडेर पर खड़ा करता है। कटोरी में सिक्का डालकर, सुलगती हुई अगरबत्ती का धुआं कटोरी में घुमाते हुए बुदबुदाता है, ‘‘ओ…इन्नोसेंट सोल! प्लीज कम…।’’ वह, तकरीबन तीन मिनट तक उस वाक्य को दोहराता रहता है। सहसा, मोमबत्ती की लौ लहराने लगती है मानों वायु का तीव्र संचरण हो रहा हो जबकि वस्तुस्थिति में वायु का प्रवाह अति मंद है।

अचानक युवक का बुदबुदाना रूक जाता है। वह चारों वस्तुओं को लेकर कमरे में उतर आता है। मोमबत्ती और अगरबत्ती को टेबल पर लगाकर, कटोरी को ड्राइंगशीट पर उल्टी रख देता है और अपनी एक अंगुली उस पर रख देता है। यह देख, तीनों जने अपनी तर्जनी कटोरी पर रख देते हैं। अब, आव्हानकर्त्ता प्रश्न करता है, ‘‘ए निर्दोष आत्मा! क्या तुम हमारे सवालों का उत्तर देने को तैयार हो?’’ कटोरी सरक कर ‘यस’ पर आ जाती है। वह युवक पूछता है, ‘‘क्या तुम कल होने जा रही हमारी परीक्षा के प्रश्नों के बारे में बता दोगी?’’

कटोरी पहले ‘नो’ की ओर सकरती है फिर ‘यस’ पर लौट आती है। चारों के चेहरे खिल उठते हैं। दूसरा युवक उत्साह में आकर कहता है, ‘‘लेट, टेल द क्वेश्चन्स।’’ कटोरी वर्णमाला के एक एक अक्षर के ऊपर से गुजरती है और वाक्य बनता है, ‘‘आई हेट यू।’’ युवक का चेहरा उतर जाता है। अब, लड़की बोलती है, ‘‘प्लीज, बता दीजिए…।’’ कटोरी फिर से अक्षरों पर घूमती है- ‘‘आई लव यू।’’ युवती पानी पानी हो जाती है। उसे लड़कों की अंगुलियों पर संदेह होने लगता है।

आव्हानकर्त्ता युवक, ‘‘लगता है कोई बेड स्प्रिट आ गयी है।’’ वह छत पर जाकर, उस आत्मा को गुडबॉय कर, पुनः पहले वाली प्रक्रिया दोहराने लगता है। चार मिनट बाद वह फिर से टेबल पर है। फिर से प्रश्न किए जा रहे है किन्तु कटोरी कभी यस पर और कभी नो पर जा रही है। लड़की इसे साथी लड़कों की शरारत समझ रही है। उसका संदेह गहराता जा रहा है। एकाएक, कटोरी चार्ट के अक्षरों पर घूमने लगती है और शब्द बनते हैं- ‘कार्वट इनसेस्ट’। युवती सिहरकर अपनी अंगुली हटा लेती है। तभी लड़कों की अंगुलियों के नीचे से कटोरी छिटककर ड्रांइग शीट के मध्य में पहुचकर सीधी हो जाती है। दोनों मोमबत्तियां भी बुझ गयीं और कमरे में अंधेरा व्याप्त हो गया किन्तु बुझी हुई मोमबत्ती की बत्तियों की मंद होती ललाई से उठती धुंए की लकीरें का कटोरी की ओर जाने का अभास उन चारों को हो रहा है। शनैः शनैः कटोरी के इर्द-गिर्द एक प्रकाशवृत बन गया है और वहां एक छायाकृति उभर आयी- तीन वर्ष की एक बालिका। क्षत-विक्षत शरीर। मिट्टी के एक ढेर पर बैठी, मुट्ठी भर भर कर मिट्टी फांके जा रही है। *

पांच पल के बाद दृश्य परिवर्तित हो जाता है और वहां एक दूसरी आकृति उभरती है। अब, एक किशोरी का अक्स है। शरीर पर अधफटा कुर्त्ता है किन्तु सलवार नदारद है। चेहरा झुलसा हुआ। सामने आग जल रही है और वह लपलपाती हुई ज्वाला में अपने खुले मुंह को डाल रही है मानों उस आग को पी लेना चाहती हो।*

 कुछ देर बाद फिर से परिवर्तन हुआ- अब, एक अधेड़ औरत की छाया है। ब्लॉउज रहित श्वेत वसन में अध लिपटी देह। उसकी साड़ी तथा केश यूं फड़फड़ा रहे हैं मानों सामने से प्रचंड पवन प्रवाहित हो रही हो। वह स्त्री अधलेटी अवस्था में इस प्रकार मुख को खोले हुए थी कि सम्पूर्ण वायु को अपने शरीर में समाहित कर लेना चाहती हो।* कुछ ही पलों बाद चौथी छवि कटोरी के ऊपर उभरती है। एक कृशकाय वृद्धा चित पड़ी हुई अपनी छाती और पेट को पीट पीट कर हाय…पूतो…हाय…पूतो करती जा रही है।*

सहसा, तीव्र धमाके की ध्वनि हुई जैसे कमरे में कोई भारी वस्तु गिर गयी हो। भयाक्रांत युवकों में से एक ने मोबाइल की टॉर्च जलायी। युवती कुर्सी से फर्श पर गिरी हुई थी। उसके झाग भरे मुख से शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे- ‘‘कॉर्वट इनसेस्ट…कॉर्वट इनसेस्ट…।’’ *

*पाद टिप्पणी:- कुटुम्बीय व्यभिचार- हवस की शिकार पांच छवि  1.  तीन वर्षीय भतीजी।   2. एक बहन। 3. एक विधवा। 4. एक दादी  5. बाल्यावस्था में कुत्सित छेड़छाड़ की स्मृतियां ताजा हो जाने से सुधबुध खोई युवती।

© प्रभाशंकर उपाध्याय

सम्पर्क : 193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

मो. 9414045857, 8178295268

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #70 – ईश्वर की पूजा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #70 – ईश्वर की पूजा ☆ श्री आशीष कुमार

मन को वश करके प्रभु चरणों मे लगाना बडा ही कठिन है। शुरुआत मे तो यह इसके लिये तैयार  ही नहीं होता है। लेकिन इसे मनाए कैसे? एक शिष्य थे किन्तु उनका मन किसी भी भगवान की साधना में नही लगता था और साधना करने की इच्छा भी मन मे थी।

वे गुरु के पास गये और कहा कि गुरुदेव साधना में मन लगता नहीं और साधना करने का मन होता है। कोई ऐसी साधना बताए जो मन भी लगे और साधना भी हो जाये। गुरु ने कहा तुम कल आना। दुसरे दिन वह गुरु के पास पहुँचा तो गुरु ने कहा सामने रास्ते मे कुत्ते के छोटे बच्चे हैं उसमे से दो बच्चे उठा ले आओ और उनकी हफ्ताभर देखभाल करो।

गुरु के इस अजीब आदेश सुनकर वह भक्त चकरा गया लेकिन क्या करे, गुरु का आदेश जो था। उसने 2 पिल्लों को पकड कर लाया लेकिन जैसे ही छोडा वे भाग गये। उसने फिरसे पकड लाया लेकिन वे फिर भागे।

अब उसने उन्हे पकड लिया और दूध रोटी खिलायी। अब वे पिल्ले उसके पास रमने लगे। हप्ताभर उन पिल्लो की ऐसी सेवा यत्न पूर्वक की कि अब वे उसका साथ छोड नही रहे थे। वह जहा भी जाता पिल्ले उसके पीछे-पीछे भागते, यह देख  गुरु ने दुसरा आदेश दिया कि इन पिल्लों को भगा दो।

भक्त के लाख प्रयास के बाद भी वह पिल्ले नहीं भागे तब गुरु ने कहा देखो बेटा शुरुआत मे यह बच्चे तुम्हारे पास रुकते नही थे लेकिन जैसे ही तुमने उनके पास ज्यादा समय बिताया ये तुम्हारे बिना रहनें को तैयार नही है।

ठीक इसी प्रकार खुद जितना ज्यादा वक्त भगवान के पास बैठोगे, मन धीरे-धीरे भगवान की सुगन्ध, आनन्द से उनमे रमता जायेगा। हम अक्सर चलती-फिरती पूजा करते है तो भगवान में मन कैसे लगेगा?

जितनी ज्यादा देर ईश्वर के पास बैठोगे उतना ही मन ईश्वर रस का मधुपान करेगा और एक दिन ऐसा आएगा कि उनके बिना आप रह नही पाओगे। शिष्य को अपने मन को वश में करने का मर्म समझ में आ गया और वह गुरु आज्ञा से भजन सुमिरन करने चल दिया।

बिन गुरु ज्ञान कहां से पाऊं।।।

सदैव प्रसन्न रहिये।

जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अफ़सोस ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “अफ़सोस)

☆ लघुकथा – अफ़सोस ☆

“क्या बात है विष्णु, इतना परेशान-सा क्यों है यार?” रविंदर ने पूछा।

“परेशान नहीं यार, पर गुस्सा आ रहा है।” विष्णु बोला।

“किस बात का, बता तो?” रविंद्र ने फिर पूछा।

“मुझे मलेशिया में हो रही अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खेल प्रतियोगिताओं के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालयों से खिलाड़ियों का चयन करके ले जाना है।” विष्णु ने कहा, जो चयन करने वाली कमेटी का प्रधान था।

“तो इसमें परेशानी क्या है? वह तो तुम परफॉर्मेंस के आधार पर चयन कर लो सीधा-सीधा।” रविंद्र ने कंधे उचकाते हुए कहा।

“क्या खाक चयन कर लूं? दो-चार को छोड़कर लगभग सभी उन खिलाड़ियों के नाम विश्वविद्यालयों द्वारा भेजे गए हैं, जिनकी बड़े-बड़े लोगों की सिफारिशें हैं। बाहर जाने का मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता, पदक आए या ना आए, उनकी बला से,” विष्णु ने खीझ कर कहा, “और जो सही में प्रतिभावान हैं और पदक ला सकते हैं, उनका नाम ही नहीं है।”

“यार तुम्हारी बात से बचपन की एक बात याद आ गई,” रविंद्र ने हंसते हुए कहा, “जब भी घर में कोई चीज जैसे मिठाई वगैरह आती थी, तो हम सभी भाई बहन अलग-अलग से चोरी-चोरी, चुपके-चुपके एक-एक टुकड़ा उठा-उठा कर, यह सोचकर खाते रहते थे कि किसी को क्या पता चलेगा, एक ही टुकड़ा तो लिया है, और इस तरह सारा डब्बा खाली हो जाया करता था। बाद में मां-बाबूजी से डांट भी खानी पड़ती थी।”

“यही तो चिंता का विषय है मेरे लिए। मेरे देश का भी यही हाल हो रहा है। थोड़ा-थोड़ा करके सभी लोग भ्रष्टाचार करते जा रहे हैं, और सोच रहे हैं कि क्या फर्क पड़ेगा, और इधर पूरा देश भ्रष्टाचारी और खोखला होता जा रहा है,” विष्णु कह रहा था, “और अफसोस इस बात का है कि यहां कोई मां-बाबूजी भी नहीं हैं, रोकने या डांटने-फटकारने वाले…।”

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा ‘कहानियाँ’।)

☆ लघुकथा – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

माँ के पास सैंकड़ों कहानियाँ थीं। हर कहानी में एक राजा होता। राजा पर संकट आते, वह हर संकट को हराता और ख़ुशी-ख़ुशी राज करने लगता। कहानी के अंत में माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही हम भी ख़ुश बसें।

कुछ सालों बाद- कहानी का अन्तिम वाक्य तो यही बना रहा, पर जैसे ही माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही हम भी ख़ुश बसें- उसके होठों पर एक धिक्कारती सी हँसी आ विराजती।

कुछ और सालों बाद- कहानी के अन्तिम वाक्य में अचानक ही हम की जगह तुम आ गया। अब माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही तुम भी ख़ुश बसो। खुशियों की इस मनवांच्छित नगरी से माँ के आत्मनिर्वासन को हम बूझ ही नहीं पाए।

फिर एक दिन कहानी में से राजा ग़ायब हो गया। हममें से किसी ने माँ से नहीं पूछा कि राजा कहाँ गया? हमने राजा की गुमशुदगी को चुपचाप स्वीकार कर लिया।

और फिर एक दिन राजा की कहानियाँ भी गुम हो गईं। हमें पता ही नहीं चला कि हम ख़ुद कब ऐसी कहानियों में तब्दील हो गये थे, जिन्हें कोई सुनना नहीं चाहता था।

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – प्रेम का सुख ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “प्रेम का सुख।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 ☆

☆ लघुकथा — प्रेम का सुख ☆ 

” इतनी खूबसूरत नौकरानी छोड़कर तू उसके साथ।”

” हां यार, वह मन से भी साथ देती है।”

” मगर तू तो खूबसूरती का दीवाना था।”

” हां। हूं तो?”

” तब यह क्यों नहीं,”  मित्र की आंखों में चमक आ गई, ” इसे एक बार……”

” नहीं यार। यह पतिव्रता है।”

” नौकरानी और पतिव्रता !”

” हां यार, शरीर का तो कोई भी उपभोग कर सकता है मगर जब तक मन साथ ना दे…..”

” अरे यार, तू कब से मनोवैज्ञानिक बन गया है?”

” जब से इसका संसर्ग किया है तभी समझ पाया हूं कि इसका शरीर प्राप्त किया जा सकता है, मगर प्रेम नहीं। वह तो इसके पति के साथ है और रहेगा।”

यह सुनकर मित्र चुप होकर उसे देखने लगा और नौकरानी पूरे तनमन से चुपचाप रसोई में अपना काम करने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ??

हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे, जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।

हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।

हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।

हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।

हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

बेरोजगारी की लंबी रात के बाद उम्मीद की रोशनी की किरण नजर आई जब असहमत को एक प्राइवेट कंपनी में sales executive के लिये इंटरव्यू कॉल आया. परिवार के लोग खुश थे और असहमत पर बिन मांगी सलाहों की बौछार कर दी. असहमत अपने स्वभाववश उन्हें नजरअंदाज करता गया.  ऐसे समय पर जो भारतीय मातायें होती हैं वे वही करती हैं जो उनसे अपेक्षित होता है याने भगवान से प्रार्थना उनकी संतान की सफलता के लिये और I promise to pay की तर्ज पर सफल परिणाम आने के बाद मंदिर में लड्डू रूपी प्रसाद चढ़ाना.  जहाँ तक इंटरव्यू के लिये ड्रेस का सवाल था तो कोट का मौसम नहीं था तो उसे प्लेन लाईट कलर शर्ट, टाई, डार्क कलर पैंटऔर ब्लेक लेदर शूज़ पहनने के निर्देश दिये गये पिताजी की तरफ से.  पर जब असहमत इंटरव्यू देने कंपनी के ऑफिस पहुंचा तो उसने गर्मी के हिसाब से हॉफ शर्ट, लाईट कलर पेंट और बहुत लाइट वेट स्पोर्टिंग शूज़ पहन रखे थे.  कंठलंगोट याने टाई गायब थी पर असहमत इस लुक में बहुत सहज महसूस कर रहा था.  ऑटो से आने के कारण धूल और गर्म हवा से बचाव होना उसके मूड को खुश कर गया और हॉल में बैठे अनेक कैंडीडेट्स के साथ वो भी वेटिंग हॉल में बैठ गया. कंपनी के बारे में, पैकेज़ के बारे में और अनुमानित काम के बारे में लोग अपने अपने प्वाइंट रख रहे थे और असहमत ये सब सुनकर सिर्फ अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था.  

आखिरकार उसका नंबर आ ही गया और वो उस चैंबर के बाहर खड़ा हो गया. जैसे ही कॉलबेल बजी, बाहर बैठे स्टॉफ ने उसे अंदर जाने का इशारा किया और असहमत धड़ाक से अंदर घुस गया.  उसके इस बैकग्राउंड साउंड के साथ प्रवेश ने साक्षात्कार बोर्ड के सदस्यों का ध्यानाकर्षित किया जो इंटरव्यू देकर गये व्यक्ति के बारे में डिस्कस कर रहे थे.  “कॉफी बाद में लाना पहले नेक्सट कैंडिडेट को भेज दो” ये सब शायद असहमत के पहनावा या प्रवेश प्रक्रिया का असर था जिससे असहमत बेअसर रहा और उसने निर्विकार रूप और निडरता से जवाब दिया “I am the one to be interviewed and I don’t mind to be interviewed on a cup of coffee”. ऐसा बंदा पाकर पूरा बोर्ड निहाल हो गया.  

यहां पर जो बोर्ड के ऑफीसर सवाल पूछेंगे, उन्हें अधि.  के नाम से लिखा जायेगा और असहमत का शार्ट फार्म अस.  लिखा जायेगा.

अधि.  You came here for an interview, not for a coffee and you should ask for permission to come in.

अस. May I take my seat and we can discuss such petty issues later.

अधि.Yes you can sit but mind your selection of words, it is an interview not a discussion with a high profile guest.

अस. Thanks and sorry for a seat and my selection of words. Now my answers will be “to the point and logical “

अधि.  What you are wearing is not fit to the occasion, you should wear formals.

असहमत :  My dress is neither formal nor casual but it is seasonal, I mean comfortable. Now let us come to the point if you don’t mind it Sir.

असहमत का ये इंटरव्यू शायद इतिहास में अपना अलग स्थान बनाने जा रहा था हालांकि जॉब मिलने की उम्मीद का ग्राफ हर जवाब के साथ नीचे जा रहा था.

बोर्ड के अधिकारियों की सोच बहुत पॉजीटिव थी और असहमत का व्यक्तित्व उन्हें चुनौती दे रहा था तो उन्होंने इस इंटरव्यू को अपने लिये एक चैलेंज माना कि ये अदना सा लड़का बोर्ड के सामने इस तरह की हिमाकत कैसे कर सकता है.

अधि. आपका नाम

अस.असहमत

अधि.पूरा नाम

अस.  यही है, घर, स्कूल, कॉलेज और अगर सफल हुआ तो ऑफिस में भी

अधि.  And do you think that your attitude of this size will get you a seat in our company.

अस.  Why not sir, my designation will be sales executive and attitude plays an important role in the field of marketing.

अधि.  How???

असहमत  People ie. my targeted hub will not be impressed by a meek and submissive personality. I will impress them to think out of box and take a innovative decision to invest in my product.

शायद बोर्ड के लिये ये बंदा असहमत नहीं बल्कि अनपेक्षित लगा तो दूसरे अधिकारी ने बॉलिंग का जिम्मा संभाला और बाउंसर डाली

अधि.  “Why you choose this company for employment “

अस. Because I got this interview call from your company only and I don’t have any other options.

अधि.  And why you think that we should select you when we have so many options.

असहमत: I know you have many but I am talented, fearless person with so many new ideas and believes in experimenting with my approach. This attitude may cost me some times but I am confident that gathering of you great people here is to select right and best person for the task.

पानी बोर्ड के सर से ऊपर जा रहा था पर ये पारंपरिक इंटरव्यू बोर्ड नहीं था बल्कि सदस्य भी नयेपन को खोज़ रहे थे तो बॉलिंग का जिम्मा तीसरे सदस्य को दिया गया.  

अधि.  : अच्छा मि. असहमत ये बतलाइये कि अगर आपके सेल्स प्रमोशन में आपकी स्पर्द्धा अमिताभ बच्चन, रनबीर, दीपिका और रणधीर से हो हालांकि ऐसा होगा तो बिल्कुल नहीं पर फिर भी अगर ऐसा हो  ही गया तो आप अपना प्रोडक्ट कैसे प्रमोट करेंगे.  

असहमत : ये तो कोई चैलेंज ही नहीं है  सर, पहले सज्जन एक वॉशिंग पाउडर का, दूसरा couple टॉयलेट सीट पर खड़ा होकर एक मोबाइल नेटवर्क और सिम का और तीसरा बंदा एक अल्टिमा पेंट से सजे घर के दम पर लड़कियों को शादी के लिये रिझाता है जो कि पूरी तरह अविश्वसनीय और illogical है.  इनके अलावा एक महाशय के डॉलर अंडरवियर पर कस्टम ऑफीसर अपना रोल या ड्यूटी भूल जाती है.  लोग इसे क्रिकेट मैच के दौरान या वैसे भी बार बार देखकर देखकर पक चुके हैं.  तो वो तो खीज़कर इनके प्रोडक्ट के अलावा दुनियां का हर प्रोडक्ट इस्तेमाल करने को तैयार हैं.  इनकी टैग लाइनें भी क्रिकेट की बॉल से ज्यादा घिस गई हैं जो न तो स्विंग हो रही हैं न ही स्पिन.  तो जनता न तो इनकी बातों पर विश्वास करती है और न ही इस्तेमाल करती है.  

इस जवाब से लाजवाब होकर और जब किसी प्रश्न पूछने का औचित्य बोर्ड को नजर नहीं आया तो असहमत को इंटरव्यू खत्म होने और जाने का आदेश मिला. लेकिन ये तो असहमत था आखिर बाहर जाते हुये पूछ ही लिया कि “Shall I presume my self selected for the company Sir.  

जवाब बोर्ड के चेयरमैन ने दिया ” आपने इस इंटरव्यू को एक रियल्टी शो जैसा लिया है इस बात की हम सबको बहुत खुशी है, मज़ा भी बहुत आया पर फैसला भी रियल्टी शो की तरह से ही होगा याने हम जज लोग तो डिसाइड कर चुके हैं पर पब्लिक आपको वोट कितना करती है, ये भी मैटर करेगा.  

तो पब्लिक ये डिसाइड करे कि असहमत इस जॉब के लिये select होना चाहिए या reject. Like का मतलब भी सिलेक्टे ही माना जायेगा. Pl. disclose your opinion and vote for Asahmat.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #69 – साधन और साध्य ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #69 – साधन और साध्य ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी  नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता ‘है।

तानसेन ने कहा,क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे: गुरु अभी जिन्दा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं!

बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा, इसीलिए कभी मैंने उनकी बात नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्‍क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पड़ुगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुननेवाला नहीं। जहां कभी—कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार मे न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं।

तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़ेगा, कैसे सुनना पड़ेगा? तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं—हरिदास उनका नाम है—हम रात में चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार (जरूर सुबह—सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा।.. शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने, अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो!.. लेकिन अकबर गया।

दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना सै आये और उन्होंने अपनी वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।

आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो. चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद ‘हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!

अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन—आसमान का फर्क है।

तानसेन ने कहा – कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्‍धि की,किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशार्फेयों से? जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य,वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में बहुत फर्क है, साधन ही साध्य है; ओर मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथाएं – लघुकथाएं – [1] शौक  [2] कितना बड़ा दुख … ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं – [1] शौक  [2] कितना बड़ा दुख … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

[1]

शौक

-सुनो यार , हर समय बगल में कैसी डायरी दबाए रखते हो ?

-यह …यह मेरा शौक है ।

-यह कैसा अजीब शौक हुआ ?

-मेरे इस शौक से कितने जरूरतमंदों का भला होता है ।

-वह कैसे ?

-इस डायरी में  सरकारी अफसरों के नाम, पते, फोन नम्बरों के साथ साथ उनके शौक भी दर्ज हैं ।

-इससे क्या होता हैं ?

-इससे यह होता हैं कि जैसा अफसर होता हैं वैसा जाल डाला जाता हैं । जिससे जरूरतमंद का काम आसानी से हो जाता हैं ।

-तुम कैसे आदमी हो ?

-आदमी नहीं । दलाल ।

और वह अपने शौक पर खुद ही बड़ी बेशर्मी से हंसने लगा ।

[2] 

कितना बड़ा दुख … 

-लाइए बाबू जी । पांच हजार रुपये दीजिए ।

-किसलिए ?

-यह ऊपर की फीस है रजिस्ट्री करवाने की । यदि यह अदा न की गयी तो रजिस्ट्री पर कोई न कोई आब्जेक्शन लग जायेगा और मामला फंसा रहेगा ।

दरअसल मैं प्रॉपर्टी डीलर के साथ अपने प्लाॅट की रजिस्ट्री करवाने गया था तहसील दफ्तर । इससे पहले प्रॉपर्टी डीलर नीचे के बाबुओं को सौ सौ रुपये देने को कहता रहा और मैं देता गया । पर अब एकसाथ पांच हजार ? दिल धक्क् से रह गया । आखिर मैंने फैसला किया ।

-अब आप ये कागज़ मुझे दो । मैं जाता हूं तहसीलदार के पास ।

-बाबू जी । काम बिगड़ जायेगा ।

-कोई बात नहीं । बहुत हो गया और आपने बहुत खुश कर लिया बाबुओं को । अब लाओ कागज़ मैं देखता हूं ।

प्रॉपर्टी डीलर ने कागज़ कांपते हाथों से मुझे सौंप दिये ।

मैंने अपना कार्ड भेजा और बुलावा आ गया साहब का ।

-बताइए क्या काम है ?

-यह मेरी रजिस्ट्री है । प्रॉपर्टी डीलर पांच हजार देने को कह रहा है । क्या ये देने ही पड़ेंगे?

साहब ने मेरा विजिटिंग कार्ड देखा और पत्रकार पढ़ते ही चौंके और मेरा काम धाम पूछा और चाय भी मंगवाई । चाय की चुस्कियों के बीच कागज़ के बिल्कुल टाॅप पर हरे पेन से निशान लगा मानो ग्रीन सिग्नल दे दिया और कागज़ लौटाते हुए कहा -किसी को कुछ देने की जरूरत नहीं । जाइए अपनी रजिस्ट्री करवाइए ।

मैं प्रॉपर्टी डीलर के साथ अगली विंडो पर पहुंचा । वहां एक सुंदर सलोनी महिला विराजमान थी । उसने ग्रीन सिग्नल देखते ही ज़ोर से अपना माथा पीटा और बोली -आज साहब को पता नहीं क्या हो गया है ? यह दूसरी रजिस्ट्री है जो मुफ्त में की जा रही है ।

मैं हैरान था उस सुंदरी के इतने बड़े दुख को जानकर…

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 97 – लघुकथा – मजबूर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “मजबूर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 97 ☆

☆ लघुकथा — मजबूर ☆ 

जैसे ही कार रुकीं और ड्राइवर उतरा, वैसे ही ‘क’ ने ड्राइवर सीट संभाल ली। तभी कार के अंदर बैठे हुए ‘ब’ ने कहा,” अरे! कार रोको। वह भी रतनगढ़ जाएगा।”

” अरे नहीं!” ‘क’ ने जवाब दिया,” वह रतनगढ़ नहीं जाएगा।”

इस पर ‘ब’ बोला,” उसने घर पर ही कह दिया था। मैं अपनी कार से नहीं चलूंगा। आपके साथ चलूंगा।”

” मगर अभी थोड़ी देर पहले, जब वह अपनी कार से उतर रहा था तब मैंने उससे पूछा था कि रतनगढ़ जाओगे? तो उसने मना कर दिया था,” यह कहते हुए ‘क’ ने ड्राइवर सीट की विंडो से गर्दन बाहर निकाल कर जोर से पूछा,” क्यों भाई! रतनगढ़ चलना है क्या?”

उसने इधर-उधर देखा। ” नहीं,” धीरे  से कहा। और ‘नहीं’ में गर्दन हिला दी। यह देखकर ‘ब’ कभी उसकी ओर, कभी ‘क’ की और देख रहा था। ताकि उसके मना करने का कारण खोज सके।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-12-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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