हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ घोडा, न कि …. ☆ डॉ सुरेश कान्त

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

डॉ सुरेश कान्त

 

(हम प्रख्यात व्यंग्यकार डॉ सुरेश कान्त जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने इस अवसर पर अपने अमूल्य समय में से हमारे लिए यह व्यंग्य रचना प्रेषित की. आप  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. वर्तमान में हिन्द पाकेट बुक्स में सम्पादक हैं। आप भारतीय स्टेट बैंक के राजभाषा विभाग मुंबई में  उप महाप्रबंधक पद पर थे।  महज 22 वर्ष की आयु में ‘ब’ से ‘बैंक जैसे उपन्यास की रचना करने वाले डॉ. सुरेश कान्त जी  ने बैंक ही नहीं कॉर्पोरेट जगत की कार्यप्रणाली को भी बेहद नजदीक से देखा है। आपकी कई  पुस्तकें प्रकाशित।)

☆ व्यंग्य – घोड़ा, न कि… ☆

 

शहर के बीचोबीच चौक पर महात्मा गांधी की मूर्ति लगी थी।

एक दिन देर रात एक राजनीतिक बिचौलिया, जिसकी मुख्यमंत्री तक पहुँच थी, उधर से गुजर रहा था कि अचानक वह ठिठककर रुक गया।

उसे लगा, मानो मूर्ति ने उससे कुछ कहा हो।

नजदीक जाकर उसने महात्मा से पूछा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं, और कि क्या वह उनके लिए कुछ कर सकता है?

महात्मा ने उत्तर दिया, “बेटा, मैं इस तरह खड़े-खड़े थक गया हूँ। तुम लोगों ने सुभाष, शिवाजी वगैरह को घोड़े दिए हैं…मुझे भी क्यों कुछ बैठने के लिए नहीं दे देते?…क्या तुम मुझे भी एक घोड़ा उपलब्ध नहीं करा सकते?”

बिचौलिए को दया आई और उसने कुछ करने का वादा किया।

अगले दिन वह मुख्यमंत्री को ‘शिकायत करने वाले’ महात्मा का चमत्कार दिखाने के लिए वहाँ लेकर आया।

मूर्ति के सामने खड़ा होकर वह बोला, “बापू, देखो मैं किसे लेकर आया हूँ! ये आपकी समस्या दूर कर सकते हैं।”

महात्मा ने मुख्यमंत्री को देखा और फिर नाराज होकर बिचौलिये से बोले, “मैंने तुमसे घोड़ा लाने के लिए कहा था, न कि…!”

 

© डॉ सुरेश कान्त

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री प्रेम जनमेजय

(-अभिव्यक्ति  में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम.  आपने न केवल हिंदी  व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी  साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों  का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है.  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)

 

☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆

 

मैं बीच चौराहे पर बैठा था। मेरे साथ गांधी जी भी चौराहे पर थे। जहां गांधी, वहां देश। देश भी चौराहे पर था। इसे आप देश का गांधी चौराहा भी कह सकते हैं। मैं जिंदा था और किसी उजबक- सा आती -जाती भीड़ को देख रहा था। गांधी जी मूर्तिवान थे और भीड़ में से कुछ उजबक उन्हें देख रहे थे। और देश..! सत्तर वर्षीय देश को जो करना चाहिए वही कर रहा था। या कह सकते हैं जो करवाया जा रहा वह कर रहा था। सत्तर की उम्र होती ही ऐसी है।

मैं देश की आजादी के डेढ़ वर्ष बाद पैदा हुआ हूँ, और गांधी जी को पैदा हुए डेढ़ सौ वर्ष होने वाले हैं। अभी दो अक्टूबर दूर था इसलिये चौराहे पर साफ -सफाई कम थी और सजावट, विरोधी पार्टी-सी, खिसियाई हुई थी। मूर्ति पर बाढ़ का असर नहीं पड़ा था अतः धुलनी शेष थी।

देखा एक मार्ग से पांडेय जी आ रहे हैं। शेयर बाजार के सैंसेक्स-सी तेजी में थे।चेहरा आर्थिक मंदी में मिली राहत -सा प्रसन्न था।  मुझे देख मेरे पास आए, हाउडी किया और बोले–सब बढ़िया हो गया।’’

मैंने पाकिस्तानी स्वर में पूछा- क्या बढ़िया हो गया?’’

पांडेय जी आर्टीकल 370 के हटने की प्रसन्नता वाले स्वर में चहके-गांधी जी पर सेमिनार का बड़ा बजट अप्रूव हो गया।  बड़े-बड़े लोगों को बुलाऊंगा  और बड़े हॉल में गांधी जी पर बड़ा सेमिनार करवाऊंगा। बड़े लोग हवाई जहाज से आऐंगे, बढ़िया होटल में ठहरेंगे।  जल्दी में हूँ फिर मिलता हूँ… देखता हूं… तुझे भी शायद बुलाऊँ  … विराट आयेजन होगा ।’’ पांडेय जी ने मेरी ओर चुनावी आश्वासन-सा टुकड़ा फेंका। मुझे आज तक माता के विराट जगरातों के निमंत्रण मिले थे,… गांधी पर विराट आयोजन…

पांडेय जी सेमिनार प्रस्ताव के मार्ग से आए थे और विराट आयोजन की ओर चल दिए। मैं वहीं का वहीं चौराहे पर था। तभी देखा राधेलाल जी बगल में गांधी के विचारों की किताबों के बंडल से लदे आ रहे हैं। बोझ से इतने दबे थे कि ढेंचू भी नहीं बोल पा रहे थे। मैंने पूछा -अरे ! पूरी लाइब्रेरी लिए कहाँ जा रहे हैं?’’

गांधीवादी तोता बोला -कम्पीटिशनवा की तैयारी कर रहे हैं,न। गांधी पर बहुत कुछ पूछा जाने वाला है। बहुत कुछ रटना है। टाईमों नहीं है। कुछ जुगाड़ जमा सकते हो तो बोलो, रुक जाते हैं। हमका किसी तरह पास करवा दो …’’

मैंने कहा – आप तो जानते हैं राधेलाल जी कि मैं…’’

– हम खूब जानते हैं आपको मास्टर जी! आप तो गांधी के सिद्धांत ही पढ़ा सकते हो… बकरी की मेंमने हो… चलते हैं।’’

तोता जी चले गए और देशसेवा मार्ग से सेवक जी आ गए। सेवक जी शाम को स्कॉचमय होते हैं, इस समय खादीमय हो रहे थे, । दो अक्टूबर को हाथ भी नहीं लगाते। सब सेवक उन जैसे नहीं हैं। कुछ ने तो गांधी जी के आदर्श पर चलते पूरी तरह अपनी शराब बंदी कर ली है पर सत्ता का नशा नहीं त्यागा जाता। गांधी जी ने बहुत मार्ग बताए हैं, चलने के लिए। सब पर चलना कोई जरूरी है? अब गांधी जी ने कहा कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी भंग कर दी जाए… अब पार्टी भंग हो जाएगी तो हमारी देशसेवा का क्या होगा? प्रजातंत्र बर्बाद नहीं हो जाएगा!

दो मिनट मौन जैसा, सादगीपूर्ण  गांधी होना बहुत है। एक सौ पचासवें पर भी हो लेंगें। हर देशसेक अपनी पसंद के गांधी की महक से स्वयं को महका रहा है। गांधी जी का सत्य एक था पर गांधीवादियों के सत्य अनेक हैं। गांधीवादी अनेक हैं पर अनुयायी इक्का- दुक्का हैं। गांधी वोट-भिक्षा का साधन बन रहे हैं।

ब्लैक कैट से घिरे सेवक जी ने मुझ गरीब की ओर हाथ हिलाया और मुस्कराए जैसे बरसों से जानते हों। इससे पहले कि मैं उनके अभिवादन का उत्तर देता वे तेज कदम एक सौ पचास वाले राजमार्ग की ओर चल दिए।

चौराहे के चौथे मार्ग पर कुछ कुछ वीरानगी थी। उत्सुकतावश मैं उठा और उधर चल दिया। वहां जर्जर पड़ा आश्रम-सा मिला। जर्जर से आश्रम में जर्जर मनुष्य-से दिख रहे थे। वे न तो गांधीवादी थे और न गांधी के अनुयायी। इन अज्ञानियों को गांधी का ज्ञान भी न था, डेढ़ सौ वर्षीय उत्सव का ज्ञान कैसे होता! पर वे जी गांधी-सा जीवन रहे थे। वे अपना पखाना खुद साफ कर रहे थे। वे केवल लंगोटी जैसा कुछ पहने थे। वहां इक्का दुक्का बकरी भी मिमिया रही थी। वे आजादी से पहले के गांधी को, बिना जाने, जी रहे थे और आजाद हिंदुस्तान के  वोटर थे।

 

©  प्रेम जनमेजय

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ राजघाट का मूल्य ☆ श्री संजीव निगम

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1

श्री संजीव निगम

(सुप्रसिद्ध एवं चर्चित रचनाकार श्री संजीव निगम जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी पर केंद्रित लेखों से चर्चित. आप  हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के निदेशक हैं.  हिंदी के चर्चित रचनाकार. कविता, कहानी,व्यंग्य लेख , नाटक आदि विधाओं में सक्रिय रूप  से  लेखन कर रहे हैं. हाल में  व्यंग्य लेखन के लिए  महाराष्ट्र राज्य  हिंदी साहित्य अकादमी का आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार प्राप्त। कुछ टीवी धारावाहिकों का लेखन भी किया है. इसके अतिरिक्त 18  कॉर्पोरेटफिल्मों का लेखन भी। गीतों का एक एल्बम प्रेम रस नाम से जारी हुआ है.आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से 16 नाटकों का प्रसारण. एक फीचर फिल्म का लेखन भी.)

 

☆ व्यंग्य –राजघाट का मूल्य

 

बापू की समाधि पर एक मिनट मौन की मुद्रा में खड़े बाबू राम बिल्डर – सह- पार्टी पदाधिकारी ने अपनी झुकी गर्दन से टेढ़ी निगाहें चारों तरफ फेरीं और उनके कलेजे पर बोफोर्स दग गयी। करोड़ों रुपये की ज़मीन फ़ोकट में हथियाये क्या आराम से लेटे हैं बापूजी। यूँ जब तक जिए शरीर पर लंगोटी लपेटे देश की दरिद्रता का विज्ञापन बने रहे और मरने के बाद बड़े से कीमती पत्थर के नीचे लेट कर इतनी बेशकीमती ज़मीन पर पैर पसार लिए।

दिल्ली के बीचों बीच पड़ी इस भूमि का मूल्य आँकते आँकते बाबू राम जी के मुँह में मिनरल वाटर भर आया। ‘अगर ये ज़मीन हत्थे आ जाये तो क्या कहने? एक विशाल कमर्शियल सेंटर खड़ा हो जाए, स्विस बैंक में नए खाते खुल जाएँ और अरबों रुपये के करोड़ों डॉलर बन जाएँ।’

‘ पर यह सब इतना आसान कहाँ? ‘ बाबू राम जी का मौन समाप्त हो चुका था। उन्होंने मुँह ऊपर उठा कर खद्दर के कुर्ते से अपनी आँखों में उतर आयीं निराशा की बूंदों को पोंछा। उनकी इस मुद्रा पर कैमरे किलके और समाचार पत्रों में छपने के लिए एक बेहतरीन फोटो तैयार हो गया, शीर्षक ” बापू की स्मृति को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि”.

आज़ादी के तुरंत बाद बाबू राम जी के स्वर्गीय पिताश्री ने नेहरू जी की अगुवाई में देश के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाया था एक छोटी सी गैरकानूनी रिहायशी कॉलोनी बनाकर। उस  बस्ती के निर्माण के साथ ही उनकी जो विकास यात्रा आरम्भ हुई वह संकरी गली के एक कमरे से चलकर किराए के बंगले के चौराहे से घूमती हुई एक बड़ी किलेनुमा कोठी में जाकर समाप्त हुई।  अपनी भवन निर्माण संस्था की एक शाखा का स्वर्ग में उद्घाटन करने से पूर्व उन्होंने बाबू राम जी समेत पूरे परिवार को इस कर्मभूमि में पूरी ताकत के साथ झोंक दिया था।

उनके स्वर्गीय होने पर बाबू राम जी ने मोर्चा सम्भाला था।

बाबू राम जी ने अपने सेनापतित्व में अपने उद्योग को राजनीति  से बड़ी बारीकी से जोड़ते  हुए अपने विकास प्रवाह को अखंड सौभाग्य का गौरव प्रदान किया था।  उद्योग व राजनीति के इस गठबंधन ने बड़े बड़े विरोधी बिल्डरों के सिर घोटालों की तरह से फोड़ दिए और बाबू राम जी उन्हें रौंदते हुए आगे बढ़ते रहे।  इसी क्रम में वे हर बार सत्ता में आई पार्टी के प्रमुख व्यक्ति बने रहे और साथ साथ अन्य पार्टियों को भी समान भाव से उपकृत करते रहे।  इसलिए उनके द्वारा प्रस्तुत भवन निर्माण के प्रस्ताव हमेशा सर्व सम्मति से पास होते रहे।

इन्हीं सफलताओं की पृष्ठभूमि में बाबू राम जी की पीड़ा अधिक हो गयी। सिर पर रखी गाँधी टोपी उतार कर उससे पसीना पोंछा और टोपी वापस सिर पर रखने की बजाय जेब में डाल ली। जब गाँधी जी मरने के बाद भी इतना दुःख पहुँचा रहे  हैं तो उनके नाम वाली टोपी का बोझ ढोने का क्या मतलब है ?

एक बार उनके मन में आया भी कि  यह अनुपम योजना पास खड़े शहरी आवास मंत्री के कान में फूंक दें पर फिर यह सोच कर चुप रह गए कि आज़ादी के पचास साल और पाँच चुनाव लड़ने के बाद भी गाँधी के नाम की धुन बजाते रहने वाला यह राजनैतिक बैंडवाला अभी ज़ोर ज़ोर से ‘ पूज्य बापूजी, पूज्य बापूजी ‘ का ढोल पीटने लगेगा और सबके सामने अपने आपको चड्ढी बनियान की गहराई तक गाँधीवादी साबित करने लगेगा।  इस तरह यहाँ तो सबके सामने बेइज़्ज़त कर देगा, बाद में भले ही रात को घर आकर पैर छू लेगा तथा इतने अच्छे प्रस्ताव के लिए कुछ न कर पाने के गम में काजू के साथ दारु निगलेगा।

समाधि पर भजन चल रहे थे।  देश  के जागरूक नागरिक दरियों पर बैठे ऊँघ रहे थे पर बाबू राम जी थे कि अफ़सोस भरी आँखें फाड़े चारों तरफ बिछी इस शस्य श्यामला भूमि को निहार रहे थे।  काश यह ज़मीन उनके हाथ आ जाए तो कितना भव्य ‘ गाँधी कमर्शियल  सेंटर’ तैयार हो जाए जिसके बेसमेंट में गाँधी जी की समाधि रखी जाए।  इसी बहाने कमर्शियल सेंटर तक विदेशी पर्यटक भी  खूब आएँगे।

निकट भविष्य में तो उन्हें अपनी यह योजना सफल होती नज़र नहीं आ रही है। इसलिए राजघाट से घर वापिस लौटते समय उन्होंने सोचा कि यह योजना गोपनीय रूप से अपने बच्चों -पोतों के लिए विरासत में छोड़ जाएँगे। यदि कभी रूस से साम्यवाद की तरह से इस देश से गाँधीवाद सिमटा तो उनकी यह परिवार कल्याण योजना अवश्य सफल होगी और उनके बच्चे पोते उनकी स्मृति में सोने के पिंड दान करेंगे।

 

© संजीव निगम

मोबाईल : 09821285194
ईमेल.: [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे ☆ श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

 

(श्रीमती सुसंस्कृति परिहार जी पूर्व प्राचार्या एवं प्रसिद्ध  साहित्यकार हैं .  आप प्रलेसं सचिव मंडला सदस्य  हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. अपना अमूल्य समय देने के लिए आपका हार्दिक आभार. )

व्यंग्य – गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे

 

2 अक्टूवर 2019को हम महात्मा गांधी का 150वां जन्मदिन मना रहे हैं । हेप्पी बर्थ डे गांधी जी । बहुत बहुत बधाई आपको । क्या कहा -आपने भला मरने के बाद कोई ज़िंदा रहता है! हां, पर गांधी ज़िंदा है । वे अमर हैं । अभी आपने देखा नहीं वे अमरीका के ह्यूस्टन में हाऊडी मोदी कार्यक्रम में प्रकट हो गये । जहां भी जाते गांधी जी तन के खड़े हो जाते । भयातुर हो वे जल्दी जल्दी माला पहिनाते और परे हट जाते । भला सच के सामने झूठ आंख कैसे टिका सकता है ।

बहरहाल हम सब जानते हैं उन्हें एक हिंदुत्ववादी नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना सभा में जाते हुए गोलियों से भून दिया था । उनका देहान्त हो गया । वे धरा पर प्राप्त अपना पूरा जीवन नही जी पाए । हमारे यहां कहा जाता है कि जो हत्या या आत्महत्या से मरता है उसकी आत्मा भटकती रहती है । सचमुच गांधी की आत्मा भटक रही है ।लगता है उनका तर्पण तब तक नहीं होगा जब तक गांधी अपने देश को खुशहाल नहीं देख लेते !

इधर देश के हालात देखकर तो यह कयास लगाया जा सकता है कि वे लंबी अवधि तक टस से मस होने वाले नहीं हैं । सत्य  अहिंसा का पुजारी सत्य देख रहा है। नैतिकताओं का कहीं ओर-छोर नहीं । आदर्श तो उपहास की विषयवस्तु बन गया है । भाई-चारा की धज्जियां उड़ रहीं हैं। वैष्णव जन पराई पीर बढ़ाने में रत है । संवेदनाएं उड़न छू हो गई हैं । वर्ग भेद के क्या कहने! सफाई अभियान का नज़ारा तो इतना भयातुर कर गया कि दो दलित बच्चों पर कहर बरपा गया । जहां तक शांति का सवाल है चहुंओर दहशतज़दा शांति है, बड़ी संख्या में  सियार और कुत्तों की आवाजें सुनाई दे रही है । कई बाबा जैसे महात्मा जेल में सुकून से हैं । बलात्कार के अपराधी बेल पर हैं और बलात्कार पीड़िता जेल में हैं । मीडिया बिकाऊ है । अभिव्यक्ति पर पहरा है। लेखक पत्रकारों की कलम की ताकत को चट करने उतारू है । नन्हीं बच्चियों से लेकर वृद्ध महिला भी हवस का सामान है । बेरोजगारी  चरम पर है ।  मंहगाई और अमीर बनने की कामना ने इंसानी रिश्तों को तार तार कर रखा है । आपके रामराज्य की चूलें हिला दी गई हैं । कितना बदल गया हिंदुस्तान !अब न्यू इंडिया बन रहा है । तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना स्वरुप बदल रही हैं ।

हरि अनन्त हरि कथा अनंता । ये शिकायत है कि हमारे हर कार्य में आप बाधक हैं । कैसे करें देश का भला । अब आप सोचिए आपसे राष्ट्र पिता का दर्जा भी छिनने की पूरी तैयारी है आपको जनता ने ख़िताब बख्शा और…. । साम-दाम दंड-भेद की नीति को सब  बख़ूबी जानते हैं । कैसे आपका सपना यहां पूरा होगा ?

होगा ज़रूर होगा । आकाश वाणी हुई । मैं समझ गई गांधी कहीं नहीं जाने वाले। उनका इस्तकबाल करें । बेशक विचार कभी नहीं मरते और जनगर्जन जब होता है तो बड़े-बड़े सूरज अस्त हो जाते हैं । गांधी ज़िंदा है और सर्वदा रहेंगे । जन्मदिन मुबारक बापू ।

 

© श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

मंडला

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ रामायण में रहने की विशाल योजना* ☆ – श्रीमती समीक्षा तैलंग

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(आज प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  की व्यंग्य रचना रामायण में रहने की विशाल योजना.  समझ में नहीं आता कि इसे सामयिक कहूं या प्रासंगिक. चलिए यह निर्णय भी आप पर ही छोड़ देते हैं. )  

 

☆ व्यंग्य – रामायण में रहने की विशाल योजना*☆ 

 

उनको देखकर बड़ी ही शत्रु टाइप फीलिंग आती। बड़े बड़े शत्रु भी हडबडा जाएं जब लाउड आवाजों को कोई खामोश कर दे। सुनते ही भगदड़ मच जाती कि कहीं ये बंदा शॉटगन से हल्ले का शिकार न कर दे। लेकिन धीरे धीरे समझ आता गया कि ये केवल घन के शत्रु हैं। इसलिए तब से अपन का डर, खलीफा हो गया। हमारे जैसे तो इतने निट्ठल्ले कि एक शत्रु बनाने की हैसियत न रखते।

दुनिया में ऐसे कई उदाहरण मिलते, जिनका गले मिलना भी शत्रुता की मिसाल हैं। भरत मिलाप वो भी शत्रु के साथ…। वाह! यही तो सुंदरता है इस कलयुग की…। ऐसे मेल मिलापों में अक्सर एकाध राम भी पैदा हो जाते। बस भगवान बनने की ताकत न रखते।

उन्हें रामायण इतना आकर्षित करती कि वे रामायण में ही रहते, सोते, खाते। अपना कतरा कतरा रामायण को ही न्यौछावर कर देते। इतना कि रामायण के भीतर और बाहर रामायण के ही किरदार पाए जाते। लेकिन पाने और होने में वही फर्क है जो अरुण गोविल और श्रीराम में…।

किरदारों का क्या… कल के दिन राम के किरदार से निकलकर धृतराष्ट्र या दुर्योधन में घुस जायें। लेकिन हकीकत में तो वही रहेंगे, जो हैं…। सत्य को तो ग्रह भी नहीं झुठला पाए। किसी के पास एक चांद, तो किसी के पास दस-बारह।

भले भगवान के दोनों जुडवां पुत्रों का नाम लव कुश था। लेकिन ऐसा कहीं नहीं लिखा कि शत्रुघ्न अपने पुत्रों का वही नाम नहीं रख सकता। उन्होंने भी रखा। घर में सारे किरदार तैयार थे। असल रामायण में लवकुश की कोई बहन न थी। सो उन्हें कुछ अलग रखना पड़ा। सुनहरी आंखों वाली या झील सी आंखों वाली टाइप। नाम रखने में क्या कटुता…। विश्व की अलग अलग भाषाओं में नाम रखना आजकल का फैशन है।

लेकिन वे रामायण में रहते इसलिए वैदिक नामों से प्रेरित थे। नाम कोई भी रख सकते थे। उस पर जीएसटी का कोई प्रावधान नहीं। सोचा होगा, लव कुश ही रख लो। उन्हें थोड़े अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ना है।

चाहें भी तो संभव नहीं। समय के साथ साथ काफी कुछ असंभव भी होने लगा है। न तो गाय और कुत्ते को रोटी खिला सकते, न सांप को दूध…। सब हमारी धरोहर हैं। उन्हें बचाना हमारा परम कर्तव्य है। इसलिए प्रतिबंधित है। कहो, कल के दिन हमारी सांसों पर ही कोई प्रतिबंध लगा दे कि भई कुछ ज्यादै ऑक्सीजन छोड़ते हो…।

असंभावना के बीच ही सम्भव भवित होता है। अभी वाचन प्रतिबंधित नहीं हुआ है। हम कुछ भी बांच सकते, गल-अनर्गल सब कुछ। फिर भी हम बांचते ही नहीं।

उन्होंने भी पुस्तक की जगह एक ठो व्यक्तिगत दूरभाषित यंत्र पकडवा दिया अपने बच्चों को। और वे, आज्ञाकारी बच्चों से लगे अपनी हस्त उत्पादित स्वचित्र खेंचने में। इस खेंचा खेंची में वे भूल गए कि दुनिया में स्व-ज्ञान की कितनी आवश्यकता है।

पर्दे पर अपने ही चित्र की वाहवाही करने से उन्हें फुर्सत न मिलती। फिर कहां का ज्ञान जुटाते। अज्ञानी सोच ही नहीं पाता कि सौंदर्य ज्ञान नहीं देता किंतु ज्ञान सौंदर्य अवश्य देता है। लेकिन ये सोच भी तो ज्ञान से ही आती है।

पर्दे की विद्रुपता यही है कि वो असली दर्शन नहीं करा पाता। सब कुछ ढंका छुपा…।

वो ठाठ बाट से अपने रामायण का गुणगान करते हुए वहाँ बैठती हैं। लेकिन जब उनसे पूछा जाता कि संजीवनी किसके लिए लायी गई, तब वे ठिठक जातीं। वे सोचतीं कि शायद राम या फिर भरत या हो सकता है लक्ष्मण को जरूरत पड़ी हो। लेकिन वे श्योर नहीं हो पातीं। क्योंकि उनके घर के लक्ष्मण को कभी संजीवनी की जरूरत नहीं पड़ी। या यों कहें कि हनुमंत उनके घर नहीं। उनकी माता, माथा फोडने के सिवाय कुछ नहीं कर पायी। अपने अंश को नहीं समझा पायी कि रामायण में रहने और रामायण को हृदय में बसाने में वही अंतर है जो धरती पर बसने और आकाश में उडने का है।

 

©समीक्षा तैलंग, पुणे

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 15 ☆ ये सड़कें ये पुल मेरे हैं ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ये सड़कें ये पुल मेरे हैं”.  धन्यवाद विवेक जी , मुझे भी अपना इन्वेस्टमेंट याद दिलाने के लिए. बतौर वरिष्ठ नागरिक, हम वरिष्ठ नागरिकों ने अपने जीवन की कमाई का कितना प्रतिशत बतौर टैक्स देश को दिया है ,कभी गणना ही नहीं की.  किन्तु, जीवन के इस पड़ाव पर जब पलट कर देखते हैं तो लगता है कि-  क्या पेंशन पर भी टैक्स लेना उचित है ?  ये सड़कें ये पुल  विरासत में देने के बाद भी? बहरहाल ,आपने बेहद खूबसूरत अंदाज में  वो सब बयां कर दिया जिस पर हमें गर्व होना चाहिए. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 15 ☆ 

 

 ☆ ये सड़कें ये पुल मेरे हैं ☆

 

रेल के डिब्बे के दरवाजो के ऊपर लिखा उद्घोष वाक्य  “सरकारी संपत्ति आपकी अपनी है”, का अर्थ देश की जनता को अच्छी तरह समझ आ चुका  है. यही कारण है कि भीड़ के ये चेहरे जो इस माल असबाब के असल मालिक हैं, शौचालय में चेन से बंधे मग्गे और नल की टोंटी की सुरक्षा के लिये खाकी वर्दी तैनात होते हुये भी गाहे बगाहे अपनी साधिकार कलाकारी दिखा ही देते हैं. ऐसा नही है कि यह प्रवृत्ति केवल हिन्दोस्तान में ही हो, इंग्लैंड में भी हाल ही में टाइलेट से पूरी सीट ही चोरी हो गई, ये अलग बात है कि वह सीट ही चौदह कैरेट सोने की बनी हुई थी. किन्तु थी तो सरकारी संपत्ति ही, और सरकारी संपत्ति की मालिक जनता ही होती है. वीडीयो कैमरो को चकमा देते हुये सीट चुरा ली गई.

हम आय का ३३ प्रतिशत टैक्स देते हैं. हमारे टैक्स से ही बनती है सरकारी संपत्ति. मतलब पुल, सड़कें, बिजली के खम्भे, टेलीफोन के टावर, रेल सारा सरकारी इंफ्रा स्ट्रक्चर गर्व की अनुभूति करवाता है. जनवरी से मार्च के महीनो में जब मेरी पूरी तनख्वाह आयकर के रूप में काट ली जाती है,  मेरा यह गर्व थोड़ा बढ़ जाता है. जिधर नजर घुमाओ सब अपना ही माल दिखता है.

आत्मा में परमात्मा, और सकल ब्रम्हाण्ड में सूक्ष्म स्वरूप में स्वयं की स्थिति पर जबसे चिंतन किया है, गणित के इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का मर्म समझ आने लगा है. इधर शेयर बाजार में थोड़ा बहुत निवेश किया है, तो  जियो के टावर देखता हूँ तो फील आती है अरे अंबानी को तो अपुन ने भी उधार दे रखे हैं पूरे दस हजार. बैंक के सामने से निकलता हूँ तो याद आ जाता है कि क्या हुआ जो बोर्ड आफ डायरेक्टर्स की जनरल मीटींग में नहीं गया, पर मेरा भी नगद बीस हजार का अपना शेयर इंवेस्टमेंट है तो सही इस बैंक की पूंजी में, बाकायदा डाक से एजीएम की बैठक की सूचना भी आई ही थी कल. ओएनजीसी के बांड की याद आ गई तो लगा अरे ये गैस ये आईल कंपनियां सब अपनी ही हैं. सूक्ष्म स्वरूप में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई बरास्ते म्युचुएल फंड देश की रग रग में विद्यमान है. मतलब ये सड़के ये पुल सब मेरे ही हैं. गर्व से मेरा मस्तक आसमान निहार रहा है. पूरे तैंतीस प्रतिशत टैक्स डिडक्शन का रिटर्न फाइल करके लौट रहा हूँ. बेटा अमेरिका में ३५ प्रतिशत टैक्स दे रहा है और बेटी लंदन में, हम विश्व के विकास के भागीदार हैं, गर्व क्यो न करें?

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ लोकतन्त्र का महाभारत ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

 

आप निश्चित ही चौंक गए होंगे कि यह व्यंग्य तो आप पढ़ चुके हैं फिर पुनरावृत्ति क्यों?

आज यह व्यंग्य प्रासंगिक भी है  एवं सामयिक भी है.

प्रासंगिक इसलिए क्योंकि आज ही  आदरणीय गृह मंत्री जी ने जिस बहु उद्देश्यीय कार्ड (एक कार्ड जिसमें आधार कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस और बैंक खातों जैसी जानकारी समाहित हो)  की चर्चा की है, उस प्रकार के कार्ड की कल्पना मैंने अपने जिस व्यंग्य के माध्यम से गत वर्ष 4 नवम्बर 2018  को किया था  वह सामयिक हो गई है. 

इसे आप निम्न लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं :-

 

कृपया यहाँ क्लिक करें – >>>>>>>>>>  व्यंग्य – लोकतन्त्र का महाभारत

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 14 – माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  “माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो” आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 14 ☆

 

☆ माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो  

 

साहित्यकार –  वाटस्अप, फेसबुक, ट्विटर पर रात में उपस्थित मित्रों को सूचना देना चाहता हूँ कि आज दिन को  साहित्य संस्थान की  काव्य गोष्ठी हुई, जिसमें अनेकानेक महिलाओं को सम्मान दिया गया, साथ ही आसपास के शहर की साहित्य संस्थाओं के अध्यक्ष व संस्थापकों को तिलक लगाकर तथा फूलमाला पहनाकर सम्मानित किया गया। मुझे भी सम्मानित किया गया है। माइक के साथ मंच पर प्रूफ के रुप में मेरी तस्वीर है जिन्हें विश्वास न हो वे तस्वीर देख सकते हैं कि मंच भी है और माइक भी है और इत्ती सी बात के लिए मैं झूठ क्यों बोलूंगा, हालांकि मुझे अभी तक 8999 सम्मान मिल चुके हैं। कैसे मिले हैं आप खुद समझदार हैं।

संस्था मुखिया –  तुम्हें कब सम्मानित किया गया ? मै तो वहीं थी ।कार्यक्रम की समाप्ति पर आप खाली मंच पर माइक लेकर फोटो खिंचवा रहे थे ।कार्यक्रम मे संचालन मेरा था। झूठमूठ का साहित्यकार बनना चाहता है। सोशल मीडिया में झूठमूठ की अपनी पब्लिसिटी करता है। शाल और श्रीफल लिए किसी से भी फोटो खिंचवाता फिरता है इसलिए बेटा तेरी घरवाली तुझसे बदला ले रही है। सबकी बीबी तीजा का उपवास रखतीं हैं, पर तेरी बीबी तीजा का उपवास नहीं रखती। सच में किसी ने सही लिखा है कि इस रंग बदलती दुनिया में इंसानों की नीयत ठीक नहीं।

साहित्यकार – मैं झूठ क्यों बोलूंगा…? अपनी संस्था के मालिक ने मंच से एलांऊस कर बुलाया था। टीका लगाकर फूल माला पहनाकर मंच में सम्मानित किया था। आप शायद कही खाना खा रही थी या टायलेट में मेकअप कर रही होगीं। श्याम जी, नयन जी और मुझे शायद गुप्ता जी और बेधड़क जी ने भी फूल माला पहनाकर सम्मानित किया था, और कई लोगों ने भी माला पहनाई थी उनके नाम याद नहीं है क्योंकि उस समय मैं इतना गदगद हो गया था कि होश गवां बैठा था। और तू कौन सी दूध की धुली है…? सबको मालूम है ।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 16 – व्यंग्य – भला आदमी / बुरा आदमी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. यूँ कहिये की कि कोई घटना आँखों के सामने चलचित्र की तरह चल रही हो. यह व्यंग्य केवल व्यंग्य ही नहीं हमें जीवन का व्यावहारिक ज्ञान भी देता है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “भला आदमी / बुरा आदमी ” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 16 ☆

 

☆ व्यंग्य – भला आदमी/ बुरा आदमी ☆

 

बिल्लू की शादी के वक्त मैंने बनवारी टेलर को कोट दिया था बनाने के लिए। शादी निकल गयी और बिल्लू की जोड़ी बासी भी हो गयी, लेकिन मेरा कोट नहीं मिला। हर बार बनवारी का एक ही  जवाब होता, ‘क्या बताएं भइया, बीच में अर्जेंट काम आ जाता है, इसलिए पुराना काम जहाँ का तहाँ पड़ा रह जाता है।’

मैं चक्कर पर चक्कर लगाता हूँ लेकिन मेरा कपड़ा कोट का रूप धारण नहीं करता। अब बनवारी ने दूसरा रोना शुरू कर दिया था, ‘भइया, इस मुहल्ले के आदमी इतने गन्दे हैं कि क्या बतायें। उनका काम करके न दो तो सिर पर चढ़ जाते हैं। आप ठहरे भले आदमी, आपसे हम दो चार दिन रुकने को कह सकते हैं लेकिन इन लोगों से कुछ भी कहना बेकार है।’

‘भला आदमी’ की पदवी पाकर मैं खुश हो जाता और चुपचाप लौट आता। लेकिन तीन चार दिन बाद फिर मेरा दिमाग खराब होता और मैं फिर बनवारी के सामने हाज़िर हो जाता।

बनवारी फिर वही रिकॉर्ड शुरू कर देता, ‘भइया, आपसे क्या कहें। इस मुहल्ले में नंगे ही नंगे भरे हैं। अब नंगों से कौन लड़े? उनका काम करके न दो तो महाभारत मचा देते हैं। आप समझदार आदमी हैं। हमारी बात समझ सकते हैं। वे नहीं समझ सकते। मैं तो इस मुहल्ले के लोगों से तंग आ गया।’

जब भी मैं उसकी दूकान पर जाता, बनवारी बड़े प्रेम से मेरा स्वागत करता। अपनी दूकान में उपस्थित लोगों को मेरा परिचय देता। साथ ही यह वाक्य ज़रूर जोड़ता, ‘खास बात यह है कि बड़े भले आदमी हैं। यह नहीं है कि एकाध दिन की देर हो जाए तो आफत मचा दें।’

अंततः मेरे दिमाग में गर्मी बढ़ने लगी। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक आदमी मेरे सामने कोट का नाप देकर गया और अगली बार मेरे ही सामने कोट ले भी गया। मैंने जब यह बात बनवारी से कही तो वह बोला, ‘अरे भइया, इस आदमी से आपका क्या मुकाबला? इसका काम टाइम से न करता तो ससुरा जीना मुश्किल कर देता। बड़ा गन्दा आदमी है। ऐसे आदमियों से तो जितनी जल्दी छुट्टी मिले उतना अच्छा। आप ठहरे भले मानस। आपकी बात और है।’

लेकिन मेरा दिमाग गरम हो गया था। मैंने कहा, ‘बनवारी, तुम मेरा कपड़ा वापस कर दो। अब मुझे कोट नहीं बनवाना।’

बनवारी बोला, ‘अरे क्या बात करते हो भइया! बिना बनाये कपड़ा वापस कर दूँ? अब आप भी उन नंगों जैसी बातें करने लगे। दो तीन दिन की तो बात है।’

चार दिन बाद फिर बनवारी की दूकान पर पहुँचा तो वह मुझे देखकर आँखें चुराने लगा। मुझे शहर के समाचार सुनाने लगा। मैंने कहा, ‘बनवारी, मैं कोट लेने आया हूँ।’

वह बोला, ‘क्या बतायें भइया, वे उपाध्याय जी हैं न, वे बहुत अर्जेंट काम धर गये थे। उल्टे-सीधे आदमी हैं इसलिए उनसे पीछा छुड़ाना जरूरी था। बस,अब आपका काम भी हो जाता है।’

मैं कुछ क्षण खड़ा रहा, फिर मैंने कहा, ‘बनवारी!’

वह बोला, ‘हाँ भइया।’

मैंने कहा, ‘तुम इसी वक्त मेरा नाम अपनी भलेमानसों की लिस्ट में से काट दो। बोलो, कोट लेने कब आऊँ?’

वह मेरे मुँह की तरफ देखकर धीरे से बोला, ‘कल ले लीजिए।’

दूसरे दिन पहुँचने पर उसने मुझे कोट पहना दिया। तभी एक और आदमी उससे अपने कपड़ों के लिए झगड़ने लगा। मैंने सुना बनवारी उससे कह रहा था, ‘भइया, तुम ठहरे भले आदमी। नंगे-लुच्चों को पहले निपटाना पड़ता है।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – ☆ व्यंग्य – हिन्साप ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(श्री हेमन्त बावनकर जी  द्वारा अस्सी नब्बे के दशक में  लिखा गया  राजभाषा  पखवाड़े पर  एक विशेष  व्यंग्य .)

 

☆ हिन्साप

 

“हिन्साप”! कैसा विचित्र शब्द है; है न? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। आखिर मिले भी कैसे? ऐसा कोई शब्द हो तब न। खैर छोड़िए, अब आपको अधिक सस्पेंस में नहीं रखना चाहिये। वैसे भी अपने-आपको परत-दर-परत उघाड़ना जितना अद्भुत होता है उतना ही शर्मनाक भी होता है। आप पूछेंगे कि- “हिन्साप की चर्चा के बीच में अपने-आपको उघाड़ने का क्या तुक है? मैं कहता हूँ तुक है भाई साहब, “हिन्साप” जैसे शब्द के साथ तुक होना सर्वथा अनिवार्य है। आखिर हो भी क्यों न; हिन्साप”  की नींव जो हमने रखी है? आप सोचेंगे कि “हिन्साप” की नींव हमने क्यों रखी? चलिये आपको सविस्तार बता ही दें।

हमारे विभाग में राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिये विभागीय स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। साहित्य में रुचि के कारण मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया। पुरस्कार भी प्राप्त किया। किन्तु, साथ ही ग्लानि भी। ग्लानि होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रतियोगिता, प्रतियोगिता के तौर पर आयोजित ही नहीं हुई थी। क्योंकि प्रतियोगिता विभागीय स्तर की थी तो निर्णायक का किसी विभाग का अधिकारी होना भी स्वाभाविक था, बेशक निर्णायक को साहित्य का ज्ञान हो या न हो। फिर, जब निर्णायक अधिकारी हो तो स्वाभाविक है कि पुरस्कार भी किसी परिचित या अधिकारी को ही मिले, चाहे वह हिन्दी शब्द का उच्चारण इंदी या “इंडी” ही क्यों न करे। अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला होगा क्योंकि मैं अधिकारी हूँ? आप क्या कोई भी यही सोचेगा। किन्तु, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई अधिकारी नहीं हूँ। अब मुझे यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि- जब मैं अधिकारी नहीं हूँ तो फिर मुझे पुरस्कार क्यों मिला? इसका एक संक्षिप्त उत्तर है स्वार्थ। वैसे तो यह उत्तर है किन्तु आप इसका उपयोग प्रश्न के रूप में भी कर सकते हैं। फिर मेरा नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ।

चलिये आप को पूरा किस्सा ही सुना दूँ। हुआ यूँ कि- प्रतियोगिता के आयोजन के लगभग छह-सात माह पूर्व वर्तमान निर्णायक महोदय जो किसी विभाग के विभागीय अधिकारी थे उनके सन्देशवाहक ने बुलावा भेजा कि- साहब आपको याद कर रहे हैं। मेरे मस्तिष्क में विचार आया कि भला अधिकारी जी को मुझसे क्या कार्य हो सकता है? क्योंकि न तो वे मेरे अनुभागीय अधिकारी थे और न ही मेरा उनसे दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत या विभागीय सम्बंध था। खैर, जब याद किया तो मिलना अनिवार्य लगा।

अधिकारी जी बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में थे। अपनी सामने रखी फाइल को आउट ट्रे में रख मेरी ओर मुखातिब हुए “सुना है, आप कुछ लिखते-विखते हैं? मैंने झेंपते हुए कहा- “जी सर, बस ऐसे ही कभी-कभार कुछ पंक्तियाँ लिख लेता हूँ।“

शायद वार्तालाप अधिक न खिंचे इस आशय से वे मुख्य मुद्दे पर आते हुए बोले- “बात यह है कि इस वर्ष रामनवमी के उपलक्ष में हम लोग एक सोवनियर (स्मारिका) पब्लिश कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि आप भी कोई आर्टिकल कंट्रिब्यूट करें।“

उनकी बातचीत में अचानक आए अङ्ग्रेज़ी के पुट से कुछ अटपटा सा लगा। मैंने कहा- “मुझे खुशी होगी। वैसे स्मारिका अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित करवा रहे हैं या हिन्दी में?” वे कुछ समझते हुए संक्षिप्त में बोले – “हिन्दी में।“

कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर मैं जैसे ही जाने को उद्यत हुआ, उन्होने आगे कहा- “आर्टिकल हिन्दी में हो तो अच्छा होगा। वैसे उर्मिला से रिलेटेड बहुत कम आर्टिकल्स अवेलेबल है।  मैंने उठते हुए कहा- “ठीक है सर, मैं कोशिश करूंगा।“

फिर मैंने कई ग्रन्थ एकत्रित कर एक सारगर्भित लेख तैयार किया “उर्मिला – एक उपेक्षित नारी”।

कुछ दिनों के पश्चात मुझे स्मारिका के अवलोकन का सुअवसर मिला। लेख काफी अच्छे गेटअप के प्रकाशित किया गया था। आप पूछेंगे कि फिर मुझे अधिकारी जी से क्या शिकायत है? है भाई, मेरे जैसे कई लेखकों को शिकायत है कि अधिकारी जी जैसे लोग दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से कैसे प्रकाशित करवा लेते हैं? अब आप इस प्रक्रिया को क्या कहेंगे? बुद्धिजीवी होने का स्वाँग रचकर वाह-वाही लूटने की भूख या शोषण की प्रारम्भिक प्रक्रिया!  थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि उर्मिला ही नहीं मेरे जैसे कई लेखक उपेक्षित हैं। यह अलग बात है कि हमारी उपेक्षाओं का अपना अलग दायरा है। अब यदि आप चाहेंगे कि स्वार्थ और उपेक्षित को और अधिक विश्लेषित करूँ तो क्षमा कीजिये, मैं असमर्थ हूँ।

शायद अब आपको “हिन्साप” के बारे में कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा। यदि न आ रहा हो तो तनिक और धैर्य रखें। हाँ, तो मैं आपको बता रहा था कि- मैंने और शर्मा जी ने “हिन्साप” की नींव रखी। वैसे मैं शर्मा जी से पूर्व परिचित नहीं था। मेरा उनसे परिचय उस प्रतियोगिता में हुआ था जो वास्तव में प्रतियोगिता ही नहीं थी। मैंने अनुभव किया कि उनके पास प्रतिभा भी है और अनुभव भी। यह भी अनुभव किया कि हमारे विचारों में काफी हद तक सामंजस्य भी है। हम दोनों मिलकर एक ऐसे मंच की नींव रख सकते हैं जो “हिन्साप” के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। अब आप मुझ पर वाकई झुँझला रहे होंगे कि- आखिर “हिन्साप” है क्या बला? जब “हिन्साप” के बारे में ही कुछ नहीं मालूम तो उद्देश्य क्या खाक समझ में आएंगे? आपका झुँझला जाना स्वाभाविक है। मैं समझ रहा हूँ कि अब आपको और अधिक सस्पेंस में रखना उचित नहीं। चलिये, अब मैं आपको बता दूँ कि “हिन्साप” एक संस्था है। अब तनिक धैर्य रखिए ताकि मैं आपको “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप बता सकूँ। फिलहाल आप कल्पना कीजिये कि- हमने “हिन्साप” संस्था की नींव रखी। उद्देश्य था नवोदित प्रतिभाओं को उनके अनुरूप एक मंच पर अवसर प्रदान करना और स्वस्थ वातावरण में प्रतियोगिताओं का आयोजन करना जिसमें किसी पक्षपात का अस्तित्व ही न हो।

कई गोष्ठियाँ आयोजित कर प्रतिभाओं को उत्प्रेरित किया। उन्हें “हिन्साप” के उद्देश्यों से अवगत कराया। सबने समर्पित भाव से सहयोग की आकांक्षा प्रकट की। हमने विश्वास दिलाया कि हम एक स्वतंत्र विचारधारा की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जो निष्पक्ष और बेबाक हो तथा जिसमें नवोदितों को भी उचित स्थान मिले। सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। सबने वचन दिया कि वे तन-मन से सहयोग देंगे। किन्तु, धन के नाम पर सब चुप्पी साध गए। भला बिना अर्थ-व्यवस्था के कोई संस्था चल सकती है? खैर, “हिन्साप” की नींव तो हमने रख ही दी थी और आगे कदम बढ़ाकर पीछे खींचना हमें नागवार लग रहा था।

“हिन्साप” के अर्थ व्यवस्था के लिए शासकीय सहायता की आवश्यकता अनुभव की गई। संस्थागत हितों का हनन न हो अतः यह निश्चय किया गया कि विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को संरक्षक पद स्वीकारने हेतु अनुरोध किया जाए। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को अपने विचारों से अवगत कराया गया। विज्ञापन व्यवस्था के तहत आर्थिक स्वीकृति तो मिल गई किन्तु, “हिन्साप” को इस आर्थिक स्वीकृति की भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक पवित्र उद्देश्यों पर आधारित संस्था में शासकीय तंत्र की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई और विशुद्ध साहित्यक पत्रिका की कल्पना मात्र कल्पना रह गई जिसका स्वरूप एक विभागीय गृह पत्रिका तक सीमित रह गया। फिर किसी भी गृह पत्रिका के स्वरूप से तो आप भी परिचित हैं। इस गृह पत्रिका में अधिकारी जी जैसे लेखकों की रचनाएँ अच्छे गेट अप में सचित्र और स्वचित्र अब भी प्रकाशित होती रहती हैं।

इस प्रकार धीरे धीरे अधिकारी जी ने “हिन्साप” की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेकर अन्य परिचितों, परिचित संस्थाओं के सदस्यों, चमचों के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये। फिर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठा कर “हिन्साप” की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का सर्वाधिकार सुरक्षित करा लिया। हम इसलिए चुप रहे क्योंकि वे विज्ञापन-व्यवस्था के प्रमुख स्त्रोत थे।

जब अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो गई तो कई मौकापरस्त लोगों की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई। पहले जो लोग तन-मन के साथ धन सहयोग पर चुप्पी साध लेते थे आज वे ही सक्रिय कार्यकर्ताओं का स्वाँग रचा कर आर्थिक सहयोग की ऊँची-ऊँची बातें करने लगे। अध्यक्ष और अन्य विशेष पदों पर अधिकारियों ने शिकंजा कस लिया। और शेष पदों के लिए कार्यकर्ताओं को मोहरा बना दिया गया। फिर, वास्तव में शुरू हुआ शतरंज का खेल।

हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि- शासकीय तंत्र के घुसपैठ के साथ ही “हिन्साप” अतिसक्रिय कैसे हो गई? लोगों में इतना उत्साह कहाँ से आ गया कि वे “हिन्साप” में अपना भविष्य देखने लगे। कर्मचारियों को उनकी परिभाषा तक सीमित रखा गया और अधिकारियों को उनके अधिकारों से परे अधिकार मिल गए या दे दिये गए। इस तरह “हिन्साप” प्रतिभा-युद्ध का एक जीता-जागता अखाड़ा बन गया।

सच मानिए, हमने “हिन्साप” की नींव इसलिए नहीं रखी थी कि- संस्थागत अधिकारों का हनन हो; प्रतिभाओं का हनन हो? उनकी परिश्रम से तैयार रचनाओं का कोई स्वार्थी अपने नाम से दुरुपायोग करे? विश्वास करिए, हमने “हिन्साप” का नामकरण काफी सोच विचार कर किया था। अब आप ही देखिये न “हिन्साप” का उच्चारण “इन्साफ” से कितना मिलता जुलता है? अब जिन प्रतिभाओं के लिए “हिन्साप” की नींव रखी थी उन्हें “इन्साफ” नहीं मिला, इसके लिए क्या वास्तव में हम ही दोषी हैं? खैर, अब समय आ गया है कि मैं “हिन्साप” को विश्लेषित कर ही दूँ।

परत-दर-परत सब तो उघाड़ चुका हूँ। लीजिये अब आखिरी परत भी उघाड़ ही दूँ कि- “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप है “हिन्दी साहित्य परिषद”। किन्तु, क्या आपको “हिन्साप” में “हिंसा” की बू नहीं आती? आखिर, किसी प्रतिभा की हत्या भी तो हिंसा ही हुई न? अब चूंकि, हमने “हिन्साप” को खून पसीने से सींचा है अतः हमारा अस्तित्व उससे कहीं न कहीं, किसी न किसी आत्मीय रूप से जुड़ा रहना स्वाभाविक है। किन्तु, विश्वास मानिए अब हमें “हिन्साप”, “हिन्दी साहित्य परिषद” नहीं अपितु, “हिंसा परिषद लगने लगी है।

अब हमें यह कहानी मात्र हिन्दी साहित्य परिषद की ही नहीं अपितु कई साहित्य और कला अकादमियों की भी लगने लगी है। आपका क्या विचार है? शायद, आपका कोई सुझाव हि. सा. प. को “हिंसा. प. के हिसाब से बचा सके?

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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