हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-2 ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-2।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-2 ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

अभी हमने कबीर के समय की बात की है कबीर का समय मुगलकालीन समय था जो काफी  उथल-पुथल का समय था उस समय मुगलकालीन साम्राज्य में उतार का समय आरंभ हो गया था. छोटे बड़े राज्यों की व्यवस्था चल रही थी.राजघरानों ने साहित्य और कला आश्रय दिया था. कला में संगीत और नृत्य विशेष रुप से  राज्याश्रय में फल फूल रहे थे. इसमें आशातीत विकास और विस्तार भी हुआ.इससे राजा और राज्य की छबि बनाने का उद्देश्य भी छिपा रहता है. इस कारण इन कलाओ और कलाकारों पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है. इससे राज्य,कला और कलाकारों को विशेष लाभ दर्जा मिला रहता था.ऐसा नहीं है कि साहित्य को स्थान को नहीं था. था और अधिक था. पर उन्ही लोगों को था .जो राजा और राज्यों का गुणगान करने में माहिर थे. चारण प्रवृत्ति चरम अवस्था में थी.राजा चारण रखते थे जो राजा की प्रशंसा ही करते थे.वे राजकवि कहलाते थे.उसमें साहित्य से समाज के संबंध की सही छबि स्पष्ट नहीं हो पाती है .उस समय का इतिहास अलग है और उस समय का उपलब्ध साहित्य कुछ और ही बताता है .अगर इसको विपरीत दृष्टि से कहें तो बहुत सहजता से कहा जाता सकता है कि उस समय के साहित्यकारों ने समाज के प्रति अपने सामाजिक और लेखकीय दायित्व का निर्वाह ईमानदारी से नहीं किया. साहित्य के इतिहास के वर्गीकरण को ध्यान में बात करें तो बीसवीं शताब्दी के आरंभ में साहित्य के संबंध में समाज को भली भांति समझा जा सकता है. जिसे साहित्य के आधुनिक काल के आरंभ का समय कहा जा सकता है. इसमें साहित्य का महत्वपूर्ण काल कहा जाता है. उसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की रचनाओं से उस समय के काल और सामाजिक स्थिति को बहुत सरलता से समझा जा सकता है. उस समय की राजव्यवस्था, अराजकता, भ्रष्टाचार, न्याय व्यवस्था का पता चल जाता है.भारतेंदु जी  का सम्पूर्ण साहित्य एक समयकाल और साहित्य का बेहतरीन उदाहरण है.उनकी चर्चित रचना है . “अंधेर नगरी और चौपट राजा”यह रचना अपने समय की सही तश्वीर खींचती है।

वे कहते हैं

अंधेर नगरी चौपट राजा

टके सेर भाजी, टके सेर खाजा

यह रचना नाट्य रुप समाज की अराजकता का बयान करती है. इसमें उसमें समय के बाजार का स्वरूप उभरकर सामने आता है. इसरचना में घासीराम का चूरन में बाजार के विज्ञापन का प्रारंभिक चरण कह सकते हैं जो आज भीषण रुप में अंदर तक पहुंच गया है. आज बाजार आपके घर अंदर तक पहुंच गया है. आज का बाजार हमारी जीवन शैली आदि पर पूरी तरह हाबी हो गया है वह आपको यह सिखाता है आपको क्या खाना है क्या पहनना हैं आपको कैसे रहना है. आपको यह सिखाता है कि अपने दामपत्य जीवन को सफल बनाने के लिए अपने साथी को क्या उपहार देना है.वह खुश हो जाएगा.और तो और वह यह बताता है कि आपको कब किस रंग के कपड़े पहनना है जिससे आपका भविष्य बढ़िया रहेगा.घासीराम का चूरन में वे कहते हैं

   चना बनावे घासीराम, जिनकी छोली में दूकान

इस रचना में उस समय का भ्रष्टाचार उभरकर आया है

 “चना हाकिम सब जो खाते, सबपर दूना टिकस लगाते

तबकी महाजन प्रणाली पर वे कहते

 चूरन सभी महाजन खाते

जिससे सभी जमा हजम कर जाते

आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था पर वे कहते

चूरन पुलिस वाले खाते

                  सब कानून हजम कर जाते

लो चूरन का ढ़ेर, बेचा टका सेर

आज की व्यवस्था को ध्यान से देखें कुछ भी नही बदला है बस उसका स्वरूप बदल गया. तरीके बदल गए हैं पर बाजार की प्रवृत्ति और आचरण जस का तस वहीं हैं। आज यह रचना हमारे समक्ष न होती तो शायद हम उस समय को जान नहीं सकते हैं. यह यह बात स्पष्ट है कि साहित्य की अन्य विधा में समय कुछ कम उभर का आता है. पर व्यंग्य ही ऐसा माध्यम है कि जहां समय और स्थान प्रतिबिंब बन कर आता है. व्यंग्य ही ऐसा हैं समय का आकलन करने में सक्षम है.भले ही व्यंंग्य में अपने समय की विसंगतियां, विडम्बनाए़ असंतोष, भ्रष्ट आचरण, अंधविश्वास, पाखंड, प्रपंच अपने स्वरुप आ जाता है उससे साहित्य और समय के अतंर्संबंध को समक्षा जाता है.

क्रमशः….. ( शेष अगले अंको में.)

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 77 ☆ आरामगाह की खोज ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “आरामगाह की खोज”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 77 – आरामगाह की खोज 

दौड़भाग करके मनमौजी लाल ने एक कार्यक्रम तैयार किया किन्तु बात खर्चे पर अटक गयी । संयोजक, आयोजक, प्रतिभागी सभी तैयार थे, बस प्रायोजक को ढूंढना था।  क्या किया जाए अर्थव्यवस्था चीज ही ऐसी है, जिसके इर्द गिर्द पूरी दुनिया चारो धाम कर लेती है । बड़ी मशक्कत के बाद गुनीलाल जी तैयार हुए ,बस फिर क्या था उन्होंने सारी योजना अपने हाथों में ले ली अब तो सबके रोल फीके नजर आने लगे उन्हें मालुम था कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा करना पड़ेगा ।

दूसरी तरफ लोगों ने समझाया कि कुछ लोग मिलकर इसके प्रायोजक बनें तभी कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा हो सकेगा । सो यह निर्णय हुआ कि साझा आर्थिक अभियान ही चलायेंगे । कार्य ने गति पकड़ी ही थी कि दो दोस्तों की लड़ाई हो गयी, पहले ने दूसरे को खूब भला बुरा कहा व आसपास उपस्थित अन्य लोगों के नाम लेकर भी कहने लगा मेरा  ये दोस्त मन का काला है,  आप लोगों की हमेशा ही बुराई करता रहता है , मैंने इसके लिए कितना पैसा और समय खर्च किया पर ये तो अहसान फरामोश है इसे केवल स्वयं के हित के अलावा कुछ सूझता नहीं ।

वहाँ उपस्थित लोगों ने शांति कराने के उद्देश्य से ज्ञान बघारना शुरू कर दिया जिससे पहले दोस्त को बड़ा गुस्सा आया उसने कहा आप लोग पत्थर के बनें हैं क्या ? मैंने इतना कहा पर आप सबके कानों में जूँ तक नहीं रेंगी,  खासकर  मैडम जी तो बिल्कुल अनजान बन रहीं इनको कोई फर्क ही नहीं पड़ा जबकि सबसे ज्यादा दोषारोपण तो इनके ऊपर ही किया गया ।

मैडम जी ने मुस्कुराते हुए कहा मैं अपने कार्यों का मूल्यांकन स्वयं करती हूँ, आपकी तरह नहीं किसी ने कह दिया कौआ कान  ले गया तो कौआ के पीछे भागने लगे उसे अपशब्द कहते हुए, अरे भई देख भी तो लीजिए कि आपके कान ले गया या किसी और के ।

समझदारी इस बात में  नहीं है कि दूसरे ये तय करें कि हम क्या कर रहें हैं या करेंगे बल्कि इस बात में है कि हम वही करें जिससे मानवता का कल्याण हो । योजनाबद्ध होकर नेक कार्य करते रहें ,देर- सवेर ही सही कार्यों का फल मिलता अवश्य है ।

आर्थिक मुद्दे से होती हुई परेशानी अब भावनाओं तक जा पहुँची थी बस आनन फानन में दो गुट तेयार हो गए । शक्ति का बटवारा सदैव से ही कटुता को जन्म देता आया है सो सारे लोग गुटबाजी का शिकार होकर अपने लक्ष्य से भटकते हुए पुनः आरामगाह की खोज में देखे जा रहे हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #113 ☆ व्यंग्य – वी. आई. पी. श्मशान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘वी. आई. पी. श्मशान ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 113 ☆

☆ व्यंग्य – वी. आई. पी. श्मशान  

सरजू भाई उस दिन अपने फ्रेंड, फ़िलॉसॉफ़र एंड गाइड बिरजू भाई को आख़िरी विदाई देने लाव-लश्कर के साथ श्मशान पहुँचे थे। बिरजू भाई की तरह सरजू भाई राजनीति के सयाने, तपे हुए खिलाड़ी थे। बिरजू भाई के चरणों में बैठकर उन्होंने राजनीति का ककहरा सीखा था। अब उनके जाने से वे अनाथ महसूस कर रहे थे।

वहाँ बैठे,दुखी मन से वे श्मशान की व्यवस्था देखते रहे। सब तरफ गन्दगी और बदइन्तज़ामी थी। इधर-उधर फेंके हुए चादर,बाँस और घड़ों के टुकड़े पड़े थे। शेडों के नीचे कुत्ते घूम या सो रहे थे। श्मशान का कर्मचारी गन्दी लुंगी लपेटे अपने काम को अंजाम दे रहा था। बैठने के लिए बनी पत्थर की बेंचों पर धूल जमी थी। शोकसभा के लिए माकूल जगह नहीं थी।

वहाँ का दृश्य देखते देखते सरजू भाई का दिल बैठने लगा। वे खुद पचहत्तर के हो गये थे। कभी भी चार के कंधे पर लदकर यहाँ आना पड़ सकता था। लेकिन क्या इतने सुख उठाने के बाद उनका यही हश्र होना था?हमेशा ए.सी.में, गुदगुदे गद्दों पर सोये, कभी अपने हाथ से लेकर पानी नहीं पिया, लक्ज़री गाड़ियों में घूमे, हवाई जहाज में उड़े, और अन्त में यह फजीहत। घोड़े-गधे, राजा- रंक,सब बराबर। सोच सोच कर सरजू भाई का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगा।

घर लौटे तो अपने तीन-चार प्रमुख चमचों को बुलाया। बोले, ‘भैया, हमें श्मशान की दशा देखकर बड़ी चिन्ता हुई। कल के दिन हमें भी वहाँ जाना है,तो क्या हमें भी फजीहत झेलनी पड़ेगी? आप लोग एक प्रस्ताव तैयार करके नगर निगम जाओ और एक अलग भव्य श्मशान के लिए राज्य सरकार से फंड की माँग करो। हमें अब अपनी हैसियत के हिसाब से एक सर्वसुविधायुक्त स्मार्ट श्मशान चाहिए।

‘इसके लिए लम्बा-चौड़ा क्षेत्र हो जहाँ सुन्दर फूलों वाले पौधे और शानदार पेड़ हों, दो चार सौ लोगों के बैठने के लिए आरामदेह, गद्देदार सीटें हों, साफ-सुथरी यूनिफॉर्म वाले ट्रेन्ड कर्मचारी हों और वातावरण ऐसा हो कि वहाँ पहुँचने वालों को गर्व हो। जब ताजमहल मकबरा होते हुए भी जगत-प्रसिद्ध हो सकता है तो हमारा श्मशान क्यों नहीं हो सकता? कम से कम अपने देश में तो हो ही सकता है।

‘नये श्मशान में सौ पचास कारों की पार्किंग व्यवस्था हो, जिन्हें सँभालने के लिए यूनिफॉर्म-धारी कर्मचारी हों। विज़िटर्स को बाहर ही गाउन, मास्क और टोपी दी जाए जो पूरी तरह सैनिटाइज़्ड हों, जैसी वीआईपीज़ को अस्पतालों में दी जाती हैं।

‘इसके अलावा वहाँ एक हैलीपैड भी हो ताकि वीवीआईपी बेझिझक आ सकें। जो दिवंगत राजकीय सम्मान के हकदार हों उनके लिए बैंड और पुलिस की टुकड़ियों के खड़े होने के लिए अलग पट्टियाँ बनायी जाएं। इसके अलावा एक भव्य विशाल शोकसभा हॉल बनाया जाए जहाँ दिवंगत के सम्मान में लोग आराम से अपने विचार प्रकट कर सकें। अभी तो जो हालत है उसमें लोग जल्दी भागने की फ़िराक में रहते हैं।

‘वीआईपी श्मशान में रोशनी का बढ़िया इन्तज़ाम होना चाहिए ताकि वह रात में भी जगमगाता रहे। कुल मिलाकर ऐसी व्यवस्था हो कि मरने वाले को मौत सुहानी लगने लगे। श्मशान इतना बढ़िया बने कि लोग उसे देखने आयें। भाड़े पर रोने वालों की एक परमानेंट टीम भी तैयार की जानी चाहिए।

‘लेकिन एक बात का ध्यान रखना होगा कि जनता को यह न लगे कि यह वीआईपी श्मशान है। उनसे कहेंगे कि उन्हें असुविधा और भीड़-भाड़ से बचाने के लिए ही यह इन्तज़ाम किया गया है।’

सरजू भाई आगे बोले, ‘इस प्रस्ताव को जल्दी आगे भिजवाओ। प्रस्ताव ऊपर पहुँच जाये तो मैं अपने रसूख का इस्तेमाल करके मंजूरी के लिए दबाव डलवाऊँगा। इस उम्र में पता नहीं कब ऊपर से सम्मन आ जाए। इसी एक चीज पर हमारा बस नहीं है, बाकी कोई कष्ट नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-1 ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-1।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-1☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

जब हम साहित्य और समाज की बात करते हैं तब हमें अचानक महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचना साहित्य और समाज का की एक पंक्ति याद आ जाती है. जो पढ़ रहें हैं,लिख है जिसे सब लोग अपने बातों में,अपने विचारों में उदाहरण देते हैं. “साहित्य समाज का दर्पण है” इस पंक्ति को हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक, कॉलेज से लेकर आज तक साहित्य के संदर्भ में कह देते हैं, कहते रहे हैं. यह पंक्ति सिर्फ लेखक ही नहीं आम पाठक भी साहित्य के संदर्भ में अपनी बात बहुत आसानी से क्या कह जाता है.यह सच भी है, जो लिखा गया है.यह जो लिखा जा रहा है. या भविष्य में भी लिखा जाएगा. वह समाज को सामने रखकर ही लिखा जाएगा.अन्यथा  वह लिखा गैर जरूरी सा लगेगा और जो हमारे समाज और व्यक्ति के हित में नहीं है वह साहित्य गैरजरूरी ही है साहित्य की हम बात करते हैं. तब अपने आप समय के साथ दौड़ने लगते हैं. तो वह समय हजारों साल पुराना सौ साल पुराना, आज का समय, या आज के अगले हजार या सौ साल पहले की बात करने लगता हैं . हमारे जरूरतों में साहित्य किसी न किसी रूप में  गुंथा बंधा हुआ है.और हम उससे भाग नहीं सकते .इसलिए महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के अध्ययन के बाद यह पंक्ति उनके विचारों में कौंधी  होगी. साहित्य में समय की बात ना हो तो उसे साहित्य कहने में भी हिचक सी लगती है. अतः जब भी हम किसी के साहित्य का मूल्यांकन करते हैं उसका बैरोमीटर उस समय का ही होता है. उसके साथ व्यक्ति के साहित्य में समय का तापमान कितना है. समय का तापमान ही है जो हमें हमारे समय को, हमारी स्मृतियों ही हमारे साहित्य को बहुत लंबे समय तक आगे ले जाता है. विगत कुछ महीनों पहले पूरा विश्व एक कठिन संकट से गुजरा है. जो हमें लंबे समय तक याद रहेगा और मुमकिन है यह आने वाली पीढ़ी भी हमारी स्मृतियों के सहारे आगे ले जाने में सक्षम होगी. यह बहुत आधुनिक काल है. विज्ञान दिन पर दिन व्यक्ति को बेहतर करने के लिए तत्पर है. इसके बावजूद भी हम कहांँ पर खड़े हैं. पिछड़े हैंऔर.हम असहाय सा महसूस कर रहे हैं. क्योंकि कुछ चीजें हमारे बस में नहीं है.इस कठिन समय में जब चारों ओर हा हा कार मचा है. रोज टीवी सोशल मीडिया और अखबारों में मृत्यु दरों की सूचना बाजार के सेंसेक्स की भांति दे रहे हैं चारों दिशाओं में  सेंसेक्स के आंकड़ों से मीडिया सराबोर है. पहले पढ़कर सुनकर दिल धक से हो जाता रहा है. कारोना के आंकड़े परेशान तो करते थे ही, पर.जिस चीज अधिक चिंता रहती थी. वह था दो शब्दों में बँटा जीवनसाथी. दो शब्द  लाक और अनलॉक. इन दोनों शब्दों के बीच में सारी दुनिया सिमटकर रह गई . उन दो शब्दों के लिए बीच में आज समाज  भूल गया था कि आगे भी जीवन है और जीवन है तो साहित्य भी है. यह सब समय समय का फेर है.आज हमारे संस्कार संवेदना और चरित्र पूरी तरह बदल गया है.उस समय बंद रहते हुए भी जीवन की तलाश शुरु हो गई थी. कारोना के भय का इतना आतंक था .कि हम बंद कमरे में जीवन तलाश रहे थे.. मैं आदिवासी अंचल से हूंँ।मुझे अच्छे से याद है कि जब घर के सामने से शवयात्रा निकलती थी. जब दादी बाहर जाने से रोकती थी, वह दरवाजा खोल कर ओट बनाकर देखा करती थी. जब शव यात्रा निकल जाती तो रास्ते पर पानी पर का होगा डाल देती थी.उसके पीछे यह मान्यता रही होगी कि मृत्यु का भय धुल गया है.और कुछ समय तक वातावरण शांत रहता था. वह  कारोना का समय ,मृत्यु ताण्डव का समय था .हम असहाय मजबूर थे. हमारी संवेदनाओं में निष्ठुरता के पंख निकलने लगे थे. उस समय हम अपने आपको बचाने में लगे थे. वह उस समय की मांग थी कि हम अपने को बचाएं, समाज को बचाएं और साहित्य को बचाए रखना है इस बचाए रखने के उपक्रम में यह रचनात्मक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में आधुनिक तकनीक के माध्यम से बीच का रास्ता निकाला और उस रास्ते ने हमें जीवन के उत्स को बचाने में बहुत मदद की और वह था आधुनिक तकनीक का कमाल.. उसे नया शब्द मिला बेबीनार. बेबीनार और सोशल मीडिया के प्लेटफार्म ने साहित्य को गढ़ने और प्रस्तुत करने का नया माध्यम दिया. और यह जीवन और साहित्य चल पड़ा.  साहित्य और समाज सदा आमने-सामने देखते हैं पर एक दूसरे के समा प्रभाव से तभी तो पूर्व की पूर्ववर्ती विद्वान साहित्यकारों ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है. जब हम साहित्य और समय पर बात करते हैं तो सर्वप्रथम जीवन को प्रभावित करने वाली चीजें सामने आती हैं.वह भविष्य में साहित्य में बनकर आती हैं. इसी तरह हम अतीत को साहित्य के अनेक कालखंड में देख सकते हैं. या यों कहें हम अपनी सुविधा के लिए कालखंड में विभाजित कर सकते हैं. जिस आधुनिक काल में की बात करते हैं. उसका का मोटे तौर से सन्1900 से मान सकते हैं. जिसे भारतेंदु काल कहते हैं. पर साहित्य तो पहले भी प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा था. कबीर ने अपने समय के अराजक समय को निर्ममता उधेड़ कर रख दिया है जिसे हम सिद्दत याद करते हैं. वह रचनात्मक प्रक्रिया स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ती गई. कबीर ने शबद,बानी में अपने समय के बारे में जो कुछ कहा वे उनके शिष्यों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढी आगे स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ते गए. वे उसे याद कर गांव के चोपाल, मण्डलियों सुनाते रहे  लोगों को लगता कि कबीर नयी बात कर रहा है और उसे याद कर एक गांव से दूसरे गांव और दूसरे गांव से तीसरे गांव, इस तरह यह क्रम चलता रहा. और लोगों में जागृति का भाव आता रहा. उदाहरण के रूप लोगों का विश्वास था कि काशी में मरने से व्यक्ति उसे मुक्ति मिल जाती है. मृत्यु सन्निकट होने पर  लोग व्यक्ति को लोग बनारस छोड़ जाते थे मरने के लिए.इस अंधविश्वास को उघाड़ते हुए कबीर बनारस से मगहर आ गए

क्या काशी क्या मगहर राम हृदय बस मोरा

जो कासी तन तजै कबीरा रामे कौन निहोरा

उनका यह मानना था काशी हो या मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर है. मेरे हृदय में राम बसे हैं. अगर सिर्फ काशी में राम बसने से मुक्ति मिल जाए  तो मेरे हृदय में राम का क्या एहसान रह जाएगा. इसी मुक्ति पर कबीर अपने समय की विसंगतियों पर कठोर प्रहार करते हुए कहते हैं..

 साधो भाई, जीबत ही करो आशा

जीबत समझे जीबत बूझे, जीबत मुक्ति निबासा

जीवत करम की फाँस न काटी, मुये मुक्ति की आसा

तन छूटे जिब मिलन कहत है, सो  सब  छूटी  आसा

अबहुँ मिला तो तबहुँ मिलेगा, नहीं तो जमपुर बासा

सत्त   गहे  सतगुरू को  चीन्हे  सत्त-नाम  बिस्बासा

कहें कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा।

 कबीर ने लोगों को चेताया की जीवन है और जीवन में ही मुक्ति है, मृत्यु के बाद मुक्ति का कोई भी अन्य साधन आशा नहीं है अतः जो हमारे पास साधन है. वही हमारी मुक्ति का माध्यम है. मुक्ति जीवन का भ्रम है.  कबीर ने अपने समय की व्याप्त विसंगतियों ,अंधविश्वासों को लोगों के सामने उजागर किया है.ढोंग और पाखंडॴ यों से उन लोगों को बचाने का उपक्रम किया है यही साहित्य का मूल उद्देश्य साहित्य अपने समय के साथ चलते हुए जीवन और समाज में व्याप्त कमजोरियों विसंगतियों पाखंडियों को उखाड़ कर बेहतर जीवन का मार्ग निर्माण करता है जब हम उन चीजों को पढ़ते हैं तो उस समय काल को भी पढ़ रहे होते हैं उस समय काल को भी जीवन से जोड़ते हैं. तब हमें पता चलता है की साहित्य अपने समय से लोगों को परिचय करा रहा है .एक नया इतिहास रचता है और भविष्य के लिए आगे पीढ़ी को अवगत कराता है तब साहित्य को समय के समयांतर को लेकर बात करते हैं. तब हम कुछ न कुछ गढ़ रहे होते.बुन रहे होते हैं यह यह बुनना चुनना, गढ़ना, पढ़ना ही साहित्य हैं जो जीवन के मूल से साझात्कार कराता है..

***

क्रमशः….. ( शेष अगले अंको में.)

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 75 ☆ रिव्यू के व्यू ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “रिव्यू के व्यू”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 75 – रिव्यू के व्यू

आजकल किसी भी कार्य की गुणवत्ता उसकी रेटिंग के आधार पर तय होती है। लोगों ने क्या रिव्यू दिया ये सर्च करना कोई नहीं भूलता। इसे साहित्यकारों की भाषा में समीक्षा कह सकते हैं। हमारे कार्यो को कसौटी पर कसा जाता है। हम लोग तो भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण तक के गुण दोषों का आँकलन करने से नहीं चूकते तो भला इंसानी गतिविधियों को कैसे छोड़ दें।

वैसे इसका सबसे अधिक उपयोग पार्सल वाली सर्विसेज में होता है।कोई होटल सर्च करने से लेकर कपड़े, किताबें, ट्रैवेल एजेंसी या खाना मंगवाना आदि में पहले लोगों के विचारों को पढ़ते हैं कितनी रेटिंग मिली है उसी आधार पर दुकानों का चयन होता है। मजे की बात है कि डॉक्टर व हॉस्पिटल भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। मैंने एक डॉक्टर का नाम जैसे ही गूगल पर  डाला तो सैकड़ों कमेंट उसकी बुराइयों में आ गए, पर मन तो बेचारा है वो वही करता है जो ठान ले। बस फिर क्या उसी के पास पहुँच गए दिखाने के लिए। बहुत सारी जाँचों के बाद ढेर सारी दवाइयाँ लिखी गयीं पर सब बेअसर क्योंकि डॉक्टर रोग को समझ ही नहीं पाए थे। तब जाकर समझ में आया कि रेटिंग की वेटिंग पीछे थी और रिव्यू कमजोर थे पर अब तो रिस्क ले लिया था सो मन मार कर रह गए।

ऐसा ही पुस्तकों के सम्बंध में भी होता है, जिसकी ज्यादा चर्चा हो उसे ही अमेजॉन से आर्डर कर दिया जाता है। सबसे ज्यादा बिकनी वाली पुस्तकें व उसके लेखक सचमुच योग्य होते हैं। बेचने की कला ने ही विज्ञापन को जन्म दिया है और उसे खरीदने पर विवश हो जाना वास्तव में समीक्षा का ही कमाल होता है।

पत्र पत्रिकाओं में सबसे पहले लोग पुस्तक चर्चा ही पढ़ते थे। अपनी तारीफ करवाने हेतु बूस्ट पोस्ट कोई नई बात नहीं है। आखिर जब तक लोगों को जानकारी नहीं होगी वे कैसे सही माल खरीदेंगे। साहित्य में तो आलोचना का विशेष महत्व है कई लोग स्वयं को आलोचक के रूप में स्थापित करके ही आजतक विराजित हैं। जब चिंतन पक्ष में हो तो समीक्षा की परीक्षा अच्छी लगती हैं किंतु जब विपक्ष में बैठना पड़े तो मन कसैला हो जाता है। खैर जो भी  हो गुणवत्ता का ध्यान सभी को अवश्य रखना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 23 ☆ व्यंग्य ☆ चूल्हा गया चूल्हे में ….. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “चूल्हा गया चूल्हे में…..” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 23 ☆

☆ व्यंग्य – चूल्हा गया चूल्हे में ☆ 

सन् 2053 ई.!

‘लेडीज एंड जेंटलमेन, म्यूजियम के इस सेगमेंट को ध्यान से देखिये. आर्यावर्त के मकानों में कभी किचन हुआ करते थे.’ – गाईड रसोईघर की प्रतिकृति दिखाते हुवे पर्यटकों को बता रहा था – ‘लोग अपने मकानों में भोजन बनाने लिए अलग से जगह निकालते जिसे रसोईघर कहा जाता था. छोटे से छोटे मकान में भी किचन के लिए जगह निकाली जाती थी. सभ्यता विकसित हुई, मोबाइल फोन आये, फूडपांडा, ज़ोमेटो, स्वीग्गी जैसे फूड एग्रीगेटर आये, क्लाउड किचन परिवारों के किचन को निगल गये. जनरेशन अल्फा को दस बाय दस का किचन भी वेस्ट ऑफ स्पेस लगने लगा. लेन्डर, फ्रीज़, ओवन, मिक्सर-ग्राईन्डर, चिमनी, टपर-वेयर के दो सौ से ज्यादा डिब्बे-डिब्बियों में नोन-तेल-मिर्ची. फूड-ऐप्स आने के बाद उन्होने न बांस रखे न बांसुरी बजाने के सरदर्द. आटा पिसवाने से लेकर बर्तन माँजने तक की बेजा कवायदों से उन्हे मुक्ति मिली. आर्यिकाओं को जित्ती देर आटा उसनने में लगती उससे कम देर में – पिज्जा डिलीवर हो जाता.’

‘सनी डार्लिंग – व्हाट इज दैट ?’ – टूरिस्ट ग्रुप में एक लेडी ने अपने हस्बेंड से पूछा.

‘दैट इज ए चूल्हा. ओल्ड टाईम में इन पर फूड कुक किया जाता था.’

‘एंड बिलिव मी – ये लकड़ी-कंडो से जलता था’ – गाईड ने अपनी ओर से जोड़ा.

‘कंडो!! व्हाट कंडो !!!’

‘वो ना काऊडंग को ड्राय करके फायर करके उस पर कुक करने का मटेरियल को बोलते थे.’

‘स्टूपिड पीपुल. काऊडंग पे कुकिंग!!’ – सोच से ही बदबूभर गई. उन्होने भौं के साथ नाक भी सिकोड़ी और झट से उस पर रुमाल रखा.

‘यस मैम बट फिर गैस से जलने वाले चूल्हे आये, फिर बिजली से चलने वाले. झोमेटो, स्वीग्गी, डोमिनो के आने के बाद चूल्हे चूल्हे में चले गये. दरअसल, आर्यजन रसोईघर को परिवार के स्नेह और मिलन का स्थान मानते थे.’

‘बैकवर्ड पीपुल.’

‘यस मैम, वे मानते थे कि किचन में एक साथ बैठकर भोजन करने से दुख-सुख की शेयरिंग हो जाती है, गिले शिकवे दूर जाते हैं, सदस्यों में समभाव और प्रेम बढ़ता है. किचन घर में धुरी की तरह होता. एक दकियानूस सी अवधारणा थी जिसे माँ के हाथ का खाना कहा जाता था. माँ घर में हर एक से पूछती खाने में क्या बनाऊँ..क्या बनाऊँ..फिर बनाती वही जो उसका मन करता. मगर जो भी बनाती उसमें स्वाद तो मसालों से आता ‘श्री’ माँ के हाथ की होती. किचन के विलुप्त होने की शुरूआत आउटिंग के चलन से हुई, फिर आउटिंग घर में घुस आया. लोग घर में बाहर का खाना बुलवाने लगे. डब्बाबंद खाने ने घर जैसे खाने का दम भरा और ‘घर में खाना खाने की जगह’ डिब्बे में समा गई. फिर यंग मदर्स में सिंगल पेरेंटिंग का चस्का लगा, खाना बनाना झंझट का काम लगने लगा. मदरें रसोई से फारिग होकर फेसबुक वाट्सअप, इंस्टाग्राम में समा गईं, और किचन म्यूजियम में.”

‘गुड, बट टुमारा चूला से फिंगर बर्न होता होयंगा.’ – अबकी बार उसने गाईड को कहा.

‘यस, बर्न तो होता था बट जैसा मैंने बताया ना आपको अजीब टाईप की लेडीजें हुआ करती थी, हाथ जले तो जले रोटी फूली फूली परोसने में सुख पाती थीं. माना जाता था घर में रसोईघर न हो तो घर घर नहीं होता, मकान होता है. जनरेशन अल्फा ने मकान को मकान ही रहने दिया. चलिये, अगले सेगमेंट में चलते हैं जहाँ आप आर्यावर्त से विलुप्त हो चुकी साड़ी देख पायेंगे.’    

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #112 ☆ व्यंग्य – इश्क की दुश्वारियाँ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘इश्क की दुश्वारियाँ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 112 ☆

☆ व्यंग्य – इश्क की दुश्वारियाँ

कुछ दिन पहले भोपाल के दो मुख़्तलिफ़ धर्मों के लड़के-लड़की ने शादी कर ली और शहर में भूचाल आ गया।  ‘पकड़ो, पकड़ो,जाने न पाये’ शुरू हो गया और प्रेमी जोड़ा अपनी जान लेकर वैसे ही भागने लगा जैसे जंगल में हाँका होने पर जानवर जान बचाते भागते हैं। इत्ता बड़ा मुल्क होने पर भी प्रेमियों को बचने का ठौर ढू्ँढ़ना मुश्किल हो जाता है क्योंकि धर्म और बिरादरी के हाथ कानून के हाथों से भी ज़्यादा लम्बे होते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब ने इश्क को ‘आग का दरया’ बतलाया था जिसमें से डूब कर जाना होता है। भोपाल के इस प्रेमी जोड़े की दुर्गति देखकर लगता है कि मिर्ज़ा साहब ने बिलकुल दुरुस्त फरमाया था।

हम भले ही लैला-मजनूँ, हीर-राँझा या सोहनी-महिवाल के गीत झूम झूम कर गाते हों,लेकिन जब आज के ज़माने में कोई हीर- राँझा पैदा हो जाते हैं तो ज़माना लट्ठ लेकर उनके पीछे पड़ जाता है। हीर-राँझा और सोहनी-महिवाल कहानियों और गीतों में ही भले। अच्छा ही हुआ कि ये महान प्रेमी जोड़े आज के ज़माने में पैदा नहीं हुए,वर्ना फजीहत को प्राप्त होते।

बाबा बुल्लेशाह की वाणी भी बड़ी सुहानी लगती है—‘बेशक मन्दिर मस्जिद तोड़ो,पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो।’ लेकिन होता यह है कि मन्दिर-मस्जिद को महफूज़ रखने के लिए प्यार भरे दिल ही नहीं, प्रेमियों के सर भी तोड़े जा रहे हैं।

दरअसल झगड़े की जड़ यह है कि ऊपर वाले ने विवाह, बिरादरी, जाति, धर्म का कंट्रोल तो मनुष्य के हाथ में सौंप दिया, लेकिन इश्क की चाबी अपने पास रख ली। इसीलिए कहा जाता है कि इश्क किया नहीं जाता, हो जाता है। इश्क इसलिए हो जाता है कि आदमी पर जाति, धर्म का ठप्पा धरती पर पैदा होने के बाद ही लगता है, ऊपर से वह सिर्फ इंसान के रूप में आता है। जब ऊपर वाले ने कोई फर्क नहीं किया तो इंसान कोई बैरियर क्यों लगाये?इश्क के रेले में सब बाँध बह जाते हैं।

अगर इश्क का कंट्रोल भी ऊपर से ट्रांसफर होकर बिरादरी के हाथ में आ जाए तो सारी खटखट ख़त्म हो जाएगी। फिर लड़की बिरादरी वालों से परमीशन माँगेगी—‘भाई जी, मुझे एक दूसरे धरम वाला लड़का अच्छा लगता है। आप परमीशन दें तो उससे प्यार कर लूँ।’ बिरादरी सिर हिलाकर कहेगी, ‘ना सोणिए, परमीशन नहीं मिलेगी। तू दूसरे धरम वाले से प्यार करेगी तो पूरी बिरादरी की नाक कट जाएगी। इस इश्क की अब्भी गर्दन मरोड़ दे।’और लड़की एक आदर्श कन्या की तरह,मन में अँखुआ रहे प्रेम को उखाड़ फेंकेगी। जब लड़का मिलेगा तो उससे कहेगी, ‘सॉरी डियर, बिरादरी से परमीशन नहीं मिली। मुझे भूल जाओ और इश्क के लिए कोई बिरादरी की लड़की ढूँढ़ लो।’
एक दलित लेखक को एक ऐसी ही समझदार कन्या मिली थी। वह उनको उच्च जाति का समझ कर उनसे प्यार करने लगी थी, लेकिन जब लेखक ने उसे अपनी जाति बतायी तो उसका प्रेम-प्रवाह अवरुद्ध हो गया। वह काफी रोयी धोयी, लेकिन प्रेम को आगे बढ़ाने की नासमझी नहीं की।   जाति की दीवार से टकराकर प्रेम का कचूमर निकल गया। ऐसी ही समझदार और आज्ञाकारी लड़कियों और ऐसे ही लड़कों के बूते बिरादरी की नाक सलामत रहती है।

यही हाल रहा तो एक दिन कोई लड़की लड़के से कहेगी, ‘मेरे दिल में तुम्हें देखकर प्यार के वलवले उठ रहे हैं। काश तुम मेरी बिरादरी के होते।’ ऐसे ही कोई लड़का आह भरकर लड़की से कहेगा, ‘भगवान से मनाता हूँ कि अगले जनम में मुझे तुम्हारी बिरादरी में पैदा करें। तभी हमारा तुम्हारा मिलन हो पाएगा।’

बिरादरी के नज़रिये से अच्छे बेटे बेटियों को इश्क विश्क में पड़ने का काम शादी के बाद ही करना चाहिए, यानी सिर्फ अपनी बीवी या शौहर के साथ। बहुत से आदर्श पति अपनी बीवी पर कुर्बान होते हैं। और अगर बीवी से इश्क नहीं भी हो सका तो क्या हर्ज़ है?सन्तानोत्पादन का दुनियावी काम तो चलता ही रहेगा। उसके लिए इश्क ज़रूरी नहीं है। मेरे शहर के एक कवि ने इश्क और हुस्न की क्षणभंगुरता का बयान करते हुए लिखा था—‘इश्क फसली बुखार है प्यारे, हुस्न मच्छर की मार है प्यारे।’

लेकिन बिरादरी के ये लम्बे हाथ सिर्फ सामान्य लोगों तक ही पहुँचते हैं। ऊँचे तबके के लोगों तक पहुँचने में ये हाथ छोटे पड़ जाते हैं और विरोध के स्वर ठंडे पड़ जाते हैं क्योंकि उस तबके के लोगों में बिरादरी को ठेंगा दिखाने की ताकत होती है। फिल्म नगरी मुख़्तलिफ़ धर्म वालों की शादियों से पटी पड़ी है, लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठती क्योंकि वहाँ बिरादरी वालों की गुज़र नहीं है।

प्रसिद्ध कथाकार ओ. हेनरी की एक कहानी है जिसमें दो प्रेमी दो तरफ खड़े, अपनी प्रेमिका को प्रभावित करने के लिए अपनी अपनी संपत्ति का बखान करते हैं। प्रेमिका दोनों के बीच खड़ी है और जैसे ही कोई प्रेमी अपनी संपत्ति का ब्यौरा देता है, वह दौड़ कर उसके गले से लग जाती है। वह ऐसे ही दोनों प्रेमियों के बीच दौड़ती रहती है। ऐसी कन्याएँ बिरादरी के हिसाब से आदर्श होती हैं क्योंकि वे नाप-तौल कर निर्णय लेती हैं, जज़्बातों में नहीं बहतीं।

वैश्वीकरण के इस युग में शादियों में जाति धर्म के बंधन लगना अटपटा लगता है। एक तरफ तो भारतीय युवक युवतियाँ पूरी दुनिया में उड़ते फिर रहे हैं, दूसरी तरफ जाति धर्म के नाम पर उनके पर कतरे जा रहे हैं। इस खींचतान में भारतीय युवा की गाड़ी किस सदी में पनाह लेती है यह देखने की बात है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ व्यंग्य ☆ क्यों नहीं आते लेखक अच्छे अच्छे….. ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ व्यंग्य ☆ क्यों नहीं आते लेखक अच्छे अच्छे…..☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

अपने देश के विश्वविद्यालयों में अभी तक सिर खफा रहे हैं शोधार्थी कि सूरदास वगैरह प्राचीन कवियों के जन्मस्थान कहां हैं ?बेचारे शोध छात्र क्या करें ? सूरदास और तुलसीदास के काव्य सौंदर्य का आनंद लेने की बजाय उनके जन्म मरण के रहस्य में फंसे हैं ।

दूसरी तरफ हालत संत कवियों की भी अच्छी नहीं । कोई उन्हें कहीं विराजमान करता है तो कोई दूसरा कहीं और शोभायमान कर देता है । बेचारे संत कवि । इतिहास में भी एक जगह टिक कर बैठ नहीं सकते ।भक्ति में , काव्य में , लेखन में गले गले तक यानी आकंठ डूबे रहे और साहित्य रचते रहे । अपने शिष्यों को अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया ।बस , काव्य ग्रंथ हाज़िर कर दिये कि लो , इनमें हमें ढूंढो रे बंदे । उन संत कवियों की नज़र में जन्म स्थान, जन्म तिथि व दूसरी किस्म के निजी ब्यौरे गैर-जरूरी थे । उनकी नज़र में मंगल की भावना ही प्रमुख थी ।

जहां प्राचीन कवि अपने लेखन से आज तक जाने पहचाने जाते हैं , वहीं आज लेखक तो मौजूद है लेकिन उसका लेखन गायब है । आज लेखक की साक्षात मूर्ति के दर्शन तो हो सकते है पर उसके लेखकीय दर्शन व विचार क्या हैं , इसे शोध का विषय बनाना पड़ेगा । आज का लेखक आत्मकथा और गर्दिश के दिन जैसी आत्मरचनाएं पहले लिखता है और असली लेखन बाद में करता है । यह है मैनेजमेंट फंडा । शायद वह हिन्दुस्तानी फिल्मों की हीरोइन की तरह आंसू अधिक बहाता है और मतलब की बात कम ही करता है ।

आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु माने जाते हैं । सब जानते हैं कि भारतेंदु इनका नाम नहीं बल्कि उपाधि है -प्यार से दी हुई उपाधि । इन्होंने सितारे हिंद बनने की बजाय भारतेंदु बनना पसंद किया । अंग्रेज सरकार की बजाय जनता से मिली उपाधि स्वीकार की । पुरस्कार की दौड़ में शामिल न होकर हिंदी सेवा की दौड़ में शामिल होना पसंद किया । एक पूरा युग भारतेंदु के नाम हो गया । आज लेखक पुरस्कारों के पीछे इतने दीवाने हो चुके हैं कि जैसे तैसे पुरस्कार पा लेना चाहते हैं और पुरस्कृत होने का गौरव पा लेना चाहते हैं । इसीलिए पुरस्कारों की  अहमियत गौण होती जा रही है और राशि महत्त्वपूर्ण होती जा रही है । ऐसा लगता है कि ये पुरस्कार लेखन पर न होकर किसी ताश या लाॅटरी के रूप में निकाले जाते हों । या किसी औघड़ बाबा के आशीर्वाद का फल । सही लेखक की पहचान लेखन से होती है न कि पुरस्कारों से ।

भारतेंदु के पास बाप दादा का इतना धन था कि उसके बारे में खुद भारतेंदु कहते थे कि इस धन ने मेरे बाप दादा को खाया , मैं इसे खाकर ही जाऊंगा । भारतेंदु ने धन खाया नहीं बल्कि हिंदी की सेवा में अधिक लगाया । लेखक मंडली बनाई और लेखकों की जरूरत पड़ने पर आर्थिक सहायता की । आज हालत यह है कि लेखक मंडली नहीं बनाते बल्कि अपना अपना मठ बनाते हैं , माफिया बनाते हैं और भारतेंदु नहीं बल्कि मठाधीश कहलाते हैं । आजकल के लेखकों का एक ही नारा है :

हम तुम्हें

तुम हमें छापो ।

हम तुम्हें

तुम हमें उछालो ।

जो हमारे मठ का नहीं

उसे गिराओ ।

हिंदी साहित्य में से

उसका नाम मिटाओ …..

हालांकि हम सब जानते हैं कि साहित्य में नाम लिखना मठाधीशों के साथ में नहीं बल्कि पाठक के साथ में है ।

हिंदी साहित्य में एक पूरा युग दरबारी युग रहा है । दरबारी युग यानी रीतिकाल । इस युग के कवि राजाओं को खुश करने के लिए दोहे रचते थे । इन सबमें बाजी मार ले गये बिहारी बाबा जिनके एक दोहे पर सोने की अशर्फी मिलती थी । दरबारियों की वाह वाही अलग । वैसे इसी काल में कवि भूषण भी हुए जिनकी पालकी को खुद छत्रसाल ने कंधा दिया था :

शिवा को सराहों

 के सराहों छत्रसाल को ।

अब हम इसी तर्ज पर पूछ सकते हैं कि

बिहारी को सराहों

 के सराहों छत्रसाल को ?

इसीलिए तो स्वर्गीय डाॅ इंद्रनाथ मदान ने एक इंटरव्यू में चुटकी ली थी कि साधन तो बढ़ रहे हैं लेकिन साधना घट रही है । लेखक का उद्देश्य बड़ी पत्रिका से ज्यादा पैसा कमाना हो गया है । जबकि लेखक का उद्देश्य पैसे कमाना नहीं बल्कि रहती दुनिया तक नाम कमाना होता है ।

मुंशी प्रेमचंद लेखन और मजदूरी को एक ही समान समझते थे । एक बार एक आदमी उनसे मिलने आया । वे उस समय लिखने मे अर्थात् मजदूरी करने में व्यस्त थे । कुछ देर बात कर उन्होंने उस आदमी से पूछा कि यदि एक मजदूर मजदूरी नहीं करेगा तो खायेगा क्या ?

इस पर वह अतिथि बोला कि भूखा मरेगा और क्या होगा?

मुंशी प्रेमचंद ने कहा -एक लेखक लिखेगा नहीं तो खायेगा क्या ?

 मुंशी प्रेमचंद के मजदूरी शब्द को अनेक लेखकों ने अपनाया जरूर लेकिन बड़े  गलत तरीके से । आज बुक स्टाल ऐसी पत्रिकायें से भरे पड़े हैं जो युवा वर्ग को गुमराह कर रहा है । वे बड़ी शान से कहते हैं कि हम मुंशी प्रेमचंद की तर्ज पर मजदूरी कर रहे हैं । कम पैसे के लिए अश्लील साहित्य धड़ाधड़ लिखते चले जा रहे हैं । उरोजों चुम्बकों की बात करते रहते हैं । तब मुझे ऐसे एक लेखक महोदय को याद दिलाना पड़ा कि मुंशी प्रेमचंद जहां कलम के मजदूर थे वहीं वे कलम के सिपाही भी थे । उन्होंने मुम्बई की फिल्मी दुनिया को भी ठोकर मार दी थी । वे फिल्म निर्माताओं की कहानी बदलने की मांग को पचा नही पाये और वापस आ गये । कुछेक सिक्कों के लिए मुंशी प्रेमचंद ने समाज पर अपने पहले में कोई ढील नहीं दी थी । इसीलिए वे कहते थे कि साहित्य समाज को सुलाने के लिए नहीं बल्कि जगाने के लिए है ।

दूर क्या जाना । जैसे कल की बात हो । मोहन राकेश ने जब अनिता राकेश को कहा कि देखो , मेरी ज़िंदगी में पहले स्थान पर मेरा लेखन, दूसरे पर दोस्त और तीसरे पर तुम्हारी जगह है । अगर तुम इसमें कुछ उलट पुलट करोगी तो मुसीबत में पड़ जाओगी ।

इस बात की खूब आलोचना हो रही है और हुई भी । मोहन राकेश को खानों में ब॔टा आदमी तक कहा गया । जो भी हो , वे लेखक के तौर पर ईमानदार आदमी थे । लेखक के लिए लेखन सबसे पहले स्थान पर नहीं होगा तो क्या किसी बनिए के बही खाते में होगा ? आज कितने लेखक हैं जो लेखन के लिए उचित माहौल न पाकर मोहन राकेश की तरह इस्तीफे दर इस्तीफे दे सकते हैं ? कितने लेखक हैं जो सुविधाओं के पीछे न भाग कर लेखन के लिए और लेखक बन कर बंटे रह सकते हैं ? शब्द का मोल चुकाने वाले कितने लेखक हैं ?

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने भी द ओल्ड मैन एंड द सी उपन्यास लिखने के लिए मछुआरों के बीच समय गुजारा था । उस उपन्यास को नोबेल पुरस्कार मिला । तोल्सटाय ने वार एंड पीस उपन्यास को बी  बार से ऊपर लिखा या निरंतर संशोधित किया । ऐसा धैर्य और ऐसा त्याग किस लेखक में है या कितने लेखकों में है ?

कहा जाता है कि विदेशों में लेखक की असली लेखन यात्रा चालीस साल के बाद शुरु होती है क्योंकि वह जीवन के अनुभव से भरपूर हो जाता है जबकि हमारे दे  में एकदम उलट हैं हालात । बहुत सारे लेखक चालीस तक पहुंचते पहुंचते मठाधीश या परामर्शदाता बन चुके होते हैं ।

एक अखबार के संपादक के पास एक नवोदित कवि आया और अपनी रचना देकर कहा कि मुझे भी कवियों की लाइन में लगा दीजिए ।

इस पर संपादक महोदय ने बहुत शानदार जवाब दिया कि बरखुरदार , लाइन तो पहले ही बहुत लम्बी लगी है  लेकिन कोई इस लाइन का नेता बन सके , उसकी इंतजार है । हो सके तो आप ही आगे आइए न ।

वे कविता बगल में दबाये दुम दुम दफा कर भाग निकले ।

कुम्हारी अपना ही भांडा सलाह तो है । लेखक अपनी ही बिरादरी की आलोचना करने को मजबूर है । और यही पूछ रहा है – क्यों नहीं आते, लेखक अच्छे अच्छे …..?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 74 ☆ व्यस्तता के चलते ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “व्यस्तता के चलते”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 74 – व्यस्तता के चलते

आजकल जिसे देखो वही व्यस्त है। कभी फोन खुद   कह उठता है, इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं। कल  मैंने 10 जगह फोन लगाया, मजे की बात सारे लोगों ने फोन उठाते, यही कहा, बस एक मिनट में बात करते हैं। दरसल वे कहीं न कहीं बातों में व्यस्त थे। हालाकि सभी ने 5 मिनट के भीतर फोन लगाया भी किन्तु दिल ये सोचने पर विवश हो गया कि क्या सचमुच हम लोगों का मोबलाइजेशन हो गया है। मोबोफ़ोबिया से केवल नई पीढ़ी ही नहीं हम सब भी ग्रसित हो चुके हैं। 

डिजिटल होना अच्छी बात है किंतु आपसी मेलजोल के बदले फोन पर ही मिलना- मिलाना किस हद तक उचित कहा जा सकता है। ये सही है कि लोगों के पास समय की कमीं है, अब महिलाएँ भी दोहरी भूमिका निभा रहीं हैं इसलिए मेहमान नवाजी से उन्होंने भी थोड़ी दूरी बना ली है। हम लोग केवल किसी कार्यक्रम में ही मिल पाते हैं जहाँ केवल औपचारिक बातें होती हैं। इन सबसे वो अपनापन कम होता जा रहा है जो पहले दिखाई देता था। 

सारे मुद्दे फोन पर बातचीत से निपटने लगे हैं। भाव – भावनाओं की पूछ – परख कम होती दिखाई देती है। बस मतलबी रिश्तों में उलझता हुआ व्यक्ति उसी के साथ संवाद कायम रखना चाहता है जिससे कुछ लाभ हो। लाभ की बात चले और हानि की तरफ ध्यान न जाए ऐसा हो नहीं सकता। हम सब केवल अपने फायदे का आकलन करते हुए झट से अपनी राय सामने वाले पर थोप देते हैं। जरा ये भी तो सोचिए कि एक के लिए जो अच्छा हो वो जरूरी नहीं कि दूसरे को अच्छा लगे। हम लोग अपनेपन की बातें करते हैं पर निभाने के समय दूसरे के व्यवहार व स्टेटस के अनुरूप आचरण करते हैं।

सम्बंधों को बनाए रखने हेतु समय- समय पर मिलते रहना चाहिए। मन से कार्य करते रहिए बिना फल की आशा किए। याद रखिए कि यदि आम का बीज आपने बोया है, तो आम  मिलेगा बस सही समय का इंतजार करना होगा।

हममें से अधिकांश लोग नेह रूपी बीज तो बोते हैं, पर अंकुरण होते  ही  फल की आशा में जड़  खोदने लग जाते हैं , अरे मूल ही तो आधार है वृक्ष का इसकी मजबूती पर ही तो तना व शाखाएँ निर्भर हैं। यही बात रिश्तों पर भी लागू होती है उसे समझने के लिए त्याग और वक्त देना पड़ता है तभी मिठास आती है।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #111 ☆ व्यंग्य – एक संकटग्रस्त प्रजाति ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  एक संकटग्रस्त प्रजाति । इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 111 ☆

☆ व्यंग्य – एक संकटग्रस्त प्रजाति

हाल ही में एक सर्वे से यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि हमारे देश में ईमानदार लोगों की संख्या, जो आज़ादी के समय करोड़ों में थी, अब जनसंख्या तिगुनी होने के बावजूद घट कर कुछ लाखों में रह गयी है। यह तथ्य सामने आते ही सरकारी स्तर पर बड़ी भागदौड़ शुरू हो गयी। यह चिन्ता व्यक्त की गयी कि अगर यह तथ्य भ्रष्टाचारी देशों की लिस्ट बनाने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की जानकारी में आ गया तो हमारी फजीहत हो जाएगी।’डिज़ास्टर मैनेजमेंट’ की बातें होने लगीं।  ‘समथिंग हैज़ टु बी डन इमीडिएटली। इट इज़ अ सीरियस क्राइसिस ऑफ कैरेक्टर’।

मीटिंग पर मीटिंग होने लगी। तुरन्त कुछ करना होगा, नहीं तो दुनिया के सामने क्या मुँह दिखाएंगे? हमारा देश धर्मप्रधान देश है, फिर सारे ईमानदार कहाँ ग़ायब हो गये?
आला अधिकारी माथा पकड़े बैठे थे। अभी तक बाघों की घटती संख्या को लेकर परेशान थे, अब यह एक और सरदर्द पैदा हो गया।

मीटिंग में तरह तरह के सुझाव आने लगे। एक अधिकारी बोले, ‘सर, मेरी समझ में नहीं आता कि ईमानदारों की तादाद कम होने पर चिन्ता की क्या बात है। अब अर्थव्यवस्था बाज़ार की शक्तियों के हिसाब से चल रही है। आदमी वहीं जाएगा जहाँ चार पैसे मिलेंगे। हमने इतनी तरक्की कर ली है तो इन पुराने खयालों को कब तक छाती से चिपकाये रहेंगे? ईमानदारी इज़ नाउ आउटडेटेड। लेट अस एक्सेप्ट इट।’

बड़े अधिकारी सर खुजाने लगे,बोले, ‘आपका कहना ठीक है, लेकिन दुनिया अभी भी ‘आनेस्टी’ को ‘इंपार्टेंट’ मानती है। हमारे देश में ईमानदार लोगों का एक ‘रिस्पैक्टेबल नंबर’ तो होना ही चाहिए, अन्यथा हो सकता है कि हमको वर्ल्ड बैंक और दूसरी संस्थाओं की मदद मिलना बन्द हो जाए।’

एक बड़े साहब बोले, ‘सबसे पहले तो ईमानदार आदमी को संरक्षित प्राणी घोषित किया जाए और इसकी ‘पोचिंग’ के खिलाफ कानून बनाया जाए।’

इस पर एक अधिकारी ने शंका प्रकट की, ‘पोचिंग तो जानवरों को मारने के लिए इस्तेमाल होता है। आदमी के संबंध में ‘पोचिंग’ का क्या मतलब? ‘

बड़े साहब बोले, ‘पोचिंग ईमानदार की भले न हो, लेकिन ईमानदारी की तो होती है। लोग ईमानदार को बेईमान बना देते हैं। यह भी तो पोचिंग ही है। इसमें दोस्तों, दफ्तर के

साथियों, अफसरों, पत्नी और परिवार का हाथ हो सकता है। ये सब ईमानदारी की पोचिंग के दोषी हो सकते हैं।’

सुनने वाले हँसने लगे,बोले, ‘इनका पता कैसे लगेगा सर? यह तो भूसे के ढेर में सुई तलाशने जैसा हुआ।’

साहब सर खुजाते हुए बोले, ‘काम तो मुश्किल है, लेकिन कानून बन जाएगा तो ईमानदार लोगों को बेईमानी की तरफ धकेलने वालों के मन में कुछ खौफ पैदा हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक फैसले में कहा है कि पत्नी अगर पति को रिश्वत लेने के लिए उकसाये तो उसे भी बराबर का दोषी माना जाएगा।’

एक अफसर ने सुझाव दिया, ‘ईमानदारी के लिए कुछ ‘इंसेन्टिव’ होना चाहिए। ईमानदारों को ईमानदारी-भत्ता दिया जाना चाहिए। इससे फर्क पड़ेगा।’

दूसरे साहब भुनभुनाये, ‘ईमानदारी- भत्ता रिश्वत और कमीशन की बराबरी कैसे कर पाएगा? कहाँ लाखों करोड़ों और कहाँ कुछ सैकड़ा या हजार!ऊँट के मुँह में जीरा।’

एक और साहब बोले, ‘मेरे खयाल से ईमानदार लोगों का हर शहर में हर साल नागरिक अभिनन्दन होना चाहिए। इससे वातावरण तैयार होगा।’

दूसरे साहब सुँघनी सूँघते हुए उठे, बोले, ‘इसमें दिक्कत यह है कि ईमानदार लोगों की पहचान कैसे होगी? कहीं ईमानदारों के बीच कुछ बेईमान घुस कर सम्मान करा ले गये तो भारी बदनामी होगी। अभी भी अस्सी प्रतिशत बेईमान अपने को सौ टंच ईमानदार मानते हैं। इसलिए अभिनन्दन समारोह में फर्जी लोगों के घुसने की संभावना बनी रहेगी।’

एक अफसर बोले, ‘मेरा सुझाव है कि बेईमानों को फिर से ईमानदार बनाने का एक अभियान चलाया जाना चाहिए। जैसे एक धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म में जाने वालों को पाँव पूजकर वापस लाया जाता है उसी तरह बेईमानों को भी वापस ईमानदारी के बाड़े में लाया जाना चाहिए।’

बड़े अफसर बोले, ‘भाई साहब, अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में जाने वाले ज़्यादातर भोले-भाले आदिवासी होते हैं, इसलिए वे समझाने पर वापस आ जाते हैं। लेकिन बेईमान तो खुर्राट होते हैं, उनकी दाढ़ में खून लगा होता है। समझाने बुझाने से उन पर रत्ती भर असर नहीं होगा।’

एक साहब बोले, ‘मेरे खयाल से ईमानदारों के लिए सरकारी नौकरी में कोटा रख दिया जाना चाहिए। इससे ईमानदारी को बढ़ावा मिलेगा।’

बड़े साहब ने जवाब दिया, ‘फिर वही समस्या होगी। बेईमान लोग झूठे प्रमाण-पत्र ला लाकर सब नौकरियाँ हड़प लेंगे और असली ईमानदार टापते रह जाएंगे।’

फिर सन्नाटा छा गया। बड़े साहब बोले, ‘मेरे दिमाग में एक और बात आयी है। हर डिपार्टमेंट को एक टार्गेट दे दिया जाना चाहिए कि वे हर साल कम से कम उतने लोगों को बेईमान से ‘कन्वर्ट’ करके ईमानदारी के बाड़े में लायें, यानी उनका हृदय-परिवर्तन करायें। इसके लिए डिपार्टमेंट के हेड को पुरस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए।’

तुरन्त एक छोटे साहब हाथ जोड़कर खड़े हो गये, बोले, ‘सर, ऐसा टार्गेट रखकर हम लोगों की फजीहत मत कराइए। आप जानते हैं कि ईमानदार का बेईमान हो जाना आसान है,लेकिन अनुभवप्राप्त बेईमान को पुनः ईमानदार बनाना वैसे ही कठिन है जैसे टूटे हुए दाँत को फिर से बैठा देना। इस असंभव काम में हाथ मत डालिए, सर। सारे विभागों की बदनामी हो जाएगी।’

फिर मौन छा गया।

एक अफसर जो बड़ी  देर से माथे पर बल दिये,आँखें मूँदे बैठे थे, धीरे धीरे उठ खड़े हुए। फिर प्रयत्नपूर्वक अपनी आँखें खोलकर बोले, ‘सर, मैं बड़ी देर से यहाँ चल रही बातें सुन रहा हूँ। सर, मेरा दृढ़ मत है कि इस विषय पर चर्चा करना समय की बर्बादी है। हमारा देश सदियों से महान और सारे संसार का गुरू रहा है। यहाँ से सभ्यता और संस्कृति निकलकर पूरी दुनिया में गयी है। यह बड़े बड़े महापुरुषों और ज्ञानियों का देश है। यहाँ बेईमानी के पनपने की गुंजाइश ही नहीं है। मेरा पक्का विश्वास है कि हमारे देश में एक प्रतिशत भी बेईमानी नहीं है। ये जो आँकड़े छपते हैं, सब हमें बदनाम करने की साज़िश है। यह उन विदेशी ताकतों का षड़यंत्र है जो हमारी प्रगति से परेशान हैं।
‘अतः मेरा तो यह सुझाव है कि जिन लोगों ने हमारे देश में बेईमानी बढ़ने की रिपोर्ट तैयार की है उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाए ताकि आगे किसी की हमारे देश को बदनाम करने की हिम्मत न हो।’

बड़े साहब के मुँह पर राहत का भाव आ गया। प्रसन्न होकर बोले, ‘यह सुझाव सही है। मैं तुरन्त रिपोर्ट बनाने वालों पर कार्यवाही की सिफारिश करता हूँ। अब चिन्ता की कोई बात नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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