श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-1।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-1☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

जब हम साहित्य और समाज की बात करते हैं तब हमें अचानक महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचना साहित्य और समाज का की एक पंक्ति याद आ जाती है. जो पढ़ रहें हैं,लिख है जिसे सब लोग अपने बातों में,अपने विचारों में उदाहरण देते हैं. “साहित्य समाज का दर्पण है” इस पंक्ति को हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक, कॉलेज से लेकर आज तक साहित्य के संदर्भ में कह देते हैं, कहते रहे हैं. यह पंक्ति सिर्फ लेखक ही नहीं आम पाठक भी साहित्य के संदर्भ में अपनी बात बहुत आसानी से क्या कह जाता है.यह सच भी है, जो लिखा गया है.यह जो लिखा जा रहा है. या भविष्य में भी लिखा जाएगा. वह समाज को सामने रखकर ही लिखा जाएगा.अन्यथा  वह लिखा गैर जरूरी सा लगेगा और जो हमारे समाज और व्यक्ति के हित में नहीं है वह साहित्य गैरजरूरी ही है साहित्य की हम बात करते हैं. तब अपने आप समय के साथ दौड़ने लगते हैं. तो वह समय हजारों साल पुराना सौ साल पुराना, आज का समय, या आज के अगले हजार या सौ साल पहले की बात करने लगता हैं . हमारे जरूरतों में साहित्य किसी न किसी रूप में  गुंथा बंधा हुआ है.और हम उससे भाग नहीं सकते .इसलिए महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के अध्ययन के बाद यह पंक्ति उनके विचारों में कौंधी  होगी. साहित्य में समय की बात ना हो तो उसे साहित्य कहने में भी हिचक सी लगती है. अतः जब भी हम किसी के साहित्य का मूल्यांकन करते हैं उसका बैरोमीटर उस समय का ही होता है. उसके साथ व्यक्ति के साहित्य में समय का तापमान कितना है. समय का तापमान ही है जो हमें हमारे समय को, हमारी स्मृतियों ही हमारे साहित्य को बहुत लंबे समय तक आगे ले जाता है. विगत कुछ महीनों पहले पूरा विश्व एक कठिन संकट से गुजरा है. जो हमें लंबे समय तक याद रहेगा और मुमकिन है यह आने वाली पीढ़ी भी हमारी स्मृतियों के सहारे आगे ले जाने में सक्षम होगी. यह बहुत आधुनिक काल है. विज्ञान दिन पर दिन व्यक्ति को बेहतर करने के लिए तत्पर है. इसके बावजूद भी हम कहांँ पर खड़े हैं. पिछड़े हैंऔर.हम असहाय सा महसूस कर रहे हैं. क्योंकि कुछ चीजें हमारे बस में नहीं है.इस कठिन समय में जब चारों ओर हा हा कार मचा है. रोज टीवी सोशल मीडिया और अखबारों में मृत्यु दरों की सूचना बाजार के सेंसेक्स की भांति दे रहे हैं चारों दिशाओं में  सेंसेक्स के आंकड़ों से मीडिया सराबोर है. पहले पढ़कर सुनकर दिल धक से हो जाता रहा है. कारोना के आंकड़े परेशान तो करते थे ही, पर.जिस चीज अधिक चिंता रहती थी. वह था दो शब्दों में बँटा जीवनसाथी. दो शब्द  लाक और अनलॉक. इन दोनों शब्दों के बीच में सारी दुनिया सिमटकर रह गई . उन दो शब्दों के लिए बीच में आज समाज  भूल गया था कि आगे भी जीवन है और जीवन है तो साहित्य भी है. यह सब समय समय का फेर है.आज हमारे संस्कार संवेदना और चरित्र पूरी तरह बदल गया है.उस समय बंद रहते हुए भी जीवन की तलाश शुरु हो गई थी. कारोना के भय का इतना आतंक था .कि हम बंद कमरे में जीवन तलाश रहे थे.. मैं आदिवासी अंचल से हूंँ।मुझे अच्छे से याद है कि जब घर के सामने से शवयात्रा निकलती थी. जब दादी बाहर जाने से रोकती थी, वह दरवाजा खोल कर ओट बनाकर देखा करती थी. जब शव यात्रा निकल जाती तो रास्ते पर पानी पर का होगा डाल देती थी.उसके पीछे यह मान्यता रही होगी कि मृत्यु का भय धुल गया है.और कुछ समय तक वातावरण शांत रहता था. वह  कारोना का समय ,मृत्यु ताण्डव का समय था .हम असहाय मजबूर थे. हमारी संवेदनाओं में निष्ठुरता के पंख निकलने लगे थे. उस समय हम अपने आपको बचाने में लगे थे. वह उस समय की मांग थी कि हम अपने को बचाएं, समाज को बचाएं और साहित्य को बचाए रखना है इस बचाए रखने के उपक्रम में यह रचनात्मक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में आधुनिक तकनीक के माध्यम से बीच का रास्ता निकाला और उस रास्ते ने हमें जीवन के उत्स को बचाने में बहुत मदद की और वह था आधुनिक तकनीक का कमाल.. उसे नया शब्द मिला बेबीनार. बेबीनार और सोशल मीडिया के प्लेटफार्म ने साहित्य को गढ़ने और प्रस्तुत करने का नया माध्यम दिया. और यह जीवन और साहित्य चल पड़ा.  साहित्य और समाज सदा आमने-सामने देखते हैं पर एक दूसरे के समा प्रभाव से तभी तो पूर्व की पूर्ववर्ती विद्वान साहित्यकारों ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है. जब हम साहित्य और समय पर बात करते हैं तो सर्वप्रथम जीवन को प्रभावित करने वाली चीजें सामने आती हैं.वह भविष्य में साहित्य में बनकर आती हैं. इसी तरह हम अतीत को साहित्य के अनेक कालखंड में देख सकते हैं. या यों कहें हम अपनी सुविधा के लिए कालखंड में विभाजित कर सकते हैं. जिस आधुनिक काल में की बात करते हैं. उसका का मोटे तौर से सन्1900 से मान सकते हैं. जिसे भारतेंदु काल कहते हैं. पर साहित्य तो पहले भी प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा था. कबीर ने अपने समय के अराजक समय को निर्ममता उधेड़ कर रख दिया है जिसे हम सिद्दत याद करते हैं. वह रचनात्मक प्रक्रिया स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ती गई. कबीर ने शबद,बानी में अपने समय के बारे में जो कुछ कहा वे उनके शिष्यों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढी आगे स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ते गए. वे उसे याद कर गांव के चोपाल, मण्डलियों सुनाते रहे  लोगों को लगता कि कबीर नयी बात कर रहा है और उसे याद कर एक गांव से दूसरे गांव और दूसरे गांव से तीसरे गांव, इस तरह यह क्रम चलता रहा. और लोगों में जागृति का भाव आता रहा. उदाहरण के रूप लोगों का विश्वास था कि काशी में मरने से व्यक्ति उसे मुक्ति मिल जाती है. मृत्यु सन्निकट होने पर  लोग व्यक्ति को लोग बनारस छोड़ जाते थे मरने के लिए.इस अंधविश्वास को उघाड़ते हुए कबीर बनारस से मगहर आ गए

क्या काशी क्या मगहर राम हृदय बस मोरा

जो कासी तन तजै कबीरा रामे कौन निहोरा

उनका यह मानना था काशी हो या मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर है. मेरे हृदय में राम बसे हैं. अगर सिर्फ काशी में राम बसने से मुक्ति मिल जाए  तो मेरे हृदय में राम का क्या एहसान रह जाएगा. इसी मुक्ति पर कबीर अपने समय की विसंगतियों पर कठोर प्रहार करते हुए कहते हैं..

 साधो भाई, जीबत ही करो आशा

जीबत समझे जीबत बूझे, जीबत मुक्ति निबासा

जीवत करम की फाँस न काटी, मुये मुक्ति की आसा

तन छूटे जिब मिलन कहत है, सो  सब  छूटी  आसा

अबहुँ मिला तो तबहुँ मिलेगा, नहीं तो जमपुर बासा

सत्त   गहे  सतगुरू को  चीन्हे  सत्त-नाम  बिस्बासा

कहें कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा।

 कबीर ने लोगों को चेताया की जीवन है और जीवन में ही मुक्ति है, मृत्यु के बाद मुक्ति का कोई भी अन्य साधन आशा नहीं है अतः जो हमारे पास साधन है. वही हमारी मुक्ति का माध्यम है. मुक्ति जीवन का भ्रम है.  कबीर ने अपने समय की व्याप्त विसंगतियों ,अंधविश्वासों को लोगों के सामने उजागर किया है.ढोंग और पाखंडॴ यों से उन लोगों को बचाने का उपक्रम किया है यही साहित्य का मूल उद्देश्य साहित्य अपने समय के साथ चलते हुए जीवन और समाज में व्याप्त कमजोरियों विसंगतियों पाखंडियों को उखाड़ कर बेहतर जीवन का मार्ग निर्माण करता है जब हम उन चीजों को पढ़ते हैं तो उस समय काल को भी पढ़ रहे होते हैं उस समय काल को भी जीवन से जोड़ते हैं. तब हमें पता चलता है की साहित्य अपने समय से लोगों को परिचय करा रहा है .एक नया इतिहास रचता है और भविष्य के लिए आगे पीढ़ी को अवगत कराता है तब साहित्य को समय के समयांतर को लेकर बात करते हैं. तब हम कुछ न कुछ गढ़ रहे होते.बुन रहे होते हैं यह यह बुनना चुनना, गढ़ना, पढ़ना ही साहित्य हैं जो जीवन के मूल से साझात्कार कराता है..

***

क्रमशः….. ( शेष अगले अंको में.)

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments