हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 115 ☆ गीत – बलिदानी और सेनानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 115 ☆

☆ गीत – बलिदानी और सेनानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।

बलिदानी औ’ सेनानी ने

नया सदा इतिहास रचा है।।

 

अनगिन माताओं के आँसू

सागर बनकर पीता हूँ ।

सदा लाड़ले बच्चों को मैं

गोदी लेकर जीता हूँ।

 

छिपे देश के दुश्मन जो हैं

उनको शायद नहीं पता है।।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

 

नए – नए संग्राम बढ़ रहे

कुर्सी सत्ता की खातिर।

जो भी सत्य सनातन कहता

उनकी नजरों में काफिर।

 

जागो आर्यो बहुत सो लिए

वेदों का अब बिगुल बजा है।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

 

आपस में जब बँटे देश का

बँटवारा हो जाता है।

जागें जो रणधीर देश हित

दुश्मन भी थर्राता है।

 

स्वाभिमान का रक्त रगों में

कहती हमसे सदा अजा है।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

 

जाति, क्षेत्र छोटी सोचों में

सदा देश की हानि हुई है।

भेदभाव जब किया सत्य में

कर्तव्यों की बली चढ़ी है।

 

करते हैं कमजोर देश जो

निश्चित मिलती उन्हें सजा है।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#137 ☆ कविता – दरवाजे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  दरवाजे… )

☆  तन्मय साहित्य # 137 ☆

☆ कविता – दरवाजे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

आते जाते नजर मिलाते ये दरवाजे

प्रहरी बन निश्चिंत कराते ये दरवाजे।

 

घर से बाहर जब जाएँ तो गुमसुम गुमसुम

वापस   लौटें  तो  मुस्काते  ये  दरवाजे।

 

कुन्दे  में  ताले  से  इसे  बंद  जब करते

नथनी नाक में ज्यों लटकाते ये दरवाजे।

 

पर्व, तीज, त्योहारों पर जब तोरण टाँगें

गर्वित  हो  मन  ही मन हर्षाते  दरवाजे।

 

प्रथम  देहरी  पूजें पावन  कामों में जब

बड़े  भाग्य  पाकर  इतराते  ये   दरवाजे।

 

बच्चे  खेलें, आगे – पीछे  इसे  झुलायें

चाँ..चिं. चूं. करते, किलकाते ये दरवाजे।

 

बारिश में जब फैल -फूल अपनी पर आए

सब  को  नानी  याद  कराते   ये  दरवाजे।

 

मंदिर पर ज्यों कलश, मुकुट राजा का सोहे

वैसे   घर  की  शान   बढ़ाते  ये   दरवाजे।

 

विविध कलाकृतियाँ, नक्काशी, रूप चितेरे

हमें   चैन की   नींद  सुलाते   ये  दरवाजे।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 31 ☆ मानवता ही धर्म हमारा… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना  “मानवता ही धर्म हमारा… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 31 ✒️

? मानवता ही धर्म हमारा… — डॉ. सलमा जमाल ?

हो अज़ान या आरती,

 गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ ।

गिरजाघर में बज रहे हों,

 प्रार्थनाओ के घड़ियाल ।।

 

मानवता ही धर्म हमारा,

पग- पग राह संवरती है ।

शस्य- श्यामला हरी-भरी,

भारत देश की धरती है ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 38 – मनोज के दोहे – कनाडा यात्रा वृतांत ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – कनाडा यात्रा वृतांत। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 38 – मनोज के दोहे  – कनाडा यात्रा वृतांत

देश कनाडा में सभी, सभ्य सुसंस्कृत लोग ।

सद्गुण से परिपूर्ण हैं, करें सभी सहयोग।।

 

हाय हलो करते सभी, जो भी मिलता राह।

अधरों में मुस्कान ले, मन में दिखती चाह।।

 

कर्मनिष्ठ व्यवहार से, अनुशासित सब लोग।

नियम और कानून सँग, परिपालन का योग।।

 

झाँकी पर्यावरण की, मिलकर समझा देख।

संरक्षित कैसे करें, समझी श्रम की रेख।।

 

फूलों की बिखरी छटा, गुलदस्तों में फूल।

घर बाहर पौधे लगे, पहने खड़े  दुकूल।।

 

हरियाली बिखरी पड़ी, कहीं न उड़ती धूल।

दिखी प्रकृति उपहार में, मौसम के अनुकूल।।

 

मखमल सी दूबा बिछी, हरित क्रांति चहुँ ओर।

शीतल गंध बिखेरती, नित होती शुभ भोर।।

 

प्राण वायु बहती सदा, बड़ा अनोखा देश।

जल वृक्षों की संपदा, आच्छादित परिवेश।।

 

प्रबंधन में सब निपुण, जनता सँग सरकार।

आपस में सहयोग से, आया बड़ा निखार।।

 

साफ स्वच्छ सड़कें यहाँ, दिखते दिल के साफ।

भूल-चूक यदि हो गई, कर देते सब माफ।।

 

तोड़ा यदि कानून जब, जाना होगा जेल।

कहीं नहीं फरियाद तब, कहीं न मिलती बेल।।

 

शासन के अनुकूल घर, रखते हैं सब लोग।

फूलों की क्यारी लगा, फल सब्जी उपभोग।।

 

रखें प्रकृति से निकटता,जागरूक सब लोग।

बाग-बगीचे पार्क का, करें सभी उपयोग।।

 

सड़कें अरु फुटपाथ में, नियम कायदा जोर।

दुर्घटना से सब बचें, शासन का यह शोर।।

 

भव्य-दुकानों में यहाँ, मिलता सभी समान।

ग्राहक अपनी चाह का,रखता है बस ध्यान।।

 

दिखे शराफत है यहाँ, हर दिल में ईमान ।

ग्राहक खुद बिल को बना, कर देते भुगतान।।

 

वाहन में पैट्रोल सब, भरते अपने हाथ।

नहीं कर्मचारी दिखें, चुक जाता बिल साथ।।

 

बाहर पड़ा समान पर, नजर न आए चोर।

लूट-पाट, हिंसा नहीं, राम राज्य की भोर ।।

 

फूलों सा सुंदर लगा, बर्फीला परिवेश।

न्याग्रा वाटर फाल से, बहुचर्चित यह देश।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 165 ☆ कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 165 ☆

? कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ?

कभी देखा है आपने किसी पेड़ को मरते हुये ?

देखा तो होगा शायद

पेड़ की हत्या, पेड़ कटते हुये

 

हमारी पीढ़ी ने देखा है एक

पुराने, कसैले हो चले

किंवाच और बबूल में तब्दील होते

कड़वे बहुत कड़वे नीम के ठूंठ को

ढ़हते हुये

 

हमारे मंदिर और मस्जिद

को देने के लिये

फूल, सुगंध और साया

रोपना है आज हमें

एक हरा पौधा

जो एक साथ ही हो

मीठी नीम, सुगंधित गुलाब और बरगद सा

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 93 – गीत – गीतों का यह गुलाब जल ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – गीतों का यह गुलाब जल…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 93 – गीत – गीतों का यह गुलाब जल✍

लो !यह

गीतों का गुलाब जल को अपने मन पर।

 

वैसे तुम खुशबू की बेटी रूपगंध  से भरा खजाना

पर कस्तूरी पास रखी है ब्राह्मण ने यह कभी न जाना।

 

तुम्हें बताऊँ तुममें क्या है, सुधा सिंधु जियो नील गगन पर।

 

तुम्हें कौन सा संबोधन हूं वह मेरी साधों की सीता

चंद्रप्रिया कह तुम्हें पुकारूँ

गायत्री गीतों की गीता

 

अनगिन चित्र उभरते रहते,  कभी नजर डालो मन घन पर।

 

तुम्हें देख संकोच सिहरता संयम, नियम बना लेता है

मेरे जैसा सन्यासी भी

गीत रूप के गा देता है

 

आखिर ऐसा क्यों होता है,

कभी नजर डालो जीवन पर।

 

लो ! यह

गीतों का गुलाब जल छिड़को अपने मन पर।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 95 – “गतिशील हो गई हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “गतिशील हो गई हैं…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 95 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “गतिशील हो गई हैं”|| ☆

परी बनी ,हरी-हरी

सी पहिन साडियाँ

सिल्की दिखा किये हैं

सुबह की पहाडियाँ

 

हौले से तह किये

लगीं जैसे दुकान में

ठहरी प्रसन्नता हो ।

खुद के मकान में

 

चिडियों की चहचहाहटों

के खुल गये स्कूल

 पेड़ों के साथ पढ ने

आ जुटीं झाडियाँ

 

धुँधला सब दिख रहा है

यहाँ अंतरिक्ष में

खामोश चेतना जगी है वृक्ष-वृक्ष  में

 

जैसे बुजुर्ग, बादलों

के झूमते दिखें

लेकर गगन में श्वेत-

श्याम बैल गाडियाँ

 

गतिशील हो गई हैं

मौसम की शिरायें

बहती हैं धमनियों में

ज्यों खून सी हवायें

 

या कोई वैद्य आले

को  लगा देखता

कितनी क्या ठीक चल

रहीं , सब की नाडियाँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 86 ☆ # फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 86 ☆

☆ # फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार # ☆ 

पापा कैसे होंगे सोच रही हूँ

अपने खयालों में खोज रही हूँ

सीने से लगाके रख्खा था आपने

आप हो सागर,

मै बनके लहर रोज रही हूँ

 

वो ‘स्लेट ‘ पर मुझको बारहखड़ी लिखाना

वो उंगली में चाक लेकर सिखाना

जहां चूक हुई उसको दिखाना

फिर से वही शब्द दुबारा लिखाना

 

वो ‘मोटी’ का हम पर गुर्आना

वो ‘डोडो’ का चालाकी से इतराना

वो ‘टिंकू’ का लड़ना, हम सबको लड़वाना

आपका मुझे गोद में लेकर,

सबको समझाना

 

स्कूल से आकर, कुछ भी खाकर

‘डोडो’ और मै सो जाते थे

‘बड़ी ताई’ और टिंकू

चुगली लगाते थे

मम्मी जब हम पर चिल्लाती थी

बच्चें है कहकर मम्मी से बचाते थे

 

स्कूल, कालेज में

मनमर्जी से पढ़ने दिया

अपने कॅरीयर को

मर्जी से चुनने दिया

राह की बाधाओं से

स्वयं को लड़ने दिया

जीवन में आत्मनिर्भर

बनने दिया

 

आपका हमारे सर पर वरदहस्त है

सुख सुविधाएं सब मस्त है

खुशियां ही खुशियां है जीवन में

अपने संसार में सब व्यस्त है

 

आज फादर्स डे पर

आपकी याद आई है

संग संग पुरानी यादें लाई है

आपसे कितनी दूर हूँ

इसलिए आंखें भर आईं हैं

 

पापा, आप सदा मुस्कुराते रहें

गीत लिखकर गाते रहें

दुःख छुये ना आपका दामन

अपनी कविताओं से

सबको लुभाते रहें  /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 97 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 97 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 97) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 97 ?

 ☆

☆ Silent Conversation ☆

वो खामोशी जो गुफ्तगू के
बीच ठहरी थी,
वही इक बात तमाम गुफ्तगू में
सब से गहरी थी…!

The silence that appeared in
the middle of talks…,
That was the deepest thing in
the whole of conversation…!


☆ Soulful Poetry ☆

महक उठते हैं मेरे लफ्ज भी
तुम्हें ख्वाबों में सोचकर,
दिल के एहसासों में डूबी हुई
एक बेहतरीन नज़्म हो तुम…!

My words too become fragrant,
thinking of you in the dreams…
You’re nothing but a soulful poetry,
dipped in the feelings of heart…!

☆ Enforced relationship ☆

ज़बरदस्ती से बनाये रिश्ते
ज़्यादा दिन टिका नहीं करते
जब तक दिल ना मिलें
रिश्तों का वजूद ही क्या…


Enforced relationship shall
never ever last very long…
Unless the hearts meet, its
survival remains questionable

☆ Death ☆

कहने को तो मौत यूँही
इतनी बदनाम है, साहब
कुछ जिंदा लोग भी जिंदगी
में कभी लौटकर नहीं आते…!

Death is needlessly infamous
just like that, so to say…
Even some living people never
come back again in the life…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 97 ☆ गीत…रंग जा हरि के रंग… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित गीत…रंग जा हरि के रंग… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 97 ☆ 

☆ गीत…रंग जा हरि के रंग… ☆

सोते-सोते उमर गँवाई

खुलीं न अब तक आँखें

आँख मूँदने के दिन आए

काम न दें अब पाँखें

 

कोई सुनैना तनिक न ताके

अब जग बगलें झाँके

फना हो गए वे दिन यारों

जब हम भी थे बाँके

 

व्यथा कथा कुछ कही न जाए

मन की मन धर मौन

हँसी उड़ाएगा जग सारा

आँसू पोछे कौन?

 

तन की बाखर रही न बस में  

ढाई आखर भाग

मन की नागर खाए न कसमें

बिसर कबीरा-फाग

 

चलो समेटो बोरा-बिस्तर

रहे न छाया संग

हारे को हरिनाम सुमिरकर

रंग जा हरि के रंग

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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