हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ श्री गंगा दशहरा पर विशेष – गंगा की उत्पत्ति ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

☆ श्री गंगा दशहरा पर विशेष ☆

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(प्रस्तुत है श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की श्री गंगा दशहरा  पर विशेष आलेख।)

 ☆ गंगा की उत्पत्ति ☆
हिन्दुओं के लिए सारी रचनाएं ईश्वरीय है। इस लिए प्रकृति में मौजूद हर कण पूजनीय है। पेड़, पौधे, जानवर, नदिया, पहाड़ों, चट्टानों के अलावा मानव निर्मित वस्तुएं जैसे बर्तन, मूसल, ओखली में भी भगवान ढूंढने में कोई दिक्कत नहीं होती। ईश्वर ने ब्रह्मा के रूप में विश्व की रचना की है। विष्णु के रूप में इसका पालन पोषण करते हैं। शिव के रूप में इसका संहार करते हैं। पौराणिक कथा है एक दिन शिव ने गाना शुरू किया, उनका गाना सुन कर इतने द्रवित हुए की पिघलने लगे।  ब्रह्मा जी ने पिघले हुए जल को एक पात्र में जमा किया और इसे धरती पर भगीरथ की तपस्या के बाद शंकर जी की जटा से धरती पर उड़ेल दिया गया। माँ गंगा पृथ्वी पर आ  गईं और पृथ्वी तृप्त हुई। गंगा स्नान का मतलब है साक्षात ईश्वर से मिलना।
हर हर गंगे??

गंगा माँ के लिये मेरी रचना – – -एक 

 

गंगा के रूप में जल की धार देखिये।

देवी का स्वर्ग लोक से अवतार देखिये।

मोक्षदायिनी गंगा हैं मोक्ष का आधार ।

इसके जैसी नहीं कोई भी जल की धार ।

 

पितरों का करे तर्पण ले गंगा की धार।

ऋषि मुनि भी करते हैं जिसका सत्कार।

ब्रह्मलोक से गंगा को लिया धरती पर उतार।

भागीरथ ने दिया इसे मोक्ष का आधार।

 

सारा जगत करें हैं पूजा वो है गंगा की धार।

सदियों से चली आई है गंगा जल की धार।

मानव करें व्यवहार गंगा करें उपकार।

कूड़ा करकट भी बहाए दूषित करे व्यवहार।

 

नहीं बदली है गंगा ये कैसा है उपकार।

गंगा से करें प्यार बने सभी दिलदार।

इसके जैसी नहीं कोई  भी जल की धार ।

माँ गंगा का उपकार सदियों तक रहे याद।…….

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य / वैज्ञानिक आलेख – ☆ भारतीय युवा वैज्ञानिक अमिताभ श्रीवास्तव का आविष्कार – ‘प्रोग्रेमेबल एयर’ अर्थात हृदय की तरह का पंप ☆

☆  ई-अभिव्यक्ति के अंतर्गत प्रथम वैज्ञानिक अभिव्यक्ति ☆

श्री अमिताभ श्रीवास्तव

(संस्कारधानी जबलपुर के युवा वैज्ञानिक श्री अमिताभ श्रीवास्तव जी ने टिश स्कूल ऑफ डिजाइन, न्यूयार्क  यूनिवर्सिटी के छात्र ने प्रोग्रामेबल एयर प्रोजेक्ट प्रस्तुत किया है। इस प्रोजेक्ट की विस्तृत जानकारी इस वैज्ञानिक आलेख में दी गई है। )

विज्ञान के क्षेत्र में  श्री अमिताभ जी के ढ़ेरो आविष्कार व उपलब्धियां   https://tinkrmind.me/  पर देखी जा सकती हैं. इसके अतिरिक्त  हम आप सब से  अपेक्षा कराते हैं कि उनके अनुसंधान  कार्य के लिए व्यक्तिगत/आर्थिक/वैज्ञानिक सहयोग के लिए इस लिंक पर क्लिक करें >> 

https://www.crowdsupply.com/tinkrmind/programmable-air#details-top

? भारतीय युवा वैज्ञानिक अमिताभ श्रीवास्तव का आविष्कार – “प्रोग्रेमेबल एयर” अर्थात हृदय की तरह का पंप  ?

 

श्री अमिताभ श्रीवास्तवजी ने  टिश स्कूल आफ डिजाइन, न्यूयार्क युनिवर्सिटी ,न्यूयार्क से मास्टर्स इन प्रोफेशनल डिजाइन के प्रतिष्ठित कोर्स के दौरान असाधारण उपलब्धि अर्जित करते हुये प्रोग्रामेबल एयर प्रोजेक्ट प्रस्तुत किया है, साधारण शब्दो में इसका अर्थ यह है कि उनके द्वारा बनाई गई डिवाइस से जब जैसा कमांड कम्प्यूटर द्वारा दिया जाता है तब, प्रोग्राम्ड समय अंतराल पर वह उपकरण जिस मात्रा में प्रोग्राम किया जाता है उतनी मात्रा में हवा लेती या छोड़ती है. यह उपकरण बहुत कम कीमत पर बनाने में अमिताभ को सफलता मिली है. इस उपकरण का उपयोग एयर रोबोटिक्स में तरह तरह से किया जा सकता है.

उदारमना अमिताभ ने बतलाया कि वे इसका कोई पेटेंट नही करवायेंगे, उनका मानना है कि जब हम ओपन सोर्स नालेज का उपयोग करके नये आविष्कार करते हैं तो हमारा यह नैतिक कर्तव्य  है कि हम भी अपने आविष्कार अधिकाधिक लोगो को उपयोग के लिये ओपन सोर्स पर ही सुलभ करवायें जिससे मानवता के कल्याण के लिये विज्ञान का अधिकाधिक प्रयोग हो सके.

शालेय जीवन में हीअमिताभ श्रीवास्तव  नेशनल टेलेंट सर्च व विज्ञान और तकनीकी विभाग द्वारा आयोजित किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना में चयनित हुये. आई आई टी में सेलेक्शन के बाद भी , भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलोर  से चार्टर्ड कोर्स में  अति उच्च अंको के साथ उन्होने बी एस की उपाधि प्राप्त की.  इजराईल में युवा वैज्ञानिको की ६ वीं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में उन्होने आई आई एस सी का प्रतिनिधित्व किया. आई ए पी टी द्वारा आयोजित फिजिक्स ओलम्पियाड में अमिताभ ने देश में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर गोल्डन मेडल प्राप्त किया. बोस्टन विश्वविद्यालय से उन्होने इंटर्नशिप पूरी की.

कालेज के दिनो में ही अमिताभ खुद बनाये हुये रिचार्जेबल इलेक्ट्रिक स्केट बोर्ड पर बंगलोर की सड़को पर सफर करते दिखते और सबके कौतुहल का विषय बन जाते, आईबीएन-7 टी वी चैनल ने उनके इस प्रोजेक्ट पर शाबास इण्डिया कार्यक्रम में फिल्म भी दिखलाई थी.

बिना पास गये जंगली हाथियो की ऊंचाई नापने के लिये अमिताभ ने इलेक्ट्रानिक डिवाईस बनाई है. खेतो के भीतरी हिस्सो में फसलो का हाल जानने के लिये अमिताभ ने ड्रोन बनाया. ड्रिप इरीगेशन के इलेक्ट्रानिक कंट्रोल पर अमिताभ को हैकेथान में बेस्ट एंट्री का पुरस्कार दिया गया.

बी एस के तुरंत बाद भारत सरकार से देश के सर्वोच्च १० इनोवेटर्स के रूप में सम्मानित मैडरैट्स गेम्स में अमिताभ ने अपनी आविष्कारी प्रतिभा का परिचय देते हुये विश्व में पहली बार वियरेबल इलेक्ट्रानिक गेम सुपर सूट बनाने में सहयोग किया. इस सूट को मोबाइल की तरह चार्ज किया जा सकता है . इसमें जलती बुझती बत्तियां, अनोखी आवाजें और तरह तरह के गेम्स लोड किये जा सकते हैं. सेनफ्रांसिसको में आयोजित मेकर्स फेस्ट में डिस्कवरी चैनल के  अडेम सेवेज ने भी अमिताभ की अनोखी कल्पना की बहुत प्रशंसा की.

लोकस लाजिस्टिक्स के लिये अमिताभ ने कनसाइनमेंट के मेजरमेंट,  इलेक्ट्रानिकली रिकार्ड करने हेतु उपकरण व प्रोग्राम विकसित करने का काम किया.

देश से युवा वैज्ञानिको का विदेश पलायन एक बड़ी समस्या है. इजराइल जैसे छोटे देश में स्वयं के इनोवेशन हो रहे हैं किन्तु, हमारे देश में हम ब्रेन ड्रेन की समस्या से जूझ रहे हैं.  अब देश में छोटे छोटे क्षेत्रो में भी मौलिक खोज को बढ़ावा  दिया जाना जरूरी है. वैश्विक स्तर की शिक्षा प्राप्त करके भी युवाओ को देश लौटना बेहद जरूरी है. इसके लिये देश में उन्हें विश्वस्तरीय सुविधायें, रिसर्च का वातावरण देश में ही दिया जाना आवश्यक है.

श्री अमिताभ श्रीवास्तव

द्वारा  इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

मो ७०००३७५७९८, [email protected]

 

Shri Amitabh’s Important Links : 

ई-अभिव्यक्ति श्री अमिताभ श्रीवास्तव जी को उनकी विशिष्ट उपलब्धियों  एवं भविष्य  में  सतत सफलता के लिए  हार्दिक शुभकामनायें देता है । 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #3 – जीवन भी क्रिकेट ही है ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  साप्ताहिक  स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन भी क्रिकेट ही है”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ सकारात्मक सपने  #-3 ☆

 

☆ जीवन भी क्रिकेट ही है ☆

 

२० .. २०  क्रिकेट की तेजी ही उसकी रोचक रोमांचकता है, जिसके कारण वह लोकप्रिय हुआ है. आज के व्यस्त युग में हमारा जीवन भी बहुत तेज हो चुका है, लोगो के पास सब कुछ है, बस समय नही है, बहुत कुछ साम्य है जीवन और २० ..२० क्रिकेट में. सीमित गेंदो में अधिकतम रन बनाने हैं और जब फील्डिंग का मौका आये तो क्रीज के खिलाड़ी को अपनी स्पिन गेंद से या बेहतरीन मैदानी पकड़ से जल्दी से जल्दी आउट करना होता है.  जिस तरह बल्लेबाज नही जानता कि कौन सी गेंद उसके लिये अंतिम गेंद हो सकती है, ठीक उसी तरह हम नही जानते कि कौन सा पल हमारे लिये अंतिम पल हो सकता है. धरती की विराट पिच पर परिस्थितियां व समय बॉलिंग कर रहे है, शरीर बल्लेबाज है, परमात्मा के इस आयोजन में धर्मराज अम्पायर की भूमिका निभा रहे हैं, विषम परिस्थितियां, बीमारियाँ फील्डिंग कर रही हैं, विकेट कीपर यमराज हैं, ये सब हर क्षण हमें हरा देने के लिये तत्पर हैं.  प्राण हमारा विकेट है. प्राण पखेरू उड़े तो हमारी बल्लेबाजी समाप्त हुई.  जीवन एक २०  .. २० क्रिकेट ही तो है, हमें निश्चित समय और निर्धारित गेंदो में अधिकाधिक रन बटोरने हैं. धनार्जन के रन सिंगल्स हो सकते हैं, यश अर्जन के चौके, समाज व परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियो के निर्वहन के रूप में दो दो रन बटोरना हमारी विवशता है. अचानक सफलता के छक्के कम ही लगते हैं. कभी-कभी कुछ आक्रामक खिलाड़ी जल्दी ही पैवेलियन लौट जाते हैं, लेकिन पारी ऐसी खेलते हैं कि कीर्तिमान बना जाते हैं, सबका अपना-अपना रन बनाने का तरीका है.

जीवन के क्रिकेट में हम ही कभी क्रीज पर रन बटोर रहे होते हैं तो कभी फील्डिंग करते नजर आते हैं, कभी हम किसी और के लिये गेंदबाजी करते हैं तो कभी विकेट कीपिंग, कभी किसी का कैच ले लेते हैं तो कभी हमसे कोई गेंद छूट जाती है और सारा स्टेडियम  हम पर हंसता है. हम अपने आप पर झल्ला उठते हैं. जब हम इस जीवन क्रिकेट के मैदान पर कुछ अद्भुत कर गुजरते हैं तो खेलते हुये और खेल के बाद भी  हमारी वाहवाही होती है, रिकार्ड बुक में हमारा नाम स्थापित हो जाता है. सफल खिलाड़ी के आटोग्राफ लेने के लिये हर कोई लालायित रहता है. जो खिलाड़ी इस जीवन क्रिकेट में असफल होते हैं उन्हें जल्दी ही लोग भुला भी देते हैं.

अतः जरूरी है कि हम अपनी पारी श्रेष्ठतम तरीके से खेलें. क्रीज पर जितना भी समय हमें परमात्मा ने दिया है उसका परिस्थिति के अनुसार तथा टीम की जरूरत के अनुसार अच्छे से अच्छा उपयोग किया जावे. कभी आपको तेज गति से रनो की दरकार हो सकती है तो कभी बिना आउट हुये क्रीज पर बने रहने की आवश्यकता हो सकती है. जीवन की क्रीज पर  हम स्वयं ही अपने कप्तान और खिलाड़ी होते हैं. हमें ही तय करना होता है कि हमारे लिये क्या बेहतर है? हम जैसे शाट लगाते हैं गेंद वैसी और उसी दिशा में भागती है, जिस दिशा में हम उसे मारते हैं. जिस तरह एक सफल खिलाड़ी मैच के बाद भी निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं को सक्रिय बनाये रखता है, उसी तरह हमें जीवन में भी सतत सक्रिय बने रहने की आवश्यकता है. हमारी सक्रियता ही हमें स्थापित करती है, जब हम स्थापित हो जाते हैं तो हमें नाम, दाम और काम सब अपने आप मिलता जाता है. जीवन आदर्श स्थापित करके ही हम दर्शको की तालियां बटोर सकते हैं.

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ पर्यावरण दिवस विशेष- पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

??  पर्यावरण दिवस पर विशेष ??

श्री संजय भारद्वाज

 

(श्री संजय भारद्वाज जी एक विख्यात साहित्यकार के अतिरिक्त पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।  पर्यावरण दिवस पर  यह विशेष आलेख बेशक 2017 में लिखा गया हो किन्तु, आज के परिपेक्ष्य में पर्यावरण पर रचित कोई भी साहित्य सामयिक ही होगा। अब आप स्वयं ही पढ़ कर निर्णय ले सकते हैं। आभार श्री संजय भारद्वाज जी इस सार्थक रचना के लिए।)

☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ 

(मित्रो! 5 जून को पर्यावरण दिवस है। आज अपना एक  लघु आलेख साझा कर रहा हूँ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस आलेख को आप सबका भरपूर नेह मिला है।)

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
-संजय भारद्वाज
9890122603
( 30 मई 2017 को  मुंबई से पुणे लौटते हुए लिखी पोस्ट। )
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #2 – सकारात्मक सपने ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है सुश्री अनुभा जी का आत्मकथ्य।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ सकारात्मक सपने  #-2 ☆

☆ सकारात्मक सपने ☆

सपने देखना मानवीय स्वभाव है , यह मानवीय विशेषता ही नही सामर्थ्य भी है, जो अन्य प्राणियों में दुर्लभ है |सामर्थ्य इसलिये कि हम स्वयं भी सपनों को आमंत्रित कर सकते हैं, किसी व्यक्ति, घटना, मौसम, व्यवहार विशेष

के सपने देखना चुन सकते हैं। आप कहेंगे कि सपने तो स्वयं आते हैं उन पर हमारा नियंत्रण कहाँ जो हम तय कर सकें कि हमें किस तरह का सपना देखना है। आप की बात भी सही है, लेकिन यकीन कीजिये आप सपने कहीं भी, कभी भी देख सकते हैं आवश्यक है कि आप सपने देखना जानते हों और इस काम मे आनंद प्राप्त करते हों।

सामान्यत: सपने नींद मे आते हैं और इस प्रकार के सपनों पर हमारा कोई नियंत्रण नही होता। ऐसे सपने पूर्व अनुभवों, भविष्य की चिंता या अन्य किसी भी कारण से आ सकते हैं, चुंकि सपने मस्तिष्क द्वारा देखे जाते हैं इसलिये हमारा निंद्रा मे होना इन सपनों को देखने में बाधक नही, बल्कि सहायक हो जाता है। नींद मे आने वाले सपने हमारी तात्कालिक मानसिक दशा के अनुरुप होते हैं और सामान्यत: अनियंत्रित होते हैं जब हम निंद्रा मे होते हैं तब भी हमारा मस्तिष्क सोचता रहता है, विभिन्न चित्र बनाता रहता है जो चलचित्र के समान बदलते रहते हैं, जिसमे अक्सर अस्पष्ट, और विचित्र घटनाऐ, संवाद और रंगीन अथवा रंगहीन आकृतियाँ हो सकती हैं। ये स्वप्न मनोविज्ञान का विषय हैं.मनोवैज्ञानिक इन स्वप्नों पर व्यापक अनुसंधान कर रहे हैं पर अब तक किसी तार्किक तथ्य तक नहीं पहुंच पाये हैं।

दूसरी ओर ऐसे सपने होते हैं जो हम जाग्रत अवस्था मे देखते हैं जिन्हें हम कभी भी, कहीं भी देख सकते हैं, वास्तव मे ऐसे सपने पूर्णत: सपने न होकर विचार-मग्न होने की उच्चतम अवस्था होते है जिसमे हम भविष्य की कार्य योजना बनाते हैं, ऐसा हम अपना काम करने के दौरान भी बिना किसी बाधा के कर सकते हैं। सपने देखने और सपने आने मे यही बुनियादी अंतर है जो सपने देखने कि प्रक्रिया को महत्वपूर्ण बनाता है।

आखिर यह सपने देखना होता क्या है? सपने देखने का मतलब उन दिवास्वप्नों से नहीं है जो मानसिक जुगाली से ज्यादा कुछ भी नहीं, आशय है उन वैचारिक सपनों से, जो गहन मंथन और किसी संभावित कार्य व उद्देश्य के प्रभावों का पूर्व आकलन करते हैं जिसे अंग्रेजी भाषा मे “विज्युलाइज” करना कहा जाता है। अर्थात सपने सृजन करने से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमे किसी कार्य को करने का संकल्प हो तथा उस कार्य को होते हुए “विज्युलाईज” किया गया हो। हम यह भी कह सकते हैं कि ऐसे सपने देखना एक रचनात्मक कार्य है और ये सपने देखने के लिये दूरदृष्टि, उमंग, उत्साह और साहस की आवश्यकता होती है। ये सपने आपकी कार्य क्षमता को बहुगुणित कर देते हैं, आसन्न कठिनाईयों के प्रति सचेत कर आपकी कार्य योजना को परिष्कृत कर देते हैं. ये ही वे सपने हैं जिन्हें सकारात्मक, सृजन शील, कल्पना कहा जाता है. प्रत्येक महान कार्य होने से पहले मन में विचार रूप में अंकुरित होता है, फिर सपने के रूप में पल्लवित होता है, तब संसाधन जुटाये जाते हैं और फिर उसे मूर्त रूप दिया जाता है. इसका सीधा सा अर्थ है कि हम कितनी और कैसी सफलता प्राप्त करेंगे यह इस पर आधारित है कि हम कैसे सपने बुनते हैं? कितनी गहराई तक उनसे जुड़ते हैं और कितनी तन्मयता से अपने सपनों को सच करने में जुट जाते हैं. तो जीवन में सफलता पाने के लिये आप भी देखिये कुछ ऐसे सकारात्मक सपने, और जुट जाइये उन्हें सच करने में. सपने वे नहीं होते जो हम सोते समय देखते हैं, सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते.

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी आलेख – ☆अर्धनारीश्वर व उर्वशी मिथक ☆ – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

 

(श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं।

आपकी नई पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष की कहानी ’ जून में प्रकाशित होने जा रही हैं जिसमें स्त्री पुरुष के मधुर लेकिन सबसे दुरुह सम्बंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में तुलनात्मक रूप से की गई है। प्रस्तुत हैं उसका  एक प्रमुख अंश।)

☆ स्त्री-पुरुष की कहानी ☆

☆ अर्धनारीश्वर व उर्वशी मिथक

भारतीय चिंतन परम्परा में शिव में समाहित शक्ति और शक्ति मे निहित शिव याने अर्धनारीश्वर का मिथक और इंद्र की सभा की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी का मिथक नारी की सामाजिक स्थिति के प्रतिनिधि विचार रहे हैं।

अर्धनारीश्वर में नारी शक्ति है जो शिव को ग्रहण करके उनका पुरुषार्थ पा रही है साथ ही शिव के पुरुषार्थ को शक्ति दे रही है। उर्वशी मिथक में वह देवताओं की भोग्या है, समस्त संसार की सुखदायक इंद्रियों की प्रतिनिधी। पहले मिथक के अनुसार वह शक्ति के रूप में शिव को समर्पित व पूजनीय है। शिव और शक्ति याने पुरुष और प्रकृति के प्रतिनिधि अवतरण। दूसरे मिथक के अनुसार उर्वशी का रूपक उन्मुक्त भोग्या का है। ये दोनों मिथक अभी तक वैसे ही अर्थ के साथ हमारे सामाजिक मनोविज्ञान में क्रमशः आराध्य और आनन्द के रूप में मौजूद हैं। नवरात्रि में शक्ति पूजा पहले मिथक से जन्मा संस्कार है और विवाह के पश्चात सुहागरात इंद्रियों के आनंद याने उर्वशी का उत्सव है। लेकिन पिछले पचास सालों में स्थिति तेज़ी से बदली है। साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर, महादेवी वर्मा और विष्णु प्रभाकर ने शक्ति, अर्धनारीश्वर  और उर्वशी मिथक के माध्यम से आधुनिक भारतीय नारी की यात्रा पर बहुत लिखा है। उनकी मिलीजुली विवेचना में नारी की हज़ारों साल की यात्रा का वर्णन है। आगे बढ़ने के पहले उस पर एक नज़र डालना ज़रूरी है।

दिनकर जी ने उर्वशी के तृतीय अंक में पृष्ठ 48 पर उल्लेख किया है कि “स्त्री-पुरुष की परस्पर-आश्रयता का प्रतीक है, ‘अर्धनारीश्वर’। आज की स्त्री मनु स्मृति से अलग अपने युग की स्मृति खुद रचने का अधिकार चाहती है। निरभ्र आकाश की निर्विकल्प सुषमा में, न तो पुरुष में केवल पुरुष, न नारी में केवल नारी है; दोनों देह-बुद्धि से परे किसी एक ही मूलसत्ता के प्रतिमान हैं, जो नर अथवा नारी मात्र नहीं हैं।”

कई मंचों पर अक्सर सुनने को मिलता है कि

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,

आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।

स्त्री को अबला, दीन, कमजोर, फेयर-सेक्स, वीक-जेंडर आदि अनेकानेक विशेषणों से अलंकृत किया जाता हैं या स्त्री को देवी, माँ का गरिमामय स्थान देकर उसे मूल्यों के बंधनों में जकड़ दिया गया है। वहीं कुछ लोग ‘ऐसा कुछ नहीं है, कहकर स्त्री-प्रश्न को सिरे से नकारने वाले भी मिलते हैं। इन अतिवादी विचारों के बीच समझना यह है कि भारतीय संस्कृति के अनुसार स्त्री अबला या कमजोर नहीं है, महादेवी वर्मा कहती हैं कि:-

“’नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकसित होकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिनकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं है। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना बादल में छुपी विद्युत और जलराशि में है, एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है, बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझाई जा सकती. दूसरी से शान्ति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं। दोनों व्यक्तित्व अपनी उपस्थिति से समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भरते हैं जिससे विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंजस्य स्थापित होकर जीवन को पूर्णता प्राप्त होती है।”

भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष एक दूसरे के विरोधी या प्रतिबल नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। ‘उर्वशी’ में दिनकर यही कहते हैं कि “’नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर नारी के आलिंगन में संतोष पाता है। कोई शक्ति है जो नारी को नर तथा नर को नारी से अलग नहीं रहने देती, और जब वे मिल जाते हैं, तब भी उनके भीतर किसी ऐसी तृष्णा का संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है। नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है जब शरीर की धारा उछालते-उछालते नारी उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, तब वे दैहिक चेतना से परे प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँच कर वे निस्पंद हो जाते हैं। पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है।” यहीं मनोविज्ञान की महत्ता है। आगे जाकर हम पहले मन को समझेंगे फिर मनोविज्ञान का सूत्र हल करेंगे।

स्त्री-पुरुष के इस मूलभूत युग्म के लिए हमारे पास एक बहुत सुंदर प्रतीक है ‘अर्द्धनारीश्वर’। दिनकर की मान्यता है कि “अर्द्धनारीश्वर केवल इस बात का प्रतीक नहीं है कि नारी और नर जब तक अलग हैं, तब तक दोनों अधूरे हैं, बल्कि इस बात का भी द्योतक है कि यदि पुरुष में नारीत्व अर्थात संवेदना नहीं है, वह अधूरा है। जिस नारी में पुरुषत्व अर्थात अन्याय के विरुद्ध लड़ने का साहस नहीं है, वह भी अपूर्ण है.” अभिप्राय यह है कि भले ही हम पुरुष हों या स्त्री, दरअसल हम संवेदना के स्तर पर स्त्री और पुरुष का युग्म ही होते हैं, इस युग्मता में ही हमारे अस्तित्व की पूर्णता है।

यहाँ एक और बात ध्यान खींचती है. यह नहीं कहा जाता कि शिव के बिना शक्ति अधूरी है, बल्कि यह कहा जाता है कि शक्ति के बिना शिव अपूर्ण है अर्थात कहीं न कहीं हमारी परंपरा स्त्री को पूर्ण मानती है और पूर्ण करने वाली भी, इस परंपरा में स्त्री ‘पर-निर्भर अबला’ नहीं थी। भारतीय परंपरा के अनुसार वह पुरुष के मनोरंजन की वस्तु भी नहीं है। स्त्री भी पुरुष के समान पूर्ण है, उसकी रचना किसी आदिपुरुष के मनोरंजन के लिए नहीं की गई बल्कि वह भी पुरुष के साथ ही अस्तित्व में आई और सृष्टि के लिए उतनी ही अहम है जितना पुरुष। इसीलिए अर्धनारीश्वर का मिथक हमारी संस्कृति का सबसे मनोरम मिथक है।

इस मिथक का अत्यंत सटीक और सामयिक प्रयोग विष्णु प्रभाकर ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ में किया है और यह दर्शाया है कि स्त्री-पुरुष संबंधी विसंगतियों का निदान है ‘अर्द्धनारीश्वर’। विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि “नारी की स्वतंत्र सत्ता का नारी की सैक्स-इमेज से कोई संबंध नहीं है. उसका अर्थ है समान अधिकार, समान दायित्व, एक स्वस्थ समाज के निर्माण के दोनों समान रूप से भागीदार हैं। अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक इस कल्पना का साकार रूप है, एक-दूसरे में विसर्जित नहीं, एक-दूसरे से स्वतंत्र, फिर भी जुड़े हुए। आगे वे यह भी कहते हैं कि नारी को बस नारी बनना है, सुंदरी और कामिनी नहीं.”

नारी मुक्ति का अर्थ औरत की उच्छंखलता नहीं है, नारी मुक्ति का मतलब भोग हेतु योनि मुक्ति भी नहीं है जैसा कि कुछ विकृत दिमाग़ अर्थ लगाने लगे हैं कि जब पुरुष को कोई बंधन नहीं है तो नारी क्यों अक्षत योनि  (virginity) या सतीत्व ओढ़ कर जिए। यह आवश्यक है कि नैतिकता के मापदण्ड पुरुष नारी दोनों पर एकसे लागू हों, यदि ऐसा न हुआ तो अनैतिकता की प्रतिस्पर्धा में चारित्रिक अराजकता से पूरा समाज मनोरोगी हो जाएगा। पुरुष नारी की समानता का अर्धनारीश्वर से उत्तम उदाहरण नहीं हो सकता है। इसी तारतम्य में शिव पुराण में वर्णित अर्धनारीश्वर स्त्रोत से समझने की कोशिश करते हैं।

शक्ति के बिना शिव ‘शव’ हैं, शिव और शक्ति एक-दूसरे से उसी प्रकार अभिन्न हैं, जिस प्रकार सूर्य और उसका प्रकाश, अग्नि और उसका ताप तथा दूध और उसकी पौष्टिकता। शिव में ‘इ’ कार ही शक्ति हैं । ‘शिव’ से ‘इ’ कार निकल जाने पर ‘शव’ ही रह जाता है। शास्त्रों के अनुसार बिना शक्ति की सहायता के शिव का साक्षात्कार नहीं होता। अर्धनारीनटेश्वर स्तुति की आराधना करने से शिव-शक्ति की संयुक्त कृपा प्राप्त होती हैं या नहीं परंतु हमारे पूर्वजों ने इस रिश्ते के बारे मे क्या सोचा था यह ज़रूर पता चलता है। शिव महापुराण में उल्लेख आता हैं कि-

‘शंकर: पुरुषा: सर्वे स्त्रिय: सर्वा महेश्वरी ।’

अर्थात्– समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं, उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं। स्मृति में अर्धनारीश्वर अवधारणा का आधार  अर्धनारीनटेश्वर स्तोत्र है।

1- चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय ।

धम्मिल्लकायै च जटाधराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – आधे शरीर में चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी हैं और आधे शरीर में कर्पूर के समान गोरे भगवान शंकरजी सुशोभित हो रहे हैं। भगवान शंकर जटा धारण किये हैं और पार्वतीजी के सुन्दर केशपाश सुशोभित हो रहे हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

2. कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायैचितारज:पुंजविचर्चिताय ।

कृतस्मरायै विकृतस्मराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी के शरीर में कस्तूरी और कुंकुम का लेप लगा है और भगवान शंकर के शरीर में चिता-भस्म का पुंज लगा है। पार्वतीजी कामदेव को जिलाने वाली हैं और भगवान शंकर उसे नष्ट करने वाले हैं, ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

3. चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायैपादाब्जराजत्फणीनूपुराय।

हेमांगदायै भुजगांगदाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।

भावार्थ – भगवती पार्वती के हाथों में कंकण और पैरों में नूपुरों की ध्वनि हो रही है तथा भगवान शंकर के हाथों और पैरों में सर्पों के फुफकार की ध्वनि हो रही है।  पार्वतीजी की भुजाओं में बाजूबन्द सुशोभित हो रहे हैं और भगवान शंकर की भुजाओं में सर्प सुशोभित हो रहे हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

4- विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय

समेक्षणायै विषमेक्षणाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।

भावार्थ – पार्वतीजी के नेत्र प्रफुल्लित नीले कमल के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर के नेत्र विकसित कमल के समान हैं । पार्वतीजी के दो सुन्दर नेत्र हैं और भगवान शंकर के (सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि) तीन नेत्र हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

5- मन्दारमालाकलितालकायैकपालमालांकितकन्धराय

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी के केशपाशों में मन्दार-पुष्पों की माला सुशोभित है और भगवान शंकर के गले में मुण्डों की माला सुशोभित हो रही है । पार्वतीजी के वस्त्र अति दिव्य हैं और भगवान शंकर दिगम्बर रूप में सुशोभित हो रहे हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

6- अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय

निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी के केश जल से भरे काले मेघ के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर की जटा विद्युत्प्रभा के समान कुछ लालिमा लिए हुए चमकती दीखती है । पार्वतीजी परम स्वतन्त्र हैं अर्थात् उनसे बढ़कर कोई नहीं है और भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

7- प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायैसमस्तसंहारकताण्डवाय

जगज्जनन्यैजगदेकपित्रे नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – भगवती पार्वती लास्य नृत्य करती हैं और उससे जगत की रचना होती है और भगवान शंकर का नृत्य सृष्टिप्रपंच का संहारक है । पार्वतीजी संसार की माता और भगवान शंकर संसार के एकमात्र पिता हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

8. प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायैस्फुरन्महापन्नगभूषणाय ।

शिवान्वितायै च शिवान्विताय नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

भावार्थ – पार्वतीजी प्रदीप्त रत्नों के उज्जवल कुण्डल धारण किए हुई हैं और भगवान शंकर फूत्कार करते हुए महान सर्पों का आभूषण धारण किए हैं । भगवती पार्वतीजी भगवान शंकर की और भगवान शंकर भगवती पार्वती की शक्ति से समन्वित हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।

शिव व शक्ति अविभाज्य वर्णित हैं। शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरों के सामान हैं। लहर है जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का क्या अर्थ? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध।

शिव पुराण में वर्णित अर्धनारीश्वर अवधारणा को ऋषियों-मुनियों ने पुरुष नारी समानता का आधार बनाया था। इसी अवधारणा पर विष्णु प्रभाकर ने महान उपन्यास लिखा था। अंततः विष्णु प्रभाकर अर्धनारीश्वर को एक और अर्थ देते है. वह यह कि भारत में स्त्री न्याय चाहती है, पुरुष से मुक्ति नहीं। आज उसमें यह कहने का साहस आ गया है कि “बलात्कार से सतीत्व नष्ट होता हो तो हो, पर नारीत्व नष्ट नहीं होता, और नारी के लिए नारीत्व सर्वोपरि है.” स्त्री-गरिमा या स्त्री-मुक्ति का यह अर्थ कदापि नहीं कि स्त्री अपनी कोमल भावनाओं को छोड़ दे। स्त्री, स्त्री भी रहे, अपनी संवेदनाओं और सुकोमलता को बरकरार रखे और साथ ही मनुष्य भी बने। उसे शिकार न होना पड़े। वह अपमानित महसूस न करे. आज वह कह रही है, “मैं जो हूँ, वही रहूँगी जो शंकर के अर्द्धनारीश्वर के रूप में कल्पित की गई है या इंद्र की अप्सराओं की तरह निर्द्वंद रहूँगी।” दोनों छोर छोड़कर उसे तर्क-भावना से एक नई तैयारी से नया समाज रचना होगा। जिसे  भारतीयता बचाते हुए आधुनिक बना जा सकता है। न कोई स्वामी और ना ही कोई दास, अर्धनारीश्वर से शुरू हुई शब्दयात्रा दो परम स्वतंत्र पौरुषेय-स्त्री एवं स्त्रैण-पुरुष के रूप में साकार होगी। अर्धनारीश्वर की मूल अवधारणा में भौतिक तत्वों से शिव व पार्वती की विवेचना है। आधुनिक काल में जबकि दैहिक बल से आगे बुद्धि बल और अब भाव बल आदमी के जीवन में प्रधान भूमिका निर्वाह की  स्थिति में है तब इस अवधारणा को भाव बल पर आधारित होना ही होगा। नारी स्वभाविक रूप से भावुक होती है और नर तार्किक, नारी समानता के अर्थ में परखा जाए तो नारी कम भावुक होती हुई अधिक तर्किक कठोरता की ओर उन्मुख होगी तब थोड़ी कठोर होगी तो उसका पौरुषेय-स्त्रैण स्वरुप निखर कर आएगा,जैसे इंदिरा गांधी या मार्गरेट थैचर हो गईं थीं। इसी प्रकार पुरुष कम तार्किक व कठोर होता हुआ अधिक भावुक होगा तब वह स्त्रैण-पुरुष का स्वरुप ग्रहण करता है जैसे लाल बहादुर शास्त्री या केनेडी।

© सुरेश पटवा, भोपाल 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #2 – बटुवा ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”। 

आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की दूसरी कड़ी “बटुवा” जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। किन्तु, मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि युवा साहित्यकार आशीष का हृदय समय से पहले बड़ा हो गया है या समय ने उसे बड़ा कर दिया है।? बेहद सार्थक रचना। ) 

 

☆ स्मृतियाँ/Memories – #2 – बटुवा ☆

 

बटुवा 

स्कूल में एक दोस्त के पास देखा तो मैं भी जिद्द करने लगा

पापा ने दिला दिया, पूरे 9 रूपये का आया था ‘बटुआ’

मैं बहुत खुश था की अपनी गुल्लक में से निकालकर दो, एक रुपये और एक दो रुपये का नोट अपने नए बटुए में रखूँगा

उस बटुए में पीछे की तरफ दो जेबे थी

एक छोटे नोटों के लिए और दूसरी उसके पीछे वाली बड़े नोटों के लिए

उन जेबो में रखे छोटे नोटो के पीछे रखे बड़े नोट ऐसे लगते थे जैसे कि छोटेऔर बड़े छज्जे पर एक दूसरे के आगे पीछे खड़े होकर कॉलोनी से जाती हुई कोई बारात देख रहे हो ।

कुछ नोटो का लगभग पूरा भाग जेब में अंदर छुपा होता था और एक कोना ही दिखता था जैसे बच्चे पंजो पे उचक उचक कर देखने की कोशिश कर रहे हो ।

उन जेबो के आगे एक तरफ एक के पीछे एक, दो जेबे थी जिनमे से एक में पारदर्शी पन्नी लगी थी ।

उसमे मैने कृष्ण भगवान का माखन खाते हुए एक फोटो लगा दिया था ।

उसके पीछे की जेब में मैंने मोरपाखनी की एक पत्ती तोड़कर रख ली थी क्योकि स्कूल मैं कई बच्चे कहते थे की उससे विद्या आती है ।

दूसरी तरफ की जेब में एक बटन भी लगा था, उस जेब में मैंने गिलट के कुछ सिक्के अपनी गुल्लक में से निकालकर रख लिए थे। एक दो रुपये का सिक्का था बाकि कुछ एक रूपये और अट्ठनियाँ थी शायद एक चवन्नी भी थी पर वो चवन्नी बार बार उस जेब के फ्लैप में से जो बीच से उस बटन से बंद था बार बार निकल जाती थी ।

तो फिर मैने उस चवन्नी को गुल्लक में ही वापस डाल दिया था ।

एक दिन तो जैसे बटुवे की दावत ही हो गयी जब घर पर आयी बुआ जाते जाते टैक्टर वाला पाँच रुपये का नोट मुझे दे गयी ।

एक बार सत्यनारायण की कथा में भगवान जी को चढ़ाने के लिए गिलट का सिक्का नहीं था। तो मैने मम्मी को अपने बटुवे की आगे वाली जेब से निकल कर एक रूपये का सिक्का दिया । ये वही सिक्का था जो जमशेद भाई की दुकान पर जूस पीने के बाद उन्होंने बचे पैसो के रूप में दिया था ।

मैं हैरान था कि जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाने के बाद भी भगवान जी नाराज़ नहीं हुए ।  शयद आज जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाता तो वो नाराज़ हो जाते और कहते ‘बेवकूफ़ मुझे किसी पंडित जी का दिया हुआ सिक्का ही चढ़ा’ वैसे अब तो जमशेद भाई और मैं दोनों ही hi tech हो गए है मोबाइल से ही एक दूसरे को पैसे दे देते है ।

लेकिन मुझे ऐसा लगा की उस दिन जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का चढ़ाने के बाद भगवान जी और भी ज्यादा खुश हो गए है ।

अब salary (वेतन) आती है और सीधे bank account में transfer होती है ।

बटुवा तो अब भी है मेरे पास बहुत ज्यादा महंगा और luxurious है ।

पर उसमे अब छोटे छोटे नोट नहीं रखता, एक दो बड़े बड़े नोट होते है और ढेर सारे plastic के card

ऐसा लगता है की इतने समय मे भी बटुवे का उन plastic के  कार्डो (cards) के साथ रिश्ता नहीं बन पाया है ।

एक दिन मैने बटुवे से पूछ ही लिया की इतना समय हो गया है अभी तक cards से तुम्हारी दोस्ती नहीं हुई?

तो वो नम आँखो से बोला, ” जब मेरे अंदर नोट रखे जाते थे तो वो मेरा बड़ा आदर करते थे। मुझे तकलीफ ना हो इसलिए अपने आप को ही इधर उधर से मोड़ लिया करते थे । पर ये card तो हमेशा अकड़े ही रहते है और मुझे ही झुक कर अपने आप को इधर उधर से तोड़ मोड़ कर इन्हे अपनाना पड़ता है”

अब मेरे बटुवे में चैन है जिससे कि कोई सिक्का बटुवे से बहार ना गिर पाये

पर मेरे पास अब चवन्नी नहीं है ………….

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #1 – आत्मकथ्य – युवा सरोकार के लघु आलेख ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है सुश्री अनुभा जी का आत्मकथ्य।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ सकारात्मक सपने  ☆

☆ आत्मकथ्य  – युवा सरोकार के लघु आलेख☆

जीवन में विचारो का सर्वाधिक महत्व है. विचार ही हमारे जीवन को दिशा देते हैं, विचारो के आधार पर ही हम निर्णय लेते हैं . विचार व्यक्तिगत अनुभव , पठन पाठन और परिवेश के आधार पर बनते हैं . इस दृष्टि से सुविचारो का महत्व निर्विवाद है . अक्षर अपनी इकाई में अभिव्यक्ति का वह सामर्थ्य नही रखते , जो सार्थकता वे  शब्द बनकर और फिर वाक्य के रूप में अभिव्यक्त कर पाते हैं . विषय की संप्रेषणीयता  लेख बनकर व्यापक हो पाती है.   इसी क्रम में स्फुट आलेख उतने दीर्घजीवी नही होते जितने वे पुस्तक के रूप में  प्रभावी और उपयोगी बन जाते हैं . समय समय पर मैने विभिन्न समसामयिक, युवा मन को प्रभावित करते विभिन्न विषयो पर अपने विचारो को आलेखो के रूप में अभिव्यक्त किया है जिन्हें ब्लाग के रूप में या पत्र पत्रिकाओ में  स्थान मिला है. लेखन के रूप में वैचारिक अभिव्यक्ति का यह क्रम  और कुछ नही तो कम से कम डायरी के स्वरूप में निरंतर जारी है.

अपने इन्ही आलेखो में से चुनिंदा जिन रचनाओ का शाश्वत मूल्य है तथा  कुछ वे रचनाये जो भले ही आज ज्वलंत  न हो किन्तु उनका महत्व तत्कालीन परिदृश्य में युवा सोच  को समझने की दृष्टि से प्रासंगिक है व जो विचारो को सकारात्मक दिशा देते हैं ऐसे आलेखों को प्रस्तुत कृति में संग्रहित करने का प्रयास किया  है . संग्रह में सम्मिलित प्रायः सभी आलेख स्वतंत्र विषयो पर लिखे गये हैं ,इस तरह पुस्तक में विषय विविधता है. कृति में कुछ लघु लेख हैं, तो कुछ लम्बे, बिना किसी नाप तौल के विषय की प्रस्तुति पर ध्यान देते हुये लेखन किया गया है.

आशा है कि पुस्तकाकार ये आलेख साहित्य की दृष्टि से  संदर्भ, व वैचारिक चिंतन मनन हेतु किंचित उपयोगी होंगे.

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज से प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश स्मृतियाँ/Memories।  आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी  जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। ) 

 

☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆

 

बचपन वाला विज्ञान का Box

कक्षा 10 में मेरे पास एक box हुआ करता था।जिसमे मैं विज्ञानं से सम्बंधित वस्तुएँ रखा करता था।

स्कूल में पढ़ता और प्रयोग करने के लिए विज्ञान की उन वस्तुओ को एक box मे रख लेता।

एक दिशा सूचक यंत्र (compass) था जिसकी सुईया नाचती तो थी पर रूकती हमेशा उत्तर-दक्षिण दिशा में ही थी ।

एक उत्तल लेंस था जो वस्तुओ का प्रतिबिम्ब एक खास दूरी पर ही बनता था।

कभी कभी जाड़ो की गुठली मारती धूप में उसे कागज के ऊपर फोकस (focus) करके सूरज की ऊर्जा से उस कागज़ को जलाया करता था।

उस box में मैंने दो लिटमस पेपरो की छोटी छोटी गड्डिया भी रख रखीं थी एक नीले लिटमस की और दूसरी लाल लिटमस की, जो अम्ल और क्षार से क्रिया करके रंग बदलते थे।

चुपके से एक फौजी वाली ताश की गड्डी भी मैंने उस box में छिपा रखीं थी और राजा, रानी, इक्का सब मेरे कब्ज़े में थे।

और कई सारी चीजों के साथ एक वो पेन्सिल भी थी जिसमे एक पारदर्शी खांचे में छोटे छोटे कई सारे तीले होते है और अगर एक तीला घिस का ठूठ हो जाये तो उसे निकल कर सबसे पीछे लगा दो और नया नुकीला तीला आगे आ जाता था।

बरसो बाद पता नहीं आज क्यों उस box की याद आ गयी।

अब मैं घर से दूर हूँ इस बार जब घर जाऊँगा तो ढूंढूंगा उस box को स्टोर मे कही खोल कर देखूँगा फिर से वही बचपन वाला विज्ञानं।

जीवन जो अब दिशाहीन सा हो गया है कोशिश करूँगा उसे उस compass से एक दिशा में ही रोकने की।

इस बार जाकर देखूँगा की क्या वो उत्तल लेंस मेरे बचपन की यादो के प्रतिबिम्ब अभी भी बना पायेगा?

जुबाँ में अम्ल घुल चुका है सोचता हूँ  उस box से निकाल कर नीले लिटमस पेपर की पूरी गड्डी ही मुँह में रख लूँगा मुझे यक़ीन है मेरा मुँह भी हनुमान जी की तरह लाल हो जायेगा।

इस दफा वर्षो के बाद जब वो box खोलूँगा तो राजा, रानी, गुलाम सब को आज़ाद कर दूँगा।

और वो कई तीलो वाली पेन्सिल, उसे अपने साथ ले आऊंगा क्योकि गलतियाँ तो मैं अब भी करता हूँ पर अब उन्हें मानने भी लगा हूँ। पेन्सिल से लिखीं गलतियों को सही करने मैं शायद ज्यादा कठनाई ना हो?

कुछ दिनों की बाद मैं गया था घर अपने बचपन वाले विज्ञानं का वो box फिर से खोलने पर दीमक ने अब उसके कुछ अवशेष ही छोड़े है।

वो कंपास (compass) तो मेरे से भी ज्यादा दिशाहीन हो गया है। मैं कोशिश करता हूँ उसकी सूइयों को उत्तर दक्षिण में रोकने की पर वो तो पश्चिम की ओर ही जाती प्रतीत होती है।

वो उत्तल लेंस अब किसी को जलता नहीं है उसके बीच में पड़ी एक दरार ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया है शायद।

Box खोला तो पहचान ही नहीं पाया की लाल लिटमस की गड्डी कौन सी है ओर नीले की कौन सी? शायद दोनों लिटमसो की गड्डियाँ ज्यादा ही पुरानी हो गयी है या फिर मैं?

फौजी वाली ताश की गड्डी के फौजियों की बंदूकों पर जंग लग गया है अब उनसे निकली गोलिया फौजियों के हाथो में ही फट जाती है।
राजा, रानी गुलाम जैसे लगने लगे है।

वो कई तीलो वाली पेन्सिल के सारे तीले इतने ठूठ हो गए है की उसके पारदर्शी भाग से देखने पर उनके बीच में दूरिया नजर आती है। कुछ के बीच की दूरिया तो इतनी बढ़ गयी है की पीछे वाले तीले का हाथ अब उससे आगे वाले तीले के कंधो तक नहीं पहुँचता है।

वो मेरे बचपन का जादू भरा विज्ञान वाला box कबाड़ी 5 रूपये में ले गया।

मैं गया था बाजार में वो 5 रूपये लेकर कंपास (compass) ख़रीदने …………

पर शायद सही दिशा बताने वाले कंपास (compass) अब 5 रुपये में नहीं आते ………………

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

☆ भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व ☆

भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

आपको और आपके परिवार को परशुराम जयंती और अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

 

वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ।
निशाया: प्रथमे यामें रामाख्य: समये हरि:।।

स्वोच्चगै:षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते।
रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभु: स्वयं।।

 

भगवान *परशुराम* स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी गणना दशावतारों में होती है। वैशाखमास के  शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को *पुनर्वसु* नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छः ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता *रेणुका* के गर्भ से भगवान् परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ।

दिग्भ्रमित समाज में अपने तपोबल और पराक्रम से समता और न्याय की स्थापना करने वाले भगवान परशुराम का जीवन अत्यंत प्रेरणादायी और अनुकरणीय है।

उनके आदर्शों पर चलने का हम सबको संकल्प लेना चाहिये।

© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

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