हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ 

 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रुप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी अत्यंत समृद्ध परंपरा मिलती है।आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित करती है ?

हरिशंकर परसाई – 

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं।कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा।कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं।जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे,, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा-‘उनके लिए,जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।ये समर्पण है मेरी एक किताब में। लेकिन वास्तव में यह है वो- उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपए है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं, उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं अपनी पुस्तक। जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तकें मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 58 ☆ संस्मरण – हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर संस्मरण “हमारे मित्र  डॉ लालित्य ललित जी।  श्री विवेक जी ने  डॉ लालित्य ललित जी  के बारे में थोड़ा  लिखा  ज्यादा पढ़ें की शैली में बेहद संजीदगी से यह संस्मरण साझा किया है।। इस संस्मरण  को हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 58 ☆

 

☆ संस्मरण –  हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆

खाने के शौकीन, घुमक्कड़, मन से कवि,  कलम से व्यंग्यकार हमारे मित्र  लालित्य ललित जी!

गूगल के सर्च इंजिन में किसी खोज के जो स्थापित मापदण्ड हैं उनमें वीडियो, समाचार, चित्र, पुस्तकें प्रमुख हैं.

जब मैंने गूगल सर्च बार पर हिन्दी में लालित्य ललित लिखा और एंटर का बटन दबाया तो आधे मिनट में ही लगभग ३१ लाख परिणाम मेरे सामने मिले. यह खोज मेरे लिये विस्मयकारी है. यह इस तथ्य की ओर भी इंगित करती है कि लालित्य जी कितने कम्प्यूटर फ्रेंडली हैं, और उन पर कितना कुछ लिखा गया है.

सोशल मीडिया पर अनायास ही किसी स्वादिष्ट भोज पदार्थ की प्लेट थामें परिवार या मित्रो के साथ  उनके  चित्र मिल जाते हैं. और खाने के ऐसे शीौकीन हमारे लालित्य जी उतने ही घूमक्कड़ प्रवृत्ति के भी हैं. देश विदेश घूमना उनकी रुचि भी है, और संभवतः उनकी नौकरी का हिस्सा भी. पुस्तक मेले के सिलसिले में वे जगह जगह घूमते लोगों से मिलते रहते हैं.

मेरा उनसे पहला परिचय ही तब हुआ जब वे एक व्यंग्य आयोजन के सिलसिले में श्री प्रेम जनमेजय जी व सहगल जी के साथ व्यंग्य की राजधानी, परसाई जी की हमारी नगरी जबलपुर आये थे. शाम को रानी दुर्गावती संग्रहालय के सभागार में व्यंग्य पर भव्य आयोजन संपन्न हुआ, दूसरे दिन भेड़ागाट पर्यटन पर जाने से पहले उन्होने पोहा जलेबी की प्लेटस के साथ तस्वीर खिंचवाई और शाम की ट्रेन से वापसी की.

मुझे स्मरण है कि ट्रेन की बर्थ पर बैठे हम मित्र रमेश सैनी जी ट्रेन छूटने तक लम्बी साहित्यिक चर्चायें करते रहे थे.

इसके बाद उन्हें लगातार बहुत पढ़ा, वे बहुप्रकाशित, खूब लिख्खाड़ लेखक हैं. व्यग्यम की गोष्ठियो में हम व्यकार मित्रो ने उनकी किताबों पर समीक्षायें भी की हैं. मैं अपने समीक्षा के साप्ताहिक स्तंभ में उनकी पुस्तक पर लिख भी चुका हूं. वे अच्छे कवि, सफल व्यंग्यकार तो हैं ही सबसे पहले एक खुशमिजाज सहृदय इंसान हैं, जो यत्र तत्र हर किसी की हर संभव सहायता हेतु तत्पर मिलता है. अपनी व्यस्त नौकरी के बीच इस सब साहित्यिक गतिविधियो  के लिये समय निकाल लेना उनकी विशेषता है.

वे बड़े पारिवारिक व्यक्ति भी हैं, भाभी जी और बच्चो में रमे रहते हुये भी निरंतर लिख लेने की खासियत उन्ही में है. इतना ही नही व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप व अब फेसबुक पर भी समूह के द्वारा देश विदेश के ख्याति लब्ध व्यंग्यकारो को जोड़कर सकारात्मक, रचनात्मक, अन्वेषी गतिविधियों को वे सहजता से संचालित करते दिखते हैं.

मैं उनके यश्स्वी सुदीर्घ सुखी जीवन की कामना करता हूं, व अपेक्षा करता हूं कि उनका स्नेह व आत्मीय भाव दिन पर दिन मुझे द्विगुणित होकर सदा मिलता रहेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ होली पर्व विशेष – अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2☆ प्रस्तुति – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  उनके । द्वारा संकलित  बाल साहित्यकारों की यादगार  होली के संस्मरण ।  ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।  यह इस कड़ी का अंतिम भाग है।  हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )

श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –

“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी  निकालने का तरीका रह गई है.

क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”

प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2 ☆

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल”

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल” एक नवोदित बालसाहित्यकार है. ये बच्चों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रहे है. उन का कहना है कि मेरे बचपन की यादगार होली रही है. यह बात वर्ष 1991 की है. तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ता था. होली पर मेरे गृहनगर शाहजहाँपुर में लाट साहब का जुलूस निकलता है.वैसे तो सड़क पर जा कर हर बार बड़ों के साथ मैं यह जुलूस देखता था, किन्तु उस वर्ष पहली बार मैं कुछ जान-पहचान के हमउम्र लड़कों के साथ जुलूस के साथ आगे चलता चला गया. ढोल व गाजे-बाजे के मधुर संगीत और चारों ओर बरसते रंगों का हम भरपूर आनन्द ले रहे थे.

परिवार के बड़े लोगों ने हमें ज़्यादा दूर जाने से मना किया था, पर होली के रंग-बिरंगे उल्लास में डूबे हम चलते-चलते ऐसे अनजान मोहल्ले में पहुँच गए जहाँ कुछ बड़ी उम्र के लड़के शराब के नशे में धुत्त थे. वापस लौटते समय उन्हों ने हमें घेर लिया. अपशब्द कहते हुए हमारे कपड़े फाड़ दिए.

हमने बहुत हाथ-पैर जोड़े. पर, नशे में धुत्त उन लड़कों ने हमारी एक न सुनी. हम बहुत दुःखी हुए. बेहद शर्मिंदगी के साथ घर वापस लौटे.घर पर बड़ों से बहुत डाँट भी खानी पड़ी थी. तब पहली बार एहसास हुआ कि बड़ों की बात न मानना कितना भारी पड़ सकता है.

राजेंद्र श्रीवास्तव

राजेंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे कवि और लेखक है. आप बताते हैं कि अपने गाँव की एक होली हमें आज भी याद है.वे लिखते हैं कि हमारे गाँव में होलिका दहन के अगले दिन होली की राख और धूल लेकर बच्चे बूढ़े घर-घर जाते थे. उसे किसी भी आँगन या बंद दरवाजे पर फेंक कर आते थे.

दूसरे दिन का हम बच्चों को बेसब्री से रहता था. सुबह  लगभग नौ-दस बजे गाँव के बड़े-बूढ़े  घरों में बनाए गोबर के गोवर्धन का थोड़ा सा गोबर, होलिका स्थल पर लेकर जाते. तब तक हम बच्चे अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार गाँव की एक मात्र गली में मुखिया जी के घर के सामने की ढलान की ऊँचाई पर गोबर इकठ्ठा कर लेते.

जब गाँव के बड़े-बूढ़े लौटकर आते तो उन्हे रोकने के लिए गोबर के हथगोले बना कर उन पर फेंकते. उस तरफ से वह गुट भी टोकरी आदि की ओट लेकर हमारी ओर आने का जतन करते. ढपला, झाँझ व छोटे नगाड़ों के शोर में यह गोबर युद्ध तब तक चलता, जब तक हम लोगों का गोबर का भंडार खत्म न हो जाता. या कि गोबर खत्म होने से पहले ही गाँव के मुखिया किसी तरह बचते-बचाते हमारी सीमा में न आ जाते.

उसके बाद एक-दूसरे पर गोबर पोतते हुए दोपहर हो जाती. तब सभी अपने कपड़े लेकर नदी की ओर दौड़ जाते. जीभर नहाते. घर आकर अगले दिन होने वाली रंग की होली की योजना बनाने लगते.

इस तरह तीन दिन क्रमशः धूल, गोबर और रंग की होली की हुड़दंग में पूरा गाँव एक नजर आता. आजकल ऐसी होली नजर नहीं आती है.

इंद्रजीत कौशिक 

इंद्रजीत कौशिक एक प्रसिद्ध कहानीकार है. आप बच्चों को लिए बहुत लिखते हैं. आप को होली का एक संस्मरण याद आता है. आप लिखते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई के उपरांत मैं स्थानीय समाचार पत्र के कार्यालय में काम करने लग गया था. जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा शहर— बीकानेर भांग प्रेमियों के लिए विख्यात है.

उसी वक्त की बात है कि होली का त्यौहार पास आता जा रहा था. समाचार पत्र के कार्यालय में नवोदित एवं वरिष्ठ साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था. उन के सानिध्य में मैंने लिखना शुरू भी कर दिया था. ऐसे ही एक दिन साहित्यकारों के बीच मिठाई और नमकीन के रूप में विश्वविख्यात बीकानेरी भुजिया का दौर शुरू हुआ. साहित्यकारों की टोली ने मुझे भी आमंत्रित किया तो मैं भी जा पहुंचा उन के बीच ।

” लो तुम यह लो स्पेशल वाली भुजिया ” मैं ने भुजिया देखी तो खुद को रोक न सका.भुजिया चीज ही कुछ ऐसी है जितना भी खाओ पेट भरता ही नहीं . अभी एक दो मुट्ठी भुजिया ही खाए थे कि  स्पेशल भुजिया ने रंग दिखाना शुरू कर दिया. दरअसल वे भाँग के भुजिया थे. यानी कि उन में भांग मिलाई हुई थी.

फिर क्या था,चक्कर आने शुरू हुए तो रुके ही नहीं. मुझे उस का नशा होता देख किसी ने सलाह दी,” अरे भाई, जल्दी से छाछ गिलास भर के पिला दो. नशा उतर जाएगा.”तब झटपट पड़ोस से छाछ मंगवाई गई.दोतीन गिलास मुझे पिला दी गई.नुस्खा कामयाब रहा. थोड़ी देर बात स्थिति सामान्य हुई. तब मैंने कसम खाई कि आइंदा कभी बिना सोचे विचारे कोई चीज मुंह में डालने की नहीं सोचूँगा.

अच्छा तो यही होगा कि होली जैसे मस्त त्यौहार पर नशे पते से दूर ही रहा जाए. यही सबक मिला था उस पहली यादगार होली से.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ होली पर्व विशेष – अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 1☆ प्रस्तुति – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  उनके । द्वारा संकलित  बाल साहित्यकारों की यादगार  होली के संस्मरण ।  ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।  हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )

श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –

“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी  निकालने का तरीका रह गई है.

क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”

प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 1☆

सुश्री अंजली खेर

अंजली खेर लेखिका हैं.  वे बताती है. बात उस वक्त की है जब वे सातवी कक्षा में पढ़ती थी. उस साल हम सभी एक ही कोलोनी के बच्चों ने एक योजना बनाई. सुबह से ही सभी एक मकान  की छत पर इकट्टा हो गए . छत से बाहर पानी जाने वाले सभी रास्ते को बंद कर दिया और सभी टंकियों  के पानी को छोड़ दिया. सभी पानी छत पर इकट्टा कर लिया. फिर एकदूसरे पर छपा छप पानी फेक कर होली मनाई. उसी पानी में कबड्डी भी खेली . जम के लोटलोट कर नहाए.

जब सभी के घर में पानी नहीं आया. इस से सभी को हमारी बदमाशी का पता चल गया.  हम सब को अपनेअपने मातापिता ने खूब डांट पिलाई.

आज भी जब दोस्तों से बात होती हैं तो उस होली को याद कर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं.

श्री देवदत्त शर्मा

देवदत्त शर्मा के बचपन की यादगार होली. आप धार्मिक रचनाओं की रचियता है. आप कहते हैं कि वैसी होली कहाँ है जैसी हम खेलते थे. घर के आंगन में एक बड़े कड़ाह में पानी व गहरा गुलाबी रंग भर दिया जाता था . उस के चारों ओर घर की कुल वधुएं हाथ में कपडे़ का मोटा कोड़ा लेकर खड़ी हो जाती थी.पुरुष वर्ग कड़ाह से अपनी डोलची में रंग भरा पानी ले कर महिलाओं पर जोर से फेंकते थे.

कोशिश यह रहती थी पुरुष कड़ाह तक नहीं पहुंचे. अगर कोई पहुंचता है तो औरतें गीले कौड़े से मारती थी. कुछ औरतें मिल कर उसे भरे हुए कड़ाह में डाल देती थी. मोहल्ले के दर्शकों को मजा आता था .

हम छोटे  बच्चे थे. अत: कड़ाह के पास नहीं जाते थे. मेरे काकाजी ने बांस की एक पिचकारी बना कर मुझे दी मैं अलग बाल्टी में रंग घोल कर पिचकारी भर कर दर्शकों को भिगोता था. यह मेरी पहली होली थी. तब मैं 5-7 वर्ष का था . गांव में इस प्रथा को फाग खेलना कहते थे. अब यह प्रथा नगण्य है.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ संस्मरण ☆ पुण्य स्मरण – स्व. प्रो नामवरसिंह – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध।  मैं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर’ जी का हृदय से आभारी हूँ जो उन्होंने मेरे आग्रह पर एक संस्मरण  ही नहीं  अपितु एक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दस्तावेज  ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों को साझा करने का अवसर दिया है।  इस सन्दर्भ में अनायास ही  स्मृति पटल पर अंकित  ई-अभिव्यक्ति पर  दिए गए  प्रख्यात साहित्यकार नामवर सिंह जी नहीं रहे शीर्षक से उनके निधन के दुखद समाचार की याद दिला दी। प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर ‘ जी  का एक पुण्य संस्मरण – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद । ) 

☆पुण्य स्मरण – स्व. प्रो नामवरसिंह – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद

स्व. प्रो नामवरसिंह
जन्म: 28 जुलाई 1926 (बनारस के जीयनपुर गाँव में)  निधन: 19 फरवरी 2019 (नई दिल्ली)

“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा”प्रो नामवरसिंह 

मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न कौंधता रहा कि हर आने-जाने वाले से हमेशा साहित्य पर चर्चा कर कराके वे ऊबते न होंगे क्या? लोग उन्हें इसलिए सताते होंगे कि किसी

२ नवंबर १८ को आलोचना के दिनमान प्रोफेसर नामवरसिंह के सानिध्य की ऊष्मा के साथ-साथ उन्हें करीब से देखने-सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। वे २८ जुलाई को ९३ वर्ष के हो चुके थे। सांध्य वेला के दिनमान होते हुए भी दीप्त और प्रदीप्त थे। उनमें पर्याप्त ऊर्जा और ऊष्मा अब भी अवशिष्ट थी।

इन दिनों उनसे मिलने का समय लेना दुष्कर मानते हुए लोगों ने उनसे मिलने -जुलने का उपक्रम प्रायः छोड़ ही दिया था। इसके पीछे उनका स्वास्थ्य सबसे बड़ा कारण था या लोगों का स्वार्थ इस पर मौन रहना ही तब भी बेहतर था और आज भी बेहतर ही है ।

उन दिनों वे अकेले ही रहते थे। अवस्था के प्रभाव के कारण स्वास्थ्य की शिथिलता स्वाभाविक थी। लेकिन एकाकीपन भी उन्हें कम दुःख न देता होगा। जितनी देर वहां रहा यही सोचकर बहुत उद्विग्न रहा। रात का एकाकीपन उन्हें डराता भी होगा। उनके राग और वैराग्य के मध्य सम पर रहते हुए एक घंटा बिताया। विलंबित में हुए संवादों से रिसते रस ने ऐसा बांधा था कि जैसे एक घंटे में समूचा युग जी लिया हो।

मेरे जैसे क्या बड़े बड़ों तक के लिए उनसे मिलना एक व्यक्ति से नहीं एक दिशा दर्शक से मिलना होता रहा है. आलोचक से ही नहीं नए लोचन देने वाले से मिलना होता था. उनसे मिला तो सोचा था कि सताऊँगा नहीं लेकिन अंततः सता ही दिया।

लगे हाथ उनसे बाल साहित्य पर भी चर्चा कर डाली। बीसवीं सदी का महाकवि पूछ लिया। बीसवीं सदी के हिंदी के महाकवि पर उन्हें बोलने के लिए विवश किया तो जयशंकर प्रसाद और कामायनी के अनेकश: उल्लेख के बाद भी उन्होंने केवल निराला को ही महाकवि माना।इसके लिये उनका स्पष्ट मानना था कि कोई कवि अपनी रचना के शिल्प विधान से नहीं अपितु जनपक्षधरता से महाकवि बनता है। जायसीऔर तुलसी जैसे कवियों के विषय में कोई खतरा मोल न लेने के कारण मैंने जान-बूझ कर यह प्रश्न दागा था।बाल साहित्य पर उन्होंने कहा कि दुनिया के हर बड़े साहित्यकार ने लिखा है लेकिन छुटभैये उसे अछूता समझते हैं।कुछ बाल साहित्यकारों के एक दो नाम उन्होँने लिये तो कुछ नाम मैंने भी गिनाए। मेरे द्वारा लिए गए बहुत से नामों का विरोध भले उन्होंने नहीं किया लेकिन मुझसे सहमत से नहीं लगे। वे नाम यहाँ और खासकर इस अवसर पर लेना उचित न मानकर छोड़ रहा हूँ। आचार्य दिविक रमेश जी को बाल साहित्य में मिले साहित्य अकादमी को उन्होँने शुभ लक्षण माना। लेकिन गिने-चुने को छोड़कर शेष साहित्यकारों द्वारा की जा रही वर्तमान में बाल साहित्य की उपेक्षा को उन्होंने स्वस्थ वृत्ति नहीं माना। उन्हें ईश्वर जैसे विषय पर उन पर छिड़े विवाद पर प्रश्न पर प्रश्न करके विचलित करना या कुछ उगलवाना किसी भी दृष्टि से उन पर मेरे द्वारा किए गए अत्याचार से कम न था। फिर भी उन्होंने असंयत हुए बिना हर प्रश्न का यथासंभव समाधान किया था।

प्रतिष्ठित पत्रिका में स्थान मिल जाएगा। लेकिन इस बात का ध्यान उन्हें शायद ही रहता होगा कि इस अवस्था में अब उन्हें बोलने का कष्ट कम ही दिया जाए तो अच्छा है।

आलोचना के किंबदंती पुरुष बन जाने के बाद हर कोई उनसे कुछ न कुछ कबूलवाना चाहता रहा है। साहित्यकार भी टी वी के पत्रकारों की तरह क्यों सबसे पहले और सबसे नया के चक्कर में पड़ा हुआ रहता है । वह भी क्यों इसी फिराक में रहता है कि किसी तरह चर्चा में आए । शायद इसी लिए कि वह किसी को भी शहीद करके अपना लक्ष्य साध सके। यह अवमूल्यन अखरता ही नहीं बरछे की तरह भीतर धंसता चला जाता है।

मैं सोचता हूँ कि क्या साहित्यकार भी व्यापारी नहीं होता जा रहा है। जो इन जैसे व्यक्तित्वों और अन्य बुजुर्गों को प्रश्न पूछ-पूछ कर तंग करते हैं । इसके साथ यह भी सोचता हूँ कि क्या इन्होंने अपनी जवानी में खुद भी यह व्यापार न किया होगा? क्या भारतीय संस्कृति के भीतर के राग रंग इन्हें न रुचते रहे होंगे जिन्हें हठात न मानकर साम्यवाद की कंठी बाँधी थी. लेकिन इन तर्कों के बल पर उन्हें सताना मुझे बोझिल करता रहा था। पापी बनाता रहा था।

इनके साम्यवादी ताप और प्रताप का सूर्य अब तक पूरी तरह से ढल चुका था। इनके लिए कभी दो कौड़ी के रहे भारतीय जीवन दर्शन के जन्म-मरण और ईश्वर जैसे विषय अब इन्हें ख़ुद बहुत रास आ रहे थे। तभी तो इन्होंने एक घंटे की बातचीत में कई बार दुहराया कि -“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा.”

इनसे बातचीत के समय मैं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया कि लोग इन्हें विभिन्न विश्वविद्यालयों में और अन्य जगहों पर भी हिंदी पदों के नियोक्ता जगत का अधिनायक क्यों मानते रहे हैं? इन्होंने पक्षपात किया भी होगा क्या? यदि ऐसा होता तो कोई न कोई गुरुभक्त ऐसा होता जो इनकी इनकी सेवा में तब भी आता-जाता होता जब वे मदद की बेहद ज़रूरत महसूस करते थे। ऐसे बहुत सारे उदाहरण मैं जानता हूँ जहाँ अयोग्य और योग्य के भेद से परे परम हंस सम रहकर उपकार किए गए। उनमें से एकाध लायक भी निकले जो आज भी अपने-अपने गुरुदेवों की सेवा करते -कराते देखे पाये जाते हैं। लेकिन इनके यहाँ ऐसा कुछ भी क्यों नहीं था? शायद उस कोटि का उपकार इनके द्वारा न किया जा सका होगा।

एक घंटे में ही उनके मुख मण्डल की श्यामल आभा निराला की संध्या सुंदरी के कंधे पर हाथ धरे आत्मीयता की सजलता भरे वैचारिक मेघों वाले आसमान से धीरे-धीरे उतरती हुई मेरे मानस पटल पर छविमान होती हुई अंतस तक उतर गई थी। संकोच दूर हुआ तो ऐसी छनी कि जैसे दो अंतरंग लंबे अंतराल पर मिले हों।आलोचना के दिनमान से यह अनौपचारिक संवाद मुझे आज भी ऊष्मित कर रहा है।

मेरे रहते उनका वीरान -सा घर और न कोई फोन न संवाद मुझे डराता रहा था। दो-दो संतानों के बावज़ूद बस एक समय खाना बनाने आने वाली के अलावा किसी अन्य मददगार का न होना न जाने क्यों मुझ जैसे गैर को भी डरा रहा था। पर,उनके अपने इतने निश्चिंत क्यों थे। यह बात मेरी समझ से परे थी। मेरे मन में बार-बार आ रहा था कि अगर बाथरूम में गिर गए तो कौन उठाएगा इन्हें। अस्पताल कौन ले जाएगा। बहुत संभल-संभल के चलते थे पर सीधे नहीं चल पाते थे। गौरैया की तरह फुदक-फुदक के चलना उनकी कला नहीं विवशता थी ।अटैक तो अपने बस में था नहीं। उसके लिये तो इस अवस्था में अकेले रहना खतरों से खेलना था। यह खेल वे अपने अन्तिम दिनों में भी खेल रहे थे।

उस दिन जीवन के सबसे बड़े और अनिवार्य सत्य मृत्यु के सन्निकट देखने के बावज़ूद मैं उन्हें अस्ताचल का सूर्य नहीं मान पा रहा था.

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत,  गुजरात

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है!

(जिस मंच पर बतौर प्रतियोगी पारितोषिक पाया हो उसी मंच पर 24 वर्ष पश्चात उसी प्रतियोगिता के उद्घाटन का सौभाग्य और उन क्षणों को जीने के लिए श्री संजय भारद्वाज जी का हार्दिक अभिनन्दन। सादर प्रस्तुत है उनकी मनोभावनाएं ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए।)

सन 1996…, महाराष्ट्र राज्य हिंदी नाट्य प्रतियोगिता में अपने नाटक ‘एक भिखारिन की मौत’ का मंचन किया था। नाटक को विजेता नाटकों की सूची में स्थान मिला, साथ ही व्यक्तिगत रूप से अभिनय का पारितोषिक भी।

सन 2020…,  3 फरवरी को सांस्कृतिक संचालनालय, महाराष्ट्र सरकार की उसी राज्य हिंदी नाट्य प्रतियोगिता का उद्घाटन करने का सौभाग्य मिला।

विशेष आनंद हुआ यह जानकर कि इस वर्ष हिंदी के 88 नाटक इस प्रतियोगिता में सहभागी हुए हैं। अगले वर्ष यह संख्या संभवत: 100 को छू जाए।

विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि जीवन में छोटी-बड़ी जो भी सफलताएँ मिलीं, उसके मूल में रंगमंच ही है। खून में दौड़ता रंगमंच कलाकार को जीने नहीं देता और जब तक कलाकार पूरा जी नहीं लेता, रंगमंच उसे मरने भी नहीं देता। शायद इसी अनुभव ने मुझसे लिखवाया-

न गले से उतरा

न गले में ठहरा

विष न जाने

कहाँ जा छिपा,

जीवन के साथ

मृत्यु का आभास,

मैं न नीलकंठ

बन सका, न सुकरात!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

दोपहर 3.58 बजे, 4.2.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण : अनन्य मुम्बई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – संस्मरण : अनन्य मुम्बई

90 के दशक की बात है। 85-86 में ग्रेजुएशन समाप्त कर आगे के जीवन का रोडमैप मस्तिष्क में तय कर चुका था। उच्चशिक्षा, लेक्चररशीप, शाम को थियेटर, लेखन और समाजसेवा। मुंबई शिफ्ट होना था और फिल्मों के लिए लिखना-अभिनय करना था। यूनिवर्सिटी के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ लेखक, निर्देशक, अभिनेता और अन्य ललित कलाओं के तमगे लगाए मन समझता था कि बस एक कदम उठाया और वामन अवतार की तरह धरती मापी।

अलबत्ता विधि का लिखा मिटता नहीं। ‘मैन प्रपोजेस, गॉड डिस्पोजेस।’ बी.एड. करते हुए ही अकस्मात विधि ने व्यापार में ढकेल दिया। सुबह 9 से रात 11 तक अथक परिश्रम का दौर आरंभ हो गया। मध्यमवर्गीय परिवार, दायित्वबोध और चुनौतियों का पहाड़। व्यापार थोड़ा स्थिर हुआ तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन मुंबई जाकर इच्छित की दिशा में कदम आगे बढ़ाने का मन बनाया। हमारा बाज़ार गुरुवार बंद रहता था, सो मेरे लिए ‘वर्किंग डे’ में मुंबई जाकर लोगों से मिल सकने का अवसर था।

उस जमाने में एकांकी और नाटक लिखा करता था। कविता के ‘क’ से भी संपर्क नहीं हुआ था। सो अपनी एकांकियाँ और कुछ थीम (जिन्हें बाद में ‘वन लाइनर’ कहा जाने लगा) लेकर पुणे से मुंबई के चक्कर आरंभ हुए। पहली कुछ यात्राएँ निष्फल रहीं। मूल कारण था किसी से संपर्क ही न हो पाना। लोकल नेटवर्क पता नहीं था, ईस्ट-वेस्ट समझ में नहीं आता था। संबंधित स्टेशन पर उतरकर पैदल ही पता तलाशने निकल जाता था। एशियाड बसें चलती थीं। पुराना मुंबई-पुणे हाईवे था। मुंबई पहुँचने में 11  बज जाते थे। बमुश्किल कुछ घंटे हाथ में होते थे क्योंकि 4 बजे के बाद लौटना होता था ताकि अगले दिन काम पर जा सकूँ। कई बार देर होने पर देर रात लौटता, अगले दिन फिर वही  दिनचर्या। ‘चप्पल घिसना’ मुहावरे का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।

कुछ लोगों से मिला भी। ‘टी’ सीरिज में एक हमउम्र ने कुछ सेकंडों में एक थीम सुनी और कहा कि ऐसी एक मिलती-जुलती थीम पर हम काम कर रहे हैं, हमें कुछ अलग चाहिए। एक बार तो इंडस्ट्री के मील के पत्थर स्व. बी आर चोपड़ा के निवास स्थान तक पहुँच गया। अदालती-व्यवस्था पर मेरा नाटक ‘दलदल’ लोकप्रिय हुआ था। उसकी थीम उन्हें सुनाना चाहता था। दरबान से मालूम पड़ा कि अंदर मीटिंग चल रही है, समय लगेगा। बाद में कभी भेंट हो सकती है। अलबत्ता व्यवहार बेहद शिष्ट और उत्साहवर्द्धक था। इसके बाद व्यापार में अधिक व्यस्त होता गया। साप्ताहिक छुट्टी व्यापारिक खरीद के काम आने लगी। कभी-कभार यहाँ-वहाँ एकाध फोन करता, फिर दो-चार महीने में एक बार मुंबई यात्रा होने लगी और शनै:-शनै: बंद हो गई।

मनमोहन शेट्टी जी के उल्लेख के बिना इस यात्रा का वर्णन निरर्थक होगा। उन दिनों वे ‘अर्द्धसत्य’, ‘चक्र’ जैसी फिल्में बना चुके थे। मैं समानांतर सिनेमा का दीवाना था। मैंने उन्हें उनकी फिल्मों के संदर्भ में एक बधाई-पत्र भेजा।

आश्चर्यजनक रूप से उनका धन्यवाद का उत्तर भी आया। मुंबई की अगली यात्रा में पता तलाशते हुए मैं ‘एडलैब’ पहुँचा। शायद 11 बज रहे थे। शेट्टी जी अभी आए नहीं थे। उनके स्टाफ ने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। साढ़े ग्यारह के लगभग मनमोहन जी आए। ऑफिस में बत्ती की। प्रार्थना के बाद कुर्सी पर बैठे और मुझे अंदर बुलाया।

मैं पहली बार किसी प्रोड्युसर के ऑफिस में बैठा था। मैंने अपने आने का प्रयोजन बताया। उन्होंने मेरे एकाध ‘वन लाइनर’ सुने। वे गंभीरता से सुनते रहे। फिर दोनों के लिए कॉफी आ गई। चुप्पी तोड़ते हुए उन्होंने बताया कि अगला प्रोजेक्ट वे श्याम बेनेगल जी के साथ कर रहे हैं। बेनेगल जी की काम करने की अपनी शैली है और उनके काम में किसी तरह की दखलअंदाज़ी नहीं की जा सकती। इसलिए तुरंत तो कुछ नहीं किया जा सकता, आगे किसी प्रोजेक्ट के समय  साथ बैठा जा सकता है।

कॉफी का आखिरी घूँट पीकर मग रखते हुए बोले, ‘यू आर अ पोटेंशिअल राइटर संजय! थोड़ा घूमना पड़ेगा पर आपको इंडस्ट्री में काम मिलेगा।’ पास के किसी स्टुडिओ में अमोल पालेकर जी अपने धारावाहिक ‘कच्ची धूप’ की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने मुझे पालेकर जी से मिलने के लिए कहा। कुछ और स्टुडिओ और वहाँ चल रहे प्रॉडक्शंस के बारे में बताया। इतने बड़े व्यक्ति का यह मार्गदर्शन मुझे आश्चर्यमिश्रित सुख दे रहा था।

सुखद आश्चर्य का चरम अभी बाकी था। मुकेश दुग्गल उन दिनों थोक में फिल्में बना रहे थे। उनकी किसी नई फिल्म की दो दिन बाद लाँच पार्टी थी। उसका निमंत्रण शेट्टी जी की मेज पर था। उन्होंने निमंत्रण उठाया। अपने नाम के बाद कॉमा लगाकर मेरा नाम लिखा। बोले, ‘दुग्गल से मिलना। उनको बोलना मैंने भेजा है। वो बहुत मूवीज बना रहे हैं। होप, आपको स्टार्ट मिलेगा।’

निमंत्रण-पत्र मेरे हाथ में था और मैं अवाक था। पता नहीं शेट्टी जी का धन्यवाद भी ठीक से कर पाया या नहीं। उन्होंने गर्मजोशी से हाथ मिलाया और शुभकामनाओं के साथ विदा किया।

चढ़ते समय दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ने की आदत थी। आज आनंदातिरेक में दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ उतरा। नीचे पहुँच कर एक लंबा श्वास लिया। लगा जैसे निमंत्रण नहीं बल्कि आकाश मुट्ठी में आ गया हो। ये बात अलग है कि दायित्व, निजी आकांक्षाओं पर भारी पड़े और उस लाँच में कभी नहीं पहुँच पाया।

आज पलटकर देखता हूँ तो दिखते हैं एक अनजान शहर में अनजान व्यक्ति के लिए आगे बढ़े हाथ। अनुभव अलग-अलग हो सकते हैं पर सामान्यत: ये शहर मुंबई और हाथ मुंबईकर के होते हैं।

आज बरबस याद आए मनमोहन शेट्टी जी और मुंबई का आत्मीय अनुभव। सलाम शेट्टी साहब, सलाम मुंबई!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 6:14 बजे, रविवार, 11.02.2018)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एक संस्मरण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – एक संस्मरण  

रात के 2:37 का समय है। अलीगढ़ महोत्सव में कविता पाठ के सिलसिले में हाथरस सिटी स्टेशन पर कवि मित्र डॉ. राज बुंदेली के साथ उतरा हूँ। प्लेटफॉर्म लगभग सुनसान। टिकटघर के पास लगी बेंचों पर लगभग शनैः-शनैः 8-10 लोग एकत्रित हो गए हैं। आगे की कोई ट्रेन पकड़नी है उन्हें।

बाहर के वीराने में एक चक्कर लगाने का मन है ताकि कहीं चाय की कोई गुमटी दिख जाए। शीतलहर में चाय संजीवनी का काम करती है। मित्र बताते हैं कि बाहर खड़े साइकिल रिक्शावाले से पता चला है कि बाहर इस समय कोई दुकान या गुमटी खुली नहीं मिलेगी। तब भी नवोन्मेषी वृत्ति बाहर जाकर गुमटी तलाशने का मन बनाती है।

उठे कदम एकाएक ठिठक जाते हैं। सामने से एक वानर-राज आते दिख रहे हैं। टिकटघर की रेलिंग के पास दो रोटियाँ पड़ी हैं। उनकी निगाहें उस पर हैं। अपने फूडबैग की रक्षा अब सर्वोच्च प्राथमिकता  है और गुमटी खोजी अभियान स्थगित करना पड़ा है।

देखता हूँ कि वानर के हाथ में रोटी है। पता नहीं ठंड का असर है या उनकी आयु हो चली है कि एक रोटी धीरे-धीरे खाने में उनको लगभग दस-बारह मिनट का समय लगा। थोड़े समय में सीटियाँ-सी बजने लगी और धमाचौकड़ी मचाते आठ-दस वानरों की टोली प्लेटफॉर्म के भीतर-बाहर खेलने लगी। स्टेशन स्वच्छ है तब भी एक बेंच के पास पड़े मूंगफली के छिलकों में से कुछ दाने वे तलाश ही लेते हैं। अधिकांश शिशु वानर हैं। एक मादा है जिसके पेट से टुकुर-टुकुर ताकता नन्हा वानर छिपा है।

विचार उठा कि हमने प्राणियों के स्वाभाविक वन-प्रांतर उनसे छीन लिए हैं। फलतः वे इस तरह का जीवन जीने को विवश हैं। प्रकृति समष्टिगत है। उसे व्यक्तिगत करने की कोशिश में मनुष्य जड़ों को ही काट रहा है। परिणाम सामने है, प्राकृतिक और भावात्मक दोनों स्तर पर हम सूखे का सामना कर रहे हैं।

अलबत्ता इस सूखे में हरियाली दिखी, हाथरस सिटी के इस स्टेशन की दीवारों पर उकेरी गई महाराष्ट्र की वारली या इसके सदृश्य पेंटिंग्स के रूप में। राजनीति और स्वार्थ कितना ही तोड़ें, साहित्य और कला निरंतर जोड़ते रहते हैं। यही विश्वास मुझे और मेरे जैसे मसिजीवियों को सृजन से जोड़े रखता है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संस्मरण

मेरे लिए प्रातःभ्रमण निरीक्षण, अपने आप से संवाद करने एवं आकलन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है। रोजाना की कुछ किलोमीटर की ये पदयात्रा अनुभव तो समृद्ध करती ही है, मुझे शारीरिक से अधिक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती है।
आज टहलते हुए हिंदी माध्यम के एक विद्यालय के सामने से निकला। अंग्रेजी स्कूलों में वैन, स्कूल बस और ऑटोरिक्शा से उतरनेवाने स्टुडेंट्स की बनिस्बत घर से पैदल आनेवाले विद्यार्थियों की भीड़ फुटपाथ पर थी।
आपस में बातचीत करती 10-12 वर्ष की दो बच्चियाँ स्कूल के फाटक पर पहुँची। प्रवेश करने के पूर्व दोनों ने स्कूल की माटी मस्तक से लगाई (जैसे मंदिर में प्रवेश से पहले भक्तगण करते हैं), फिर विद्यालय में प्रवेश किया।
मन भर आया। इच्छा हुई कि दोनों बच्चियों के चरणों में माथा नवाकर कहूँ , “बेटा आज समझ में आया कि विद्यालय को ज्ञान मंदिर क्यों कहा जाता था। ..दोनों खूब पढ़ो, खूब आगे बढ़ो!’
विश्वास से कह सकता हूँ कि ये बच्चियाँ अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ावों का बेहतर सामना कर पाएँगी क्योंकि हरा वही हुआ जो माटी से जुड़ा।
आपका दिन हरा हो।’

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के संस्मरण – # 21 ☆ मेरी माँ प्राचार्या पिछली पीढ़ी की नारी सशक्तिकरण की उदाहरण ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” स्थान पर आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं  “विवेक के संस्मरण “. इस सन्दर्भ में हम श्री विवेक जी के अपनी माताजी के अविस्मरणीय संस्मरण  “मेरी माँ प्राचार्या पिछली पीढ़ी की नारी सशक्तिकरण की उदाहरण” आपसे साझा करना चाहेंगे जो हम सबके लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के संस्मरण – # 21 ☆ 

 

☆ मेरी माँ प्राचार्या पिछली पीढ़ी की नारी सशक्तिकरण की उदाहरण ☆

 

मैं अपनी माँ श्रीमती दयावती श्रीवास्तव के साथ जब भी कहीं जाता तो मैं तब आश्चर्य चकित रह जाता , जब मैं देखता कि अचानक ही कोई युवती , कभी कोई प्रौढ़ा ,कोई सुस्संकृत पुरुष आकर श्रद्धा से उनके चरणस्पर्श करता है .मैम, आपने मुझे पहचाना ? आपने मुझे फलां फलां स्कूल में , अमुक तमुक साल में पढ़ाया था ….! प्रायः महिलाओ में उम्र के सा्थ हुये व्यापक शारीरिक परिवर्तन के चलते माँ अपनी शिष्या को पहचान नहीं पाती थी , पर वह महिला बताती कि कैसे उसके जीवन में यादगार परिवर्तन माँ  के कठोर अनुशासन अथवा उच्च गुणवत्ता की सलाह या श्रेष्ठ शिक्षा के कारण हुआ …. वे लोग पुरानी यादों में खो जाते . ऐसे १, २ नहीं अनेक संस्मरण मेरे सामने घटे हैं .कभी किसी कार्यालय में किसी काम से जब मैं माँ के साथ गया तो अचानक ही कोई अपरिचित उनके पास आता और कहता, आप बैठिये , मैं काम करवा कर लाता हूँ …वह माँ का शिष्य होता .

१९५१ में जब मण्डला जैसे छोटे स्थान में मम्मी पापा का विवाह लखनऊ में हुआ , पढ़ी लिखी बहू मण्डला आई तो , दादी बताती थी कि मण्डला में लोगो के लिये इतनी दूर शादी , वह भी पढ़ी लिखी लड़की से ,यह एक किंचित अचरज की बात थी .उपर से जब जल्दी ही मम्मी ने विवाह के बाद भी अपनी उच्च शिक्षा जारी रखी तब तो यह रिश्तेदारो के लिये भी बहुत सरलता से पचने जैसी बात नहीं थी . फिर अगला बमबार्डमेंट तब हुआ जब माँ ने शिक्षा विभाग में नौकरी शुरू की . हमारे घर को एतिहासिक महत्व के कारण महलात कहा जाता है , “महलात” की बहू को मोहल्ले की महिलाये आश्चर्य से देखती थीं . उन दिनों स्त्री शिक्षा , नारी मुक्ति की दशा की समाज में विशेष रूप से मण्डला जैसे छोटे स्थानो में कोई कल्पना की जा सकती है . यह सब असहज था .

अनेकानेक सामाजिक , पारिवारिक , तथा आर्थिक संघर्षों के साथ माँ  ने मिसाल कायम करते हुये नागपुर विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेज्युएशन तक की पढ़ाई स्व अध्याय से प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में साथ साथ बेहतरीन अंको के साथ पास की . तब सीपी एण्ड बरार राज्य था , वहाँ हिन्दी शिक्षक के रूप में नौकरी करते हुये , घर  के लिये रुपये भेजते हुये , स्वयं पढ़ना , व अपना घर चलाना , तब तक मेरी बड़ी बहन का जन्म भी हो चुका था , सचमुच मम्मी की  समर्पण , प्यार व कुछ कर दिखाने की इच्छा शक्ति , ढ़ृड़ निश्चय का ही परिणाम था .मां बताती थी कि एक बार विश्वविद्यालय की परीक्षा फीस भरने के लिये उन्होंने व पापा ने तीन रातो में लगातार जागकर संस्कृत की हाईस्कूल की टैक्सट बुक की गाईड लिखी थी, प्रकाशक से मिली राशि से फीस भरी गई थी …सोचता हूँ इतनी जिजिविषा हममें क्यों नहीं … प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय तत्कालीन पीएसएम से ,  बी.टी का प्रशिक्षण फिर म.प्र. लोक सेवा आयोग से चयन के बाद म.प्र. शिक्षा विभाग में व्याख्याता के रूप में नौकरी ….मम्मी की जिंदगी जैसे किसी उपन्यास के पन्ने हैं …. अनेक प्रेरक संघर्षपूर्ण , कारुणिक प्रसंगों की चर्चा वे करते हैं , “गाड हैल्पस दोज हू हैल्प देम सेल्फ”.आत्मप्रवंचना से कोसो दूर , कट्टरता तक अपने उसूलों के पक्के , सतत स्वाध्याय में निरत वे सैल्फमेड थीं ..

माँ के प्रति अपनी आदरांजली अर्पित करते हुये मुझे लगता है , वे हृदयाघात से अचानक हमसे पार्थिव रूप से जरूर बिछड़ गईं हैं , पर वे उनके उसूलों से मुझे जीवन पथ पर मार्ग दिखातीं सदैव सूक्ष्म रूप में मेरे साथ हैं .

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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