हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # मारिशस से ~ संस्मरण – भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी- ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के चुनिन्दा साहित्य को हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करते रहते हैं। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं।

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है मारिशस से श्री रामदेव धुरंधर जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी”।) 

☆ दस्तावेज़ # 19 – मारिशस से ~ संस्मरण – भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी- ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆ 

संदर्भ : भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी

संगोष्ठी : 20 — 22 फरवरी 2019

स्थल : गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय, गांधी नगर

महात्मा गांधी का जन्म स्थल गुजरात था और यहीं उक्त विषय पर त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी रखा जाना इस बात का प्रमाण है कि उनके जीवन काल और उनके कार्य कलाप पर चिंतन मनन करना उनके प्रति एक समर्पित श्रद्धा का परिचायक था। निश्चित ही इस संगोष्ठी की तैयारी भव्य थी।

पटना लिटरेचर फेस्टिवल में भाग लेने के लिए मैं आमंत्रित था और मेरा सौभाग्य रहा कि गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय के प्रो. संजीव कुमार दुबे जी ने हवाई टिकट दे कर इस संगोष्ठी में भाग लेने के लिए मुझे आमंत्रित किया। उक्त विषय यदि मेरी समझ से बाहर होता तो जाने का मेरा मन न बन पाता। यह मेरी अंतरात्मा को स्वीकार न होता कि जो मेरे वश में न हो और बस उपस्थिति दर्ज करने के लिए स्वीकृति का श्रेय अर्जित कर लेता। बल्कि गांधी जी तो मेरी मातृभूमि मॉरीशस के लिए सदा सर्वदा याद रखे जाने वाले एक पूज्य महा मानव हैं।

उनके प्रति भारत अपनी व्याख्या रखता है और ऐसा भी है कि उनके सिद्धांतों को आज एक अलग ही कसौटी पर कसा जा रहा है। यह गलत है भी नहीं, क्योंकि जो प्राणी स्वयं में एक शिखर होता है उसका मूल्यांकन इसलिए किया जाता है क्योंकि एक तो उसने अपने युग में अपने कर्मों की छाप छोड़ी हो और दूसरा यह कि भविष्य के लिए उसका प्रतिदान किसी न किसी रूप में सफर जारी रख रहा हो। इस परिभाषा से भावी मूल्यांकन कभी पुराना नहीं पड़ता। बल्कि नित मूल्यांकन उस में कुछ न कुछ जोड़ता जाता है। रही मेरी बात, जैसा कि मैंने ऊपर में दर्ज किया गांधी जी मेरे ‘देश’ के लिए एक अनभूले महा मानव हैं जिनका प्रशस्ति गान ही मेरा अंतिम लक्ष्य हो सकता है। ‘देश’ कहने के साथ मैं अपने अस्तित्व में गांधी जी को विलय अनुभव करना भी अपने लिए अहम मानता हूँ। मैंने गांधी जी को अपने लेखन में उकेरा है तो इसलिए कि मॉरीशस पर उनकी प्रबल छाप है। मॉरिशस एक वीरान देश था जो भारतीय मजदूरों के हाथों की मेहनत से हरियाली के सिंगार में सजता गया है। इसी बिंदु पर गांधी के नाम को हम अपने देश में गुंफित मानते हैं क्योंकि उनके एक विशेष कथन का चमत्कार था जो मॉरिशस के लिए गुरु मंत्र बन गया था।

1901 में उनके पाँव मॉरिशस की धरती पर पड़े थे और उन्होंने भारतीयों की दुर्दिनी देखने पर कहा था शिक्षा से अपने को संबल बनाओ। एकता से अपनी शक्ति का परिचय दो और भविष्य में राजनीति बलिष्ठ होती जाए तो उस में अपनी उपस्थिति दर्ज करो। मॉरीशस के भारतीय वंशजों ने ऐसा किया और कालांतर में स्वतंत्रता का स्वर्णिम पक्ष मानो बोल कर हमारे पक्ष में अवतरित हुआ।

मैंने ‘गांधी नगर’ में यह भी कहा मेरे देश में दो सरकारें थीं। समुद्री सीमाओं पर अंग्रेज तैनात थे और खेतों में हमारे पूर्वजों का शोषण करने वाले फ्रांसीसी हुआ करते थे। दोनों से यहाँ लड़ा गया है और हम कुंदन बने अपने को फला फूला अनुभव करते हैं। यह तो मेरे अपने उद्गार हुए जो मैं कहीं भी कह लेता हूँ और लिखना पड़े तो लिख लेता हूँ।

गांधी नगर में जो संगोष्ठी आयोजित हुई थी वह वैचारिक संगोष्ठी थी। जाहिर है सब के विचार एक जैसे नहीं होते। गांधी जी के संदर्भ में यही परिलक्षित हुआ, लेकिन ऐसा कोई मातम न मचा जो रेखांकित करता कि आज के युग में गांधी जी अप्रासंगिक हो गये हों। गांधी जी की ग्राम विकास योजना, नारी चेतना, चरितोत्थान, सत्य संभाषण, आपसी प्रेम, मानवता, भविष्य के प्रति सचेतनता आदि को आज अनदेखा करने का ही परिणाम है कि विद्वेष का जलजला सब के साथ नाग की तरह लिपटा हुआ है। गांधी जी भारत की स्वतंत्रता के लिए सक्रिय होने से पहले बहुत विचार मंथन से गुजरे थे। वर्षों उन्होंने अपनी सोच का एक बिंब तराशा होगा जिस में अहिंसा का स्थान प्रमुख रहा होगा। समय की कसौटी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने घोषणा की हो ‘अहिंसा’ हमारा लक्ष्य हो जो उनके युग का एक कारगर लक्ष्य ही था। यदि वे कह देते आजादी के लिए हाथ में पत्थर उठा लो तो लोग इस के दीवाने हो जाते। लोग पत्थर से जूझते और अंग्रेज गोली चलाते। प्राण जाए जैसी उमंग से लोग आजादी के करीब पहुँच जाते। अंग्रेज यथाशीघ्र आतंकित होते और भारत छोड़ कर चले जाते। पर तब भारत को गिनना भी पड़ता अपने लोगों की कितनी लाशें बिछीं। भारत में आजादी के दिनों ऐसे मनहूस हादसे बहुत मचे, लेकिन अंग्रेजों की अपेक्षा अपनों ही के बीच अधिकाधिक। एक भाई देश की सीमा के उस पार रह गया और एक भाई इधर से जोर लगाता रहा कि अपना भाई कभी मिल तो जाए। कोई भी इतिहास मानवता के उस हनन को सही शब्दों में व्याख्या नहीं दे सकता। बस शब्दों के अंबार बिछाये जा सकते हैं और सत्य का दर्द अनकहा रह जाए।

उक्त संगोष्ठी ‘वर्धा गांधी विश्व विद्यालय’ और ‘गांधी नगर के विश्व विद्यालय’ के द्वय आपसी सहयोग से आकार में आ सका था। इसकी रूप रेखा निश्चित करने वाले संजीव कुमार दुबे जी आद्यंत इस बात के लिए तत्पर रहे कि विषय का सही प्रतिपादन हो। निस्सन्देह वातावरण जिस तरह बन गया था गांधी जी के बारे में बात करने के लिए वक्ता उमंग और उत्साह से भरे पूरे थे। ऐसी बात नहीं कि गांधी की स्थापित परिभाषा को उसी रूप में गाया गया जिस रूप में हम अब तक उस परिभाषा को जानते हों। बल्कि प्रश्न भी उठे और संवाद में भिन्नता भी आयी। गांधी की बात करें और अपेक्षा में रहें आप से भाषा और ज्ञान में जो पीछे है एक वही गांधी को ढोए और आप हों कि अपने बेटे को अमरीकी नागरिक बनाने के सपने देखा करें। दिल्ली आप से चलती हो और गांधी उन से चले जो गाँवों के वाशिंदे होते हैं। गांधी के चरखे अभियान को वे ग्रामीण लोग भारतीय आत्मा के रूप में वरण करें और आप हों कि अपने तरीके से चरखे का धंधा चला कर करोंडों के मालिक बनें। मानवी स्वभाव में यह आता है भगवान को भी अपने लाभ के लिए भुना लें, गांधी तो फिर भी मनुष्य ही थे। आज के फरेब के बीच तराशना मुश्किल ही होगा भला करने वाला कौन है और हानि का विकृत मसीहा कहाँ बैठे ताक में है कि सब लूट ले जाये और किसी के लिए धेला भी न बचे। यह तथाकथित भाषणबाजी की चकाचौंध है कि देखो बोलने में मैं कितना अव्वल हूँ और तुम बोलना न जानने से कितने पीछे छूटे हुए हो। पर हमें यह बात भूलनी न चाहिए कि अनगढ़ और अनपढ़ की भी अपनी प्रज्ञा होती है। भाषण से उनके दिमाग में टाँकना सहज होता है कि तुम मेरे भाषण के मोहताज हो, लेकिन उनकी प्रज्ञा उनसे कह रही होती है ऐसे मीठे भाषण से तुम्हारा जीवन दुरुह होने का खतरा हो तो काट निकलो ऐसे बंधन को। यह कहा न जाए तो भी कहा सा हो कर हवा में गूँजा करता है शोषित भी अपने हक की परिभाषा जानता है। तब तो उसकी आह से न खेलो। वह जागे तो प्रचंड ज्वाला निश्चित ही दहकेगी।

गांधी नगर की उस संगोष्ठी की सारी बातें वहीं पलट रही थीं गांधी जी ने मात्र देश की आजादी के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाया नहीं था। आजादी तो बाद के लिए हो पहले भारत की आत्मा से तादात्म्य तो स्थापित कर लें। गांधी जी ने गरीबों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का सपना देखा। इस के लिए उन्होंने प्रयास तो बहुत किया। उन्होंने मंदिर का द्वार सब के लिए खोलने की बात कही और इसके लिए अपना जीवन नित तपाते रहे। गांधी जी के जीवन के हर बिंदु को शब्दातीत किया गया है, लेकिन फिर भी लगता है अभी उन पर और लिखा जाना शेष है। उन्हें पढ़ने के लिए और स्कूल निर्मित हों और उन पर चिंतन मनन के गवाक्ष खुलते जाएँ।

‘गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय गांधी नगर’ में गांधी जी के तपी जीवन का यही मूल्यांकन हुआ और निष्कर्ष यह निकला कि जो सतत प्रवाहमान है उस में हम भी अपना अर्घ्य समर्पित कर लें। मैं विशेष कर प्रो. संजीव कुमार दुबे जी को इस बात के लिए साधुवाद देना अपना धर्म समझ रहा हूँ उन्होंने समय सापेक्ष एक अभियान चलाया जिस में शरीक होना मेरे लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं था। मैं पहली बार गुजरात गया। वहाँ का अक्षर धाम, सुन्दर फिसलती सी सड़कें और जन जीवन का प्रभाव मेरे मन में अक्षुण्ण बना रहेगा।

भारत से अपने आवास मॉरिशस लौटने पर

***
© श्री रामदेव धुरंधर

दिनांक 2 / 03 / 19

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४८ – “गीतों के राजकुमार मणि “मुकुल”- स्व. मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल”  ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व गीतों के राजकुमार मणि “मुकुल”– स्व.मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल”

☆ कहाँ गए वे लोग # ४८ ☆

☆ गीतों के राजकुमार मणि “मुकुल”– स्व. मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

अधर तुम्हारे  जैसे सावन,

भादों से मिलने आया हो ।

अधर तुम्हारे जैसे फागुन,

मधुवन के झोंके लाया हो ।

तथा…

कहां गईं पनघट की गालियां, कहां गए चौबारे ।

सांझ ढले जब बीत गया दिन, खोते गए किनारे ।

अमुआ की डाली के झूले, सखियों की मन बतियां –

मन के मीत तुम्हें जब देखूं, बैरन होतीं रतियाँ।।

जैसे भाव भरे गीतों के रचयिता मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल” का जन्म 1 जुलाई 1938 को करेली, जिला नरसिंहपुर, मध्यप्रदेश में हुआ । आप जुलाई 1998 में जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर से अनुविभाग अधिकारी के रूप में सेवानिवृत्त हुए । इन्होंने छात्र जीवन से ही कविताएं लिखना प्रारंभ कर दिया था । पहली कविता साप्ताहिक तेज पत्रिका दिल्ली में प्रकाशित हुई । मणि मुकुल जी कहते थे कि उनके आदर्श कवि स्व. डॉ. शिवमंगल सिंह “सुमन” एवं स्व. रामेश्वर शुक्ल “अंचल” थे । ख्यातिलब्ध कवि, साहित्यकार स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ने मुकुल जी को “गीतों की दुनिया में गीतों का गुमशुदा राजकुमार” कहा था । प्रख्यात कहानीकार प्रो. ज्ञानरंजन जी ने मणि मुकुल को “मूलतः प्रेरणा और स्वांतः सुखाय का कवि” बताया है । मणि मुकुल जी की सृजित और संपादित काव्य कृतियों में “भोर के पंछी”, “काव्य अबीर”, “सृजन शिल्पी”, “गीत हमारे अर्थ तुम्हारे”, लघु कथा संग्रह “श्रंखला” एवं “रहिमन पानी राखिए” व्यंग्य संग्रह प्रमुख हैं । उन्होंने कुछ समय त्रैमासिक पत्रिका “अनुमेहा” का संपादन भी किया । मुकुल जी इकहरे बदन के सहज – सरल हंसमुख व्यक्ति थे । कुर्ता पाजाम उनका प्रिय परिधान था ।

न्यायमूर्ति देवेंद्रपाल सिंह चौहान ने उनकी कृति भोर के पंछी पर लिखा कि – “जीवन के विविध पहलुओं को उकेरते मुकुल जी के गीत उस दर्द और टीस को उभारते हैं जो अबूझ होता है, उनका दर्शन जीवन का सार होता है।

मेरा तो इतिहास रंगा है

माटी मोल खुशी बेची है,

आंखों में जब नमी देख ली –

खुले हाथ शबनम बेची है ।

सांझ ढले पूनम बेची है…

आचार्य डॉ. हरिशंकर दुबे के अनुसार मणि मुकुल साहित्यकारों की ऐसी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे जो बाजारवाद के दौर में अस्तित्व रक्षा हेतु चिंतातुर रही ।

सावन के कजरारे बदरा, देखो कितने गहन हो गए,

केवल एक तुम्हारी खातिर, रिश्ते-नाते रहन हो गए।

  कितनी भोली उमर में झूले,

  हम तुम कच्ची डालों पर ।

  बचपन का इतिहास लिखा है –

  पनघट, झरने, तालों पर ।।

  अनबोली भाषा थी फिर भी,

  कितने अर्थ निकलते थे ।

  पलकों का झुककर रह जाना –

  उठकर कहां सम्हलते थे ।।

मणि मुकुल जी की सहज मुस्कुराहट और उनके गीत आज भी लोगों की स्मृतियों में बसे हैं ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

☆ ☆ ☆ ☆

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ – “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ – “साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

☆ ☆ ☆ ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 623 ⇒ मां की कविता ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मां की कविता।)

?अभी अभी # 623 ⇒ मां की कविता ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मां पर कविता लिखना बड़ा आसान है, मां एक बहती हुई नदी है, जिसे लोग रेवा, नर्मदा अथवा गंगा, अलकनंदा और कालिंदी के नाम से भी जानते हैं। मां का उद्गम ममता से है। बच्चों का पालन पोषण करती, उनकी प्यार की प्यास बुझाती , आंसुओं को अपने में समेटे, सागर में जा मिलती है, जिससे सागर का जल भी खारा हो जाता है। मां का त्याग और समर्पण ही सीपी में सिमटा मोती है। सरिता का जल और मां के दूध में कोई फर्क नहीं, दोनों ही सृष्टि की जीवन रेखा हैं।

मैने मां का बचपन नहीं देखा, मेरा बचपन मां के साथ जरूर गुजरा है। काश, बुढ़ापा भी मां के साथ ही कटता, लेकिन फागुन के दिन चार रे, होली खेल मना ! जितना जीवन मां की छत्र छाया में गुजरा, वह फागुन ही था, जितनी होली होनी थी हो ली। अब होने को कुछ नहीं बचा।।

मां जब फुर्सत में होती थी, हम बच्चों को नदी की एक कविता सुनाती थी, जो वह बचपन से सुनती चली आई थी। मां का सारा दर्द उस कविता में बयां हो जाता था। पूरी कविता मेरी प्यारी छोटी बहन रंजना के सौजन्य से प्राप्त हुई, जो उम्र में छोटी होते हुए भी , आज मुझे अपनी मां का अहसास दिलाती रहती है। मेरी मां एक तरफ, महिला दिवस एक तरफ।

आज बस, मां की कविता, मां स्वरूपा नदी को ही समर्पित ;

कहो कहाँ से आई हो,

गर्मी से घबराई हो,

आओ – आओ मेरे पास,

पानी पिओ बुझा ओ प्यास,

बैठो कुछ सुस्ता ओ तुम

अपना हाल सुनाओ तुम,

मुझसे सुन लो मेरा हाल,

देखो मेरी टेढ़ी चाल,

मुझे नदी सब कहते हैं,

दुःख – सुख मुझमें रहते हैं,

विन्ध्याचल में पैदा हुई,

पहले दुबली – -पतली रही,

गोद झील ने मुझको लिया,

उसने बड़ा सहारा दिया,

वहाँ बहुत दिन तक मैं रही,

बड़ी हुई तब आगे बढ़ी,

जब आयी प्यारी बरसात

कुछ मत पूछो मेरी बात,

उमड़ – घुमड़ बरसे घनघोर,

बेहद मुझमें आया जोर,

घर से निकली बाहर चली,

ऊंचे से नीचे को ढली,

धूमधाम से बहती चली,

गहरा शोर मचाती चली,

पेड़ बहुत से फूले फले,

झुक – झुक के मुझसे आ मिले,

अब मुश्किल है एक ही ओर,

पहले किया न उस पर ग़ौर,

वह भी तुम्हें सुनाती हूँ

आखिर मै पछताती हूँ,

अब समुद्र में गिरना है

नहीं वहाँ से फिरना है,

अब मिटता है मेरा नाम

अच्छा बहनों तुम्हें प्रणाम….

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ अभी अभी # 621 ⇒ कमज़ोर हिंदी और एड़ी चोटी का ज़ोर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण – “कमज़ोर हिंदी और एड़ी चोटी का ज़ोर ।)

?अभी अभी # 621 ⇒  कमज़ोर हिंदी और एड़ी चोटी का ज़ोर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे हिंदी के अध्यापक महोदय को हम सर नहीं कह सकते थे। वे एड़ी से चोटी तक उनकी मातृ भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा हिंदी में रंगे हुए थे। कक्षा में उपस्थिति यानी प्रेजेंट लेते वक्त हर विद्यार्थी को उपस्थित महोदय या उपस्थित श्रीमान बोलना पड़ता था। प्रेजेंट सर बोलने वाले का फ्यूचर खराब भी हो सकता था।

जैसी भाषा वैसा परिवेश ! वे एड़ी से चोटी तक भारतीय परिवेश में रंगे हुए थे। सफेद धोती और कुर्ता, खादी का बिना प्रेस का, नील से भरा हुआ ! फटी एड़ियों में चप्पल, सर पर चोटी और आँखों पर मोटा चश्मा ! बस यही उनका बारहमासी परिधान था।।

वे व्याकरण के शिक्षक थे। आप चाहें तो उन्हें प्रशिक्षक भी कह सकते हैं। स्वर और व्यंजन की व्याख्या इतनी लंबी हो जाती थी कि पिछली पंक्ति के छात्रों का सूर्य और चंद्र स्वर चलने लगता था, अर्थात वे खर्राटे लेने लगते थे। व्यंजन अतिक्रमण कर सराफे की रबड़ी-जलेबी में प्रवेश कर जाता था।

एड़ी से चोटी तक अगर नापें तो गुरुजी का कद मुकरी से एक दो इंच अधिक ही होगा। ब्लैकबोर्ड अर्थात श्यामपट जहाँ से शुरू होता था, वहाँ उनकी ऊँचाई खत्म होती नज़र आती थी, फिर भी एड़ी चोटी का जोर लगाकर वे श्यामपट का भरपूर उपयोग कर ही लिया करते थे। मुहावरों में काला अक्षर भैंस बराबर उन्हें बहुत प्रिय था। जो भी उनके प्रश्न का जवाब नहीं दे पाता, उसे इस विशेषण से सम्मानित किया जाता था।।

हम विद्यार्थी कितना भी एड़ी चोटी का जोर लगा लें, हमारी पुस्तिकाओं अर्थात कॉपियों में कभी किसी को ठीक, उत्तम अथवा सर्वोत्तम नहीं मिला। कहीं मात्राओं की ग़लती, तो कहीं लिखावट कमज़ोर। बाकी विषय यहाँ तक कि विज्ञान और अंग्रेज़ी भी हिंदी की तुलना में आसान नज़र आता था।

परीक्षा में कितना भी एड़ी चोटी का जोर लगाओ, सब से कम नंबर हिंदी में ही आते थे। छः माही परीक्षा की उत्तर-पुस्तिका कक्षा में लाई जाती थी और हर विधार्थी की अर्थी निकाली जाती थी। उनकी छोटी-छोटी गलतियों को सार्वजनिक किया जाता था। जिसकी उत्तर-पुस्तिका का टर्न आता था, उसे कक्षा में सबसे आगे की बेंच पर बिठाया जाता था।।

मैं क्लास का सबसे कमज़ोर विद्यार्थी था, सेहत में भी और व्याकरण में भी। और न जाने क्यों अध्यापक महोदय का मुझ पर ही अधिक जोर रहता था।

‌वे अकारण ही मेरा व्याकरण मज़बूत करने में रुचि लेने लग गए थे, जब कि कक्षा में कई बुद्धिमान छात्र मौजूद थे। लेकिन उनका सिद्धान्त था कि वे कमज़ोर बच्चों पर एड़ी चोटी का जोर लगा उनका व्याकरण मज़बूत करना चाहते हैं।

कोई लाख करे चतुराई, करम का लेख मिटे ना रे भाई ! अध्यापक महोदय ने एड़ी चोटी का जोर लगा लिया, न तो हम सुधरे, न ही

हमारा व्याकरण। आज छोटी छोटी मात्राओं की ग़लती पर उनका स्मरण हो आता है। किसी को याद करने में हमारा क्या जाता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ – “साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ ☆

☆ साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी जबलपुर में एक समय ऐसा था जब दो संस्थाएं अपने उत्कर्ष पर थीं। जिसमें एक ओर जहाँ विशुद्ध साहित्यिक संस्था मित्र संघ तो दूसरी और सांस्कृतिक एवं संगीत  की अलख जागने के लिए मिलन अपने चरम सीमा पर थी। सदा अपने कार्यक्रमों के माध्यम से नए-नए आयाम देने के लिए कटिबद्ध रहती थीं। दोनों के संयोजक पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े हुए थे। एक ओर आदरणीय राजकुमार सुमित्र नवीनदुनिया से तो दूसरी ओर आदरणीय मोहन शशि नवभारत से जुड़े थे। दोनों की प्रतिस्पर्धा से संस्कारधानी जबलपुर को बड़ा लाभ मिला। मंच पर कवि, साहित्यकार एवं कलाकार ही नहीं वरन् आर्केस्टा गली चौराहों में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अनेक शब्द शिल्पी,कलाकार जो बाद में राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गये। यहाँ तक कि बाद में पाथेय प्रकाशन ने अनेक रचनाकारों को नयी ऊँचाईयाँ प्रदान कीं। साहित्य जगत में अनेक पुस्तकों का सृजन किया।

मैंने सदा आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी को एक कवि की वेशभूषा में ही देखा, गौरवर्ण, गंभीर चेहरे में थिरकती मुस्कान, मुख में पान की गिलोरी, आकर्षक दमकती आभा, कुर्ता पायजामा के साथ ही लम्बे केश। तमरहाई स्कूल के सम्माननीय शिक्षाविद, या सड़क पर आते-जाते या फिर नवीनदुनिया के साहित्य सम्पादक के रूप में हो। जब भी उनसे सामना होता तो उनकी स्नेहिलता का आशीर्वाद मुझे मिलता ही रहा है।

उस समय मुझे भी लिखने और छपवाने का भूत सवार था। अक्सर मुझे प्रेसों में आदरणीय भगवतीधर बाजपेयी, आदरणीय कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर, आदरणीय मायाराम सुरजन, श्री हीरालाल गुप्ता, श्री अनंतराम दुबे, श्री ललित सुरजन जैसे स्वनामधन्य पत्रकारों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है। उस समय में अपने पिता श्री रामनाथ शुक्ल “श्रीनाथ” के पद चिन्हों पर चल रहा था। अर्थात कहानियाँ लेख गद्य विधा में लिख रहा था।

कोतवाली स्थित चुन्नीलाल जी का बाड़ा प्रसिद्ध था जहाँ श्री भवानी शंकर जैसे वरिष्ठ साहित्यकार निवास करते थे। वहीं सुमित्र जी का निवास था। उनके घर पर कवियों का जमावड़ा लगा रहता था। उनके सभा कक्ष में जमीन पर पैरा की बिछाई पर पड़ी सफेद चादर टिकने के लिए गाव-तकिए पर टिककर बैठना और सुनना अपने आप में अहोभाग्य होता था। मैं भी मुक्त छंद काव्य विधा की ओर बढ़ रहा था और जा पहुँचा उस महफिल में। सुमित्र जी की प्रशंसा पाकर मैं धन्य हो उठा। मेरे बड़े चाचा श्री दीनानाथ शुक्ल महोबावारे, श्री कामतासागर जी का भी आना-जाना होता था। बैंक की नौकरी लगने के बाद कुछ वर्षों के लिए ब्रेक लग गया। पर मेरा लिखना निरंतर चलता रहा।

साहित्यिक कार्यक्रमों में उनको सुनना, मन को आह्लादित करता था। एक कुशल वक्ता के रूप प्रतिष्ठित थे। विषय वस्तु को बड़े ही खूबसूरती और सुंदरता से उठाना और विश्व के उत्कृष्ट रचनाकारों की टिप्पणी सहित प्रस्तुत करना उनके अध्ययन की ओर इंगित करता था । उनके मुख्य आतिथ्य में कार्यक्रम की शोभा अपने आप बढ़ जाती थी। उनका असमय यूँ जाना हमारे संस्कार धानी के साहित्य जगत की अपूर्णीय क्षति है।

©  श्री मनोजकुमार शुक्ल मनोज

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

संकलन –  श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

☆ ☆ ☆ ☆

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ – “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ ☆ ☆ ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ – “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’

☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ ☆

☆ “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

वर्षों पहले कवि सम्मेलनों, गोष्ठियों और आकाशवाणी के कार्यक्रमों में कृष्णकुमार श्रीवास्तव “श्याम” के गीतों की धूम मची थी । सहज – सरल हिन्दी में रचित, भावना की आंच में पके – पगे उनके गीत सीधे लोगों के ह्रदय में उतरते थे।

    रोटी हूं

    मैं हूं रोटी

    मैं मजदूर की रोटी ।

    गुंथी हुई पसीने से मजदूर की

    रोटी ।

और प्रिय के प्रति –

     आनंद अनंत हो गया ।

     तुम मेरे वसन्त हो गये

     मैं तेरा वसन्त हो गया ।

 

    मेरा प्यार और रूप तुम्हारा

    माहिर हैं दोनों प्रतिद्वंदी

   आओ करें जुगलबंदी । आओ..

अपने असरदार गीतों और मधुर आवाज के कारण श्याम महफिलों की जान बन जाते थे –

   मैं कहीं भी चला जाऊं,

   कहीं से चला आऊं,

   तेरे ही पास आता हूं,

   तुझी में खो जाता हूं ।

   मीरा को गाऊं या मीर को,

   तुलसी या कबीर को

   किसी को गुनगुनाऊं,

   किसी के गीत गाऊं,

   तुझे ही मैं गाता हूं,

   तुझी में खो जाता हूं ।

18 अप्रैल 1941 में जबलपुर में जन्में कृष्णकुमार श्रीवास्तव “श्याम” ने हिंदी साहित्य में एम. ए. किया । कल्याण (मुम्बई), कटनी तथा प्रतिनियुक्ति पर ईराक में रेलवे स्टेशन मास्टर तथा जबलपुर में रेलवे स्टेशन अधीक्षक के पद पर रहे । श्याम भाई ने अपने विद्यार्थी जीवन से ही काव्य लेखन प्रारंभ कर दिया था और अपने समय के चर्चित साहित्यकारों से प्रशंसित होने लगे थे ।

     तुम सितार, अंगुलियाँ मैं हूं

     खुशबू तुम, पंखुरियां मैं हूं

     तुम में मुझमें क्या स्पर्धा

     तुम लय-स्वर, बांसुरिया मैं हूं।

     रूप है राधा कृष्ण भावना

     प्यार भक्ति की चरम बुलंदी ।

1974 में उनकी प्रथम कृति “श्याम के गीत” प्रकाशित हुई । इस कृति ने और देश के विभिन्न क्षेत्रों में आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों व काव्य गोष्ठियों में उनके भाव भरे गीतों ने उनकी यश – कीर्ति में वृद्धि की  और वे अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए । विविध पत्र – पत्रिकाओं में उनके हिन्दी और बुंदेली गीत, ग़ज़ल, नज़्म, भजन निरंतर प्रकाशित हो रहे थे । वे आकाशवाणी के द्वारा गायन – प्रसारण के लिए अधिकृत कवि थे । मर्मस्पर्शी कंठ से आकाशवाणी तथा विविध मंचों पर उनके स्वरचित हिंदी एवं बुंदेली गीतों ने उन्हें प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया था ।

अपने समय के सुप्रसिद्ध कवि डॉ. रामेश्वर शुक्ल “अंचल” ने लिखा था कि “श्याम का निश्छल, सहज-प्रसन्न मन अपने कथ्य के प्रति आश्वस्त और निष्ठा पर अडिग रहता है ।” डॉ. शिवमंगल सिंह “सुमन” ने लिखा था – “श्याम के गीत बड़े विदग्ध और विलोलित हैं । कवि की पीड़ा विभिन्न आयामों से गुजरती हुई अनुभूति के विरल क्षणों को समेटने में समर्थ हुई है।सुप्रसिद्ध कहानीकार ज्ञानरंजन का कथन है – “खास बात कवि “श्याम” के गीतों की मुझे यह लगती है कि उन्होंने जड़ और पारंपरिक ढांचे को तोड़ा है तथा लोकजीवन के ताजे छंद उद्वेगों से उन्हें जोड़ा है। ” डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” के अनुसार – “मेरा मत है कि “श्याम” के गीत प्रेम, पीड़ा और सौंदर्य का त्रिवेणी – संगम है।”

   “तुम थे तो छोटे थे,

   तुम बिन बड़े हो गए दिन”

28 नवंबर 2008 को मधुर गीतकार कृष्णकुमार श्रीवास्तव “श्याम” का देहावसान हो गया किंतु वे अपनी कृतियों “श्याम के गीत” और “यादों की नागफनी” तथा अपने सरस गीतों के लिए सदा याद किए जाएंगे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

☆ ☆ ☆ ☆

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ आईएएस हो तो ऐसी संवेदनशील : दीप्ति उमाशंकर… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – आईएएस हो तो ऐसी संवेदनशील : दीप्ति उमाशंकर ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

हिसार में मैं सन् 1997 में आया था , पहली जुलाई से ! तब नहीं जानता था कि इस हिसार में कैसे पत्रकारिता  में पांव जमा पाऊंगा ! रोशन लाल सैनी उपायुक्त थे और दीप्ति उमाशंकर अतिरिक्त उपायुक्त ! मुझे चंडीगढ़ मुख्य कार्यालय से चलने से पहले बहुत ही सुंदर विजाटिंग कार्ड बनवा कर दिये गये थे ताकि सभी अधिकारियों को जब मिलने जाऊं तब यह कार्ड मेरा ही नहीं, हमारे संस्थान का भी परिचय दे ! इस तरह मैं उपायुक्त रोशन लाल सैनी से मिला और उन्होंने बहुत ही गर्मजोशी से स्वागत् किया और विश्वास दिलाया कि वे मुझे खबर से बेखबर नहीं रहने देंगे ओर उन्होंने वादा निभाया भी । वे खुद लैंडलाइन पर फोन करते और खबर बताने के बाद कहते कि ये रहीं खबरें आज तक ! इंतज़ार कीजिये कल तक ! वाह! इतने ज़िंदादिल ! इतने खुशमिजाज ! उनकों एक शेर बहुत पस़ंद था :

माना कि इस गुलशन को गुलज़ार न कर सके

 कुछ खार तो कम कर गये, निकले जिधर से हम!

इनके साथ ही दीप्ति उमाशंकर अतिरिक्त उपायुक्त थीं जबकि इनके पति वी उमाशंकर तब हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलसचिव ! इनसे मेरी अच्छी निभने लगी! हुआ यह कि एक दिन मैं इसी विश्वास में उपायुक्त दीप्ति उमाशंकर को भी अपना विजिटिंग कार्ड भेजकर मिलने चला गया । उन्होंने बहुत आदर से बुलाया, चाय मंगवाई और चाय पीते पीते मन में आया कि इनकी इंटरव्यू करूं ! जैसे ही मैंने यह बात उन्हें कही, वे एकदम असहज सी हो गयीं क्योंकि वे मीडिया से दूरी बना कर रखती थीं । उन्होंने कहा कि आप चाय लीजिए लेकिन इंटरव्यू नहीं ! इस तरह मैं चाय खत्म कर सीधे वी उमाशंकर के पास चला ! उन्हें सारी बात बताई ! उन्होंने कहा कि अच्छा ऐसे किया ! चलो, अब मैं मिलवाता हूँ उनसे और उन्होंने गाड़ी में बिठाया और फिर पहुंचे श्रीमती दीप्ति के पास ! श्री उमाशंकर ने कहा कि ये बहुत विश्वास के काबिल पत्रकार हैं, आप इनसे खबरें शेयर कर सकती हैं और फिर यह विश्वास आज तक बना हुआ है! वे कहती थीं कि यू आर वन ऑफ द बेस्ट जर्नलिस्ट इन हरियाणा!

जब स्वयं दीप्ति उमाशंकर उपायुक्त बनीं तब सुबह सवेरे मैं इनसे बात कर लेता ! एक सुबह बातों बातों में बताया कि बालसमंद गांव से एक छोटे से बच्चे को लाकर अस्पताल में भर्ती करवाया है क्योंकि उसकी मां ने दूसरी शादी कर ली और बाप बच्चे की तरफ से लापरवाह था, परिवार ने बच्चे को तबेले में रख छोड़ा था, जो बेचारा मिट्टी और गोबर खाकर जी रहा था, यह बात एक समाजसेविका सोमवती ध्यान में लाई और मैंने तुरंत बच्चे को सिविल अस्पताल पहुंचाया क्योंकि वह बहुत कमज़ोर हो चुका था !

अरे ! इतनी बड़ी बात और आप इतने सहज ढंग से बता रही हैं, आपने एक बच्चे को नवजीवन दिया है, आप आज सिविल अस्पताल में बच्चे का हाल चाल जानने पहुंचिए और मैं भी आऊंगा। मैं अपने कुछ साथी पत्रकारों के साथ पहुंच गया ! हिसार सिटी और हिसार दूरदर्शन पर उनका समाचार वायरल होने लगा और वे अपने स्वभावानुसार बहुत संकोच महसूस कर रही थीं ! फिर वह बच्चा स्वस्थ होने पर कैमरी रोड पर बने बालाश्रम को सौंप दिया गया ! वे वहाँ भी कुछ दिनों बाद उस बच्चे का हालचाल जानने गयीं, जिसका नाम लड्डू गोपाल रख दिया गया था ! जैसे ही लड्डू गोपाल को दीप्ति उमाशंकर के सामने लाया गया, वह बच्चा दौड़कर आया और उनकी टांगों से ऐसे लिपट गया जैसे उसे मां मिल गयी हो ! यह ममतामयी दीप्ति एक ऐसी ही आईएएस थीं ! बहुत संवेदनशील, बहुत भावुक ! यह दृश्य कभी नहीं भूल पाया ! उन्होंने एक कदम भी पीछे नहीं हटाया था कि मेरी साड़ी न खराब हो जाये बल्कि लड्डू गोपाल को प्यार से गोदी में उठा कर खूब लाड किया ! आज वह लड्डू गोपाल खूब बड़ा हो चुका होगा!

दूसरा ऐसा ही दृश्य याद है, जब वे हररोज़ लगभग ग्यारह बजे अपने कार्यालय से सटे छोटे से मीटिंग हाल में बैठकर सचिवालय आये लोगों की समस्यायें सुनतीं और तत्काल संबंधित अधिकारी को बुलातीं और वहीं समाधान करवा देतीं ! एक दिन हांसी के निकटवर्ती गा़व से एक युवा महिला आई अपनी समस्या लेकर और दीप्ति ने उस अधिकारी को फोन लगाया तो पता चला कि वह अधिकारी छुट्टी पर है ! इस पर उन्होंने महिला से कहा, कि कल आ जाना ! वह तो फूट फूट कर रोने लगी और बोली मैं तो आज भी किसी से पैसे उधार मांग कर आई हूँ । किराया लगाने के लिए मेरे पास कल  पैसे कहां से आयेंगे !

इस पर दीप्ति ने अपना पर्स खोला और सौ रुपये का नोट थमाते कहा कि अब तो कल आ सकती हो न !

जब वह चली गयी तब मैंंने कहा कि अब तो आपके खुले दरबार में भीड़ और भी ज्यादा होती जायेगी !

– वह कैसे और क्यों?

– अब तो आप आने जाने का टी ए, डी ए भी तो देने लगीं !

वे बोलीं कि भाई! देखे नहीं गये उसके आंसू! इतनी संवेदनशील, सहृदय! दोनों पति पत्नी हिसार में अलग अलग पदों पर लगभग बारह साल रहे और सन् 2003 को जब मुझे कथा संग्रह ‘ एक संवाददाता की डायरी’ पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों पचास हज़ार रुपये का सम्मान मिला, तब वे बहुत खुश हुईं और यह सम्मान अप्रैल माह में मिला था ! जब पंद्रह अगस्त आने वाला था तब ठीक एक दिन पहले दीप्ति उमाशंकर का फोन आया कि अभी आपको लोक सम्पर्क अधिकारी का फोन आयेगा, आप अपना बायोडेटा लिखवा देना!

– वह किसलिए?

– मेरे भाई जिसे देश का प्रधानमंत्री सम्मानित करे, उसे जिला प्रशासन को भी सम्मानित करना चाहिए कि नहीं ! कुछ हमारा भी फर्ज़ बनता है कि नहीं?

स्वतंत्रता दिवस के आसपास ही राखी भी आती है तो मैंने कहा कि बहन को राखी के दिन कुछ देते हैं, लेते नहीं ।

इस पर दीप्ति ने हंसकर जवाब दिया कि भाई अब घोर कलयुग आ गया है, भाई कुछ नही देते, बहनें ही भाइयों का ख्याल रखती हैं, बस, आप ऐसे ही अच्छा लिखते रहना!

कितने प्रसंग हैं! वे यहाँ से मुख्यमंत्री प्रकोष्ठ में भी रहीं और फिर अम्बाला की कमिश्नर भी! तब बेटी की शादी में आने का न्यौता एक माह पहले ही दिया वाट्सएप पर ! मैंने कहा, इतने समय तक तो भूल ही जायेगा ! उन्होंने जवाब दिया कि भूलने कैसे दूंगी ? याद दिलाती रहूंगी और आप, क्या यह न्यौता भूल जाओगे !

चलते चलते बताता चलूँ कि वे पंजाब के पटियाला से हैं और जब समय मिलता और नेता या समाजसेवी न रहते तब वे कहतीं कि अब तो प़जाबी बोल ले भाई !

बहुत बहुत सह्रदय आईएएस दम्पति उमाशंकर को आज यादों में फिर याद किया ! आजकल वी उमाशंकर मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव हैंं जबकि दीप्ति दिल्ली में डेपुटेशन पर ! वह पारिवारिक रिश्ता आज भी कायम है ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 20 -दो देश – दो परिवार, एक संस्कृति एवं एक ही तीज त्यौहार ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी का एक शोधपरक दस्तावेज़ दो देश – दो परिवार, एक संस्कृति एवं एक ही तीज त्यौहार।) 

☆  दस्तावेज़ # 20 – दो देश – दो परिवार, एक संस्कृति एवं एक ही तीज त्यौहार ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

तोर धानवा मोर धानवा एक में मिलाओ रे

मॉरीशस में गंगा तालाब पूज्य गंगा मां सी गयीं

भारतीय विवाह संस्कार में वर और बधु दो पक्ष होतें है l शादी के एक रस्म में जब पहली बार दोनो पक्ष यानि दो परिवार मिलते हैं तो भारतीय अन्न (धान) एवं शुभ प्रतीक (हल्दी) को दोनों पक्ष अपने-अपने घर से गमछे में बाँध कर लातें है l फिर शुरू होती है एक रस्म l जिसे हम हल्दी -धान बांटना कहते हैं l

शादी कराने वाले पुरोहित दोनों पक्ष द्वारा लाये हुए हल्दी और धान को पहले एक में मिलाते हैं और फिर आधा-आधा बाँट कर दोनों पक्ष को वापस दे देते हैं l

भारतीय संस्कृति में इस वैवाहिक विधि का क्या अर्थ क्या है, इस विषय पर हम चर्चा करते हैं l

इस वैवाहिक विधि के भाव को कुछ इस प्रकार समझें कि क्या चाह करके भी इन दोनों परिवार के लोग आपस में इस प्रकार मिल चुके हल्दी और धान में से अपने अपने हिस्से हल्दी और धान का बंटवारा अलग-अलग कर सकतें है?

जी बिल्कुल नहीं कर सकते है l

कहने का अर्थ यह है कि अब जब दो परिवार आपस में मिल गए lयह रिश्ता जन्म-जन्मांतर का हो गया l इन्हें अब अलग किया जाना मुश्किल ही नही असंभव है l

आज इस बात की चर्चा मैं मॉरीशस के साहित्यकार रामदेव जी से कर रहा था l इस बात की चर्चा मैंने क्यों किया इसको समझते हैं –

धुरंधर जी ने शिवरात्रि पर्व की बात की और पूछा कि आपके यहां शिवरात्रि कब है तो मैंने कहा कि मेरे यहां शिवरात्रि 26 फरवरी को है तो उन्होंने कहा कि मेरे यहां भी शिवरात्रि 26 फरवरी को है और मैं देख रहा हूं कि काफी युवा काँवर लेकर के गंगा तालाब की तरफ आगे बढ़ रहे हैं l यह गंगा तालाब जाएंगे और वहां से जल लेंगे और उस जल को शंकर जी के शिवलिंग पर चढ़ाएंगे l

गंगा तालाब क्या है ??

रामदेव धुरंधर कहते हैं – गंगा तालाब को शुरू में परी तालाब के नाम से जाना जाता था l भारतीय लोग उसे परी तालाब ही बोलते थे l मैंने अपने कई साहित्यिक ग्रंथों में उसे परी तालाब कहा है l कालांतर में भारतीय लोगों ने भारत से गंगाजल लाकर एक बड़े धार्मिक विधि विधान से परी तालाब के पानी में मिलाया और उसे उसका नामकरण कर दिया गया गंगा तालाब l

1- गंगा संगम तट प्रयागराज, उप्र (भारत)

2- गंगा तालाब (मारिशस)

चित्र साभार : गूगल

यानी परी तालाब के जल में गंगाजल मिल गया और दोनों एक दूसरे में इस तरह से घुल मिल गए कि मानो दोनों एक हो गए l

अब इन दोनों जल को पृथक कभी नहीं किया जा सकता और इसकी मान्यता एक धार्मिक सरोवर जैसी हो गई, मॉरीशस में गंगा तालाब पूज्य गंगा मां सी गईl

इसका तात्पर्य हुआ कि भारत और मॉरीशस की संस्कृतियों आपस में इस कदर मिल गई हैं कि वे युग युगांतर तक पृथक हो ही नहीं सकती l

रामदेव धुरंधर जी कहते थे कि हम युवा अवस्था में पैदल तो नहीं जाते थे लेकिन साइकिल से हम लोग थे 100 से कुछ काम किलोमीटर मेरे घर से वह जगह होगी वह हम कई लोग कई किलोमीटर की यात्रा कर पहुंचते थे l वहां से हम लोग वापस घर नहीं लौटते थे बल्कि वहां से कुछ दूर आगे एक जगह है त्रयोलेट l

इसके आसपास ही हिंदी के बड़े साहित्यकार अभिमन्यु अनत जी का घर भी है l त्रयोलेट में एक शिव मंदिर है जिसे महेश्वर नाथ जी का मंदिर कहते हैं l हम गंगा तालाब से जल भरकर उस शिव लिंग पर चढ़या करते थे l

(श्री रामदेव धुरंधर जी के फेसबुक पटल में एक पिन किया गया पोस्ट है l जिसमे एक फोटोग्राफ गंगा तालाब का है l इस फोटोग्राफ में माताजी यानी धुरंधर जी की पत्नी का भी चित्र है l यह चित्र गंगा तालाब के पास का ही लिया हुआ है l रामदेव धुरंधर जी इस चित्र से बहुत ही स्नेह करते हैं और इसके ही बहाने वे अपनी धर्मपत्नी स्व.देवरानी जी को याद करते हैं )

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 18 – विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक – संपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट☆

☆  दस्तावेज़ # 18 – विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांकसंपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक।) 

☆ विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांकसंपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट ☆

विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक

वर्ष 3, अंक 2-3, अप्रैल-सितंबर 1998

संपादक: अरविंद विद्रोही

अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट

प्रकाशक: दुर्गा प्रकाशन, जमशेदपुर

संपर्क: ई डब्लू एस 13/8, छोटा गोबिंदपुर,

जमशेदपुर – 831015

“शब्द कभी होता था ब्रह्म, आज माया है

अभिधा या लक्षणा नहीं, उसमें व्यंग्य ही समाया है।”

 – बालस्वरूप राही

‘विदूषक‘ पत्रिका के समकालीन व्यंग्य विशेषांक का अतिथि संपादन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। संवेदना की दशा तलाशती, हास्य-व्यंग्य की यह त्रैमासिक पत्रिका जमशेदपुर से प्रकाशित होती थी। इसके संपादक, अरविंद विद्रोही, जिन्होंने मुझे यह दायित्व सौंपा, का आभार मैं आजीवन मानूंगा। उनके जैसा जीवट वाला व्यक्ति मैंने नहीं देखा।

यह बात वर्ष 1998 की है। तब हास्य-व्यंग्य पत्रिकाओं में, मुंबई से ‘रंग’, जयपुर से ‘नई गुदगुदी’ और हिसार से ‘व्यंग्य विविधा’ प्रकाशित हो रही थीं। अधिकतर व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएं व्यंग्य रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित कर रही थीं। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी व्यंग्यकारों के लिए अपने द्वार खोल दिए थे। कुछ वर्ष पूर्व, अंबिकापुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘साम्य’ ने परसाई पर, और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘कथ्यरूप’ ने व्यंग्य पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किए थे।

हिंदी गद्य में हास्य-व्यंग्य लेखन की शुरुआत भारतेंदु हरीशचंद्र के काल में हुई। तब प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त ने हास्य-व्यंग्य लिखा। ‘अंधेर नगरी’ और ‘शिवशंभू के चिट्ठे’ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लिखे गए साहसी व्यंग्य के नमूने हैं। उसके बाद जगन्नाथ चतुर्वेदी, अन्नपूर्णानंद, विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, राधाकृष्ण, गुलाबराय, जी पी श्रीवास्तव, श्रीनारायण चतुर्वेदी और विधान बनारसी ने हास्य-व्यंग्य लिखा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल और रवींद्रनाथ त्यागी ने इसे ठोस आधार प्रदान कर प्रतिष्ठित किया। के पी सक्सेना, केशवचंद्र वर्मा, बरसाने लाल चतुर्वेदी, मुद्राराक्षस, मनोहरश्याम जोशी, लतीफ घोंघी, शंकर पुणतांबेकर, कुंदन सिंह परिहार, नरेंद्र कोहली, प्रदीप पंत, सुदर्शन मजीठिया, कृष्ण चराटे, सूर्यबाला, हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, सुरेश कांत और ज्ञान चतुर्वेदी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

उस समय सक्रिय, ज़्यादा से ज़्यादा व्यंग्यकारों को ‘विदूषक’ के समकालीन व्यंग्य विशेषांक में स्थान मिले, यह मेरा विनम्र प्रयास था। बहुत उमंग और उत्साह से मिशन की शुरुआत की। लेकिन यह क्या? पहले चार मूल्यवान विकेट बिना कोई रन बनाए ही चले गए। उनसे प्राप्त पत्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं जिन्हें पढ़कर अतिथि संपादक के प्रति आपके मन में करुणा अवश्य जागेगी:

(एक)

लखनऊ, 6/3/98

प्रिय बिष्ट जी,

आपका पत्र मिला। मैं काफी अरसे से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। पत्र-पत्रिकाओं में मेरी अनुपस्थिति आपने खुद लक्षित की होगी। अतः चाहकर भी विदूषक के लिए कुछ भेज नहीं पा रहा हूं। क्षमा करेंगे।

समकालीन व्यंग्य विशेषांक के लिए शुभकामनाएं,

आपका

श्रीलाल शुक्ल

(दो)

देहरादून, 7/2/98

प्रिय भाई,

आपका 30/1 का पत्र मिला। (आपके आग्रह के अनुसार) मैं नए व्यंग्यकारों पर कुछ नहीं लिख सकता। सबका पूरा कृतित्व मैंने नहीं पढ़ा है। ज्ञान चतुर्वेदी शायद सर्वश्रेष्ठ है। मैं गृहयुद्ध में नहीं पढ़ना चाहता। इधर तीन उपन्यास पढ़े जो अच्छे लगे।

सदा आपका

रवीन्द्रनाथ त्यागी

(तीन)

जलगांव, 6/3/98

प्रिय भाई साहब,

सस्नेह अभिवादन। आपका पत्र मिला। मैं ‘विदूषक’ के लिए नहीं लिख सकता। मैने पत्रिका के आरंभ होने के पूर्व ही लिखा था कि नाम ‘विदूषक’ ही रखना चाहें तो मेरा नाम सलाहकारों में न जाए। मैंने तीन बढ़िया नाम भी सुझाए थे लेकिन मसखरा नाम ही उन्होंने कायम रखा।

स्वस्थ-सानंद होंगे।

आपका सस्नेह

शंकर पुणतांबेकर

(चार)

मथुरा, 24/3/98

प्रिय बिष्ट जी,

नमस्कार। मैं मथुरा आ गया हूं इसलिए आपका (दिल्ली के पते पर भेजा गया) पत्र समय पर नहीं मिला। विदूषक का समकालीन व्यंग्य विशेषांक अवश्य भेजने की कृपा करें। अब तो वो निकल भी गया होगा।

आशा है, सपरिवार प्रसन्नचित होंगे।

आपका

बरसाने लाल चतुर्वेदी

ये पत्र तो फटाफट आ गए लेकिन काफी समय बीत जाने पर भी कोई रचना नहीं आई। चिंता का विषय था। फिर लगा कि शायद व्यंग्यकार अपनी श्रेष्ठतम रचना के सृजन में डूबे हुए हैं। वो भी अंततः आने लगीं। सबसे पहले जो तीन रचनाएं प्राप्त हुईं, वो थीं:

प्रदीप पंत की ‘भैयाजी का दहेज’, कुंदन सिंह परिहार की ‘प्रोफेसर वृहस्पति और एक अदना क्लर्क’, और सुरेश कांत की ‘वोट कैचर’

मैं तब अमलाई (शहडोल) में पोस्टेड था। तुरंत उन्हें देखकर, जमशेदपुर रवाना किया। तब सॉफ्ट कॉपी का ज़माना नहीं था, लेखक रचना की टंकित या हस्तलिखित प्रति भेजता था। अलबत्ता, डेस्कटॉप कंपोजिंग और पब्लिशिंग का आरंभ हो चुका था।

यहां से सिलसिला शुरू हो गया। रचनाओं का प्रवाह धीमे-धीमे बढ़ने लगा। अगले क्रम में प्राप्त रचनाओं के शीर्षक और व्यंग्यकारों के नाम इस प्रकार हैं:

गिरिराज शरण अग्रवाल: अर्थों का दिवंगत होना

सुबोध कुमार श्रीवास्तव: ताबीज में लटका अंगूठी में जड़ा भविष्य

लतीफ घोंघी: दुखी मत होना चुनाव होते रहेंगे

सुदर्शन मजीठिया: डॉक्टर लंबाशंकर

हरीश नवल: किस्सा-ए-डूपलैस

कृष्ण चराटे: अरे क्या यार पापा

मोहनजी श्रीवास्तव: राष्ट्रकवि के अभाव में

मोहनजी श्रीवास्तव बहुत कम लोगों से मिलते थे। गुमनाम-सा जीवन जी रहे थे। एक रविवार हम अमलाई से तीस किलोमीटर दूर, शहडोल में उनके आवास पर गए और उनसे पूरी विनम्रता और दृढ़ता से आग्रह किया कि वे इस अंक के लिए अपना योगदान अवश्य दें। उन्होंने समय मांगा और वादा किया कि दस दिन के अंदर रचना आप तक पहुंच जाएगी। आज उनकी यह रचना हमारे लिए धरोहर है।

इसके बाद, एक-एक कर बहुमूल्य रचनाएँ हमें मिलती गईं। ज्ञान चतुर्वेदी ने राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य उनके उपन्यास  ‘बारामासी’ का एक अंश भेजा। फिर दो प्रिय मित्रों की रचनाएं आईं, जवाहर चौधरी की ‘ओहदेदार कला मर्मज्ञ उर्फ़ राजा को जुकाम’ और पूरन सरमा की ‘पत्रकारिता में मेरा योगदान’ डॉ सरोजिनी प्रीतम ने भेजी अपनी रचना ‘भार का बोझ’। हम कृतज्ञ हुए और कृतज्ञता के वजन तले दब गए।

तत्पश्चात् प्राप्त हुई कुछ वरिष्ठ व्यंग्यकारों से रचनाएं जिनका हमने आदरपूर्वक स्वागत किया:

विनोद कुमार शुक्ल: व्यंग्यकार दल का चुनाव घोषणा पत्र

गौरी शंकर दुबे: पर्यावरण सप्ताह

डॉ सी भास्कर राव: अंगों में अंगूठा

हरि जोशी: चुनाव और कर्मचारी का हावभाव

ईश्वर शर्मा: जनरल प्रमोशन

दामोदर दत्त दीक्षित: फार्मूला मेम साहब

अश्विनी कुमार दुबे: भैयाजी की डायरी के चार पृष्ठ

जब्बार ढांकवाला: अफसरियत का अकाल

डॉ गंगाप्रसाद बरसैंया: मोदिनी मर्दिनी मदिरे

गिरीश पंकज: यह देश है वीर जवानों का

रामावतार सिंह सिसौदिया: नीचता – नए सुपर पैक में

डॉ भगीरथ बडोले: महात्मा की आत्मा

अब रचनाओं की आवक गति पकड़ती जा रही थी। मैं भी उसी तत्परता से उन्हें देखकर जमशेदपुर रवाना करता जा रहा था। डॉ स्नेहलता पाठक ने अपनी रचना भेजी जिसका शीर्षक था ‘जनता के नाम मंत्रीजी का बधाई पत्र’, डॉ श्रीराम ठाकुर दादा की रचना मिली ‘शादी कल की और आज की’, और सूर्यकांत नगर की रचना ‘जिसके हाथ लोई, उसके सब कोई’। इनके थोड़ा आगे-पीछे पहुंचे ये लिफाफे:

प्रभाशंकर उपाध्याय: अब प्रवचन परोस प्यारे

कस्तूरी दिनेश: लाश के आसपास रोदन कला

फारूक आफरीदी: ठेके पर चाहिए समीक्षक

बृजेश कानूनगो: कष्ट निवारण पथ

यशवंत कोठारी: समाचारों में आदमी की तलाश

सत्यपाल सिंह सुष्म: जब मैं मर जाऊंगा

सुष्म बहुत ही अच्छे इंसान थे। वे हमारे पारिवारिक मित्र बन गए थे। इस व्यंग्य में, उन्होंने कल्पना की है कि उनके मरने के बाद आयोजित श्रद्धांजलि सभा में व्यंग्यकार क्या-क्या कहेंगे। उन्होंने लिखा है कि जगत सिंह बिष्ट कुछ इस तरह कहेंगे, मैं सुष्म से दिल्ली के पुस्तक मेले में मधुसूदन पाटिल के अमन प्रकाशन पर मिला था। मैंने उनकी एक-दो रचनाएं ही पढ़ी हैं। व्यंग्य में वे बिल्कुल मेरे कद्दावर ठहरते हैं। मैं सोचता था कि वे अपनी पुस्तक ‘बेवकूफी का कोर्स’ की प्रति मुझे देंगे। पर उन्होंने नहीं दी। इसलिए मैं भी चुप रहा। वे मेरे साथ मीठी-मीठी बातें खूब करते रहे। शायद ‘विदूषक’ के ‘समकालीन व्यंग्य विशेषांक’ में छपने के लिए। उन्हें कहीं से खबर लग चुकी थी कि मैं उसका अतिथि संपादक हूं। ध्यान रहे, ये शब्द मेरे नहीं, सत्यपाल सिंह सुष्म की कल्पना की उड़ान हैं।

इस बीच कुछ और रचनाएं जो प्राप्त हुईं:

मदन गुप्ता सपाटू: मुझे न ले जाना विद्युत शवदाह गृह

रवींद्र पांडे: भौतिक परिवर्तन

आलोक शर्मा: छाप और आप

श्रवण कुमार उर्मलिया: दिमाग की दरार

ब्रह्मदेव: बात एक पार्क की

अमलाई के ‘पाठक मंच’ के प्रबुद्ध सदस्यों की रचनाएं भी इस अंक में आपको मिलेंगी:

राजेंद्र सिंह गहलोत: किस्सा साढ़े तीन यार

अनिल गर्दे: बफे(लो) सिस्टम

अभय कुमार: घर से श्मशान तक

महेंद्र कुमार वर्मा: बड़े बाबू

जमशेदपुर के नवोदित रचनाकारों की रचनाएं भी शामिल की गईं हैं:

प्रेमचंद मंधान ‘लफ्ज़’: कचरा और हीरा

निर्मल मिलिंद: बड़े दिलवाले

बृजमोहन राय देहाती: रावण की चिट्ठी

हमारी हार्दिक इच्छा थी कि व्यंग्यालोचन खंड में, हास्य-व्यंग्य के बदलते स्वरूप, सैद्धांतिक पक्ष की विस्तृत विवेचना, व्यंग्य की वर्तमान दशा और दिशा, व्यंग्यलोचन के उद्भव और विकास का संक्षिप्त इतिहास, महत्वपूर्ण व्यंग्यकारों से साक्षात्कार, पिछले दो-चार दशकों की उत्कृष्ट कृतियों की समीक्षा भी इस विशेषांक में सम्मिलित करें लेकिन चाहकर भी हम ऐसा नहीं कर सके।

फिर भी, इस अंक के प्रारंभ में, प्रेम जनमेजय का ‘आलोचना का व्यंग्य’ शीर्षक से गहन-गंभीर आलेख है। डॉ तेजपाल चौधरी का विद्वतापूर्ण आलेख ‘व्यंग्य: एक शिल्प सापेक्ष विधा’ भी इसमें शामिल है। विनोद साव की शंकर पुणतांबेकर से बातचीत ‘यदि परसाई व्यंग्यकार हैं तो व्यंग्य एक विद्या है’  और मेरी रवींद्रनाथ त्यागी से बातचीत भी इसमें संग्रहीत है। समीक्षा खंड में, डॉ मधुसूदन पाटिल की समीक्षा ‘अपने परिवेश की विसंगतियां खोजते व्यंग्य’ और मेरे द्वारा की गई समीक्षा ‘पलाश जैसे शोख और चटख हास्य-व्यंग्य’ शामिल हैं।

इस विशेषांक में आपको सुधीर ओखदे दो जगह दृष्टिगोचर होंगे। व्यंग्य रचनाओं के खंड में, अपनी रचना ‘सिगरेट और मध्यमवर्गीय’ के साथ, और अंत में, अपने विचारोत्तेजक आलेख ‘व्यंग्य: कुछ कड़वी सच्चाइयां’ के साथ। ऐसी रचनाओं को अंग्रेज़ी में कहते हैं ‘थॉट प्रोवोकिंग’ – विचार करने के लिए विवश कर देने वाली।

एक बार फिर मैं सभी व्यंग्यकारों और आलोचकों को हृदय की गहराइयों से पुनः आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने उस समय इस विशेषांक के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया। हमारे जिन आदरणीय मित्रों का इस दौरान देहावसान हो गया, उन्हें हम विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जो मित्र आज भी व्यंग्य लेखन से जुड़े हुए हैं, उनके उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हुए, यह कामना करते हैं कि उनकी लेखनी और प्रखर हो!

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ आईएएस का साहित्य में योगदान क्यों नहीं मानते… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – आईएएस का साहित्य में योगदान क्यों नहीं मानते… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

– क्या आप कमलेश भारतीय हैं?

मैं हरियाणा सचिवालय की वीआईपी लिफ्ट के सामने खड़ा था और एक सभ्य, सभ्रांत सी महिला मुझसे यह सवाल कर रही थीं ! मैं श्रीमती धीरा खंडेलवाल का ‘शुभ तारिका’ के लिए इंटरव्यू लेने जा रहा था और मैने कभी उनको देखा न था । हां, मेरे पास उनका  काव्य संग्रह जरूर था, जिसे मैं साथ लिए हुए था । शायद वही कवर सामने था, जिस पर धीरा खंडेलवाल की फोटो और परिचय था ।

– क्या, आप धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करने जा रहे हो ?

– जी, पर आपको कैसे पता?

– अजी, मैं ही तो धीरा खंडेलवाल हूँ । आपके पास यह काव्य संग्रह इसका प्रमाण है ! देखिए तो मेरी फोटो !

यह थी हमारी पहली मुलाकात ! असल में मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना और मैंने ही “शुभ तारिका’ की संपादिका श्रीमती उर्मि कृष्ण को यह सुझाव दिया था कि पत्रिका में ‘छोटी सी मुलाकात’ के रूप में हर माह एक इंटरव्यू दिया जाये और मैं यह काम खुशी से करने को तैयार हूँ क्योंकि आपका सदैव उलाहना रहा कि मैंने शुभ तारिका को कभी सहयोग नहीं दिया, पर आप मेरी विवशता नहीं जानती थीं कि हमारे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के कांट्रेक्ट में यह शर्त है कि आप बिना अनुमति बाहर कुछ प्रकाशित नहीं करवा सकते ! अब मैं ‘दैनिक ट्रिब्यून’  के नियम से स्वतंत्र हो चुका हूँ, अब आप बताइये कि क्या लिखना है, मुझे ! श्रीमती उर्मि ने कहा कि जो आप चाहें, वही शुरू कर लीजिए!.

यह बात बताता चलूँ कि जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया, उन दिनों ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में एक छोटा सा विज्ञापन दिखाई दिया- कहानी लेखन महाविद्यालय का, जिसमें यह कहा गया था कि लेखन का कोर्स कर घर बैठे ही धन और यश कमाइए ! अरे ! ऐसे कैसे? मैंने उस पते पर चिट्ठी लिख दी, मुझे इसके निदेशक डाॅ महाराज कृष्ण जैन का खत दो चार दिनों में ही मिल गया ! खैर ! मैंने कोई कोर्स तो वहां से नहीं किया लेकिन एक परिचय हो गया, जो आजीवन चला ! इसके लिए मैंने बहुत कुछ लिख लिख कर भेजा ! एक दो चीज़ें याद हैं कि मैंने एक परिचर्चा दी थी- क्या महसूस करती हैं लेखकों की पत्नियां ! इसके बाद मेरा व्यंग्य आलेख – क्यों नहीं आते लेखक अच्छे अच्छे ! यही नहीं इसके पचास साल के प्रकाशन के दौरान पांच लघुकथा विशेषांक आये और शायद मैं ही इकलौता लेखक हूँ जिसकी लघुकथा इसके हर विशेषांक में है ! जब दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन कर लिया तब नियमानुसार मैंने बाहर लिखना बंद कर दिया । फिर मुझसे  भाभी उर्मि सहयोग मांगें पहले जैसा और मैं चुप रह जाऊं ! इस तरह सन् 1990 से सन् 2011 आ गया और मैं जैसे ही इस कांट्रेक्ट से मुक्त हुआ तब मैंने कहा- भाभी जी, अब बताइये कि क्या सहयोग दूं?

फिर यह छोटी सी मुलाकात स्तम्भ शुरू करने की सोची और पहला इंटरव्यू डाॅ कृष्ण कुमार खंडेलवाल का करने का इरादा बनाया लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते उनके पास समय नहीं था, तब मै़ने ही सुझाव दिया, कि फिर धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करवा दीजिये, मेंने भी ठान रखा है कि आपसे ही यह इंटरव्यू का सिलसिला शुरू करूंगा ! इसके लिए खंडेलवाल खुशी खुशी मान गये और उनका एक काव्य संग्रह दराज से देते कहा कि आप थोड़ा इसे देख लीजिए और उसी दिन तीन बजे इंटरव्यू का समय भी तय कर दिया !

इस तरह हमारी पहली मुलाकात हरियाणा सचिवालय की लिफ्ट के सामने हुई ! फिर वे मुझे अपने ऑफिस ले गयीं और चाय की चुस्कियों के बीच  ‘छोटी सी मुलाकात’ का श्रीगणेश हो गया! ।

धीरा खंडेलवाल का स्वभाव बहुत सरल और सामने वाले को बहुत मान सम्मान देने वाला है ! कहीं भी बड़ी अधिकारी होने का कोई आभास तक नहीं होने देती थीं ! फिर तो उनसे कभी सचिवालय में तो कभी सरकारी बंगले पर मुलाकातों का सिलसिला तीन साल तक चलता रहा ! वे उन दिनों एक नया काव्य प्रयोग भी कर रही थीं – त्रिवेणी लिखने का ! वाट्सएप पर सुबह सवेरे धीरा खंडेलवाल की त्रिवेणी आ जाती ! मैंने एक बात महसूस की कि आईएएस अधिकारियों को साहित्यकार न मान कर लेखन को उनका शुगल मानने की भूल‌ करते हैं दूसरे लेखक और ऐसी प्रतिक्रियायें भी मुझे सुनने को मिलतीं रहीं ! फिर चाहे वे धीरा हों या डाॅ खंडेलवाल हों या, फिर रमेंद्र जाखू और या, फिर शिवरमण गौड़ हों ! यह मैं समझता हूँ कि इनके साथ न्याय नहीं है । धीरा लगातार लिखतीं आ रही हैं और सन् 2022 में तो इनके दो काव्य संग्रह एक साथ आये और तब तो मैं उपाध्यक्ष की अवधि पूरी होने पर हिसार वापस आ चुका था कि इन्होंने बड़े ही सम्मान से बुलाया और हरियाणा निवास में एक, कमरा भी बुक करवा दिया क्योंकि जनवरी के महीने धुंध बहुत छा जाती है और ग्यारह बजे चंडीगढ़ पहुंचना बहुत मुश्किल था ।

इस तरह इनके एकसाथ दो काव्य स़ग्रहों  के विमोचन-समारोह में शामिल होने व अनेक आईएएस मित्रों से फिर से मुलाकात का अवसर बना दिया ! यह भी कहता हूँ कि खंडेलवाल दम्पति साहित्य के प्रति बहुत ही गहरी भावना से जुड़े हूए हैं और अपनी पुस्तकों का विमोचन ऐसे भव्य स्तर पर करते हैं कि दूसरे लेखक सोचते हैं कि काश ! हमारी कृति का भी ऐसा विमोचन हो कभी ! खैर ! इनकी बातों और स्नेह को जितना याद करूं कम रहेगा !

हां, जब मैं  हरियाणा निवास से चेक आउट करने लगा तो जो राशि मेरी बताई मैंने अदा की और हिसार आ गया! दो चार दिन बाद धीरा जी का फोन आ गया, वे नाराज़ हो रही थीं कि  मैंने तो आपको एक भाई की तरह बुलाया था और आपने पैसे चुका दिये ! मैंने जवाब दिया कि मैंने भी तो अपनी बहन का मान ही रखा था कि वे यह न समझें कि भाई ऐसा है कि छोटा सा बिल नहीं चुका सका !

अब उसी दिन शाम को हमारे घर कोई सज्जन आये कि मुझे धीरा मैम ने भेजा है कि यह लिफाफा दे दूं। लिफाफे में मेरे हरियाणा निवास ठहरने की राशि थी !

अब आगे की कथा अगली कड़ी में ! खंडेलवाल दम्पति की कथा अनंता!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares