हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 4 – 1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर (Class of 1971: St. Gabriel’s School, Ranjhi, Jabalpur) ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़  “1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर।)

☆  दस्तावेज़ – 1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

“यह सबसे अच्छे समय का दौर था, यह सबसे बुरे समय का दौर था, यह बुद्धिमानी का युग था, यह मूर्खता का युग था…”

चार्ल्स डिकेंस, ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़

इन शब्दों की गूंज, तब के उन्नींदे शहर जबलपुर के उपनगर रांझी की गलियों में, महसूस होती थी। यह 1971 का समय था—सादगी और गहरे बदलाव का युग। बाहरी दुनिया में उथल-पुथल थी, परंतु सेंट गेब्रियल स्कूल परिसर के अंदर शिक्षा का अभयारण्य फल-फूल रहा था। वर्ष 1971 की कक्षा के छात्र एक ऐसे युग में जी रहे थे, जिसमें मासूमियत का आकर्षण और असीम संभावनाओं का अनंत आकाश था। हर पाठ ज्ञान से भरा था, हर खेल टीम भावना से खेला जाता था और हर पल यादों की छाप छोड़ जाता था।

एक विरासत की शुरुआत

वर्ष 1959 में, मॉन्टफोर्ट ब्रदर्स ऑफ सेंट गेब्रियल द्वारा स्थापित सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी के पूर्वी छोर पर स्थित था। इसके एक ओर आयुध निर्माणी खमरिया का विस्तृत परिक्षेत्र था और दूसरी ओर मानेगांव की प्राकृतिक सुंदरता। इसकी विनम्र शुरुआत एक छोटे से परिसर में हुई। वर्षों बाद अब यह आधुनिक, समग्र शिक्षा का प्रकाशस्तंभ बन गया है।

सेंट गेब्रियल में शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित नहीं थी। यह जिज्ञासा जगाने, करुणा प्रज्ज्वलित करने, और समय की कसौटी पर खरे उतरने वाले जीवन मूल्यों को सिखाने का प्रयास था। ज्ञान को एक बोझ की तरह नहीं बल्कि एक उपहार के रूप में प्रदान किया गया। छात्रों को स्वप्न देखना, दृढ़ता, और जीवन को साहस और गरिमा के साथ स्वीकार करना सिखाया गया।

मूल्यों का अनूठा संगम

1971 की कक्षा जब इस शिक्षा के मार्ग पर चली, तो उन्हें विनम्रता और विवेक, साहस और निष्पक्षता के गुणों से पोषित किया गया। उनके ‘अल्मा माटर’ ने उन्हें तर्क और भावना दोनों का मूल्य समझाया। यह एक ऐसी शिक्षा थी जो छात्रों को जीवन में उद्देश्य, दृढ़ता और कृतज्ञता का भाव प्रदान करती थी।

विद्यालय ने कला और सौंदर्य के प्रति गहरी समझ भी विकसित की। ब्रदर फ्रेडरिक ने रसायन विज्ञान को सिद्धांत और अभ्यास की एक सुखद जुगलबंदी में बदल दिया। शर्मा सर और श्रीवास्तव सर ने छात्रों को हिंदी साहित्य की मनोहारी छटा से रूबरू किया, जबकि पंडित सर और लाजरस सर ने संस्कृत के श्लोक सिखाए। मैडम प्रेम खेड़ा और खरे सर ने धैर्य और कुशलता के साथ गणित की चुनौतियों को हल करना सिखाया।

खेल केवल खेल नहीं थे, यहां चरित्र का निर्माण होता था। इस्लाम सर, दिनकर सर और चौधरी सर जैसे प्रशिक्षकों ने छात्रों को प्रेरित किया कि वे पसीना बहाएं और विजय प्राप्त करें। प्रयास में ही जीत निहित होती है।

भविष्य को आकार देने वाले शिक्षक

सेंट गेब्रियल में शिक्षक गण असाधारण थे। ब्रदर जॉन बॉस्को और इंग्लैंड से आए। जॉन पीक ने अंग्रेजी व्याकरण और साहित्य में छात्रों की उत्कृष्टता को परिभाषित किया। फ्रांसिस डेविड सर ने अपनी नाटकीय प्रतिभा और मधुर आवाज से छात्रों की रचनात्मकता को प्रेरित किया।

सामाजिक अध्ययन के गंभीर पाठ शुक्ला सर और ब्रदर जोसेफ ने पढ़ाए, जबकि सामान्य विज्ञान मैडम ओ. डी’सूजा और सेबेस्टियन सर ने पढ़ाया। ये शिक्षक केवल अध्यापक नहीं थे; ये चरित्र के मूर्तिकार थे, जिन्होंने युवा मनों को जिम्मेदार और सहानुभूति से परिपूर्ण नागरिक बनने के लिए प्रेरित किया।

1971 की कक्षा का जज़्बा

1971 की कक्षा प्रतिभा, दृढ़ता और मित्रता का एक अद्भुत सम्मिश्रण थी। प्रत्येक नाम के साथ एक कहानी जुड़ी थी, प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी छाप छोड़ी। शांता ने अपनी मधुर आवाज से, और शोभा ने अपने आकर्षक नृत्यों से सांस्कृतिक आयोजनों को जीवंत किया। जूड ने अपनी वाक्पटुता से श्रोताओं को मोहित किया, जबकि चंदन ने टेबल टेनिस के क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की।

फुटबॉल के मैदान पर, कैश्मीर, प्रबीर, महेंद्र और अल्बर्ट ने टीम भावना और प्रतिभा का प्रदर्शन किया। क्रिकेट के उत्साही जगत, राजन और सौमेन ने खेल को जीवंत बना दिया। शिवाजी, रविशंकर और विजय ने स्वस्थ शैक्षणिक प्रतिद्वंद्विता में भाग लिया और अपने साथियों को ऊंचे लक्ष्यों के लिए प्रेरित किया।

कक्षा के बाहर, दोस्ती और भाईचारे का माहौल था। बिजॉय, महेंद्र, सुबीर और श्याम ने हंसी-मजाक से सभी के चेहरों पर मुस्कान बिखेरी। ऐन्सली, हर्दित, और शैलेंद्र जैसे अन्य लोगों ने शिष्टाचार और विनम्रता का उदाहरण प्रस्तुत किया।

आजीवन आभार

पीछे मुड़कर देखें तो 1971 की कक्षा सेंट गेब्रियल स्कूल के प्रति अथाह आभार व्यक्त करती है। यह केवल एक संस्थान नहीं था; यह वह प्रयोगशाला थी जहां मूल्यों को तराशा गया और अनुशासन के साथ सपनों को आकार दिया गया। इसने छात्रों को न केवल सफलता की ओर अग्रसर किया, बल्कि सार्थक जीवन जीने की कला भी सिखलाई।

सकारात्मक मनोविज्ञान के अनुसार, सुखद यादों का पोषण करने से आनंद, कृतज्ञता और दृढ़ता विकसित होती है। सेंट गेब्रियल में साझा की गई हंसी, सीखे गए पाठ और बनाई गई दोस्ती उनके दिलों में हमेशा के लिए अंकित हैं।

सम्मान सूची

1971 की कक्षा:

ऐन्सली निबलेट, अल्बर्ट फिलिप्स, अविनाश गायकवाड़, बरकत सिंह, बिजॉय मुखर्जी, कैश्मीर फर्नांडिस, चंद्र बाबू, चंदन नियोगी, हर्दित सिंह, जगत सिंह बिष्ट, जूड पेस, कमल किशोर, के.एस. राजन, कुमुद चक्रपाणि, महेंद्र परमार, मुकुंदन मेनन, रामचंद्र सिंह, रविशंकर कृष्णन, रेबेका मलिक, प्रबीर मित्रा, राल्फ टेट, रीता बसाक, रीता भम्बानी, सैमुअल वॉकर, शैलेंद्र कुमार, शांता मूर्ति, शिवाजी घोष, शोभा पवार, श्याम मंडल, सौमेन दासगुप्ता, सुबीर भट्टाचार्य, तपस रॉय, थॉमस एलेक्ज़ेंडर, विजय नायर और तुषार कांति बनर्जी।

एक स्थायी विरासत

नेल्सन मंडेला के शब्दों में, “शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं।” सेंट गेब्रियल स्कूल ने अपनी शाश्वत मूल्यों को पोषित करने वाली भावना के साथ 1971 की कक्षा को यादों का एक खजाना और ऐसा आधार प्रदान किया, जिसने उन्हें दुनिया को बदलने में, अपना योगदान देने के लिए सक्षम बनाया।

इसलिए, वर्ष 1971 के छात्र-छात्राओं की गाथा, इसका जीवंत प्रमाण है कि समग्र शिक्षा न केवल मस्तिष्क को विकसित करती है बल्कि हृदय और आत्मा का भी भरपूर पोषण करती है। ये छात्र आजीवन गर्व से स्वयं को “गैब्रिएलाइट बैच 1971” कहेंगे।

Class of 1971: St. Gabriel’s School, Ranjhi, जबलपुर

“It was the best of times, it was the worst of times, it was the age of wisdom, it was the age of foolishness…”

– Charles Dickens, A Tale of Two Cities

In the small, sleepy town of Jabalpur, nestled within the quiet suburb of Ranjhi, these immortal words seemed to echo through the corridors of life. It was 1971, a time of both simplicity and profound change, when the world outside felt tumultuous, yet within the walls of St. Gabriel’s School, a sanctuary of learning flourished. The students of the Class of 1971 lived in an era that bore the charm of innocence and the promise of limitless possibilities—a time when every lesson carried the weight of wisdom, every game played was a masterclass in teamwork, and every moment was tinged with nostalgia even as it unfolded.

The Origins of a Legacy

Established in 1959 by the Montfort Brothers of Saint Gabriel, St. Gabriel’s School stood at the eastern end of Ranjhi, bordered by the expansive Ordnance Factory Khamaria Estate on one side and the rustic beauty of Manegaon on the other. Humble beginnings shaped its character; the modest campus whispered tales of grit and dreams. Yet, over the years, it evolved into a beacon of modern education, carrying forward the mission of holistic learning.

Education at St. Gabriel’s was never confined to textbooks. It sought to awaken curiosity, ignite compassion, and instill values that stood the test of time. Knowledge was imparted not as a burden but as a gift; it was laced with the art of living. Students were taught to dream, to persevere, and to embrace the duality of life with courage and grace.

A Unique Blend of Values

As the Class of 1971 stepped onto this path of learning, they were nurtured with the virtues of humility and prudence, bravery and fairness. Their Alma Mater taught them to value both logic and emotion, to harmonize the scientific with the spiritual. It was an education that breathed life into Positive Psychology’s principles long before the term existed—imbuing students with a sense of purpose, resilience, and gratitude.

The school also fostered a deep appreciation for art and beauty. Brother Frederick made Chemistry a delightful symphony of theory and practice. Sharma Sir and Shrivastava Sir transported students into the enchanting world of Hindi literature, while Pandit Sir and Lazarus Sir unveiled the mysteries of Sanskrit. Ms. Prem Kheda and Khare Sir unknotted the challenges of Mathematics with patience and precision.

Sports, too, were more than just games; they were arenas where character was forged. Coaches like Islam Sir, Dinkar Sir, and Chaudhary Sir inspired their students to sweat, strive, and triumph, teaching them that victory lay as much in the effort as in the outcome.

The Teachers Who Shaped Futures

St. Gabriel’s boasted a pantheon of extraordinary educators. Brother John Bosco and the Englishman, John Peek, epitomized excellence in language, molding students’ command of English grammar and literature. Francis David Sir inspired an entire generation with his theatrical flair and melodious voice, unlocking creative potential in his pupils.

From the earnest teachings of Social Studies by Shukla Sir and Brother Joseph to the life lessons woven into General Science by Ms. O. D’Souza and Sebastian Sir, every lesson carried a deeper meaning. These teachers were not merely instructors; they were sculptors of character, shaping young minds into responsible and empathetic citizens.

The Spirit of the Class of 1971

The Class of 1971 was a constellation of talent, resilience, and camaraderie. Each name carried a story, each individual left a mark. Shanta, with her divine voice, and Shobha, with her dazzling Bollywood dances, brought joy to cultural gatherings. Jude mesmerized audiences with his eloquence, while Chandan dominated the table tennis arena with finesse.

On the football field, players like Kashmir, Prabir, Mahendra, and Albert exhibited teamwork and flair, while cricket enthusiasts such as Jagat, Rajan, and Soumen brought the game alive. Shivaji, Ravi Shankar, and Vijay engaged in healthy academic rivalries, inspiring peers to aim higher.

Outside the classroom, camaraderie thrived. Bijoy, Mahendra, Subir, and Shyam were the jesters who kept spirits high, reminding everyone of the power of shared laughter. Others, like Ainsley, Hardit, and Shailendra, exuded a quiet dignity, embodying politeness and humility.

A Lifetime of Gratitude

Looking back, the Class of 1971 owes an immeasurable debt of gratitude to St. Gabriel’s School. It was not merely an institution; it was a crucible where values were forged, and dreams were tempered with discipline. It gave its students not only the tools to succeed but the wisdom to live meaningful lives.

As Positive Psychology emphasizes, cherishing fond memories cultivates joy, gratitude, and resilience. The laughter shared, the lessons learned, and the friendships formed at St. Gabriel’s remain etched in the hearts of its alumni, illuminating their paths long after the school bell ceased to ring.

Roll Call of Honour

Class of 1971:

Ainsley Niblett, Albert Phillips, Avinash Gaikwad, Barkat Singh, Bijoy Mukherjee, Cashmir Fernandes, Chandra Babu, Chandan Neogi, Hardit Singh, Jagat Singh Bisht, Jude Paise, Kamal Kishore, K.S. Rajan, Kumud Chakrapani, Mahendra Parmar, Mukundan Menon, Ramchandra Singh, Ravi Shankar Krishnan, Rebecca Mullick, Prabir Mitra, Ralph Tate, Rita Basak, Rita Bhambani, Samuel Walker, Shailendra Kumar, Shanta Murthy, Shivaji Ghosh, Shobha Pawar, Shyam Mandal, Soumen Dasgupta, Subir Bhattacharya, Tapas Roy, Thomas Alexander, Tushar Kanti Banerji and Vijay Nair.

An Enduring Legacy

In the words of Nelson Mandela, “Education is the most powerful weapon which you can use to change the world.” St. Gabriel’s School, with its timeless values and nurturing ethos, gifted the Class of 1971 a treasure trove of memories and a foundation that would empower them to change the world in ways big and small.

And so, the story of the Class of 1971 remains an enduring testament to the power of education to shape not just minds but hearts and souls. For they were, and always will be, the proud sons and daughters of St. Gabriel’s School, Ranjhi, Jabalpur.

(Photo courtesy – Social media)

🙏💐 सेंट गेब्रियल स्कूल – आजीवन आभार 💐🙏

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्लके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल

☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ ☆

☆ जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

विविध विषयों का ज्ञान, धीर – गंभीर व्यक्तित्व और ओजस्वी वाणी, ज्ञान पिपासुओं को निःस्वार्थ मार्गदर्शन और अपने अनुभव देते रहना, पं. दीनानाथ शुक्ल के इन गुणों ने उन्हें जीवन काल में ही विशिष्ट बना दिया था। शुक्ल जी का जन्म 1 जुलाई 1932 को छतरपुर जिले में हुआ। कम आयु में ही वे शासकीय शिक्षक नियुक्त हो गए। दीनानाथ जी ज्ञान पिपासु थे। शिक्षक बनने के बाद उनकी ज्ञान पिपासा और बढ़ गई। उन्होंने रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से राजनीति शास्त्र में एम. ए. किया। एम.एड. की परीक्षा में शुक्ल जी को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। एक श्रेष्ठ शिक्षक के साथ ही अच्छे कवि, साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति सुदूर क्षेत्रों तक व्याप्त थी।

हिंदी और अंग्रेजी के विद्वान पं. दीनानाथ शुक्ल ने यद्यपि हिंदी में भी लिखा है तथापि साहित्य सृजन के लिए उन्होंने अपने जन्म स्थान छतरपुर की बोली – बानी “बुंदेली” को चुना। उनकी पांडित्य पूर्ण, हास – परिहास से युक्त, जागरण की प्रेरणा देती बुंदेली रचनाओं का साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान है।

“ईपै अधिक न सोचौ” पं. दीनानाथ शुक्ल का बुंदेली में रचा व्यंग्य कविताओं का संग्रह है। लोक रस – युक्त इन कविताओं में जीवन के विविध रंग हैं, किंतु मूल भाव जीवन को सुमार्ग पर अग्रसर करने – कराने का है।

“नओ उजेरो” कविता में वे कहते हैं –

कका दाउ जू संझले मंझले दद्दा, बब्बा नन्ना,

हलके बड़े मौसिया नन्ने जीजा फूफा मम्मा।

नाते भये अलोप सबई अब, लै लै नाम पुकारत,

अंकल डैडी ब्रदर कान के, पर्दा चीरें डारत।

सब हो गओ का सपनो,

गांव बदल गओ अपनों।

भाव अभिव्यक्ति के लिए शुक्ल जी के पास बुंदेली के इतने सटीक शब्द थे कि वे श्रोता – पाठक के समक्ष तत्काल उनका अर्थ प्रगट करते थे। उनकी बुंदेली भाषा – शैली अत्यंत सहज सरल थी।

 पं. दीनानाथ शुक्ल की भाषा की सहज ग्राह्यता देखिए –

यंत्री के मंत्री झल्लाने – इत्तो माल न खाओ,

सड़क बनी ती इतै कहां गइ, नक्शा मोय दिखाओ।

नक्शा मोय दिखाओ, पूरी कीके पेट समानी,

भ्रष्टाचार तकैया पूंछत, कैसें भइ नुकसानी।

हांत जोर कें यंत्री बोलो – डामल तौ मैं खा गओ,

गिट्टी मुरम बोल्डर प्रभु के, साले पेट समा गओ।

और इसे पढ़ें –

दंगा मैं पथरा सन्नाबै, दूरइ, सें जो लरका –

“गोला तवा फेंक” में भेजौ, पता लगा कें घर का।

चिरइ-चिरोंटा गिरदौना जो, तक गुलेल सें मारत –

चुन लो उन्हें “निशान लगाबे”, बाजी बे नइं हारत।

पं. दीनानाथ शुक्ल ने हमेशा कभी स्वयं के माध्यम से तो कभी अपने आसपास रहने वाले लोगों के माध्यम से अपनी बात कही है –

तानें हमें न मारौ, अपनो अपनो रूप निहारौ।

दई बनाओ तुमें ऊजरौ, हमें बना दऔ कारौ

ईमें का है दोष हमारौ, ताने हमें न‌‌‌ मारौ। ।

शुक्ल जी अपनी जो भी रचनाएं लोगों को स्वतः सुनते थे, उनके प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के कारण वे रचनाएं श्रोताओं के मन में अमित छाप छोड़ती थीं। पं. दीनानाथ जी ने सदा रचनाकारों को बुंदेली में लिखने प्रेरित किया और उन्हें मार्गदर्शन दिया। अनेक लोकभाषाई कवि सम्मेलनों में बुंदेली का प्रतिनिधित्व करके प्रशंसा अर्जित करने वाले पं. दीनानाथ शुक्ल जी को समय समय पर अनेक संस्थाओं – संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया। अपने सहज – सरल उद्देश्यपूर्ण बुंदेली गीतों के कारण वे साहित्य जगत में सदा याद किए जाएंगे।

“दीनानाथ” अकल ताकत के, “ठेंगन” की बलिहारी –

जीने सीखो मंत्र, ओई सें, झुक रइ दुनिया सारी।

“दीनानाथ”कहते हैं, अक्ल की ताकत के ठेंगे की बलिहारी ! जिसने यह मंत्र सीखा उसके सामने सारी दुनिया झुक रही है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ ☆ दस्तावेज़ # 3 – कनाडा से ~ कोंपल के कंधों पर चमकती धूप — ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। चार उपन्यास व आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान।

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(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है कनाडा से डॉ. हंसा दीप जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “नौका विहार”।) 

☆ दस्तावेज़ # 3 – कनाडा से ~ कोंपल के कंधों पर चमकती धूप — ☆ डॉ. हंसा दीप  ☆ 

अलसुबह की ताज़ी बयार श्वास-दर-श्वास गुणित होती रही। ढलती शाम में उन सुवासित पलों को शब्दों में कैद करना मुझे रोमांचित कर गया। एक हल्की-सी दस्तक भर से स्मृतियों के पिटारे खुलकर कई अविश्वसनीय पलों को भी सामने ले आए। एक के बाद एक। यही तकरीबन 57-58 साल पहले का मेरा अपना गाँव। खालिस गाँव। टूटी-फूटी सड़कें, नीम के घने पेड़ और भीलों की बस्तियाँ। झोंपड़ियाँ भी, हवेलियाँ भी। कंगाल भी मालामाल भी। नंग-धड़ंग आदिवासी बच्चे और सेठों-साहूकारों के साफ-सुथरे बच्चों से लिपटती धूल-धूसरित हवाएँ।

मैं और छोटू, पूरे गाँव में भटक आते। पव्वा, गुल्ली-डंडा, लंगड़ी-लंगड़ी, खेलना और गाँव भर में छुपा-छुपी खेल के लिए दौड़ लगाना। न बीते कल की चिंता, न आने वाले कल की। बस आज खाया वही मीठा।

लौकिक और अलौकिक दुनिया के बीच झूलता बचपन। नन्हीं बच्ची की आँखों से देखे ऐसे कई लम्हे जिनमें विस्मय, कौतूहल, भय और विश्वास एक साथ हाथ थामे रहते। लौकिक दुनिया में जीते-जागते इंसान थे। भूख, गरीबी और शोषण से त्रस्त, अपने अस्तित्व से लड़ते आदिवासी। भीलों और साहूकारों की ऐसी दुनिया जहाँ बिल्ली और चूहे का खेल अपनी भूमिका बदलता रहता। दिन भर जिनसे मजदूरी करवाकर साहूकार अपनी तिजोरी भरते, रात में वे ही उनका माल-ताल लूट कर ले जाते।

इस हाथ ले, उस हाथ दे। दिन में सेठों की सेवा में भुट्टे हों या हरे चने के गट्ठर, हर सीजन की पैदावार भर-भर कर दे जाते। सेठों के परिवार खा-पीकर लंबी डकार जरूर लेते लेकिन रात में चैन की नींद न सो पाते। अगर मानसून ने साथ दिया और फसल ठीक-ठाक हुई तो चोरी-चकारी कम होती लेकिन जिस वर्ष फसलें चौपट होतीं, भीलों को खाने के लाले पड़ जाते। तब पेट भरने का एकमात्र सहारा सेठों को लूटना होता। लूटपाट, खौफ और दहशत से भरा गाँव। जीजी (माँ) के शब्द होते- “ई भीलड़ा रा डर से मरेला बी आँख्या खोली दे।” (इन भीलों के भय से मुर्दे भी जाग जाएँ।) 

न पुलिस का भय, न कानून का। पुलिस थी कहाँ! बाबा आदम के जमाने के दो कमरों में पुलिस थाना था। एक ओर छोटे-छोटे सेल थे कैदियों के लिए। और शेष दो में एक मेज, कुछ फाइलें और सोने का एक बिस्तर। मरियल से एक-दो पुलिसवाले ड्यूटी बजाते। भीलों के सामने कहीं नहीं लगते। बगैर हील-हुज्जत के माल मिल जाता तो आदिवासी होने के बावजूद भील मार-काट कम करते। न मिलने पर किसी को भी मार-काट कर लूट लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। एकजुट होकर साहूकारों के ब्याज से मुक्त होने का यही आसान तरीका था उनके लिए।  

गाँव में हमारा घर हवेली-सा था। सबसे बड़ा। यानि सबसे ज्यादा पैसा। यानि सबसे ज्यादा लूटपाट का डर। नीचे हमारी अनाज की बहुत बड़ी दुकान थी और अनाज के बोरे खाली करने-भरने के लिए कई आदिवासी हम्माल आते थे। हष्ट-पुष्ट, ऊँची कद-काठी के भील, पीठ पर बोरियाँ लादे मुझ जैसी बित्ती भर की बच्ची को भी छोटी सेठानी कहते। अपना लोटा लाकर मुझसे पानी जरूर माँगते। मैं दौड़-दौड़ कर जाती और मटके का ठंडा पानी लाकर उनका लोटा भर देती। पानी पीकर गले में लिपटे गंदे गमछे से पसीना पोंछकर फिर से काम पर लग जाते। जीजी रोटियाँ बनाकर उन्हें खाने देतीं जिन्हें वे बड़े चाव से प्याज के टुकड़े के साथ खा लेते। सबके लिए दोपहर की चाय भी बनती। कम दूध और ज्यादा पानी वाली चाय। शक्कर डबल। जीजी कहतीं- “बापड़ा खून-पसीनो एक करे। मीठी चा पीवेगा तो घणो काम करेगा।” (बेचारे इतना खून-पसीना बहाते हैं। मीठी चाय पीकर खूब काम करेंगे।)

पाँच भाई-बहनों के परिवार में हम दोनों छोटे भाई-बहन बहुत लाड़ले थे। मेरे बाद कोई बेटी नहीं और छोटू के बाद कोई बेटा नहीं। पूर्णविराम का महत्व हम दोनों बच्चों के व्यक्तित्व में झलकता था। हम ज्यादातर जीजी-दासाब (मम्मी-पापा) के आसपास ही मँडराते रहते। मानो उन दोनों पर सिर्फ हमारा अधिकार हो। अपनी हवेली के एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ते-भागते हम, हर पल जी भरकर जीते। आम के मौसम में घर में पाल डलती (कच्चे आमों के ढेर को सूखे चारे में रखकर पकाना)। रोज बाल्टी भर पानी लेकर बैठना और चुन-चुन कर पके आम बाल्टी में डालते जाना। ललचायी आँखें पलक झपकते ही रस भरे आम को गुठली में बदलते देखतीं। घर के अहाते में मूँगफली के बड़े ढेर से चुन-चुनकर मूँगफली खाना और छिलकों को बाकायदा ढेर से बाहर फेंकना।    

मालवी-मारवाड़ी-भीली जैसी बोलियों के साथ धाराप्रवाह गुजराती और हिन्दी भाषा हम सभी भाई-बहनों ने जैसे घुट्टी में पी ली थी। कभी भी, किसी से भी अलग-अलग बोलियाँ बोलने-समझने में सकुचाते नहीं। भीलों से भीली में खूब बतियाते। भील-भीलनी मालवी लहजे में भीलड़ा-भीलड़ी हो जाते। मालवी की मिठास में किसी के भी नाम के आगे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाकर बोलना अपनेपन का अहसास होना। गधे या बुद्धू लड़के को गदेड़ो, और लड़की बेवकूफ हो तो गदेड़ी। यहाँ तक कि बरतन कपड़े करती भीलनी दीतू को भी दीतूड़ी कहते। कभी नाराजगी जाहिर करनी होती तो दीतूड़ी को दीतूट्टी कहते। आज भी हम सब भाई-बहन आपस में मालवी में बात करते हुए घर में जितने छोटे हैं सबके नाम के पीछे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाते हैं। टोनूड़ा, मीनूड़ी, रौनूड़ो…।

उस साल पानी नहीं गिरा था। धरती अनगिनत टुकड़ों में फट-सी गई थी। फसलें चौपट थीं। धान उगा नहीं। सेठों का धंधा ठप्प। धंधा नहीं तो भीलों के लिए मजदूरी भी नहीं। बस यही था खुली लूटपाट का समय। अब डाके पड़ने लगे। चोरी-चकारी तो आम बात थी ही लेकिन जब किसी अमीर के यहाँ चोरों की भीड़ आकर घर खाली कर जाए, मालमत्ते के साथ घर का सारा सामान यहाँ तक कि बर्तन-भांडे भी ले जाए, वह डाका होता। भीलों के समूह एकजुट होकर पूरी फोर्स के साथ ढोल-ढमाके बजाते आते। सारा कैश, जेवर और घर से जो उठा-उठा कर ले जा सकते, ले जाते। तब तक बैंक व्यवस्था पर लोगों का विश्वास जमा नहीं था। साहूकार अपना सारा कैश, कीमती चीजें घर में ही रखता था।

दो दिन पहले पास के गाँव कल्याणपुरा में अरबपति मामाजी के घर डाका पड़ा था। मामाजी के खास आसामी (ग्राहक) उन्हें लूट गए थे। करोड़ों का माल नगदी-जेवरात सब चला गया था। वहाँ से आई खबरों से हम सब डरे हुए थे। घर में दासाब के होते राहत मिलती। खबरों का खौफ कभी जीजी के पल्लू को पकड़कर कम होता तो कभी दासाब का कुरता पकड़कर। डरे-सहमे हम दोनों उनके आसपास ही सोते। नींद लगते न लगते, ढोल बजने शुरू हो जाते।

दासाब खिड़की की ओट से बाहर से आती ढोल की आवाजों का जायजा लेकर कहते- “बच्चों, डरो मत। चोर अपने घर की तरफ नहीं आ रहे। वो तो दूसरी ओर जा रहे हैं।”

लेकिन ये हमें समझाने के लिए होता क्योंकि वो स्वयं खड़े होकर आवाज दूर जाने तक सोते नहीं। घुप्प अंधेरे में कुछ दिखाई न देता होगा क्योंकि उस समय हमारे गाँव में बिजली आई ही थी। जो आती कम, जाती ज्यादा थी। चोरी-डाके की तमाम आशंकाओं के बावजूद कभी हमारे घर डाका नहीं पड़ा। हाँ, हर दो-तीन माह में हमारी भैंस चोरी हो जाती थी। दासाब की जिद थी कि घर में भैंस हो और सभी बच्चे घर का दूध पीएँ। सो हमारी हवेली के बंद पिछवाड़े में एक भैंस बँधी रहती। उन्हें ये भी पता होता था कि अपनी भैंस दो-तीन महीने ही रहेगी, बाद में चोर ले जाएँगे। और ऐसा ही होता। हर दो-तीन माह के भीतर भैंस चोरी हो जाती।

दासाब कहा करते थे- “चोट्टे घर के अंदर नहीं आ सकते। पिछवाड़े से भले ही भैंस ले जाएँ।  

प्रश्नों की लंबी कतार मेरे सामने होती। मैं यह न समझ पाती कि चोर कैसे घर में नहीं घुस सकते! पुलिस तो खड़ी नहीं है बाहर। और फिर पुलिस तो कभी भैंस को भी वापस नहीं ला पाई, फिर चोरों का क्या बिगाड़ लेगी! रात में ड्यूटी पर खर्राटे भरते पुलिस वालों को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि ढोल-नगाड़े बजाकर भील चोरी करने आ रहे हैं।  

मैं सोचती, शायद चोर दासाब से डरते होंगे। उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि एक जोर की आवाज या उनकी खाँसी से सब सतर्क हो जाते। बड़े भाई-बहन भी डर जाते थे। मैं नहीं डरती थी क्योंकि मुझे कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। मसलन, उनकी कई छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान रखना। वे नीचे दुकान में खाना खाते थे जबकि किचन ऊपर था। किचन क्या था, बहुत बड़ा हाल था। उस हवेली में कोई छोटा कमरा था ही नहीं, कई बड़े-बड़े हाल थे। मैं हर बार दौड़कर ऊपर जाती और गरम रोटी लेकर आती। धोबी के घर से उनके झकाझक सफेद कुरते-पाजामे बगैर सिलवटों के उन तक पहुँचाने का काम भी मेरा ही था।

जब वे बाजार कुछ लेने जाते, मुझे अपनी उँगली पकड़कर साथ ले जाते। धुली हुई घेरदार फ्राक पहने मेरी ठसक ऐसी होती जैसे दासाब की नहीं, आसमान में चमकते सूरज की उँगली पकड़कर चल रही होऊँ। कंधों पर आकर धूप ठहर जाती। बिखरती धूप के साए खिलखिलाने लगते। वो अलमस्त अनुभूति कभी मद्धम नहीं हुई। सिलसिला आज भी जारी है जब मैं अपने नाती-नातिन की उँगली पकड़कर चलती हूँ। टोरंटो की बर्फ के कणों से धूप परावर्तित होकर समूची ताकत से मुस्कुराती है। रोल बदलने के बावजूद चाल की ठसक कायम है।

भैंस के चोरी हो जाने के बाद हम दोनों छोटे बच्चों को पंडित के पास भेजा जाता। यह तफ़्तीश निकालने के लिए कि भैंस किस दिशा में गई। पंडित, गिरधावर जी अपना पोथा खोलते, हमारी जेब से निकले पैसे पोथे के पन्नों पर विराजमान होते ही उनकी गणना शुरू हो जाती। ग्रहों की गणना करते पंडित जी बताते कि भैंस, पूरब दिशा में गई है। फिर कहते, पहले पश्चिम में गई थी पर अब वापस पूरब दिशा की ओर मुड़ गई है। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज हमारे सीसीटीवी कैमरे हमें दिशा-निर्देश देते हैं। 

दासाब पुलिस थाने रिपोर्ट लिखाने जरूर जाते और कह आते कि पूरब दिशा में ढूँढने जाओ। पुलिस वाले आश्वासन के साथ रिपोर्ट लिख लेते। मैं कई दिनों तक टकटकी लगाए देखती रहती कि हमारी भैंस लौट आएगी। भैंस लौटकर कभी वापस नहीं आती, मगर दासाब फिर से नई भैंस खरीद लेते। अच्छी सेहत वाली। खूब दूध देती। ज्यादातर दही जमाकर मक्खन निकाल लेते। घी बन जाता। बड़े मटकों में रस्सी से बँधी लंबी मथनी पर हम सब हाथ चलाते। घूम-घूमकर, मटक-मटक कर दही मथना एक तरह से खेल था। मथनी खूब खिंचने के बाद भी मक्खन की झलक तक नहीं दिखती क्योंकि ताकत तो हममें थी नहीं। फिर दीतूड़ी हाथ आजमाती, उसके ताकतवर चार हाथ पड़ते न पड़ते मक्खन के थक्के ऊपर तैरने लग जाते। बड़ी-सी कढ़ाही में मक्खन का हर एक दूधिया कण इकट्ठा होता जाता। कढ़ाही आँच पर चढ़ते ही पूरी हवेली शुद्ध घी की महक से सराबोर हो जाती।

मथनी बाहर भी न आ पाती और तत्काल गाँव में खबर फैल जाती- “आज सेठ के घर छाछ बनी है।” मुफ्त में छाछ लेने वालों की भीड़ लग जाती हमारे घर। छाछ वितरण का काम मैं पूरी जिम्मेदारी से निभाती। छोटे से बर्तन से निकाल-निकाल कर लोगों के पतीले छाछ से लबालब भर देती। मेरे लिए यह एक जिम्मेदारी से भरे काम के साथ रोचक समय होता था। बाँटने की खुशी मेरे चेहरे से टपकती।

बीच-बीच में जीजी आकर सावधान करतीं कि बाकी लोगों को खाली न जाना पड़े। मैं छाछ देने में कंजूसी करने लगती तो बर्तन पकड़े सामने वाले की आवाज आती- “ए, थोड़ी और डाल दे न बेटा। आज खाटो (खट्टी कढ़ी) बनेगो।” लोगों के बर्तनों को ताजी, सफेद-झक छाछ से भर देना और उनकी आँखों से बरसते प्यार को स्वीकारना, मुझे बहुत भाता।

चोरी-डाके-लूटपाट के साथ हमारी हवेली में हॉरर दृश्यों की भरमार थी। अलौकिक दुनिया के कई रूप देखे मैंने। हमारा घर गाँव वालों के लिए भुतहा हवेली के रूप में भी जाना जाता था। उन घटनाओं का बयान करना, अंधविश्वास को बढ़ाना है। शिक्षित होकर भी उन घटनाओं को खंगालना विचलित करता है जिनका तार्किक उत्तर आज तक न मिला और शायद मिलेगा भी नहीं।

अपनी आँखों से गुजरे वे पल विज्ञान के विरुद्ध जाकर कभी भयभीत करते, कभी अलौकिक शक्तियों से परिचय कराते तो कभी आत्मविश्वास को बढ़ाते। आज तकनीकी युग में उन क्षणों की सच्चाई पर विश्वास करना सहज और स्वाभाविक बिल्कुल नहीं लगता, लेकिन वे पल अभी भी पीछा करते हैं। कई बार स्वयं को पिछड़ा हुआ कहकर इनके आगोश से मुक्त होने की कोशिश भी की लेकिन जो अपनी आँखों से देखा, जाना और समझा, उसे आज तक नकार नहीं पाई। बगैर किसी लाग-लपेट के वे क्षण मेरे सामने से ऐसे गुजरने लगते जैसे आज की ही बात हो। आँखों से देखा सच और उसमें जीने का अनुभव था, किसी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं थी।

कई राज और उनमें छुपी जानी-अनजानी शक्तियों की चर्चा गाँव वाले करते। हवेली में रात में लोग बरतनों के गिरने की आवाज सुनते। रस्ते चलता आदमी भूले-से रात के अँधेरे में हवेली की किसी दीवार के पास पेशाब के लिए खड़ा हो जाता तो कोई उनके पीछे दौड़ता था। नाग-सर्प देवता के लिए तो हमारी हवेली जैसे स्वर्ग थी। रात के अँधेरे में हवेली के आसपास से गुजरने वालों को जगह-जगह नाग दिखते थे। मोटे-काले-लंबे नाग। छनन-छनन आवाजें सुनाई देती थीं। भड़-भड़ कुछ गिरने की आवाजें रोज की बातें थीं। हम गहरी नींद सो रहे होते और बाहर से गुजरने वाले ये सब देखते-सुनते हवेली से दूर भागने की कोशिश करते।

हमारे कानों में पड़ती ये बातें आम थीं। हम बच्चे आश्वस्त थे कि हमारे घर में ऐसा कुछ नहीं होता। होता भी हो तो ‘वो’ बाहर वालों को ही डराते हैं। हमें कभी कुछ नहीं करते। जीजी-दासाब ने हम दोनों छोटे बच्चों को खूब अच्छी तरह समझा कर रखा था कि कुछ भी डरने जैसा दिखे, तो हाथ जोड़ कर खड़े हो जाना। डरना मत। बस इतना कहना कि हम आपके घर वाले हैं।  

हवेली के कई हिस्सों से मुझे केंचुलियाँ मिलती थीं क्योंकि दिन भर हवेली में सबसे ज्यादा ऊपर-नीचे दौड़ने वाली मैं ही थी। नजर भी बहुत तेज थी। मैं सँभालकर ले जाती जीजी के पास। जीजी कहतीं- “चोला बदले नाग देवता। पूजा रा पाट पे रक्खी दो।”

एक बार दूध के तपेले के पीछे मुझे नाग जैसी बड़ी-सी परछाई दिखी। तुरंत दौड़कर जीजी को बताया। उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर वहाँ एक दीपक लगवाया, प्रार्थना की। कहा- “छोरा-छोरी डरी रिया, आप किरपा करो। वापस पधार जाओ।”   

वो दिन और आज का दिन, फिर मुझे कभी कुछ नहीं दिखा। जीजी की हिम्मत हौसला देती। हाँ, अकेले कभी रात-बिरात घर के पिछवाड़े जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। पूरी हवेली में एक ही शौचालय था जो पिछवाड़े था। भैंस के खूँटे के पास। वहाँ तक पहुँचने में पूरी हवेली का लंबा सफर तय करना पड़ता था। रात में कोई वहाँ अकेला नहीं जाता। बड़े भाई-बहन भी जीजी के साथ या दासाब के साथ ही जाते।

हमारे यहाँ कोई भी शुभ कार्य या कोई त्योहार होता, हमें सख्त ताकीद थी कि पहले घर के देवताओं के लिए भोजन परोसो। वह थाली दिन भर पूजा के पाट पर रहती। शाम तक गाय और कुत्ते को खिला देते। कभी किसी ने गलती से भी उस नियम को नहीं तोड़ा। एक बार इस बड़ी हवेली का एक हिस्सा किराए से दिया था। वह परिवार वहाँ कुछ ही महीने टिका और डर के मारे छोड़ कर चला गया। छोड़ने के बाद हमें जो भी बताया, वह अविश्वसनीय नहीं था हमारे लिए।

दासाब कहते थे वे हमारे पुरखे हैं, जो अपने घर को छोड़ नहीं पाए। आज, जीजी-दासाब-बड़े-छोटे भाई नहीं हैं पर हम घर के जितने लोग बचे हैं, सबके पास ऐसी कई स्मृतियाँ कैद हैं। जब भी मिलते हैं रात के दो-तीन बजे तक बैठकर नयी पीढ़ी को ये सब सुनाते हैं। आज वह हवेली बिक गई है। दिन में वहाँ स्कूल चलता है। रात में आज भी वहाँ कोई नहीं रहता।

मेरी सारी सोच-समझ की शक्ति धराशायी हो जाती जब वह दृश्य मेरे सामने आता। उस शाम हवेली के बीच वाले हिस्से में चाचाजी के घर धड़ाधड़ पत्थर आने लगे थे। एकाध मिनट के अंतराल से एक पत्थर आता, आवाज होती और नीचे पड़ा दिखाई देता। पत्थर कहाँ से आ रहे थे, कौन फेंक रहा था, आज तक यह रहस्य नहीं खुला।

परिवार के साथ वहाँ इकट्ठा हो रहे गाँव के लोग इस घटना के साक्षी थे। फुसफुसा रहे थे कि सेठ का घर किसी बड़े संकट में है। भीड़ भयभीत थी, घरवाले भी। क्रोध शांत करने के लिए उसी समय धूप-दीप किया गया। सवेरे उठकर बड़ी पूजा करने का निवेदन किया गया। घर के हर सदस्य ने जोर से किसी भी गलती के लिए क्षमा माँगी। थोड़ी देर में पत्थर आने बंद हुए। किसी ने एक शंका जाहिर की कि ये पत्थर चोर फेंक रहे होंगे। लेकिन एक ही आकार के सारे पत्थरों का, एक ही जगह पर आकर गिरना संभव नहीं था। वह दृश्य मेरी आँखों में आज तक ऐसा सुरक्षित है कि कभी मैं उसे डिलीट न कर पाई।

समय के सारथी उन पलों की मुट्ठी में कैद था खुले आसमान का टुकड़ा। उसी को पकड़े रखा। जिन चमकीले-धूपीले पलों को बड़ों के साथ जीया, अब अपने नाती-नातिन के साथ जीती हूँ। उन्हें अपने बचपन की बातें सुनाती हूँ तो कहते हैं- “वाह नानी, तब भी था सुपर पावर!”

और फिर सुपर पावर की कई-कई किताबें पढ़ चुके वे मुझे आज के सुपर पावर के किस्से सुना-सुनाकर चौंकाते हैं।

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© डॉ. हंसा दीप

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दूरभाष – 001 + 647 213 1817

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे  ?

एक अत्यंत अनुभवी तथा वयस्क महिला से मिलने का सुअवसर मिला। उनसे मेरा परिचय संप्रति एक यात्रा के दौरान हुआ था। संभवतः उन्हें मेरा स्वभाव अच्छा लगा जिस कारण वे कभी -कभी फोन भी कर लिया करती थीं। उन दिनों लैंड लाइन का प्रचलन था।

महिला जीवन के कई क्षेत्रों का अनुभव रखती थीं। साथ ही लेखन कला में भी उनकी रुचि थी।

आखिर एक दिन अपने घर पर चाय पीने के लिए लेखिका महोदया ने मुझे आमंत्रित किया। मैं अपनी स्कूली ज़िंदगी और गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को लेकर खूब व्यस्त रहती हूँ। उनके कई बार निमंत्रण आने पर भी मैं समय निकालकर उनसे मिलने न जा सकी। पर आज तो उन्होंने क़सम दे दी कि शाम को चाय पर मुझे जाना ही होगा उनके घर।

एक पॉश कॉलोनी में वे रहती हैं।

मैं उनके घर शाम के समय पहुँची। हँसमुख मधुरभाषी लेखिका ने मेरा दिल खोलकर स्वागत किया। किसी लेखिका से मिलने का यह मेरा पहला ही अनुभव था। अभी मेरी उम्र भी कम है तो निश्चित ही अनुभव भी सीमित ही है। मन में एक अलग उत्साह था कि मैं किसी रचनाकार से मिल रही हूँ।

सुंदर सुसज्जित उनका घर उनकी ललित कला की ओर झुकाव का दर्शन भी करा रहा था। हर कोना पौधों से सजाया हुआ था।

वार्तालाप प्रारंभ हुआ । बातों ही बातों में कई ऐतिहासाक तथ्यों पर हमारी चर्चा भी हुई।

उनकी रचनाएँ प्रकृति की सुंदरता, स्त्री की स्वाधीनता, पशु- पक्षियों के प्रति संवेदना आदि मूल विषय रहे।

थोड़ी देर में उनके घर की सेविका चाय नाश्ता लेकर आई। वह टिश्यू पेपर साथ लाना भूल गई तो उन्होंने उसे मेरे सामने ही डाँटा। (वह चाहती तो अपनी मधुर वाणी में भी निर्देश दे सकती थीं) हमने चाय नाश्ता का आनंद लिया। हम खूब हँसे और विविध विषयों पर चर्चा भी करते रहे।

उनकी कुछ रचनाएँ उन्होंने पढ़कर सुनाई। उन्होंने मेरी भी कुछ रचनाएँ सुनी और उसकी स्तुति भी की। कुल मिलाकर उनका घर जाना और समय बिताना उस समय मुझे सार्थक ही लगा था।

मैं जब वहाँ से निकलने लगी तो किसी ने कहा नमस्ते, फिर आना मैं आवाज़ सुनकर चौंकी क्योंकि उस कमरे में हम दोनों के अलावा और कोई न था।

लेखिका मुस्कराई बोलीं- यह मेरा पालतू तोता पीहू है। बोल लेता है।

मैंने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की तो वे मुझे अपनी बेलकॉनी में ले गईं। वहाँ एक कुत्ता चेन से बँधा था। मुझ अपरिचित व्यक्ति को देखकर वह भौंकने लगा। चेन खींचकर आगे की ओर बढ़ने लगा। लेखिका ने काठी दिखाई तो अपने कान पीछे करके वह चुप हो गया। वहीं पर एक पिंजरे में वह बोलनेवाला तोता बंद पड़ा था। उन्होंने कहा “पीहू नमस्ते करो” और तोते ने नमस्ते कहा।

दृश्य अद्भुत था! पशु चेन से बँधा और पक्षी पिंजरे में कैद! रचनाओं में पशु -पक्षी की आज़ादी की बातें! स्त्री की स्वाधीनता की बातें करनेवाली ने किस तरह सेविका को फटकारा कि मेरा ही मन काँप उठा। मेरा मन विचलित हो उठा। मैं घर लौट आई।

काफ़ी समय तक मुखौटे में छिपा वह चेहरा मुझे स्मरण रहा पर कथनी और करनी में जो अंतर दिखाई दिया उसके बाद मैं उनके साथ संपर्क क़ायम न रख सकी।

लेखक अगर पारदर्शी न हो तो सब कुछ दिखावा और दोगलापन ही लगता है। जो कुछ हम अपनी रचना में लिखते हैं वह हमारे जीवन का अगर अंश न हो तो हम भी मुखौटे ही पहने हुए से हैं।

 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani1556@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 36 – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ? ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ?)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 36 – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ? ?

क्लास प्रारंभ होने में अभी कुछ समय बाकी था। फिर भी मैंने घर का मुख्य दरवाज़ा खोल दिया और स्टडी रूम में तैयारी के लिए बैठ गई।

आज आनेवाला छात्र जर्मन है। पिता -पुत्र साथ ही हिंदी सीख रहे हैं। तीन माह पूर्व वे इटली से भारत शिफ्ट हुए हैं। दीवाली की छुट्टी के बाद उनका आज पहला क्लास था। उन्हें पता होता है कि दरवाज़ा खुला होता है पर चूँकि छुट्टी के बाद क्लास था तो अभिवादन के लिए मैं ही द्वार खोलकर उनकी प्रतीक्षा करने लगी।

सामने लिफ्ट के पास दीवार से टिककर एक नवयुवक खड़ा दिखा। उसकी पीठ के पीछे सात फुट बाय छह फुट का एक बड़ा मोटा, भारी प्लायवुड टिका था। हम तीसरी मंज़िल पर रहते हैं। उसे शायद और ऊपर जाना था। वह शायद आराम करने के लिए रुका था। लिफ्ट से इतनी बड़ी वस्तु तो ले जाना मना है।

पिता -पुत्र आए। नब्बे मिनिटों का क्लास पूरा हुआ और वे जाने लगे। बच्चों को विदा करने के लिए मैं हमेशा दरवाज़े तक जाती ही हूँ तो मैं पुनः दरवाज़े पर लौटी तो वही नव युवक उसी तरह पीठ पर प्लायवुड लादे खड़ा था।

पूछने पर वह बोला- यह तो छयालीसवाँ है। अभी चार और हैं। ट्रकवाला पचास प्लायवुड उतारकर चला गया है। दो घंटे में सब ऊपर ले जाना है।

– तो कोई साथी नहीं है तुम्हारे साथ जो मदद कर दे?

– नहीं, दुकानदार ने ट्रक के साथ मुझे ही भेजा है।

– कौन से फ्लोर पर जाना है?

– छठवें पर।

मैं अवाक होकर उसे देखने लगी कि इतना बड़ा और भारी वह भी पचास प्लायवुड इस अकेले मजदूर के लिए कितना कठिन होता होगा एक सौ से अधिक सीढ़ियों पर चढ़कर ले जाना फिर उतरना और फिर चढ़ना!

– पानी पियोगे बेटा?

– नहीं आंटी। कहकर वह अपने अंगोछे से पसीना पोंछने लगा।

कुछ देर विस्मित -सी उसे मैं देखती रही। उसका शरीर पसीने से लथपथ था। शरीर पर एक बिनियान था जो पसीने के कारण पूरा गीला था। कभी वह बनियान सफ़ेद तो निश्चित रहा होगा पर आज उसका रंग धूल मिट्टी और स्वेद के कारण पूरी तरह काला पड़ गया था।

मेरा भन भीषण व्याकुल हो उठा। कई चित्र आँखों के सम्मुख उभरने लगे।

बचपन से ईसा मसीह के बारे में सुनते तथा पढ़ते आ रहे हैं। दो चार फ़िल्में भी देखी हैं जहाँ ईसा को सज़ाए मौत दी जाती है और पूरे शहर से पीठ पर उसी सूली को उठाकर चलने की बाध्यता भी रखी गई थी बाद में जिस पर उन्हें कीलें ठोंककर चुनवा दिया गया था।

मनुष्य कितना कठोर, हिंसक, नृशंस और अत्याचारी हो सकता है इसकी सारी हदें रोमन्स पार कर चुके थे। यशु कमज़ोर तन और भीषण तीव्र मनोबलवाले पुरुष थे। वे तो द सन ऑफ़ गॉड माने जाते थे। शायद उन्हें विदित भी था कि उनका अंत मनुष्यों के हाथों इसी तरह से होगा।

पर आज! आज महज़ दो वक्त की रोटी कमाने के लिए एक मजदूर के साथ ऐसा अन्याय ? इतनी कठोरता? जिसके घर फर्नीचर बनने के लिए ये पचास प्लायवुड आए हैं उन्हें तो संभवतः यह ज्ञात भी न होगा कि ये किस विधि ऊपर पहुँचाए गए होंगे। आज सब प्रकार की मशीनें,  मैन्यूअल लिफ्ट उपलब्ध हैं। फिर किसी ग़रीब के साथ उसकी विवशता का लाभ उठाते हुए इस तरह का व्यवहार क्यों किया जा रहा है भला?

मैंने जब युवक से पूछा कि पचास प्लायवुड ऊपर ले जेने के कितने पैसे मिलेंगे? तो वह चट बोला 2800 रुपये आंटी जी।

ईश्वर भला करे नौजवान का। संभवतः हर सीढ़ी चढ़ते समय उसने 2800रुपयों के करारेपन को अहसासों में महसूस किया होगा।

संभवतः उसकी किसी विशेष प्रयोजन में ये 2800 रुपये सहायक होंगे।

संभवतः वह भयंकर विवश रहा होगा।

पर जब रात को वह सोने गया होगा और फर्श पर अपनी पीठ टिकाई होगी तो क्या उसकी रीढ़ सीधी हो पाई होगी? भयंकर पीड़ा का अहसास न हुआ होगा? वह दर्द से कराह लेता रहा होगा। पर 2800 रपये के स्पर्श और गंध ने मरहम का काम भी किया होगा।

हाय रे प्रभु तेरी इस दुनिया में दरिद्र कितना असहाय है रे!

© सुश्री ऋता सिंह

8/11/24 8.10pm

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 536 ⇒ वर्मा जी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वर्मा जी।)

?अभी अभी # 536 ⇒ वर्मा जी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज बहुत दिनों बाद वर्मा जी सपने में दिखाई दिए।

उन्हें सपनों में ही आना था क्योंकि इस असली संसार से तो कई वर्ष पहले ही विदा ले चुके थे। वे मेरे फेसबुक फ्रेंड नहीं, मेरे अभिन्न मित्र थे, और बैंक में मेरे सहकर्मी थे। वे मेरे लिए कृष्ण भले ही ना सही, लेकिन एक सारथी अवश्य थे। हम शर्मा वर्मा के बीच कभी कोई विश्वकर्मा नजर नहीं आया।

वे अविवाहित थे इसलिए याद करते ही हाजिर हो जाते थे। वे वर्मा थे, इसलिए कायस्थ थे, उनके दो बड़े भाई और थे, लेकिन उनकी कोई बहन नहीं थी। पिताजी जब जीवित थे, तब कलेक्टर थे। मैने उनके माता पिता को नहीं देखा। पिताजी के गुस्सैल स्वभाव का अक्सर वे जिक्र करते थे, लेकिन मां के बारे में उन्होंने कभी कुछ नहीं बताया।।

जब तक उनकी भाभी रही, उनके लिए खाना बनाती रही, उनके देहांत के बाद उन्हें एक खाना बनाने वाली रखनी पड़ी, ताकि सुबह शाम उनको घर का खाना मिल सके।

उनकी दिनचर्या सुबह जल्दी शुरू हो जाती थी, नहा धोकर वे सराफा जाकर जलेबी पोहे नहीं खाते थे, अहिल्या केंद्रीय लाइब्रेरी में सुबह सुबह अखबारों का नाश्ता करते थे। अग्निबाण से लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया तक वे आसानी से पचा जाते। शहर की सनसनी घटनाओं में भी उनकी विशेष रुचि रहती थी।।

बौद्धिक कलेवे के बाद वे कॉफी हाउस आते थे, जहां कॉफी के साथ कुछ स्नैक्स और अन्य नियमित मित्रों के साथ चटपटा वार्तालाप उनकी दिनचर्या का अंग था। पश्चात् घर जाकर भोजन और बैंक के लिए रवानगी।

हमारी उनकी शामें अक्सर साथ साथ गुजरती। कभी एवरफ्रेश तो कभी जेलरोड के एटलस टेलर के यहां उन्हें नियमित देखा जा सकता था। तब हम लोगों की शाम अक्सर मित्रों के नाम ही होती थी। वैसे भी हम जैसे टी-टोटलर्स के लिए कॉफी हाउस ही पर्याप्त था।।

वर्मा जी जितना पढ़ते थे, उसके कई गुना अधिक बोलने की क्षमता रखते थे। उनकी धाराप्रवाह शैली उन्हें आत्म विश्वास प्रदान करती थी। वे सदा सत्ता से असहमत रहते थे, इसलिए असंतुष्ट रहते थे। उनकी भाषा असंयमित हो सकती थी, लेकिन अभद्र और अश्लील कभी नहीं। अत्यधिक आवेश में भी उनके मुंह से कभी कोई गाली नहीं फूटी।

वे कभी विचलित अथवा बोर नहीं होते थे। एक पुरानी तारीख के अखबार के सहारे वे आधा घंटा आराम से निकाल लेते थे। उन्हें किताबें खरीदने का अधिक और पढ़ने का शौक कम था फिर भी वे बहुत हद तक अपने आपको अपडेट रखते थे।।

वे कभी बहस में हार नहीं मानते थे। अपनी गलती पर अड़े रहना और सामने वाले को मैदान छोड़ने पर मजबूर करना उनकी विशेषता थी। कभी कभी उनके अनर्गल प्रलाप से शांति भंग होने का अंदेशा भी होता था, लेकिन मध्यस्थ सब शांत कर देते थे।

पहले उन्हें दिल की बीमारी लगी और बाद में शुगर की। अधिक शुगर के कारण एक घाव ठीक नहीं हो पाया, और पूरे शरीर में जहर फैल गया। उधर खाना बनाने वाली महिला, पहले उनकी परिचारिका बनी और बाद में दत्तक पुत्री बन, पूरे मकान की मालकिन। विवाह ना करने के बावजूद भी उनका अंतिम समय विवादों और तनाव में ही गुजरा।।

आज फेसबुक खोलने से पहले ही सपने में उनका मुस्कुराता फेसमुख नजर आ गया और बीती बातें याद आ गई। मैने अपना मित्र नहीं अपने परिवार का एक सदस्य खोया। तब से अपने राम अकेले हैं, सारथी जो साथ छोड़ गया …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

श्री सुधीरओखदे  

परिचय

जन्म – 21 दिसम्बर 1961 (बीना मध्य प्रदेश)

शिक्षा – कला स्नातक – (B.A.), 2- पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान स्नातक – (B.Lib.I.sc) रीवा ,शहडोल और छतरपुर मध्य प्रदेश में …..

लेखन –सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य ,आलोचना , कवितायें और संस्मरण प्रकाशित .

प्रकाशित पुस्तकें – (व्यंग्य) 1-बुज़दिल कहीं के …2-राजा उदास है 3-सड़क अभी दूर है 4-गणतंत्र सिसक रहा है

विशेष – (1) मुंबई विश्वविद्यालय के B.A. (प्रथम वर्ष) में 2013 से 2017 तक “प्रतिभा शोध निकेतन “व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में समाविष्ट (2) अमरावती विश्वविद्यालय के B.Com (प्रथम वर्ष) में 2017 से “खिलती धूप और बढ़ता भाईचारा”व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में शामिल .

 

  • सुधीर ओखदे की अनेक रचनाओं का मराठी और गुजराती में उस भाषा के तज्ञ लेखकों द्वारा भाषांतर प्रकाशित
  • इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी सहित अनेक साहित्य वार्षिकी और महाराष्ट्र में प्रसिद्ध दीपावली अंकों में रचनाओं का प्रकाशन
  • आकाशवाणी के लिए अनेक हास्य झलकियों का लेखन जो “मनवा उठत हिलोर“और “मुसीबत है “शीर्षक तहत प्रसारित

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई

☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ ☆

☆ “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीर ओखदे

देखते देखते दुनिया कितनी बदल गई, परिवार टूटने लगे, एक ही घर में कितनी दीवार खड़ी हो गईं. आवभगत, प्रेम स्नेह, अपनापन कितने पराये हो गए, आपसी भाईचारा, त्याग बलिदान और रिश्तों को निभाने की परंपरा गायब होने लगी, ऐसे समय रह रहकर झांसी वाली मामी अक्सर याद आतीं हैं. उस समय तो ख़याल भी नहीं आता था कि ये अति साधारण सी दिखने वाली मामी अपने कर्तव्यों को ले कर कितनी सजग है. आज जब सोचता हूँ तो महसूस करता हूँ कि मेरी छोटी मामी न सिर्फ़ एक अच्छी इंसान थी अपितु वो अपने परिवार को ले कर कितनी समर्पित भी थी. अपने ससुराल पक्ष को ले कर उचित आवभगत. प्रेम अपनापन, प्यार स्नेह और साथ में जहाँ कठोर हो कर संस्कार लगाने हैं वहाँ उतनी ही कड़क भी. आज जहाँ किसी के घर २-३ दिन मेहमान बन कर जाने के पहले सोच विचार करना पड़ता है वहीं हमारी मामी अपनी ४ ननदों और उनके कुल १०-११ बच्चों की गरमी की छुट्टियों में पूरी तैयारी के साथ उत्साह से प्रतीक्षा करती थी. और कोई एक दो दिन के लिए नहीं अच्छे १५-२० दिनो के लिए.

क्या होता है अपने घर में एक साथ १५-२० लोगों का रहना खाना पीना और घूमना फिरना सैर सपाटा सब कुछ. कैसे करते होंगे उस सीमित तनख़्वाह में मामा मामी सबका इतने प्यार से. मामी का पूरा नाम था “ कुमुद रामकृष्ण देसाई “. लेकिन हम सब उन्हें “ छोटी मामी “ नाम से ही सम्बोधित करते थे.

मेरे दो मामा थे. बड़े मामा मुंबई  में तो छोटे मामा झाँसी में रहते थे. मुंबई वाले मामा मामी दूर रहते थे. मुंबई यूँ भी हम सब को अपनी पहुँच से दूर लगती थी. ऊपर से कोई विशेष लगाव भी नहीं था. जब मुंबई वाले मामा मामी हम लोगों के घर आते तो बड़े प्यार से मिलते लेकिन पता नही क्यों एक औपचारिक सा वातावरण था वहाँ. मुंबई में जगह की समस्या शायद इसके पीछे एक कारण हो सकता है.

हम सब मौसेरे भाई बहन हर गरमी की छुट्टियों में झाँसी भागते थे जहाँ हमारी प्रिय छोटी मामी रहती थी. वो घर में ही एक छोटा सा स्कूल चलाती थी जिसमें मुझे याद आता है क़रीब २०-२२ बच्चे पढ़ने आते थे. स्कूल जाने के पूर्व बालवाड़ी या नर्सरी होती है न ? बस वैसी ही एक कमरे की स्कूल. लेकिन आप को बताऊँ झाँसी के “नरसिंह राव टोरिया” इलाक़े में मामी के स्कूल की धूम थी. बहुत मेहनत ले कर उस इलाक़े के सारे ग़रीब बच्चों को शिक्षा देने का अद्भुत कार्य मामी सन १९७०-७१ के दौर में करती थी. वह उस ज़माने की ग्रैजूएट थी और महाराष्ट्र के नागपुर की थी लेकिन झाँसी में बसने के बाद पूरी तरह से उसने अपने आप को बुंदेलखंड के परिवेश में ढाल लिया था. वो बच्चों से बुंदेलखंडी भाषा में बात करती थी.

उसके स्कूल की लोकप्रियता से प्रभावित हो कर शिक्षा विभाग की तरफ़ से उसके स्कूल को मान्यता देने की बात भी हुई थी ऐसा मुझे याद है, लेकिन मामी ने बड़ी विनम्रता से इस पेशकश को ना कहा था.

दरअसल मामा को ये स्कूल तकलीफ़ देती थी. उन दोनो में इस बात को ले कर तकरार भी होती थी लेकिन जीत हमेशा मामी की होती थी. मुझे याद है नीचे बच्चे अपने पंचम स्वर में कविता पाठ करते थे और ऊपर मामा उनसे भी तेज़ आवाज़ में पूजा करते करते श्लोक पढ़ते थे, मंत्रोचार करते थे. इस जुगलबंदी पर हम बच्चों को ख़ूब मज़ा आता था.

मामा रेलवे में थे और उन्हें बीच बीच में दौरों पर भी जाना पड़ता था सो घर परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी मामी के सर पर. लेकिन मैंने कभी मामी को त्रस्त नहीं देखा. सुबह उठ कर स्कूल से निपट कर हम सब का मन पसंद खाना बना कर दोपहर में हम सब के साथ पत्तों की बाज़ी में मामी फिर साथ. शाम को जब हम सब घूमने निकलते तो चुपके से उनकी बड़ी बेटी प्रतिभा दीदी के हाथ सब के चाटपकोड़ी के पैसे देती मामी मुझे आज भी स्मरण में हैं.

छोटे मामा जानते थे कि उनका काउंटरपार्ट इतना मज़बूत है इसलिए हम सब बच्चों की ज़िम्मेदारी मामी पे ही रहती थी. हम लोगों को वापस जाते समय क्या उपहार देना है से ले कर वहाँ रहने के दौरान क्या क्या ख़ातिरदारी करनी है तक सब. . . . हम सब बच्चों की फ़ौज नयी नयी फ़िल्में भी देखती थी. गीत गाता चल, साँच को आँच नहीं, दुल्हन वही जो पिया मन भाए. . ये सब उसी दौरान देखी हुई फ़िल्में हैं और आज भी रोमांचित करती हैं.

आज जब उन सब बातों को स्मरण करता हूँ तो मुझे मामी बहुत महान प्रतीत होती है. सीमित तनख़्वाह में इतना सब कुछ.

वो अपने बच्चों का हक़ मार कर शायद ये सब हम लोगों के लिए करती होगी. लेकिन उन दिनो इन बातों की परवाह भी कौन करता था. बहनें, भाई के घर बच्चों को ले कर जाना अपना हक़ समझती थीं और भाई इसे अपना कर्तव्य. हाँ लेकिन सुखद छुट्टी तो तभी लोगों की बीतती होगी जहाँ मामी हमारी मामी सी हो.

कहते है बुआ मौसी तो अपनी होती हैं लेकिन मामी चाची बाहर से आती हैं. मैं दोनो ही मामलों में भाग्यशाली निकला. मुझे मामी और चाची दोनो अच्छी मिलीं.

आज इतने वर्षों बाद भी जब झाँसी में बिताये बचपन के दिन याद आते हैं तो साथ ही याद आते हैं. चिवडा लड्डू और नानखटाई से भरे वे डब्बे जो हम बच्चों के नाश्ते और आते जाते खाने के लिए मामी बना कर रखती थी.

आज के बच्चों को न ऐसा ननिहाल मिलता होगा न इतना प्यार करने वाली मामी. आज वो हमारे बीच नहीं हैं पर हमेशा श्रद्धा से याद आती हैं.

(चित्र एवं परिचय – सोशल मीडिया से साभार)

श्री सुधीर ओखदे 

सेवानिवृत्त अधिकारी, आकाशवाणी, जलगांव

सम्पर्क –33, F/3 वैभवी अपार्टमेंट व्यंकटेश कॉलनी, -साने गुरुजी कॉलनी परिसर जलगाँव (महाराष्ट्र) 425002

ईमेल -ssokhade@gmail.com

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ ☆ दस्तावेज़ # 2 – मारिशस से ~ मेरा एक संस्मरण – अविस्मरणीय नौका विहार — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के चुनिन्दा साहित्य को हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करते रहते हैं। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं।

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है मारिशस से श्री रामदेव धुरंधर जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “नौका विहार”।) 

☆ दस्तावेज़ # 2 – मारिशस से ~ मेरा एक संस्मरण — अविस्मरणीय नौका विहार — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆ 

(इस दस्तावेज़ में श्री रामदेव धुरंधर जी की मारिशस में आयोजित “विश्व हिन्दी सम्मेलन 1976” में  डा. शिवमंगल सिंह सुमन जी, हजारीप्रसाद द्विवेदी जी,  उपेन्द्रनाथ अश्क जी, अमृतलाल नागर जी, विष्णु प्रभाकर जी और डा. रमानाथ  त्रिपाठी जी से संबन्धित अविस्मरणीय ऐतिहासिक यादें जुड़ी हुई हैं) 

‘नौका विहार’ शीर्षक से मेरा यह संस्मरण मॉरिशस में आयोजित [सन् 1976] विश्व हिन्दी सम्मेलन से संबद्ध है। 

सुबह का वक्त था। ड्राइवर वैन चला रहा था। हम पूर्वी प्रांत में पड़ने वाले पंच सितारा ‘त्रू ओ बिश होटल’ के लिए जा रहे थे। मैंने उस होटल में ठहरे हुए डा. शिवमंगल सिंह सुमन जी से कहा था सुबह वाहन ले कर होटल पहुँच जाऊँगा। उन्हें घुमाने ले जाने की मेरी सरकारी ड्यूटी थी। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी भी उसी होटल में थे। इन दोनों के साथ होना मेरे मन के अनुकूल था। वहाँ और भी तीन भारतीय थे जो साथ में होते। अगला दिन भी मेरे लिए एक शानदार दिन होता। उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर और डा. रमानाथ  त्रिपाठी जी को इन्हीं की तरह सैर के लिए ले जाना था। ये चारों किसी और होटल में ठहरे हुए थे। मैंने अमृतलाल नागर जी से बात कर ली थी। मैं उन्हें ‘परी तालाब’ की ओर ले जाने वाला था। वे लेखक थे। मैं परी तालाब की कहानी उन्हें सुनाता। उधर बहुत जंगल पड़ने से वातावरण शांत रहता है। पर आज जब उस दिन की बात लिख रहा हूँ इस जमाने में परी तालाब का नाम परिवर्तित हो गया है। लगभग तीस साल हुए परी तालाब का परिवर्तित नाम अब ‘गंगा तालाब’ है। 

हजारीप्रसाद द्विवेदी और शिवमंगलसिह सुमन जी से संबंधित संस्मरण में आगे बढ़ने से पहले मैं यहाँ एक विशेष बात लिखने के लिए अपने को बहुत ही उत्सुक पा रहा हूँ। वह बात इस तरह से है हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने एक दिन पहले सम्मेलन में एक सत्र की अध्यक्षता की थी। बोलने में वे विस्मयकारी थे। मैं अपने दिल की बात कह रहा हूँ। उन्हें सुनना मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य था। भारतीय टोली की अध्यक्षता राजनेता करण सिंह जी ने की थी। उनके परिचय में लिखा हुआ पढ़ कर मैंने जाना था वे जम्मू और कश्मीर के महाराजा थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी जब बोलने के लिए खड़े हुए थे श्रोता के रूप में सामने बैठे हुए करण सिंह जी ने जा कर उनके चरण स्पर्श किये थे।

हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था वे समझना चाहते हैं हिन्दी में इतने कवि कहाँ से निकलते चले आ रहे हैं।

आज मुझे लगता है महान गद्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने यह व्यंग्य में कहा था और लोगों ने व्यंग्य मान कर ही तालियाँ बजायी थीं। अब जो खालिस कवि हों और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की परिभाषा से कहीं से निकलते चले आ रहें हों तो उस वक्त सब के बीच होने से जरूर बगलें झाँक रहे हों। भारतीय कवियों की बात तो मैं न जानता। अलबत्ता अपने देश के कवियों को मैं जानता था। उन दिनों मॉरिशस में सचमुच ऐसी स्थिति बन आयी थी काव्यकारी के जोश में मानो वाकई कवि कहीं से निकलते चले आ रहे हों।

हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का भाषण मौखिक था। वह टेप कर लिया गया था। बाद में वह गगनांचल में प्रकाशित हुआ था। पढ़ने पर मुझे लगा था उनका बोला स्वयं में एक उत्कृष्ट साहित्य था।

त्रू ओ बिश होटल पहुँचने पर ड्राइवर ने वैन पार्किग में खड़ा किया। होटल के गेट पर मेरा नाम लिखा गया। गॉर्ड को पता था मैं आने वाला हूँ। मंत्रालय की ओर से वहाँ सूचना पहुँचा दी गयी थी। इसका मतलब था मैं सरकारी नियम में बंधा हुआ था। मुझे जो करना होता मेरे ध्यान में रहता नियम का उल्लंघन न हो। पर यहाँ जो होना था वह नियम पर मानो प्रहार जैसा होता। इसका खुलासा मैं नीचे की पँक्तियों में करने वाला हूँ। रिशेप्शन में अपना नाम कहने से मुझे ठहरने के लिए कहा गया। सुमन जी को फोन से सूचना पहुँची। थोड़ी देर बाद मैंने देखा सुमन जी झपटते चले आ रहे थे। उनके आते ही मैंने उनके चरण स्पर्श किये। वे जिंदादिल इंसान थे। मुझसे मित्रवत मिले। उन्होंने कहा अच्छा हुआ मैं पहुँच गया। पर आज सुबह उन लोगों के बीच योजना बनी थी होटल की ही सरपरस्ती में उनके लिए नौका विहार का आयोजन हो। सुमन जी मेरे लिए एक कागज लिख कर रिशेप्शन में छोड़ देते वे कहीं और के लिए निकल गए हैं। उन दिनों मोबाइल जैसी सुविधा तो थी नहीं। स्थायी फोन से भी संपर्क करना कठिन ही होता। अब जब मैं पहुँच गया तो वे मौखिक मुझे समझा रहे थे आज की उनकी योजना कैसी बनी है। सुमन जी मेरी ओर से आश्वस्त थे। वे कह रहे थे मैं हालत समझ जाने पर उन्हें अन्यथा न लेता। मॉरिशस में दो चार दिनों के अपने प्रवास का अपने तरीके से लाभ उठाना इन लोगों को आवश्यक भी तो लगता।

अब जब नौका विहार के लिए उनके निकलने से पहले मैं पहुँच गया और मुलाकात हो गयी तो मेरे लिए यही शेष रहता ड्राइवर और मैं वैन में लौट जाते। मंत्रालय लौटने पर हम कह देते उन लोगों ने आज का अपना कार्यक्रम अपने तरीके से बना लिया है। पर सुमन जी ने मेरे साथ एक दूसरी बात की। उन्होंने मुझसे कहा जा कर ड्राइवर से कह दूँ यहीं कुछ घंटों के लिए तुम्हारा इंतजार करे। तुम नौका विहार में हमारे साथ जा रहे हो।

यह तो मेरे लिए काफी कठिन परिस्थिति हुई। यह मेरी ड्यूटी का हिस्सा नहीं था। मैंने मंत्रालय से वाहन लिया था तो वहाँ लिखित पड़ा हुआ था मैं कहाँ – कहाँ उन लोगों को ले कर जाने वाला हूँ। अब मान लें वैन यहीं रहे और मैं ड्राइवर से बात करूँ तो वह मान जाये। पर दिशांतर तो हो रहा था। थल की अपेक्षा अब हम जल में होते। वे स्वयं जाते और मैं उनके साथ न होता तो जिम्मेदारी उनकी अपनी होती।

पर अब मैं सरकारी आदमी दिशांतरता के कारण समुद्र में होता और कुछ हो जाता तो मेरी खैर नहीं। मेरा इतना बड़ा धर्म संकट बन आने से मैं यह सब सुमन जी से नहीं कहता। मैंने उनसे दोबारा यही कहा आप लोग जायें और मैं वापस चला जाता हूँ। पर उन्होंने तो इस बार भी नहीं माना। तब तो मैं अब मानो हिल डुल पाता ही नहीं। इतने बड़े आदमी से कितनी बार इन्कार का रुख दिखाता। मैंने जैसे तैसे उन्हें मान लिया और ड्राइवर को कहने चल दिया। मुझे सुनने पर ड्राइवर नाराज हुआ। उसकी नाराजगी सही थी। उसने मेरे सामने योजना रखी लौट चलते हैं। मैं भी तो लौटने की ही सोच रहा था। पर इस समाधान में रोड़ापन था। हम लौट जाते और वहाँ नाव में छेद हो जाता तो हमारे पास कौन सा उत्तर होता। चलें हम कह देते हमारे पहुँचने से पहले वे निकल चुके थे और हमें वापस होना पड़ा। यह हमारी निष्कलंकता तो हो जाती लेकिन मेरा मन नहीं माना।

वास्तव में यह कितना बड़ा फरेब होता सुमन जी के कहने पर मैं ड्राइवर से मिलने आया और लौट कर उनके पास गया नहीं। क्या मेरे लौटने का वे इंतजार न करते? अब जो भी हो मेरे मन में यही आया कम से कम मैं सुमन जी से धोखा नहीं कर सकता। मैं किसी तरह ड्राइवर को समझा बुझा कर होटल की ओर लौट गया।  

अब तक नौका विहार के लिए जाने की तैयारी हो चुकी थी। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी तो मेरे खूब पहचाने हो गये थे। बाकी तीन मेरे लिए लगभग अनजान ही थे। सुमन जी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी जी से कहा धुरंधर भी हमारे साथ चल रहे हैं। अजीब ही था मानो समुद्र में चलना था। मेरा गणित गड़बड़ा जाने से मैं शायद दिमाग से बहुत ही डँवाडोल होने लगा था। पर उन्हें मेरी आंतरिक दशा कहाँ मालूम होती। मैं साथ जाता तो हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इसके लिए खुशी जतायी। बाकी तीनों ने सिर हिला कर कहा तब तो अच्छी बात है।

नौका ले जाने वाला क्रृओल था। वह समझ तो गया था मैं बाहरी आदमी हूँ। बल्कि देशी आदमी हूँ और उन लोगों से मिलने आया हूँ। उनके साथ मेरे जाने की बात हो रही थी तो मामला यहाँ कुछ उलझा। नौका चालक ने कृओल में मुझसे कहा मेरे लिए अतिरिक्त पैसा लगेगा। यही नहीं नौका चालक ने अब सीधे मेहमानों से अंग्रेजी में बात की। उसने नम्रता से ही कहा मेरे होने से पैसा अधिक लगेगा। उसने अपनी मजबूरी इस रूप में दिखायी वह तो कर्मचारी है। पैसा होटल के खाते में जायेगा। उससे इतना सुनते ही सुमन जी ने कहा उनके खाते में जोड़ दे। अब मुझे पता चला नौका विहार का पूरा खर्च सुमन जी वहन कर रहे थे। यह मेरे हौसले के लिए बहुत था। चलें अब मैं अपना गणित इस तरह से बनाता मैं सुमन जी का मेहमान था और वे मेरे नाम का खर्च चुकाना मान रहे थे। दो घंटे के लिए नौका विहार था। एक घंटे के लिए नौका जाती और एक घंटा उसके लौटने के लिए होता। 

प्रकांड विद्वान हजारीप्रसाद द्विवेदी जी उस वक्त मानो सब के समकक्ष थे। दूसरे बोलें तो वे भी बोलते। उनकी विराटता मानो एक तरह से लुप्तप्राय थी। यह मेरे लिए अच्छा ही था। अन्यथा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी से प्रत्यक्ष बोलने से शायद मेरे मन में कंपन होता। हाँ घुमाने के लिए उन्हें ले जा रहा होता तो मेरी भाषा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के साथ कहीं ज्यादा मुखर होती। वे मॉरिशस के बारे में मुझसे कुछ भी पूछ लेते मेरे पास जवाब तैयार रहता। मानो वहाँ मेरे मन की गंगा खूब अठखेलियों में मस्त होती जब कि यहाँ परिस्थितिवश मेरे मन की गंगा ऐसे सो रही होती कि उसकी मदमस्त मौजों के एक कतरे का आभास ही न होता हो।

नौका चली और मैंने बस अपने भगवान से कहा उबड़ खाबड़ न हो भगवन ! वास्तव में ये लोग अपने देश के नगीने हैं। मैं भी तो अपने देश में छोटा मोटा नगीना ही हूँ। पर किसी कारणवश नौकरी जाये तो कुत्ता भी हाल चाल न पूछे।  

यहाँ तक मैंने जो लिखा यह मेरे संस्मरण का एक अंश है। इस अंश से मेरे संस्मरण में इतना ही हो रहा है एक संशय में घिरा हुआ हूँ मानो मेरी बेचारगी का वह एक बहुत बड़ा पक्ष हो। इतनी सी ही बात होती तो मैं यह संस्मरण लिखता नहीं। पर बात इससे आगे और भी है। उसी से मेरा यह संस्मरण अपना वजूद पा सकता था। 

नाव में नीचे शीशा लगा हुआ था। शीशे का करिश्मा ऐसा था कि छोटी मछलियाँ बड़ी दिखाई देती थीं। इस करिश्मे को न जानें तो वहम हो पड़े नीचे विचरने वाली विशालकाय मछलियाँ तो नाव को उलाट ही देंगी। मछलियाँ नाव से टकराती भी थीं। यह समुद्री इलाका ऐसा है जहाँ समुद्र में नीचे मानो विस्मयकारी प्रवाल बिछे हुए हैं। प्रवाल के ऐसे – ऐसे आकार थे मानो मनुष्य हों या भीमकाय जानवर हों। प्रागैतिहासिक दृश्यों का भी मानो आभास हो रहा हो। वह समुद्र के निचले तल का मानो एक विचित्र संसार हो। पर इतना तय था मगरमच्छ नहीं थे। बीच – बीच में प्रवाल से जहाँ – जहाँ जगह बचती हो उन्हीं के बीच मछलियाँ तैरती दिखाई दे रही थीं। मछलियाँ रंग बिरंगी थीं।

विशेष कर सुमन जी प्रवाल और मछलियों को अपने पैरों के नीचे शीशे में देखने पर तो उछल ही पड़ते थे। वे कहते थे यह देखो वह देखो। उनकी आवाज में मानो बड़ा ही भोलापन था। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने सहसा उनसे कहा यह तो हम देखते रहेंगे। अब तुम अपनी आवाज से हमें कुछ दिखाओ। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की फरमाइश थी वे ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता का पाठ करें। यह तो सुमन जी के अनुकूल ही था। बल्कि उन्होंने मानो संकेत ठोंक दिया था वे यह काव्य सुनाएँगे। सुमन जी अब सहसा गंभीर हो गये थे। उन्होंने अपना हाथ नाव से बाहर सरसरा कर अपनी अंजुरी में पानी भर लिया था। उन्होंने अब पानी को समुद्र में बहा दिया। स्पष्ट प्रतीत हो रहा था वे कविता सुनाने की भावना से ओत प्रोत हो गये थे।

उन्होंने सहसा मुझसे कहा था मॉरिशस के लोगों ने जरूर महाकवि निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता पढ़ी होगी। बड़ी अद्भुत कृति है।

कहने की मेरी बारी होने से मैं विनम्रतापूर्वक कहता। मुझे कहीं पढ़ने को मिला था सुमन जी ने ‘राम की शक्ति पूजा’ आद्यंत कंठस्थ कर रखा है। मैंने यह कहा तो सुमन जी चौंक पड़े और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी तो तालियाँ बजाने लगे। मैंने उत्तर में कहा यह काव्य यहाँ प्रचलित है। मैंने अपने उदाहरण से कहा यह काव्य यहाँ एक पाठ्यक्रम में संलग्न है। इन दिनों मैं अपने विद्यार्थियों को यह पढ़ा रहा हूँ। पर मैं स्वीकार करता हूँ मैं आधा ही समझ पाता हूँ और वही अपने विद्यार्थियों को समझाने का प्रयास करता हूँ।

अब एक तरह से तो मैदान मेरे हवाले हो गया। सुमन जी ने कह दिया वे यह काव्य अपने कंठ से मुझे समर्पित कर रहे हैं। यह मेरे लिए अद्भुत चमत्कार था। वे सुनाने की प्रक्रिया में उसमें खो जाते थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी बहुत सी पँक्तियों में उनका साथ दे रहे थे।

उन दिनों मेरी उम्र तीस थी और लेखन में तो मैं बस कच्चा ही था। पर लेखन की मेरी भावना प्रबल होने से मुझे लगता है मेरा मार्ग ऐसा बन जाता था भारत के बड़े रचनाकारों से तो मुझे मिलना ही है। 

***
© श्री रामदेव धुरंधर

16 – 11 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरियाके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया

☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ ☆

☆ “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

शांत, सौम्य, स्थिर चित्त, दिव्य आभा से युक्त श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया के मुख से सदा ही अपने हम उम्र लोगों के लिए शुभकामनाएं और छोटों के लिए आशीर्वचन ही निकलते थे। मुस्कान के साथ उनके मातृत्व भाव से हर व्यक्ति उनके प्रति श्रद्धा से भर उठता था। यों जबलपुर के अधिकतर लोग उन्हें  भाभी जी कहकर संबोधित करते थे किंतु मेरे पिता स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव उन्हें बहिन जी कहते थे अतः मैंने उन्हें सदा बुआ जी ही कहा। श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लगभग 15 वर्ष पूर्व उनका देवलोक गमन हो गया किंतु अपने विचारों, साहित्य, कला, संस्कृति और महिलाओं के विकास और शिक्षा के लिए  किए गए कार्यों के कारण वे आज भी जन मानस में जीवित हैं।

आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक, कथक नृत्य में पारंगत श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया का मायका देहरादून का था। संगीत नृत्य, साहित्य, संस्कृति सहित खेलकूद में बैडमिंटन, वालीबॉल में उनकी विशेष रुचि थी। उन्होंने बंगला साहित्य का विषद अध्ययन किया था। 1953 में चंद्रप्रभा जी का विवाह जबलपुर के श्री सुशील कुमार पटेरिया से हुआ। सुशील कुमार जी उस समय भारत की प्रथम लोकसभा के सबसे युवा लोकप्रिय सांसद थे। चंद्रप्रभा जी को पति का लम्बा साथ नहीं मिला। 17 फरवरी  1953 में उनका विवाह हुआ और 3 अक्टूबर 1961 को अस्वस्थता के कारण उनके पति सुशील कुमार जी का निधन हो गया। पति के न रहने पर चंद्रप्रभा जी ने साहस के साथ स्वयं को संभाला और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के संकल्प के साथ समाजसेवा में जुट गईं। उन्होंने अपनी सेवा का केंद्र महिलाओं को बनाकर उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिति को सुधारना और उन्हें स्वावलंबी बनाना अपना लक्ष्य रखा। उनकी समर्पित सेवा भावना ने शीघ्र ही उन्हें जन जन का प्रिय बना दिया। विविध कार्यों और अनुभवों से प्राप्त परिपक्वता के कारण लोगों को दिए उनके सुझाव व सलाह सदा कारगर होते थे।

खेलों में रुचि के  कारण उन्होंने मध्यप्रदेश महिला हॉकी एसोसिएशन का अध्यक्ष पद स्वीकार किया। हॉकी एसोसिएशन के उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में मध्यप्रदेश ने देश को अनेक सुयोग्य महिला हॉकी खिलाड़ी दिये। अच्छे कार्यों के लिए लोगों और संस्थाओं को उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग देने वाली चंद्रप्रभा जी अखिल भारतीय महिला परिषद, गुंजन कला सदन, शहीद स्मारक ट्रस्ट, प्रेमानंद आश्रम आदि अनेक संस्थाओं से सक्रियता पूर्वक  जुड़ी रहीं। भारत कृषक समाज में रहते हुए उन्होंने किसानों के लिए तथा प्रदेश की प्राचीनतम  शिक्षण संस्था हितकारिणी सभा के विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने नई पीढ़ी को सुशिक्षित करने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। जब महिलाओं का सामाजिक क्षेत्र अति सीमित हुआ करता था तब श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी ने कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होकर महिलाओं के लिए राजनैतिक क्षेत्र के द्वार भी खोले।

अब वे हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनकी पुत्र वधू श्रीमती सुनयना पटेरिया उनके कार्यों को आगे बढ़ा रही हैं। पटेरिया परिवार सहित नगर की अनेक संस्थाएं प्रति वर्ष 5 अक्तूबर को श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी की जयंती पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए समाज के लिए उनके योगदान को स्मरण करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जबलपुर नगर को पुनः श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जैसी नेत्री मिले।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 1 – स्व. शेरदा जी और उनकी विरासत (Late SherDa – Sher Singh Bisht ji and his heritage) ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में पहला दस्तावेज़  “स्व. शेरदा जी और उनकी विरासत”।)

☆  दस्तावेज़ – स्व. शेरदा जी  (स्व. शेर सिंह बिष्ट जी) और उनकी विरासत ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

नौला गाँव, रानीखेत के पास पहाड़ों में बसा एक सुरम्य गाँव है जहाँ रामगंगा नदी बहती है। इस गांव के एक तरफ भिक्यासैंण और भतरौंजखान हैं तो दूसरी तरफ मासी और चौखुटिया। दूनागिरी और मानिला देवी के मंदिर भी पास ही हैं। यहां शेरदा का जन्म प्रथम विश्व युद्ध के आसपास हुआ। उनके पिता, नरपत सिंह, जिन्हें वे बाज्यू पुकारते थे, एक साधारण किसान थे, जो इस खूबसूरत परन्तु दूरस्थ गाँव के लगभग एक दर्जन परिवारों में से एक थे। पहाड़ों की सादगी और सुंदरता के बीच बड़े होते हुए, शेरदा का जीवन कृषि और ग्रामीण परंपराओं का अनुसरण करने के लिए निर्धारित लगता था। परन्तु शेरदा ने ऐसा जीवन जिया जिसने न केवल उनका भविष्य बदला बल्कि उनके परिवार और समुदाय की समृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया।

बचपन में, शेरदा ने स्थानीय विद्यालय में विज्ञान और गणित में असाधारण योग्यता दिखाई। परन्तु उनके जीवन ने तब एक नाटकीय मोड़ लिया जब उनके माता-पिता का कम उम्र में निधन हो गया। युवा अवस्था में ही उन्होंने किसान के रूप में जिम्मेदारी संभाल ली, खेतों में काम करते हुए अपनी बड़ी बहन, जिन्हें सब दीदी कहते थे, और दो छोटे भाइयों, बागुआ और रूपी के संरक्षक बन गए। त्याग और कर्तव्य के इन प्रारंभिक वर्षों ने उनमें गहन संकल्प और उद्देश्य की भावना को स्थापित किया। उन्होंने अपने परिवार का पालन-पोषण करने और अपने भाइयों को प्यार और मार्गदर्शन देने के लिए अथक परिश्रम किया। बागुआ, बाग सिंह, ज़्यादातर गांव में ही रहे और नौला और आसपास के गांवों के सरपंच चुने गए।

जब उनके भाई बड़े हुए, तो शेरदा ने बेहतर भविष्य की तलाश में गाँव छोड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क होते हुए, रामगंगा नदी के किनारे किनारे, पैदल चलते हुए, रामनगर तक की कठिन यात्रा तय की और फिर दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने भंडारी की स्वामित्व वाली एक जानीमानी निर्माण कंपनी में काम पाया, जहाँ उनकी मेहनत और ईमानदारी ने सरदार का विश्वास अर्जित किया। उनका व्यक्तिगत सहायक बनने के बाद, शेरदा ने लाहौर, कलकत्ता, बंबई और जबलपुर की यात्राएँ कीं और शहरी जीवन और उद्योग की जानकारी प्राप्त की।

युवावस्था में, दिल्ली में रहते हुए, वे महात्मा गांधी से प्रेरित हुए और आजीवन खादी धारण करने और नंगे पांव चलने का संकल्प लिया। कई बार वे बताते थे कि किस प्रकार 14 और 15 अगस्त, 1947 की दरमियानी रात को, रात भर संसद भवन के सामने अपार भीड़ में शामिल होकर, जोशपूर्वक आज़ादी का जश्न मनाते रहे।

जबलपुर में, शेरदा ने एक छोटी कैंटीन चलाने का अवसर देखा, जो उनके उद्यमशीलता के सफर की शुरुआत थी। दृढ़ संकल्प और दूरदर्शिता के साथ, उन्होंने अपना व्यवसाय बढ़ाया और खमरिया में आयुध निर्माणी के क्षेत्र में एक बड़ी कैंटीन संचालित करने लगे। उन्होंने अपने छोटे भाई रूपी, रूप सिंह, को सहायता के लिए बुलाया, और एक संपन्न व्यवसाय की नींव रखी, जो उनके विस्तारित परिवार के लिए आर्थिक आधार बना। आगे चलकर, उन्होंने एक साबुन बनाने का कारखाना भी स्थपित किया।

शेरदा का विवाह नंदी देवी से संपन्न हुआ, जो पास ही में, मासी के पार, गाँव बसोली के किसान दीवान सिंह घुघत्याल की पुत्री थी। उनकी पारिवारिक प्रतिबद्धता केवल अपने भाइयों तक सीमित नहीं थी; उन्होंने अपनी पत्नी के भाइयों को भी जीवन में सुव्यवस्थित करने में सहायता की। शेरदा की प्रेरणा एक गहरी जड़ें रखने वाली इच्छा थी कि उनके प्रियजन उन्नति करें। स्वामी विवेकानंद के उन शब्दों से प्रेरित, जिन्होंने कहा था, “वे ही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं,” शेरदा ने अपने परिवार और समुदाय की भलाई के लिए खुद को समर्पित कर दिया।

व्यक्तिगत जीवन में, शेरदा एक धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। वे श्री सत्य साईं बाबा के भक्त बन गए और उनके दर्शन के लिए पुट्टापर्थी की यात्राएँ कीं। उन्होंने कुंभ स्नान और बद्रीनाथ धाम की यात्रा भी की। साधु संतों का वे पूरी श्रद्धा से स्वागत करते थे। शेरदा के लिए अध्यात्म उनकी कड़ी मेहनत, शिक्षा और दूसरों की सेवा के मूल्यों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ था। उन्होंने अपने चार पुत्रों और तीन पुत्रियों को ऐसी शिक्षा और परवरिश प्रदान की, जिसने उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में उन्नति करने का अवसर दिया।

सफल व्यवसाय और पारिवारिक उपलब्धियों के वर्षों के बाद, शेरदा ने अपने प्रिय गाँव नौला लौटने का निर्णय लिया क्योंकि वे अपना अंतिम समय रामगंगा नदी के किनारे बिताना चाहते थे। घर के आंगन में स्थापित दौनीपाथर पर घंटों बैठकर पूजापाठ करते। यह पवित्र पत्थर, जिस पर पूरे गांव की श्रद्धा है, उनके परदादा दूर जंगल से लेकर आए थे। यहाँ उन्होंने एक बार फिर गाँव के जीवन की सादगी को अपनाया, खूब पैदल घूमे – नंगे पांव पैदल चलना उन्हें अत्यंत प्रिय था – और 90 वर्ष से अधिक की आयु में नश्वर देह त्याग दी।

शेरदा की विरासत उनके पुत्रों—जसवंत, जगत, महेंद्र और दान सिंह—और पुत्रियों गोविंदी, लीला और सरस्वती में जीवित है, जो सभी अपने-अपने क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर रहे हैं। शिक्षा और परिवार कल्याण के प्रति उनकी दृष्टि ने न केवल उनके परिवार पर बल्कि पूरे परिवार पर एक स्थायी छाप छोड़ी है। उनके भाई, साले और उनके परिवार सभी स्थिरता और सफलता प्राप्त कर चुके हैं, जो शेरदा की उनकी भलाई के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है।

शेरदा – शेर सिंह बिष्ट – का सम्मान करते हुए, हम एक ऐसे व्यक्ति का उत्सव मनाते हैं, जिसने अपने गाँव के पहाड़ों से परे सपने देखने का साहस किया, अपने परिवार को समृद्धि दी, और शिक्षा, आध्यात्मिकता और समाज की सेवा के गुणों का उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने जीवन के माध्यम से, शेरदा ने हमें दिखाया कि महानता भव्यता में नहीं, बल्कि दूसरों को ऊपर उठाने और अपने से परे एक उद्देश्य के लिए जीने की स्थिर प्रतिबद्धता में निहित है।

 ☆ Late SherDa – Sher Singh Bisht ji and his heritage ☆  

In the serene village of Naula, nestled in the mountains near Ranikhet and cradled by the flowing Ramganga River, SherDa was born around the time of World War I. His Bajyu, father in Kumaoni dialect, Narpat Singh, was a humble farmer descending from the Syontari Bishts, one of the about a dozen households living off the land in this picturesque yet remote village. On one side of the village was Bhikiyasain and Bhatronjkhan; and on the other side was Masi and Chaukhutia. Doonagiri and Manila Devi temples were not far away. Growing up amid the simplicity and beauty of the hills, SherDa’s life seemed destined to follow the rhythm of farming and village traditions. But SherDa would go on to lead a life that not only shaped his own future but uplifted the fortunes of his family and community.

As a child, SherDa attended the local school and showed a rare aptitude for science and arithmetic. However, his life took a dramatic turn with the early loss of his parents. Still a young man, he took on the responsibilities of a farmer, tending to the fields while also becoming the guardian of his elder sister, Didi, and his two younger brothers, Bagua and Rupi. These early years of sacrifice and duty fostered in him a profound resilience and sense of purpose. He worked tirelessly to provide for his family and ensure his siblings grew up with love and guidance. Bagua, Bag Singh, stayed back in the village and was elected as the Sarpanch of Naula and neighbouring villages.

As his brothers reached adulthood, SherDa sought a way to secure a better future. He left Naula and undertook a long, arduous journey through Jim Corbett National Park, reaching Ramnagar on foot, walking along the river Ramganga, and then on to Delhi. Here, he found work with a renowned construction company owned by the Bhandaris, where his diligence and integrity soon earned the Sardar’s trust. Rising to become his personal assistant, SherDa traveled to Lahore, Calcutta, Bombay, and Jabalpur, gaining exposure to urban life and industry. During his youth, he was influenced by Mahatma Gandhi. He wore Khadi and walked barefoot his entire life. He reminisced how he was part of the large crowd that gathered outside parliament on the intervening night of 14th and 15th August, 1947 chanting and celebrating freedom from colonial rule.

In Jabalpur, SherDa seized an opportunity to run a small canteen, which marked the beginning of his entrepreneurial journey. With determination and foresight, he expanded his venture, winning a lease to operate a restaurant in the Ordnance Factory Estate at Khamaria. Recognizing the value of family support, Sherda invited his youngest brother, Rupi, Roop Singh, to assist him, laying the foundation for a prosperous business that would become the economic backbone for his extended family. He diversified to set-up a soap factory in Ranjhi, Jabalpur.

SherDa married Nandi Devi, daughter of Diwan Singh, from the closeby village of Basoli, across Masi, from a family of the Ghugtyals. His commitment to family extended beyond his own siblings; he supported his wife’s brothers, helping the older ones to settle into productive lives and the younger ones to pursue their studies. SherDa’s motivation came from a deep-rooted desire to see his loved ones thrive. Inspired by the teachings of Swami Vivekananda, who once said, “They only live, who live for others,” SherDa dedicated himself to the welfare of his family and community.

In his personal life, SherDa was a man of faith and spiritual wisdom. He became a devout follower of Sri Sathya Sai Baba, making pilgrimages to Puttaparthi for his darshan. He went for pilgrimage to Kumbh Mela in Allahabad and Badrinath Dham in the Himalayas. Spirituality for Sherda was intertwined with his values of hard work, education, and service to others. He provided his own children—four sons and three daughters—with the education and upbringing that would allow them to flourish in their respective fields.

After years of successful business and family achievements, SherdDa decided to return to his beloved motherland Naula, settling along the riverbank in a home he had helped to build during his visits. He sat for long hours praying on the Dauni-pathar, a large slice of stone his great grandfather had brought from the deep forest beyond the hills. It occupies a sacred place of reverence for the entire village. Here, he embraced the simplicity of village life once more, enjoying long walks and living peacefully and devotedly until he passed away in March 2006 at the remarkable age of over 90.

SherDa’s legacy lives on through his children—Jaswant, Jagat, Mahendra, and Dan Singh—and daughters Govindi, Leela, and Saraswati, all of whom are well-settled and prosperous. His vision for education and family welfare has left an enduring mark, not only on his immediate family but on the entire clan. His brothers, brothers-in-law, and their families have all achieved stability and success, a testament to SherDa’s unwavering commitment to their wellbeing.

In honoring SherDa – Sher Singh Bisht – we celebrate a man who dared to dream beyond the mountains of his village, brought prosperity to his family, and exemplified the virtues of education, spirituality, and service to society. Through his life, SherDa showed us that greatness is not found in grand gestures but in the steady dedication to uplifting others and living for a purpose beyond oneself.

🙏💐 स्व. शेरदा जी को सादर नमन 💐🙏

© जगत सिंह बिष्ट

LifeSkills

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The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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