(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन।🕉️
💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आए गए का घर…“।)
अभी अभी # 309 ⇒ आए गए का घर… श्री प्रदीप शर्मा
किसी भी घर की रौनक ही इसी में है, कि वहां मिलने जुलने वाले और रिश्तेदारों का आना जाना बना रहे। किसी घर की घंटी बजना, अथवा घर के सामने जूते चप्पलों का ढेर यह दर्शाता है कि इस घर में काफी चहल पहल है।
वैसे भी घर में खामोशी किसे पसंद है, दीवारें तक कान लगाए सुनती रहती हैं, जिस घर में हमेशा महफिल जमी रहती है।
ऐसे घर को हमारी मां, आए गए का घर कहती थी। जब तक हमारे घर में मां और पिताजी मौजूद रहे, ना तो घर कभी खाली अथवा खामोश रहा और ना ही घर में कभी ताला लगा।।
तब कहां घरों में फोन अथवा मोबाइल थे। कभी कभी तो चिट्ठी के आने के पहले ही मेहमान टपक पड़ते थे लेकिन अधिकतर अतिथि शब्द का मान रखते हुए समय और तारीख बताए बिना ही पधार जाते थे।
पिताजी रात को जब घर आते तो भोजन के वक्त, कोई ना कोई परिचित अवश्य उनके साथ होता। बहन स्कूल से घर आती, तो एक दो सहेलियों को साथ लेकर आती। तब ना तो इतनी मोहल्लों में दूरी थी और ना ही दिलों में। तब शायद सबको प्यास भी बहुत लगती थी, वॉटर बॉटल का तब शायद आविष्कार ही नहीं हुआ था।।
हर तरह की परिस्थिति से घर में तब मां को ही जूझना पड़ता था। अनाज, मसाले और दाल चावल का साल भर का संग्रह जरूरी होता था। मौसम के हिसाब से घरों में एक्सट्रा बिस्तर और रजाई गद्दों की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी। टेंट हाउस की याद तो बस शादी ब्याह के वक्त ही आती थी। किराने और दूध का हिसाब महीने में एक बार करना पड़ता था।
इस तरह की सभी युद्ध स्तर की तैयारियों से सुसज्जित घर ही आए गए का घर कहलाता था। मेहमानों की पसंद का भी पूरा खयाल रखा जाता था। फूफा जी को चावल में घी और शक्कर प्रचुर मात्रा में लगता था और वे पूड़ी ही पसंद करते थे, रोटी नहीं।।
लेकिन यह सब कल की बात है। आज तो मेहमानों के लिए नाश्ता भी बाहर से ही आता है और भोजन भी बाहर होटल में ही किया जाता है। फोन और मोबाइल की सुविधा के बावजूद ना किसी को आने की फुर्सत है और ना ही किसी को बुलाने की।
परिवार छोटे होते जा रहे हैं, घर बड़े होते जा रहे हैं।
छोटे घर में तब कितने सदस्य समा जाते थे, आज आश्चर्य होता है। तब कहां किसी का अटैच बेडरूम और बाथरूम था। घर की महिलाएं अपने कपड़े ताक में रखती थी। आज घरों में सोफ़ा, अलमारी, अपनी अपनी वॉर्डरोब और मॉड्यूलर किचन है, बस खाने वाला कोई नहीं है।।
हंसी आती है, जब धर्मपत्नी पुराने बर्तनों और एक्सट्रा बिस्तरों को आज भी सहेजकर रखती है। वह कहती है, आप नहीं समझते, आए गए के घर में घर घृहस्थी का सभी सामान जरूरी होता है।
बड़ी भोली और घरेलू टाइप की गृहिणी है वह।
अनायास कोई मेहमान आता है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। घर में दावत हो जाती है। लेकिन ऐसे अवसर आजकल कम ही आते हैं। लगता है अपने परिचित कहीं बहुत दूर चले गए हैं, यह दूरी दिलों की है अथवा मजबूरी की, समझ नहीं पाते। कोई आए, जाए, कितना अच्छा लगता है।।
होते हैं कुछ ऐसे खामोश घर, जहां कोई ज्यादा आता जाता नहीं। किसी आहट पर उम्मीद सी बंधती है लेकिन फिर खयाल आता है ;
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता– लंदन से 2 – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 266 ☆
कविता– लंदन से 2 – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर
मोबाईल इस कदर समा गया है जिंदगी में
कैलेंडर कागज के
बदलते कहां हैं अब
साल , दिन ,महीने , तारीखें, समय सब कैद हैं टच स्क्रीन में
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “लिपि की कहानी”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 162 ☆
☆ आलेख – लिपि की कहानी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मुनिया की सुबह तबीयत खराब हो गई। उसने एक प्रार्थनापत्र लिखा। अपनी सहेली के साथ स्कूल भेज दिया। प्रार्थनापत्र में उसने जो लिखा था, उसकी अध्यापिका ने उस प्रार्थनापत्र को उसी रूप में समझ लिया। और मुनिया को स्कूल से छुट्टी मिल गई।
क्या आप बता सकते है कि मुनिया ने प्रार्थनापत्र किस लिपि में लिख कर पहुंचाया था। नहीं जानते हो ? उसने प्रार्थनापत्र देवनागरी लिपि में लिख कर भेजा था।
देवनागरी लिपि उसे कहते हैं, जिसे आप इस वक्त यहाँ पढ़ रहे है। इसी तरह अंग्रेजी अक्षरों के संकेतों के समूहों से मिल कर बने शब्दों को रोमन लिपि कहते हैं।
इस पर राजू ने जानना चाहा, “क्या शुरु से ही इस तरह की लिपियां प्रचलित थीं?”
तब उस की मम्मी ने बताया कि शुरु शुरु में ज्ञान की बातें एक दूसरे को सुना कर बताई जाती थीं। गुरुकुल में गुरु शिष्य को ज्ञान की बातें कंठस्थ करा दिया करते थे। इस तरह अनुभव और ज्ञान की बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती थीं।
मनुष्य निरंतर, विकास करता गया। इसी के साथ उस का अनुभव बढ़ता गया। तब ढेरों ज्ञान की बातें और अनुभव को सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस हुई।
इसी आवश्यकता ने मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के संकेत बनाने के लिए प्रेरित किया। तब प्रत्येक वस्तु को इंगित करने के लिए उस के संकेताक्षर या चिन्ह बनाए गए। इस तरह चित्रसंकेतों की लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि को चित्रलिपि कहा गया।
आज भी विश्व में इस लिपि पर आधारित अनेक भाषाएं प्रचलित हैं। जापान और चीन की लिपि इसका प्रमुख उदाहरण है। शब्दाचित्रों पर आधारित ये लिपियों इसका श्रेष्ठ नमूना भी है।
चित्रलिपि का आशय यह है कि अपने विचारों को चित्र बना कर अभिव्यक्त किया जाए। मगर यह लिपि अपना कार्य सरल ढंग में नहीं कर पायी। क्यों कि एक तो यह लिपि सीखना कठिन था। दूसरा, इसे लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तीसरा, लिखने वाला जो बात कहना चाहता था, वह चित्रलिपि द्वारा वैसी की वैसी व्यक्त नहीं हो पाती थी। चौथा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आकर्षण का केंद्र नहीं थी। और यह दुरुह थी।
तब कुछ समय बाद प्रत्येक ध्वनियों के लिए एक एक शब्द संकेत बनाए गए। जिन्हें हम वर्णमाला में पढ़ते हैं। मसलन- क, ख, ग आदि। इन्हीं अक्षरों और मात्राओं के मेल से संकेत-चिन्ह बनने लगे। जो आज तक परिष्कृत हो रहे हैं।
हरेक वस्तु के लिए एक संकेत चिन्ह बनाए गए। विशेष संकेत चिन्ह विशेष चीजों के नाम बताते हैं। इस तरह प्रत्येक वस्तु के लिए एक शब्द संकेत तय किया गया। तब लिपि का आविष्कार हुआ।
इस तरह सब से पहले जो लिपि बनी, उसे ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। बाद में अन्य लिपियां इसी लिपि से विकसित होती गई।
ऐसे ही धीरे धीरे विकसित होते हुए आधुनिक लिपि बनी। जिसमें अनेक विशेषताएं हैं। प्रमुख विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अर्थात् यह हमारे विचारों को वैसा ही व्यक्त करती है।
इनमें से बहुत सी लिपियों से हम परिचित हैं । ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इस भाषा को रोमन लिपि में लिखते हैं। पंजाबी भाषा, गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती हैं।
इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियां प्रचलित है।
अब यह भी जान लें कि विश्व की सबसे प्राचीन लिपियां निम्न हैं- ब्राह्मी, शारदा आदि।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
☆ सावधान ! शांतता कोर्टात गेली आहे. ..! ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे ☆
‘पहाटेच्या रम्य आणि शांत वेळी…’ अशा प्रकारची वाक्ये आता बहुधा कथा कादंबऱ्यातूनच वाचायला मिळतील की काय अशी परिस्थिती सध्या निर्माण झालेली दिसते. पहाट किंवा सकाळ ही शांत आणि रम्य राहिल्याचे चित्र आता अभावानेच आढळते. निरनिराळ्या आवाजांनी पहाटेची ही रम्य आणि शांत वेळ प्रदूषित केली आहे. सकाळी पाच वाजल्यापासून वाहनांचे आवाज सुरु होतात. काही वाहने लवकर सुरु न झाल्याने त्यांचे मालक अक्सिलेटर वाढवून ती बराच वेळ सुरु ठेवतात. जवळपास असलेल्या काही मंदिर आणि मशिदीवरील भोंगे आरती, प्रार्थना आणि अजान आदी सुरु होतात. तुम्हाला ते ऐकण्याशिवाय काही चॉईस नसतो. पहाटेची शांत वेळ ध्यान करण्यासाठी, अभ्यास करण्यासाठी उत्तम असते असे म्हणतात. आता अशा या गोंगाटात ध्यान आणि अभ्यास कसा करणार ? सहा साडेसहा वाजेनंतर शाळेत जाणाऱ्या मुलांच्या रिक्षा आणि बसचे कर्कश हॉर्न सुरु होतात. मुलांनी तयार राहावे म्हणून ते लांबूनच हॉर्न वाजवत येतात. बऱ्याच वेळा मुलं शाळेसाठी तयार होऊन उभीच असतात, पण यांची हॉर्न वाजवण्याची सवय जात नाही. त्यावर काही टॅक्स नाही आणि त्यांना बोलणारं कोणी नाही. कोणी बोललंच तर तो वाईट ठरतो. मुलं शाळेत गेल्यावर कुठं हुश्श करत बसावं तोवर भाजीवाले, फळवाले, भंगारवाले तयार होऊन येतात. त्यांचेही आवाज तुम्हाला ऐकावेच लागतात. आता तर त्यांनी आपल्या गाड्यांवर आवाज रेकॉर्ड केलेले स्पिकर्स लावले आहेत. त्यामुळे त्यांचा ओरडण्याचा ताण कमी झाला पण जनतेला मात्र ते स्पीकर्सचे आवाज सहन करण्यापलीकडे पर्याय नाही. त्यानंतर नगरपालिकेची घंटा/कचरा गाडी येते. तिच्यावर लावलेल्या स्पीकर्समधून विविध प्रकारच्या गाणीवजा सूचना तुम्हाला ऐकाव्याच लागतात. हे सगळे कमी की काय म्हणून कुणीतरी शेजारी जोरात टीव्ही किंवा रेडिओ लावलेला असतो. काही मंडळी मोबाईलवर गाणी वाजवीत जात असतात. त्याशिवाय रात्रीची झोप आणि पहाटेची शांतता भंग करणारे बेवारशी कुत्र्यांचे आवाज आहेतच. आपण म्हणतो सकाळची रम्य आणि शांत वेळ ! पूर्वी कधी तरी नक्कीच पहाट रम्य आणि शांत असावी त्याशिवाय आमच्या ऋषीमुनींना आणि साहित्यिकांना इतक्या सुंदर सुंदर साहित्यरचना कशा सुचल्या असत्या !
परवाच्या दिवशी एका स्वागतसमारंभाला जाण्याचा योग आला. बरेचसे नातेवाईक त्या दिवशी एकमेकांना बऱ्याच दिवसांनी भेटत होते. खूप दिवसांनी भेटी होत असल्याने बोलण्यासारख्या बऱ्याच गोष्टी होत्या. पण ज्यांनी तो कार्यक्रम आयोजित केला होता, त्यांनी त्याच वेळेला एक गाण्यांचा कार्यक्रमही ठेवला होता. एकाच हॉलमध्ये स्टेजवर वधुवर, त्याच ठिकाणी जेवणाची व्यवस्था आणि तिथेच गाणी. गाण्यांचा ऑर्केस्ट्रा ठेवण्याचा आयोजकांचा उद्देश चांगला असेलही, पण तिथे खूप दिवसांनी भेटलेल्या आप्तेष्टाना एकमेकांशी संवाद साधणे देखील कठीण होत होते एवढा गाण्यांचा आवाज मोठा होता. गाणी ऐकण्याच्या मनस्थितीत फारसं कोणी दिसत नव्हतंच. कोणाशी बोलायचं झाल्यास अगदी दुसऱ्याच्या कानाजवळ तोंड नेऊन बोलावं लागत होतं. उपस्थितांनी तशाच वातावरणात जेवणाचा आस्वाद घेतला. वधूवरांना शुभाशीर्वाद दिले. त्या कर्कश आवाजातील गाण्यांऐवजी जर मंजुळ आणि हळू आवाजातील सनईचे सूर असते, तर सगळ्यांनाच किती छान वाटलं असतं !
माझ्या घराशेजारीच एक लग्न होते. लग्नाच्या आधीच्या दिवशी संध्याकाळी हळदीचा कार्यक्रम होता. घरापुढेच मंडप टाकण्यात आला होता. सायंकाळी पाच वाजेपासून कार्यक्रमस्थळी डीजेला सुरुवात झाली. हळदीचा कार्यक्रम पार पडेपर्यंत डीजे सुरु होता. हळदीचा कार्यक्रम पार पडल्यावर डीजे थांबला. मला हायसे वाटले. पण माझा तो आनंद थोडाच वेळ टिकला. जेवणानंतर पुन्हा डीजे सुरु झाला. रात्री वाजेपर्यंत डीजेच्या आवाजात सगळ्यांचे नाचणे झाले. सार्वजनिक ठिकाणी रस्त्यावर मंडप, डीजे. आजूबाजूच्या कोणाला त्रास होत असेल याचा कोणताही विचार नाही. त्याऐवजी असे कार्यक्रम इतरांना त्रास होणार नाही अशा पद्धतीने आयोजित करता येणार नाहीत का ? पण आमचे सामाजिक भान सुटत चालले आहे. ‘ इतरांचा काय संबंध ? माझ्याकडे कार्यक्रम आहे ? कोणाला त्रास होत असेल तर मला काय त्याचे ? इतरांकडे कार्यक्रम असतो, तेव्हा ते करतात का असला विचार ? ‘ प्रत्येकजण असा सोयीस्कर स्वतःपुरता विचार करताना दिसतो.
पूर्वी फक्त दिवाळीतच फटाके फोडत असत. हल्ली प्रसंग कोणताही असो, फटाके फोडायचे हे ठरलेले असते. लग्न, मिरवणूक, वाढदिवस, पार्टी, क्रिकेटची मॅच, एखादा विजय किंवा यश साजरे करणे हे फटाके आणि डीजे लावल्याशिवाय होताना दिसत नाही. त्यातूनही बरेचसे बहाद्दर रात्री बारानंतर फटाके फोडून लोकांना त्रास देण्यात आनंद मानणारे आहेत. फक्त कोणी गेल्यानंतर अजून फटाके वाजवण्याची पद्धत सुरु झाली हे नशीब ! ( उगवतीचे रंग- विश्वास देशपांडे )
एक गमतीदार प्रसंग सांगतो. काही दिवसांपूर्वी एका सुप्रसिद्ध अशा धार्मिक स्थळी गेलो होतो. तिथे दर्शनासाठी निरनिराळ्या राज्यातून लोक आले होते. मंदिरात दर्शनाला जाताना रस्त्यातून एक मिरवणूक जात होती. कोणीतरी एक जवान सैन्यातून निवृत्त झालेला होता. त्याच्या स्वागताचे आणि अभिनंदनाचे पोस्टर्सही सगळीकडे लावले होते. एका उघड्या जीपमधून त्यांची मिरवणूक सुरु होती. त्या गाडीच्या पुढे कर्कश आवाजात डीजे लावलेला होता. त्यापुढे त्या मिरवणुकीत सामील झालेले बरेचसे स्त्रीपुरुष बेभान होऊन नाचत होते. आश्चर्याची गोष्ट म्हणजे जो जवान सैन्यातून निवृत्त झाला होता, तो आणि त्याची पत्नी त्या जीपवर त्या गाण्यांच्या तालावर वेडेवाकडे नाचत होते. कदाचित त्या सगळ्यांसाठी तो आनंदाचा आणि अभिमानाचा प्रसंग असेलही पण मंदिरासमोर असलेल्या छोटया रस्त्यावरून ही मिरवणूक जात असल्याने भाविकांची प्रचंड गैरसोय होत होती. त्याचे कोणालाच सोयरसुतक नव्हते. कोण बोलणार ? देशाच्या सीमांचे रक्षण करणाऱ्या सैनिकांबद्दल मला प्रचंड आदर आणि अभिमान आहे. देशात शांतता राहावी म्हणून सीमेवर हे सैनिक जीवाची बाजू लावून लढत असतात. पण हे दृश्य पाहून मला खरोखरच वाईट वाटले.
प्रश्न असा पडतो की आपल्याला खरोखरच शांतता नकोशी झालीय का ? आम्ही गोंगाटप्रिय झालो आहोत का ? इंग्रजीत एक सुंदर वाक्य आहे ‘ Speech is silver, silence is gold. ‘ या वाक्याचा अर्थ असा की व्यर्थ बोलण्यापेक्षा मौन श्रेष्ठ आहे. शांततेचे मोल करता येणार नाही. मानवासहित सर्वच सजीवांच्या निकोप आणि आरोग्यदायी जीवनासाठी शांतता अतिशय महत्वाची आहे. आम्ही आज शाळांमध्ये पर्यावरण हा विषय शिकवतो. त्यामध्ये हवा, ध्वनी, जल इ. प्रकारच्या प्रदूषणांबद्दल शिकतो, बोलतो. पण प्रत्यक्ष आचरणात ते किती आणतो ? ती नुसतीच पोपटपंची राहते. रात्री उशिरापर्यंत डीजे, फटाके वाजवू नयेत असे कायदे आहेत. पण जोपर्यंत त्यांची कडक अंमलबजावणी होत नाही, तोपर्यंत त्यांचा काही उपयोग नाही. अर्थात नुसते कायदे करूनही उपयोग होत नाही. त्यासाठी समाजजागृती व्हावी लागते. आपल्या अशा वागण्याने इतरांना त्रास होऊ शकतो, ही भावना ज्या दिवशी आमच्या मनात निर्माण होईल, तो सुदीन म्हणायचा. विजय तेंडुलकरांचे ‘ शांतता कोर्ट चालू आहे ‘ हे नाटक प्रचंड लोकप्रिय झाले होते. कोर्टात हवी असणारी शांतता आम्हाला प्रत्यक्ष जीवनातही हवी आहे. ती जर मिळणार नसेल तर एक दिवस शांतता सुद्धा रुसून कोर्टात गेल्याशिवाय राहणार नाही.
☆ पडीक… भाग – 1 — लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆
” हे बघ हारवाल्याची ऑर्डर सुद्धा फायनल झाली आहे,… आजीला मोगऱ्याची फुलं खुप आवडतात ना, मग त्याचाच सुंदर हार ठरवला आहे,.. आणि डाळिंबी रंगाची फिकट गुलाबी पैठणी ती देखील आज फायनल झाली,.. एक तन्मणी आज येईल ते कुरिअर,… आजी एकदम खुश आहेत रे,.. मला फार समाधान वाटतं त्यांना बघून,.. ” असं म्हणत रेवाने डोळ्यांच्या कडांमध्ये आलेलं पाणी अलगद टिपलं,.. तसा सर्वेशने तिचा हात हातात घेतला,..”खरंतर तुझ्यामुळे हे सगळं छान होतंय तू उभं केलंस आजीला नाहीतर आम्ही हरलो होतो ग,.. म्हणून तर चिडचिड करून आई, काकु, वहिनी सगळ्यांनी बोलणं सोडून दिलं होतं तिच्याशी सांभाळून घेत होते तिला, सगळे पण उभं करू शकत नव्हते,… पडीक भिंतीसारखी झाली होती ग ती घरात,.. अस्तित्व तर होतं पण ढासळलेलं,.. मनोरुग्ण म्हणून त्याही भरपूर गोळ्या झाल्या पण काही गुण नाही,.. खरंतर जिच्या अंगा खांद्यावर खेळलो, त्या आजीला असं बघून जीव कासावीस व्हायचा ग… आपल्या लग्नानंतर तुला हे सगळं सांगायचं होतं पण तुझ्या हातावरची मेंदी नाही गेली आणि मला ऑफिसचा कॉल आल्याने लंडनला जावं लागलं,.. मला सतत वाटायचं तुला म्हणावं,.. तू बघ आजीशी बोलून पण परत वाटलं नवीन आहेस या घरात.. थोडं रुळली कि सांगु… पण रेवा चार महिन्यात तू तर सगळं बदललंस.. तू आलीस आयुष्यात माझ्या आणि खुप काही दिलं आहेस,..थँक्स हा शब्द अपुरा आहे त्यासाठी,..”*
तशी शुन्यात हरवत रेवा म्हणाली, “मला ना लहानपणापासून आजी हे घरातलं पात्र खुप आवडायचं,.. पण माझं दुर्दैव दोन्हीकडे आजी नाही,.. वाड्यातल्या मैत्रिणीची आजी जीव लावायची, पण ते सुरकुतलेले हात, तो मायेचा स्पर्श तो मात्र हवासा वाटायचा,.. मला ना सर्वेश अगदी असं भरलं घर मिळावं म्हणून मी हरतालिकेच्या महादेवाला कायम प्रार्थना करायचे,.. खुप शिक्षण पदव्या असल्या, तरी ह्या निसर्गनिर्मितीच्या मास्टरवर माझा विश्वास आहे,.. आपली प्रार्थना हि ह्या वातावरणात पोहचून कधीतरी आपल्याला त्याचे रिटर्न्स देते हे सुद्धा मी खूपदा अनुभवलं आहे,.. तुझ्या घरातला प्रवेश हा माझ्या आयुष्यातलं फार सुंदर वळण होतं,.. प्रायव्हसीच्या नावाखाली,.. एकट्यानेच जगण्याचे आनंद लुटायचे,.. जीव लावणारी माणसं अंतरावर ठेवायची,.. तोंड देखला पाहुणचार करत पुन्हा नंतर साधा चौकशीचा फोन देखिल करायचा नाही, हे असलं तुटक वागणं मला नकोच होतं मला हवी होती माणसं,…. भरभरून प्रेम करणारी,.. चिडणारी, रागवणारी परत समजावून जवळ घेणारी,.. खळखळून हसणारी,.. बरणीतल्या लोणच्याच्या फोडीसारखी एकमेकांच्या प्रेमाने खारवून जाऊन एकत्रच आयुष्यात मुरण्याचा आनंद घेणारी,.. ती सगळी सापडली तुझ्या घरात फक्त आजी मात्र खटकली,..
अशी का झाली असेल? प्रत्येकाकडून जाणून घेतलं,.. मग कळलं आजोबांनी ह्या प्लॉटवर बांधलेलं हे अपार्टमेंट,.. कारण कळलं पण ह्यावर आजीशीच बोलायचं असं ठरवलं,.. एक दोन दिवस बळजबरी आजीच्याच खोलीत झोपले,.. आजी गप्प, सुन्न नेहमी सारखी,… सासुबाई म्हणाल्या, “अग नको नादी लागुस त्यांच्या नाही बोलणार त्या काय मनात घेऊन अश्या झाल्या कुणास ठाऊक,..?” पण मी नाद सोडला नाही,…. आजीसारखी एकटक बघते तिकडे मी बघायला लागले आजीच्या त्या खिडकीतून तर मला दिसलं ते मागचं जुनं घर जिथे आयुष्य गेलं त्यांचं,.. मग मला लक्षात आला त्यांच्या मनाचा सल,…. मग मीच मागे गेले आपल्या कामवाल्या मावशींना घेऊन,.. त्यांच्याकडून दारासमोर वाढलेलं गवत काढलं,.. ओटा स्वच्छ केला आणि आजीला बळजबरी तिथे घेऊन गेले,…. चहाचे कपही नेले. आधी आजी गप्पच होत्या, मग मीच बडबड करत सुटले,.. त्या पडक्या घराच्या खिडकीतुन डोकावत म्हंटल,.. इथे देवघर होतं का? शेंद्री कोनाडा दिसतोय,.. तसं त्या बोलायला लागल्या,.. हो तिथे माझ्या विठुची मूर्ती होती काळीभोर,.. घराचे वाटे झाले,.. हि खोली आपल्या वाट्याला आली तेंव्हाच ह्यांना म्हंटले होते,.. मला इथे छोटंसं विठुचं मंदिर करू द्या,.. पण फार नास्तिक होते,.. मला म्हणाले , “तुझा विठूच देऊन टाक कोणाला तरी,..”
मला फार वाईट वाटलं ग.. कष्टात दिवस काढून ह्यांच्या संसाराला हातभार लावला आणि माझी मेलीची मागणी ती काय फक्त एवढी,.. कारण घराचे बाकी सगळे डिझाईन बिल्डर आणि पुढची पिढी त्यांना सोपं जाईल तसं करणार मला त्याच काही वाटत नव्हतं ग,.. पण माझ्या विठूवर का एवढा राग,..? खरंतर सगळ्यांनी समजावलं लेक, सून सगळे म्हणाले, बांधु छोटसं देऊळ… पण नाहीच ऐकलं,.. ही जागा जी कधीकाळी शेण सडा करून मी प्रसन्न करायचे,.. जिथं मिणमिणता दिवा मनाला प्रकाशित करायचा, तिथं हळूहळू सगळं पडीक झालं ग,.. अंधार पसरला. हे गेले पण जाईपर्यंत एकदा सुद्धा म्हंटले नाही कि, मी तुझी ही इच्छा पूर्ण केली नाही,.. वाईट वाटलं ज्याच्यासोबत आयुष्य गेलं, त्याला एवढीही खंत कधी वाटू नये … विठ्ठल मात्र माझ्या जवळ तसाच आहे.. जपलेला छोटी रखुमाई पण आहे.. त्याची ट्रंकेत बसलेली,..*
— क्रमशः भाग पहिला
लेखक : अज्ञात
संग्राहक : श्री मेघ:श्याम सोनावणे.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
“विश्वास” हा शब्द वाचायला एक सेकंद, विचार करायला एक तास आणि समजायला एक वर्ष लागतं….मात्र तो सिद्ध करायला संपूर्ण आयुष्य द्यावं लागतं…!
नात्यांचा “श्वास” हा विश्वासावर चालतो…!!!
जेव्हा विश्वास उडून जातो, तेव्हा हि नाती खळ्ळकन् फुटून जातात… फुटलेले तुकडे पुन्हा जोडायचं म्हटलं तरी ते पुन्हा नव्या सारखे होत नाहीत….
फाटलेल्या कपड्याला शिवण घातली तरी शिवण दिसायचीच….!
असेच फुटलेले तुकडे आणि फाटलेल्या चिंध्या रस्त्यावर पडून आहेत वर्षानुवर्षे… !
असेच गोळा केलेले तुकडे एकत्र करून त्यांना जोडण्याचा प्रयत्न करत आहे….
आणि फाटलेल्या चिंध्याना शिवण घालण्याचा प्रयत्न करत आहे…
आमच्या खेड्यात याला “वाकळ” म्हणतात…!
मला ही वाकळ खूप आवडते, कारण या वाकळी मध्ये साडी पासून सफारी पर्यंत आणि सफारी पासून लेंग्यापर्यंत सर्व चिंध्या एकमेकांचे हात धरून सोबत राहतात…. मला रस्त्यावर भेटणाऱ्या भिक्षेकर्यांचही असंच आहे… रावा पासून रंकापर्यंत आणि रंकापासून रावापर्यंत येथे सर्वजण सापडतात….
आयुष्यभर या चींध्यांनी अपमानाचे चटके सहन केलेले असतात…. कदाचित म्हणूनच वाकळ जास्त उबदार असते….!
अशा या दिसायला बेढब …चित्र विचित्र…. मळखाऊ…. चींध्यांनी बनलेल्या, तरीही उबदार वाकळीचा फेब्रुवारी महिन्यातील “शिवणप्रवास” आपणास सविनय सादर !!!
*(आमच्या कामाचा मूळ गाभा फक्त वैद्यकीय सेवा देणे नसून, वैद्यकीय सेवा देता देता, त्यांचा विश्वास संपादन करणे, त्यांच्याशी चांगले नाते निर्माण करणे, भिक मागण्याची कारणे शोधणे, त्यांच्यामधील गुणदोष शोधून त्यांना व्यवसाय करण्यास प्रवृत्त करणे आणि त्यांना झेपेल तो व्यवसाय टाकून देणे…. जेणेकरून ते भिक्षेकरी म्हणून नाही, तर कष्ट करायला लागून, गावकरी होऊन ते सन्मानाने जगतील… कुणीही कुणापुढे हात पसरून लाचार होऊ नये, जगात कोणीही भिकारी असू नये, हा आमच्या कामाचा मूळ गाभा आहे, वैद्यकीय सेवा देणे हा त्यांच्या हृदयापर्यंत पोहोचण्यासाठी आम्ही फक्त मार्ग म्हणून निवडला आहे)*
भिक्षेकरी ते कष्टकरी आणि कष्टकरी ते गावकरी
या महिन्यात वेगवेगळ्या ठिकाणच्या तीन प्रौढ महिला भेटल्या. तिघींचीही मुलं मोठी आहेत. धुणं भांडी करून, कुणाचीही साथ नसताना; खस्ता खाऊन, मुलांना मोठं केलं, मुलांनी संसार मांडले. पुढे मुलांना आईचं ओझं झेपेना… मुलांनी तीनही आईंना घराच्या बाहेर काढले….
या आईंनी पोरांची हाता पाया पडून गयावया केली….
मुलं म्हणाली, ‘आई आजपर्यंत काय केलंस तू आमच्यासाठी… ?’ पण … या आईला ऐनवेळी काहीच आठवेना…
मुलं म्हणाली, ‘आजपर्यंत काय राखून ठेवलंस आई तू आमच्यासाठी… ? ‘.. यावर या आईला काहीच बोलवेना…
मुलं म्हणाली, ‘तू आमच्या भविष्याची काय तजवीज करून ठेवलीस, म्हणून मी आता तुला सांभाळू ? सांग ना … ? आताही या आईला काहीच सांगता येईना…
आई नेहमीच स्वतःच्या दुःखाची “वजाबाकी” करून जन्माला घातलेल्या पोरांच्या सुखाची “बेरीज” करत जाते…
स्वतःच्या ताटातल्या भाकरीचा “भागाकार” करून, पोराच्या ताटात चतकोर चतकोर भाकरीचा “गुणाकार” करत जाते….
आणि इतकं सारं करूनही, आयुष्याच्या शेवटी आईच्या पदरात, “बाकी” म्हणुन एक भला मोठ्ठा “शून्य” येतो…
पोरांसाठी आयुष्यभर गुणाकार भागाकार बेरीज वजाबाकी करून जगातली ती सगळ्यात मोठी गणितज्ञ होते…
‘ आई, मग हे तुझ्या आयुष्याचं गणित असं का ?’
असं एखाद्या आईला विचारलं, तर तेव्हा सुद्धा आईकडे उत्तर नसतंच…
कारण…. कारण…. आईला कुठं हिशोब येतो…???
जमा खर्चाची नोंद तिनं कधी केलेलीच नसते….
कारण आईला कुठे हिशोब येतो ???
यातील दोन आईंना स्थिर हातगाडी घेऊन दिली आहे. विक्री योग्य साहित्य घेऊन दिले आहे. फेब्रुवारीच्या शेवटच्या आठवड्यात त्यांनी व्यवसाय सुरू केले आहेत.
एका आईला वजन काटा घेऊन दिला आहे.
पोरांना आईचा “भार” झेपला नाही म्हणून, स्वतःच्या म्हातारपणाचं “ओझं” स्वतःच्याच डोक्यावर घेऊन, या तिन्ही आई स्वतःचं “वजन” सावरत निघाल्या आहेत, आता पैलतीराच्या प्रवासाला…!!!
मी फक्त साक्षीदार….
मराठीत”अंध पंगु न्याय” असा एक वाक्प्रचार आहे…
तो असा: अंध व्यक्तीने पंगू (अपंग /दिव्यांग) व्यक्तीला खांद्यावर घ्यावे…. अंध व्यक्ती चालत राहील आणि पंगू व्यक्ती, अंध व्यक्तीला खांद्यावर बसून दिशा दाखवत राहील… इथे एकमेकांना साथ देऊन दोघांचेही काम भागते…!
याचाच उपयोग करून, अपंग महिला…. ज्यांना शिवणकाम येते; अशांना यापूर्वी आपण नवीन शिलाई मशीन घेऊन दिले आहे, त्यांना कापडी पिशव्या शिवण्यासाठी आपण कापड देत आहोत, यानंतर शिवलेल्या पिशव्या भीक मागणाऱ्या अंध व्यक्तींना विकायला देत आहोत…
येणारा नफा दोघांमध्ये समसमान वाटत आहोत…
“अंध पंगु न्याय”… दुसरं काय… ?
वैद्यकीय
रस्त्यावरच भिक्षेकर्यांना वैद्यकीय सेवा देऊन त्यांच्या विविध तपासण्या करत आहोत, वेगवेगळ्या हॉस्पिटलमध्ये गंभीर रुग्णांना ऍडमिट करून त्यांच्यावर उपचार करत आहोत. पूर्ण बरे झाल्यानंतर त्यांना व्यवसाय करण्यासंबंधी सुचवत आहोत आणि त्यांना व्यवसाय सुद्धा टाकून देत आहोत.
अनेक आज्यांच्या कानाच्या तपासण्या केल्या आणि ऐकायचे मशीन त्यांना मांडके हियरिंग सर्व्हिसेस पुणे येथून घेऊन दिले आहे.
अनेक भिक्षेकर्यांच्या डोळ्यांच्या तपासण्या करवून घेऊन डोळ्यांची ऑपरेशन्स केली तथा त्यांना चष्मे घेऊन दिले आहेत.
लहानपणी पोराला “नजर” लागू नये म्हणून “दृष्ट” काढणारी आई…
तीच पोरं मोठी झाल्यावर आईला “दृष्टीआड” करतात…
कालांतराने रस्त्यावर आलेली हि आई गुपचूप देवाघरी निघून जाते…
तरीही पोरांचे “डोळे” उघडत नाहीत…!
आई बाप जिवंत असताना त्यांना दोन घास जेऊ घालत नाहीत आणि मेल्यावर मात्र पिंडाला कावळा शिवावा म्हणून तासन् तास बसून राहतात…
मला नेहमी असं वाटतं, माणसांच्या डोळ्यांचे ऑपरेशन करण्याआधी, “दृष्टिकोनाची” शस्त्रक्रिया करायला हवी…!!!
अन्नपूर्णा
जगात सगळ्यात जवळचं कोण ???
कोणाचं काहीही उत्तर असेल….
माझ्या मते, प्रत्येकाच्या आयुष्यात सगळ्यात जवळची असते ती भूक…
जगातला सर्वात सुंदर सुवास कोणता….?
भूक लागलेली असताना, भाकरी किंवा चपाती भाजतानाचा घमघमाट, हा जगातला सर्वात सुंदर सुवास आहे …
प्रत्येकाच्या आयुष्यातले भूक आणि भाकरी हेच दोन मुख्य गुरुजी ….
आपण झोपल्यावर सुद्धा जी जागी असते…. ती भुक….
न मरताही आयुष्यभर चितेवर जळायला लावते…. ती भुक…
आयुष्यात काहीही करायला लावते…. ती भुक…
घुंगरू न घालताही अक्षरशः नाचायला लावते…. ती भुक….
या भुकेसाठी, अन्नपूर्णा प्रकल्पाच्या माध्यमातून अनेक दुर्बल कुटुंबांकडून आपण डबे विकत घेऊन त्यांना उपजीविकेचे साधन देत आहोत.
हे डबे घेऊन आम्ही रस्त्यांवर नाईलाजाने जगत असलेल्या आई बाबा, भाऊ बहिण यांना किंवा हॉस्पिटलमध्ये ऍडमिट असणाऱ्या किमान २०० गरजु गोरगरीबांना, दररोज जेवणाचे डबे हातात देत आहोत. (रस्त्यात दिसेल त्याला सरसकट डबे आम्ही वाटत नाही)
It’s our win-win situation
इकडे एका कुटुंबाला उत्पन्न मिळाले, जगण्यासाठी सहाय्य मिळाले आणि तिकडे भुकेने तडफडणाऱ्या लोकांना अन्न मिळाले.
भाकरीचा सुगंध वाटण्याचे काम आम्हाला मिळालं…. निसर्गाचे आम्ही ऋणी आहोत….!
खराटा पलटण
खराटा पलटण म्हणजेच Community Cleanliness Team !
अंगात व्यवसाय किंवा नोकरीचे कोणतेही कौशल्य नसणाऱ्या प्रौढ / वृध्द महिलांची एक मोळी बांधून, त्यांच्याकडून पुण्यातील अस्वच्छ भाग स्वच्छ करून घेत आहोत, त्या बदल्यात त्यांना पगार किंवा किराणा माल देत आहोत.
या महिन्यातही खराटा पलटणाच्या माध्यमातून अनेक ठिकाणी स्वच्छता केली आहे आणि त्या बदल्यात टीममधील प्रत्येकाला पंधरा दिवस पुरेल इतका कोरडा शिधा दिला आहे.
मनातलं काही ….
माझ्या आयुष्याच्या चढउतारांवर आणि कामात आलेल्या अनुभवांवर एक पुस्तक छापलं आहे…. एकाच वर्षात या पुस्तकाच्या 3000 प्रती खपल्या. हे सुद्धा श्रेय समाजाचं….
या पुस्तकाच्या विक्रीतून भीक मागणाऱ्या ५२ मुलांचे आपण शिक्षण करत आहोत
आता एप्रिल महिन्यामध्ये शिक्षणाचा हा अवाढव्य खर्च माझ्या अंगावर पडेल…. कोणाला जर माझं पुस्तक हवं असेल तर मला नक्की कळवावे …. पुस्तकाचे देणगी मूल्य पाचशे रुपये आहे…. !
हाच पैसा भीक मागणाऱ्या मुलांच्या शिक्षणाकरता वापरला जाईल. (आमचा एक मुलगा यावर्षी इन्स्पेक्टर होऊ इच्छितो, दुसरी मुलगी बिझनेस ऍडमिनिस्ट्रेशन करत आहे, तिसरा मुलगा कॉम्प्युटर्स सायन्स करत आहे आणि चौथी मुलगी कलेक्टर व्हायचे स्वप्न बघत आहे)
या सर्वांचे शिक्षण माझ्या पुस्तकावर अवलंबून आहे…
येणाऱ्या जागतिक महिला दिनानिमित्त, या वर्षात ज्या महिलांनी भीक मागणे सोडले आहे, अशा ताईंना आपण भावाच्या भूमिकेतून साडीचोळी करणार आहोत….
ज्या मुलींनी भिक मागणे सोडून शिक्षणाची वाट धरली आहे , अशा माझ्या मुलींना, बापाच्या भूमिकेतून ड्रेस घेऊन देणार आहोत.
इथे ड्रेस आणि साडी महत्त्वाची नाही ….
आई म्हणून, मुलगी म्हणून, बहीण म्हणून मिळणारा सन्मान महत्त्वाचा…
जागतिक महिला दिनाच्या या, एकाच दिवशी, मी मुलगा होईन….बाप होईन आणि भाऊ सुद्धा… !
या परते अजून मोठे भाग्य कोणते…???
निसर्गाने मला पितृत्व आणि मातृत्व दोन्ही दिलं…!
बघता बघता, दिवस न जाताही , “आई” झालो की राव मी….!!!!