हिंदी साहित्य – कविता ☆ “क्या फर्क पड़ता है…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ “क्या फर्क पड़ता है…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

हर रोज़

एक नयी महाभारत !

 

कृष्ण और अर्जुन दिखाई नहीं देते !

अखबारों के लखटकिया विज्ञापनों में

विद्यादान का लोहा मनवाने को

आतुर “सारे द्रोण”

भीष्म अगर है कोई

तो पड़ा है मरणासन्न मौन !

देख रहा है

टुकुर टुकुर

 

चौड़ी हो रही हैं

दुर्योधनों दुःशासनों की मुस्कुराहटें !

 

“पैदल सैनिक”

कौरवों के हों या पांडवों के

क्या फर्क पड़ता है !

वे स्वयं एक शस्त्र हैं

जिनके हाथों में थमा दिया गया है

धातु का धारदार नुकीला टुकड़ा

मारने और मरने के लिए !

जो शापित हैं इतिहास में

आँकड़ों में

बदलने के लिए!

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी आवाज सुनो।)  

? अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

कुछ आवाज़ें हम कई वर्षों से सुनते चले आ रहे हैं, वे आवाज़ें रेकॉर्ड की हुई हैं, वे लोग आज मौजूद नहीं हैं, सिर्फ उनकी आवाज आज मौजूद हैं। कभी उन्हें His Master’s Voice नाम दिया गया था और आज भी उन आवाजों को हम, नियमित रेडियो पर और अन्य अवसरों पर, विभिन्न माध्यमों द्वारा सुना करते हैं।

मेरी आवाज ही पहचान है ! जी हां, आज आप किसी भी आवाज को रेकाॅर्ड कर सकते हो, बार बार, हजार बार सुन सकते हो। जब कोई हमें आग्रह करता है, कुछ गा ना ! और जब हम कुछ गाते हैं, तो वह गाना कहलाता है। जो गाना हमें भाता है, उसे हम बार बार सुनते हैं, बार बार गाते हैं।।

बोलती फिल्मों के साथ ही, फिल्मों में गीत और संगीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा। पहले अभिनय के साथ अभिनेता को गाना भी पड़ता था, इसलिए कुंदनलाल सहगल और मुकेश अभिनेता बनते बनते गायक भी बन बैठे। बाद में अभिनेता आवाज उधार लेने लगे। और नूरजहां, सुरैया, खुर्शीद, शमशाद बेगम, लता, आशा, तलत, रफी, मुकेश और किशोर कुमार जैसी कई आवाजों ने अपनी पहचान बनाई।

क्या कोई गायक किसी की पहचान बन सकता है। मुकेश, आवारा हूं, गाकर राजकपूर की पहचान बन गए तो किशोर कुमार रूप तेरा मस्ताना गाकर, राजेश खन्ना की पहचान बन गए।

बड़ा विचित्र है, यह आवाज का सफर। पहले गीत जन्म लेता है, फिर संगीतकार पहले उसकी धुन बनाता है और बाद में एक गायक उसको अपना स्वर देता है। जब वह गीत किसी फिल्म का हिस्सा बन जाता है, तो नायक सिर्फ होंठ हिलाने का अभिनय करता है, और वह गीत एक फिल्म का हिस्सा भी बन जाता है। फिल्म में अभिनय किसी और का, और आवाज किसी और की। एक श्रोता के पास सिर्फ गायक की आवाज पहुंचती है। जब कि, एक दर्शक गायक को नहीं देख पाता, उस तक , पर्दे पर होंठ हिलाते , हाथों में हाथ डाले, राजेश खन्ना और फरीदा जलाल, बागों में बहार है , कलियों पे निखार है, गीत गाते , नजर आते हैं।।

सहगल के बाद ही गायकों का सिलसिला शुरू हुआ।

पहले तलत और लता अधिकांश नायक नायिकाओं की आवाज बने, लेकिन बाद में मोहम्मद रफी और मुकेश के साथ साथ किशोर कुमार, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, ही मुख्य गायक रहे। मुकेश सन् १९७६ में हम तो जाते अपने गाम कहकर चले गए तो १९८० में रफी साहब भी , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों , कहकर गंधर्व लोक पहुंच गए। एकमात्र लता और आशा का साम्राज्य आदि से अंत तक आवाज की दुनिया में कायम रहा। जब तक सुर है साज है, गीत है आवाज है। सुमन कल्याणपुर, हेमलता, से होती हुई आज श्रेया घोषाल तक कई नारी कंठ की आवाजें और शैलेंद्र सिंह, येसुदास, सुरेश वाडकर तथा उदित नारायण तक कई पुरुष स्वर श्रोताओं पर अपना प्रभाव छोड़ चुके हैं, लेकिन किसी की आवाज बनना इतना आसान नहीं होता।

राजकपूर के अलावा देवानंद के लिए पहले तलत और बाद में किशोर और रफी दोनों ने अपनी आवाजें दीं। गाता रहे मेरा दिल किशोर गा रहे हैं लेकिन प्रशंसकों के बीच देव साहब छा रहे हैं। दिन ढल जाए में श्रोता एक ओर रफी साहब की आवाज में डूब रहा है और दूसरी ओर तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं, में दर्शक देव साहब की अदा पर फिदा हो रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि जब रफी साहब शम्मी कपूर के लिए गाते थे, तो उनकी काया में प्रवेश कर जाते थे और जब दिलीप साहब के लिए गाते थे, तो दोनों की रुह एक हो जाती थी।

एक दिलचस्प उदाहरण देखिए जहां अभिनेता और पार्श्व गायक एक साथ पर्दे पर मौजूद हैं। जी हां, मेरे सामने वाली खिड़की में, सुनील दत्त बैठे हैं, और उनके पीछे किशोर कुमार छुपकर एक चतुर नार से मुकाबला कर रहे हैं। कौन अच्छा अभिनेता, सुनील दत्त अथवा गायक किशोर कुमार, हम चुप रहेंगे।

आप सिर्फ इनकी आवाज सुनो और फैसला दो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 71 ☆ ।। सब कुछ धरा का, धरा पर, धरा ही रह जायेगा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। सब कुछ धरा का, धरा पर, धरा ही रह जायेगा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जीत का भी हार का भी  मज़ा कीजिए।

खिलकर बन संवर  कर सजा कीजिए।।

तनाव अवसाद ले जाते हैं  जीवन पीछे।

जो दिया खुशी से प्रभु ने  रजा कीजिए।।

[2]

बात बनती बात बिगड़ती जीवन धरम है।

वक्त पर भाग्य साथ दे यहअच्छे करम हैं।।

धूप छांव खुशी गम सब काआनंद लीजिए।

तभी कहते जीवन के रास्ते नरम गरम हैं।।

[3]

चिकनीचुपड़ी सूखी रोटी सबआनंद लीजिए।

जितना हो सके आप जरा परमार्थ कीजिए।।

धरा का सब  धरा पर   धरा ही रह जायेगा।

सुख दुःख जीवन में हर   रस पान पीजिए।।

[4]

यह जीवन बहुत अनमोल हर रंग स्वाद है।

वो जीता सुखशांति से जब ढंग निस्वार्थ है।।

जियो और जीने दो  का  मंत्र ही है सफल।

वो जीवन तो निष्कृष्ट जिसे लगी जंग स्वार्थ है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “नागफनी के फूल…” ☆ श्री संजय सरोज ☆

श्री संजय सरोज 

(सुप्रसिद्ध लेखक श्री संजय सरोज जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आप वर्तमान में असिस्टेंट कमिश्नर, (स्टेट-जी एस टी ) के पद पर कार्यरत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता  – “नागफनी के फूल…)

☆ कविता ☆ ? “नागफनी के फूल…” ??

रेगिस्तानी बंजर भूमि पर बिखरी चांदनी ,

हरे नागफनियो के झुरमुटों को सहलाती चांदनी,

जो कल फिर झेलेंगे उस दहकते ताप को,

जो निगल गया है ब्लैक होल की तरह सब कुछ,

 

जो चाहता है इनको भी निगलना,

पर जिस पर खिलेंगे,

कल छोटे-छोटे फूल कई,

कुछ जामुनी,कुछ चंपई,

और कुछ सुर्ख रंगों में ……

©  श्री संजय सरोज 

नोयडा

मो 72350 01753

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 135 ☆ बाल गीतिका से – “आजाद देश की पहचान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “आजाद देश की पहचान…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “आजाद देश की पहचान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आजाद देश की कई होती अलग पहचान

जैसे कि राष्ट्र चिह्न राष्ट्र ध्वज व राष्ट्रगान ॥

 

हर एक को हो इनका ज्ञान और सदा ध्यान

हर नागरिक को चाहिये दे इनको वे सन्मान ॥

 

इनका स्वरूप कैसे बना, क्या है इनका अर्थ

यह समझना जरूरी है जिससे न हो अनर्थ ॥

 

भारत के ये प्रतीक क्या हैं इनको जानिये

तीनों का अर्थ समझिये मन से ये मानिये ॥

 

सम्पन्नता, बलिदान, त्याग, गति, विकास की ।

देती है इनसे निकलती किरणें प्रकाश की ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कविते !… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कविते !… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

(वृत्त :आनंदकंद – (गागाल गालगागा गागाल गालगागा))

कविते ! तुझीच बाधा, आजन्म भोवणार

वणव्यात चांदण्याची, मी गोष्ट सांगणार —

 

ना बाण कागदी हे, रक्ताक्षरे उरीची

गंगौघ आसवांचा, गंगेत नाहणार —

 

आयुष्य श्रावणी हे, उन पावसात चिंब

सतरंग जीवनाचे, रसिकांस दावणार —

 

कबरीत काळजाच्या, दफने किती करावी

दूभंग या  धरेला, आकाश सांधणार —

 

गंधाळतील दुःखे, झंकारतील सूर

टाहोत मैफिलीच्या, संगीत छेडणार —

 

नगरी अमानुषांची, होणार छिन्नभिन्न

योद्धेच शब्द आता, रणशिंग फुंकणार —

 

कोणी नसेल संगे, माझ्यात मी असेन

तूझ्याच विश्वरूपा, माझ्यात पाहणार —

 

माझाच ध्रूव जेव्हा, अढळातुनी ढळेल

खेचून मी स्वतःला,चौकात आणणार !!!!

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 156 – माझे अण्णा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 156 – माझे अण्णा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

वालुबाई पोटी।

जन्माले सुपुत्र।

भाऊराव छत्र।

तुकोबांचे।।१।।

 

वाटेगावाचे हो

भाग्य किती थोर।

उजळली भोर।

तुकोबाने।।२।।

 

कथा कादंबरी।

साहित्यिक तुका।

पोवाड्यांचा ठेका।

अभिजात।।३।।

 

गण गवळण।

वग, बतावणी।

समाज बांधणी।

अविरत।।४।।

 

वर्ग विग्रहाचे।

ज्ञान रुजविले।

किती घडविले।

क्रांतीसूर्य।।५।।

 

लाल बावट्याचे।

कार्य ते महान।

समाज उत्थान।

कार्यसिद्धी।।६।।

 

अविरत काम।

कधी ना आराम।

प्रसिद्धीस नाम।

अण्णा होय।।७।।

 

दीन दलितांचा।

आण्णा भाष्यकार।

टीपे कथाकार।

दुःखे त्यांची।।८।।

 

कथा कादंबऱ्या।

संग्रहांची माला।

कम्युनिस्ट चेला।

वैचारिक।।९।।

 

कलावंत थोर।

जगात संचार।

इप्टा कारभार।

स्विकारला।।१०।।

 

भुका देश माझा।

भाकरी होईन।

जीवन देईन।

शब्दातून।।१०।।

 

अनेक भाषात।

भाषांतर झाले।

जगात गाजले।

साहित्यिक ।।११।।

 

त्रिवार असू दे

मानाचा मुजरा ।

साहित्यिक खरा।

स्वयंसिद्ध।।१२।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ “आधुनिक वटपौर्णिमा…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “नातं अश्रूंचं…” ☆ सौ राधिका भांडारकर

त्यादिवशी  माझी मदतनीस निर्मला मला म्हणाली, “ ताई आताशा मले रडाया बी येत नाय. इतकं दुःख पेललंय् की डोळ्यातलं सारं टिप्पूस पार सुकूनच गेलय  बगा.”

ती इतकी सहज आणि निर्विकारपणे  हे उद्गारली की तिच्या वक्तव्याने माझ्या डोळ्यातून टपकन अश्रू ओघळले. आणि त्याच क्षणी जाणवलं तिच्या कोरड्या डोळ्यांशी माझं अश्रूंचं एक कणवेच नातं होतं. एक स्त्रीत्वाचा जाणता गहिवर होता. 

… असे कित्येक अश्रू मी माझ्या हृदयात सांभाळून ठेवलेत.  कारण त्यांच्याशी माझं खोल नातं आहे.

अश्रू आनंदाचे, अश्रू दुःखाचे, वियोगाचे, भेटींचे, निरोपाचे, कधी ते केवळ आपल्याशी संबंधित तर कधी अवाढव्य पसरलेल्या या जगात कुणाकुणाच्या डोळ्यातून वाहताना पाहिलेले, अनपेक्षित आणि साक्षी भावाने.  त्या त्या वेळी त्या अश्रूंविषयी उमटलेल्या भावनांशी  माझ्या अस्तित्वाचा, माझ्या सजीवतेचा दाखला देणारं नातं नक्कीच होतं.  त्या साऱ्यांचे फायलिंग माझ्या अंतःकरणात वेळोवेळी झालेलं आहे. 

माझ्या आजीचं हार्नियाचं ऑपरेशन होतं. १९५६ साल असेल ते.  त्यावेळी शल्यशास्त्र आजच्या इतकं प्रगत नव्हतं.  माझे पपा अत्यंत अस्वस्थ, व्याकूळ होते. पपांनी आम्हा साऱ्यांसाठी त्यांच्या डोळ्यातलं पाणी बांधून ठेवलं होतं. पण जेव्हा डॉक्टर ओ.टी. मधून बाहेर आले आणि पपांचे  हात हाती घेऊन म्हणाले,” डोन्ट वरी.  ऑपरेशन ईज सक्सेसफुल. ” ….  हे ऐकल्यावर माझे पपा  भवताल विसरून ढसढसा रडले. इतका वेळ धरुन ठेवलेला चिंतेचा लोंढा अश्रूंच्या रुपात वहात होता.  त्या अश्रूंच्या पावसात मीही भिजले. वास्तविक तो क्षण किती आनंदाचा, तणाव मुक्ततेचा होता ! पण त्यावेळी जाणवलं होतं ते मात्र माय लेकाचं घट्ट नातं ! ते त्या अश्रूंमध्ये मी पाहिलंं आणि माझ्या मनात कायम रुजलं.

अगदी आजही रणजीत देसाईंची “स्वामी” कादंबरी वाचताना शेवटचा— रमा सती जातानाचा जो प्रसंग आहे तो वाचताना माझ्या डोळ्यात पाणी येतच.  हे अश्रू म्हणजेच त्या प्रसंगाशी, त्या शब्दांशी जुळलेलं एका  वाचकांचं नातं असतं. 

गीत रामायणातलं सीतेच्या मुखातलं… मज सांग लक्ष्मणा जाऊ कुठे?

                                                          पती चरण पुन्हा मी पाहू कुठे?

हे गाणं आणि तिने फोडलेला टाहो ऐकून ज्याचे हृदय आणि  डोळे भरून येणार नाहीत तो माणूसकुळातलाच  नाही असेच मी म्हणेन.  कारण माणसाच्या संवेदनशील मनाशी अश्रूंचं थेट नातं असतं.  ते सदा वाहत असतं, वारंवार जाणीव करून देणार असतं.

पु.लंचे चितळे मास्तर जेव्हा म्हणतात, ” अरे पुर्षा ! आमच्या डोळ्यातच मोतीबिंदू असणार.  खरे मोती आम्ही कुठे पाहणार?”

… असं अल्प शब्दातलं पण इतकं खरं दारिद्र्याचं  स्वरूप पाहताना डोळे पाझरणारच ना?

माणूस दुःखातच रडतो असं नाही. सुखातही ओलावतो. शब्दात, कथेत, गाण्यात, अपयशात आणि यशातही ओलावतो. शिखरावर पोहचल्यानंतर माथ्यावरच्या आकाशाकडे  तो साश्रु नयनाने पाहतो. ते अश्रु काहीतरी साध्य केल्याचं समाधान देणारे असतात. ब्रह्मपुत्रा नदीचे विस्तीर्ण पात्र पाहताना त्या दिव्यत्वाच्या तेजानेही मी पाझरले. ही अशी अव्यक्त नाती फक्त अश्रूच  व्यक्त करतात… नि:शब्दपणे. जिथे शब्द संपतात तिथूनच अश्रूंचं नातं सुरु होतं.

वीस-बावीस वर्षांनी जेव्हां  मी माझ्या मावस भावाला अमेरिकेत भेटले, तेव्हा कितीतरी वेळ आम्ही एकमेकांशी बोलूही शकलो नाही.  नुसते डोळे वाहत होते आणि वाहणाऱ्या डोळ्यातून आमचं सारं बालपण पुन्हा पुन्हा दृश्यमान होत होतं.  एका रम्य काळाचं प्रतिबिंब त्या अश्रूंच्या पाण्यात उमटलं  होतं.  हे लिहिताना आताही  या क्षणी माझे डोळे ओलावलेले आहेत. 

… नात्यातल्या प्रेमाची एक खरी साक्ष हे अश्रूच देतात.

एकदा आमच्या घरी काम करणाऱ्या गणूला एक पत्र आलं होतं.  त्याने ते वाचलं, डोळे पुसले आणि पत्राची पुन्हा घडी करून ठेवली.  मला वाटलं काहीतरी दुःखद घटना घडली असावी गणूच्या गावी.  म्हणून मी चौकशी केली, तेव्हा त्याने आढेवेढे घेतले आणि मग तो हळूच म्हणाला, ” माझ्या कारभारणीचा कागद हाय.” आणि तो कागद त्याने माझ्या हातात दिला.  मी तो उलगडला तर काय एका कोऱ्या कागदावर ओल्या थेंबामुळे  पुसलेली एक आडवी रेष होती फक्त.  मी गणूकडे पाहिलं तेव्हा तो इतकंच म्हणाला, 

” तिला लिवता वाचता येत नाय.” डोळ्यातल्या थेंबाने पुसलेली रेष जणू हेच सांगत होती का?…  ” तुमची भारी सय येते धनी.” वाह ! क्या बात है ! एका कागदावर एक सुकलेला अश्रू अंतःकरणातल्या खोल भावनाही किती सुंदरपणे व्यक्त करू शकतो !

” गड आला पण सिंह गेला ! “ हे म्हणताना तो युगपुरुषही अश्रूंना थोपवू शकला नव्हता. त्या स्वामीभक्ताला प्रत्यक्ष स्वामींनी दिलेली ही साश्रु मानवंदना इतिहासात कोरली गेली.

… अनेक प्रसंग अश्रूंच्या माध्यमातून असे कोरले गेले आहेत.

आमच्या एका मित्राने मृत्यूशी  अचाट झुंज देऊन जगाचा निरोप घेतला.  त्याचा लोकसंग्रह,  लोकप्रियता अफाट होती. त्याच्या अंत्यदर्शनाला सारा गाव लोटला होता. पण हा माणूसप्रिय आत्मा शांत पहुडला होता.  त्याची पत्नी शांत होती. स्वतःला सावरत होती. वयाच्या अठराव्या  वर्षापासूनच्या जीवनसाथीला निरोप देणं किती कठीण होतं !  पण तो एक क्षण माझ्या मनात घर करून आहे. खूप प्रेमाचं नातं होतं त्यांचं.  तसं परिपूर्ण आयुष्य दोघांनी जगलं होतं.  जेव्हां त्याच्या निर्वाणाची  वेळ आली तेव्हां तिच्या डोळ्यातून गळलेला अश्रू त्याच्या स्थिर निश्चल पापणीवर ओघळला आणि त्याच क्षणी त्याचा देह  चार खांद्यावर विसावला. त्यावेळी माझ्या मनात आलं ‘ हा सारं वैभव इथेच ठेवून गेला पण जाताना पत्नीच्या प्रेमाचा एक अश्रू मात्र सोबत घेऊन चाललाय.’  त्या अश्रूशी  त्याचं असलेलं नातं चिरंतन होतं. 

आमच्या आईनेही जाताना शेवटच्या क्षणी आम्हा पाची बहिणींना जवळ घेतलं, आणि एवढेच म्हणाली, ” मी तृप्त आहे. माझी जीवनाविषयी कोणतीही तक्रार नाही. तुम्ही साऱ्या सुखी रहा. शोक करु नका. ” बोलताना तिच्या डोळ्यातून अश्रू वाहत होते. निरोपाचाच तो क्षण. तिचा एक एक अश्रू म्हणजे जीवनातल्या मूल्यांचा, संस्काराचा  एक एक मोती होता.  जगातले सारे मोती एकत्र केले ना तरी या एका अश्रूच्या थेंबांची किंमत त्यांना लाभणार  नव्हती. तो एका स्त्रीचा, आईचा अश्रू होता. महान, शक्तिमान… तिची शक्ती त्या अश्रूंच्या माध्यमातून जणू आमच्यात झिरपत होती.

तेव्हा हे असं आहे अश्रूंचं नातं…..  

आता नक्राश्रू, रुदालीचे अश्रू, मोले घातले रडाया, या शब्दप्रयोगांना आपण तूर्तास तरी दूर ठेवूया आणि अश्रूंशी जीवनभर असलेल्या नात्याला रचनात्मक रितीने स्मरूया. 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अशीही एक वटपौर्णिमा – लेखिका : सुश्री चित्रा नानिवडेकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री पार्वती नागमोती ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ अशीही एक वटपौर्णिमा – सुश्री चित्रा अविनाश नानिवडेकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री पार्वती नागमोती ☆

आज तन्वी च्या डोळ्यातून सतत पाणी येत होतं. लग्नानंतर ची पहिलीच वटपौर्णिमा. आठवड्यापासून तिची तयारी चाललीय. आईने दिलेली गर्भरेशमी हिरवी पैठणी, सासूबाईनीं आठवणीने काढून आणलेल्या गोठ पाटल्या, पहिल्या वटपौर्णिमे साठी म्हणून मुद्दाम तिने आणि तनिष ने खरेदी केलेला लफ्फा, झालंच तर नथ वगैरे काढून ठेवली…तिला लहानपणापासून हया सणाचं खूप अप्रूप होतं…छान ताट सजवून घ्यायचं त्यावर स्वतः विणलेला क्रॉशाचा रुमाल घालायचा पाच सवाष्णी बरोबर वडाच्या पारावर जायचं…मनोभावे पूजा करून नाजूक हाताने वडाला दोरा गुंडाळत एकीकडे “जिवाच्या सख्या “कडे पाहायचं…लौकरच मनात धरलेलं स्वप्नं सत्यात येणारं हे धरूनच तिची तयारी चालली होती. सासूबाई आणि तनिष हळूच तिची फिरकी घेत होते परवा पासून

“अगं.. तूझं तबक धुवायचे राहिले…किंवा साडी चा ब्लाउज आणायचा राहिला…आणि हो त्या दिवशी कडक उपास असतो बरं…फक्त शहाळ नि केळं खायचं “

मंद हसून ती त्यांना दाद देत होती. लग्नानंतर येणारी पहिली वटपौर्णिमा मनात रंगवत रात्री तिने तनिष ला न विसरता बजावलं

“फोटो काढण्यात कंजूस पणा करू नकोस उदया. मला स्टेटस ला भरपूर फोटो टाकायचे आहेत.”

… आणि सकाळीच तिला मेट्रन चा फोन आला. हॉस्पिटल मध्ये अपघाताच्या केसेस आल्यात तुझी सुट्टी कॅन्सल. ताबडतोब जॉईन हो. खूप इमर्जन्सी आहे. सासूबाईनीच फोन घेतला त्या आणि तनिष दोघेही म्हणाले..

“जा… तन्वी वटपौर्णिमा परत सुद्धा साजरी करता येईल पण आत्ता हॉस्पिटल मध्ये खरी तुझी गरज आहे. आम्ही समजू शकतो “

डोळ्यातलं पाणी परतवून तिने युनिफॉर्म चढवला. हॉस्पिटल कंपाउंड मध्येच रहात असल्यामुळे पाचव्या मिनिटाला ती इमर्जन्सी वॉर्डात दाखल झाली.

खरंच रोड अपघातात सापडलेली संपूर्ण फॅमिली, ड्रायवर, चिमुकली दोन मुलं. नशिबाने त्यातील एक तरुणी दाराच्या बाहेर फेकली गेली होती म्हणून थोडक्यात खरचटलं आणि पायावर फ्रॅक्चर वर निभावलं.

तन्वी च्या टीम ने भराभर सगळ्यांना ईलाज सुरू केले. डॉक्टर्स ऑर्डर देत होते. आणि सगळ्या त्या प्रमाणे ट्रीटमेंट देत होत्या. त्या तरुणीच्या मिस्टर ना जेंव्हा आय. सी. यू. मध्ये हलवले…तिने तन्वी चा हात घट्ट पकडत डोळ्यातून पाणी काढून म्हटलं.

“सिस्टर…माझ्या साठी तुम्ही आज सावित्रीचं रूप आहात…माझ्या.. माझ्या सत्यवानाला प्लिज प्लिज यमाच्या दारातून बाहेर आणा…मी.. मी आयुष्यभर तुमची ऋणी राहीन.”

तन्वी च्या अंगावर सर्रकन काटा आला. तिला धीर देत तन्वी म्हणाली “हो.. काळजी नको करुस. आम्ही सगळे प्रयत्न करू. हे बघ माझ्या हातात त्यांचेच ब्लड सॅम्पल आहे.2..3.. बॉटल रक्त लागेल द्यायला. तेंव्हा ते नक्कीच शुद्धीवर येतील. विश्वास ठेव आम्ही सर्व जण शर्थीचे प्रयत्न करू. तू पण देवाला प्रार्थना करत राहा “

अक्षरशः रात्री आठ वाजता त्या तरुणी च्या मिस्टरांनी ट्रीटमेंट ला प्रतिसाद दिला तेंव्हाच तन्वी आय सी यू च्या बाहेर आली.

त्या तरुणीला व्हील चेअर वर घेऊन तन्वी ने तिच्या नवऱ्याच्या बेडजवळ नेलं.नवऱ्याचा हात हातात घेऊन ती तरुणी भरभरून रडत म्हणाली…

“वटसावित्री आज तुमच्या रूपाने फळाला आली  सिस्टर तुम्ही होतात म्हणून. मला समजलं आज स्वतः ची पहिली  पूजा सोडून  इमर्जन्सी मध्ये आलात . पण ड्युटीवर आल्या पासून जरा ही खंत न करता तुम्ही सगळी परिस्थिती शांतपणे हाताळली.मी मनापासून प्रत्येक वर्षी वटसावित्री दिवशी एक सौभाग्य वाण तुमच्यासाठी देणार. आज तुमच्यामुळे माझं सौभाग्य मला सहिसलामत मिळतं आहे.”

तन्वी चे सुद्धा डोळे भरून आले. तिच्या पाठीवर थोपटून तन्वी म्हणाली “अगं…मेडिकल मधले सगळेच ह्यासाठी झटले.. म्हणून ह्या अपघातातले सगळेच वाचले. चल मी निघू? उदया येईनच ड्युटीवर “

व्हरांड्यात तनिष ला बघून तिला आश्चर्य वाटले. “अरे…इकडे कसा काय? मी येतच होते घरी “

“बाईसाहेब…वटपौर्णिमा काय तुम्ही एकट्याने पुजायचा मक्ता घेतलाय? मी पण अशी कर्तव्यदक्ष बायको सातजन्म मिळावी म्हणून उपास करून होतो.”

“म्हणजे? मी नाही समजले “

तेवढ्यात एक म्हातारे आजोबा जवळ येऊन तनिष च्या पाठीवर थोपटत म्हणाले

“बाळा.. किती रे धावपळ केलीस माझ्या मुलाला ब्लड मिळवण्यासाठी, नातवंडाना दुसऱ्या हॉस्पिटल मध्ये घेऊन गेलास. हिला तूझ्या आईने बळजबरी जेवू घातलं…खूप सेवा केलीत. हया परक्या ठिकाणी आम्हाला तुमचा खूप आधार वाटला रे. तुमच्या रूपाने देव भेटला…!”

तन्वी चे डोळे कृतज्ञतेने भरून आले.

अश्या तऱ्हेने तिची वटपौर्णिमा साजरी झाली.

लेखिका – सुश्री चित्रा अविनाश नानिवडेकर

संग्राहिका –  सुश्री पार्वती नागमोती

मो. ९३७१८९८७५९

सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “तिचं मंगलपण…” भाग-2 ☆ सुश्री मृणालिनी चितळे ☆

सुश्री मृणालिनी चितळे

??

☆ “तिचं मंगलपण…” भाग-2 ☆ सुश्री मृणालिनी चितळे 

गणितज्ञ डॉ. मंगल नारळीकर

(करोना काळात  घराघरातून सॅनिटायझरने भाज्या, फळे धुतली गेली नि करोनाचा प्रादुर्भाव कमी झाला तशी ही कृती विस्मृतीत गेली. मंगलताई मात्र कटाक्षाने स्वयंपाकघरातील विज्ञान कायम आचरणात आणत आहे.) इथून पुढे —

प्रत्येक गोष्टीचा वापर… पुनर्वापर 

होता होई तो, एकही गोष्ट वाया घालवायची नाही आणि पर्यावरणाला हानी पोचेल असं काही करायचं नाही याचा वसा तिनं घेतला आहे. त्यासाठी तिच्यातील कलागुणांना तिनं कल्पकतेची जोड दिली आहे. सभासमारंभात मिळणाऱ्या शालींचे  मुलांसाठी गरम कोट स्वत: शिवून अनेकांना भेट दिले आहेत. लहान मुलांसाठी कपडे शिवताना कपड्यांना ती अस्तर अशा खुबीने लावते की त्याची शिवण अजिबात टोचू नये. साडीबरोबर येणाऱ्या डिझाईन्सच्या ब्लाउज पिसमधून नातींसाठी झबली, परकर पोलकी शिवली आहेत. नुकतंच तिनं मला मायक्रोव्हेवमध्ये ठेवून गरम करता येईल असं हिटिंग पॅड भेट दिलं. आयताकृती कापडाला कप्पे करून त्यामध्ये धान्य भरल्यानंतर ते शिवून टाकले होते. मायक्रोव्हेवमध्ये ठेवल्यावर हे पॅड त्यातील धान्यासह गरम होते आणि बाहेर काढून मस्त शेक घेता येतो. हे पॅड कुणाकडे तरी पाहून तिनं बनवलं असलं तरी ते बनवण्यासाठी घेतलेले कष्ट आणि सुबकता वाखाणण्याजोगी आहे. लॉक डाऊनच्या सुरवातीला जुन्या मऊ साड्या वापरून, तिनं तीन पदरी मास्क बनवले. अगदी एन ९५ मास्क इतकेच सुरक्षित ठरावेत असे. दरवर्षी राख्या ती स्वत: बनवते. एकदा तिच्या राहत्या इमारतीच्या वरती मधमाशांनी पोळी केली. माणूस बोलवून तिनं पोळी तर उतरवलीच पण त्यानंतर स्वच्छ कापडानं मध गाळून घरोघर वाटण्याचा उपद्व्याप केला. घरात नवा फ्रिज घेतल्यावर त्याचं भलं मोठं खोकं टाकून न देता नातींना खेळायला दिलं. नातींनी त्यामध्ये दारखिडक्या कापून एक झोपडी बनवली. उरलेल्या कचऱ्यातून मंगलताईनं झोपडीच्या दारांसाठी कड्या – नातींच्या शब्दात ‘क्लेव्हर बोल्ट.’ बनवले. आजीनातींचा खेळ अजूनही रंगला असता, परंतु दिवाणखान्यात ती झोपडी इतकी मध्येमध्ये यायला लागली की तिला आपल्या घरी घेऊन जाण्याचा वटहुकुम जयंतरावांना काढावा लागला. अलीकडे ते थकल्यामुळे पायी फिरायला बाहेर पडलं की त्यांना मध्येमध्ये बसावं लागे. वाटेत बाक असत, पण त्यांची उंची कमी असल्याने ते सोयीचे ठरत नसत. मंगलताईनं लगेच यावर तोडगा काढला. घरच्या उशीला पट्टा शिवला. पर्सप्रमाणे ती उशी स्वत:च्या खांद्याला लटकवून फिरायला जाण्यात खंड पडू दिला नाही.   

 

लेखन… वाचन… सामाजिक बांधिलकीचं भान…

जयंतराव आणि मंगलताई दोघांनाही अभिजात साहित्याची विलक्षण जाण आहे आणि आवडही. त्यांच्या दिवाणखान्यातील कपाटं पुस्तकांनी खचाखच भरलेली असतात आणि टीपॉयवर पुस्तकं नि मासिकं ढिगानं रचलेली असतात. दोघांनी विपुल लेखन केलं आहे. मंगलताईनं तिच्या लेखनातून आपल्या समाजातील चुकीच्या प्रथापरंपरांवर अनेकदा टीका केली आहे तर कधी अनेक गोष्टींमागचं विज्ञान उलगडून दाखवलं आहे. जयंतरावांनी लिहिलेल्या ‘आकाशाशी जडले नाते’ या ग्रंथांचे तिनं इंग्रजीत भाषांतर केले आहे. दोन्ही भाषांवर प्रभुत्व असल्यामुळे ही गोष्ट शक्य झाली, हे निश्चित ! तिला आवडलेली पुस्तकं अनेकांपर्यंत पोचावी, या उद्देशानं, ती पुस्तकांच्या प्रती विकत घेऊन ग्रंथालयांना भेटीदाखल देते. लेखनवाचनाइतकाच शिक्षकी पेशा तिच्या रोमारोमात भिनला आहे. तिचं वैशिष्ट्य असं की पदव्युत्तर विद्यार्थ्यांना शिकवताना तिला जेवढा आनंद मिळतो तेवढाच आनंद पहिली दुसरीतल्या मुलांना शिकवताना मिळतो. काय शिकवतो यापेक्षा आपण जे शिकवतो ते समोरच्यापर्यंत पोचणं तिला महत्वाचं वाटतं. आत्तापर्यंत आर्थिक कमकुवत गटातील असंख्य शाळकरी मुलांना तिनं तन्मयतेनं शिकवलं आहे. अनेकांना शिक्षण, आजारपण यासाठी मदत केली आहे, परंतु लग्नखर्चासाठी म्हणून कुणी पैशाची मागणी केली तर ती नाकारण्याइतका सडेतोडपणा तिच्यापाशी आहे.

 

आजाराशी दोन हात

विविध आघाड्यांवर कार्यरत असताना १९८६ साली वयाच्या त्रेचाळीसाव्या वर्षी कॅन्सरशी सामना करायची वेळ तिच्यावर आली. शरीरमनाची ताकद खच्ची करणाऱ्या आजाराला तिनं खंबीरपणे तोंड दिलं. त्यानंतर १९८८ साली आणि अलीकडे २०२१ आणि २०२२ साली त्यानं परत डोकं वर काढलं. प्रत्येक वेळी आपली सारी व्यवधानं सांभाळत अपराजित वृत्तीनं ती लढली आहे. आजही लढत आहे. तिच्या तिन्ही मुली आणि जगभर विखुरलेले असंख्य सुहृदजन तिची काळजी घेत आहेत. तिची हिंमत पाहून स्तिमित होत आहेत. 

मंगलताईच्या व्यक्तिमत्वाचं एका शब्दात वर्णन करायचं ठरवलं तर ओठावर शब्द येतो, ‘सहजता’. सहजता हाच तिच्या व्यक्तिमत्वाचा स्थायीभाव आहे. एकाच वेळी ती करत असलेल्या असंख्य गोष्टी पाहून बघणाऱ्याला वाटतं हे सगळं सहजसोपं असतं म्हणून. कारण हे सगळं करताना आपण खूप काही करतोय असा तिचा भाव नसतो नि अभिनिवेशही. असते ती तिची गणिती बुद्धी आणि कलावंताची मनस्वी वृत्ती. त्यामुळे काळ, काम वेगाचं व्यस्त गणित ती बिनचूक रीतीनं सोडवू शकली आहे. तिच्या वाट्याला आलेली प्रश्नपत्रिका नक्कीच सोपी नव्हती. कठीण प्रसंग… अवघड माणसं तिच्याही आयुष्यात आली. परंतु रडतकुढत न बसता सगळ्यांना तिनं व्यवस्थित कोष्टकात बसवलं. तिच्या बोलण्यात स्पष्टपणा असतो, तेवढाच मायेचा ओलावाही. शिस्त असते, पण शिस्तीची धास्ती वाटावी इतकी कठोर ती कधीच नसते. यातच तिच्या व्यक्तिमत्वातील ‘मंगलपण’ सामावलेलं आहे. 

***समाप्त***

© सुश्री मृणालिनी चितळे

मोबाईल ९८२२३०१७५० 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares