हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – भाग्यं फलति सर्वत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज बुधवार 9 नवम्बर से मार्गशीष साधना आरम्भ होगी। इसका साधना मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – भाग्यं फलति सर्वत्र ??

“कर्म मैं करता हूँ, श्रेय तुम्हें मिलता है। आख़िर भाग्य के स्वामी हो न”, श्रम ने शिकायती लहज़े में कहा। प्रारब्ध मुस्कराया, बोला, ” सकारात्मक हो या नकारात्मक, भाग्य का स्वामी हर श्रेय अपने माथे ढोता है।”

हाथ पकड़कर प्रारब्ध, श्रम को वहाँ ले आया जहाँ आलीशान बंगला और फटेहाल झोपड़ी विपरीत ध्रुवों की तरह आमने-सामने खड़े थे। दोनों में एक-एक जोड़ा रहता था। झोपड़ीवाला जोड़ा रोटी को मोहताज़ था, बंगलेवाले के यहाँ ऐश्वर्य का राज था।

ध्रुवीय विपरीतता का एक लक्षणीय पहलू और था। झोपड़ी को संतोष, सहयोग और शांति का वरदान था। बंगला राग, द्वेष और कलह से अभिशप्त और हैरान था।

झोपड़ीवाले जोड़े ने कमर कसी। कठोर परिश्रम को अस्त्र बनाया। लक्ष्य स्पष्ट था, आलीशान होना। कदम लक्ष्य की दिशा में बढ़ते गए। उधर बंगलेवाला जोड़ा लक्ष्यहीन था। कदम ठिठके रहे। अभिशाप बढ़ता गया।

काल चलता गया, समय भी बदलता गया। अब बंगला फटेहाल है, झोपड़ी आलीशान है।

झोपड़ी और बंगले का इतिहास जाननेवाले एक बुज़ुर्ग ने कहा, “अपना-अपना प्रारब्ध है।”

फीकी हँसी के साथ प्रारब्ध ने श्रम को देखा। हर श्रेय को अपने माथे ढोनेवाले प्रारब्ध के समर्थन में श्रम ने गरदन हिलाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 47 ☆ ग़ज़ल – तभी समझो दीवाली… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल “तभी समझो दीवाली”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 47 ✒️

? ग़ज़ल – तभी समझो दीवाली…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

ग़रीबी और अमीरी का,

फ़र्क़ देता नहीं शोभा ।

यही अन्तर जब मिट जाए ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

सत्य की राह हम चुन लें,

राम आदर्श हों अपना ।

आतंक के बादल छठ जाऐं ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

हम सब मुस्कुराऐं तो ,

लगे छूटीं हैं फुलझरियां ।

अंधेरे दिल से हट जाएं ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

दहेज रूपी इस दानव को ,

आज संहारो मिल यारो ।

लेनदेन पे घर न बट जाऐं ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

जले मानवता का दीपक ,

प्रेम की उसमें हो बाती ।

सुख भारत में सिमट  आये ,

सलमा समझो है दिवाली ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हवा।)

☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

लड़कियाँ देहरी पर खड़ी थीं – इधर जाऊँ या उधर जाऊँ की उलझन में। इधर जाऊँ तो अपमान का डर, उधर जाऊँ तो जान का डर। लड़कियाँ न इधर गईं, न उधर गईं। उन्होंने बुज़ुर्गों से सुना था कि लड़कियाँ हवा से बनी हैं, वे हवा हो गईं। इधर वालों ने उधर वालों से पूछा, उधर वालों ने इधर वालों से पूछा कि कहाँ चली गईं लड़कियाँ? दोनों ने एक-दूसरे से कहा – पता नहीं किधर गईं। इधर वालों ने लड़कियों को भुला दिया, उधर वालों ने भी भुला दिया ; पर अब अक्सर दोनों तरफ़ रात को चीत्कार जैसी सीटियों के साथ हवा की सनसनाहट सुनाई देती थी और सुबह आँगन में हरे पत्ते बिखरे पाए जाते थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 56 – कहानियां – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

कभी, आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था. “गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालूम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी. हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गलती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी.

आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी. शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था. शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा, बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करने वाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना, स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं.

हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी. ये “वह” रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक “बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे. वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संध्याकाळी… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संध्याकाळी… ☆  प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆ 

आयुष्याच्या गडद सावल्या लांबत गेल्या संध्याकाळी

आठवणींच्या तळ्यात सगळ्या मिसळत गेल्या संध्याकाळी

 

स्वप्नामधल्या ठोस प्रतिमा आदर्शाच्या मनात होत्या

 काळासोबत फिरता फिरता वितळत गेल्या संध्याकाळी

 

सहजपणाने जगतानाही संघर्षाला भिडणे झाले

चालत असता अवघड वाटा चकवत गेल्या संध्याकाळी

 

अनंतकोटी ब्रम्हांडाची ओळख पुरती झाली नाही

जगण्यामधल्या मोहक बाबी फसवत गेल्या संध्याकाळी

 

अंधारातच अंदाजाने दिशा शोधल्या मानवतेच्या

मग प्रेमाच्या प्रकाश रेषा उजळत गेल्या संध्याकाळी

 

संसाराचा खेळ मांडला तो तर होता प्रभावशाली

प्रतिमा त्याच्या डोळ्यादेखत सरकत गेल्या संध्याकाळी

 

सुखदुःखाची करत बोळवण तडजोडीच्या घटना घडल्या

झंजावाती वादळात त्या उधळत गेल्या संध्याकाळी

 

खरे काय ते अखेर कळले अनुभवले ते मृगजळ होते

लोचनातल्या आसवधारा बरसत गेल्या संध्याकाळी

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 157 ☆ लावणी – 2 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 157 ?

☆ लावणी – 2 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

साजणा हौस माझी पुरवा, हौस माझी पुरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा मला तुम्ही मिरवा ॥धृ ॥

 

चोरून भेटण्यात वर्ष गेली चार

तुम्ही मर्द गडी तालेवार

मी सुकुमार देखणी नार

पाढा पुन्हा पुन्हा प्रीतीचा गिरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा.. ॥१॥

 

राजसा,अहो दिलवरा माझं जरा ऐका

बक्कळ झालाय तुमच्या कडं पैका

इश्कबाजीचा बसू द्या ना शिक्का

सा-या गावाची तुम्ही जरा जिरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा…॥२॥

 

पाळणा जत्रेतला घालतोय साद

खेटून बसताच मिटतील वाद

जडला जीवास तुमचाच नाद

हात हलकेच पाठीवर फिरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा ..॥३॥

 

साज सोन्याचा, पुतळ्याची माळ

घडवा आतातरी चांदीचे चाळ

नाच नाचून बोलते मधाळ

विडा वर्खाचा ओठामधे भरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा…॥४ ॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ आरसा… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ आरसा… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

आरसा ज्याला दर्पण’असेही म्हणतात,तो आरसा सर्वांचाच एक आपुलकीचा-जिव्हाळ्याचा विषय आहे.’

सांग दर्पणा दिसे मी कशी?असं गुणगुणत दर्पणात पाहणार्या या फक्त युवतीच असतात असं नाही बरं का!

तर अगदी दुडुदुडु चालायला शिकलेली बालके, जगातील अनेक किंवा अगदी सर्व ठिकाणच्या सर्व वयोगटातील लोकांसाठी अर्थातच आबालवृद्धांसाठी आरसा ही एक आवश्यक बाब ठरते.

तयार होऊन शाळेला जाण्यापूर्वी किंवा इतर कोणत्याही ठिकाणी जाण्यापूर्वी आपली केशभूषा, पआपली वेशभूषा ठीकठाक आहे कि नाही हे आरसाच सांगतो.कांही शाळात अगदी दर्शनी भागात आरसा टांगलेला असतो कारण विद्यार्थ्यांने गणवेश, केस वर्गात प्रवेश करण्यापूर्वी व्यवस्थित आहेत कि नाहीत हे पाहिल्यानंतरच पुढे व्हावे,नसेल तर व्यवस्थित हो असे आरसा सांगतो.सण-समारंभ,लग्नकार्य अशावेळी तरी या आरशाची खूपच मदत होते.

पण मित्र हो,आपले बाह्यांग,आपले बाह्यव्यक्तिमत्व जसे आरशात पाहून कळते तसा आणखीहीएक आरसा आपल्या जवळ सतत असतो .तो आरसा म्हणजे मनाचा आरसा.ज्या मनाचा तळ लागत नाही असे म्हणतात त्या मनातील भाव-भावनांचे प्रगटीकरण चेहरारुपी आरशाद्वारे प्रगट होते. मनातील आनंदी, दुःखी, प्रसन्न, काळजीपूर्ण ,रागीट,भयभीत असे सर्व भाव चेहरारुपी आरसा स्पष्ट करतो.म्हणूनच म्हंटले जाते. चित्तं प्रसन्नं भुवनं प्रसन्नं चित्तं विषण्णं भुवनं विषण्णं.

आपलं आपल्या मनावर नियंत्रण असणं गरजेचं असतं कारण त्यामुळेच आपण व्यक्तिगत भावना लपवून बाहेर ील व्यवहार सुरळीतपणे पार पाडू शकतो.पण याउलट काही वेळा मनाचा आरसा जर चेहर्यावर प्रगट झाला तर त्याचा फायदाही होतो.म्हणजे चेहर्यावर दुःख दिसल्यानंतर जवळच्या व्यक्तीने आपली विचारपूस केली तर दुःख निम्मे  हलके होते.

ब्युटीपार्लर, केशकर्तनालय या ठिकाणी तरी आरसा पाहिजेच.याखेरीज सपाट आरसे आणि गोलीय आरसे प्रकाशाच्या अभ्यासात ,प्रतिमा मिळविण्यासाठी महत्वपूर्ण ठरतात.गोलीय आरशांचा उपयोग काही ठिकाणी प्रदर्शनात अशा प्रकारे केला जातो कि आपली छबी कधी जाड व बुटकी दाखविली जाते तर कधी उभट व लांब दिसते. त्यामुळे आपली करमणुक होते.

म्हणूनच आरसा हा आपला एक जवळचा मित्र आहे असे म्हंटले तर ते वावगे ठरणार नाही. उभा, आडवा, चौकोनी, गोल, षटकोनी असे सर्व प्रकारचे आरसे आपण पाहतो. पर्समध्ये किंवा अगदी पावडरच्या डबीत मावणार्या छोट्या आरशापासून मोठ्यात मोठे,प्रचंड आरसे असतात.मोठे आरसे आपण राजवाड्यात, आरसेमहालात किंवावस्तुसंग्रहालयात आपण पाहू शकतो.

गावाकडील आमच्या जुन्या घरात मी भिंतीत बसविलेले आरसे पाहिले। आहेत.चित्रपट स्रुष्टीतही आरशांचा उपयोग अगदी लाजवाब पणे केलेला दिसतो.

चला तर, आपणही आरसा बाळगुया नि व्यवस्थित, नीटनेटके राहू या.

© सुश्री दीप्ति कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘हद्द…’ – भाग – 1 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘हद्द…’ – भाग – 1 ☆  श्री आनंदहरी  ☆ 

रानातून आलेल्या तात्यांनी घराच्या मागच्या बाजूला असणाऱ्या गोठयात वैरणीचा भारा टाकला आणि तिथंच डाव्या बाजूला अळू, कर्दळ आणि केळी जवळ असणाऱ्या दगडावर उभा राहून  हातपाय धुतले. तोंडावर पाणी मारले आणि पायात वहाणा सरकवून खांद्यावरच्या टॉवेलने तोंड पुसत  मागच्या दाराने घरात न येता बाजूच्या बोळकांडीतून पुढे आले. तीन पायऱ्या चढून वर सोप्यात आल्यावर उजव्या बाजूला भिंतीकडे पायातल्या वहाणा काढल्या आणि सोप्यातल्या खांबाला टेकून बसत बायकोला, लक्ष्मीला हाक मारली.

गोठ्यात वैरणीचा भारा टाकला तेंव्हाच लक्ष्मीला तात्यांच्या येण्याची चाहूल लागली होती. त्यांनी वैलावरचा चहा उतरवला. दोन कपात गाळला आणि चुलीतील लाकडे बाहेर ओढून त्या चहा आणि पाण्याचा तांब्या घेऊन बाहेर आल्या. तात्यांच्या हातात तांब्या देताच त्यांनी वरूनच चार घोट पाणी प्यायले आणि तांब्या बाजूला ठेवला. त्यांनी तात्यांच्या हातात चहाचा भरलेला कप दिला आणि स्वतः तिथंच शेजारी पायरीवर पाय सोडून जोत्यावर बसल्या.

तात्या चहा पीत असतानाच त्यांना तो ही वैरणीचा भारा घेऊन येताना दिसला. तो तात्यांच्या हद्दीत पायही पडणार नाही याची काळजी घेत त्याच्या हद्दीवरून वळला. वैरणीचा भारा गोठयाच्या बाहेरच्या बाजूला उभ्या उभ्याच फेकला. तात्यांकडे रागाचा कटाक्ष टाकून तोंडातल्या तोंडात पुटपुटत त्याच्या घरात गेला.

तात्यांना पाहिले किंवा काही मनाविरुद्ध झाले तर त्याचे सळसळते रक्त उसळून यायचे, तो चिडायचाच अन एकदा चिडला की मग मात्र त्याचा स्वतःवर ताबा राहत नसे. त्यात वडील गेल्यापासून तर त्याच्यावर वचक असा कुणाचाच राहिला नव्हता. आई बिचारी त्याच्या वडिलांच्या अकाली मृत्यूमुळे मनाने खचलेली, थकलेली. ती त्याला सारखे सांगत राहायची, समजावत राहायची.

” तुमच्या अशा मुळुमुळू बोलण्या- वागण्यानेच प्रत्येकजण शिरजोर झालाय, डोक्यावर बसायला लागलाय..”

आईच्या समजवण्यावरही तो उसळून तावातावाने ,रागाने, चिडून आणि शेजारी तात्यांच्या घरात ऐकू जाईल असे म्हणायचा.

त्याच्या मनात आपल्या शेजाऱ्यांच्याबद्दल, तात्यांच्याबद्दल खूप राग होता. शेजारच्या तात्यांचा आणि त्याच्या कुटुंबीयांचा हद्दीवरून वाद होता, ही गोष्ट खरी होती पण हा वाद काही आत्ताचा नव्हता. मागील तीन चार पिढ्यांपासूनचा वाद होता. त्याची ही चौथी पिढी.  वाद होता तरीही त्यांची कुटुंबे शेजारी-शेजारी नांदली होती.

गुण्यागोविंदाने नांदली होती असे म्हणता येणार नाही पण कारणपरत्वे होणारे, घडणारे  भांडण वगळले, एकमेकांशी असणारा अबोला वगळता, खरंच ती शेजारी नांदली होती. सुख-दुःखाच्या क्षणी,काही दिवसांकरिता का होईना, हा अबोला विरघळून जायचा. पण त्याच्या वडिलांचे अकाली निधन झाल्यावर मात्र शेजारच्या काकू, तात्यांची बायको, आईचा आधार झाली होती. दुपारच्या निवांत वेळी परड्यात काहीतरी काम करता करता  त्या तिच्याशी बोलत असत. कधीतरी घरात काही केलेला पदार्थ त्याच वेळी इकडून तिकडे जात येत असे. 

आधीही भांडणे नियमित अशी नव्हतीच कधीतरी कारण परत्वे होत.. ती मात्र कडाक्याची, हमरीतुमरीवर येऊन होत.  पण त्याच्या वडिलांच्या मृत्युनंतर तात्यांकडून कधीच भांडण झाले नव्हते.. त्यांच्या कडून भांडणाची धार बोथट झाली होती. त्याचे वडील गेल्यावर पुन्हा पुन्हा काही दिवसांनी तात्या त्यांच्या घरी आलेूपच वाईट झाले. आपल्या दोन्ही कुटुंबात वाद-विषय आहेच पण ते सारे विसरून काहच पण ते सारे विसरून काहीही अडले-नडले तर सांगा. “

तात्या त्याच्या आईला म्हणाले होते. त्यांच्या मनालाही त्याच्या वडिलांचा मृत्यु चटका लावून गेला होता.

                                  क्रमशः...

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली – मो  ८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गॉडविट…– लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गॉडविट…– लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

काल हा फोटो बघितला आणि पुन्हा एकदा निसर्गाच्या पुढे आपण काहीच नाही याची जाणीव झाली. 

गॉडविट (Godwit) जातीच्या पक्षाने नुकताच एक जागतिक विक्रम स्वतःच्या नावावर नोंदवला. ५ महिन्यांच्या या पक्षाने १३ ऑक्टोबर २०२२ ला अलास्का इकडून उड्डाण भरलं. तब्बल ११ दिवस १ तासात त्याने १३५६० किलोमीटर अंतर कापून ऑस्ट्रेलियातील टास्मानिया इथे तो उतरला. या ११ दिवसात त्याचा सरासरी वेग होता ५१ किलोमीटर / तास. 

या संपूर्ण प्रवासात तो एकदाही झोपला नाही, त्याने काही खाल्लं नाही, त्याने पाणी प्यायलं नाही. तो फक्त उडत होता आपल्या लक्ष्याकडे. अलास्कामध्ये त्याच्या पाठीवर बसवण्यात आलेल्या ५ ग्रॅमच्या सॅटलाईट चिपने त्याच्या या संपूर्ण प्रवासाची नोंद केली आहे. त्याच्या नावावर हा जागतिक विक्रम नोंदला गेला आहे. 

गॉडविट नावाचे पक्षी स्थलांतर करण्यासाठी प्रसिद्ध आहेत. हे हवेतून तब्बल ८० किलोमीटर / तास वेगाने उडू शकतात. (उड्डाण करतात ग्लाइड न करता). तळ्याकाठी, मॅन्ग्रूव्हच्या जंगलात यांचं अस्तित्व दिसून येते. 

निसर्गाच्या या अदाकारीपुढे पुन्हा एकदा नतमस्तक झालो. सलग ११ दिवस असा पृथ्वीच्या दोन टोकांचा प्रवास महासागरावरून करणं ही नक्कीच अविश्वसनीय अशी घटना आहे. आज तंत्रज्ञानाच्या प्रगतीमुळे अश्या घटना उजेडात येत असल्या तरी आपलं अस्तित्व टिकवण्यासाठी त्यांनी केलेला हा हजारो किलोमीटरचा प्रवास मला स्वतःला खूप शिकवून गेला.

लेखक – अज्ञात 

संग्राहिका : सुश्री सुलू साबणे जोशी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मनुष्य इंगळी, अति दारूण…लेखक – श्री मयुरेश उमाकांत डंके ☆ प्रस्तुती – श्री माधव केळकर ☆

? मनमंजुषेतून ?

 ☆ मनुष्य इंगळी, अति दारूण…लेखक – श्री मयुरेश उमाकांत डंके ☆ प्रस्तुती – श्री माधव केळकर ☆ 

“ पणत्या कशा दिल्या काकू? ”

“ नक्षीच्या ६० रूपये डझन आणि साध्या ४० रूपये डझन ”

“ मला ६ हव्यात.”

“ ६ नं कुठं दिवाळी होत असती का दादा? दोन्ही घ्या की एकेक डझन.. नव्वद ला देते मी..”

हो-नाही, हो-नाही करत करत शेवटी एक डझन पणत्या घ्याव्यात असा निर्णय झाला. ‘वैशाली’त उत्तप्पा मागवताना एवढा विचार नाही करत कुणी. पण पणत्या सहा घ्याव्या की बारा? याचा निर्णय घेण्यासाठी पाच मिनिटं घेतो आपण. माणसाची तऱ्हाच निराळी.

लग्न ठरवण्यासाठी भेटताना बरिस्ता किंवा सीसीडी मध्ये भेटून बिलासाठी पाचशे रूपयांच्या दोन नोटा देणाऱ्या तरूणाचं रूपांतर, लग्नानंतर एक किलोच्या भावात घासाघीस करून पाव किलो भाजी घेणाऱ्यात कसं होतं, ते आपल्यापैकी अनेकांनी पाहिलं असेल. याला दुटप्पीपणा म्हणता येणार नाही, ही स्वाभाविक वृत्ती आहे. कोणत्या गोष्टी गृहीत धराव्यात, कोणत्या गोष्टींना महत्त्व द्यावं, कोणत्या गोष्टी आवर्जून कराव्यात, याच्या धोरणांमध्ये गडबड झाली की जगण्या-वागण्याची पुढची सगळी समीकरणं चुकतच जातात आणि आपल्याच चुकांमुळं हे घडतंय, हे बहुतांश लोकांच्या लक्षातही येत नाही.

“ हव्यात कशाला ढीगभर पणत्या? दारात लावायला दोन पणत्या पुरे झाल्या.” असं म्हणणाऱ्या गृहलक्ष्मीनं स्वत:चा चारखणी वाॅर्डरोब उघडून त्याचं ऑडीट करावं आणि मग पुढची प्रत्येक साडी खरेदी करताना “ हवेत कशाला ढीगभर कपडे? ” असं म्हणावं. जमेल का?

एका ग्राहकरूपातल्या गृहलक्ष्मीला समोरच्या विक्रेतीमधली गृहलक्ष्मी दिसू नये, हे स्वत:च्याच कोषात गुरफटून गेलेल्या कमालीच्या असंवेदनशील व्यक्तिमत्वाचं लक्षण आहे.

मंडई- तुळशीबागेपासून खरेदी सुरू होते, तेव्हा पाकीट लहान असतं, तिथल्या वस्तू महागड्या वाटतात. पुढं बेलबाग चौकातून डावीकडे वळलं की, तेच पाकीट प्रत्येक पावलागणिक आकारानं मोठं-मोठं व्हायला लागतं आणि खरोखरच्या महागड्या गोष्टीसुद्धा स्वस्त वाटायला लागतात. हा केवळ वस्तूंच्या खरेदी-विक्रीतला खेळ नाही, हा माणसांच्या जगण्याविषयीच्या अस्पष्ट आणि अंधुक कल्पनांचा खेळ आहे.

एक जुना प्रसंग सांगतो. जोगेश्वरीच्या बोळात एक विक्रेता मेणाच्या उष्णतेवर चालणाऱ्या पत्र्याच्या बोटी विकत होता. मला त्या बोटी हव्या होत्याच. मी त्या निवडून घेत होतो. एक तरूण वडील आपल्या मुलाला घेऊन आले. त्यांना एक बोट हवी होती.

“ केवढ्याला दिली रे? ”

“ साठ रूपये साहेब.”

“ साठ? अरे, खेळणं विकतोस की खरी बोट विकतोस? ”

“ खेळणंच आहे.”

“ साधी पत्र्याची तर आहे. माझ्या लहानपणी पाच रूपयांना मिळायची. आता साठ रूपये? वीसला दे.”

“ साहेब, माझी खरेदीच चाळीस रूपयाची आहे. वीसला कशी देऊ?”

तेवढ्यात त्यांच्या लहान मुलानं सूर लावला. “ पप्पा, मला प्ले स्टेशन देणार होतात तुम्ही. मला हे नकोय. हे एकदम थर्ड क्लास आहे.”

“ चल. देतो तुला प्ले स्टेशन.”

बाप-लेक निघून गेले. तीस हजार रूपयांचं प्ले स्टेशन घेताना त्यानं पाचशे रूपयांत मागितलं असेल का? “आमच्या वेळी तर असलं काहीच नव्हतं. म्हणून दे आता फुकट.” असं म्हटलं असेल का त्यानं? नक्कीच नाही. तो काय, कुणीच असं म्हणणार नाही.

“ दादा, हे गिऱ्हाईक दुसऱ्यांदा येऊन गेलं बघा. नुसतंच बघून भाव करून जातो. खरेदी तर करत नाही.” मी निरूत्तर होऊन त्याचा निरोप घेतला. पण तो मुद्दा मनात राहिला तो राहिलाच.

डाॅ. कलामांनी एकदा प्रश्न विचारला होता, “ जगातली सगळ्यात मोठी समस्या कोणती? ” त्यावर एका लहान मुलीनं उत्तर दिलं होतं, “ गरिबी.” त्या मुलीचं उत्तर किती खरं होतं, याचा प्रत्यय दरवर्षी दिवाळी आली की येतो. सणासुदीच्या वस्तू, ज्याला आजकाल ‘सिझनल्स’ म्हणायची पद्धत आहे, ती बाजारपेठ ही खरं तर आपल्या देशातली एक प्रचंड मोठी बाजारपेठ आहे. पण अन्य व्यवसायांच्या चकचकाटात तिची गर्भश्रीमंती आपल्याला दिसत नाही, जाणवत नाही. या बाजारपेठेचे विक्रेते शालेय शिक्षणाच्या दृष्टीनं अडाणी असतीलही पण भारतीय मनांचं आणि सश्रद्धतेचं मर्म त्यांना अचूक उमगलेलं आहे. त्यांना या गोष्टींना ब्रॅन्डचं रूप देता आलेलं नाही, ही गोष्ट खरी आहे, पण त्याचं कारण कदाचित या बाजारपेठेचं असंघटित असणं हेही असू शकेल. त्यामुळे तो दोष माणसांचा नाही, असलाच तर तो चुकीच्या धोरणांचा आहे आणि कोरोनाच्या सावटाखालच्या या दिवाळीत तर त्याचा रंग अधिकच ठळकपणे दिसतो आहे.

वडापाव विकणारा, चहा विकणारा आणि झेंडूची फुलं विकणारा असे तीन विक्रेते एकाच रस्त्यावर शेजारी शेजारी उभे राहून व्यवसाय करतायत. त्यात वडापावच्या भावाची घासाघीस होत नाही आणि चहाचीही होत नाही. पण झेंडूची फुलं विकणाऱ्याशी मात्र जवळपास प्रत्येकजण घासाघीस करतो, हुज्जत घालतो. गजरे विकणाऱ्यानं दहा रूपये असं म्हटलं की, ‘ पन्नासला सहा देतोस का? ’ असं दहापैकी नऊ जण विचारतातच. पण वीस-पंचवीस वडापाव खरेदी करूनही ते वडापाव विक्रेत्याला हा प्रश्न अजिबात विचारत नाहीत, पैसे देतात. तसं पाहिलं तर, दोघेही रस्त्यावरचेच विक्रेते. मग हा फरक का?

फरक विक्रेत्यात नाही, फरक आपल्या दृष्टिकोनात आहे. आपल्याला स्वत:ला बदलावंच लागेल..!

लेखक : श्री मयुरेश उमाकांत डंके, मानसतज्ञ, संचालक-प्रमुख, आस्था काऊन्सेलिंग सेंटर,पुणे.

प्रस्तुती – श्री माधव केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈