हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 269 ☆ लघुकथा –  लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 269 ☆

? लघुकथा – लंदन से 5 –  सेव पेपर सेव ट्री ?

सार्वजनिक मुद्दो को जनहित याचिकाओ के माध्यम से उठाने के लिए वकील साहब की बड़ी पहचान थी। बच्चों के एजुकेशन को लेकर चलाई गई उनकी पिटिशन को विश्व स्तर पर यूनेस्को ने भी रिकगनाईज किया था।

उस दिन एक मंहगे रेस्त्रां में काफी पीते हुए उन्होंने देखा कि रेस्त्रां ने अपना मीनू कागज की जगह मोबाइल से स्कैन के जरिए प्रस्तुत कर सेव पेपर की मुहिम प्रमोट की थी। इससे वकील साहब बहुत प्रभावित हुए। उन का ध्यान गया कि ई पेपर के इस नए जमाने में भी ढेर सारे अखबार प्रिंट हो रहे हैं, स्कूलों में बच्चों को कापी पर ढेर सा होम वर्क करना होता है, चुनावों में बेहिसाब पोस्टर छापे जाते हैं, पेपर प्लेट्स में खाद्य पदार्थ दिए जाने भी कागज वेस्ट होता है, प्रचार में हैंड बिल्स में कागज की बेहिसाब बरबादी उन्हें दिखी। वकील साहब को समझ आया कि थोड़े से कागज की बचत का मतलब एक वृक्ष की जिंदगी बचाना है।

वकील साहब ने सेव पेपर की पी आई एल लगाने का मन बना लिया। उसी रात उन्होंने गहन अध्ययन कर एक तार्किक ड्राफ्ट तैयार किया, जिसमें उन्होंने मांग रखी कि यह अनिवार्य किया जाए कि न्यूज पेपर्स प्रकाशक महीने के अंत में अपने ग्राहकों से पुराने रद्दी अखबार वापिस खरीदें और रिसाइकिल हेतु भेजें। अखबार छापने के लिए कम से कम 50 प्रतिशत रिसाइकिल पेपर ही प्रयुक्त किया जावे।

सुबह सेव पेपर सेव ट्री की अपनी यह जन हित याचिका लेकर वे कोर्ट पहुंचे। उनके बड़े कांटेक्ट सर्किल में उनकी इस नई पी आई एल को हाथों हाथ लिया गया। और उसी शाम क्लब में उनकी एक प्रेस वार्ता रखी गई। पत्रकारों को पी आई एल की जानकारी देने के लिए वकील साहब के स्टाफ ने एक बड़ी विज्ञप्ति प्रिंट की। एन समय पर वकील साहब की दृष्टि पड़ी की विज्ञप्ति में उन्हें प्राप्त सम्मानों में हाल ही मिले कुछ अवार्ड छूट गए हैं। उन्होंने स्टाफ को कड़ी फटकार लगाई, आनन फानन में विज्ञप्ति के नए सविस्तृत प्रिंट फिर से निकाले गए, प्रेस वार्ता बहुत सक्सेसफुल रही, क्योंकि दूसरे दिन हर अखबार के सिटी पेज पर उनकी फोटो सहित चर्चा थी। उनके पर्सनल स्टाफ ने अखबार की कटिंग की फाइल बनाते हुए देखा कि कल शाम की रिजेक्टेड विज्ञप्ति के पन्ने फड़फड़ा रहे थे और उनसे रद्दी की टोकरी भरी हुई थी, जिसे जलाने के लिए आफिस बाय बाहर ले जा रहा था।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 – मुलताई होली – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मुलताई होली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 ☆

☆ लघुकथा 🌻 मुलताई होली 🌻

रंग उत्सव का आनंद, फागुन होली की मस्ती, किसका मन नहीं होता रंगों से खेलने का। लाल, हरा, पीला, नीला, गुलाबी, गुलाल सबका मन मोह रही है।

और हो भी क्यों नहीं, होली की खुशियाँ भी कुछ ऐसी होती है कि हर उम्र का व्यक्ति बड़ा – छोटा सबको रंग लगाना अच्छा लगता हैं।

अरे कांता…… सुनो तुम जल्दी-जल्दी काम निपटा लो। आज 12:00 बजे हमारे सभी परिचित होली खेलने आएंगे। रंग, फाग उड़ेगा, ढोल – नगाड़े बजेंगे, मिठाइयां बटेगी और स्वादिष्ट भोजन सभी को खिलाया जाएगा।

जी मेम साहब…. कांता ने चहक कर आवाज लगाई।

अपना काम कर रही थी। झाड़ू – पोछा लगाते- लगाते देखी कि बाहर बालकनी में कई बोरी मुल्तानी मिट्टी जिससे होली खेली जाती है, रखी हैं। जिसमें से भीनी-भीनी खुशबू भी आ रही है।

गांव में थोड़ा सा गुलाल, रंग और फिर कीचड़, पानी से होली खेलते देख, वह शहर आने के बाद मिट्टी से होली का रंग लगाते देख रही थी।

पिछले साल भी वह इस होली का आनंद उठाई थी। परंतु आज इतने बोरियों को इकट्ठा देख उसके अपने छोटे से घर जहाँ की मिट्टी की दीवार जगह से उखड़ी थी, याद आ गया… अचानक काम करते-करते वह रुक गई।

हिम्मत नहीं हो रही थी कि मेमसाहब से बोल दे….. कि वह दो बोरियां मुझे भी दे दीजिएगा। ताकि मैं अपने घर ले जाकर दीवारों को मुलताई मिट्टी पोत-लीप लूंगी।

हमारी तो होली के साथ-साथ दीवाली भी हो जाएगी और घर भी अपने आप महकने लगेगा। फिर बुदबुदाते हुए जाने लगी और मन में ही बात कर रही थीं… यह सब बड़े आदमियों के चोचलें  हैं। इन्हें क्या पता कि हम गरीबों की देहरी इन मिट्टी से नया रंग रूप ले खिल उठती है।

जाने दो मैं फिर कभी मांग लूंगी। कांता के हाव-भाव और गहरी बात को सुन मेमसाहब सोच में पड़ गई।

बातें मन को एक नया विचार दे रही थी। सभी मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। जब सभी लोग आ गए कोई रंग कोई गुलाल कोई मिट्टी लेकर आए थे। जोर-जोर से ढोल नगाड़े और डीजे की आवाज के बीच अचानक मेमसाहब की आवाज गूंज उठी…. आज की होली हम सिर्फ अबीर, गुलाल और रंग से खेलेंगे।

जो भी मिट्टी रखी है उसे सभी पास के गांव में ले चलेंगे। वहाँ पर होली खेलकर आएंगे। हँसते हुए सब ने कहा… अच्छा है मिट्टी से होली खेल कर आ जाएंगे गांव वाले जो ठहरें।

सभी की सहमति लगभग तय हो गई इन सब बातों से अनजान कांताबाई अपने काम में लगी।

किसी दूसरे ने कहा देखो कांता मेमसाहब कह रही हैं… सब तुम्हारे गांव जा रहे हैं।

खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह सोचकर झूम उठी कि मैं सभी को थोड़ा सा अच्छा वाला गुलाल, रंग लगाकर मिट्टी की बोरी को दीवाल रंगने के लिए रख लूंगी।

मेरे घर की दीवाल भी मुलताई मिट्टी से होली खेल महक उठेगी । जोश से भरा उसका हाथ जल्दी-जल्दी काम में चलने लगा। मेमसाहब को आज होली के मुलताई रंग की अत्यंत प्रसन्नता हो रही थीं। सच तो यह है कि हम बेवजह किसी भी चीज की उपयोगिता को बिना सोचे समझे उसे नष्ट कर देते हैं। सोचने वाली बात है आप भी जरा सोचिएगा। 🙏🙏🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 76 – देश-परदेश – निबंध : होली का त्यौहार☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 76 ☆ देश-परदेश – निबंध : होली का त्यौहार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे पड़ोसी शर्मा जी के पुत्र ने होली त्यौहार पर आज निबंध लिख कर हमें जांच के लिए दिया, जो निम्नानुसार हैं।

हमारे घर पर होली त्यौहार की चर्चा दीपावली के बाद से ही आरंभ हो जाती हैं। पिता और मां बात बात पर “होली के बाद या होली के समय” जैसे शब्दों का प्रयोग इस प्रकार से करते है, जैसे इतिहास में “ईसा पूर्व या ईसा के बाद” का हवाला दिया जाता हैं।

मां तो होली को ही भला बुरा बताती रहती हैं। गृह कार्य सेविका होली से पहले ही अपने गांव चली जाती है, और उसकी वापसी में भी कुछ अधिक समय ही लगाती है, इस काल में अधिकतर गृह कार्य पिता जी सम्पन करते हैं।

होली के दिन खाने पीने का सारा सामान खाद्य दूत स्विगी तुरंत लाकर दे जाता हैं। पिता जी प्रातः से ही अपने चहते फिल्मी हीरो अनिल कपूर के बताने पर मोबाईल पर “जंगली पोकर” खेलते रहते हैं।

हमारे पिताजी बहुत दूरदर्शी व्यक्ति हैं, होली के दिन मदिरा की दुकान बंद रहने के कारण पिताजी मदिरा और उसकी एसेसरीज की व्यवस्था समय से पूर्व कर लेते हैं।

मां प्रातःकाल से मोबाईल पर प्राप्त होली त्यौहार के मैसेज को “बिजली की गति” से भी तीव्र गति द्वारा इधर उधर कर त्यौहार की खुशियां मनाती हैं।

मैं और मेरी बहन भी अपने अपने मोबाईल से वीडियो गेम खेलकर त्यौहार का आनंद लेते हैं। घर पर होली की बख्शीश लेने जब भी कोई घंटी बजाता है, तो पिता जी हमको दरवाज़े पर ये कह देने के लिए भेज देते है, कि घर में कोई बड़ा नहीं हैं। इसकी एवज में हमें प्रति झूठ बोलने पर पचास का पत्ता मिल जाता हैं।

होली त्यौहार की समाप्ति पर दूसरे दिन से ही दीपावली त्यौहार की चर्चा आरंभ हो जाती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – डाॅ.सोनिया कस्तुरे,  सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे आणि सुश्री दीप्ती कुलकर्णी – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

डाॅ.सोनिया कस्तुरे

सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

💐 मनःपूर्वक अभिनंदन 💐

सर्वद फाउंडेशन, मुंबई या संस्थेतर्फे दिले जाणारे राज्यस्तरीय  स्टार साहित्य पुरस्कार जाहीर झाले असून  २०२४ चे पुरस्कार  आपल्या अभिव्यक्ती परिवारातील साहित्यिका डाॅ.सोनिया कस्तुरे, सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे आणि सुश्री दीप्ती कुलकर्णी यांना प्रदान करण्यात आले आहेत. या साहित्यिकांचा आम्हाला अभिमान वाटतो. परिवाराकडून त्यांचे मनःपूर्वक  अभिनंदन  आणि भावी वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेछा .

💐 ई-अभिव्यक्ती परिवारातर्फे डाॅ.सोनिया कस्तुरे, सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे आणि सुश्री दीप्ती कुलकर्णी यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा. 💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होळी आहे… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ होळी आहे☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

नकोत काही चिंता खंता

प्रेमभराने भेटूया

होळी आहे चला गड्यांनो

आनंदाने खेळूया …

 

नकोत दावे उण्यादुण्याचे

नको पवाडे आत्मस्तुतिचे

दिवस आठवत बालपणीचे

ओळखपाळख ठेवत आपण

मुक्त होउनी नाचूया …

 

कुठून आलो कुठे चाललो

वाढत गेलो जगू लागलो

वेळप्रसंगी हसलो रडलो

घडायचे ते घडून गेले

क्षणभर सारे विसरूया …

 

ऐलतिरावर  पैलतिरावर

बांधत आलो काचेचे घर

विशाल धरतीच्या पाठीवर

उरले सुरले आपल्या हाती

प्रेम जगाला वाटूया …

 

जगत राहिलो खेळत खेळी

स्वानुभवाने भरली झोळी

ओळखताना मने मोकळी

माळी होऊन कल्पकतेने

बाग फुलांची फुलवूया …

 

जाणे येणे इथे चालते

कुठे कुणाचे अडून बसते

नवे जोरकस उगवून येते

अंकुरणा-या नव्या पिढीला

मार्ग चांगले दावूया …

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #230 ☆ मोगलाई… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 230 ?

मोगलाई ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दार उघडाया आता घाबरते चिऊताई

कावळ्याच्या रुपामध्ये नराधम दिसे बाई

*

रात्र झाली खूप होती झोपत का पिल्लू नाही

चिऊताई पिल्लासाठी गात होती गं अंगाई

*

पडताच अंगावर सूर्य किरणं कोवळी

झटकून आळसाला फुलल्या या जाई जुई

*

पाखरांची चिव चिव उठताच ही सकाळी

चारा शोधण्याच्यासाठी झाली साऱ्यांचीच घाई

*

तुला पाहताच घास बाळ आनंदाने खाई

साऱ्या बालंकांची तेव्हा असतेस तू गं ताई

*

चिमण्या ह्या गेल्या कुठे दिसायच्या ठायी ठायी

अचानक आली कशी त्यांच्यासाठी मोगलाई

*

नातं भावाचं पवित्र सांगा निभवावं कसं

आता तर गुंडालाही म्हणू लागलेत भाई

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जलदिन… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ जलदिन… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

सध्या तीन चार दिवस झालेय विदर्भातील हवामान एकदम बदललयं.दिवसभर ऊनं असतं आणि अचानक संध्याकाळ झाली की जणू पूर्ण आभाळ घेरुन येतयं.अंधार पसरतो.सगळीकडे मळभ दाटल्यागतं उदास वाटू लागतं.मार्च एंडिंगच्या कामामुळे तसही संध्याकाळी सहा वाजतातच बँकेतून निघायला.

अशाच कालच्या संध्याकाळी स्कुटरवरुन परत येत असतांना अंधारुन आलं, सगळीकडे गच्च झालेल्या आभाळानं उदासलेलं वाटू लागलं. गार वारं वाहू लागलं. हवामान आणि वातावरणात सुध्दा एक प्रकारची नैराश्येची चादर पसरल्यागतं वाटतं होतं.

तेवढ्यात पावसाच्या पाण्याचे अलगद टपटप दोन तीन थेंब अंगावर पडले आणि काय सांगू ह्या अगदी इटुकल्या पिटुकल्या दोनचार पाण्याच्या थेबांनी वातावरणातील एकदम नूरच पालटला. गाडीने मस्त आपोआप स्पिड घेतला. हिंदी गाणे आठवायला लागले. आतापर्यंत गाडी चालवणे कंटाळवाणं वाटतं होतं ते अचानकच हवहवसं वाटू लागलं.अगदी “ए हँसी वादियाँ, ये खुला आसमाँ” गत फील आला बघा. ह्या पाण्याच्या दोनचार थेंबांनी अगदी जादूच करुन टाकली.आणि त्या क्षणी पाण्याला “जीवन” ह्या अर्थपूर्ण शब्दानी का संबोधतात हे परत एकदा नव्याने कळलं.

22 मार्च .”जागतिक जलदिन”

संयुक्त राष्ट्र संघटनेने म्हणजेच युएनओ च्या सर्वसाधारण सभेने 22 मार्च 1993 साली “फर्स्ट वर्ल्ड वाँटर डे” घोषित केला.ह्याचं सगळं श्रेय डॉ. माधवराव चितळे ह्यांना जातं. त्यामुळेच 2015 साली जलदिनाच्या रौप्य महोत्सवाच्या निमीत्ताने त्यांना “स्टाँक होम” ह्या जल पुरस्काराने गौरविण्यात आले.

मी एक शेतकरी पण असल्याकारणाने माझ्यालेखी खरोखरच पाण्याचे महत्त्व अपरंपार आहे.कारण शेतीचा श्रीगणेशा करतांना आधी ह्या पाण्याशिवाय,जीवनाशिवाय एक पाऊलही पुढे  टाकता येत नाही. आधी पावसाचे पाणी जमिनीत मुरेल आणि मगच ह्या पाण्याचे स्त्रोत तयार होऊन शेतीला,पिण्यासाठी ह्याचा उपयोग होईल.

दुर्दैवाची गोष्ट तर अशी आहे की दिवसेंदिवस जंगल आणि रिकाम्या जमीनी कमीकमी होतात आहे आणि त्याची जागा अजस्त्र इमारती, सिमेंटची जंगल ह्यांनी घेतलीयं. लोकांना व सरकारला पाण्याचा व शेतात पिकणाऱ्या पिकापेक्षा निवा-याचा,घरांचा प्रश्न खूप मोठा वाटतोय. माझ्या बघण्यात असे कितीतरी लोकं आहेत की ज्यांच्याकडे राहत्या घराशिवाय दोन चार घरं,फ्लँट गुंतवणूक म्हणून रिकामी घेऊन पडलीय.मध्यंतरी एक छान आर्टीकल वाचायला मिळालं होतं. त्यात लिहीलं होतं राहण्यासाठी प्रत्येकाला एक घरच फक्त घेता येईल बाकी सगळी जमीन जंगलं, शेती, वेगवेगळी पिके ह्यासाठी वहिवाटीत आणता आली तर सगळीकडे सुजलाम सुफलाम होईल हे निश्चित.

अर्थात हे कोण्या एकट्याचे काम नव्हे. हे सरकार आणि त्यांना बरोबरीने साथ देणारी जनता असेल तरच हे शक्य आहे.कुठल्याही सरकारच्या आणि जनतेतील प्रत्येकाच्या मनात स्वार्थ, बुभूक्षिता सारखी हावरी वृत्ती ह्याबद्दल चीड निर्माण होऊन फक्त आणि फक्त देशप्रेमाची ज्योत मनात तेवत राहील तेव्हाच हे शक्य होईल. त्यामुळे सध्याची सगळी अवतीभवती ची परिस्थिती बघता आपण ह्या चांगल्या दिवसांचा,चांगल्या वृत्तीचा विचारही करु शकत नाही.

पाण्याचा स्त्रोत प्रदुषित न करणे,योग्य व आवश्यक तितकाच पाण्याचा वापर ह्या किमान गोष्टी तरी प्रत्येकाने पाळल्या तरच ठीक अन्यथा पाणी पाणी करीत सगळा -हास होण्याचा दिवस काही दूर नाही.

सरकारने चांगल्याचांगल्या योजनांसाठी प्रामाणिकपणे फंड उपलब्ध करून द्यावा, अधिकारी वर्गांनी प्रामाणिकपणे पणे कुठल्याही राजकीय दबावाला बळी न पडता त्या फंडाचा त्याच लोकोपयोगी कामासाठी विनीयोग करावा व जनता जनार्दनाने त्या दिलेल्या गोष्टींना जागून आपल्या देशाचा विकास व उन्नती कशी होईल ह्याकडे लक्ष पुरवावं. अशी त्रिमूर्ती ची एकजुट आपल्या देशाला सुजलाम सुफलाम करेल हे नक्की.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ओली भेळ आणि गेलेली वेळ…! — लेखिका : सुश्री रमा ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆

श्री मेघ:श्याम सोनावणे

? जीवनरंग ?

☆ ओली भेळ आणि गेलेली वेळ…! — लेखिका : सुश्री रमा ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆

खूप दिवसांनी पक्याचा फोन… 

“नाक्यावर भेट, सत्याच्या भेळ कट्ट्यावर… सगळेच येतोय…”

सलग तीन दिवस सुट्टी आली होती… घरात जाम सडलो होतो. मॅच, वेब सिरीज सगळं पाहून झालं, पोटभर झोप काढून झाली, चवीचवीचं खाऊन झालं, तरी कंटाळा आला होता… आत्ता पक्याचा फोन आला आणि अंगात एकदम तरतरी आली !

बायकोला सांगून निघणार इतक्यात छोटी चिमणी आडवी आली… “बाबा, तू आज मला बागेत नेणार होतास, आता नको जाऊ बाहेर!”

“नेक्स्ट संडे जाऊ नक्की हां…” हे मी म्हणता क्षणीच भला मोठा भोंगा सुरू झाला.

मग बायको आडवी आली, “कशाला चिमूला उगाच प्रॉमिस करतोस? आज मला पण बाहेर पाणी पुरी खायला घेऊन जाणार होतास… दोन दिवस झाला ना आराम? साड्यांच्या एक्झिबिशनला पण घेऊन जाणार होतास!”

“नेक्स्ट संडे नक्की…”

“गेला महिना भर हेच सांगतोय तू…!” डोळे वटारून बायको करवादली, बॅकराऊंड ला भोंगा सुरूच होता.

“आम्ही मित्र किती दिवसांनी भेटत आहोत गं…”

“मॅच पाहायला आत्ता दहा दिवसांपूर्वी एकत्र जमला होतात ना…?”

बाकी कुंडली बाहेर यायच्या आत वटारलेले डोळे आणि चिमणा भोंगा दोन्हीकडे दुर्लक्ष करून मी पळ काढला.

भेळ कट्यावर आलो… सत्या भेळेच्या दुकानात गिऱ्हाईक सांभाळत होता. बाहेरून मी तोंडाने ‘टॉक’ आवाज करून त्याला बोलवलं.. 

“बस कट्ट्यावर… येतो अर्ध्या तासात…”

मी एकटाच लवकर आलो होतो. अजून कुणी चांडाळ जमले नव्हते. मी सुकी भेळ घेऊन आलो… मनात सत्या दिवसाला कसा आणि किती छापत असेल याचा हिशोब मांडत बसलो.

सुट्टीमुळं दुकान भरलेलं होतं. सत्या, त्याचा भाऊ आणि बापू फुल्ल खपत होते…

इतक्यात एक आज्जी-आजोबा आले. आजोबांचं वय अंदाजे ७० आणि आजीचं ६५ असावं. आजीला त्यांनी दुकानाच्या गर्दीत न बसवता माझ्या इथं मोकळ्या कट्ट्यावर बसवलं. 

“बाळा, मी आत जाऊन भेळ सांगून येतो. जरा हिच्याकडे लक्ष ठेवशील का?”

“हो… या…” इती मी.

मनात विचार आला… ‘वा ! काय हौस आहे भेळ खायची आजी आजोबांना… इथे आपण बायकोला अजून टांग मारतो!’

आजी शून्यात बघत बसल्या होत्या. चेहरा एकदम निर्विकार. आजोबा आले आणि आजीशी गप्पा मारायला लागले. पण आजीच्या चेहऱ्याची रेष हालेल तर शपथ…

“आज त्याला सांगितलंय… दाणे घालू नको, तुला त्रास होतो ना चावायला, जास्त कोथिंबीर, जास्त शेव पण घालायला सांगून आलोय. येईलच सत्या भेळ घेऊन हां…” आजोबा  आजीच्या हातावर थोपटत बसले. पण आजी एकदम फ्रीझ मोड मध्येच.

तितक्यात मिल्या आणि विक्या आले. एकेक कटींग मागवून आमच्या गप्पा सुरू झाल्या…

सत्यशील छोट्याशा द्रोणात भेळ घेऊन आला. ती त्यानं आजोबांना दिली, त्यांना वाकून नमस्कार केला, “आजी भेळ खाऊन आवडली का सांग गं!” असं काही बोलून आम्हाला जॉईन झाला. 

सत्या कस्टमर्सशी इतकी सलगी का दाखवत होता, हे आम्हाला समजलंच नाही. सत्याचं हे रूप आम्हाला नवीनच होतं. खुणेनं मी त्याला ‘काय हे?’ असं विचारलं, तेव्हा “आई आली की सांगतो,” म्हणाला मग आम्ही पण जास्त विचारत बसलो नाही.

आमच्यात सगळ्यात अतिशहाणा मिलिंद होता… चहा पित फिदीफिदी हसत म्हणाला, “काय राव रोमँटिक आहेत आजोबा… दोघं एका द्रोणात भेळ खातायत!”

सत्यानं त्याला जोरात चिमटा काढून गप केलं. पण आजोबांनी ऐकलंच आणि त्याला जवळ बोलावलं… 

“अरे बाबा, करायच्या वेळी रोमान्स केला असता तर काय हवं होतं रे? आज ही वेळ कदाचित आलीच नसती… पण एक लक्षात ठेव, आपल्याला माहीत नसेल, तर आपण काही बोलू नये!”

मिलिंद एकदम वरमला. आजीच्या नजरेतला तो निर्विकार भाव पाहून मिल्या अस्वस्थ झाला. मिल्यानं माफी मागितली आणि आमच्या कंपूत सामील झाला.

सत्यानं आणि मी मिलिंदला चागलं झापलं. तितक्यात सत्याई सत्याच्या बापूला घरचा चहा घेऊन आली. 

प्रेम करण्यात या बायकांचा हात कुणी धरू शकत नाही… भेळेच्या दुकानाशेजारी चहाची टपरी आहे, पण सत्याई, बापूला घरचाच चहा आवडतो, म्हणून घरून चहा करून आणते. सत्याच्या आईला आम्ही ‘सत्याई’ म्हणत असू. 

सत्यानं आईला हाक मारली आणि त्या आजी आजोबांची गोष्ट आम्हाला सांगायला सांगितली. मग सत्याईनं जे सांगितलं ते सगळं अचंबित करणारं होतं!

आजोबांचं नाव अविनाश भोळे… नाव ऐकून आम्ही एकदम चमकलो! भोळे कंपनीच्या उदबत्त्या, धूप, लोबान आजही घराघरात वापरले जात होते. आमच्या लहानपणापासून आम्ही घरात ‘A.B.’ कंपनीच्याच उदबत्या वापरल्यात… ते हे भोळे…? 

सत्याई सांगत होती… 

भोळे आजोबांचा तेव्हा एक छोटासा धंदा होता. आजोबांचं लग्न उषा आजीशी झालं आणि आजोबांना त्यांच्या धंद्यात एकदम यश मिळायला लागलं. कामानं आणि यशानं एकदम वेग घेतला. लग्नानंतरचे नवतीचे दिवस फुलपाखरू बनून उडून गेले. 

सुरुवातीला आजोबा जमेल तसा वेळ आजीला द्यायचे. पण हळू हळू सगळं बदलत गेलं… आजोबांना कामाची, यशाची, पैशाची झिंग चढत गेली.

बघितलं तर सगळं आलबेल होतं. लक्ष्मी घरी पाणी भरत होती. सुबत्ता होती, पण सगळं गोड असून कसं चालेल ना! यात वाईट एकच गोष्ट अशी होती, की आजीची कूस उजवत नव्हती… आजी या दु:खात होती आणि आजोबाही कामात खूप गुंतत गेले होते. त्यांना सुद्धा या गोष्टीची खंत होती पण ते कामात मन गुंतवून घेत होते. आजी मात्र हा मानसिक त्रास एकटी सहन करत होती.

आजी मनापासून आजोबांचं सगळं करायची… खाण्या पिण्याच्या वेळा, आवडी निवडी… पण आजीलाही काही इच्छा असतील, ती मातृसुखासाठी आसुसलेली आहे, मनानी कष्टी आहे, तिलाही काही हवं नको पाहायला हवं, वेळ द्यायला हवा, हेच आजोबा विसरले होते. 

आणि एक दिवस चमत्कार झाला… आजीला बाळाची चाहूल लागली ! आजीला वाटलं आता तरी आजोबा वेळ देतील, पण आता आजोबांना कामापुढे काही सुचत नव्हतं.

घरी काळजी घेणार मोठं कुणी नव्हतं. एक मुलगी त्यांनी आजीची काळजी घ्यायला सोबत आणून ठेवली होती. पण आजीला आजोबांची गरज होती. आजोबा म्हणायचे, “आता छोटे भोळे येतील, तर व्यवसाय अजून वाढवूयात…” ते सतत काम-काम-काम हाच जप करायचे. 

यातच आजीला सतत आंबटचिंबट खायचे डोहाळे लागले.. सोबतीची मुलगी हवं ते बनवून देई, पण एक दिवस आजीनी हट्ट केला की तिला बाहेरचीच ओली भेळ खायचीय!

आजोबा म्हणाले, “घरी बनवून खा.” 

आजी म्हणाली, “नाही खाणार.” 

आजोबा म्हणाले, “घरी आणून देतो!”

आजी म्हणाली, “तशी नाही खाणार… आपण सोबत जाऊन एकाच ताटलीत बाहेरच खायची…!” 

महिना झाला… आजीला आजोबा ‘आज जाऊ’, ‘उद्या जाऊ’ करत होते.

एक दिवस आजी हट्टालाच पेटली. रड रड रडली… “नाही नेलं आज तर आत्ताच माहेरी निघून जाईन, परत येणार नाही,” म्हणाली.

हे शस्त्र उपयोगी ठरलं. आजी एका संध्याकाळी गजरा माळून, सजून धजून तयार राहिली, पण आजोबा आलेच नाहीत! आजींनी कामाच्या ठिकाणी टेलिफोन केला तर आजोबा मीटिंग घेतायत असं कळलं… 

डोहळतुली बाई काही वेळा हळवी होते, काही वेळा चिडचिड करते. तिच्या मनाचे कल बदलत असतात.

आजोबा सांगून पण आले नाहीत याचा आजीला खूप राग आला… तिरीमिरीत आजी उठली, भलं थोरलं पोट घेऊन निघाली आणि उंबर्‍याला अडकून पडली…! क्षणात सगळं बिनसलं… होत्याचं नव्हतं झालं…!!!

आजी मरणाच्या दारातून परत आली… पण येणारा नवा जीव यायच्या आधीच देवाला प्यारा झाला! याचा आजीला भयानक मानसिक धक्का बसला. ती पडली तेव्हा डोक्याला वर्मावर मार बसला म्हणून, की बाळ गेलं हा मानसिक धक्का बसून, माहीत नाही… पण आजी ही अशी झाली!

तिची अनेक गोष्टींची पार ओळखच पुसली गेली. देव, यांत्रिक मांत्रिक, डॉक्टर, सगळं झालं, पण आजी अशी निर्जीव झाली ती आज पर्यंत. आजोबा या गोष्टीमुळं खूप हादरले… या सगळ्याला त्यांनी स्वतःला जबाबदार धरलं.

चाळीस वर्षांपूर्वीचा तो दिवस आणि आजचा दिवस… आजोबा आजीला महिन्यातून एकदा तरी भेळ खायला घेऊन येतात. त्यांना वाटतं कधीतरी भेळ खाऊन तिला जुनं काही आठवेल. तिला आपण आठवू, तिचा सगळा राग ती बाहेर काढेल. आजही ते म्हणतात… 

“देव मला इतकी कठोर शिक्षा देणार नाही… तिला एकदा तरी मी आठवेन!”

आजोबांकडे बघितलं तर आजोबा आजीला प्रेमानं एकेक घास भरवत होते.

“सत्याई, तुला कसं माहीत गं हे सगळं?” विक्यानं विचारलं.

“अरे, आजीला सोबतीला जी मुलगी ठेवली होती ना, ती मीच होते ! हे सगळं माझ्या डोळ्यासमोर घडलंय…!”

आम्ही सगळे वेगळ्याच मूड मध्ये गेलो होतो… मला एकदम तो चिमणा भोंगा आणि माझं वटारलेल्या डोळ्यांच प्रेम आठवलं…

“चल यार, मी निघतो… चिऊला बागेत आणि हिला पाणी पुरी खायला घेऊन जायचंय!”

आजी-आजोबाही भेळ खाऊन निघाले… सत्या आणि मी पटकन त्यांना आधार देऊन त्यांच्या गाडीपाशी सोडायला आलो. तितक्यात सत्याईनं एक चाफ्याचं फुल आणून आजीच्या अंबड्यात खोचलं. चाफा चाचपत आजी पहिल्यांदा एकदम गोड हसली. आजोबा पण त्यामुळे खुष झाले. 

दोघं गाडीत बसताना आजोबा म्हणाले, “मुलांनो, तरुण आहात, एक सांगतो… ऐका, वेळेला जपा… आज करायचं ते आजच करा! एकदा का वेळ गेली की गेली… मग आयुष्यात येतो तो फक्त यांत्रिकपणा…!” 

आणि आजीकडे बघत म्हणाले, “ओली भेळ कशी लगेच खाण्यात मजा, नंतर ती चिवट होऊन जाते! मला हे समजलं तेव्हा खूप उशीर झाला होता. म्हणून सांगतो… आयुष्यात योग्य वेळीच प्रत्येक गोष्टीला न्याय द्यायला हवा. उद्याची खात्री द्यायला आपण देव नाही… कायम ‘आज’ मध्ये जगा. चला निघतो, उषा दमली असेल आता !”

…. हे ऐकून डोळ्यात पाणी कधी जमा झालं, समजलंच नाही… पण सगळ्यांना ‘बाय’ करून मी सुसाट वेगानं घरी निघालो…

लेखिका : सुश्री रमा

संग्राहक : श्री मेघ:श्याम सोनावणे.  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ इटुकली — ☆ डॉ. जयंत गुजराती ☆

डॉ. जयंत गुजराती

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इटुकली — ☆ डॉ. जयंत गुजराती

घरभर फिरली भिरभिरत्या पंखाने. अक्षरशः नाचतच होती इथून तिथे. पाय म्हणून, ठरतच नव्हते. जणू सगळं घाईचंच होऊन बसलं होतं. सांगावंसं वाटलं, अगं जरा हळू चाल…. पण ती काही ऐकणार नव्हती. तिचं आपलं निरीक्षण चालू होतं दिवसभर बस्तान कुठे बसवायचं ते. तिच्या चिवचिवाटाने कान कावले होते. मधूनच ती गायब होई. पुन्हा काहीवेळात खिडकीच्या गजावर दिसे. मग हॉलभर फिरे.  किचनमधे उडे, व्हरांड्यातून तर सारखी येजा. बेडरूममधे ही चक्कर मारून आली. कधी ट्युबलाईट वर विसावे तर कधी पंख्यावर विसावे. कधी कपाटावरचा कोपरा धुंडाळे तर कधी खोल्यांमधल्या दारांवरून सूर मारे.  शेवटी वैतागून मीच तिच्याकडे दुर्लक्ष करण्याचे ठरवलं. 

दुसऱ्या दिवशी सकाळीस ती लगबगीत असलेली इटुकली दिसेना म्हणून मीच अस्वस्थ झालो. बायको म्हणाली, ‘येईल पुन्हा, ’ मी वर्तमानपत्र हातात घेऊन स्वस्थ होण्याच्या प्रयत्नात. पण थोडंफार वाचून झाल्यावर, वर्तमानपत्र हलकेच खाली सरकलं जाई, मग माझी नजरच भिरभिरायला लागे. ती कुठेच दिसेना तर पुन्हा डोकं वर्तमानात खुपसलं.  तसाच ऑफिसला गेलो. मनात प्रश्नचिन्ह घेऊन, ‘ कुठे गेली असेल? ’ दिवसभर मीच ‘चिवचिव’ला अधीर. संध्याकाळी घरी आलो तरीही घरभर शांतताच. अगदी अचानक आलेली पाहुणी अलोप व्हावी याची रूखरूख मनात. 

सकाळीस जाग आली ती घागर हिंदकळावी खळखळून तसं हिचं  माझे दोन्ही बाहू धरून उठवणं चालू होतं.  काय? माझा प्रश्नचिन्ह असलेला चेहेरा पाहून ती बोलली. चला वरती हे बघा पोटमाळ्यात काय आहे ते!! धडकीच भरली. असं काय असेल सकाळी सकाळी पोटमाळ्यावर? मी तडक पाहिलं तर पोटमाळ्यावर एक कोनाडा रिकामा सुटलेला होता त्यात लगबगीनं ती इटुकली व तो पिटुकला वरच्या कौलांतून  व पोटमाळ्याच्या त्रिकोणी खिडकीतून वाट काढत गवताच्या काड्या व काटक्या गोळा करून आणून टाकत होते. बस्तान बसवायला जागा सापडली तर मी मनात खुश होऊन पुटपुटलो. खाली येताच छानशी शीळही घातली मी. तसं आल्याचा चहा हातात देत बायकोने कोपरखळी मारलीच. ‘ आली ना परत पाहुणी!! झाला ना मनासारखा शेजार!! ’ मीही चहाचा घोट घेत फिरकी टाकलीच, ‘ सखी शेजारिणी!! ’ तसं दोघं हसत सुटलो. 

दोन तीन दिवसात हॉल कम बेडरूम कम सबकुछ छानसं घरटं उभं राहिलं. त्यात कुठूनतरी कापूसही आणून टाकला होता बहुतेक पिटुकल्याने. बोर्ड लावायचं का? हिचं तुणतुणं चालूच. डोळ्यात मिश्कीली. तर माझ्यात पुन्हा प्रश्नचिन्ह. तिनंच खुलासा केला, ‘ छोटंसं बॅनर, नांदा सौख्यभरे! ’ आता माझ्यापेक्षा हीच जास्त गुंतत गेली. मातीचं खापर आणलं बाजारातून त्यात पाणी भरून ठेवलं. रोज वाटीभर मऊसूत भातही पोटमाळ्यावर पोहोचायला लागला. “ आणखी काय काय आवडतं हो खायला त्यांना, मी करत जाईन तेवढं!! ” मला तसं म्हटलं तर पाखरांबद्दलचं ज्ञान अगाधच!!  पोपट असता तर हिरवी मिरची, पिकलेला पेरू वगैरे सांगून तरी टाकलं असतं. मग हिनेच शक्कल लढवत, शिजवलेले तेही वाफाळलेले हिरवे मूग, वाफाळलेलेच मिठातले शेंगदाणे, लालचुटूक डाळिंबाचे दाणे अन् काय काय सुरू केलं!! मी आपला प्रश्नकर्ता नेहेमीचाच…. “ अगं इतकं सगळं लागतं का त्यांना? ” हिनं मान डोलावत चपखल उत्तर दिलं. “ तुम्हाला नाही कळायचं, डोहाळे लागले की लागतंच सगळं!! ” प्रश्नचिन्हा ऐवजी माझे डोळे विस्फारलेले. “ तुला कसं कळलं शुभवर्तमान? ” “ बघाच तुम्ही, मी म्हणतेय ते खरं की नाही? ’ तसं हीचं काहीच चुकत नाही. काही दिवसांतच सहा अंडी प्रकट जाहली मऊसूत कापसावर.  

मग काय इटुकली ठाण मांडून कोनाड्यात तर पिटुकल्याची येजा वाढली आतबाहेर. घरात कोवळे जीव वाढणार याचा कोण आनंद आम्हा दोघांना, त्या दोघांसह.  चैनच पडेना. सारखी उत्सुकता. ऑफिसमधूनही हिला विचारणं व्हायचं, “ एनी प्रोग्रेस? ” दिवसातून दोन तीनदा पोटमाळ्यावर चढणं.  काही हालचाल दिसतेय का? हे पाहणं! अजून काहीच कसं नाही? हा प्रश्न खांबासारखा उभाच. “ सगळं निसर्गनियमा सारखं होईल, धीर धरा. ” हिचा मोलाचा सल्ला. तरीही आतून आमचाच जीव वरखाली!! खरंतर आमचे अगोदर कावलेले कान आतुरलेले कोवळी चिवचिव ऐकण्यासाठी. 

(२०/०३/२०२३ – # जागतिक चिमणी दिवस)  

© डॉ. जयंत गुजराती

नासिक

मो. ९८२२८५८९७५

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ झुळुक… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

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☆ झुळुक… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

 ‘ वाटते सानुली मंद झुळूक मी व्हावे, 

  घेईल ओढ मन तिकडे स्वैर झुकावे ‘

माझ्या बाल्कनीतल्या झोक्यावर संध्याकाळी बसले की मन असे स्वैरपणे फिरत असते. तीन-चार वर्षांपूर्वी लॉकडाऊनच्या काळात बाहेर फिरता तर येत नसे, पण या झोक्यावर बसून मन मात्र भरपूर फिरून येई. दिवसभराच्या उन्हाच्या काहिली नंतर येणारी संध्याकाळची वाऱ्याची झुळूक तन आणि मन दोन्ही शांतवून टाकते. थंडी किंवा पावसाळ्यात या झुळूकेचे तितके महत्त्व नाही ,पण उन्हाळ्यात ही झुळूक खूपच छान वाटते! दु:खानंतर येणार सुख जसं जास्त आनंद देते तसेच आहे हे!

सतत सुखाच्या झुल्यावर झुलणाऱ्याला ती झुळूक कशी आहे हे फारसे जाणवणार नाही, पण खूप काही कष्ट सोसल्यानंतर येणारे सुखाचे क्षण मात्र मनाला गार  वाऱ्याच्या झुळूकीचा आनंद देतात!हीच झुळूक कधी आनंदाची असते, 

कधी मायेची असते. एखाद्याला घरात जे प्रेम मिळत नाही पण दुसऱ्या कुणा कडून तरी, अगदी जवळच्या नात्यातून, शेजारातून किंवा मित्र-मैत्रिणींकडून मिळते तेव्हा तो प्रेमाचा सुखद ओलावा ही त्याच्या मनाला मिळालेली आनंदाची झुळूक असते!

कधी कधी साध्या साध्या गोष्टीतूनही आपण आनंद घेतो. गर्दीने भरलेल्या बसमध्ये कशीबशी जागा मिळून बस जेव्हा सुटते, तेव्हा खिडकीतून येणारी वाऱ्याची झुळूक आपल्याला’ हुश्श’ करायला लावते. कधी अशी झुळूक एखाद्या बातमी तून मिळते. अपेक्षा नसताना एखादी चांगली गोष्ट घडली तर ती सुखद झुळुकीसारखीच असते. माणसाचे आयुष्य सतत बदलत असते. कधी एकापाठोपाठ एक इतकी संकटे येतात की त्या सर्वांना कसे तोंड द्यावे कळतच नाही! पण अशावेळी अचानकपणे एखादी चांगली गोष्ट घडते की, त्यामुळे आयुष्याला कलाटणी मिळते!

माझ्या परिचित एका मैत्रिणीची गोष्ट. तिच्या नवऱ्याचा एक्सीडेंट झाला. जीव वाचला पण हॉस्पिटलमध्ये दोन महिने पडून राहावे लागले. दोन लहान मुली होत्या तिला. नवऱ्याचा व्यवसाय बंद पडलेला.. राहायला घर होते पण बाकी उत्पन्नाचे साधन नव्हते. पण अचानकपणे तिने अर्ज केलेल्या नोकरीचा कॉल आला. ट्रेनिंग साठी एक महिना जावं लागणार होतं, मुलींना आपल्या नातेवाईकांजवळ सोपवून ती ट्रेनिंग पूर्ण करून आली.आणि  नोकरी कायमस्वरूपी झाली आणि आयुष्यात सुखाची झुळूक आली.

वादळ वाऱ्यात झाडं ,घरं, माणसं सारीच कोलमडतात.. वादळ अंगावर घेण्याची कुवत प्रत्येकात असतेच असे नाही. पण ‘झुळूक’ ही सौम्य असते. ती मनाला शांती देते.

लहानपणी अशी झुळूक परीक्षेनंतर मिळायची. भरपूर जागरणे, कष्ट करून अभ्यास करायचा आणि मग पेपर्स चांगले गेले की मिळणारा आनंद असाच झुळूकीसारखा वाटायचा! रिझल्ट ऐकला की मन अगदी हलकं फुलकं पीस व्हायचं आणि वाऱ्यावर तरंगायला लागायचं! अशावेळी कृतकृत्यतेची झुळूक  अनुभवायला मिळायची!

वेगवेगळ्या काळात वेगवेगळ्या रूपात ही झुळूक आपल्याला साथ देते. कधी कधी आपण संकटाच्या कल्पनेने ही टेन्शन घेतो. प्रत्यक्ष संकट राहत दूर ,पण आपलं मन मात्र जड झालेलं असतं! अचानक कोणीतरी सहाय्य करते , आणि संकट दूर होते. एका आगळ्या झुळुकेचा अनुभव मनाला येतो.

कोरोनाच्या काळात आपण अशाच कठीण परिस्थितीतून जात होतो. मन अस्थिर झालं होतं. जीविताची काळजी, भविष्याची काळजी दिसून येत होती. प्रकृती आणि नियती दोन्ही आपल्या हातात नाहीत! पण तेच कोरोनाचं संकट जसं दूर झालं, तशी मनामध्ये समाधानाची झुळूक येऊन गेली! काही काळातच रोगाचे उच्चाटन झालं आणि निसर्गाने हिरावून घेतलेले आपले स्वातंत्र्य पुन्हा आपल्याला मिळाले! ती ‘सुखाची झुळूक’ अशीच सौम्य आनंद देणारी होती. सोसाट्याचा वारा आणि वादळ माणसाला सोसत नाही, त्याचप्रमाणे संकटांचा माराही झेलताना माणसाला कठीण जाते! पण थोडंसं जरी सुख मिळालं तर ती ‘सुखाची झुळूक’ माणसाला आनंद देऊन जाते.

संकटाच्या काळावर मात करताना कुठून तरी आशाताई स्वर येतात, “दिस येतील, दिस जातील…” या गाण्याचे! कोणत्याही संकटाला कुठेतरी शेवट असतोच, जेव्हा एखादं वादळ परमोच्च क्षमतेवर असतं तेव्हा कधीतरी ते लयाला जाणारच असतं! ते वादळ जाऊन शांत झुळूक येणारच असते.पण तोपर्यंत त्या  वादळाला धीराने, संयमाने तोंड देत वाट पहावी लागते ! …. 

… तेव्हाच त्या वादळाचे झुळुकीत रूपांतर झालेले आपल्याला अनुभवायला मिळते !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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