हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 315 ⇒ बॉन्ड एंबेसेडर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बॉन्ड एंबेसेडर…।)

?अभी अभी # 315 ⇒ बॉन्ड एंबेसेडर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम भी अजीब हैं। हमारी पीढ़ी को आप चाहें तो बॉन्ड एंबेसेडर कह सकते हैं। ऐसा कौन इंदौरी होगा, जिसने स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में नहीं देखी हों। जेम्स बॉन्ड 007 तब बच्चे बच्चे की जबान पर होता था। क्या नाम था उसका, सीन कॉनेरी, जिसे कुछ लोग सीन सीनरी भी कहते थे।

अंग्रेजी कभी हमारी मादरे ज़ुबां नहीं रही, फिर भी हमें अंग्रेजी फिल्मों से विशेष प्रेम रहा। वैसे भी प्रेम रोमांस और मारधाड़ की कोई भाषा नहीं होती।

भाषा के बारे में हमारी पुख्ता जानकारी यह कहती है कि अंग्रेजी और उर्दू तो कोई जुबान ही नहीं है। कोई ग्रीक और लैटिन से निकली है, तो कोई अरबी और फ़ारसी से। अगर हमें संस्कृत आती, तो हम भी कभी हिंदी में बात ही नहीं करते। सब समय समय की बात है।।

वह डॉन का नहीं, गॉडफादर और घोड़े पर हैट लगाए काउब्वॉय का जमाना था। हम साइकिल पर चलने वाले तब एंबेसेडर कार को ऐसे देखते थे, जैसे आज लोग विदेशी कारों को देखते हैं। इक्की दुक्की फिएट और एंबेसेडर कारें ही सड़कों पर दौड़ा करती थी। मारुति तो तब पैदा भी नहीं हुई थी।

हम तब इतने गये गुजरे भी नहीं थे। हमें एंबेसेडर का एक और मतलब भी मालूम था, राजदूत। राजदूत से खयाल आया, मोटर साइकिल भी तो दो ही थी, राजदूत और रॉयल एनफील्ड। वेस्पा, लैंब्रेटा ने पूरे देश को आपस में बांट रखा था। चल मेरी लूना (मोपेड) का भी तब कहीं अता पता नहीं था।।

कई जेम्स बॉन्ड आए और चले गए, और हिंदी फिल्मों में डॉन का प्रवेश हो गया।

स्टार लिट और बेम्बिनो जैसे टॉकीज नेस्तनाबूद हो गए। कल का जेम्स बॉन्ड 007 बूढ़ा बरगद हो गया, और इधर हमारे देश में ही नए ब्रांड एम्बेसडर पैदा हो गए। जितने ब्रांड उतने एंबेसेडर। कोई चार दिन गुजरात में गुजारने की बात करता रहा तो कोई जुबां केसरी से खुशबू महकाता रहा।

इसी बीच एक ऐसे इंडियन ब्रांड एंबेसेडर ने जन मानस में प्रवेश किया, जिसने सभी जेम्स बॉन्डों, गॉडफादरों और कॉब्वॉयज को पीछा छोड़ दिया। कभी वह समंदर में समाधि लगाता तो कभी हरमंदर में। अफ्रीकन सफारी को भी मानो अपना ब्रांड एंबेसेडर मिल गया हो। हमें कभी कभी तो उसे देखकर हमारे हीरो हेमिंग्वे की याद आने लगती।

आज भी वही भारत का जेम्स बॉन्ड 007 है और इंडियन ब्रांड एंबेसेडर भी। फौलादी इरादों के लिए फ़ौलादी बदन भी होना चाहिए। आज भले ही हम कल जैसे स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में नहीं देख पा रहे हों, लेकिन एडवेंचर, रोमांच और बहादुरी का बॉन्ड, हमारा भारतीय ब्रांड एंबेसेडर हमारे बीच हो, तो देशभक्ति के साथ साथ, मनोरंजन की तो पूरी गारंटी। स्वदेशी बॉन्ड, इंडियन ब्रांड एंबेसेडर हमारा परिवार।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 95 – इंटरव्यू : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 1

☆ कथा-कहानी # 95 –  इंटरव्यू : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

असहमत के पिताजी के दोस्त थे  शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर  असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने  का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.

कुछ अरसे बाद बड़े याने बहुत बड़े साहब रिटायर होकर फूलमालाओं के साथ घर आ गये. जिन्होंने उनकी विदाई पार्टी दी वो ऊपरी तौर पर दुल्हन के समान फूट फूट कर रो रहे थे पर अंदर से दूल्हे के समान खुश और रोमांचित थे. तारीफ इतनी की गई कि लगने लगा बैलगाड़ी बैल नहीं बल्कि यही या वही जो इनके घर के domestic थे, चला रहे थे.निश्चित रूप से शुरु में टेंशन में रहे कि अब ऑफिस कैसे चलेगा, समस्याओं को कौन हैंडल करेगा, विरासती लीडरशिप के बिना वक्त की सुई उल्टी न घूमने लगें. हालांकि बहुत दिलेरी से बोलकर आये थे कि “Call me any time when you need me and I am unofficially always there even after my official farewell” पर कॉल न आनी थी न आई बार बार चेक करने के बावजूद. जब भी घंटी बजती ,लपक के उठाते ,ऑफिस के बजाय इन्वेस्टमेंट ऐजेंट्स रहते जिन्हें मालुम पड़ चुका था कि साहब को फंड मिलने वाला है. म्यूचल फंड, Bank deposit schemes, LIC, different senior citizen schemes के मार्केटिंग प्रवचनों से तनाव बढ़ने लगा. अफसरी और ऑफिस का मोह जल्दी नहीं छूट पाता क्योंकि राम, बुद्ध, महावीर के देश में निर्विकार होने की कला रिटायरमेंट के बाद सिखाने वाला गुरुकुल है ही नहीं.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 15 – चंदा ये कैसा धंधा? ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिलावटी दुनिया।)

☆ लघुकथा – चंदा ये कैसा धंधा? ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दरवाजे की घंटी बजी और सामने एक बड़ा झुंड दिखाई दिया।

कहां गए बत्रा जी?

कमला उनको देखकर मन में विचार करने लगी अब क्या करूं तभी एकाएक उसके मुंह से कुछ शब्द निकले…

अभी देखा न घर से बाहर गए बत्रा जी आप कौन हैं?

एक काले मोटे बड़ी बड़ी मूंछ वाले लड़कों ने रसीद निकालते हुए कहा ऐसा है आंटी नई कमेटी बनी है चंदा दो।

अरे क्यों चंदा दे भाई हमारी कमेटी है।

वह भंग हो गई कारण नहीं बता सकते।

ऐसा कहीं होता है क्या मेंबर्स की मीटिंग भी हुई।

देखो आंटी वह सामने लाइट लगी है हमने लगवाई है ₹500 महीने देना पड़ेगा।

यह कोई जबरदस्ती है इतने में ही पड़ोस के चार लड़के आगे और बातों बातों में आग बबूला होने लगे मारपीट हो गई, सिर फुटौव्वल की नौबत आ गई।

कमला जी ने जोर से कहा – बच्चों शांत हो जाओ किसी बुजुर्ग को अपने साथ होता तो यह नौबत नहीं आती, देखो भाई हम तुम्हें नहीं जानते ना पहचानते हमारे मोहल्ले के तुम लग नहीं रहे हो?

ना दुआ ना सलाम ना राम राम तुम कैसे मेहमान?

बच्चों तुम लोग तो लाठी के जोर पर ऐड दिखा रहे हो क्या?

नहीं दूंगी एक पैसा और जो लगी है स्ट्रीट लाइट नगर निगम लगाती है।

₹500 कम होता है किसी गरीब को देंगे किसी बच्चे की पढ़ाई के लिए लगाएंगे तो ज्यादा अच्छा है।

आप लोग पढे-लिखे अच्छे घर के लगते हो कोई ढंग का काम करो।

एक लड़के ने बेशर्मी से हंसकर कहा- आपको कोई ऐतराज है ज्ञानी आंटी।

अरे बच्चों के ऊपर इतनी दया नहीं करोगी क्या?

धूप में गला भी सूख गया है चाय पानी के लिए ही कुछ दो,आप ही ने तो कहा था आंटी चंदा कैसा धंधा……

धंधे की शुरुआत की है कुछ बोली तो करवा दो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ “Stride for Life” – 5 km Walkathon – Pune – Keep Fit to be Organ Donor ☆ Courtesy – Mr. Sunil Deshpande ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ Keep Fit to be Organ Donor ☆ Courtesy – Mr. Sunil Deshpande ☆

“Stride for Life: Join Our Walkathon for Organ Donation Awareness! and Win Exciting Cash Prizes worth of Rs.1 Lakh.”

Dear Participants,

We are excited to invite you to “Stride for Life,” a walkathon dedicated to raising awareness about the importance of organ donation. This event aims to highlight the life-saving impact of organ donation and inspire individuals to become registered organ donors.

Date: 23rd March-2024
Time: 6.00am

Venue : Ground space next to ABZ Mall, opposite Shri Ganesh Mandir, Ganraj Chowk, Baner road, Baner, Pune
Location Link :

Dear Participants,

Our walkathon will feature a traffic free route through Baner/ Balewadi area, offering participants the opportunity to enjoy a refreshing walk while supporting a meaningful cause. Along the route, there will be informational booths providing facts about organ donation, resources for becoming a registered donor, and opportunities to engage with healthcare professionals and transplant donors and recipients.

By participating in “Stride for Life,” you can make a difference in the lives of those awaiting organ transplants. Your steps will symbolize hope, awareness, and support for individuals and families affected by organ failure. Registration for the walkathon is Rs.100/- as a Registration Fee, and all are welcome to join by filling up this Google Form. Whether you’re walking solo, with family and friends, or as part of a team, your presence will help spread the message of organ donation and potentially save lives.

Together, let’s take strides towards a future where every person in need of a transplant receives the gift of life.

For more information, please visit :
OR mail us on :

We look forward to seeing you at “Stride for Life” as we walk together to make a difference!

Sincerely,

Organizing Committee

Courtesy – Mr. Sunil Deshpande

Pune, Mob – 9657709640 Email : [email protected]

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 222 ☆ होळी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 222 ?

☆ होळी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

भंगार जाळण्याला येतेच नित्य होळी

मारून बोंब आता होईल व्रात्य होळी

*

मोहात पौर्णिमेच्या असतेच चांदणेही

चंद्रास काय ठावे दावेल सत्य होळी

*

जाळात टाकलेले, वाईट – वाकडेही

पेटून पाहते ते प्रत्येक कृत्य होळी

*

भरपूर घातलेले पोळीत पुरण आता

दारात पेटते पण करते अगत्य होळी

*

आता “प्रभा”स कोणी शिकवू नका हुषारी

खेळून रंग सारे पेटेल अंत्य होळी

© प्रभा सोनवणे

१९ मार्च २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हिमालयाच्या कुशीत ☆ डाॅ. विष्णू वासमकर ☆

डाॅ. विष्णू वासमकर

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ हिमालयाच्या कुशीत ☆ डाॅ. विष्णू वासमकर☆ 

वाटत होते असतील सुंदर

म्हणूनही पहावया आलो डोंगर,

जवळी जाता भयचकित मीच

पाहुनी विराट हे हिमगिरीवर !   १.

*

हिमालयाच्या कुशीत जाता

विराट रूप ते करी अचंबित,

दिव्यत्वाची प्रतीती येऊन

पुन्हा पुन्हा मी झालो स्तंभित !   २.

*

यमुनेच्या ह्या झेलून धारा

गंगेमध्ये वितळून गेलो,

हिमरुद्राच्या चरणी लागून

अपवित्र मी पवित्र झालो !    ३.

*

श्रीविष्णूचा मग धावा करता

बद्रीनाथही दिसू लागला,

गुज मनातील भेटून सांगीन

त्या माझ्या मग कृष्णसख्याला !!    ४.

© डाॅ. विष्णू वासमकर

स्थळ : हिमालय

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ असं आहे… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

श्री विश्वास देशपांडे

? विविधा ?

☆ असं आहे… ☆ श्री विश्वास देशपांडे

मधुकर तोरडमल यांचे ‘ तरुण तुर्क म्हातारे अर्क ‘ हे नाटक बहुतेकांनी पाहिले असेल. पाहिले नसले तरी वेगवेगळ्या माध्यमातून त्यांनी त्या नाटकात प्रा बारटक्के यांच्या तोंडी घातलेली ‘ ह हा हि ही… ‘ ची बाराखडी बहुधा सर्वांच्या परिचयाची असेल. व्यवहारात अशी अनेक माणसे पाहतो की ज्यांना बोलण्यासाठी पटकन शब्द सापडत नाहीत. अशी माणसे मग ‘ ह हा हि ही ‘ चा आधार घेतात. समोरच्या व्यक्तीला संदर्भाने त्यांचे म्हणणे समजून घ्यावे लागते. पण कधी कधी अशा बोलण्यातून भयंकर विनोद वा क्वचित गैरसमजही होऊ शकतो. पु ल देशपांडे, मधुकर तोरडमल, लक्ष्मण देशपांडे यांच्यासारखी निरीक्षण चतुर मंडळी लोकांच्या अशा लकबी बरोबर हेरतात आणि खुबीने त्यांचा आपल्या लेखनात वापर करून घेतात. ‘ वऱ्हाड निघालं लंडनला ‘ या लक्ष्मण देशपांडे यांच्या एकपात्री प्रयोगात तर प्रत्येक पात्रागणिक त्यांनी अशा लकबींचा सुरेख वापर केला आहे. त्यातून त्या पात्रांचे स्वभाववैशिष्ट्य तर दिसतेच पण त्यातून निर्माण होणारा विनोद श्रोत्यांना पोट धरून हसायला लावतो.

माझ्या संपर्कात अशी काही माणसे आली आहेत की बोलताना त्यांच्या लकबी किंवा विशिष्ट शब्दांची त्यांनी केलेली पुनरावृत्ती माझी नेहमीच करमणूक करून जाते. अर्थात तुमच्याही संपर्कात अशी माणसं आली असतीलच.

माझे एक सहकारी कोणतीही गोष्ट बोलताना नेहमी ‘ नाही ‘ ने सुरुवात करीत असत. ‘ नाही, ते असं नाही. नाही, माझं ऐकून घ्या. नाही ते असं करायचं असतं… ‘ वगैरे. त्यांचीच भाऊबंद असलेली ( नात्याने नाही बरं का, तर बोलण्याच्या लकबीमुळे ) एक ताई आपल्या बोलण्याची सुरुवात ‘ नव्हे ‘ ने करीत असत. कधी कधी बिचाऱ्यांना आपले म्हणणे अधिक स्पष्ट करण्यासाठी ‘ नव्हे नव्हे ‘ चा दोन वेळा वापर करावा लागायचा. खरं म्हणजे दोन नकारांचा एक होकार होतो असं म्हणतात. म्हणजे ‘ ते खरं नाही असं नाही ‘ या वाक्यात दोन नकार आले आहेत. त्यांचा अर्थ होकारार्थी होतो. म्हणजे ‘ ते खरं आहे. ‘ पण आमचे हे ‘ नाही नाही ‘ किंवा ‘ नव्हे नव्हे ‘ म्हणणारी मंडळी त्यांच्या मतावर इतकी ठाम असतात की त्यांच्या दोन्ही नकारांचा अर्थ ‘ नाहीच ‘ असा होतो.

हे ‘नाही नाही’ किंवा ‘नव्हे नव्हे’ कसं येत असावं ? प्रत्येक गोष्टीची सुरुवात नकारार्थीच का व्हावी ? एकदा मी कुठेतरी वाचलं होतं की लहानपणी नुकत्याच जन्मलेल्या रडणाऱ्या बाळाला हॉस्पिटलमधली नर्स जेव्हा शांत करण्याचा प्रयत्न करते, तेव्हा ती त्याला हातात घेऊन ‘ नाही नाही ‘ असं म्हणते. मग पुढे आई आणि त्या बाळाला घेणाऱ्या आयाबाया तिचाच कित्ता गिरवतात. त्या रडणाऱ्या बाळाला हातात घेऊन ‘ नाही नाही, असं रडू नाही. ‘ वगैरे चा भडीमार त्या करतात. लहानपणापासून असं ‘ नाही नाही ‘ ऐकण्याची सवय झालेलं ते बाळ आपल्या पुढील आयुष्यात ‘ नन्ना ‘ चा पाढा लावील त्यात नवल ते काय ?

आमचे आणखी एक सहकारी होते. ते वयाने आमच्यापेक्षा ज्येष्ठ होते. ते ‘ नाही नाही ‘ जरी म्हणत नसले तरी त्यांना दुसऱ्याचे बोलणे कसे चुकीचे आहे हे नेहमी सांगण्याची सवय होती. आपण त्यांना एखादी गोष्ट सांगितली की ‘ प्रश्न तो नाही रे बुवा… ‘ अशी त्यांची सुरुवात असायची. मग तेच म्हणणे ते जरा वेगळ्या शब्दात सांगायचे. चार लोक एकत्र बोलत असले की ते अचानक यायचे आणि एखाद्याला ‘ अरे इकडे ये, तुझ्याशी महत्वाचं काम आहे ‘ असं म्हणून बाजूला घेऊन जायचे. पण खरं तर महत्वाचं काम वगैरे काही नसायचं पण मी कसा वेगळा आहे हे दाखवण्याचा त्यांचा प्रयत्न असायचा.

आमच्या नात्यातले एक गृहस्थ चार दोन वाक्ये बोलून झाली की ‘ असं आहे ‘ असं म्हणतात. त्यांच्या बोलण्याचं सार इंग्रजीत सांगायचे झाले तर ‘ Thus far and no further. ‘ म्हणजे हे ‘ असं आहे. मी सांगतो ते फायनल. यापुढे अधिक काही नाही. ( आणि काही असले तरी ते सांगणार नाहीत. हा हा )

आमचे एक प्राध्यापक होते. ते वर्गात शिकवताना दोन चार वाक्ये बोलून झाली की ‘ असो ‘ असं म्हणायचे. मुलांना ते सवयीचे झाले होते. कधी कधी एक दोन वाक्यानंतर त्यांच्या तोडून ‘ असो ‘ बाहेर पडले नाही तर मागील बाकावरून एखादा खोडकर विद्यार्थी हळूच ‘ असो ‘ म्हणायचा. मग सगळा वर्ग हास्याच्या लाटेत बुडून जायचा. ते प्राध्यापकही हे गमतीने घ्यायचे आणि हसण्यात सामील व्हायचे. आणि पुन्हा ‘ असो ‘ म्हणून शिकवायला सुरुवात करायचे.

माझ्या परिचयातील एक गृहस्थ आपण काहीही सांगितलं की ‘ हो का ‘ किंवा ‘ खरं का ‘ असे विचारायचे. मग त्यांना पुन्हा ‘ हो ‘ म्हणून सांगावे लागायचे. जसं वर ‘ नाही ‘ ने सुरुवात करण्याचा किस्सा सांगितला आणि त्यामागे नर्सपासून सगळे जबाबदार होते ( खरं तर अशा लोकांना पकडून जाब विचारायला हवा की तुम्ही ‘ नाही नाही ‘ असे का शिकवले ? कोण विचारणार त्यांना ? जाऊ द्या.

हे म्हणणं म्हणजे लग्नानंतर पती पत्नीत वादविवाद झाले तर मध्यस्थ कोण होता किंवा लग्न लावून देणारे गुरुजी कोण होते त्यांना बोलवा असं म्हणण्यासारखं आहे. ) तसंच ‘ हो का ‘ किंवा ‘ खरं का ‘ असं विचारण्यामागे त्या व्यक्तीचा संशयी स्वभाव किंवा समोरच्या व्यक्तीवर विश्वास नसणे या मानसिकतेतून आलं असावं. असे सारखे ‘ हो का ‘ विचारणाऱ्यांचे नाव आम्ही खाजगीत ‘ होकायंत्र ‘ ठेवले होते.

अशीच काही व्यक्तींना आपण काही सांगितले तर ‘ अच्छा ‘ किंवा ‘ अरे वा, छान ‘ अशी म्हणायची सवय असते. त्यांना जरी सांगितले की ‘ अहो, तो अमुक अमुक आजारी होता बरं का ‘ यावर ते आपल्या सवयीने पटकन बोलून जातील, ‘ अच्छा ‘ किंवा ‘ अरे वा, छान… ‘ आता काय म्हणावे अशा लोकांना ? कोल्हापूर, साताऱ्याकडची मंडळी प्रत्येक वाक्यानंतर समोरच्याला बहुधा ‘ होय ‘ अशी छान तोंडभरून प्रतिक्रिया देतात. सोलापूर, पंढरपूरकडील मंडळी त्याहीपुढे जाऊन ‘ होय की ‘ असं गोड प्रत्युत्तर देतात. हे ‘ होय की ‘ त्यांच्या तोंडून ऐकायलाच मजा वाटते.

काही मंडळींना चार दोन वाक्ये झाली की समोरच्याला, ‘ काय कळले का ? ‘ किंवा ‘ लक्षात आलं का ? ‘ असं विचारण्याची सवय असते. अशी मंडळी या जन्मात नसली तरी पूर्व जन्मात शिक्षक असावी असे माझे पक्के मत आहे. त्यांचेच काही भाऊबंद ‘ माझा मुद्दा लक्षात आला का ? ‘ असे विचारणारी आहेत. कधी कधी तर दोन मित्र फिरायला निघाले असतील तर एखाद्या मित्राला अशी सवय असते की तो आपली बडबड तर करत असतोच पण समोरच्याचे लक्ष आपल्या बोलण्याकडे आहे की नाही यासाठी त्याचा हात किंवा खांदा दाबत असतो. माझ्या एका मित्राला अशीच खांदा दाबण्याची सवय आहे. आम्ही फिरायला निघालो की तो बोलत असतो. माझे त्याच्या बोलण्याकडे लक्ष असले तरी खात्री करून घेण्यासाठी तो माझा खांदा वारंवार दाबत असतो. मग एका बाजूचा खांदा पुरेसा दाबून झाला की मी चालताना बाजू बदलून घेतो मग आपोआपच माझा दुसरा खांदाही दाबला जातो.

काही माणसांना फोनवर बोलताना पाहणे किंवा ऐकणे हाही एक मोठा गमतीदार अनुभव कधी कधी असतो. हास्यसम्राट प्रा दीपक देशपांडे यांनी आपल्या एका कार्यक्रमात अशा बोलण्याचा एक नमुना सादर केला होता. एक व्यक्ती फोनवर बोलत असते. समोरच्या बाजूला कोणी तरी भगिनी असते. हा आपला प्रत्येक वाक्याला, ‘ हा ताई, हो ताई, हो ना ताई ‘ अशी ‘ ताईची ‘ मालिका सुरु ठेवत असतो. काही माणसे फोनवर बोलताना सारखं ‘ बरोबर, खरं आहे ‘ यासारखे शब्द वारंवार उच्चारताना दिसतात तर काही ‘ तेच ना ‘ याची पुनरावृत्ती करतात.

अजून काही मंडळी बोलताना जणू समोरच्या व्यक्तीची परीक्षा पाहतात. त्यांच्या सांगण्याची सुरुवातच अशी असते. ‘ काल काय झालं माहितीये का ? ‘ किंवा ‘ मी आज केलं असेल माहिती आहे का ? ‘ आता समोरच्या व्यक्तीला कसं माहिती असणार की काल काय झालं किंवा तुम्ही आज काय केलं ? मग पुढे अजून ‘ ऐका ना.. ‘ ची पुस्ती असते. आता आपण ऐकतच असतो ( दुसरा पर्याय असतो का ) तर कधी कधी समोरची व्यक्ती आपल्याला मी फार महत्वाचं सांगतो आहे किंवा सांगते आहे असा आव आणून ‘ हे पहा मी सांगतो. तुम्ही एक काम करा… ‘ अशी सुरुवात करतात. असो मंडळी. तर असे अनेक किस्से आहेत. ‘असो. ‘, ‘ असं आहे बुवा सगळं. ‘ आता तुम्ही एक काम करा. लेख संपत आलाय. तेव्हा वाचणं थांबवा किंवा दुसरं काही वाचा. आणि हसताय ना ? हसत राहा.

© श्री विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव

प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ का गं तुझे डोळे ओले? – भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ❤️

का गं तुझे डोळे ओले– भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये

(पूर्वसूत्र- अभ्यासाचं दप्तर तसंच पसरून केदार कॉमिक्स वाचत अंथरुणावर लोळत होता. अजून अंथरुणं गोळा व्हायचीयत हे तिला जाणवलं आणि कमलाबाई अनपेक्षितपणे आल्याचा मनाला स्पर्शू पहाणारा आनंद तिथंच विरून गेला. ‘आज कमलाबाई आल्याच नसत्या तर.. ?’ ) इथून पुढे —

ऑफिस आणि घर दोन्हीकडची कसरत खूप डोईजड व्हायला लागली तेव्हा स्वयंपाकाला बाई लावायचा तिने हट्टच धरला होता. त्याशिवाय केदारचा अभ्यासही नियमितपणे घेणे शक्य होणार नव्हते. हो नाही करता करता नवऱ्याने होकार दिला पण अंथरूणं गोळा करायचं काम निमाच्या यादीत टाकून त्याने अतिशय स्वार्थीपणाने तो ‘बार्गेन’ही जिंकलाच. त्याचा तेव्हाचा हिशोबीपणा लक्षात येऊनसुद्धा निमाला फारसा खुपला नव्हता, .. पण आज.. ?

कमलाबाई स्वैपाकीणबाई होत्या. स्वयंपाक हे एरवी निमाचं काम. त्या आल्या नाहीत तर ते तिनेच करायला हवं. त्या आल्या नाहीत म्हणून हिच्या नवऱ्याच्या किंवा मुलाच्या वेळापत्रकात काही फरक का पडावा? नवऱ्याचं आणि मुलाचं हे असं आत्मकेंद्री वागणं इतक्या खोलवर आजपर्यंत तिला कधी खुपलंच नव्हतं. तिच्या ऑफिसमधे गेले दोन दिवस आॅडिट सुरु होतं. रोजच्यापेक्षा उद्या सकाळी लवकर निघायचंय हे ती आदल्या रात्रीपासून घोकत होती. आजची तिची वेळेची निकड तिच्या नवऱ्याला अर्थातच आधीपासून माहीत होती. केदारसुद्धा रांगत्या बाळाएवढा अजाण नव्हता. तरीही कमलाबाईंच्या अचानक न येण्यामुळं उद्भवलेल्या परिस्थितीत आपसूक पुढं येणं आवश्यक असणारा दोघांच्या मदतीचा हात जागचा हलला नव्हता. नवऱ्याच्या आणि मुलाच्या या स्वार्थीपणाचं दर्शन इतक्या लख्खपणानं असं तिला प्रथमच दुखवून गेलं.. ! आपण या घरात केवळ ‘बाई’ म्हणून गृहीत धरले जातोय या विचाराची तीक्ष्ण बोच तिला खुपू लागली. स्वतःच्या तथाकथित सुखवस्तू, सुसंस्कृत आणि सुरक्षित घरातही तिला उगीचच अगदी एकटं एकटं वाटू लागलं.

कमलाबाई आल्या, अगदी अनपेक्षित आल्या, पण त्यांच्या येण्याने तिला झालेला आनंद उमलण्यापूर्वीच मलूल होऊन गेला. आपल्यापेक्षा याच कितीतरी सुखी!समाधानी! दुसऱ्यांच्या घरी स्वैपाकपाण्याची कामं का असेनात पण स्वाभिमानाने करतायत. स्वाभिमानाने जगतायत. चार महिने होऊन गेले त्या कामाला यायला लागून. पण कधी कामं टाळणं नाही, चुकारपणा नाही, अघळपघळ गप्पा नाहीत, वाढत्या महागाईला शिव्याशाप नाहीत, नवऱ्याबद्दल कसली गाऱ्हाणी नाहीत, मुलासूनेबद्दल कुरबुरी नाहीत, सुखाने ओथंबून गेल्यासारख्या शांत, आनंदी, हसतमुख, समाधानी आहेत.

नाहीतर आपण! ‘नोकरी करणारीच मुलगी हवी ही मुख्य अट पूर्ण करीत होतो म्हणून इथे पसंत पडलो. आपण नाकारावं असं त्यावेळी जाणवणारं नवऱ्याचं काही नव्हतंच. म्हणून मग लग्न झालं. आणि.. आणि पूर्ण वेळेची दुसरी नोकरी असावी तसं हे घरकाम आपल्याला चिकटून बसलं!आपलं घर, आपलं काम म्हणून सगळं हौसेनं करीत राहिलो सुरुवातीला पण

आपलेपणाची ही अशी गुंतवणूक एकतर्फीच वाढत राहिली. आपण थोडे चिडलो, संतापलो, चडफडलो, कातावलो आणि मग हळूहळू निर्ढावलोसुद्धा!! 

पण इतके दिवस निर्ढावलंय असं वाटणारं आपलं मन अजून मेलेलं नाहीये. म्हणूनच तर वाटतंय आपलं शिक्षण, आपली नोकरी, आपला बाळसेदार पगार या सगळ्यापासून मिळणाऱ्या दिखाऊ समाधानापेक्षा कमलाबाईंना मिळणारं समाधान कितीतरी पटीने निखळ आहे!.. ‘

कमलाबाईंची आठवण झाली आणि जेवणाचे डबे घासून घेता घेता तिनं चमकून त्यांच्याकडं पाहिलं तर भाजी चिरता चिरता त्या पदरानं डोळे पुसत होत्या.

“काय झालंय हो? तब्येत बरी नाहीये कां?” निमाने हळुवारपणे विचारलं आणि तिला एकदम त्या सकाळच्या निरोपाची आठवण झाली.

” कमलाबाई, काय झालंय सांगा बरं.. “

” कुठं काय?.. कांही नाही.. खरंच. “

” रडताय तुम्ही.. “

“छे हो.. “.. त्या एवढंसं हसल्या. “आत्ता कांदा चिरत होते ना, तो झोंबलाय डोळ्यांना” त्या स्वतःशीच बोलल्या. निमाला त्यांची मनापासून किंव वाटली.

” आज येणार नव्हतात ना? एक मुलगा निरोप सांगून गेला होता”

” एक मुलगा?” त्यांनी दचकून विचारलं. “काय सांगितलायन निरोप?”

“तुम्ही आज येणार नाही म्हणाला होता”

“असं म्हणाला? कोण तो? कसा होता?”

“कसा म्हणजे? पोरसवदाच होता. चोवीस पंचवीसचा. काळासावळा.. “

“.. आणि कळकटलेल्या तेलकट चेहऱ्याचा.. केस पिंजारलेले होते.. कपडे मळकट होते… आंघोळसुद्धा झालेली नव्हती… डोळ्यांत चिपडं तशीच होती… “

निमा थक्क होऊन ऐकत राहिली.

“वहिनी, अहो तो माझाच मुलगा असणार. केव्हा घराबाहेर पडला आणि निरोप देऊन गेला पत्ताही लागू दिला नाही बघा मला. “

निमा अवाक् होऊन या कमलाबाईंचं निरोगी सुंदर रूप आणि तो कळकट मुलगा यांचं समीकरण ‌जुळवत राहिली.

“कां येणार नाही म्हणाला हो तो? माझ्या तब्येतीचं काही बोलला का?”

“अं.. ?”निमा अडखळली. तिला आता खरं बोलावं की बोलू नये याचा पटकन् निर्णय घेता येईना. पण त्याचवेळी तिला कमलाबाईंच्या हसऱ्या, आनंदी मुखवट्यामागचा खरा चेहरा पहाण्याची विलक्षण ओढ लागून राहिली.

“म्हणाला, घरी भांडणं झालीयत”

त्यांनी चमकून वर पाहिलं.

“असं म्हणाला.. ?” त्यानी विचारलं आणि एकदम हसतच सुटल्या. त्यांचं हसणं खरं की खोटं निमाला चटकन् समजेचना.

स्वतःला सावरण्यासाठी जवळ केलेल्या त्या खोट्या हसण्याच्या एवढ्याशा धक्क्यानेच कमलाबाईंच्या चेहऱ्यावरचा तो मुखवटा तडकून गेला… !

 – क्रमश: भाग दुसरा 

©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जातं…  ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

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☆ जातं… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

मी जातं…… जातीपातीतील नव्हे ! खूपच अनादी कालीन ! माझ्याशिवाय ह्या मानव जातीची भूक भागत नाही ! तसा माझा ह्या पृथ्वीवर जन्म केव्हा झाला ते सांगता येत नाही. गरज ही शोधाची जननीच ! त्यामुळेच माझा शोध कोणत्या अवलीयाने लावला ते ही अज्ञात ! 

कदाचित रामायण, महाभारत असेल किंवा त्यापुढेही माझा जन्म झाला असेल, नक्की सांगता येत नाही एवढं खर ! मानवी भूक निर्माण झाली व गहू बाजरी ज्वारी निर्माण झाली तेंव्हा पासूनच मी आहे ! पण माझं अस्तित्व अजुनी टिकून आहे, व पुढेही टिकून राहील ! 

मी मुळातच दणकट व खंबीर ! कारण मी दगडातून निर्माण झाले. माझं व स्त्रीच सख्य हे कायमच, स्त्री माझी बाल मैत्रीण ! तिच्या वाटेला आलेलं सुख दुःख मी स्वतः पाहिलंय ! तिच्या वेदना मी जाणल्या !

माझी घरघर व तिच्या प्रपंच्याची घरघर ही भल्या पहाटेच होत असे ! तीन मला ब्राम्ह्य मुहूर्तावर जाग करण्याची सवय लावली ! तिच्या खड्या आवाजातील ओव्या व माझी घरघर एकदमच एकावेळी चालू होतं असत. व आमच्या आवाजाने मग इतर लोक उठत असत.

माझी सुख दुःखाची दोन पाती (पाळ ) मी स्त्रीच्या गळ्यात बांधली ! हे कमी पडू नये म्हणून माझ्या वरच्या पाळीच्या कडेला गोलसर खळीत वेदनेचा दांडा बसवला गेला ! (कदाचित तो त्रिगुणात्मक असावा ) जेणेकरून तो दांडा हातात धरून मला गोलगोल फिरवता येईल अशी सोय पण केली ! खळी ही जणू माझ्या गालावरचीच खळी ! कायमची ! माझा दांडा व तिच्या वेदना ह्या केव्हा एकरूप झाल्या ते कळलेच नाही ! पाळ बाजूला केल तरी, तो वेदनेचा दांडा तसाच ठेवला जातो.

माझ्या खालच्या पाळ्याला मात्र मधोमध एक सुख दुःखाना एकत्र ठेवणारा, प्रेमाचा मजबूत खिळा आहे ! जेणेकरून दोन्ही सुख दुःखाची पाळी एकत्र नांदतील ! 

मी म्हटलं तर वर्तुळाकार ! म्हटलं तर शून्य ! 360 अंशातून कायम फिरते ! व माझ्या भोवती तो वेदनेचा दांडा पण फिरतोच ! माझ्यात व सृष्टीत काय फरक आहे ! ती पण गोल फिरत असतेच की सूर्यभोवती ! काहीवेळा वापर नसल्यास शून्या सारखी हरवते ! शून्यात टक लावून बसते ! 

माझ्या वरच्या पाळीत माझं ऊर्ध्वमुखी तोंड ! जे मुखात पडेल ते गोड मानून घेते ! कधी गहू, कधी ज्वारी, कधी कडवट बाजरी, कधी शुभ्र तांदुळ ! येणाऱ्या घासाला पवित्र मानून, त्याचे चर्वण करायचे व त्याचे कठीण अस्तित्व घालून त्याला सुता सारखे मऊ करायचे ! व बाहेर त्याला धुतल्या तांदळासारखा शुद्ध करून पाठवायचे ! 

जो पर्यंत संसार आहे, प्रपंच आहे, तोपर्यंत माझं हे काम असच अव्याहत पणे चालू असणार ! संसार म्हटलं की भूक आलीच ! ह्या संसारात मोक्ष मिळे पर्यंत हेच माझं अखंड व्रत ! व्वा काय जन्म दिलास देवा ! माझ्या ह्या भाळी दोन सुख दुःखाच्या पाळी, ऊर्ध्वमुख वर वेदनेचा दांडा ! तो ही शून्यात फिरणारा ! 

कित्येक दाणे मुखात येतात, कित्येक सुपात आहेत, कित्येक शुभ्र होऊन बाहेर पडले ! मी मात्र तशीच फिरत आहे. वरच्या पाळीत मात्र तू विविध नक्षी कोरलीस पण खालच्या पाळीच काय ? तिला मात्र छन्निचे घाव सोसावे लागतात ! 

माझं कालपरत्वे रूप बदललं ! यांत्रिकी झालं ! कोणी मिक्सर केलं म्हणून काय झालं ? माझ्या पाळ्या बदलाव्या लागल्या तरी, मी अजुनी वर्तुळातच फिरते ! ती कायमची येणार दळण दळत !! 

© प्रा डॉ. जी आर (प्रवीण) जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

नसलापुर  बेळगाव

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ सयाजीराव गायकवाड :: ☆ श्री प्रसाद जोग ☆

श्री प्रसाद जोग

🌈 इंद्रधनुष्य 🌈

☆ सयाजीराव गायकवाड :: ☆ श्री प्रसाद जोग

जन्म: ११ मार्च, १८६३.

(महाराज श्रीमंत सयाजीराव खंडेराव गायकवाड (तिसरे), जन्मनाव गोपाळराव काशीराव गायकवाड.) 

१८७५ ते १९३९ सालांदरम्यान बडोदा संस्थानाचे अधिपती होते. बडोदे संस्थानाचे अत्यंत पुरोगामी वृत्तीचे, कर्तृत्ववान संस्थानिक (कारकीर्द – १८८१-१९३९) होते. बडोदा संस्थानातील प्रजेच्या कल्याणासाठी केलेल्या कार्याकरता ते विशेषत्वाने ओळखले जातात.

बडोद्याचे लोकप्रिय महाराज खंडेराव यांचे निधन झाल्यावर त्यांचे बंधू मल्हारराव गादी सांभाळू शकले नाहीत, कारण त्यांच्यावर बंधूंच्या हत्येचा कट केल्याचा आरोप होता आणि त्या साठी त्यांना अटक देखील झाली होती. खंडेराव महाराजांची मुले लहान वयात निवर्तली असल्याने त्यांच्या विधवा पत्नी महाराणी जमानाबाईसाहेब यांनी कुटुंबातील अन्य मुलांचा दत्तक घेण्यासाठी शोध सुरु केला. नाशिक जवळील कौळाणे येथील काशीराव त्यांच्या तीन मुलांना १)आनंदराव २)गोपाळराव ३) संपतराव याना घेऊन बडोद्याला आले. तिथे तिघांचीही परीक्षा घेण्यात आली, त्यांना विचारले की ‘तुम्हाला इथे का आणले आहे माहीत आहे का?गोपाळराव म्हणाले मला इथे राज्य करण्यासाठी आणले आहे त्या उत्तराने संतुष्ट होऊन त्यांचा राज्याभिषेक करण्यात आला.

दिवाण, सर टी. माधवराव यांनी सयाजीरावांना राज्यकारभाराचे शिक्षण दिले. २८ डिसेंबर १८८१ रोजी गादीवर आल्याबरोबर सयाजी रावांनी राज्याची आर्थिक स्थिती सुधारण्यासाठी उपाय योजना केल्या. प्रशासकीय जबाबदारीची विभागणी हे तत्व राज्यकारभारात लागू करून राज्ययंत्रणा सुरळीत केली, सल्लागार नेमून कल्याणकारी योजना अंमलात आणल्या (१८८३), न्याय व्यवस्थेत सुधारणा केल्या, . ग्रामपंचायतींचे पुनरुज्जीवन केले (१९०४); सक्तीच्या प्राथमिक शिक्षणाची योजना सुरू करून (१८९३) अल्पावधीतच ती सर्व राज्यभर लागू केली (१९०६). गरीब, गरजू विद्यार्थ्यांना शिष्यवृत्त्या देऊन उच्च शिक्षणाची सोय केली. औद्योगिक कलाशिक्षणाकरिता  ‘कलाभुवन’ ही संस्था स्थापन केली. त्यांनी ‘प्राच्य विद्यामंदिर’ या संस्थेच्या वतीने प्राचीन संस्कृत ग्रंथांचे संशोधन व प्रकाशन करण्यास उत्तेजन दिले. सयाजीरावांनी ‘श्रीसयाजी साहित्यमाला’ व ‘श्रीसयाजी बाल ज्ञानमाला’ या दोन मालांमधून उत्तम ग्रंथांची भाषांतरे प्रसिद्ध केली. त्यांनी संस्थानात गावोगावी वाचनालये स्थापन केली;. फिरत्या वाचनालयांचीही सोय केली. भारतामध्ये सर्वप्रथम आपल्या राज्यामध्ये अनेक ग्रंथालये स्थापन केली. त्यांनी स्वतः ग्रंथालय शात्राचे शिक्षण घेतले. खऱ्या अर्थाने ते भारतीय ग्रंथालय शास्त्राचे जनक आहेत.

सामाजिक क्षेत्रात त्यांनी केलेली कामगिरीही मोठी आहे. पडदा पद्धती बंदी, बालविवाह बंदी, कन्या विक्रय बंदी, मिश्र विवाहाचा पुरस्कार, स्त्रियांना वारसा हक्क मिळवून देणे, अस्पृश्यता निवारण, विधवा विवाह इ. सुधारणा प्रत्यक्ष अंमलात आणल्या. घटस्फोटासंबंधीचा कायदा हा सर्व भारतात पहिल्यांदाच त्यांनी जारी केला. हरिजनांसाठी अठरा शाळा काढल्या (१८८२). डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांना शिक्षणासाठी शिष्यवृत्ती दिली आणि त्यांची संस्थानात उच्च पदावर नेमणूकही केली. सुधारणांच्या प्रत्यक्ष पुरस्कारामुळे त्यांना ‘राष्ट्रीय सामाजिक परिषदे’च्या अध्यक्षपदाचा मान मिळाला (१९०४).

बडोदे ही कलापूर्ण प्रेक्षणीय नगरी ठरली, याचे कारण त्यांनी बांधलेल्या सुंदर वास्तू. लक्ष्मीविलास राजवाडा, वस्तुसंग्रहालय, श्री सयाजी रुग्णालय, नजरबाग राजवाडा, महाविद्यालयाची इमारत, (कमाठी बाग) सयाजी उद्यान., सुरसागर तलाव, खंडेराव मार्केट, वगैरे वास्तूंनी बडोद्याची शोभा वाढविली आहे.

प्रजेची पाण्याची गरज भागवण्यासाठी त्यांनी अजवा या ६२ दरवाज्यांच्या धरणाची निर्मिती केली. त्या वेळी बडोद्याची लोकसंख्या एक लाख होती तरी पुढचा अंदाज घेऊन तीन लाख लोकांना पुरेल एवढा पाणीसाठा करण्याची दूरदृष्टी त्यांनी दाखवली.

त्यांना प्रवासाची अत्यंत आवड होती व त्यांनी जगभर प्रवास केला. जेथे जेथे जे जे चांगले असेल, ते ते चोखंदळपणे स्वीकारून आपल्या संस्थानाची सर्वांगीण भरभराट करण्याचा त्यांनी सतत प्रयत्न केला. लंडनला भरलेल्या पहिल्या दोन गोलमेज परिषदांनाही ते हजर होते. लो. टिळक, बाबू अरविंद घोष या थोर नेत्यांशी त्यांचा घनिष्ठ संबंध होता. राष्ट्रीय आंदोलनाला त्यांचा अप्रत्यक्ष पाठिंबा होता, असे म्हटले जाते. ज्ञानवृद्धी, समाजसुधारणा व शिस्तबद्ध प्रशासन या सर्वच बाबतींत ते यशस्वी ठरले.

‘हिंदुस्थानातील शेवटचा आदर्श राजा’ या शब्दांत त्यांचे यथोचित वर्णन पंडित मदनमोहन मालवीय यांनी केले आहे. मुंबई येथे त्यांचे निधन झाले.

प्रजाहितदक्ष राजा हा शब्द सार्थ ठरवणाऱ्या महाराजा सयाजीराव (तिसरे) याना मानाचा मुजरा.

© श्री प्रसाद जोग

सांगली

मो ९४२२०४११५०   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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