श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 1

☆ कथा-कहानी # 95 –  इंटरव्यू : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

असहमत के पिताजी के दोस्त थे  शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर  असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने  का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.

कुछ अरसे बाद बड़े याने बहुत बड़े साहब रिटायर होकर फूलमालाओं के साथ घर आ गये. जिन्होंने उनकी विदाई पार्टी दी वो ऊपरी तौर पर दुल्हन के समान फूट फूट कर रो रहे थे पर अंदर से दूल्हे के समान खुश और रोमांचित थे. तारीफ इतनी की गई कि लगने लगा बैलगाड़ी बैल नहीं बल्कि यही या वही जो इनके घर के domestic थे, चला रहे थे.निश्चित रूप से शुरु में टेंशन में रहे कि अब ऑफिस कैसे चलेगा, समस्याओं को कौन हैंडल करेगा, विरासती लीडरशिप के बिना वक्त की सुई उल्टी न घूमने लगें. हालांकि बहुत दिलेरी से बोलकर आये थे कि “Call me any time when you need me and I am unofficially always there even after my official farewell” पर कॉल न आनी थी न आई बार बार चेक करने के बावजूद. जब भी घंटी बजती ,लपक के उठाते ,ऑफिस के बजाय इन्वेस्टमेंट ऐजेंट्स रहते जिन्हें मालुम पड़ चुका था कि साहब को फंड मिलने वाला है. म्यूचल फंड, Bank deposit schemes, LIC, different senior citizen schemes के मार्केटिंग प्रवचनों से तनाव बढ़ने लगा. अफसरी और ऑफिस का मोह जल्दी नहीं छूट पाता क्योंकि राम, बुद्ध, महावीर के देश में निर्विकार होने की कला रिटायरमेंट के बाद सिखाने वाला गुरुकुल है ही नहीं.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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