हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 351 ⇒ नकल का अधिकार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नकल का अधिकार।)

?अभी अभी # 351 ⇒ नकल का अधिकार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नकल का अधिकार © copyright

नकल कभी असल नहीं होती। असल में नकल हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। बिना नकल किए आप कुछ सीख नहीं सकते। हमें बचपन में जो पट्टी पढ़ाई गई, वही तो हम सीख पाए। जो ब्लैकबोर्ड पर लिखाया गया, हमने उसकी नकल की। जब पट्टी से पीछा छूटा, तो कॉपी में लिखना पड़ा। नाम भले ही कॉपी हो, लेकिन लिखना तो हमने ही सीखा। पहले रफ कॉपी में जो बोला, वह लिखा, और बाद में उसकी फेयर कॉपी में नकल की।

सीखना नकल नहीं होता। किसी का अनुसरण करना क्या बुरा है। नकल तो बंदर करता है। हम भी तो वानर से ही नर बने हैं। वनमानुष से ही मानुस बने हैं। कितने मानुस बन पाए, यह अलग बात है। आदि मानव से सभ्य मानव की यात्रा है यह। आज भी वानर श्रेष्ठ महावीर बजरंगी हनुमान हमारे आराध्य हैं, संकटमोचक हैं। ।

सिर्फ परीक्षा में हमें नकल का अधिकार नहीं था। नकल को ही तो कॉपी करना कहते हैं। पीठ पीछे हमने अपने गुरुजनों की बहुत नकल की है। बाद में कागज की नकल करना बड़ा आसान हो गया। दो कागज़ के बीच एक कार्बन पेपर रख दो, उसकी कॉपी हो जाती थी। जब भी कोई रसीद काटी जाती थी, असली सामने वाले को दे दी जाती थी, और कॉपी सुरक्षित रख ली जाती थी।

बाद में पहले टाइपराइटर आए, कार्बन लगाकर तीन चार कॉपी आराम से निकल जाती थी। फिर gestetner (गेस्टेटनर) कंपनी एक डुप्लिकेटिंग मशीन लाई, जिसे सायक्लोस्टाइलिंग मशीन भी कहते थे। प्रिंटिंग की तरह जितनी चाहो कॉपियां निकाल लो। आज तो आपके पास कैमरा और स्मार्ट फोन ऑल इन वन है। कॉपी इज योर राईट, नो कॉपीराइट।।

लेकिन हर जगह हमारा कॉपी करने का अधिकार काम नहीं आता। सरकार ने कॉपीराइट एक्ट जो बना रखा है। कॉपीराइट का तात्पर्य बौद्धिक संपदा के मालिक के कानूनी अधिकार से है। सरल शब्दों में कहें तो कॉपीराइट कॉपी करने का अधिकार है। इसका मतलब यह है कि उत्पादों के मूल निर्माता और वे जिस किसी को भी प्राधिकरण देते हैं, उनके पास ही काम को पुन: पेश करने का विशेष अधिकार है।

फिल्म, किताब, गीत, रेकार्ड, किसका कॉपीराइट नहीं होता। और तो और उत्पादों के टाइटल पर भी कॉपीराइट का शिकंजा कसा रहता है। अलग अलग समयावधि तक यह बाध्य होता है। लेकिन चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से ना जाए। आपको तो अमूल घी भी नकली मिल सकता है। ।

नकल में भी अगर नकल लगाई जाए तो नकल बुरी नहीं और उस पर कोई कॉपीराइट भी नहीं। शास्त्रीय संगीत का एक ही राग सभी संगीतज्ञ अलापते रहते हैं, फिर भी उनकी प्रस्तुति मौलिक कहलाती है और वे तालियां बटोरते हैं।

नाटक में अभिनय क्या है, जो आप नहीं हो, वह बनकर अभिनय कर रहे हो। नकली बाल, दाढ़ी मूंछ, नाम भी हर बार बदला हुआ, फिर भी कोई नाट्य सम्राट तो कोई अभिनय सम्राट। नायक नहीं खलनायक हूं मैं। आप जानते नहीं, सबसे बड़ा महानायक हूं मैं। आजकल मिमिक्री आर्टिस्ट की राजनीति में बहुत डिमांड हैं।।

कृत्रिम और दिखावटी जीवन जीते हुए, वैचारिक और पर्यावरण के प्रदूषण में सुख की सांस लेते हुए, जहरीली दवाइयां और रासायनिक खाद से पैदा हुई खाद्य सामग्री के सेवन से संतुष्ट होते हुए, अपनी बौद्धिक सम्पदा पर गर्व करने से हमें कौन रोक सकता है। साहिर को तो मानो कॉपीराइट हासिल है अपनी कलम के जरिए, आज के इंसान को आइना दिखाने में; क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे।

नकली चेहरा सामने आए

असली सूरत छुपी रहे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 174 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सोचो, समझो औ’ मन को टटोलो तुम्हें किस राह जीवन में जाना?

राहें कई हैं जो मन को लुभाती औरों के कहे में तुम न आना ॥1

पहले तौलो तुम्हें क्या है भाता काम क्या लगता तुमको सुहाना।

बनना क्या लगता तुमको है अच्छा रुचि है क्या? माँगता क्या जमाना? ॥2॥

इच्छा घर में सबो की भी क्या है? चाहते वे तुम्हें क्या बनाना?

राय लेके कई अनुभवी की राह में खुद कदम तब बढ़ाना ॥3॥

जिन्दगी एक है बहती सरिता समय के संग जिसे बढ़ते जाना।

जो कि बढ़ जाती जब जितना आगे कठिन होता है फिर लौट पाना ॥4॥

ध्यान रख नर्मदा की विमलता खुद को निर्मल जल जैसा बनना

बनो जिस क्षेत्र में कार्यकर्त्ता गुण बढ़ा नाम अपना कमाना ॥ 5 ॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ माध्यम संस्था द्वारा डॉ कुंदन सिंह परिहार जी का 85वां जन्मदिवस आयोजित  ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

 

☆ माध्यम संस्था द्वारा डॉ कुंदन सिंह परिहार जी का 85वां जन्मदिवस आयोजित  ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

माध्यम साहित्यिक संस्थान’ के सौजन्य से श्री जय प्रकाश पाण्डेय के जय नगर आवास पर आयोजित कार्यक्रम में डॉ कुंदन सिंह परिहार पर केंद्रित ई-अभिव्यक्ति पत्रिका का विमोचन हुआ, साथ ही फ्लिप बुक भी रिलीज की गई।  कार्यक्रम के प्रारंभ में संस्थान के संयोजक श्री जय प्रकाश पाण्डेय ने माध्यम संस्थान का परिचय देते हुए इसके उद्देश्य बताए।

डॉ कुंदन सिंह परिहार की 85 वीं वर्षगांठ पर उनका सम्मान किया गया, मिस्टर शरफ ने प्रभावी अंदाज में परिहार जी द्वारा लिखित आलेख का वाचन किया, व्यंग्यकार प्रतुल श्रीवास्तव ने परिहार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख पढ़ा, आलोचक कवि अनुवादक राजीव कुमार शुक्ल जी ने परिहार पर लिखे अपने संस्मरणात्मक लेख पर लम्बी चर्चा की। इसके बाद व्यंग्य पाठ के सत्र में राजीव कुमार शुक्ल, अभिमन्यु जैन, सुरेश मिश्र विचित्र, यशोवर्धन पाठक, ओ पी सैनी, गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, डॉ विजय तिवारी किसलय, रमाकांत ताम्रकार, श्री के पी पाण्डे, डॉ कुंदन सिंह परिहार आदि ने अपने अपने ताजे व्यंग्य लेख का वाचन किया। डॉ शिव कुमार सिंह ने आभार व्यक्त किया, व्यंग्यकार रमाकांत ताम्रकार का सहयोग उल्लेखनीय रहा।

प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “अडाणी —” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “अडाणी —” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

स्वामी तुमची मी

एक अडाणी भक्त

काहीतरी सारखे मागणे

हेच माहिती फक्त ।।

फुले आणुनी तुम्हा सजवते

निगुतीने अन दीप लावते

सोपस्कारही सारे करते

मन दंग परी इतरत्र

मी एक अडाणी भक्त ।।

सवयीनेच  मी पूजा करते

काम समजुनी कधी उरकते 

वळतच नाही जरी मज कळते

संसारी मन आसक्त

मी खरीच का हो भक्त ?

भक्ती कशी ती जरी न कळते

तरीही का त्या पूजा म्हणते

भक्त स्वतःला म्हणत रहाते

परंपराच ही का फक्त

नावापुरती का मी भक्त ?

हे रोज रोज खटकते

परि काय करू ना कळते

ऐहिकाची बेडी खुपते

जी सतत ठेवी व्यस्त

मी एक संभ्रमित भक्त ।।

पूजेत कमी जे पडते

ते मन मी शोधत जाते

अन् आता एक जाणवते

हवे तेच तर फक्त

मी खरंच अडाणी भक्त ।।

परि आता तुम्हा विनवते

हे मन चरणी वाहते

स्वामी एकच अन् मागते

चरणी जागा द्या मज फक्त

मी तुमची अडाणी भक्त ..

मी तुमची अडाणी भक्त।।

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ हनुमंत आमुची कुळवल्ली ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

हनुमंत आमुची कुळवल्ली ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ☆

रामायणात हनुमंताची भूमिका फार मोलाची राहिली आहे. रामाच्या कार्यात अग्रभागी आणि अतितत्पर कोण असेल तर तो एकमेव  हनुमंत किंवा हनुमान. हनुमंताच्या अंगी अनेक गुण होते आणि त्याचा उपयोग त्याने कधीही स्वतःसाठी केला नाही तर तो केला फक्त एका रामासाठी. हनुमंताच्या रामभक्तीच्या अनेक कथा प्रसिध्द आहेत. बुद्धीवंतामध्ये वरिष्ठ, अतिचपल, कार्यतत्पर, कुशल नेतृत्व, संघटन कौशल्य, संभाषण चतुर, उत्तम सेवक, सर्व शक्तिमान, (बुद्धी आणि शक्ती एकत्र असणं अतिदुर्मिळ! ) असे हनुमंताचे अनेक गुण सांगितले जातात. रामायणात वर्णन केल्याप्रमाणे हनुमंताची आणि रामाची भेट तशी उशिरा म्हणजे सिताहरण झाल्या नंतरची आहे. पण पहिल्या भेटीतच हनुमंताचे वाक्चातुर्य पाहून प्रभू श्रीराम प्रसन्न झाले तसेच प्रथमच रामाचे दर्शन होऊन हनुमंत रामाचा कायमचा दास झाला. जिवाशिवाचे मिलन झाल्याचा तो अमृतक्षण होता. पण एकदा रामाची भेट झाल्यावर मात्र हनुमंतानी कधीच रामास अंतर दिले नाही. तो रामाचा एकनिष्ठ सेवक बनला. आपल्या असामान्य आणि अतुलनीय भक्तीने हनुमंताने नुसते देवत्व ( रामतत्व) प्राप्त केले नाही तर जिथे जिथे रामाची पूजा केली जाते तिथे हनुमंताची पूजा व्हायला लागली. रामाचे अनंत भक्त आहेत पण राम पंचायतनात मात्र फक्त हनुमंताचा समावेश आहे. आज सुद्धा जिथे जिथे रामकथा ऐकली जाते, सांगितली जाते तिथे तिथे हनुमंतासाठी मानाचे आसन ठेवलेले असते.

पूर्वी आपल्याकडे अध्ययन आणि अध्यापन हे मौखिक पद्धतीने म्हणजे पाठांतर रूपानेही केले जात असे. लिखीत स्वरूपात अध्ययनाची पद्धती त्यामानाने अलीकडील आहे. याचा एक दुष्परिणाम असा झाला की बराचसा इतिहास आपल्याकडे लिहिला गेला नाही आणि जो लिहिला गेला तो परकीय प्रवाशांनी किंवा आक्रमकांनी. स्वाभाविकपणे तो त्यांच्या दृष्टिकोनातून लिहिला. त्यांच्या हिताच्या गोष्टी त्यांनी लिहिल्या. यातून एक गैरसमज पसरविला गेला की रामायणात जे वानर होते ते (व्वा!) नर  नसून ती फक्त ‘माकडं’ होती. ही आपल्या पराक्रमी आणि विजयी इतिहासाची जगाने केलेली क्रूर चेष्टा आहे, असेच म्हणावे लागेल. रामायणात असे वर्णन आहे की किष्किंधा राज्य हे सुग्रीवाच्या अधिपत्याखाली होते. त्या राज्याचा सेनापती होता केसरी. आणि ह्या केसरीचा पुत्र हनुमंत. सध्याची दक्षिणेकडील चार राज्यं म्हणजे त्याकाळातील किष्किंधानगरी. सात मजली सोन्याचे महाल असल्याचे वर्णन रामायणात आहे. आजच्या काळात एखाद्या राज्याच्या मंत्र्याची संपत्ती किती असते आपल्याला कल्पना आहे, मग या चार एकत्रित राज्याचा सेनापती किती श्रीमंत असेल. असा हा भावी सेनापती हनुमंत रामाचा दास होतो, नुसता कागदोपत्री दास न होता तो कायमचा रामदास होतो यातच त्याच्या भक्तीचे ‘मर्म’ सामावले आहे.

महारुद्र जे मारुती रामदास।

कलीमाजि जे जाहले रामदास।।

असे ज्याचे वर्णन करण्यात येते ते समर्थ रामदास यांना सुरुवातीपासूनच हनुमंताबद्दल तीव्र ओढ, श्रद्धा, भक्ती होती. प्रभुश्रीरामानी दृष्टांत दिल्यापासून समर्थानी ‘समर्थ’ होईपर्यंत आणि पुढे कार्यसमाप्तीपर्यंत हनुमंताची अखंडित साधना केली. त्याचे यथायोग्य परिणाम आपण शीवकाळात अनुभवले.

शक्तीने मिळती राज्ये | युक्तीने येत्न होतसे | शक्ती युक्ती जये ठाई | तेथे श्रीमंत धावती ||”

समर्थ रामदास

यासमर्थ वचनाची पार्श्वभूमी आपण लक्षात घेतली पाहिजे. तो काळ मोगलांच्या आक्रमणाचा होता. टोळधाड यायची, घरावर नांगर फिरवला जायचा, आपलीच माणसे क्षुल्लक ‘वतनां’साठी, जहागीरीसाठी आपल्याच माणसांना मारायची. स्वाभिमान नष्ट झाला होता, समाजाला एक  प्रकारचे सामूहिक नपुंसकत्व प्राप्त झाले होते. समाज आपले शौर्य, वीर्य, धेर्य विसरला होता. कोणीतरी ह्या सर्वावर बसलेली काजळी झटकण्याची गरज होती. अशा अस्वस्थ मनाचा अभ्यास करून समर्थानी हनुमंताची मंदिरे स्थापन करून बलोपासनेस सुरुवात केली. तरुण बलवान  व्हायला लागले आणि विविध मठांतून शक्ती आणि बुद्धियुक्त असे नवीन तरुण घडू लागले आणि त्याचा उपयोग छत्रपतींना स्वराज्य स्थापनेसाठी झाला.

रामदास स्वामीनी पूर्ण विचार करून आपल्या आराध्य देवतेची निवड केली. आपल्याकडे गुरुशिष्य परंपरा खुपच पुरातन आहे. शिष्य साधनेतून इतका ‘तयार’ होतो की शिष्याचे नुसते विचार बदलत नाहीत तर त्याची कुडी सुद्धा गुरुसारखी किंवा उपास्यदेवतेसारखी होते. आपला समाज हनुमंतासारखा बलवान, बुद्धिमान, सर्वगुंणसंपन्न व्हावा म्हणून हनुमंताची मंदिरे आणि मठ स्थापन करण्यात आले. उपास्य देवतेची निवड करतानाही समर्थांनी कोंदंडधारी रामाची निवड केलेली आहे. आपल्या पत्नीला रावणाने पळवून नेल्यावर रामाने आयोध्येला निरोप पाठवून सैन्य मागविले नाही, तर स्वतः उपलब्ध असलेल्या साधन सामग्रीच्या आधारे, तेथील सामान्य मनुष्यांच्या (वानराच्या) साह्याने लंकेवर स्वारी करून आपल्या पत्नीला सोडवून आणले. ह्यासर्व कार्यात हनुमंत एकनिष्ठेने रामकार्यात कटिबद्ध होता. हनुमंताने जेंव्हा सिताशोधनासाठी लंकेत गेला, सितामाईला भेटला आणि म्हणाला की तुम्ही माझ्या सोबत चला, मी आपल्या मुलासमान आहे, आपण माझ्या माताच आहात. पण ती पतिव्रता म्हणाली की स्वतः प्रभू राम इथे येतील, ज्याने मला पळवून आणले त्याचा नाश करतील तेंव्हाच मी त्यांच्या सोबत येईन. ह्याला म्हणतात निष्ठा!.

अशा या हनुमंताची समर्थांनी उपासना केली आणि समाजाकडून कडून करवून घेतली. त्याकाळात रूढ झालेल्या क्षुद्र देवतांची पूजा, उपासना समर्थांनी बंद पाडली आणि तीही हनुमंताची उपासना सुरु करून. योग्य असा पर्याय उपलब्ध करून समर्थानी समाजाच्यातील भक्तीला आणि शक्तीला जागृत केले. ‘आधी केलं आणि मग सांगितले’ या उक्तीस जागून स्वतः समर्थ रोज एक हजार सूर्य नमस्कार घालायचे. त्या काळात आणि आज सुद्धा स्वतः व्यायाम करणारा संत पाहायला मिळणं हे दुर्मिळच!. समाजाची दुखरी नस काय आहे हे जाणून त्यानुसार उपचार करण्याचं काम समर्थानी केलं. एखाद्या मनुष्याला साधना करून मुक्ती मिळण्यापेक्षा संपूर्ण समाज एक पायरी उन्नत झाला तर ती प्रगती जास्त चांगली, हे सूत्र उरात ठेऊन समाजाच्या सर्वांगीण उन्नतीसाठी समर्थानी अवघे जीवन खर्च केले. स्वतः लौकिक अर्थाने कधीही प्रपंच न करणारा हा रामदासी संतपुरुष लोकांनी ‘प्रपंच नेटका करावा’ असे सांगत होता. प्रपंच नेटका करण्यासाठी काय करावे लागेल हे सुद्धा त्यांनी सूत्रबद्ध रीतीने दासबोधात लिहून ठेवलेआहे.

सर्वसामान्य मनुष्य (समाजपुरुष ) हा लहान मुलाप्रमाणे वागतो. तो आदर्श जीवन जगायचं प्रयत्न करेलच असे नाही पण तो लहान मूलाप्रमाणे अनुकरणशील मात्र नक्कीच असतो. एखादया लहान मुलांचे वडील सैनिक असतील तर त्या लहान मुलास आपण सैनिक व्हावेसे वाटते, एखाद्याचे वडील डॉक्टर  असतील तर त्याला आपण डॉक्टर व्हावेसे वाटते. हे अगदी स्वाभाविक आहे. त्या मूलासमोर जो आदर्श प्रस्तुत केला जातो , तसे होण्याचा ते मूल प्रयत्न करतं, म्हणून समर्थांनी समाजापुढे हनुमंत हा आदर्शांचे मूर्तिमंत प्रतीक म्हणून प्रस्तुत केला. हनुमंताचा आणिक एक विशेष गुण आहे. हा हनुमंत उपजत देव म्हणून जन्माला आलेला नाही, तर आपल्या भक्तीने, नराचा नारायण व्हावा त्याप्रमाणे भगवंताची (रामाची ) नित्य सेवा करून देवत्वास पोचलेला आहे. हनुमंत कर्तव्यतत्पर, प्रयत्नवादी आहे. व.पु. काळे म्हणतात त्याप्रमाणे मोटर सायकल वरून प्रभात फेरफटका (morning walk) करणाऱ्यांना हनुमंत कधीच उमगणार नाही. सर्व सैन्याला खांद्यावर बसवून लंकेत नेणं हनुमंताला अवघड नव्हतं, पण सामान्य मनुष्यात स्वाभिमान जागृत होण्यासाठी त्याला लढायला लावणं जास्त गरजेचं होतं आणि म्हणून सर्व वानरांच्या साह्याने रामसेतू बांधून लंकेत जाऊन युद्धात रावणांचा पराभव करून, त्याला मारून रामानी सितामाईला परत आणली.

आपल्या कुळातील पूर्वजांची माहिती कोणी आपल्याला विचारली तर आपण फारतर तीन किंवा चार पिढ्यांची नावे सांगू, पण त्या आधीच्या पिढ्यांची नावे सांगता येतीलच असे नाही, पण आपण हनुमंताच्या कुळातले आहोत, रामकृष्णाच्या वंशातले आहोत, छत्रपतींच्या वंशातले आहोत, असं नुसतं म्हटलं तरी आपले रक्त तापते, छाती गर्वाने फुगते आणि आपल्या अंगात आपसूक वीरश्री संचारते. ज्यांना आपला इतिहास वैभवशाली होता हे माहित असतं त्यांचा भविष्यकाळ सुद्धा उज्ज्वल असतो अशा प्रकारचे एक  वचन आहे. आपल्या बाबतीत ते नितांत खरे आहे. जिजाबाईंनी शिवबाला रामायणातील, महाभारतातील विजयाचा इतिहास शिकविला, अन्याय सहन करायचा नसतो, तर त्याविरुद्ध लढून न्याय मिळवायचा असतो हे शिकविले आणि मग चार इस्लामी पातशाह्यांच्या छाताडावर उभे राहून छत्रपतींनी हिंदवी स्वराज्य स्थापन केले.

आज आपण आपल्या मुलांना हिंदुस्थानच्या पराजयाच्या आणि युरोपीय देशांच्या विजयाचा इतिहास शिकवीत आहोत, त्यामुळे आपली तरुण पिढी परकीय देशांच्या विकासासाठी परदेशी जात आहे, आपण सर्वच बाबतीत त्याचे अंधानुकरण करीत आहोत. आपण जन्माने हिंदू आणि आचरणाने ख्रिश्चन/मुस्लिम बनत आहोत. ह्याला एकाच कारण आहे ते म्हणजे आपण आपलो ‘कुळवल्ली’ विसरलो आहोत किंवा जाणीवपुर्वक विसरले जावी म्हणून समाजात विविध दुष्ट शक्ती कार्यरत आहेत. आपण वेळीच सावधान होण्याची गरज आहे. लौकिक अर्थाने परंपरा न पाळता जरा जागरूक राहून , ‘धर्म’ सजगतेने समजावून घेऊन आचरणात आणण्याची गरज आहे. छत्रपती जन्माला येतीलही पण त्याआधी मावळे मात्र आपल्याला आपल्या घरातच घडवावे लागतील. असे आपण करू शकलो किंवा प्रयत्न चालू केला  तर हनुमंत आमुची कुळवल्ली असे म्हणून घेण्यास आपण पात्र होऊ.

 जय जय रघुवीर समर्थ।

।श्रीराम।

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

थळ, अलिबाग. मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “डिंपी” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “डिंपी” ☆ श्री मंगेश मधुकर 

रुटीनपेक्षा वेगळं म्हणून मैत्रिणीच्या आग्रहावरुन सामाजिक संस्थेतल्या कार्यक्रमाला गेले.तिथं एका सोशल क्लबच्या श्रीमंत सभासदांकडून संस्थेतील मुलांना खाऊ,कपडे,भेटवस्तूंचं वाटप सोबत फोटोसेशन चालू होतं.सुशिक्षित अडाण्यांच्या एकेक तऱ्हा गमतीशीर होत्या. सामाजिक कार्याचा दिखाऊपणा पाहून वाईटही वाटलं.त्या लोकांमध्ये साधारण उंची,स्थूल वजनदार शरीर,कपाळावर भलं मोठं कुंकू,डोक्यावर पदर,हातात मोबाईल,कमरेला चाव्यांचा जुडगा असा अवतारातल्या एकीनं लक्ष वेधलं.सतत बोलत असलेल्या तिच्या वागण्यात नाटकी विनम्रपणा होता.ती प्रत्येकासोबत फोटो काढत होती.चेहरा ओळखीचा वाटला.उत्सुकतेपोटी जवळ गेले.नमस्कार करताना तिच्या चेहऱ्यावरचे भाव सरसर बदलले.एकदम ती ओरडली “सुमे,तू!! इकडं कुठं”

“सॉरी,मी ओळखलं नाही”

“अगं मी डिंपल,डिंपी” नाव ऐकून जबरदस्त धक्का बसला.एकटक पहातच राहिले.मन थेट कॉलेजच्या दिवसात जाऊन पोचले.डिंपी,माझी कॉलेजमधली बेस्टी!!बोल्ड,बिनधास्त,टॉमबॉय,उत्साही,आक्रमक स्वभावाची,बडबडी,भांडणाला न घाबरणारी,कायम जीन्स-टॉपमध्ये पाहिलेल्या डिंपीचा बदललेला अवतार सहज पचनी पडला नाही.

“ओळखलंच नाही गं”

“काकूबाई दिसतेय ना”

“तर काय?कुठं ती मॉडर्न डिंपी आणि कुठं ही टिपिकल..”

“वो भी एक दौर था,ये भी एक दौर है. हालात ने लिबास के साथ साथ मुझेभी बदल डाला.”

“अरे वा,डायलॉग मारायची सवय अजूनही आहे.”

“कुछ पुराना साथ हो तो जिंदगी आसान हो जाती है”इतरांशी मराठीत बोलणारी डिंपी माझ्याशी मात्र बऱ्याचदा हिंदीतून बोलायची.

“ये भी सही है” मीपण हिंदीतून प्रतिक्रिया दिली

“ये डायलॉगही तो अपना स्पेशलिटी था.इसी वजह से कॉलेज मे फेमस थे”

“निवांत कधी भेटतेस.”

“फोन नंबर दे.आज बिझी आहे.उद्या कॉल करते.” निरोप घेऊन निघताना पाहिलं तर डिंपी पुन्हा नमस्कार आणि फोटो मध्ये हरवलेली.

—-

दुसऱ्याच दिवशी सकाळीच डिंपीचा फोन.खूप वेळ बोललो.त्यानंतर रोजच फोनवर बोलणं व्हायचं तरी समाधान होत नव्हतं.खूप दिवसांचा बॅकलॉग होता.शहराजवळच्या तिच्या फार्म हाऊसवर जायचं ठरलं.डिंपी गाडी घेऊन आली.फार्म हाऊसला पोचल्यावर “संध्याकाळी न्यायला ये.फोन करते” ड्रायव्हरला सांगून डिंपीनं गाडी परत पाठवली.

“कशाला उगीच ये-जा करायला लावतेस.त्याला इथंच थांबू दे की..”

“आज का दिन अपना है.कोई डिस्टर्ब नही चाहिये” ड्रायव्हर गेल्यावर डिंपीनं कडकडून मिठी मारली.वीस वर्षांचा दुरावा क्षणार्धात नाहीसा झाला.डोळे भरून आले.दोघी खूप भावुक झालो.

“आयुष्य पण कसय ना.त्यावेळी एक दिवस भेटलो नाही तरी करमायचं नाही आणि आता थेट वीस वर्षांनी भेटतोय.”

“वक्त सबकुछ बदल देता है.तुम रहे ना तुम,हम रहे ना हम!, डिंपी.

“तुझ्याकडे बघून शंभर टक्के पटलं”

“हा वो तो है,पर तू ज्यादा कुछ नही बदली.”

“थॅंक्स,आम्हां मध्यमवर्गीयांच्या आयुष्यात फार मोठे असे बदल होत नसतात.सरधोपट आयुष्य!!”

“मेरा बिलकुल उलटा है.पिढीजात श्रीमंती असलेल्या घरात जन्म,पहिली बेटी धनाची पेटी म्हणून खूप लाडात वाढले.जे मागितलं ते मिळालं परंतु घरात जुन्या चालीरीती,रूढी,परंपरा यांची घट्ट साखळी पायात बांधलेली होतीच.कॉलेजमध्ये कितीही बिनधास्त असले तरी घरात अनेक बंधनं होती.मुलगी म्हणजे परक्याचं धन असं समजणारी टिपिकल फॅमिली. बाकी सर्व गोष्टी मॉडर्न असल्यातरी विचार मात्र..”डिंपी एकदम बोलायचं थांबली.

“ते तर बाईच्या जातीला नवं नाही.सगळ्याच घरात कमी जास्त प्रमाणात हे असतचं.”

“पण आमच्यासारख्यांच्या घरात जरा जास्त असतं.पुढं शिकायचं होतं.लॉ करायची खूप इच्छा होती.ग्रॅज्युएट झाल्यावर लगेच घरच्यांनी मुलं शोधायला सुरवात झाली.माझी इच्छा कोणीच विचारली नाही.पहायला आलेल्या पहिल्याच मुलानं पसंत केल्यावर मीसुद्धा ताबडतोब होकार द्यावा यासाठी प्रेमानं,धाक दाखवून, समजावून हरप्रकारे दबाव आणला गेला.विनाकारण वाद घालून हाती काही पडणार नव्हतं म्हणून मी होकार दिला.जीन्स,टॉप,फॅशनेबल ड्रेसेस यांच्यासोबत स्वप्नं,इच्छा,अपेक्षा यांचं गाठोडं बांधून माळ्यावर फेकून दिलं. आणि आयुष्यातली सर्वात मोठी तडजोड करून बोहल्यावर चढले.नवरासुद्धा टिपीकलच निघाला.स्वभावानं वाईट नाहीये पण त्याला कधी बायकोचं मन समजलं नाही.कायम गृहीत धरतो.सुरवातीला त्रास झाला नंतर सवय झाल्यावर आयुष्याबरोबर वाहत राहिले.दोन मुलं जन्माला घातली.वारस मिळाल्यानं सासरी आनंदी आनंद,अजून एक टेंशन दूर झालं.जसं माहेर तसंच सासर.. जागा आणि माणसं बदलली बाकी सगळं तेच……..”

“डिंपे…”

“सुमे,आज बोलू दे.मनात खूप साचलयं”

“सासरी काही त्रास?”

“अजिबात नाही.सगळी सुखं हात जोडून सेवेला उभी आहेत.माझी दोन्ही लेकरं हाच काय तो मोठा आधार.

नवरा चोवीस तास धंद्याच्या विचारात.सासू देवधर्मांत तर सासरे धंदा आणि समाजसेवा यात गुंतलेले या तिघांच्या सेवेशी मी..” डिंपी भकास हसली.

“मग प्रॉब्लेम काय आहे”

“साडी,सर के उपर पल्लू,बार बार हात जोडना और पैर छू लेना इससे आप बहोत संस्कारी दिखाई देते हो.शादी के बाद यही तो सब कर रही हू.दम घुटता है.समय बदल गया.बच्चे बडे हो गये पर अभी भी मै वही के वही…”

“म्हणजे हे सगळं मनाविरुद्ध करतेस”

“मेरी जान,करना पडता है.एवढं शिकले पण काही उपयोग नाही.आमच्यात बायकांनी नोकरी करणं मान्य नाही.धंद्यात लक्ष घालायची गरज नाही.बाईनं फक्त घर,मुलं सांभाळावी एवढीच अपेक्षा आणि तोच अलिखित नियम”

“सगळं व्यवस्थित होईल.”

“सुमे,उगीच खोटी आशा दाखवू नकोस.चांगलं माहितेय की मरेपर्यंत हे असंच चालू राहणार.बोलल्यामुळं छान वाटलं.अगदी देवासारखी भेटलीस.इसीलिये लाईफ मे पुराने दोस्त होने चाहिये..थँक्स डियर” भरल्या डोळ्यांनी डिंपी बिलगली.लौकिक अर्थानं सर्वसुखी आयुष्य असलेल्या डिंपीच्या वेदनेचा ठणका माझ्यापर्यंत पोचला.

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बापू … ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

श्री सुनील शिरवाडकर

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☆ बापू … ☆ श्री सुनील शिरवाडकर

आज बापू  पुन्हा दिसला. त्याच गल्लीतून बाहेर पडत होता. मागच्या आठवड्यात मी या भागातुन चाललो होतो. टु व्हिलरवरून. तेव्हा तो दिसला. पण मी घाईत होतो. त्यामुळे थांबू शकलो नाही. आज पुन्हा इकडे या भागात आलो..पुन्हा बापू दिसला.. हो तो बापूच होता.कितीतरी वर्षांनी दिसला होता.

मलाही वेळ होता.एकदम त्याच्या पुढ्यातच गाडी थांबवली. बापू  दचकला.. माझ्याकडे जरा रागानेच त्यानं पाहीलं..पण मग मला ओळखल्यावर एकदम दिलखुलास हसला.काही  बदल नव्हता त्याच्या त्या हसण्यात..आणि दिसण्यातही.गोरटेलासा..उंचीने जरा कमी..कुरळे केस..

बापूचं हे असं हसणंच मला खूप आवडायचं.आम्ही दोघे शाळकरी मित्र.दोन वर्ष तर एकाच बाकावर बसायचो.त्याची माझी मैत्री खुप पटकन जमली.

“काय बापू ..इकडे कुठे?”

 मी विचारले.

“अरे,कांता किती वर्षांनी भेटतो आहेस..”

“हो ना.मागच्या आठवड्यात पण मी तुला पाहीलं.याच गल्लीतुन येताना. इकडे काय कोण रहातं का?”

“नाही रे..इकडे एक उदबत्तीचा कारखाना आहे. मी तिथेच नोकरी करतो.”

बापू  ही अशी नोकरी करतो याचा मला जरा धक्काच बसला. कारण बापुची खुप मोठी स्वप्नं होती.बापुचे वडील पेपर विकायचे.पहाटे उठून पेपरचे गठ्ठे आणायचे.. घरोघर ते टाकायचे.आणि मग त्यांच्या घराच्या पुढे एक टेबलवर स्टॉल लावायचे.मी कधी शाळेत जातांना बापुला बोलवायला जायचो.बापु तिथेच स्टॉलवर बसलेला असायचा. एका खुर्चीवर. एक लोखंडी घडीची खुर्ची. निळ्या रंगाची. बापु त्यावर मोठ्या ऐटीत बसायचा.एखाद्या बादशहा सारखा. एक पाय खाली सोडलेला,आणि दुसरा पाय त्यावर आडवा..सतत  हलणारा….. मला त्याची ही पोज खुप आवडायची.

मी आलो की बापू उठायचा.आत घराकडे बघुन त्याच्या वडिलांना हाक मारायचा. ते आले की बाजुला ठेवलेलं दफ्तर उचलायचा.आणि मग आम्ही शाळेकडे जायचो.

त्या लोखंडी घडीच्या खुर्चीत बसुन बापु स्वप्नं रंगवायचा.त्याला मोठं झाल्यावर डॉक्टर बनायचं होतं.आपला एकदम पॉश दवाखाना असेल..मोठ्ठं टेबल..आणि त्यामागे आपली खुर्ची. गोल गोल फिरणारी..खाली छोटे चाकं असणारी.

कधी त्याला वाटायचं..आपण बँकेतला साहेब व्हावं..आपल्याला छानसं केबिन असेल..बाहेर दरवाज्यावर नावाची पाटी असेल.. आणि आपल्या साठी खास खुर्ची.. अशीच.. गोल गोल फिरणारी.

वेळोवेळी त्याची स्वप्नं बदलायची.. पण एक गोष्ट मात्र कॉमन.. ती त्याची खुर्ची.

शाळा सोडल्यानंतर बापु  आज प्रथमच भेटत होता.मधली बारा पंधरा वर्षं कशी झरकन गेली होती.त्याला पाहीले..अन् मला हे सगळं आठवलं.बापुच्या त्या डॉक्टर बनण्याच्या स्वप्नांचं..मोठा अधिकारी बनण्याच्या स्वप्नाचं पुढं काय झालं ते मी विचारुच शकलो नाही.त्याच्या एकंदरीत अवसानावरुन.. त्याच्या नोकरीवरून मला त्याच्या परीस्थितीचा अंदाज आला.

पण मग गप्पा मारताना त्यानेच सगळं सांगितलं.शाळा सुटली..मार्क जेमतेमच.अकरावीला कॉलेजमध्ये पण गेला.आणि अचानक त्याचे वडील वारले.घरची जबाबदारी त्याच्यावर पडली.कॉलेज सोडुन तो पेपर स्टॉलवर बसु लागला.पण त्याला त्यात अजिबात इंटरेस्ट नव्हता.

कोणाच्या तरी ओळखीने त्याला ही नोकरी मिळाली होती.

“तु बघ कांता.. मला आता या उदबत्तीच्या धंद्याची बरीचशी माहिती झाली आहे.अजुन फारतर दोन तीन वर्षे..मग..”

“..मग..काय?” मी विचारलं.

“मीच एक उदबत्तीचा कारखाना टाकणार आहे.मुंबईहुन कच्चा माल आणायचा.. दहा बारा बायका..मुलं कामाला ठेवायची.आपण फक्त लक्ष ठेवायचं..गोल गोल फिरणाऱ्या खुर्चीत बसुन..”

गोल गोल फिरणाऱ्या खुर्चीचं वेड काही त्याच्या डोक्यातुन गेलं नव्हतं.

त्यानंतर मात्र बापुची भेट नाही.मधल्या काळात असाच एकदा रस्त्यानं जात असताना एक भंगारवाल्याची गाडी दिसली.त्यावर एक जुनी खुर्ची ठेवलेली होती.. उलटी करुन.तुटकी चाकं अशी वरती दिसत होती.ती खुर्ची बघुन मला एकदम बापुची आठवण आली.

मग एकदा वेळ काढून मी बापुकडे गेलोच.तो तिथेच रहात होता अजुन.पत्र्याच्या खोलीत.पेपर स्टॉलमागेच त्यांचं घर होतं.आता तो रस्ता खुपच रहदारीचा झाला होता.

दार वाजवलं.एका विशीच्या मुलानं दार उघडलं.बापूचा मुलगाच असावा तो.दिसायला साधारण बापुचाच तोंडावळा.

“कोण आहे रे..”

म्हणत बापु बाहेर आला.त्याचं हे असं भेटणं मला एकदमच अनपेक्षित होतं.बापु खुर्चीत बसला होता.. चाकाच्या खुर्चीत..पण..

..पण ती व्हिल चेअर होती.दोन्ही हातांनी चाकं फिरवत तो बाहेर आला.त्याचा एक पाय प्लास्टरमध्ये होता.

मला बघताच बापुला खुप आनंद झाला.बापुला भेटुन मलाही बरं वाटलं.नुकताच त्याचा एक छोटा अपघात झाला होता ‌काही दिवसांसाठी पाय प्लास्टरमध्ये ठेवला होता.म्हणुन त्याच्या मुलानं ही खुर्ची आणली होती.

गप्पा मारताना आम्ही जरा भुतकाळात हरवलो.. आणि मला आठवलं ते बापुचं स्वप्न.

आणि मग बापुच म्हणाला..

“तुला आठवतं..माझं एक स्वप्न होतं ते? चाकाच्या खुर्चीच? ते पुर्ण झालं बघ.बसलो आहे चाकाच्या खुर्चीत.”

बापू हसला.पण त्यांचं ते हसणं कसंतरीच होतं.नेहमीचं नव्हतं.मलाच वाईट वाटलं.त्याला समजावलं.

“अरे आत्ता महिनाभरात ही खुर्ची सुटेल तुझी.चांगला हिंडायला फिरायला लागशील.”

मग आम्ही विषय बदलला ‌त्याच्या त्या जुन्या खुर्चीची आठवण झाली.बापुनं ती अजुन जपुन ठेवली होती.बापाची आठवण म्हणुन.पोराला सांगुन त्यानं ती खुर्ची आतल्या खोलीतून मागवली.गंजली होती..पण बाकी तशीच होती.निळ्या रंगाची..पांढर्या पाईपची.थोडा रंग उडाला होता इतकंच.

मी उठून ती खुर्ची उघडली.करकर आवाज करत ती उघडली.त्यात बसलो.अगदी बापुच्याच थाटात.

“तुला सांगतो कांता..मला अजुनही वाटतं कधी कधी..माझं ते स्वप्न पुर्ण होणार आहे.चाकाच्या खुर्चीचं..गोल गोल फिरणार्या   खुर्चीचं.”

बापुचं ते वाक्य ऐकुन मला बरं वाटलं.पुन्हा जुना बापु दिसला मला.त्याचं ते अधुरं स्वप्न त्याच्या मनातुन गेलं नव्हतं.अशी स्वप्न पहाण्याची क्षमता असणारी माणसं एका अर्थानं मला ग्रेट वाटतात.खरंच..बापु बदलला नव्हता.बापुचं  ‘बापुपण’ हे त्याच्या ह्या स्वप्नाळू व्रुत्तीमध्ये होतं.

_____________________

बापुंचं पाठवलेलं निमंत्रण माझ्यासमोर पडलं होतं.बापुच्या मुलानं दुकान टाकलं होतं.आणि त्यांचं हे निमंत्रण होतं.

संध्याकाळी मी गेलो.बापुच्या त्या जुन्या घराशेजारीच एक नवीन बिल्डिंग झाली होती.तेथेच एका गाळ्यात बापुच्या मुलानं दुकान सुरू केलं होतं.ते एक जनरल स्टोअर होतं.छान नवीन फर्निचर.. फुलांच्या माळा…बाहेर मंडप टाकला होता.बोर्डवर लाईटस्  माळा होत्या.मुलगा आत काउंटरवर होता.

आणि कडक पांढर्या  सफारीतला बापु इकडुन तिकडे फिरत होता.कोण कोण येतंय.. कुणाला डिश मिळतेय की नाही यावर लक्ष देऊन होता.

मला बघताच बापु धावत आला माझा हात हातात घेतला.आणि मला घेऊन आत गेला.दुकानच्याच एका भागात एक छोटं केबीन बनवलं होतं.एक टेबल.. आणि एक खुर्ची ‌तीच..बापुला हवी होती तशीच.बापु टेबलच्या मागे गेला.. आणि त्या खुर्चीत बसला.अतीव आनंदाने त्याने एक गोल गिरकी मारली.

“बघ..झालं की नाही माझं स्वप्न पुर्ण? मग? माझ्या पोरांनं खास माझ्यासाठी ही केबीन आणि खुर्ची बनवुन घेतलीय”

बापुला त्या खुर्चीत बसलेलं बघताना मला खुप आनंद झाला.. खुप बरं वाटलं.जसं काही माझंच स्वप्न पुर्ण झालं होतं.

बोलत बोलत आम्ही बाहेर आलो.प्रसाद घेतला,डिश घेतली.

शेजारीच त्यांचं ते जुनं घर होतं.अजुनही तसंच..पत्र्याचं.

दार नुसतंच लोटलेलं होतं.बापु आत गेला.आणि दोन खुर्च्या घेऊन बाहेर आला.मी एका खुर्चीत बसलो.बापु त्याच्या खुर्चीत बसला.तीच खुर्ची.. लहानपणापासून बघत आलो ती‌.पाठीमागच्या निळ्या पत्र्यावर बापुनं करकटने त्यांचं नाव कोरलेले.. शाळेत असतानाचं.त्यावरुन त्यानं बापाचा मारही खाल्लेला.

आता ती चेपली होती.जराशी डुगडुगत पण होती‌.बापु त्या खुर्चीत बसला होता.. तस्साच..एक पाय खाली सोडलेला.. दुसरा त्यावर आडवा..हलत रहाणारा.आणि चेहर्यावरचे भाव जग जिंकल्याचा.खर्याखुर्या 

बादशहा सारखा..

.. आणि मग आमच्या गप्पा रंगतच गेल्या.

© श्री सुनील शिरवाडकर

मो.९४२३९६८३०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ स्मिता मांजरे-कोल्हे – लेखिका : डॉ. रमा दत्तात्रय गर्गे ☆ प्रस्तुती – सौ. श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? इंद्रधनुष्य ?

☆ स्मिता मांजरे – कोल्हे – लेखिका : डॉ. रमा दत्तात्रय गर्गे ☆ प्रस्तुती – सौ. श्रीमती उज्ज्वला केळकर

स्मिता मांजरे नावाची एक मध्यमवर्गीय सुखवस्तू कुटुंबातील मुलगी. बारावी झाल्यावर तिला वैद्यकीय शिक्षण घ्यायचे होते. पण घर थोडे जुन्या वळणाचे, काय करायचे मुलीला इतके शिकवून, असा विचार करून जवळच्याच कॉलेजमध्ये तिला बीए साठी प्रवेश घेऊन दिला. या युवतीला थोडे वाईट वाटले, पण आहे त्या परिस्थितीशी जुळवून घ्यायचे आणि पुढे जायचे हा तिचा मूळ स्वभाव!! बीए करतांना भरपूर वेळ मिळायला लागला . अभ्यास थोडासा असायचा, त्यातून मग खेळाची आवड निर्माण झाली. सामाजिक कार्याची आवड निर्माण झाली. अभाविप, छात्र युवा संघर्षवाहिनी यांचे आंदोलने कार्यक्रमा यात ती सहभागी होऊ लागली.पदवी परीक्षा उत्तीर्ण झाल्यावर काहीतरी व्यवसायाभिमुख शिक्षण घेतले पाहिजे असे तिच्या मनात आले. त्यानुसार एलएलबी ला प्रवेश घेतला. पण मनातली वैद्यकीय शिक्षणाची इच्छा परत जागृत झाली आणि मग दहावीच्या गुणपत्रिकेवर तिने डीएचएमएस या होमिओपॅथीच्या पदविकेसाठी पण प्रवेश घेतला! कालानुक्रमे दोन्ही शिक्षणे पूर्ण केली आणि वकिली आणि डॉक्टरी अशा दोन्ही व्यवसायाभिमुख पदव्या स्मिताताईंनी मिळवल्या. त्यानंतर आवडीप्रमाणे नागपुरात स्वतःचा दवाखाना टाकला. तो चांगलाच चालू लागला.डॉ. स्मिताच्या हाताला चांगला गुण होता. भरपूर पेशंट येत असत. त्या आणि त्यांची असिस्टंट दवाखाना संपल्यावर सगळे पैसे मोजत बसायच्या. स्वतःचा दवाखाना झाला, दुचाकी आली आणि आर्थिक स्वातंत्र्य मिळाले.यामुळे डॉक्टर स्मिता मांजरे यांना एक वेगळाच आत्मविश्वास मिळाला.

यादरम्यान घरात लग्नाचे वारे वाहू लागले. त्या काळात म्हणजे १९८० च्या दशकात चहा पोहे आणि मुलगी पाहणे असे कार्यक्रम सर्रास होत असत. पण स्मिता ताईंनी एक-दोन कार्यक्रम झाल्यानंतर हे दाखवून घेणे काही बरे नाही, असे वाटून त्यांनी ते थांबवले. 

या दिवसांत त्यांच्या हातामध्ये विनोबा भावे यांचे ‘गीता प्रवचने’ हे पुस्तक पडले.जसजशा स्मिताताई हे पुस्तक वाचत होत्या तसतसे त्या अंतर्मुख होत गेल्या. त्यामध्ये सांगितलेली ‘जीविका आणि उपजीविका’ यांचा विचार त्यांच्या मनात येऊ लागला. ‘माझा स्वधर्म काय आहे’या विचाराने त्यांना भंडावून सोडले. अंगावर ल्यायला उत्तम कपडे, दाग दागिने, फिरण्यासाठी गाडी , चांगली कमाई हे सगळं असूनही काहीतरी अनुपस्थित आहे , असे व्याकुळ असमाधान या युवतीला जाणवू लागले.

त्याच भागात एक ध्येयवेडा तरुण डॉक्टर एम डी पूर्ण करत होता. एमबीबीएस झाल्यावर तो बैरागड या मेळघाट जिल्ह्यातील गावी जाऊन राहिलेला होता.त्याच लोकांसाठी अधिक शिक्षण घेऊ या हेतूने तो पदव्युत्तर शिक्षण घेत होता. या डॉक्टरचे नाव होते रवींद्र कोल्हे !! बैरागड येथील आदिवासी जनजाती लोकांना आरोग्य सेवा द्यायची हे ध्येय ठरवून बसलेला हा तरुण सुयोग्य जीवनसाथीच्या शोधात होता. यादरम्यान स्मिताताईंचे परिचित सुभाष काळे यांनी ताईंना हे स्थळ सुचवले. पण त्याचबरोबर मुलाच्या वेगळ्या चार अटी सांगितल्या.या अटी काय होत्या 

१) महिन्याला चारशे रुपयांमध्ये संसार करावा लागेल

२) चाळीस किलोमीटर पायी चालता आले पाहिजे 

३) लोकांसाठी समाजासाठी भिक्षा मागण्याची तयारी असली पाहिजे 

४) कोर्ट मॅरेज करावे लागेल.

सुभाष काळेंनी सहजच सुचवले होते. कारण त्यावेळची स्मिताताईंची राहणी ही उच्चभ्रू प्रकारातील होती. जेव्हा या अटी कळाल्या तेव्हा आपण चारशे रुपयांची साडी नेसत होतो, गाडीवरून नागपुरात आरामात फिरत होतो आणि आपली कमाई पण भरभक्कम होती असे स्मिताताई एका मुलाखतीत सांगतात.

मात्र जसजसा त्या या अटींचा विचार करू लागल्या तसतसे त्यांना गीता प्रवचने वाचल्यापासून ज्या असमाधानाने अस्वस्थ केले होते ते असमाधान दूर होऊ लागले असा प्रत्यय आला. त्यांना या अटींमध्येच आपला स्वधर्म आहे, आपले जीवन ध्येय आहे याची आंतरिक जाणीव झाली.आणि मग दोघे भेटले १९८८ साली या ध्येयवेड्यांनी विवाह बंधन स्वीकारले.डॉ.स्मिता मांजरे डॉक्टर स्मिता रवींद्र कोल्हे म्हणून सातपुडा पर्वतरांगातील अरण्यात असलेल्या बैरागडला आली.लग्न कोर्ट पद्धतीने झाल्यामुळे सप्तपदी झाली नाही .मात्र नवऱ्याच्या घरी जाण्यासाठी नव्या नवरीला तालुक्याच्या ठिकाणापासून बैरागड पर्यंत ३५ किलोमीटर चालत जावे लागले.लग्न ठरल्यानंतर स्मिताताईंनी दवाखाना बंद केला. आपले साठवलेले सगळे पैसे त्यांनी बँकेत एकरकमी डिपॉझिट करून ठेवले. स्वस्तातल्या साड्या खरेदी केल्या. महाग महाग साड्या मैत्रिणी आणि बहिणींना दिल्या. उंची सॅंडल्स, पर्सेस, प्रसाधने सारे काही वाटून टाकले आणि खऱ्या अर्थाने नवजीवनचा प्रारंभ केला !

डॉक्टर रवींद्र कोल्हे पूर्वीपासूनच तेथे आरोग्य केंद्र चालवत होते. ते एक रुपया इतकीच फी दवाखान्यात घेत असत. औषधांसाठी शहरातील धनिक लोकांना विनंती करून आदिवासी लोकांना जमतील तितकी औषधेही ते उपलब्ध करून देत. स्मिता ताईंनी जेव्हा बैरागड मध्ये पाऊल टाकले तेव्हा त्यांची स्वतःची झोपडी देखील नव्हती. आजूबाजूच्या जनजाती लोकांनी लाकडे कुडे आणि गवताने साकारलेली झोपडी तयार करण्यासाठी त्यांना मदत केली. सतत शहरी वातावरणात राहिलेल्या स्मिताताईंचा एक वेगळाच प्रवास सुरू झाला. वीज नाही, नळ नाही, पिठाची गिरणी नाही, जवळपास दुकाने नाहीत असा नन्नाचा पाढा सगळीकडे दिसत होता. त्यातच आजूबाजूला दारिद्र्याने गांजलेली आजाराने ग्रस्त आणि अज्ञानी अशी आदिवासी जनजाती कुटूंबे. त्यांची भाषा वेगळी चालीरीती वेगळ्या.किर्र अरण्याचा एक वेगळाच गंध, शहरी सुरक्षिततेची उब नाही अशा सगळ्या गोष्टी त्यांना नव्याने जाणवू लागल्या. पण एकदा मनापासून कार्य स्वीकारले की समस्या भेडसावत नाहीत .थोड्याच दिवसात विहिरीवरून पाणी भरणे, शेण गोळा करून आणणे, घर सारवणे, जात्यावर दळणे ही सगळी कामे त्यांच्या अंगवळणी पडली. नवीन शिकण्याची आवड त्यांना येथे कामाला आली. 

एका मोठ्या लोक वस्तीला एकच डॉक्टर असल्याने कोल्हेना अक्षरशः श्वास घ्यायला फुरसत नसे. खरं म्हणजे स्मिताताईंना पण आपण आरोग्यसेवा द्यावी, पेशंट तपासावे असे वाटत असे. पण सुरुवातीला आदिवासी लोकांचा एक स्त्री डॉक्टर असू शकते यावर विश्वासच नव्हता. त्यांना तेथील लोक कोल्लं आणि कोल्लाणी म्हणत .

एक  घटना घडली आणि लोकांनी कोल्लाणीला वैद्यकीय ज्ञान आहे हे स्वीकारले!!.वाघाने अक्षरशः फाडलेला एक पेशंट आला आणि त्यावेळी  स्मिताताईंना जवळपास ४०० टाके घालावे लागले.अत्यंत चिकाटीने त्यांनी ते काम पूर्ण केले आणि तो पेशंट  वाचला!! काही दिवसांत बरा झाला.नंतर तो चालत दवाखान्यात आला आणि डॉक्टर बाईंना नमस्कार करून गेला!. तेव्हापासून आदिवासी जनजाती लोकांनी ताईंना डॉक्टर म्हणून सहर्ष स्वीकारले!!मग मात्र तपासायला ताईच हव्या अशी आग्रही मागणी पण सुरू झाली!!

मेळघाटात कुपोषणाचे बळी जात असतात. आत्ताही जातात. पण आता प्रमाण कमी आहे. त्यावेळी रवींद्र कोल्हेंनी एमडीला हाच विषय घेऊन प्रबंध लिहिला. त्यांच्या मते हा प्रकार उपासमारीमुळे अर्थात अन्न कमी पडल्यामुळे, पोटाची खळगी न भरल्यामुळे घडतो.त्यांनी नंतर अशाच प्रकारच्या मृत्यूची बातमी एका वृत्तपत्राच्या बातमीदाराला दिली. छोट्या चौकटीतील त्या बातमीने दिल्ली मुंबई हादरली. कारण आपल्या संविधानानुसार ”स्टारव्हेशन कोड” म्हणजे ‘भूकबळी’ हा शासनाचा गुन्हा मानला जातो. गल्लीपासून दिल्लीपर्यंत हा विषय गाजला.दिल्ली मुंबईत सूत्रे हलली. घाईघाईने सारे मंत्री, सरकारी अधिकारी मेळघाटामध्ये येऊन पोहोचले.त्यांनी चर्चा केली. स्मिताताई आणि रवींद्र कोल्हे यांनी तेथील भीषण अन्नटंचाई आणि त्यामुळे घडणारे बालमृत्यू मातामृत्यू यांची माहिती दिली.मात्र या मृत्यूना ‘उपासमारीचे बळी’ असे न म्हणता ‘कुपोषणाचे बळी’ असे म्हणावे अशी शासकीय यंत्रणेने विनंती केली. सर्व प्रकारची मदत शासकीय यंत्रणा करणार आहे या गोष्टीमुळे स्मिताताई आणि रवींद्र कोल्हे यांनी देखील तसे म्हणण्याचे मान्य केले आणि मग एकेकाळी १००० मागे २००मुले दगावत ते प्रमाण खूप कमी होत गेले . शासनाच्या मोठ्या यंत्रणेचा अशिक्षित गरीब लोकांना लाभ मिळवून देणे हे आपले ध्येय आहे.शासनाला समांतर कार्य यंत्रणा उभी करणे हे नव्हे , हे दोघही पती-पत्नींनी ठरवलेले होते.

आपल्या सोबतच्या या रान सवंगड्यांना प्रेरणा मिळावी , अन्नटंचाईला तोंड द्यावे लागू नये म्हणून स्मिता आणि रवींद्र यांनी सुधारित शेतीचे प्रयोग केले. स्वतः दुबार पिके काढून दाखवली. खते बियाणांची माहिती दिली  रेशन धान्याचे दुकान टाकले. कोल्हेंच्या दुकानांमध्ये तीस तारखेपर्यंत धान्य मिळत असे. आजही हे दुकान दिमाखात चालू आहे 

आपले कार्य , त्याच्या मागची प्रेरणा ही पुढच्या पिढीत रुजवण्यातही स्मिताताई आई म्हणून यशस्वी ठरल्या! त्यांचा मोठा मुलगा रोहित सुधारित शेती करतो.त्याचे प्रशिक्षण देतो. तर धाकटा मुलगा राम एमबीबीएस एमडी सर्जन होऊन मेळघाट  बैरागड येथेच वैद्यकीय सेवाकार्य करतो. खास वैदर्भीय शैलीतील आघळपघळ बोलणे, पण आवश्यक तिथे ठामपणे उभे राहणे आणि निर्भयता हे दोन महत्त्वाचे गुण स्मिताताईंच्या अंगी आहेत. नामदार नितीन गडकरी हे त्यांचे एकेकाळचे अभाविप मधले सहकारी कार्यकर्ते! त्यांच्या प्रयत्नांमुळे आज मोठ्या नाल्यांवर मोठमोठे पूल झाले आहेत, बरेच ठिकाणी रस्ते देखील आले आहेत. पण म्हणून प्रश्न सुटलेले नाहीत.

नागपुरातील मध्यमवर्गीय घरातील ही कन्या आता आदिवासी बंधू भगिनींची आई झाली आहे. एखादे व्रत घेणे सोपे पण  सातत्यपूर्ण आचरण अत्यंत कठीण असते. म्हणूनच पद्मश्री डॉक्टर स्मिता कोल्हे आणि पद्मश्री डॉक्टर रवींद्र कोल्हे यांच्यासारख्या तेजस्वी दीपांचे महत्व असते.

लेखिका : डॉ रमा दत्तात्रय गर्गे

प्रस्तुती – सौ. श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ आनंद लांबणीवर टाकणारी माणसं… लेखक :श्री एकनाथ वाघ ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम ☆

📖 वाचताना वेचलेले 📖

☆ आनंद लांबणीवर टाकणारी माणसं… लेखक :श्री एकनाथ वाघ ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम

बेल वाजली म्हणून दरवाजा उघडला.

दारात शिवराम.

शिवराम आमच्या सोसायटीतल्या लोकांच्या गाड्या-बाईक्स धुवायचं काम करतो.

‘साहेब, जरा काम होतं.’

‘पगार द्यायचा राहिलाय का माझ्याकडून ?’

‘नाय साहेब, तो केवाच भेटला. पेढे द्यायचे होते. पोरगा धाव्वी झाला.’

‘अरे व्वा ! या. आत या.’

आमच्या दाराचा उंबरठा शिवराम प्रथमच ओलांडत होता.

मी शिवरामला बसायला सांगितलं. तो आधी ‘नको नको’ म्हणाला. आग्रह केला, तेव्हा बसला. पण अवघडून.

मीही त्याच्या समोर बसताच त्याने माझ्या हातात पेढ्यांची पुडी ठेवली.

 

‘किती मार्क मिळाले मुलाला ?’

‘बासट टक्के.’

‘अरे वा !’ त्याला बरं वाटावं म्हणून मी म्हटलं.

हल्ली ऐंशी-नव्वद टक्के ऐकायची इतकी सवय झाल्ये की तेवढे मार्क न मिळालेला माणूस नापास झाल्यासारखाच वाटतो. पण शिवराम खूश दिसत होता.

 

‘साहेब, मी जाम खूश आहे. माझ्या अख्ख्या खानदानात इतका शिकलेला पहिला माणूस म्हणजे माझा पोरगा !’

‘अच्छा, म्हणून पेढे वगैरे !’

शिवरामला माझं बोलणं कदाचित आवडलं नसावं. तो हलकेच हसला आणि म्हणाला,

‘साहेब, परवडलं असतं ना, तर दरवर्षी वाटले असते पेढे. साहेब, माझा मुलगा फार हुशार नाही, ते माहित्ये मला. पन एकही वर्ष नापास न होता दर वर्षी त्याचे दोन दोन, तीन तीन टक्के वाढले – यात खुशी नाय का ? साहेब, माझा पोरगा आहे म्हणून नाही सांगत, पन तो जाम खराब कंडीशनमधे अभ्यास करायचा. तुमचं काय ते – शांत वातावरन ! – आमच्यासाठी ही चैन आहे साहेब ! तो सादा पास झाला असता ना, तरी मी पेढे वाटले असते.’

 

मी गप्प बसल्याचं पाहून शिवराम म्हणाला, ‘साहेब सॉरी हां, काय चुकीचं बोललो असेन तर.

माझ्या बापाची शिकवन. म्हनायचा,

‘आनंद एकट्याने खाऊ

नको सगल्य्यांना वाट !’

हे नुसते पेढे नाय साहेब

हा माझा आनंद आहे !’

 

मला भरून आलं. मी आतल्या खोलीत गेलो. एका नक्षीदार पाकिटात बक्षिसाची रक्कम भरली.

आतून मोठ्यांदा विचारलं, ‘शिवराम, मुलाचं नाव काय ?’

‘विशाल.’ बाहेरून आवाज आला.

मी पाकिटावर लिहिलं – ‘प्रिय विशाल, हार्दिक अभिनंदन ! नेहमी आनंदात राहा – तुझ्या बाबांसारखा !’

‘शिवराम हे घ्या.’

‘साहेब हे कशाला ? तुम्ही माझ्याशी दोन मिन्टं बोल्लात, यात आलं सगलं.’

‘हे विशालसाठी आहे ! त्याला त्याच्या आवडीची पुस्तकं घेऊ देत यातून.’

शिवराम काहीच न बोलता पाकिटाकडे बघत राहिला.

‘चहा वगैरे घेणार का ?’

‘नको साहेब, आणखी लाजवू नका. फक्त या पाकिटावर काय लिहिलंय ते जरा सांगाल ? मला वाचता येत नाही. म्हनून…’

‘घरी जा आणि पाकीट विशालकडे द्या. तो वाचून दाखवेल तुम्हाला !’ मी हसत म्हटलं.

माझे आभार मानत शिवराम निघून गेला खरा, पण त्याचा आनंदी चेहरा डोळ्यासमोरून जात नव्हता.

खूप दिवसांनी एका आनंदी आणि समाधानी माणसाला भेटलो होतो.

हल्ली अशी माणसं दुर्मिळ झाली आहेत. कोणाशी जरा बोलायला जा, तक्रारींचा पाढा सुरु झालाच म्हणून समजा.

नव्वद, पंच्याण्णव टक्के मिळवूनसुद्धा लांब चेहरे करून बसलेले मुलांचे पालक आठवले.

आपल्या मुलाला / मुलीला हव्या त्या कॉलेजात प्रवेश मिळेपर्यंत त्यांनी आपला आनंद लांबणीवर टाकलाय, म्हणे.

 

आपण त्यांना नको हसूया. कारण आपण सगळेच असे झालोय- आनंद ‘लांबणीवर’ टाकणारे !

माझ्याकडे वेळ नाही, माझ्याकडे पैसे नाहीत, स्पर्धेत टिकाव कसा लागेल, आज पाऊस पडतोय, माझा मूड नाही !’ – आनंद ‘लांबणीवर’ टाकायच्या या सगळ्या सबबी आहेत आहेत हे आधी मान्य करू या.

काही गोष्टी करून आपल्यालाच आनंद मिळणार आहे – पण आपणच तो आनंद घ्यायचा टाळतोय ! Isn’t it strange ?

 

मोगऱ्याच्या फुलांचा गंध घ्यायला कितीसा वेळ लागतो ?

सूर्योदय-सूर्यास्त पाहायला किती पैसे पडतात ?

आंघोळ करताना गाणं म्हणताय, कोण मरायला येणारे तुमच्याशी स्पर्धा करायला ?

पाऊस पडतोय ? सोप्पं आहे. मस्त चिंब भिजायला जा !

अगदी काहीही न करता गादीत लोळत राहायला तुम्हाला ‘मूड’ लागतो ?

माणूस जन्म घेतो, त्यावेळी त्याच्या हाताच्या मुठी बंद असतात.

खरं तर एका हाताच्या बंद मुठीत ‘आनंद’ आणि दुस-या हाताच्या बंद मुठीत ‘समाधान’ सामावलेलं असतं.

माणूस मोठा होऊ लागतो. वाढत्या वयाबरोबर ‘आनंद’ आणि ‘समाधान’ कुठे कुठे सांडत जातं.

आता ‘आनंदी’ होण्यासाठी ‘कोणावर’ तरी, ‘कशावर’ तरी अवलंबून राहावं लागतं.

कुणाच्या येण्यावर-कुणाच्या जाण्यावर. कुणाच्या असण्यावर-कुणाच्या नसण्यावर.

काहीतरी मिळाल्यावर-कोणीतरी गमावल्यावर. कुणाच्या बोलण्यावर- कुणाच्या न बोलण्यावर.

खरं तर, ‘आत’ आनंदाचा न आटणारा झरा वाहतोय. कधीही त्यात उडी मारावी आणि मस्त डुंबावं.

इतकं असून… आपण सगळे त्या झऱ्याच्या काठावर उभे आहोत – पाण्याच्या टँकरची वाट बघत !

जोवर हे वाट बघणं आहे तोवर ही तहान भागणं अशक्य !

इतरांशी तुलना करत आणखीपैसे, आणखी कपडे, आणखी मोठं घर, आणखी वरची ‘पोजिशन’, आणखी टक्के…!

या ‘आणखी’ च्या मागे धावता धावता त्या आनंदाच्या झऱ्यापासून किती लांब आलो आपण !

लेखक – श्री एकनाथ वाघ

संग्राहिका : सौ. दीप्ती गौतम

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆‘विशाल होत चाललाय माझा सूर्य’ – सुश्री अश्विनी कुलकर्णी ☆ परिचय – सौ. मनीषा रायजादे-पाटील ☆

सौ. मनीषा रायजादे-पाटील

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ ‘विशाल होत चाललाय माझा सूर्य’ – सुश्री अश्विनी कुलकर्णी ☆ परिचय – सौ. मनीषा रायजादे-पाटील ☆ 

कवितासंग्रह – विशाल होत चाललाय माझा सूर्य

कवयित्री – अश्विनी कुलकर्णी

प्रकाशक – प्रतिभा पब्लिकेशन,इस्लामपूर

मूल्य – २२० रु

‘विशाल होत चाललाय माझा सूर्य ‘ हा कवयित्री आश्विनी  कुलकर्णी यांचा दुसरा कवितासंग्रह  रसिक वाचकांच्या भेटीला आला आहे .या अगोदर त्यांचा  ‘ शब्दगंध    या पहिल्या कवितासंग्रहाला रसिक वाचकांची भरभरून दाद लाभली आहे. विशाल होत चाललाय माझा सूर्य या कवितासंग्रहास जेष्ठ समीक्षक मा. वैजनाथ महाजन सर यांची सुंदर प्रस्तावना लाभली आहे. तसेच अतिशय देखणे असे असे मुखपृष्ठ चित्रकार सुमेध कुलकर्णी यांनी रेखाटले आहे.जेष्ठ साहित्यिक मा. आनंदहरी अतिशय मार्मिक व प्रेरणादायी पाठराखण केली आहे. तसेच पुस्तकासाठी वापरण्यात आलेला कागद ,छपाई अतिशय चांगल्या प्रतीची असून प्रतिभा पब्लिकेशनने या पुस्तकाची निर्मिती अतिशय दर्जेदार, वाचकाला प्रथम दर्शनी भावणारी व मोहित करणारी अशीच आहे.

कवयित्रीचा जन्म मुंबईसारख्या  स्वप्ननगरीत झाला असला तरी त्या प्रत्येक घटनेकडे उघड्या डोळ्यांनी, चिकित्सक नजरेने पाहतात .  प्रत्येक गोष्टीच्या निरीक्षण, चिंतन मननातून त्यांची कविता जन्म घेते. कवयित्री आपल्या मनोगतात म्हणतातच की, ” कवी सृजनोत्सुक मनाचा असतो. जन्माला घालतो नवीन विचार ..नवीन शब्द ..नवीन भावना आणि नवीन कृती…” कल्पनाशक्ती आणि वास्तवाचे भान यांचा संगम करून लिखाणाद्वारे ‘ शब्दाचीं अपत्ये’ जन्माला घालण्याचं मातृत्व ही खूप मोठी देणगी आहे.आणि खरंच, ही खूप मोठी देणगी माझी सखी कवयित्री अश्विनी कुलकर्णी यांना लाभली आहे.

समाजमनाची अस्वस्थता कवयित्रीच्या मनाला बोचत राहते .आणि तीच अस्वस्थता त्यांच्या लेखणीतून कागदावर उतरत जाऊन  त्यांची  कविता जन्म घेते. या कविता काळजाचा ठाव घेतात. त्यांच्या कवितेत अनुभवाची, भावनांची कितीतरी विलक्षण वळणे आहेत. प्रत्येक वळणात अभावाची, दुःखाची, सकारात्मकतेची, प्रेमाची, विरहाची व मानसिक वृत्तीची परिचित अपरिचित स्पंदने आहेत .भावभावनांच्या  अगणित किरणातून साकारत, शब्दमय होत  त्यांचा सूर्य असा  विशाल होत चाललाय.

कवयित्री अश्विनी कुलकर्णी यांच्या संवेदनशील मनातून अनेक  विषयांची आशयघन मांडणी आपल्या अनेक कवितेतून मांडत आहेत.  कवितासंग्रहातील कविता या विविध विषयांवरील कविता आहेत.. माणूस जसा कुटुंबात, समाजात वेगवेगळ्या नात्यांनी जोडला गेलेला असतो तसेच तो त्याच्या भावतालाशी, निसर्गाशीही विविध भावनात्यांनी जोडला गेलेला असतो. पाऊस हा माणसाच्याच नव्हे तर अवघ्या निसर्गाच्या जगण्याचा अविभाज्य भाग.  पावसाची विविध रुपं कवीचेच नव्हे तर समस्त मानवजातीचे भावविश्व आंदोलीत करत असतात. कवयित्री अश्विनी कुलकर्णी यांच्या कवितेतही याचे प्रतिबिंब दिसून येते. पावसाविना शुष्क झालेल्या धरतीमातेची चिंता त्यांच्या मनात, कवितेत डोकावताना दिसते.. पण ती शब्दातून व्यक्त होत असताना त्यात आजच्या काळातील स्त्री मनाची स्पंदने एकरूप होताना दिसतात. त्या आपल्या कवितेत म्हणतात,

मुसळधार नव्हेच,

रिमझिम ही नाही…

कसा येईल ग्लो धरणीवर?

कोणतं मॉयश्चरायझर लावायचं तिला?

जीवनात पुढे पुढे चालत राहणे हा मानवी स्वभाव आहे. त्याला प्रगती हवी असते.. पण प्रगतीची परिमाणे मात्र व्यक्तीपरत्वे भिन्न भिन्न असतात. एखाद्याला जी बाब प्रगतीची वाटेल ती दुसऱ्याला प्रगतीची वाटेलच असे नाही.  ज्या क्षणी माणसाने यंत्र युगात प्रवेश केला तिथून माणसाच्या प्रगतीच्या व्याख्या इतक्या बदलून गेल्या आहेत की निसर्गाचा एक घटक म्हणून विचार करता मनात प्रश्न निर्माण व्हावा की खरेच ही प्रगती आहे काय ?  हाच प्रश्न कवयित्रीच्या चिंतनशील मनाला सतावत राहतो आणि मग त्या आपल्या कवितेतून विचारतात,

माणसाच्या प्रगतीचा आलेख,

उंचावत असताना, 

निसर्गाच्या जपणुकीचं व्यवस्थापन,

कोलमडतंय का?

कवी-कवयित्रीचे भवतालाशी, निसर्गाशी अतूट असं जिव्हाळ्याचे नाते असते. मुळातच मानवी भावरूपाला भवतालाच्या परिस्थितीचे एक सोनवर्खी कोंदण असते. त्यात संवेदनशीलता, तरलता ल्यालेल्या कविमनावर तर भवतालाच्या रूपाची झुल असतेच. हे सांगताना कवयित्री म्हणते,

सगळीकडे हिरवंगार असतं,

तेव्हा कवींचे शब्द न् शब्द,

हिरवेगार प्रसवतात,

मंद गंधाळताना….

जीवनात संयमाचे महत्व खूप आहे. ‘धीर धरी रे धीरा पोटी, असती मोठी फळे गोमटी ‘ असे म्हणतातच. आजच्या या ‘ झटपट ‘ च्या बदलत्या काळात, जमान्यात धीर, संयम हे शब्दच मुळात दुर्मिळ झालेत.. पण त्यांचे मानवी जीवनात महत्व अबाधित आहे. हेच अबधितत्व अधोरेखित करताना कवयित्री म्हणते, 

उद्या पहाट बघण्या, रात्र ही रोज येते

रात्र संयमाची मोठी, पहाट खंत दूर करते

कवयित्री अश्विनी कुलकर्णी यांनी कविता कधी परखड होते तर कधी ती समजावण्याचा सूर घेऊन येते.  आपल्या समोरची व्यक्ती खरंच साधू आहे की साधुवेशधारी मायावी रावण हे सीतेलाही उमजले नव्हते..  आजही समोर, जवळपास असणारी व्यक्ती खरंच सज्जन आहे की सज्जनपणाचा मुखवटा धारण केलेला कुणी दुर्जन हे  आजच्या सीताही ओळखू शकत नाहीत.. इतकी ही साशंकता, भय पावलोपावली आहे हे आजच्या समाजातील भयाण वास्तव आहे. आणि म्हणून सावध राहायला हवे हे समजावून सांगताना त्या म्हणतात,

पटकन होऊ नये फुलांनी कुणाचं

देऊ नये आपला रंग, गंध, सर्वस्व

कोणत्याही हातांना

कोण जाणे..

किती हात खरेखुरे आहेत सोज्वळ?

कोणत्या हातांनी, आपण कुस्करणार?

कुठं माहीत असतं फुलांना…

कवयित्री अश्विनी कुलकर्णी यांच्या कवितेची शीर्षक पाहिली तर त्यांच्या लेखणीचे सामर्थ्य व नावीन्यपण आपल्या लक्षात येते.  ‘तुडुंब ओळी,  अभद्र मुखवटे, अदृश्य जखम, गैरसमजाच्या गाठी ,केंद्रस्थानची हिरवळ, पोलादी ढाल, नेढ सुईचं, अपराधगंड , शहरातील ऑक्सिजन, तुझ्या अस्थींची पालवी , माफ केलंय अंधाराला, अदृश्य चित्रकार , स्पेस व म्यान इत्यादी.

अतिशय अर्थपूर्ण व नाविन्यपूर्ण विषयांच्या कविता या कवितासंग्रहात नक्की रसिक वाचकांच्या हृदयाचा ठाव घेतील असा विश्वास आहे. असाच वेगळेपण ल्यालेला त्यांचा पुढचा कवितासंग्रह लवकरच रसिक वाचकांच्या भेटीला येईल अशी अपेक्षा आणि खात्री आहे.  कवयित्री अश्विनी कुलकर्णी यांना त्यांच्या पुढील लेखन प्रवासासाठी खूप खूप शुभेच्छा !

प्रस्तुति – सुश्री मनीषा रायजादे-पाटील

सांगली

मो.  9503334279

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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