हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #231 ☆ ज़िन्दगी समझौता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ज़िन्दगी समझौता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 231 ☆

ज़िन्दगी समझौता है… ☆

‘ज़िन्दगी भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और हर स्थिति में मानव को अपनी भावनाओं का त्याग कर यथार्थ को स्वीकारना पड़ता है।’ यदि हम यह कहें कि ‘ज़िंदगी संघर्ष नहीं, समझौता है’, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे औरत को तो कदम-कदम पर समझौता करना ही पड़ता है, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है और कानून द्वारा प्रदत्त समानाधिकार भी कागज़ की फाइलों में बंद हैं। प्रसाद जी की कामायनी की यह पंक्तियां ‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि-पत्र लिखना होगा’—औरत को उसकी औक़ात का एहसास दिलाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ द्वारा नारी जीवन का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी नियति, असहायता, पराश्रिता व विवशता का आभास कराया गया है; जो सतयुग से लेकर आज तक उसी रूप में बरक़रार है।

यहाँ हम आधी आबादी की बात न करके सामान्य मानव के जीवन के संदर्भ में चर्चा करेंगे, क्योंकि औरत के पास समझौते के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं। चलिए! दृष्टिपात करते हैं कि ‘जीवन भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और वह मानव की नियति है।’ यह संघर्ष है…हृदय व मस्तिष्क के बीच अर्थात् जो हमें मिला है… वह हक़ीक़त है; यथार्थ है और जो हम चाहते हैं; अपेक्षित है…वह आदर्श है, कल्पना है। हक़ीक़त सदैव कटु और कल्पना सदैव मनोहारी होती है; जो हमारे अंतर्मन में स्वप्न के रूप में विद्यमान रहती है और उसे साकार करने में इंसान अपना पूरा जीवन लगा देता है। मानव को अक्सर जीवन के कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ता है और उन परिस्थितियों का विश्लेषण व गहन चिंतन-मनन कर के समझौता करना पड़ता है। वैसे भी जीवन की हक़ीक़त व सच्चाई कड़वी होती है। सो! मानव को ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल कर, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है। इस स्थिति में यथार्थ को स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। इसमें सबसे अधिक योगदान होता है…हमारी पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का …जो मानव को विषम परिस्थितियों का दास बना देती हैं और लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त उसे हरपल उनसे जूझना पड़ता है। वास्तव में वे विकास के मार्ग में अवरोधक के रूप में सदैव विद्यमान रहती हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पारिवारिक परिस्थितियों की… जैसा कि सर्वविदित है कि प्रभु द्वारा प्रदत्त जन्मजात संबंधों का निर्वहन करने को व्यक्ति विवश होता है। परंतु कई बार आकस्मिक आपदाएं उसका रास्ता रोक लेती हैं और वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाने को विवश हो जाता है। पिता के देहांत के बाद बच्चे अपने परिवार का आर्थिक- दायित्व वहन करने को मजबूर हो जाते हैं और उनके स्वर्णिम सपने राख हो जाते हैं। अक्सर पढ़ाई बीच में छूट जाती है और उन्हें मेहनत-मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है। उस विषम परिस्थिति में वे सृष्टि-नियंता को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर बैठते हैं कि ‘आखिर विधाता ने उन्हें जन्म ही क्यों दिया? अमीर- गरीब के बीच इतनी असमानता व दूरियां क्यों पैदा कर दीं?’ ये प्रश्न उनके मनोमस्तिष्क को निरंतर कचोटते रहते हैं और सामाजिक विसंगतियाँ–जाति-पाति विभेद व अमीरी-गरीबी रूपी वैषम्य उन्हें उन्नति के समान अवसर प्रदान नहीं करतीं।

प्रेम सृष्टि का मूल है तथा प्राणी-मात्र में व्याप्त है। कई बार इसके अभाव के कारण उन अभागे बच्चों का बचपन तो खुशियों से महरूम रहता ही है; वहीं युवावस्था में भी वे माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल, मनचाहे साथी के साथ विवाह-बंधन में नहीं बंध पाते; जिसका घातक परिणाम हमें ऑनर-किलिंग व हत्या के रूप में दिखाई पड़ता है। अक्सर उनके विवाह को अवैध क़रार कर खापों व पंचायतों द्वारा उन्हें भाई-बहिन के रूप में रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है; जिसके परिणाम-स्वरूप वे अवसाद की स्थिति में पहुँच जाते हैं और चंद दिनों पश्चात् आत्महत्या तक कर लेते हैं।

‘शक्तिशाली विजयी भव’ के रूप में समाज शोषक व शोषित दो वर्गों में विभाजित है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु रूप में खड़े दिखाई पड़ते हैं; जिससे सामाजिक-व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है और उसका प्रमाण इंडिया व भारत के रूप में परिलक्षित है। चंद लोग ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में सुख-सुविधाओं से रहते हैं; वहीं अधिकांश लोग ज़िंदा रहने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। उनके पास सिर छुपाने को छत भी नहीं होती; जिसका मुख्य कारण अशिक्षा व निर्धनता है। इसके प्रभाव-स्वरूप वे जनसंख्या विस्फोटक के रूप में भरपूर योगदान देते हैं। जहाँ तक चुनावों का संबंध है…हमारे नुमांइदे उनके आसपास मंडराते हैं; शराब की बोतलें देकर इन्हें भरमाते हैं और वादा करते हैं– सर्वस्व लुटाने का, परंंतु सत्तासीन होते ये दबंगों के रूप में शह़ पाते हैं।’ आजकल सबसे सस्ता है आदमी…जो चाहे खरीद ले…सब बिकाऊ है…एक बार नहीं, तीन-तीन बार बिकने को तैयार है। यह जीवन का कटु यथार्थ है; जहां समझौता तो होता है, परंतु उपयोगिता के आधार पर और उसका संबंध हृदय से नहीं; मस्तिष्क से होता है।

मानव के हृदय पर सदैव बुद्धि भारी पड़ती है। हमारे आसपास का वातावरण और हमारी मजबूरियाँ हमारी दिशा-निर्धारण करती हैं और मानव उनके सम्मुख घुटने टेकने को विवश हो जाता है …क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प होता ही नहीं। अक्सर लोग विषम परिस्थितियों में टूट जाते हैं; पराजय स्वीकार कर लेते हैं और पुन: उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते। ‘वास्तव में पराजय गिरने में नहीं, बल्कि न उठने में है’ अर्थात् जब आप धैर्य खो देते हैं; परिस्थितियों को नियति स्वीकार सहर्ष पराजय को गले लगा लेते हैं–उस असामान्य स्थिति से कोई भी आपको उबार नहीं सकता अर्थात् मुक्ति नहीं दिला सकता और वे निराशा रूपी गहन अंधकार में डूबते-उतराते रहते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छे की उम्मीद रखना; हमारे आधे दु:खों का कारण है और आधे दु:ख अच्छे लोगों में दोष-दर्शन से आ जाते हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति से शुभ की अपेक्षा करना आत्म-प्रवंचना है, क्योंकि उसके पास जो कुछ होगा; वही तो वह देगा। बुराई-अच्छाई में शत्रुता है… दोनों इकट्ठे नहीं चल पातीं, बल्कि वे हमारे दु:खों में इज़ाफ़ा करने में सहायक सिद्ध होती हैं। अक्सर यह तनाव हमें अवसाद के उस चक्रव्यूह में ले जाकर छोड़ देता है; जहां से मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। उस स्थिति में भावनाओं से समझौता करना हमारे लिए हानिकारक होता है। दूसरी ओर जब हम अच्छे लोगों में दोष व अवगुण देखना प्रारंभ कर देते हैं, तो हम उनसे लाभान्वित नहीं हो पाते और हम भूल जाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति सदैव कल्याणकारी व लाभदायक होती है। इसलिए हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे चंदन घिसने के पश्चात् उसकी महक स्वाभाविक रूप से अंगुलियों में रह जाती है और उसके लिए मानव को परिश्रम नहीं करना पड़ता। भले ही मानव को सत्संगति से त्वरित लाभ प्राप्त न हो, परंतु भविष्य में वह उससे अवश्य लाभान्वित होता है और उसका भविष्य सदैव उज्ज्वल रहता है।

‘मानव का स्वभाव कभी नहीं बदलता।’ सोने को भले ही सौ टुकड़ों में तोड़ कर कीचड़ में फेंक दिया जाए; उसकी चमक व मूल्य कभी कम नहीं होता। उसी तरह ‘कोयला होय न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् ‘जैसा साथ, वैसी सोच’… सो! मानव को सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए, क्योंकि इंसान अपनी संगति से ही पहचाना जाता है। शायद! इसीलिए यह सीख दी गयी है कि ‘बुरी संगति से व्यक्ति अकेला भला।’ सो! व्यक्ति के गुण-दोष परख कर उससे मित्रता करनी चाहिए, ताकि आपको शुभ फल की प्राप्ति हो सके। आपके लिए बेहतर है कि आप भावनाओं में बहकर कोई निर्णय न लें, क्योंकि वे आपको विनाश के अंधकूप में धकेल सकती हैं; जहां से लौटना नामुमक़िन होता है।

सो! यथार्थ से कभी मुख मत मोड़िए। साक्षी भाव से सब कुछ देखिए, क्योंकि व्यक्ति भावनाओं में बहने के पश्चात् उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए सत्य को स्वीकारिए; भले ही उसके उजागर होने में समय लग जाता है और कठिनाइयां भी उसकी राह में बहुत आती हैं। परंतु सत्य शिव होता है और शिव सदैव सुंदर होता है। सो! सत्य को स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। जीवन में संघर्ष रूपी राह पर यथार्थ की विवेचना करके समझौता करना सर्वश्रेष्ठ है। जब गहन अंधकार छाया हो; हाथ को हाथ भी न सूझ रहा हो…एक-एक कदम निरंतर आगे बढ़ाते रहिए; मंज़िल आपको अवश्य मिलेगी। यदि आप हिम्मत हार जाते हैं, तो आपकी पराजय अवश्यंभावी है। सो! परिश्रम कीजिए और तब तक करते रहिए; जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। संबंधों की अहमियत स्वीकार कीजिए; उन्हें हृदय से महसूसिए तथा बुरे लोगों से शुभ की अपेक्षा कभी मत कीजिए। बिना सोचे-विचारे जीवन में कभी कोई भी निर्णय मत लीजिए, क्योंकि एक ग़लत निर्णय आपको पथ-विचलित कर पतन की राह पर ले जा सकता है। सो! भावनाओं को यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही सदैव निर्णय लेना तथा उसकी हक़ीक़त को स्वीकारना श्रेयस्कर है। यथा-समय, यथा-स्थिति व अवसरानुकूल लिया गया निर्णय सदैव उपयोगी, सार्थक व अनुकरणीय होता है। उचित निर्णय व समझौता जीवन-रूपी गाड़ी को चलाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, उपादान है; जो सदैव ढाल बनकर आपके साथ खड़ा रहता है और प्रकाश-स्तंभ अथवा लाइट-हाउस के रूप में आपका पथ-प्रशस्त करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चिरंजीव ? ?

लपेटा जा रहा है

कच्चा सूत

पुराने बरगद के

चारों ओर..,

आयु बढ़ाने की

मनौती से बनी

यह रक्षापंक्ति

अपनी सदाहरी

सफलता की गाथा

सप्रमाण कहती आई है,

कच्चे धागों से बनी

सुहागिन वैक्सिन

अनंतकाल से

बरगदों को

चिरंजीव रखती आई है!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ – Sand of Time… – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Ministser of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem Sand of TimeWe extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ Sand of Time…?

It’s not that I have changed

grossly ever since you left

I am still the very same

ever since you departed..

*

If you think I am wrong,

then also you’re totally right,

Because you always happened

to be correct, customarily…

*

As such, I’ve a genetic lineage

with the dynasty of pain..

Incidentally, you also did

accentuate it, drastically…

*

I too want to celebrate the

life to its fullest extent…

But the sand of time is slipping

too fast through my hand..!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 6 – नवगीत – प्रिय नेताजी… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – प्रिय नेताजी…

? रचना संसार # 6 – नवगीत – प्रिय नेताजी…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

प्रिय नेताजी,

तुमसे विनती करती जनता,

बातें हैं सब सच्ची।

 *

काश ! ग़रीबी मिट जाए यह,

कर भी लो कुछ वादा।

मरें सड़क पर हम सब भूखे,

ज्यों बिसात के प्यादा।

तरस रहे मिल जाए हमको,

चाहे रोटी कच्ची।

 *

सोते रहते हो महलों में,

मखमली बिछौने पर।

फुटपाथों पे हम रह खाते,

भी पत्तल-दौने पर।।

जीवन अब तो नर्क हुआ है,

खाते हरदम गच्ची।

 *

करो निदान समस्याओं का,

पा जाएँ संरक्षण।

मिल जाए हमको भी थोड़ा,

सेवा में आरक्षण।।

अच्छे दिन कब तक आएँगे,

पूछे घर की बच्ची।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 356 ⇒ साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे …।)

?अभी अभी # 356 ⇒ साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, हमारे १४० करोड़ की आबादी के देश में लोग अनपढ़ भी हो सकते हैं, और शिक्षित भी।

जो निरक्षर है, उसे आप काला अक्षर भी कह सकते हैं, जो साक्षर है, हो सकता है, वह सिर्फ ढाई अक्षर ही पढ़ा हो, लेकिन हमें सबसे अधिक उम्मीद देश के पढ़े लिखे लोगों से होती है।

फिलहाल हमारी साक्षरता दर ७७ प्रतिशत है, अगर इसे अस्सी भी मान लिया जाए तो बीस प्रतिशत आबादी अभी भी अंगूठा छाप है। निरक्षरता के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन अस्सी प्रतिशत साक्षर आबादी में ही सभी शिक्षित भी शामिल हैं। जनगणना (census) के वक्त ही यह पता चल सकता है कि देश में कितने शिक्षित हैं और कितने साक्षर। हर परिवार में कौन कितना पढ़ा लिखा है, यह जानकारी भी जनगणना के वक्त ही एकत्रित कर ली जाती है।।

फिल्म, टीवी, मोबाइल और अखबारों ने लोगों को पढ़ना, लिखना, बोलना सिखाया है, व्यावहारिक कुशलता का और काम धंधे का वैसे तो पढ़ने लिखने से कोई संबंध नहीं है, फिर भी नौकरियों के लिए हर आदमी को पढ़ना लिखना और डिग्री हासिल करना ही पड़ता है।

हमारे देश में शिक्षा से अधिक कार्य कुशलता पर जोर दिया गया। घर की महिलाएं हों, अथवा कामकाजी पुरुष, लड़कियां गृह कार्य में कुशल होती थीं और लड़के पिताजी के काम धंधे में हाथ बंटाते थे। वैसे भी कभी हमारा देश कृषि प्रधान देश था, और गांवों में ही बसता था।।

आजादी के बाद से ही हमें अपनी वास्तविक स्थिति का पता चल पाया। आज हम चलते चलते यहां पहुंचे हैं। उपयोगिता के आधार अगर देखा जाए, तो शिक्षा की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता।

एक साधारण पुराना पांचवीं अथवा आठवीं पास व्यक्ति आज भी आराम से अपना काम धंधा कुशलता से चला लेता है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी उसे अधिक अधिक शिक्षित होने के लिए बाध्य कर देती है।

सन् ६० और ७० के दशक में, जब हमारी पीढ़ी कॉलेज में पढ़ रही थी, तब देश में बाबुओं की फौज (Clerk generation) खड़ी हो रही थी। कोई  बी.ए., बी.एससी. करके बैंक और एलआइसी ज्वाइन कर रहा था, तो कोई शासकीय सेवक अथवा शिक्षक। लेकिन रिटायर होते होते वे पदोन्नत भी होते गए, और आज अच्छी पेंशन पा रहे हैं। यही नहीं, उन्होंने अपनी मेहनत और पुरुषार्थ से अपनी पीढ़ी को इतना शिक्षित और सक्षम बनाया कि आज वह दुनिया के हर कोने में अपने माता पिता का नाम रोशन कर रही है।।

लेकिन वही बात, पांचों उंगलियां कहां बराबर होती हैं। शहर और महानगरों की चकाचौंध हमेशा सिक्के का एक ही पहलू ही दर्शाती है। एक और तस्वीर भी है देश की बड़ी आबादी की, जिसकी हालत बहुत चिंताजनक है। अशिक्षा, अंधविश्वास, बेरोजगारी, और पिछड़ेपन के शिकार, इन लोगों की बदहाली तक केवल चुनाव प्रचार ही पहुंच पाता है।

इनके ही बहुमत से तो सरकारें चुनी जाती हैं।

एक व्यापारी अथवा दुकानदार जो कम लिखा पढ़ा है, अपने यहां अधिक पढ़े लिखे शिक्षित कर्मचारी को सेवा में रख उसकी योग्यता का दोहन कर सकता है। देश की उत्पादकता वृद्धि में हर मजदूर, किसान, व्यापारी और शिक्षित वर्ग का अपना अपना योगदान है। क्या फर्क पड़ता है, कौन कितना पढ़ा लिखा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #231 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 231 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

तपकर बालक धूप में, करता श्रम मजदूर।

ईट उठाए शीश पर, है कितना मजबूर।।

*

खातिर अपने पेट की, सहे धूप की मार।

उसे न्याय मिलता नहीं, होती उसकी हार।।

*

बुनता सपने रात दिन, होते चकनाचूर।

अपनों का आश्रय नहीं, जीने को मजबूर।।

*

खून पसीना एक कर, नेक करें  वो काम ।

श्रमिकों के पुरुषार्थ से, बढ़े देश का नाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #213 ☆ एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है… आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 213 ☆

☆ एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हमारी खुशी के लिए एक मुस्कान काफी है

आप रहेंगे दिल में बस ये अरमान काफी है

*

हम ये नहीं कहते कि हमारे पास आ जाओ

हमें तुम याद रखती हो यह अहसान काफी है

*

आप  हमारे  हैँ  हम आपके ये हमारे लिए

बस हमारी यही एक सुखद पहचान काफी है

*

प्यार की कब बकालत की इस दुनिया ने कभी

प्रेमियों को लगता है उनका अवदान काफी है

*

न  जाने  किस  कसौटी  में कसती रही दुनिया

प्यार  के  लिए तो  बस  एक इम्तिहान  काफी है

*

हों सच्चे अहसास प्यार में समाज के भी यहाँ

जिसके लिए सच्चा सामाजिक संज्ञान काफी है

*

प्यार में मिलेगा सुखद “संतोष” तब ही सभी को

होगा जब उनका सही मान सम्मान काफी है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचनाएँ/Information ☆ आलेख आमंत्रित – मारीशस में हिन्दी भाषा, साहित्य और पत्र-पत्रिकाएं : विकास और मूल्यांकन ☆ साभार – डॉ अमित कुमार गुप्ता ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

डॉ अमित कुमार गुप्ता

☆ आलेख आमंत्रित – मारीशस में हिन्दी भाषा, साहित्य और पत्र-पत्रिकाएं : विकास और मूल्यांकन ☆ साभार – डॉ अमित कुमार गुप्ता ☆ 

निम्नलिखित विषयों पर आपके आलेख सादर आमंत्रित हैं:- 

१:- मॉरीशस में हिंदी पत्रिका की अवधारणा।

२:- मॉरीशस में हिंदी पत्रिका का स्वरूप और नामकरण।

३:- मॉरीशस की पत्रिका में पत्रकारिता।

४:- मॉरीशस में लोकगीत और संस्कृति

५:- मॉरीशस में भारतीय संस्कृति एवं परिवेश बोध।

६:- मॉरीशस में फ्रेंच भाषा और हिंदी भाषा का प्रभाव।

७:- मॉरीशस का इतिहास और नामकरण।

८:- मॉरीशस की पत्रिका में विभिन्न प्रवासी साहित्यकारों का योगदान।

९:-मॉरीशस में विश्व हिंदी पत्रिका का योगदान।

१०:- मॉरीशस में विश्व हिंदी पत्रिका का नामकरण एवं स्वरूप।

११:- मॉरीशस में विश्व हिंदी पत्रिका में भारतीय संस्कृति का अंत:संबंध।

१२:-मॉरीशस में गिरमिटिया मजदूरों पर फ्रांसीसियों का प्रभाव एवं शोषण।

१३:- प्रवासी हिंदी साहित्य का अर्थ, अवधारणा, स्वरूप,नामकरण और उद्देश्य।

१४:- मॉरीशस की विश्व हिंदी पत्रिका में भारतीय लेखकों का प्रभाव एवं मूल्यांकन।

१५:-मॉरीशस में चर्चित पत्रिकाओं का सामान्य परिचय।

१६:- मॉरीशस में प्रवासी हिंदी लेखकों का सामान्य परिचय।

आलेख भेजने की अंतिम तिथि  – 15/5/2024

प्रकाशक:-

वान्या पब्लिकेशन, शुभम बाजपेयी, कानपुर नौबस्ता, उत्तर प्रदेश।

संपर्क सूत्र:- 9450889601 [email protected]

प्रो. (डॉ ) बलराम गुप्ता, हिंदी विभाग विभागाध्यक्ष, शिव हर्ष किसान पी. जी कॉलेज बस्ती, उत्तर प्रदेश।

संपर्क सूत्र:- 9455163128

डॉ. अमित कुमार गुप्त, विधि शास्त्र, वैदिक विज्ञान केंद्र, काशी हिंदू विश्वविद्यालय,वाराणसी

संपर्क सूत्र:-  9140889509, 7786028105, [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नातेसंबंध… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

नातेसंबंध… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

नाते असे ग सुंदर

त्याला मायेचा पदर

माय-लेकीचे सुंदर

त्याला ममतेचे अस्तर

*

बाप-लेकाचे ते नाते

ठरतसे जे अनमोल

भाऊ-बहिणीचे नाते

माया पाझरते खोल

*

काका-मामांचे ते नाते

मना सादही घालते

आत्त्या -मावशीचे नाते

जवळीक ग साधते

*

स्वकियांचे असे नाते

बोलविता साथ देते

स्वकियांच्या ही सवे ते

परकियांशी जुळते

*

नाते-गोते ते जुळते

सर्वा बद्ध ते करिते

सर्वा पलिकडे असे

मानवतेचे ग ते नाते

*

नाती-गोती ही जपता

होऊ जगी भाग्यवंत

एकी साधत-साधत

होऊ आम्ही यशवंत  ||

© सुश्री दीप्ती कोदंड कुलकर्णी

हैदराबाद.

भ्र.९५५२४४८४६१

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 221 ☆ व्यासंग… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

Please share your Post !

Shares